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बोल तीसरा पृष्ठ ४५७ से ४५८ तक शब्द आदि तीन नय वालोंके मतसे नव ही तत्व जीव हैं। किसी अपेक्षासे एक जीव और आठ अजीव हैं। किसी अपेक्षासे एक जीव और आठ जीव हैं । बोल चौथा पृष्ठ ४५८ से ४५९ तक
किसी अपेक्षासे चार जीव और पांच अजीव हैं । बोल पांचवां पृष्ठ ४५९ से ४६० तक
एक अपेक्षासे एक जीव, एक अजीव और सात दोनोंके पर्याय हैं । इति नव तत्त्वविचारः ।
अथ जीवभेदाधिकारः ।
बोल १ पृष्ठ ४२१ से ४६३ तक
प्रथम नारकि भुवनपति और व्यन्तर देवोंमें जीवका तीसरा भेद न मानना सूना है, बोल दूसरा पृष्ट ४६३ से ४६४ तक
असंज्ञोसे मर कर प्रथम नारकि भुवनपति और व्यन्तर देवोंमें उत्पन्न होने वाले जीवोंको शास्त्रमें कहीं भी संज्ञो नहीं कहा है अतः पन्नावणा सूत्रके मनुष्य विषयक पाठक' दृष्टान्त देकर उक्त जीवोंमें असंज्ञीका अपर्याप्त भेद न मानना अज्ञान है । बोल वीसर । पृष्ठ ४६४ से ४६५ तक
छोटे बालक और बालिका मनोयुक्त होते हैं मनोविकल नहीं होते इसलिये इनका दृष्टान्त देकर असंज्ञोसे मर कर प्रथम नारकि भुवनपति और व्यन्तर देवों में उत्पन्न होने वले जीवों में असंज्ञीका अपर्याप्त भेद न मानना अज्ञान मूलक है ।
बोल चौथा पृष्ठ ४६५ से ४६६ तक
कीडी आदि जीवोंको दशवेकालिक सूत्रमें छोटा होने के कारण सुक्ष्म कहा है, सुक्ष्म जीवका भेद मान कर नहीं क्योंकि वे त्रस जीवमें गिने गये हैं परन्तु व्यसंज्ञी से मरकर नारकियादिमें उत्पन्न होने वाले जीव कहीं भी संज्ञी नहीं कहे हैं अतः उनमें असंज्ञीका भेद न मानना अज्ञान है ।
बोल पांचवां पृष्ठ ४६६ से ४६७ तक
संमूर्छिम मनुष्यका दृष्ठान्त देकर प्रथम नारकि भुवनपति और व्यत्वर देवोंमें असंज्ञके अपर्याप्त भेदका निषेध करना भिथ्या है ।
बोल छट्ठा पृष्ट ४६७ से ४६८ तक
भगवती शतक १३ उद्देशा २ के मूलपाठमें असुरकुमार देवतामें नपुंसक वेदका निषेध इस लिये किया है कि उनकी वह अवस्था अन्तमुहूर्तकी होती है ।
इति जीवभेदाधिकारः ।
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