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अ०१३ / प्र०१
भगवती-आराधना / २९ बतलाया जाना, ये इस बात के सबूत हैं कि प्रथमशती ई० की भगवती-आराधना में स्पष्ट शब्दों में स्त्रीमुक्ति का निषेध किया गया है। केवलिभुक्ति-निषेध के प्रमाण आगे दिये जा रहे हैं।
स्त्रीमुक्ति की मान्यता यापनीयमत का दूसरा मौलिक सिद्धान्त है। उसका निषेध होने से सिद्ध है कि भगवती-आराधना यापनीय-परम्परा का नहीं, अपितु दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है।
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गृहिलिंग-परलिंग-मुक्तिनिषेध जैसा कि पूर्वोद्धृत प्रमाणों से सिद्ध है, भगवती-आराधना में मुनि के लिए एकमात्र अचेललिंग का विधान है, आपवादिक सचेललिंग का विधान नहीं हैं। उसका विधान केवल श्रावक के लिए है, और वह भी जब उसका त्यागकर पूर्ण अपरिग्रही बन जाता है, तभी मुक्ति का पात्र होता है। भगवती-आराधना में यह भी कहा गया है कि वस्त्रादि-परिग्रहधारी को संयतगुणस्थान की प्राप्ति नहीं होती तथा देशविरत (श्रावक) बालपण्डितमरण करने पर नियम से सौधर्मादिकल्पों में उत्पन्न होता है और अधिक से अधिक सात भवों में निश्चितरूप से मुक्त हो जाता है।८ इससे स्पष्ट है कि ग्रन्थकार को गृहस्थों और जैनेतर-लिंगधारियों की मुक्ति स्वीकार्य नहीं है। यह भगवतीआराधना के यापनीयग्रन्थ न होकर दिगम्बरग्रन्थ होने का अन्य प्रमाण है।
केवलिभुक्तिनिषेध भगवती-आराधना में सम्यक्त्व के अतीचारों का वर्णन करते हुए कहा गया है
सम्मत्तादीचारा संका कंखा तहेव विदिगिंछा।
परदिट्ठीण पसंसा अणायदणसेवणा चेव॥ ४३॥ अनुवाद-"शङ्का, कांक्षा, विचिकित्सा (ग्लानि), परदृष्टियों की प्रशंसा तथा अनायतनों की सेवा. ये सम्यक्त्व के अतीचार हैं।"
२८. आलोचिदणिस्सल्लो सघरे चेवारुहितु संथारं।
जदि मरदि देसविरदो तं वुत्तं बालपंडिदयं ॥ २०७८॥ वेमाणिएसु कप्पोवगेसु णियमेण तस्स उववादो। णियमा सिज्झदि उक्कस्सएण वा सत्तमम्मि भवे ॥ २०८० ॥ भगवती-आराधना।
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