________________
४५५
प्रवचनसार-सप्तदर्शागी टीका
श्रथात्मज्ञानशून्यस्य सर्वागमज्ञानत स्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानां यौगपद्यमप्यप्य किश्चित्कर
मित्यनुशास्ति
परमाणुपमाणं वा मुच्छा देहादिसु जस्स पुणो । विनदि जदि सो सिद्धिं गुलहदि सव्वागमधरो वि ॥ २३६ ॥
परमाणुमात्र मुर्च्छा, देह तथा इन्द्रियादिमें जिसके ।
रहती हो वह सर्वागमधर भी सिद्धि नहीं पाता ॥२३६॥
परमाप्रमाणं वा मुर्च्छा देहादिकेषु यस्य पुनः । विद्यते यदि स सिद्धि न लभते सर्वागमधरोऽपि ॥२३६॥ यदि करतलामलकीकृतसकलागमसारतया भूतभवद्भावि च स्वोचितपर्यायविशिष्टम शेषद्रव्यजातं जानन्तमात्मानं जानन् श्रद्दधानः संयमयश्चागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानां
नामसंज्ञ - परमाणुषमाण वा मुच्छा देह दिन ज पुणो जदित सिद्धि ण सव्वागमवर वि । धातुसंज्ञविज सत्तायां, लह लाभे । प्रातिपदिक परमाणुप्रमाण वा मूर्च्छा देहादिक यत् पुनर् जदि तत् सिद्धिन सर्वागमघर अपि । मूलचातुविद सत्तायां, डुलभष् प्राप्तौ । उभयपद विवरण- परमाणुपमाणं परमाणुकड़ना कर्मका कटना नहीं कहलाता । ( ३ ) ज्ञानीके शुद्धज्ञानमय प्रात्मतत्वकी अनुभूति प्रतोति होनेसे कर्म कटते हैं वहां अन्य कर्मोका बन्धनभार न बननेसे उसके कर्मका फड़ना कर्मका कटना कहलाता है । (४) ज्ञानीके मन वचन काय तीनों योगोंका निरोध है, अतः वहाँसे रागद्वेष भाव हट जाते हैं । (५) राग द्वेषादि हट जानेसे सुख दुःखादि विकार भी दूर हो जाता है । (६) सुख दुःखादि विकार दूर हो जानेसे फिर विकार व बन्ध सन्तान प्रारोपित नहीं होता । (७) मोक्षमार्गोचित सब कार्य आत्मज्ञानके बलसे होते हैं, श्रतः श्रात्मज्ञान मोक्षमार्गका साधकतम श्रन्तः करण है ।
सिद्धान्त - आत्मा श्रनात्माका भेद करके सहजात्मस्वरूप का संचेतन करने वाले ज्ञान से श्रात्मोपलब्धि होती है ।
दृष्टि--१- ज्ञाननय, शून्यनय, अविकल्पनय (१६४, १७३, १६२ ) ।
प्रयोग - कर्मक्षय के अर्थ मन वचन कायको क्रियाका निरोध कर चैतन्यमात्र सहजामस्वरूप में श्रात्मत्व अनुभवता ||२३||
अब ग्रात्मज्ञानशून्यके सर्व ग्रागमज्ञान, तस्वार्थश्रद्धान तथा संयतत्वको ( युगपत्ता की युगपत्ता भी अकिचित्कर है, यह अनुशासित करते हैं- [ पुनः ] और [ यदि ] यदि [ यस्य ] जिसके [ देहादिकेषु ] शरीरादिकों में [परमाणुप्रमारखं वा ] परमाणुमात्र भी [ मूर्च्छा ] मूर्च्छा [विद्यते ] पाई जाती है तो [सः ] वह [ सर्वागमधरः अपि ] सर्वागमका धारी होनेपर भी