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अथ पुण्याधिकारः । बोल १ पृष्ठ ४१२ से ४१३ तक
पुण्यानुवन्धी पुण्य आदरणीय है, मोक्षार्थी पुरुष भी इसका आदर करते हैं । बोल दूसरा पृष्ठ ४१३ से ४१४ तक
साधन दशामें मोक्षार्थी भी पुण्य फलका आदर करते हैं । बोल तीसरा पृष्ठ ४१४ से ४१६ तक
मनुष्य शरीर पुण्यका फल है मोक्षार्थियोंके लिये इसकी आवश्यकता उसी तरह है जैसे नदी से पार जाने वालेको नौका की ।
बोल चौथा पृष्ठ ४१६ से ४१९ तक
भगवती शतक १ उद्देशा ७ में कही हुई पुण्यकामना और स्वर्गकामना बुरी नहीं है किंतु मोक्षका उपकारक है ।
इति पुण्याधिकारः ।
अथ आश्रवाधिकारः ।
बोल १ ४२० से ४२१ तक
पांच इन्द्रिय, ग्वार कषाय, पांच अव्रत, पचीस क्रिया, तीन योग ये ४२ आश्रव है ।
पचीस क्रियाएं
अजीव भी हैं।
बोल दूसरा ४२१ से ४२५ तक
अजीव की कही हैं और वे आश्रव हैं इस लिये आश्रव
बोल तीसरा पृष्ठ ४२५ से ४२६ तक
पुण्य पाप और वन्ध भी व्यवहार दशा में जीव हैं इन्हें एकान्त अभीव कहना अज्ञान है ।
बोल चौथा पृष्ठ ४२६ से ४२७ तक
भगवती शतक १७ उद्देशा २ में सराग सलेश्य और समोह जीव को रूपी कहा है अतः जीव स्वरूप माश्रव भी रूपी सिद्ध होता है उसे एकान्त अरूपी कहना अज्ञान है ।
बोल पांचवां पृष्ठ ४२७ से ४२८ तक
पाप, पुण्य, बंध, ये व्यवहार दशामें जीव और निश्चयनयके अनुसार अजीव हैं इन्हें एकान्त जीव या एकान्त अजीव कहना मिथ्या है ।
बोल छट्ठा पृष्ठ ४२८ से ४२९ तक
ठाणा ठाणा ५ के मूलपाठसे व्यश्रवको एकान्त अरूपी और जीव सिद्ध करना जनताको धोखा देना है ।
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