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सहजानन्दशास्त्रमालाया म्पोपयोगत्वात्तपोऽधिकत्वेन च सुष्ठु संयतोऽपि सप्ताचिासंगतं सोयमिवावश्यंभाविविकारत्वात् लौकिकसंगादसंयत एव स्यात्ततस्तत्संग: सर्वथा प्रतिषेध्य एव ।।२६८।। चयदि त्यजति हबदि भवति-वर्त० अन्य० एक० किया। निरुक्ति....स' सर्जन संसर्गः तं (सम् सूजन धन ) राज विसर्गे दिवादि तुदादि । समास-निश्चितानि सूत्रार्थपदानि येन सः निश्चितसुत्रार्थपदः तपः सां अधिकः तपोधिकः, लौकिकजनानां संसर्गः लौ० तं ॥२५॥ स्वी) बनता है । १०- ज्ञान शमन तपश्चरणके प्रसादसे उत्तम संयत होनेपर भी श्रमण यदि लौकिकजनोंका संसर्ग रखता है, लौकिकजनोंके संसर्गको नहीं छोड़ सकता है तो वह भी असंयत हो जाता है । ११- अपने संयमको स्थिर रखनेके लिये असत्संग बिल्कुल ही नहीं करना चाहिये।
सिद्धान्त -- (१) असंयत अशुद्ध लौकिक जनोंके संसर्ग भावसे प्रशुद्धता च बद्धता चलती रहती है।
दृष्टि-१- अशुद्धभावनापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४स)।
प्रयोग-...अात्मविशुद्धिके हेतु ज्ञानो, शान्त, तपस्यो होकर शुद्धात्मवृत्ति वालोंकी संगति में रहना, लौकिक असंयमी जनोंका संसर्ग नहीं करना ।।२६८1।
अब 'लोकिक' जनके लक्षणको उपलक्षित करते हैं - [नन्थ्य प्रवजित:] निग्रंथरूप से दीक्षित व [संयमतपःसंप्रयुक्तः अपि संयमतपसंयुक्त भी, [यदि] श्रमरण यदि [ऐहिकः कर्मभिः वर्तते] ऐहिक कार्योंके द्वारा वर्तता हो तो, [सः लौकिकः इति भरिणता] वह 'लौकिक' है ऐसा शास्त्रसे कहा गया है।
तात्पर्य-संयमी तपस्वी भी निर्ग्रन्थ यदि लौकिक क्रियावोंमें लगता है तो वह लो.
____टोकार्थ—परमनिग्रंथतारूप प्रवज्याकी प्रतिज्ञा की हुई होनेसे संयमतपके भारको वहन करता हुआ भी, मोहको बहुलताके कारण हटा दिया है शुद्धचेतन व्यवहारको जिसने ऐसा होता हुआ साधक निरंतर मनुष्यव्यवहारके द्वारा चक्कर खानेसे ऐहिक कर्मोंसे ऐहिक काँसे) निवृत्ति न होनेपर 'लौकिक' कहा जाता है।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें असत्संगको लोकिकजनसंसर्गको प्रतिषेध्य बताया गया था। अब इस गाथामें लौकिक जनोंका लक्षण उपलक्षित किया गया है ।
तथ्यप्रकाश ---(१) जो नन्थ्यदीक्षा लेकर भी लौकिक कार्यों में लग रहा हो वह लोकिक मनुष्य कहलाता है । (२) चाहे निर्ग्रन्थ दीक्षा लेकर बहुत भारी संयम तपका भार भी ढो रहा हो तो भी यदि मोहको बहुलतासे शुद्ध स्वसंचेतनव्यवहारसे भ्रष्ट हो गया हो और
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