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बोल सातवां पृष्ठ ४२९ से ४३० तक . भगवती शतक १२ उद्देशा ५ के मूलपाठमें तीन दृष्टियों को मरूपी और मिथ्यादर्शनशल्य को रूपी कहा है अत: मिथ्यात्व आश्रव एकान्त अरूपी नहीं हो सकता।
बोल आठवां पृष्ठ ४३० से ४३२ तक कृष्ण लेश्या संसारी जीव का परिणाम है । संसारी जीव भगवती शतक १७ उद्देशा २ में रूपी भी कहा है अत: कृष्णलेश्या रूपी भी सिद्ध होती है।
... बोल नवां पृष्ठ ४३२ से ४३३ तक . सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के होने पर जो क्रिया की जाती है वह जीव की हो या पुद्गल की हो क्रमशः सम्यक्त्व क्रिया और मिथ्यात्व क्रिया कही जाती हैं।
बोल दशवां पृष्ठ ४३३ से ४३४ तक ठाणाङ्ग ठाणा १० के पाठ को साक्षी से आश्रव को एकान्त जीव बतलाना मिथ्या है।
बोल १वां पृष्ठ ४३४ से ४३५ तक भगवती शतक १७ उद्देशा २ के मूल पाठ की साक्षी से आश्रव को एकान्त जीव कहना अज्ञान है।
बोल १२ वां पृष्ठ ४३५ से ४३८ तक ठाणाङ्ग ठाणा १० के मूल पाठ में रूपी अजीव भी जीव का परिणाम कहा गया है।
बोल तेरहवां पृष्ठ ४३८ से ४३९ तक भाव गति आदिको जीवका परिणाम मान कर द्रव्य गति आदिको जीव का परिणाम न मानना मूलपाठ और टीकासे विरुद्ध है।
बोल चौदहवां पृष्ठ ४३९ से ४४० तक ___ दुग्ध जल की तरह एकाकार होकर रहनेसे गति आदिको ठाणांग ठाणा दशमें जीवका परिणाम कहा है।
बोल १५ वां पृष्ठ ४४० से ४४१ तक भगवती शतक १२ उद्देशा १० में कषाय और योगको आत्मा कहा है । कषाय और योग रूपी हैं इस लिये संसारी आत्मा भी रूपी हैं और कषायाश्रव तथा योगाश्रव भी रूपी हैं।
वोल १६ वां पृष्ठ ४४१ से ४४१ तक भाव कषाय और भाव योग को आत्मा मान कर द्रव्य कषाय और द्रभ्य योगको मात्मा न मानना शास्त्र विरुद्ध है।
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