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बोड ६ट्ठा ४९६ से ४९९ तक . भगवती शतक १८ उद्देशा १० के मूलपाठमें उत्सर्ग मार्गमें अनेषणिक आहार साधुको अभक्ष्य कहा है कारण दशामें नहीं।
बोल सातवां षष्ट ४९९ से ५०० तक . नित्य पिण्ड और उद्दिष्ट भक्त दोनों ही दुर्गतिके कारण कहे गये हैं। परन्तु कई नामधारी साधु विना कारण ही नित्य पिण्ड लेते हैं।
इति अल्प पाप बहु निर्जगधिकारः।
अथ कपाटाधिकारः।
बोल १ पृष्ट ५०१ से ५०२ तफ तेहपंथी साधु अपने हाथसे खिडकीका कपाट खोरते हैं और बन्द करते हैं।
भीषणजो खिड़कीका कपाट खोल कर रातमें बाहर गए थे तथा सोजदमें व जी नाथाजी आदि सात आUओंको अपने हाथसे छत्रीका कपाट खोल कर उतारा था।
बोल दूसरा पृष्ठ ५०२ से ५०३ तक . उत्तराध्ययन सूत्र अ० ४ गाथा ३५ में इन्द्रियोंकी चंचलताको रोकनेके लिये कहा है कि साधु, मनोहर, चित्र युक्त मल्य और धूपसे सुवासित तथा कपाट वाले मकान में न रहे, कपाट बन्द करने और खोलनेके भयसे उक्त मकानमें रहने का निषेध नहीं है।
___ बोल तीसरा पृष्ट ५०४ मावश्यक सूत्रमें विना पूजे कपाट खोलने का प्रायश्चित स्वरूप मिच्छामिदुकई देना कहा है पूज कर खोकनेका नहीं है ।
बोल ४ पृष्ठ ५०४ से ५०५ तक। मुय० गाथा बाम्ह तेरहमें अकेला विहार करने वाले साधुके लिये कपाट बन्द करने का निषेध किया है स्थविर कल्पीके लिये नहीं।
बोल पांचवां पृष्ठ ५०६ से ५०७ तक दश वैकालिक अ०५ उ० १ गाथा १८ में सण आदिके पर्देसे ढके हुए द्वारको गृहस्थकी आज्ञासे कारण दशःमें खोलनेका विधान किण है।
___ आचारांग सूत्रमें गृहस्वामीकी आज्ञासे प्रमाजन आदि करके गृहस्थके द्वार खोलनेका विधान किया गया है।
___ बोल छट्ठा पृष्ठ ५०७ ५०८ सेतक पाचारांग सूत्रके मूलपाठमें कपाट खोलने और बन्द करनेके भयसे कपाटवाले मकान रहनेका निषेध नहीं है किन्तु गृहस्थके संसर्ग वाले गृहमें रहनेका निषेध किया गया है।
बोल सातवां पृष्ठ ५०८ से ५१२ तक . . . हत्कल्प सूत्रके माध्यमें कारण पड़ने पर साधुको जयणाके साथ कपाद खोलने और बन्द करनेका विधान किया है।
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