Book Title: Pravachansara Saptadashangi Tika
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 449
________________ प्रवचनसार...सप्तदशांगी टीका अ खेत मूलभूतस्य छेदो न यया स्यात्तथा संयतस्य स्वस्य योग्य मतिर शमष्याचरणमाचरणोयमित्युत्सगंसापेक्षोऽपवादः । अत: सर्वथोत्सर्गापवादमथ्या सौस्थित्यमाचरणस्य विधेयम् ॥२३॥ इति मधु: (मन् + उ नस्य धः) बलति इति बाल: बल प्राणने स्वादि चुरादि । समास- मूलस्य छेद: मूलनवदः ॥२३॥ सर्वथा उत्सर्ग और अपबादकी मैत्री द्वारा प्राचरणका सुस्थितपना करना चाहिये । प्रसंगविवरण – अनन्तरपूर्व गाथामें योग्य आहार का स्वरूप बताया गया था । अब इस गाथामें उत्सर्गमार्ग व अपवादमार्गको मैत्रीसे ठोक बैठने वाला पाचरण बताया गया है । तथ्यप्रकाश-(१) संयमी जनके अपने योग्य प्रति कठोर प्राचरणको, निवृत्तिप्रमुख प्राचरणको उत्सर्गमार्ग कहते हैं । (२) संयमी जनके अपने योग्य चरणानुयोगसम्मत मृदु प्राचरणको अपवादमार्ग कहते हैं । (३) उत्सर्गमार्गमें उस ही प्रकारसे कर्कश आचरण पाचर. गीय है जिसमें शुद्धात्मतत्त्वके साधन रूप संयमका घात न हो सके । (४) अपवादमार्गमें इतने मात्र प्रयोजनसे पाहार विहार निहारादिरूप मृदु प्राचरण पाचरणीय है जिससे संयमके बहिर साधनभूत शरीरका घात न हो जाय । (५) कोई सन्यासमरणका अपात्र श्रमरण अप. वादमार्गको त्यागकर केवल उत्सर्गमार्गका ही हठ करे तो वह प्रात्मप्रगतिमार्गसे भ्र हो जावेगा । (६) कोई इन्द्रियसुखावशी श्रमण उत्सर्ग मार्गको त्यागकर केवल अपवादमार्गके प्राच. रणमें संतुष्ट रहता है तो वह प्रात्मप्रगतिमार्गसे भ्रष्ट हो जायगा । (७) प्रात्मप्रगतिमार्गमें निविधन बढ़नेके लिये उत्सर्गसापेक्ष अपवादमार्गका प्राचरण करना चाहिये और अपवादसापेक्ष उत्सर्गमार्गका प्राचरण करना चाहिये । (८) अपवादमार्गका अर्थ चरणानुयोगके अनुसार पाहारादिसे अपना निर्वाह करना है, यहाँ अपवादमार्गका अर्थ प्राचरण भ्रष्ट करना नहीं है । (8) उत्सर्गमार्गका अर्थ बाह्यप्रवृत्ति त्याग कर मात्र शुद्धात्मतत्त्वको दृष्टि की उपासनामें ही उप. योग रखना है । (१०) उत्सर्ग मागं व अपवादमार्गको मंत्रोके द्वारा ही प्राचरणका भला रहना ENठोक बैठता है। सिद्धान्त--(१) उत्सर्गमार्गमें परमोपेक्षासहित ज्ञानमात्र अन्तस्तत्त्वकी प्राराधनारूप । निश्चयसंयम होता है । (२) अपवादमार्गमें चरणानुयोगानुसार प्रवृत्तिरूप व्यवहारचारित्र होता Fampoorninde khaniwwww.me.......maarww.netun:/vwwwrmana-prammerciwwwin. munnar 88888888 दृष्टि ..... १ - जाननय (१६४) । २-- क्रियानय (१६३) । प्रयोग-धरणानुयोगविधिसे अपनी जीवनचर्या निभाकर अपने में अपने सहज स्वभाव को प्रङ्गीकार करते हुए स्वरूपमग्न होनेका पौरुष होने देना ॥२३०॥ ... अब उत्सर्ग और अपवादके विरोधसे प्राचरया की दुःस्थितताको बतलाते हैं- [यवि]

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