Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गुमास्थान/१५
सम्यक्त्वप्रकृति के उदय से वेदकसम्यक्त्व (क्षयोपशम-सम्पत्व) होता है । इस प्रकार वेदकसम्यक्त्व क्षायोपशमिकभाव है, अत: सम्यक्त्वप्रकृति के उदयमात्र से वेदकसम्यक्त्व (क्षयोपशम सम्यक्त्व) होता है। वेदक सम्यक्त्वप्रकृति के स्पर्धकों की क्षय संज्ञा है, क्योंकि उनमें सम्यग्दर्शन के प्रतिबन्धन की शक्ति का अभाव है। मिथ्यात्व और मिथ इन दोनों प्रकृतियों के उदयाभाव को उपशम कहते हैं। उपर्युक्त शय और उपशम इन दोनों के द्वारा उत्पन्न होने से क्षायोपमिक है ।।
गाथा के कार्य द्वार' मा सहा गया है कि अविरल पदष्टि नामक चतुर्थगुणस्थान तक चारित्र नहीं होता, क्योंकि संयम का घात करने वाले कर्मों के तीव्र उदय से इन चार गुणस्थानों में असंयत होता है अर्थात् अप्रत्याख्यानावरणकषाय चतुष्क के उदय से असंयलभाव होता है, अतः असंयतभाव प्रौदयिक है ।
देणसंयतादि उपग्मि गुगारथानों में भावों का कथन देसविरदे पमत्ते इदरे य खोयसमिय भावो दु । सो खलु चरित्तमोहं पडुच्च भरिणयं तहा उरिं ॥१३॥ तत्तो उरि उवस मभावो उवसामगेसु खबगेसु ।
खइयो भावो रिणयमा अजोगिचरिमोत्ति सिद्ध य ॥१४।। गाथार्थ - चारित्रमोहनीय कर्म की अपेक्षा देशविरत,प्रमत्तसंयत अर्थात् पाँचवें, छठे, सातवें इन तीन गुणस्थानों में क्षायोपमिकभाव होता है ।।१३॥ सप्तम गुणस्थान से ऊपर चारित्रमोहनीय कर्म का उपणम करने वाले के अर्थात् उपशमश्रेणी के पाठवं, नवमें, दसवें और ग्यारहवें गुणस्थान में प्रोपगामिक भाव होता है तथा चारित्रमोहनीय का क्षय करने वाले प्रयोगकेवली पर्यन्त अर्थात् क्षपकश्रेणी के आठवें, नवमें, दसवें, बारहवें, तेरहवे, चौदहवें गुणस्थान में और सिद्धों में भी क्षायिक भाव नियम से होता है ।।१४।।
विशेषार्थ · संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत यह कौनसा भाव है ? क्षायोपमिक भाव है, क्योंकि क्षयोपशमनामक चारित्रमोहनीय कर्म (देशघाती स्पर्धकों) के उदय होने पर संयतासंयत (देशविरत), प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतपना उत्पन्न होता है, अतः ये तीनों ही भायोपशमिकभाव हैं । प्रत्याख्यानावरण करायचतुक, सज्वलन कषायचतुटक और नव नोकषायों के उदय के सर्वप्रकार से चारित्रबिनाश करने की शक्ति का अभाव है, इसलिए उनके उदय को क्षय संज्ञा है। उन्हीं प्रकृतियों के उदय में उत्पन्न हुए चारित्र का प्रावरण नहीं करने के कारण उपशम संज्ञा है।
अथवा सर्वघाती म्पर्धक अनन्तगुरणे हीन होकर और देशघाती स्पर्धकों में परिणत होकर उदय में प्राते हैं। उन सर्वघातो स्पर्धकों का अनन्तगुणहीनत्व ही क्षय है एवं उनका देशघातीस्पर्धकोंरूप से प्रवस्थान होना उपशम है। उन्हीं क्षय और उपशम से संयुक्त उदय क्षयोपशम है । इसो क्षयोपशम से उत्पन्न प्रमत्तसंयत व अप्रमत्तसयत भी क्षायोपशमिक है।
३. घ. पु. ५ पृ २०१; सूत्र ७ 1
१. घ. पु. ५ पृ. २११ । ४. ध पू. ५ पृ. २०३।
२. प. पु. ५ पृ. २०१; मूत्र ६ की टीका। ५. ध. पू १.६२ ।