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प्रवचनसार --- सप्तदशाङ्गी टीका
१५५.
श्रथैवं मोक्षपरणोपाय भूत जिनेश्वरोपदेशलाभेऽपि पुरुषकारोऽर्थक्रियाकारीति पौरुषं
व्यापारयति -
जो मोहरागोसे यदि उपलब्भ जोहमुवदेसं । सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेा ॥८॥
जैन उपदेश पाकर, हरता जो मोह राग द्वेषोंको ।
वह अल्पकाल में ही सब दुखसे मुक्ति पाता है ॥८८॥
यो मोहरागद्वेपान्निहन्ति उपलभ्य जैनमुपदेशम्। स सर्वदुःखमोक्षं प्राप्नोत्यचिरेण कालेन ॥ ८८ ॥ इह हि द्राघीयसि सदाजवजवपथे कथमप्यमुं समुपलभ्यापि जनेश्वरं निशिततरवारिधारापथ स्थानीयमुपदेशं य एव मोहरागद्वेषाणामुपरि दृढतरं निपातयति स एव निखिल दुःख
नामसंज्ञज मोहरागदास जोह उपदेस सम्वदुक्तमोक्ख अचिर काल । धातुसंज्ञणि हण हिंसायां प आव प्राप्ती । प्रातिपदिकयत् मोहरागद्वेष जैन उपदेश तत् सर्वदुःखमोश अविर काल । मूलधातु-नि हन हिंसागत्योः डुलभष् प्राप्तौ प्र आलू व्याप्ती । उभयपदविवरण जो यः - प्र० एक० । मोहरागदोसे मोहरागद्वेषान् द्वि० ० । हिदि निहन्ति-वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । उपलब्ध द्रव्यके गुण पर्याय अत्यन्त जुदा है । ( ११ ) द्रव्योंका यथार्थस्वरूप ज्ञान होनेपर मोहका क्षय हो जाता है । (१२) यथार्थ वस्तुस्वरूप जिनशास्त्रों में है, ग्रतः जिनशास्त्रका अध्ययन मुमुक्षुका कर्तव्य है ।
सिद्धान्त -- ( १ ) प्रत्येक द्रव्य अपने ही स्वरूपसे है । (२) प्रत्येक द्रव्य परद्रव्यके रूप से नहीं ही है ।
दृष्टि - १ - स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यायिकनय [ २८ ] । २ परद्रव्यादिग्राहक द्रव्याविनय [२६] |
प्रयोग सर्व द्रव्योंको स्वतंत्र स्वतंत्र सत् जानकर समस्त ग्रन्य द्रव्योंसे विविक्त ग्रात्मतत्वकी भावना करना ॥८७॥
इस प्रकार मोहक्षय करनेके उपायभूत जिनेश्वर के उपदेशकी प्राप्ति होनेपर भी पुरुषार्थ प्रक्रियाकारी है, इसलिये व पुरुषार्थको व्यापरते हैं- [यः ] जो [जैनं उपदेशं ] जिनोपज्ञ (उपदेशको [ उपलभ्य ] प्राप्त करके [ मोहरागद्वेषान्] मोह-राग-द्वेषको [ निर्हति ] नष्ट करता है [ सः ] वह [ अनिरेण कालेन ] अन्य काल में [ सर्वदुःखमोक्षं प्राप्नोति ] सर्व दुःखोंसे छुट कारा पा लेता है।
तात्पर्य - जो जिनोपदेश पाकर मोह रागद्वेषको नष्ट करता है वह अल्प कालमें मोक्ष प्राप्त करता है ।