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सहजानन्दयास्त्रमालायां
सर्वे अपि सर्वगतज्ञानाव्यतिरिक्तस्य भगवतस्तस्य ते विषया इति भरिगतत्वात्तद्गता एवं भवन्ति । तत्र निश्वयनयनानाकुलत्व लक्षण सौख्य संवेदनश्वाधिष्ठानत्वावच्छिन्नात्मप्रमाज्ञानस्त्रतत्त्वापरित्यागेन विश्वशेघाकाराननुपगम्यावबुध्यमानोऽपि व्यवहारनयन भगवान् सर्वगत इति व्यपदिश्यते । तथा नमित्तिकभूतज्ञेयाका रानात्मस्थानवलोक्य सर्वऽर्थास्तद्गता इत्युपचर्यते न तेषां परमार्थतोऽन्योन्यगमनमस्ति सर्वद्रव्याणां स्वरूपनिष्ठत्वात् । अयं को ज्ञानेऽपि नि प्रवेयः ॥ २६ ॥
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प्रथमा एक. मन अट्टा स तद्गताः अर्था:-प्र० । जगदि जगत-सातमी एकमादी ज्ञानमयत्वात् १० ए० जिणां जिन: । विमयादी विषयत्वात्-पं० ए० । तस्म तम्य षष्ठी एक ते ते बहु । भणिदा भणिताः प्र० बहु कृदन किया। निरुक्ति (सर्व गतः सर्वगत) अर्थइति अर्थाः ज्ञानेन निवृत ज्ञानमय नम्मात् । समास जिनेषु वृषभ: श्रेष्ठ: जिनण्यासवृपति वाजिनवृपः स्मिन् गताः तद्गता ॥२६॥
तथ्यप्रकाश....... (१) त्रिलोकत्रिकालवर्ती सर्व पदार्थों में पहुंचा हुआ ज्ञान सर्वगत है । ( २ ) सर्वगतज्ञानमय भगवान भी सर्वगत हैं । (३) सर्व पदार्थ ज्ञानमें प्रतिविम्वित होनेसे सर्वज्ञेय ज्ञानगत होते हैं । ( ४ ) निश्चयसे श्रात्मा बाहर किसी भी ज्ञेयमें नहीं पहुंचकर अपने ही प्रदेशों में ज्ञानस्वभावसे सर्वविषयक ज्ञान करता है । ( ५ ) सर्व ज्ञेय जान लिये जाने के कारण भगवानको व्यवहारनयसे सर्वगत कहा गया है । (६) निश्चयसे सर्व ज्ञेय पदार्थ अपने अपने प्रदेशों ही रहते हैं । (७) जाननरूप निश्वयतः ज्ञानके विषयभूत ज्ञेयाकार आत्मस्थ हैं । (८) अवहारयसे सर्वज्ञेयोको आत्मगत कहा गया है ।
सिद्धान्त - - (१) ग्रात्मा ज्ञानमुखेन सर्वज्ञेयवर्ती है । (२) म ज्ञेय पदार्थ अपने अपने स्वरूपमें ही रहते हैं।
दृष्टि - १- सर्वगतनय (१७१ ) २- स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्याथिक नय (२८) | प्रयोग - सर्व ज्ञेयोक जाननेके स्वभाव वाले ज्ञानगुणसे प्रभिन्न अपने आत्माको अपने स्वरूपमें निष्ठ निरखना ।। २६ ।।
अब आत्मा और ज्ञानके एकत्व व अन्यत्वका चिन्तन करते हैं--- [ज्ञानं मात्मा] ज्ञान आत्मा है [ इति मतं ] ऐसा जिनेन्द्रदेवका मत है | | आत्मानं विना ] आत्मा बिना [ज्ञानं न वर्तते ] अन्य किसी भी द्रव्यमें ज्ञान नहीं होता, [तस्मात् ] इस कारण [ज्ञानं श्रात्मा ) ज्ञान आत्मा है; [आत्मा] और श्रात्मा [ज्ञानं वा ] ज्ञान है [ श्रन्यत् वा ] श्रथवा अन्य है याने सुखादि गुणरूप है ।
तात्पर्य-ज्ञान तो ग्रात्मा है ही, किंतु ग्रात्मा ज्ञानरूप भी है तथा दर्शन श्रानंद श्रादि