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बोल १० वां पृष्ठ ४८२ से ४८३ तक
nto प्रकार के ज्ञानाचारोंमें दोष लगाने वाला पार्श्वस्थ कहा जाता है। आचाराङ्गारि अङ्ग और उत्तराध्ययनादि बाह्य अङ्गोंको पढ़ कर जो सम्यकूत्वका लाभ करता है उसे उत्तराध्ययन सूत्रमें सूत्र रूचि कहा है ।
इति सूत्र पठनाधिकारः । अथ क्रियाधिकारः ।
बोल १ पृष्ठ ४८४ से ४८४ तक
आज्ञा बाहरकी करनी से भी पुण्य वन्ध होता है ।
बोल दूसरा पृष्ठ ४८४ से ४८५ तक
मिथ्या दर्शनी भी अकाम निर्जरा आदि आज्ञा बाहरकी करनी करके स्वर्गगामी होते हैं ।
बोल तीसर1 पृष्ठ ४८५ से ४८६ तक
आचा, उपाध्याय, कुल, गण और संघकी निन्दा करने वाले वीतरागकी आज्ञाका अनागधक अज्ञानी, आज्ञा बाहरकी क्रियासे स्वर्गगामीं होते हैं यह उवाई सूत्रमें कहा है । इति क्रियाधिकारः ।
अथ अल्प पाप बहु निर्जराधिकारः ।
बोल १ पृष्ठ ४८७ से ४८९ तक
तथा रूपके श्रमण माइन को व्यकल्पनीय आहार देने वाले श्रावकको थोड़ा पाप और अधिक निर्जरा होना भगवती शतक ८ उद्देशा ६ में कही है ।
बोल दूसरा पृष्ठ ४८९ से ४९० तक
reater करने अल्पवर पाप शब्दका अर्थ निर्जराकी अपेक्षा थोड़ा पाप लिम्बा है पाप न होना नहीं ।
बोल तीसरा पृष्ट ४९० से ४९१ तक
बहु शब्दके साथ बाया हुआ अल्प शब्दका कहीं भी अभाव अर्थ नहीं होता । बोल चौथा पृष्ठ ४९१ से ४९२ तक
आचारांग सूत्रकी स्वरचित टव्त्रा अर्थ में जीतमलजीने 'अफासुअं' का अर्थ अकल्पनीय कहा है |
बोल पांचवां ४९२ से ४९६ तक
भगवतों शतक पांच उद्दे शा ६ के मूलप ठमें आधाकर्मी आहार बनाने और झूठ बोल कर उसे साधुको देनेमें जो प्राणातिपात और मिथ्या भाषण होता है उससे अल्प आयुका बन्धन होना कहा है वह अल्प आयु क्षुल्लक भव ग्रहण रूप नहीं है किन्तु दीर्घ आयुकी अपेक्षासे अल्प है ।
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