Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषय
१ - ज्ञान तत्व प्रज्ञापन
| मंगलाचरणपूर्वक ग्रंथकर्ताको प्रतिज्ञा
६ वीतरागचारित्र उपादेय है और समचारि
हेय है
गाथा न०
७ चारिवका
म
रूप
वारिय और आत्माकी एकताका कथन
श्री प्रवचनसार की विषयानुक्रमणिका
ह अमाका शुभ अशुभ और शु
१० परिणाम वस्तुका स्वभाव है
११
१३
१४
१५ शुद्ध
आत्मा शुद्ध और सुभादि भावोंका फल
योगफलकी प्रशंसा
प्रशंसा
पृष्ठ नं०
आत्माका स्वरूप
१६ शुद्धात्मस्वभाव प्राप्तिकी आरमाधीनता १० स्वयंभू आत्मा बुद्धात्मभाव प्राप्तिका अत्यंत अविनाशीपना और कचित् उत्पादव्यय श्रीव्यमुक्तता
२१ अतीन्द्रियज्ञानरूपपरिमित होनेसे केवली भगवान सब प्रत्यक्ष है
२३ आत्मा ज्ञानप्रमाण है और ज्ञान सर्वगत है २४ आत्माको प्रमाण न मानने में उपस्थित दोनों पक्षों में अनिष्ट दोष
१
VINĀTĀTI
११
१२
१३
१६
१८
२१
२३
१९ स्वयंभू आत्माके इन्द्रियोंके बिना जान ओर श्रानन्द कैसे होता है ? इस संदेहका निराकरण ३३ २० तता के कारण शुद्धात्मा सुखदुःख की अत्यन्त असंभवता
शारीरिक
२५
२७
گے۔
३५
३६
४
४१
२६ जानकी भांति आत्माका भी न्यायलिय सर्वगतत्व
२७ आमा और ज्ञान के एक-अभ्यत्व
२७ ज्ञान और जयके परस्पर गमनका निषेध २१ पदार्थोंमें अप्रवृत आत्माका पदार्थोंमें प्रवृत्त होना सिद्ध करनेवाला सक्तिचित्र्य
३० ज्ञान का प्रदायों ने स्पष्टीकरण ३१ पदार्थ ज्ञानमें वर्तते है इसका स्पष्टीकरण ३२ आत्माको पदार्थोंके साथ एक दूसरे में प्रवृत्ति होनेपर भी परका ग्रहणस्याग किये चिता तथा परस्य परियमित हुए बिना सबो देखते जानने से परस्पर अत्यन्त भिन्नता ३२ केवलज्ञानीको और श्रुतज्ञानीको अविशेषरूप दिखाकर विशेष आकाक्षा क्षोभका
क्षय
३५ ज्ञानके श्रुताधिकृत भेदका दूरीकरण ३६ ज्ञान क्या है और क्या है, इसका
व्यक्तीकरण
३७ द्रव्योंकी अतीत और अनागत पर्यायें भी तात्कालिक पर्यायोंकी भांति ज्ञानमें बर्तती
अविद्यमान पर्यायोंकी कचित् विद्यमानता ३९ अविद्यमान पर्यायोंकी जानका
दृढीकरण
४० इन्द्रियज्ञानके ही नष्ट और अनुत्पन्न के जानने की अशक्यता
४१ अतीन्द्रिय ज्ञानके लिये सर्वविध योंकी
संभवतः
४२ परिणमस्वरूप किया ज्ञानमेंसे नहीं
*********AAMA
..............................
४३
४५ ४७
४८
4
५१
५३
५५
५७
६१
६३
६६
६७
15
न
७०
७२
wwwwwwwwww
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
४३ ज्ञेयार्थपरिणमनस्वरूप क्रिया और उसका फल कहांसे उत्पन्न होता है इसका विवेचन ४४ केवली भगवानके क्रियासे भी क्रियाफलकी अनुत्पत्ति ४५ तीर्थंकरों के
पुण्य विपाक की अकिंचित्करता
४६ केवली भगवान की भांति समस्त जीवोंके स्वभावविघातका अभाव होनेका निषेध ४७ अतीन्द्रियज्ञानका सर्वज्ञरूपसे अभिनन्दन ४८ सबको नहीं जानेवाला एकको भी नहीं
जानता
४६ एकको नहीं जाननेवाला सबको नहीं जानता ५० क्रमशः प्रवर्तमान ज्ञानके सर्वगतपनेकी असिद्धि
५१ युगपत् प्रवृत्तिके द्वारा ही ज्ञानके सर्वगतत्वकी सिद्धि
५२ ज्ञानीके ज्ञप्तिक्रियाका सद्भाव होनेपर भी क्रियाफलरूप बन्धका निषेध
५३ ज्ञानसे अभिन्न सुखका स्वरूप वर्णन करते हुए ज्ञान और सुख के हेयोपादेयताका विचार
५४ अतीन्द्रियसुख साधनीभूत अतीन्द्रियज्ञानकी उपादेयता
५५ इन्द्रियसुखका साघनीभूत इन्द्रियज्ञानकी
यता
५७ इन्द्रियज्ञान प्रत्यक्ष नहीं है ऐसा निश्चय ५८ परोक्ष और प्रत्यक्षके लक्षण
५६ प्रत्यक्षज्ञानकी पारमार्थिक सुखरूपता परिनामके द्वारा खेद संभव होने से केवलज्ञानके, ऐकांतिक सुखनिषेधका खंडन
६१ केवलज्ञानकी सुखस्वरूपताका निरूपण ६२ केवलज्ञानियों के ही पारमार्थिक सुख होता है, ऐसी श्रद्धा कराना
६३ परोक्षज्ञानियों के अपारमार्थिक इन्द्रियसुख का
विचार ६४ इन्द्रियों के रहन तक स्वभावसे ही दुःख
(5)
७४
७६
७७
७६
59
25 25
८४
८६
८५
६०
६ १
६४
ह६
६८
१०२
१०३
१०४
१०६
१११
११३
होने की न्याययुक्तताका विनिश्चय
६५ मुक्त आत्माके सुखकी प्रसिद्धि के लिये, शरीरकी सुखसाधनताका खंडन
६७ आत्मा स्वयं ही सुखपरिणामकी शक्तिवाला है, अतः विषयोंकी अकिंचित्करता का द्योतन
६८ आत्माके सुखस्वभावत्वका दृष्टांत द्वारा दृढ़ढ़ी
करण
६६ इन्द्रियसुखस्वरूप सम्बन्धी विचारको लेकर, उसके साधन के स्वरूपका कथन ७० इन्द्रियसुखका शुभोपयोगसाध्यरूपमें कथन ७१ इन्द्रियसुख की दुःखरूपमें सिद्धि
७२ इन्द्रियसुखके साधनभूत पुण्यके उत्पादक शुभोपयोगकी दुःख के साधनभूत पापके उत्पादक अशुभोपयोगसे अविशेषता का
कथन
७४ पुण्यकी दुःखबीजकारणता ७६ पुण्यजन्य इन्द्रियसुखकी दुःखरूपता
७७ पुण्य और पापकी अविशेषताका निश्चय ७८ शुभ और अशुभ उपयोगकी अविशेषता के निर्णायक व अशेष दुःखका क्षय करने के दृढ़ निश्चयीका समस्त रागद्वेषको दूर करते हुए शुद्धोपयोग में निवास ७६ मोहादिके उन्मूलन के प्रति पूर्ण कटिबद्धता ८० मोहकी सेनाको जीतनेका उपाय
८१ चिंतामणि रत्न पाकर भी प्रमाद मेरा लुटेरा है, यह विचार कर जागृत रहना ८२ पूर्वोक्त गाथाओं में वर्णित यही एक, भगवन्तोंके द्वारा स्वयं अनुभव करके प्रगट किया हुआ निःश्रेयसका पारमार्थिकपन्थ है ऐसा निश्चय
११५
११७
१२०
१२२
१२३
१२५
१२६
१२७
१३०
१३४
१३६
१३७
१३६
१४०
१४३
१४५
८३ शुद्धात्मा के शत्रु मोहका स्वभाव व उसके
प्रकार
८४ तीनों प्रकारके मोहको अनिष्ट कार्यका कारण कहकर उसका क्षय करनेका आसूत्रण १४८
१४७
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
S
eedomarates
ने
माग
07 090
eshablastND00mARMADURAISrawatanSARIUDHAJion
८५ रागदपमोहको इन चिन्हों के द्वारा पहिचान १०५ सत्ता और द्रव्य की अभिन्नता युक्ति कर उत्पन्न होते ही नष्ट कर देना योग्य है १५० १०६ पशय और अन्यत्वका लक्षण
२०० ८६ मोह क्षय करने के दूसरे उपायका विचार १५१ १०७ अतवभावका उदाहरण पर्वका स्पष्टीकरण ७ जिनेन्द्र के शब्द ब्रह्म में अर्थोकी व्यवस्था १०८ सर्वथाभाव अतद्भावका लक्षण नहीं है किस प्रकार है इसका विवेचन
१०४ सत्ता और द्रव्य के गुण-गुणित्वको सिद्धि २०७ ८८ मोहक्षयके उपायभत जिनेश्वरोपदेशकी
११० गण और गणों के अनेकत्वका खण्डन प्राप्ति होने पर भी अर्थक्रियाकारी पुरुषार्थका
१११ द्रव्यका सदुत्पार और असदुत्पाद होने में कर्तव्य
१५५ अविरोध ८६ स्व-परके विवेककी सिद्धिसे ही मोहका क्षय
११२ अनन्यपना होने से सत्पादका निश्चय २१३ हो सकता है अत: स्वपरविभागसिद्धि के
११३ अन्यपना होने से असदुत्पादका निश्चय लिये प्रयत्न कराना
११४ एक ही द्रव्य में अन्यत्व और अनन्यत्वका ६० सबप्रकारसे स्वपरके विवेककी सिद्धि आगमसे
अविरोध है करने योग्य है, इसप्रकारसे उपसंहार १५८
११५ समस्त विरोधोंको दर करने वाली सप्तभंगी २१९ ६१ जिनेंद्रोक्त अर्यों के श्रद्धान बिना धर्मलाभ
११११६ जीवको मनुष्यादि पर्यायोंकी क्रियाफल रूप
से अन्यताका कथन १२ साम्य का धमत्व सिद्ध करके मैं स्वयं
११८ मनुष्यादि पर्यायों में जीवके स्वभावका साक्षात् धर्म ही हैं ऐसे भाव में निश्चल
पराभव किस कारण से होता है, उसका रहना
निर्णय २---ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन
११६ जीवका द्रव्यरूप से अवस्थितपना होने पर भी ६३ पदायका सम्यक द्रव्यगणपर्याय स्वरूप १६५ पर्यायोंसे अनवस्थितपना
२२७ १४ स्वसमय-परसमयकी व्यवस्था १६६ १२० जीवके अनवस्थितपने का कारण
२२६ ६५ द्रव्यका लक्षण
१२१ परिणामात्मक संसार में किस कारण से ६६ स्वरूपास्तित्व का वर्णन
पदगलका संबन्ध होता है कि जिससे वह ६७ सादृश्य-अस्तित्वका कथन
१७६ संसार मनुध्यादिपर्यावात्मक होता है इसका ६८ द्रव्यों से द्रव्यान्तरकी उत्पत्ति होने का और
समाधान
२३१ द्रव्य से सत्ताका अर्थान्तरत्व होने का खण्डन १८२ १२२ परमार्थ से आत्मा के द्रव्यकर्म का अकतत्व २३३ है उत्यादब्ययनोव्यात्मक होने पर भी 'सत' १२३ व कौनमा स्वरूप है जिस रूप आत्मा द्रव्य है
१८५ परिणनित होता है इसका कथन २३५ १०० उत्पाद, व्यय और प्रौव्यका परस्पर १२४ ज्ञान, कर्म और कर्मफलका स्वरूप वर्णन अविनाभाव
१२७ कर उनको आत्मारूपसे निश्चित करना २७ १०१ उत्पादादिका द्रव्य से अर्थान्तरत्वका खण्डन १६० १२६ शुद्धात्मतत्त्वको उपलब्धिका अभिनन्दन १०२ उत्पादादिका क्षणभेद हटाकर द्रव्यत्वका द्योतन १६२ करते हुए द्रव्यसामान्यके वर्णनका उपसंहार २४० १०३ द्रव्य के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यका अनेकद्रध्य
१२७ द्रव्य के जीवाजीवत्वरूप विशेषका निश्चय पर्याय तथा एक द्रव्यपर्यायके दारा विचार १६५ १२८ द्रव्यके लोकालोकत्वरूप भेदका निश्चय २४६
२२५
R
REASiskulsan
uspesadi
S
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
SENDARDailashBRUASSORIES
१२६ क्रिया व भाव तथा केवल भाव की अपेक्षासे १५५ आत्माको अत्यन्त विभक्त करने के लिये द्रव्यकी विशेषता
२४८ परद्रव्यके संयोग के कारणका स्वरूप १३० गुण-विशेषसे द्रव्य-विशेष होने का कथन २५० १५७ शुभोपयोग का स्वरूप
२६६ १३१ भूर्त और अमूर्त गणों का लक्षण तया संबंध ९५२ १५८ अशुभोपयोगका स्वरूप १३२ मूर्त पुद्गलद्रव्यका गुण
२५३ १५६ परद्र व्यसंयोगके कारणके विनाशका अभ्यास ३०२ १३३ अमूर्त द्रव्योंके गुण
२५६ १६० शरीरादि परद्रव्य में भी मध्यस्थताका प्रयोग ३०४ १३५ द्रव्यका प्रदेशवत्व और अप्रदेशवत्वरूप विशेष २५६ १६१ शरीर, वाणी और मनका परद्रव्यपना ३०६ १३६ प्रदेशी और अप्रदेशी द्रव्योंका निवासक्षेत्र २६१ १६२ आत्माके परद्रव्यत्वका अभाव और परद्रव्य १३७ प्रदेशवत्व और अप्रदेशवत्व किस प्रकारसे संभव है
कर्तृत्वका अभाव इसका प्रज्ञापन
२६३ १६३ परमाणद्रव्योंकी पिंडपर्यायरूप परिणति का
कारण १३८ कालाणु के एकप्रदेशित्वका नियम १३६ काल पदार्थ के द्रव्य और पर्याय
२६७ १६७ आत्मा पुदगलोके पिण्डका कर्ता नहीं ३१६ १४० आकाशके प्रदेशका लक्षण
२६६ १६८ आत्मा पुद्गलपिण्डों का लानेवाला नहीं ३१७ १४१ तिर्यप्रचय तथा ऊर्ध्वप्रचय
१६६ आत्मा पुदगलपिण्डों में कर्मत्व का करनेवाला १४२ कालपदार्थ के उत्पाद्व्यय ध्रौव्यकी सिद्धि १४३ सर्व वृत्यशोंमें कालपदार्थका उत्पादव्यय- १७० आत्मा पुद्गलद्रव्यात्मक शरीरका कर्ता नहीं ३२१ ध्रौव्यपना २७६ ७१ आत्माके शरीरत्वका अभाव
३२२ १४४ कालपदार्थ के प्रदेशमात्रत्वकी सिद्धि २७७ १७२ जीवका असाधारण स्वलक्षण
३२३ १४५ आत्माको विभक्त करने के लिये व्यवहार- १७३ स्निग्धरूक्षत्वका अभाव होने से अमुर्त आत्माके जीवत्वके हेतुका विचार
२८० बंध कैसे हो सकता है ? ऐसा पूर्वपक्ष । १४६ प्राण कौनसे हैं, उनका निर्देश
१७४ उपरोक्त पूर्वपक्षका उत्तर
१७५ भावबंधका स्वरूप १४७ प्राणोंका जीवत्वहेतुत्व और पोद्गलिकत्व २८४
१७६ भावबन्ध और द्रव्यबन्धका स्वरूप १४६ प्राणोंके पौद्गलिक कर्मका कारणग्ना १५० पौदगलिक प्राणोंको संततिकी प्रवृत्तिका
१७७ पुदगलबन्ध, जीवबन्ध और उन दोनों के
बन्धका स्वरूप अंतरंगहेतु २८८
३३४
१७८ द्रव्यबन्धका हेतु भावबन्ध १५१ पौगलिक प्राणोंकी संततिकी निवृत्तिका अंतरंगहेतु
१७६ भावबन्धका निश्चयबन्धपना
.२८६ १५२ आत्माको अत्यन्त विभक्तताकी सिद्धिके लिये
१८० रागद्वषमोहरूप विशिष्ट परिणामसे द्रव्यबंध ३३: व्यवहारजीवत्वकी हेतु भूत अनेकद्रव्यात्मक १८१ शुभ अशुभ विशिष्टपरिणामको तथा अविशिष्ट पर्यायोंके स्वरूपका उपवर्णन
२६१
परिणामको, कारण में कार्यका उपचार करके १५३ पर्यायके भेद
कार्यरूपसे बतलाना
३४० १५४ अर्थनिश्चायक अस्तित्वका स्वपरविभागके
१८२ जीवकी स्वद्र व्य में प्रवृत्ति और परद्र ध्यसे हेत के रूप में उद्योतन
२६४ निवृत्तिकी सिद्धि के लिये स्वपरविभाग
३४२
mer
२८२
३३१
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
-eurs
४०१
३५८
१८। कीवकी स्वद्रव्य में प्रवत्तिका निमित्त और २०७ अन्तरङ्ग बहिरङ्ग लिङ्गोंको ग्रहण कर परद्रव्य में प्रवत्तिका निमित्त स्वपरके
श्रामण्यप्राप्ति के लिये और क्या क्या होता विभागका ज्ञान व अज्ञान है १८४ आत्माका कर्म क्या है इसका निरूपण ३४५ २०८ अविच्छिन्न सामायिक में आरूढ़ हुआ भी श्रमण १८५ 'पूदगल परिणाम आत्माका कर्म क्यों नहीं
कदाचित् छेदोपस्थापनाके योग्य है है ?' इस संदेहका दूरीकरण
२१० दीक्षागुरु व निर्यापक गुरु का निर्देश १८६ पुदगल कोके द्वारा आत्मा कसे ग्रहण किया
२११ छिन्नसयमके प्रतिसंधानको विधि जाता है और छोड़ा जाता है ? इसका
२१३ श्रामण्यके छेदका आयतन होने से परद्रव्यनिरूपण
प्रतिबन्धका परिहार कर निर्दोषप्रवृत्तिका १८७ पद्गलकर्मोकी विचित्रताको कौन करता है ?
विधान इसका निरूपण
२१४ धामण्यकी परिपूर्णताका आयतन होनेसे ३५०
स्वद्रव्य में ही प्रवर्तने की विधेयता १८८ अकेला ही आत्मा बन्ध है इसका प्ररूपण
४०३ ३५२
२१५ श्रामण्यके छेदका आयतन होने से यतिजना१८६ निश्चय और व्यवहारका अविरोध
३५४
सन्न सूक्ष्मपरद्रव्यप्रतिबन्धको भी निषेध्यता ४०४ १६० अशुद्ध नयसे अशुद्ध आत्माकी प्राप्ति
२१६ छेद क्या है, इसका उपदेश
४०६ १६१ शुद्ध नयसे शुद्ध आत्माकी प्राप्ति
२१७ छेदके अतरंग और बहिरंग दो प्रकार १६२ ध्रुवत्वके कारण शुद्धात्मा ही उपलब्धव्य है ३६०
४०८ २१८ सर्वथा अंतरंग छेद प्रतिषेध्य है
४०६ १६३ अध्र वपना होने स आत्मातिरिक्त अन्य उप
२१६ उपधि अतरग छेदकी भांति त्याज्य है ४११ लब्धव्य नहीं
२२० उपधिका निषेध अंतरंग छेदका ही निषेध है ४१३ १६४ शुद्धात्माकी उपलब्धिसे क्या होता है इसका
२२२ किसीको कहीं कभी किसीप्रकारसे कोई एक वर्णन
३६४
उपधि अनिषिद्ध भी है १६५ मोहग्रंथि के टूटने से क्या होता है इसका वर्णन ३ २२३ अनिषिद्ध उपधिका स्वरूप
४१६ १६६ एकाग्रसचेतन रूप ध्यानकी आत्मरूपता ३६७ २२४ उत्सर्ग ही वस्तुधर्म है, अपवाद नहीं
४२० १६७ सकलज्ञानी क्या ध्याते हैं ? ऐसा प्रश्न ३६६ २२५ अपवादके विशेष १६८ उपरोक्त प्रश्न का उत्तर
१०१ २२६ अनिषिद्ध शरीरमात्र उपधिके पालनकी १६६ मोक्षका मार्ग शुद्धात्मोपलम्भ है
३७३ विधि
४२४ २०० पूर्वप्रतिज्ञाका निर्वाह करते हुए, मोक्षमार्गभूत २२७ युक्ताहारविहारी साक्षात् अनाहारविहारी शुद्धात्मप्रवृत्तिका पौरुष ३७४
४२६ ३-चरणानुयोगसूचिका चूलिका २२८ श्रमणके युक्ताहारित्वकी सिद्धि
४२८ २०१ दुःखोंसे मुक्त होने के लिये श्रामण्यको अंगी
२२६ युक्ताहारका विस्तृत स्वरूप कार करने को प्रेरणा
२३० उत्सर्ग और अपवाद की मैत्री द्वारा आचरण २०२ श्रमण होनेका इच्छुक क्या क्या करता है ३८१
की सुस्थितता २०५ यथाजातरूपधरत्वके बहिरंग और अंतरंग दो २३१ उत्सर्ग और अपवादके विरोधसे आचरण की लिंगोंका उपदेश
दुःस्थितता
४२२
३८८
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
Assessmanasamastians
४५१
SSSSSSS
२३२ मोक्षमार्गके मूलसाधन भूत आगममें व्यापार ४३६ करनेका विधान २३३ आगमहीनके कर्मक्षय की असंभवता
४४२ २५४ शुभोपयोगका गौण-मुख्य विभाग २३४ मोक्षमार्ग पर चलनेवालों की आगम चक्षुपता४४५२५५ भोपयोगके कारण की विपरीततासेलकी २३५ आगमचक्षसे सब कुछ दिखाई देता ही है ४४७
विपरीताका प्रदर्शन
४८४ २३६ आगमज्ञान, तत्पूर्वक तत्त्वार्थश्रद्धान और
२५४ शभोपयोगकै अविपरीत फलका कारण भूत तदुभयपूर्वक संयतत्वके एक साथ होने में मोक्ष
अविपरीत कारण मार्गत्व होने का नियम
२६१ अविपरीत फलका कारणभूत अविपरीत २२७ आगमज्ञान तत्वार्थथद्धान और सयतत्वकी
कारण की उपासनारूप प्रवृत्ति सामान्य-विशेषअयोगपद्य में मोक्षमार्गत्व नहीं
तया करने योग्य है २३८ आगमज्ञान-तत्वार्थश्रद्धान-संयतत्त्व के युगपत
२६३ श्रमणाभासों के प्रति समस्त प्रवत्तियों का होनेपर भी, आत्मज्ञानमें मोक्षमार्गको
निषेध साधकतमताका द्योतन
२६५ श्रमणाभासका परिचय २३६ आत्मज्ञानशून्यके सर्व आगमज्ञान, तत्वार्थ
२६५ श्रामण्य से समान श्रमणों का अनुमोदन न करने श्रद्धान तथा संयतत्वकी युगपत्ताको भी
वालेका विनाश अकिचित्करताका निरूपण
२६६ श्रामण्य से अधिक श्रमणोंके प्रति श्रामण्य में २४० आगमज्ञान तत्वार्थश्रद्धान-संयतत्व और
होन की तरह आचरण करने वालेका विनाश आत्मज्ञान के एक साथ होने में संयतपना
२६७ जो श्रमण श्रामण्यमें अधिक हो वह अपने से २४१ वास्तविक संयतका लक्षण
हीन श्रमणके प्रति, समान जैसा २४२ उक्त चारोंके योगपद्यमें प्राप्त एकाग्रगतताका
आचरण करे तो उसका विनाश मोक्षमार्गरूपसे समर्थन
२६८ असत्सग निषेध्य है २४३ अनेकाग्रताके मोक्षमार्गत्व घटित नहीं होता ४६४
२६६ लौकिक जन का लक्षण ४४ एकाग्रताके मोक्षमार्गत्वका अवधारण
२७० सत्संग करने योग्य है २४५ शुभोपयोगियोंकी श्रमणरूप में गौणता
२७१ संसार तत्व २४६ शुभोपयोगी श्रमणोंका लक्षण
२७२ मोक्ष तत्व २४७ शुभोपयोगी श्रमणोंकी प्रवृत्ति
४७१ २४६ सभी प्रवृत्तियां शुभोपयोगियोंके ही होती है ४७४ २७३ मोक्षतत्वका साधनतत्व
५०६ २५० संयमको विरोधी प्रवृत्ति होने का निषेध
२७४ मोक्षतत्व के साधन तत्वका सर्वमनोरथ के
स्थानके रूप में अभिनन्दन २५१ प्रवृत्तिके विषयके दो विभाग २५२ प्रवृत्तिके कालका विभाग
४७८ २७५ शिष्यजनको शास्त्र के फल के साथ जोड़ते हुए २५३ श्रमणोंको वैयावृत्यके निमित्त ही लोकसंभाषण
शास्त्रका समापन
५०१
or
S
21
ad
-
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
वालमाMARRIAL
श्री प्रवचनसारको वर्णानुक्रम गाथासूची
-
गाथा
गाथा नं०
पृष्ठ नं.
गाथा नं० २३३ ।
४४२
२७२
१४०
१३३
२४४ ४० ५३
१२१ १५०
१५२ ११५
२०७ २०२ २३१ १४६
२६६ २५६ २३१ २८८
४० ३६२ ३८१ ४३६ २८२ ४२४ १७६
२६७
२१३
४१ १६३ २१६
५०
८८
६५
पृष्ठ नं० गाथा
२१ आगमहीणो समणो ५०७ आगासमणुणिविट्ठ १५० आगासस्सवगाहो ४६६ आदा कम्ममलिमसो
आदा कम्ममलिमसो धरेदि ६४ आदाणाणपमाणं २६१ आदाय तं पि लिंग २१६ आपिच्छ बंधुवग्गं १६५ आहारे व विहारे ४६६ इदियपाणो य तथा ४०१ इहलोगणिरवेक्खो
७० इह विविहलक्खणाणं ३०६ उदयगदा कम्मंसा ४०६ उप्पज्जदि जदि णाणं १७२ उप्पादट्टिदिभंगा विज्जते ४१६ उप्पादटिदिभंगा
उप्पादो पद्धंसो
उप्पादो य विणासो ४६३ उवओगमओ जीवो ४६४ उवओगविसुद्धो जो ४०६ उवओगो दि हि ३२३ उवकुणदि जो वि
उवयरणं जिणमग्गे ४६६ उवरदपावो पुरिसो ४८६ एक्कं खलु तं भत्तं ४६० एक्को व दुगे बहुगा.
२० एगतेण हि देहो । ३०२ एगम्हि संति समये ४४५ एगुत्तरमेगादी ४४६ एदे खलु मूलगुणा
अइसयमादसमुत्थं अजधाचारविजुत्तो अट्ठ अजधागहणं अट्ठसु जो ण मुज्झदि अत्थं अक्खणिवदिदं अस्थि अमुत्तं मुत्तं अत्थित्तणिच्छिदस्स अत्थि त्ति य णत्थि त्ति अत्थो खलु दव्वमओ अधिगगुणा सामण्णे अधिवासे व विवासे अपदेसं सपदेसं अपदेसो परमाणू अपयत्ता वा चरिया अपरिच्चत्तसहावेणुप्पाद अप्पडिकुट्ठ उवधि अप्पा उवओगप्पा अप्पा परिणामप्पा अब्भुट्ठाणं गहणं अब्भु? या समणा अयदाचारो समणो अरसमरूवमगंध अरहंतादिसु भत्ती अववददि सासणत्थं अविदिदपरमत्थेसु असुभोवयोगरहिदा असुहोदयेण आदा असुहोवओगरहिदो आगमचक्खू साहू आगमपुवा दिट्ठी
१०१
२२३
१२६ १४२
१६० २४८ २७३
१५५ १२५ २६२
१८
१७५
२६३ २१८
१५ १५६
३३१
२५ २६८
१७२
४७४
२४६ २६५ २५७ २६०
२४६ २२५ २५६ २२६ १४१
४२२ ४८८ ४३० २७१ ११६ २७६ ३११ ३६४
१२
१५६ २३४ २३६
१४३ १६४ २०६
Amreme
%
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
(
१४ )
२३२
४३६ जध जाट
२०५
३८४
१३७
१६२
३६०
२२७
४२६
२०१
१४४
२७७
७८
२३८
४५३ १०७
१११
SSOORDAR
२५४ ११६ १८६
c६० anx60
१६८
१०४
११६
।
१७१ १२६
२२७ १५१
१६६
१३५
२५६
११७
१३४
२८५
१४८ ११२ ८१
२१३
२२१
१४३
एयग्गगदो समणो एवं जिणा जिणिदा एवं णाणप्पाणं एवं पणमिय सिद्ध एवं विदिदत्थो एवंविहं सहावे एस सुरासुरमणुसिंद एसा पसत्थभूदा एसो त्ति णत्थि एसो बंधसमासो ओगाढगाढणिचिदो ओरालिओ य देहो कत्ता करणं कम्म कम्मत्तणपाओग्गा कम्मं णामसमक्खं कालस्स वट्टणा से किच्चा अरहताणं किध तम्हि णत्थि कि किचण त्ति तक्क कुलिसाउहचक्कधरा कुव्वं सभावमादा केवलदेहो समणो गणदोधिगस्स विणयं गेण्हदि णेव ण गेण्हदि व......परं चत्ता पावारंभ चरदि णिबद्धो णिच्चं चारित्तं खलु धम्मो छदुमत्थ विहिद छेदुवजुत्तो समणो छेदो जेण ण विज्जदि जदि कुणदि कायखेदं जदि ते ण संति जदि ते विसयकसाया जदि पच्चक्खमजायं जदि संति हि पुण्णाणि जदि सो सुहो
२२४
जध जादरूवजादं ३७३
जध ते णभत्पदेसा
जस्स असणमप्पा ३७६ जस्स ण संति १३७ जं अण्णाणी कम्म २१० जं केवलं ति णाणं
५ जं तक्कालियमिदरं ४८१ ज दव्वं तण्ण गुणो २२१ ज परदो विण्ण णं ३५४ ज पच्छदो अमुत्तं ३१७ जादं सयं समत्त ३२२ जायदि व ण णस्सदि २४० जिणसत्थादो अट्ठ ३१६ जीवा पोग्गलकाया २२३ जीवो परिणमदि २५६ जीवो पाणणिबद्धो
५ जीवो भवं भविस्सदि ४१५ जीवो ववगदमोहो ४२० जीवो सयं अमुत्तो १२६ जुत्तो सुहेण आदा ३४५ जे अजधागहिदत्था ४२८ जेणेव हि संजाया ४६८ जे पज्जयेसु णि रदा ३४७ जेसिं विसयेसु रदी ५३ जो इंदियादिविजई १३६ जो एवं जाणित्ता ४०३ जो खलु दव्वसहावो
११ जो खविदमोहकलुसो ४८४ जो जाणदि अरहंतं ३६६ जो जाणदि जिणिदे ४१६ जो जाणदि सो णाणं ४७५ जो णवि जाण दि एवं
५१ जो ण विजाण दि ४८७ जो णिहदमोहगंठी ६७ जो णिहदमोहदिट्ठी १३० जोण्डाणं णिरवेक्खं ७६ जो मोहरागदोसे
६८
१२५
२७१
१८४ २२८ २६६ १८५
१५१ १६४
१६६ ११५ २८८ ३६४ २०७
२१४
१०६
१६६
ediossecast
८०
१४० २६६
१५७
२५६ २१२ २२२ २५०
०
३५
५६
३४३
०
०
१८३
४८ १६५
३६५
२५८ ३६
4
१६३
४४७
८८
१५५
HIRMILARANETHEYENE
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
(
१५
)
१२० २७०
२२९
१६० ११०
५०४ २७
२०६
१५४
W ०८
१०० ११८ १५३ ७२
५
११४
२१७
१२७
१०५ २६४ २३७
४६५
Ord F
४५१
२२०
२४४ १८२ १५३ १४७ ४६२ ४७२
ওও
जो हि सुदेण ठाणणिसेज्जविहारा ण चयदि जो दु णत्थि गुणो त्ति व ण त्थि परोक्खं णत्थि विणा परिणाम ण पविट्ठो णाविट्ठो ण भवो भंगविहीणो णरणारयतिरियं णरणारयतिरियसुरा णरणारयतिरिय ण वि परिणमदि ण ण हवदि जदि सहव्वं ण हवदि समणो त्ति ण हि आगमेण ण हि णिरवेक्खो ण हि मण्ण दि जो णाणप्पगमप्पाण णाणप्पमाणमादा णाणं अट्ठवियप्पो णाणं अत्यंतगयं णाणं अप्प त्ति मदं णाणी णाण सहावो णाणं देहो ण मणो णाहं पोग्गलमइओ णाहं होमि परेसि.."संति णाहं होमि परेसि णिग्ग थं पव्व इदो णिच्छिदसुत्तत्थपदो णिद्धत्तणेण दुगुणो गिद्धा वा लुक्खा वा णिहदधणघादिकम्मो णो सद्दहति सोक्खं तक्कालिगेव सब्वे तम्हा जिणमग्गादो तम्हा णाणं जीवो तम्हा तह जाणित्ता
८६
५५ तम्हा दुणस्थि कोइ १७६ तम्हा समं ग णादो ३५६ तह सो लद्धसहावो
तं सब्भावणिबद्ध तिक्कालणिच्चविसम
तिमिरहरा जइ दिट्टी ४८ ते ते कम्पत्तगदा १८७ ते ते सव्व समग २२५ ते पुण उदिण्णतण्हा २६३ तेसि बिसुद्धदंसण १२७ दवट्टिएण सव्वं
६१ दव्वं अर्णतपज्जय १६६ दव्वं जीवमजीवं
दव्वं सहावसिद्ध
दव्वामि गुणा तेसि ४१३
दव्वादिपसु मूढो
दसणणाणचरित्तेसु १५७
दसणणाणुवदेसो
दिट्टा पगदं वत्थु २३७
दुपदेसादी खंधा १०६ देवजदिगुरुपूजासु ४५
देहा वा दविण
देहो य मणो ३०४ धम्मेण परिणदप्पा ३०८ पक्खीणघादिकम्मो ३५८
पयदम्हि समारद्धे ३८७ पप्पा इट्ट विसये
परदव्वं ते अक्खा परमाणुपमाण वा
परिणमदि चेदणाए ३१२
परिणमदि जदा ३६६
परिणमदि जेण १११ परिणमदि यमर्स्ट
६३ परिणमदि सयं १५८ परिणमदो खलु
६१ परिणामादो बंधो ३७४ परिणामो सयमादा
२४२ २४८ २६१ १६७
१२४ ६१
२७
१६३
१२३ ३६२
२८ १६०
१६१ ११
१६२
१६
२११ ६५
२०४ २६९ २६८
५७
२३६ १२३
१६५ १६७
W6WM
३६६ ११७ १०२ ४५५ २३५ ३५० १२ ७२ १९७
&
mmu
१०४
२१
२००
१८० १२२
२३३
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
laERaeesapna
स
१०६ २४० १०३ १४६ १४७
४५ १२८
२४७ १५८ २५३ १८६ ६१
४७१ ३०१ ४८० ३४६ १६० १८५ २०३
१०७ १४५
२८०
१७७
१८८
।
२३० २७५
४३३
१७८ ७६
३५२ ३३६ १३४
१८२
१७६
२१५
४०४
१३८
२६
२०३
१७६
२४५ १०२
पविभत्तपदेसत्त पंचसमिदो तिगुत्तो पाडुब्भवदि य पाणाबाधं जीवो पाहिं चदुहिं पुण्णफला अरहंता पोग्गलजीवणिबद्धो फासो रसो य गंधो फासेहिं पुग्गलाणं बालो या बुड्ढो बुज्झदि सासणमेयं भणिदा पुढविभत्ते वा खमणे भंगविहीणो य भावेण जेण जीवो मणुआसुरामरिंदा मणुवो ण होदि मरदु व जियदु मुच्छारंभविजुत्तं मुज्झदि वा रज्जदि मुत्ता इ दियगेज्झा मुत्तो रूवादिगुणो मोहेण व रागेण रत्तो बंबदि कम्म रयणमिह इंदणीलं रागो पसत्यभूदो रूवादिएहिं रहिदो रोगेण वा छुधाए लिंगग्गहणेतेसि लिगेहिं जेहिं दव्वं लोगालोगेसु णभो वण्णरसगंधफासा वदसमिदिदियरोषो वदिवददो तं तेसं
२०० वंदणणमंसणेहि ४५७ विसयकसाओगाढो १६५ वेज्जावच्चणि मित्तं २८७ स इदाणि कत्ता २८४ सत्तासंबद्धंदे
७७ सदवट्ठिदं सहावे २४६ सद्दव्वं सच्च गुणो १०० सपदेसेहि समग्गो ३३४ सपदेसो सो अप्पा
सपदेसो सो अप्पा ५१३
सपरं वाधासहियं ३४२
सब्भावो हि सहावो समओ दु अप्पदेसो
समणं गणि गुणड्ढे ३३३
समणा सुद्धवजुत्ता ११३
समवेदं खलु दव्व २१५
समसत्तुबंधुवग्गो ४०८ सम्म विदिदपदत्था ३८८
सयमेव जहादिच्चो
सव्वगदो जिणवसहो २५२ सव्वाबाधविजुत्तो ३२८ सव्वे आगमसिद्धा
सव्वे वि य अरहंता
सपंज्जाद णिव्वाणं ४८३
सुत्तं जिणोवदिट्ठ ३३०
सुद्धस्स य सामण्णं
सुविदिदपदत्थसुत्तो ३६७ सुहृपरिणामो पुण्णं २५० सेसे पुण तित्थयरे २६१ सोक्ख वा पुण दुक्खं २५३ सोक्खं सहावसिद्ध ३६४ वदि व ण हवदि २६७ हीणो जदि को आदा
२६५ ३८५ ४६७ १६२ ४५६
११३ २१७ २०६
२४१
२७२
२४३
१२२ ४३ ३७१
१३१ १७३
८४ १७६
१४८ ३३७
४४७ १४५
२५५ १७४
५११ २३
२५२
३४०
२१० १३० १३६ १३२
१२६
०
४११
sh
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
आत्मा धर्मः स्वयमिति
इत्याध्यास्य शुभोपयोग
इत्युच्छेदात्परपरिणते:
इत्येवं चरणं पुराणपुरुषः
इत्येवं प्रतिपत्त राशय
जानन्नप्येष विश्वं
जैनं ज्ञानं ज्ञयतत्त्व
ज्ञेयोकुर्वन्नञ्जसा
तन्त्रस्यास्य शिखण्डि
कलशकाव्योंकी वर्णानुक्रम सूची
छन्द नं०
५
१७
८
१५
१६
४
१०
११
१८
पृष्ठ नं०
१६४
५०५
२४३
४३८
द्रव्यान्तरव्यतिकरा
४६३ निश्चित्यात्मन्यधिकृत
६३ परमानन्दसुधारस
३७६ वक्तव्यमेव किल
३७६ सर्वव्याप्येकचिद्रूप
५०५ हेलोल्लुप्त महामोह
द्रव्यसामान्यविज्ञान
द्रव्यस्य सिद्धौ चरणस्य
द्रव्याणुसारि चरणं
छन्द नं०
र्द
१३
१२
७
६
३
१४
१
२
पृष्ठ नं०
२४३
३७८
३७६
२४३
१६४
१
४१२
१
१
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
शुद्धि
पृष्ठ
। १८ ) शुद्धि-अशुद्धि-पत्र पंक्ति अशुद्धि
करती हुई लक्षणभून खुखका दहकी
पंक्ति
१८
पृष्ठ १०१ १०८
अशुद्धि कृतज्ञाता हुवाते विशुद्धि अबिकार प्रन्य प्वतंत्रपना आर इन्द्रियग्राम आत्मके द्वारा व्वापकर
कृतज्ञता बताते विशुद्ध अविकार अन्य स्वतंत्रपना और इन्द्रियज्ञान आत्माके
शुद्धि करता हुवा लक्षणभूत सुखका देहकी मिट न जौंक जाने से
मिट गौंच
० ०PY FM
छाने
१४०
१४१
क्षीयमान निष्क्रिय अकम्परूप से
व्यापकर
१४१ १४१ १४२ १५१ १५२
आदत
आद्रत
and
होता
१६४
होता
होती होती त्रिकाल
क्षीयमाण निष्क्रिय अवम्परूप से परिणाम उयपदविवरण सभ्यास था चंद्र जिसमें ध्यय अनस्थित होना उसा ग्राह पयायाथिक विध
अब
१७० १७५ १६७ २०२ २०५
800008050000000000000000000300
उभयदविवरण अभ्यास गाथा चंद्रा जिसने व्यय अवस्थित होता उसी ग्राह्य पर्यायार्थिक विरोध हवे छेदात्
तिकाल अग जानना पति सप्रवेश समत करम्बित दिकल्प प्रबुद्धि केधली वियोगज
जानता अति सप्रदेश समस्त
5 00000
२१६ २१६
२१७
विकल्प अबुद्धि केवली वियोग
चेदात्
२४२ २४८ २५२ २५२
धम
धर्म
२५३
कारकरम्बित
पर्या
वर्ण पर्याय गमन
गगन
६७ ६७
२५३ २५६ २५७ २६२
था
या बाली
वाला
૧૦૧
२६
पुप्गल
पुद्गल
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
audioaa.
..
.
..
Mana-
t
imhaMORikaran
अशुद्धि
पृष्ठ
पंक्ति
अशुद्धि
पृष्ठ
पंक्ति
sessivadisind
किसी भी
कारण
किसो भी कारण जम्प भा
२७५ २७५ २७७
o
or
जस्स भी
Air Irr
28
ition
प्रदेश ध्यवहार
२८०
२७ ११
चह
व्यहार वह पब जीवत्व
२८१
निधिकार पयथाजात जानरूपधर यथाजावरूप आलाचनविष वदमिदिदिय छेदोपस्थाश्या निवेश प्रगिति द्र न्यायिक नोरंब धिकथा जिसके तत्प्रत्ययक
अन्न जीवाव स्वभाव
४००
स्दभाव
बाघ
३११
000000000000MGIRIewwwwwwsawaininesian IANTValentinen-
१६
कहना तादात्म्य
करना तावा पत्रों ओर
क्यों
निधिकार अयथाजात ३८८ जातरूपधारत्व यधाजातरूप आलोचनविष यदम मिदिदिय छेदोपस्थापना २६६ निर्देश प्रगति द्वाधिक ४०४ नीरंग
४०४ विकथावों में ४०५ जिराके है ४१० तत्प्रत्यक
४१० नहीं
४१३ निर्गन्य ४२१
४२२ मार्ग ४२२ योग्य
काहारपने की ४३१ हिसाका ४३३ अहिसायं द्रष्याथिकनय
४४१ जिसने पदार्थों को ४४२ परास्मज्ञान ४४२ एकता सवेदम हो रहे
और
३५७ निमित्तमात्र है, आत्मा ३४८ उनका कर्ता नहीं कम्मरजेहि हलाहल ३५२ तोत्र तीयानुभाग
करमरजेहि हालाहल
m
१०
निर्गन्य चित्र माग योग्य युक्ताहारपनेही हिणका अष्टिपायें द्रव्याथिकनय
m mmmmm
नीत्र
तीबानुभाग
m
PRc&
अतम्पय
अतरमय
३५८
सहजानन्दम् जाता
परमाध्यस्थ्य
सहजानन्दामृत होता परमाराध्यस्थ अशुद्धता पदार्थ
Aminorit
जिसमें पदार्थोंको परमत्मज्ञान सकता संवेदन
अगुत्तत्ता पदार्थ
३६६
३६८
४४६
साय
सनत अवादि अधमोदय अत जनशरीर
३७२ ३८१ ३८२
साथ
सतत अनादि अवमोदयं अब जनकधारीर
३८३
१४
श्र
४७१
HTTime
श्रम उपदेश
उपटेश
DoordP RIT
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
E
अशुद्धि
शुद्धि
शद्धि
पृष्ठ
पंक्ति
शुद्धि
पृष्ठ
पंक्ति
अब्पले
अल्प
२७.
अशुद्धि उतृतीय अभ्युत्या श्रमषा
४६३
दखे
४७६
तृतीय अभ्युत्था श्रमणा
४६५
शुन्य
कारणा
४८० ४८४ ४८५
कारण
शून्य दिखलाते छद्मस्थ जाती तत्त्वोपासक श्रमण अशुभोप
विखलाते छद्मस्य जातो तत्त्वोपासक মগ अशुभीप
वाल होय
वाला होय
४६६ ५०१ ५०१ ५०१ ५०१
अर्थ
४८६
१०
वह
धह संगति
'४६१
सगति से.
५०५
iantactarmananewmome
mananmintama
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूज्यपादश्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यप्रणीतः
प्रवचनसारः
१. ज्ञानतत्न-प्रज्ञापनम्
श्रीमवमृतचन्द्रसूरिकृततत्वप्रदीपिकावृत्तिः
Houseumakalinsanilimmisthurimaithun
(मङ्गलाचरम्) सर्वव्याप्येकचिद्र पस्वरूपाय परात्मने। स्वोपलब्धिप्रसिद्धाय ज्ञानानन्दात्मने नमः ॥ १ ॥ हेलोल्लुप्तमहामोहतमस्तोमं जयत्यदः । प्रकाशयञ्जगत्तत्त्वमनेकान्तमयं महः ॥ २ ॥ परमानन्दसुधारसपिपासितानां हिताय भव्यानाम् ।
क्रियते प्रकटिततत्त्वा प्रवचनसारस्य वृत्तिरियम् ॥ ३ ॥ अध्यात्मयोगी न्यायतीर्थ पूज्य श्री गुरुवर्य श्रीमत्सहजानन्दकृत
सप्तदशाङ्गी टीका सर्वव्याप्येक इत्यादि...- अर्थ--सर्वव्यापी एक चित्स्वरूपमय, स्वोपलब्धिसे प्रसिद्ध ज्ञानानंदात्मक उत्कृष्ट प्रात्माको नमस्कार हो । भावार्थ---यहाँ प्रात्माके सहजस्वरूपको नमस्कार किया गया है, क्योंकि इसी सहज स्वरूपके आश्रयसे मोक्षमार्ग में प्रगति कर मोक्ष प्राप्त किया जाता है एवं स्वरूपके अनुरूप विकास होता, अतः इन्हीं विशेषणों द्वारा सर्वज्ञ वीतराग परमात्माको नमस्कार किया गया है ।
प्रसंगविवरण-प्रवचनसार ग्रन्थ राजकी तत्त्वप्रदीपिका टीका करते समय श्री अमृत
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां
अथ खलु कश्चिदासनसंसारपारावारः समुन्मीलितसातिशयविवेकज्योतिरस्तमितसमस्तैकान्तवादविद्याभिनिवेशः पारमेश्वरीमनेकान्तवादविद्यामुपगम्य मुक्तसमस्तपक्षपरिग्रहतयात्य
HERE
-
-
चंद्रजी सूरिके द्वारा ज्ञानानन्दप्ररूपक ग्रंथके प्रारम्भमें ज्ञानानन्दात्मक प्रात्माके उत्कृष्ट सहज स्वरूपको नमस्कार किया गया है ।
तथ्यप्रकाश-(१) परम प्रात्मपदार्थ एक चैतन्यस्वरूपमय है । (२) यह एक चैतन्य स्वरूप प्रात्माके सब गुण पर्यायोंमें व्यापक है । (३) परम आत्मपदार्थ अपने सहज स्वरूपके अनुभवसे सुपरिचित होता है। (४) परम आत्मपदार्थ ज्ञानानन्दात्मक है । (५) परमात्मा ज्ञान द्वारा लोकालोकमें सर्वत्र व्यापक है तो भी वह एक चैतन्यस्वरूपमात्र है, अपने प्रात्मप्रदेशोंमें ही परिसमाप्त है । (६) परमात्मा अात्मस्वभावके अनुरूप हो पूर्ण विकसित है अतः आत्मस्वभावके परिज्ञानसे हो परमात्माका परिचय होता है । (७) परमात्मा उत्कृष्ट ज्ञानमय और उत्कृष्ट प्रानन्दमय है ।
सिद्धान्त-(१) ज्ञानमुखेन सर्वज्ञेयवर्ती प्रात्माका परिचय होता है । (२) प्रात्माके सब गुरण पर्यायोंमें व्यापक एक चैतन्यस्वरूप है । (३) स्वरूपकी उपलब्धिसे परमात्मपदार्थकी प्रकृष्ट सिद्धि होती है । (४) परमात्माका स्वरूप परमकाष्ठाप्राप्त ज्ञानानन्द है । (५) आत्मा का सहज स्वरूप सहज ज्ञानानन्दस्वभाव है ।
दृष्टि--(१) सर्वगतनय [१७२] । (२) सामान्य नय [१६७] । (३) पुमषकारनय [१८३] । (४) शुद्धनिश्चयनय [४६] । (५) परमशुद्धनिश्चयनय [४४-४५] ।
प्रयोग-सहज ज्ञानानन्दमय स्वरूपको दृष्टि करके इस अद्वैतनमस्कारके प्रसादसे शरण्य सहजपरमात्मतत्त्वको अपने में प्रसिद्धि करना ।
हेलोल्लुप्त इत्यादि--अर्थ---लीलामात्रमें नष्ट किया है महामोहरूपी अन्धकार जिसने ऐसा यह अनेकान्तमय तेज जगत्स्वरूपको प्रकाशित करता हुअा जयवंत होता है । भावार्थअनेकान्त दृष्टिसे प्रकाश करने वाला ज्ञान यथार्थ वस्तुस्वरूपको जताता है जिससे गहन मोहान्धकार सुगमतया नष्ट हो जाता है ।
__ प्रसंगविवरण-पूर्व मंगलाचरण छन्दमें ज्ञानानन्दात्मक उत्कृष्ट प्रात्मतत्त्वको नमस्कार किया था । अब अज्ञानान्धकारको दूर कर उस आत्मतत्त्वका परिचय कराने वाले अने. कान्तमय तेजका जयवाद किया है ।
तथ्यप्रकाश-(१) वस्तु अनेकधर्मात्मक है। (२) वस्तुके अनेक धर्मोंका परिज्ञान अनेक दृष्टियोंसे होता है । (३) अनेक दृष्टियोंसे अनेक धर्मोका परिचय होनेसे वस्तुका बोध
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानकर गा
प्रवचनसारः
३
न्तमध्यस्थो भूत्वा सकलपुरुषार्थसारतया नितान्तमात्मनो हिततमां भगवत्पंचपरमेष्ठिप्रसादोप
होता है । (४) स्वतंत्र स्वस्वसत्तामात्र पदार्थों का परिचय होनेसे मोहान्धकार नष्ट हो जाता है ) ( ५ ) मोहान्धकार नष्ट होनेपर उत्कृष्ट प्रात्मतत्त्व में आदर होता है । सहजपरमात्मतत्त्व की उपासना से परमकाष्ठाप्राप्त ज्ञान और आनन्द प्रकट होता है ।
सिद्धान्त - ( १ ) अनेकान्तमय तेजसे वस्तुका यथार्थ ज्ञान होता है ।
दृष्टि - ( १ ) सकलादेशी स्याद्वाद ।
प्रयोग -- स्याद्वाद से वस्तुनिर्णय करके मोह ग्रज्ञान नष्ट कर स्व सहज ज्ञानानन्दको जयवंत करना ।
परमानन्द इत्यादि - - श्रर्थ- उत्कृष्ट प्रानन्दरूपी अमृतरसके प्यासे भव्य जीवोंके हित के लिये वस्तुस्वरूपको प्रकट करने वाली प्रवचनसारकी यह वृत्ति अर्थात् टीका की जा रही है । भावार्थ - प्रवचनसारकी यह टीका यथार्थ स्वरूपको प्रकट करने वाली होनेसे भव्य जीवों को परम आनन्द देने वाली है ।
प्रसंगविवरण - पूर्व छंद में अनेकान्तमय तेजका, वस्तुस्वरूपको प्रकाशनेका तथ्य बता कर जयवाद किया था। अब उसी अनेकान्तविधिसे तत्त्वको प्रकट करने वाली प्रवचनसारकी टीका रची जानेका लक्ष्य बताया गया है ।
तथ्यप्रकाश
- (१) स्वस्वद्रव्यगुरणपर्यायमय वस्तुका परिज्ञान होनेसे पर वस्तुके प्रति आकर्षण नहीं रहता है । ( २ ) परवस्तुके प्रति ग्राकर्षण नष्ट हो जानेपर ग्रात्मवस्तुकी अभि मुखता होती है । ( ३ ) ग्रात्मतत्त्व के प्रभिमुख जीवको प्रात्मत्वके श्राश्रयसे परम आनन्द प्रकट होता है । ( ४ ) परमानन्दसुधारस के प्यासे भव्य जीवों के हितके लिये यह टीका रची जा रही
है ।
सिद्धान्त - - ( १ ) किसीकी रचनासे अन्य कोई लाभ उठाये तो वहाँ उसके लिये रचना की जानेका व्यवहार होता है ।
दृष्टि - १ - परसंप्रदानत्व ग्रसद्भूत व्यवहार (१३२) ।
प्रयोग - प्रवचनसार ग्रन्थ व उसकी टीकाका स्वाध्याय अपनेपर तथ्यको घटित करते हुए करना और श्रात्मीय आनन्दसे तृप्त होने की वृत्ति बनाना ।
श्रथ इत्यादि । अर्थ- - अब निकट है संसारसमुद्रका किनारा जिसका प्रकट हो गई है सातिशय विवेक ज्योति जिसकी, नष्ट हो गया है समस्त एकान्तवादविद्याका आग्रह जिसके ऐसा कोई महापुरुष (श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव ) परमेश्वर जिनेन्द्रदेवकी अनेकान्तवादविद्याको
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
४
सहजानन्दशास्त्रमालायां
जन्यां परमार्थसत्यां मोक्षलक्ष्मीमक्षयामुपादेयत्वेन निश्चिन्वन् प्रवर्तमानतीर्थनायकपुरःसरान् भगवतः पंचपरमेष्ठिनः प्रणमनवन्दनोपजनितनमस्करणेन संभाव्य सर्वारम्भेण मोक्षमार्ग संप्रतिपद्यमानः प्रतिजानीते---
प्राप्त करके समस्त पक्षपरिग्रहसे मुक्त हो जानेसे प्रत्यन्त मध्यस्थ होकर सर्व पुरुषार्थों में सारपना होनेसे आत्मा के लिये प्रत्यन्त उत्कृष्ट हिततम, भगवान पञ्च परमेष्ठोके प्रसादसे उपजन्य परमार्थसत्य अविनाशी मोक्षलक्ष्मीको उपादेयरूपसे निश्चित करता हुआ प्रवर्तमान तीर्थके नायक श्री महावीर स्वामी पूर्वक भगवंत पंच परमेष्ठियोंको प्रणमन वन्दनसे होने वाले नमस्कार के द्वारा विनय करके सर्व उद्यमसे मोक्षमार्गको प्राप्त होता हुआ प्रतिज्ञा करता है । भावार्थ - श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव वर्तमानधर्मतीर्थनायक महावीर भगवानको प्रणाम कर शेष समस्त तीर्थंकर व पञ्च परमेष्ठियों को प्रणाम कर सर्व उद्यमसे अपना लक्ष्य प्रकट करेंगे ।
तथ्यप्रकाश - ( १ ) जिसका संसारसागर से पार होना निकट है वही मोक्षमार्गको प्राप्त होता है । (२) जिसके सातिशय विवेक ज्योति प्रकट हुई है वही अनेकान्तवादको विद्या को प्राप्त कर सकता है । ( ३ ) जिसके किसी भी एकान्तवादका प्राग्रह नहीं रहा वही पक्ष परिग्रह दूर कर निष्पक्ष हो सकता है । ( ४ ) मोक्षलक्ष्मी ही प्रात्माको हितरूप है । ( ५ ) समस्त पुरुषार्थों में सार मोक्षोद्यम है ।
सिद्धान्त -- ( १ ) मोक्षलक्ष्मी पञ्च परमेष्ठी के प्रसादसे उपजन्य है । (२) पञ्च परमेष्ठीका प्ररणमन वन्दनसे होने वाले नमस्कारसे विनय किया जाता है ।
दृष्टि - श्राश्रये श्राश्रयी उपचारक व्यवहार [ १५१ ] ।
प्रयोग - विवेकज्योति प्रकट करके एकान्तवादहठ छोड़कर पञ्च परमेष्ठीको उपासना
से प्रत्माभिमुखताकी पात्रताके वातावरण में समतासंपादनका पौरुष करना ।
अब गाथासूत्रोंका अवतार होता है - [ एषः ] यह मैं [ सुरासुरमनुष्येन्द्रवंदितं ] सुरेन्द्रों, सुरेन्द्रों और नरेन्द्रोंसे वन्दित तथा [ धौतघातिकर्ममलं ] जिन्होंने घातिकर्ममलको धो डाला है, ऐसे [तीर्थं] तीर्थरूप और [ धर्मस्य कर्तारं ] धर्मके कर्ता [ वर्धमानं ] श्री वर्द्धमान स्वामीको [प्रणमामि] नमस्कार करता हूँ। [ पुनः] और [ विशुद्धसद्भावान् ] विशुद्ध सत्तावाले [ससर्वसिद्धान्] सर्वं सिद्धभगवन्तों सहित [शेषान् तीर्थंकरान् ] शेष तीर्थंकरोंको [च] और [ ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारान् ] ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार तथा वीर्याचार युक्त [श्रमरणान् ] श्रमरणोंको नमस्कार करता हूं । [ तान् तान् सर्वान् ] उन उन सबको [च] तथा [भानुषेक्षेत्रे वर्तमानान् ] मनुष्य क्षेत्र में विद्यमान [ श्रर्हतः ] ग्ररहन्तोंको [ समकं समकं ] साथ ही साथ याने समुदायरूपसे और [ प्रत्येकं एव प्रत्येकं ] प्रत्येक प्रत्येकको याने व्यक्तिगत [ वन्दे ]
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
का
AAR
प्रवचनसार:
अथ सूत्रावतार:
एस सुरासुरमणुसिंदवंदिदं धोदघाइकम्ममलं । पणमामि वड्ढमाणं तित्थं धम्मस्म कत्तारं ॥१॥ सेसे पुण तित्थयरे ससव्वसिद्ध विसुद्धसभावे । समणे य गाणदसणचरित्ततक्वीरियायारे ॥२॥ ते ते सव्वे समगं समगं पत्तेगमेव पत्तेगं । वंदामि य वट्टते परहंते माणुसे खेत्ते ॥३॥ किच्चा अरहंताणं सिद्धाणं तह णमो गणहराणं । अमावयवग्गाणं साहूणं चेदि सव्वेसिं ॥ ४ ॥ तेसिं विसुद्धदंसणणाणपहाणासमं समासेज्ज । उवसंपयामि सम्म जत्तो णिव्वाणसंपत्ती ॥५॥ यह मैं इन्द्रों द्वारा, वंदित रिपुधातिकर्ममलव्यपगत । तीर्थमय धर्मकर्ता, वद्ध मान देवको प्रणम ॥१॥ शेष तीर्थेश व सकल, विशुद्धसद्भावमय सुसिद्धोंको।
दर्शन ज्ञान चरित तप, वीर्याचारेश श्रमणोंको ॥ २ ॥ नामसंज्ञ-एत, सुरासुरमणुसिंदवंदिद, धोदघाइकम्ममल वड्ढमाण, तित्थ, धम्म, कत्तार, सेस, पुण, तित्थयर, ससव्वसिद्ध, विसुद्धसब्भाव, समण, य, णाणदंसणचरित्ततववीरियायार, त, त, सव्व, बन्दना करता हूं। [इति] इस प्रकार [अर्हद्भयः] अहंतोंको [सिद्धेभ्यः] सिद्धोंको [तथा गणधरेभ्यः] प्राचार्योंको [अध्यापकवर्गभ्यः] उपाध्यायवर्गको [च] और [सर्वेभ्यः साधुभ्यः] सर्व साधुओंको [नमः कृत्वा] नमस्कार करके [तेषां] उनके [विशुद्धदर्शनज्ञानप्रधानाश्रमं] विशुद्ध दर्शनज्ञानप्रधान प्राश्रमको [समासाद्य] प्राप्त करके [साम्यं उपसंपद्य] मैं समभावको प्राप्त करता हूं [यतः] जिससे [निर्वाणसंप्राप्तिः] निर्वाणकी प्राप्ति होती है।
टोकार्थ-यह स्वसंवेदनप्रत्यक्षदर्शनज्ञानसामान्यात्मक मैं प्रवर्तमान तीर्थनायकताके कारण प्रथम ही सुरेन्द्रों, असुरेन्द्रों और नरेन्द्रोंके द्वारा वन्दित होनेसे तीन लोकके एक मात्र गुरु घातिकर्ममलके धो डालनेसे जगतपर अनुग्रह करनेमें समर्थ अनंतशक्तिरूप परमेश्वरतासे युक्त तीर्थताके कारण योगियोंको तारनेमें समर्थ, धर्मके कर्ता होनेसे शुद्ध स्वरूपपरिणतिके विधाता परम भट्टारक, महादेवाधिदेव, परमेश्वर, परमपूज्य, सुगृहीतनाम श्रीवर्द्धमानदेवको
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां
RATAKAraanta
T
उन उन सबको युगपत्, अथवा प्रत्येक एकशः प्ररणमू। मानुष क्षेत्रमें सुस्थित, बन्दू अरहंत देवोंको ॥३॥ अरहंतों सिद्धोंको, प्रणमन करके तथा गणेशोंको । उपाध्याय वर्गोको, तथा सकल साधुवृन्दोंको ॥४॥ उनके विशुद्ध दर्शन, ज्ञान प्रधानी चिदाश्रम हि पाकर ।
साम्य श्रामण्य पाऊं, जिससे शिवलब्धि होती है ।। ५ ।। एष सुरासुरमनुष्येन्द्रवन्दितं धौतघातिकर्ममलम् । प्रणमामि वर्धमानं तीथ धर्मस्य कर्तारम् ।। १ ।। शेषान् पुनस्तीर्थंकरान् ससर्वसिद्धान् विशुद्धसद्भावान् । श्रमणांश्च ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारान् ।। २ ।। तांस्तान् सर्वान् समकं समकं प्रत्येकमेव प्रत्येकम् । वन्दे च वर्तमानानहतो मानुषे क्षेत्रे ॥ ३ ।। कृत्वाहद्भ्यः सिद्धेश्यस्तथा नमो गणधरेभ्यः । अध्यापकवर्गेभ्यः साधुभ्यश्चेति सर्वेभ्यः ।। ४ ।। तेषां विशुद्धदर्शनज्ञानप्रधानाश्रमं समासाद्य उपसंपद्ये साम्यं यतो निर्वाणसंप्राप्तिः ।। ५ ।।
एष स्वसंवेदनप्रत्यक्षदर्शनज्ञानसामान्यात्माहं सुरासुरमनुष्येन्द्रवंदितत्वात्रिलोकैकगुरु, धौतघातिकर्ममलत्वाञ्जगदनुग्रहसमर्थानन्तशक्तिपारमैश्वर्यं, योगिनां तीर्थत्वात्तारणसमर्थ, धर्मकर्तृत्वाच्छुद्धस्वरूपवृत्तिविधातार, प्रवर्तमानतीर्थनायकत्वेन प्रथमत एव परमभट्टारकमहादेवा. समगं, समगं, पत्तेग, एव, पत्तेग, य, वट्टत, अरहंत, माणुस, खेत्त, अरहंत, सिद्ध, तह, णमो, गणहर, अज्झावयवग्ग, साहु, च, इदि, सव्व, त, विसुद्धदंसणणाणपहाणासम, सम्म, जत्तो, णिव्वाणसंपत्ति । धातुप्रणाम करता हूं । तत्पश्चात् इन्हीं पंचपरमेष्ठियोंको, उस उस व्यक्तिमें (पर्याय में) व्याप्त होने वाले सभीको, वर्तमान में इस क्षेत्रमें उत्पन्न तीर्थंकरोंका अभाव होनेसे और महाविदेहक्षेत्रमें उनका सद्भाव होनेसे मनुष्यक्षेत्रमें प्रवर्तमान तीर्थनायकोंके साथ वर्तमानकालको गोचर करके, युगपद् युगपद् अर्थात् समुदायरूपसे प्रौर प्रत्येक प्रत्येकको अर्थात् व्यक्तिगत रूपसे मोक्षलक्ष्मीके स्वयंवर समान परम निर्ग्रन्थताकी दीक्षाके उत्सवके उचित मंगलाचरणभूत कृतिकर्मशास्त्रोपदिष्ट वन्दनोच्चारके द्वारा पाराधता हूं। अब इस प्रकार अरहन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय तथा सर्व साधुनोंको प्रणाम और वन्दनोच्चारसे प्रवर्तमान द्वैतके द्वारा, भाव्यभावक भावसे उत्पन्न अत्यन्त गाढ़ इतरेतर मिलनके कारण समस्त स्वपरका विभाग विलीन हो जानेसे प्रवृत्त है अद्वैत जिसमें ऐसा नमस्कार करके, उन्हीं अरहंत, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधूप्रोंके विशद्धज्ञानदर्शनप्रधान होनेसे सहजशुद्धदर्शनज्ञानस्वभाव वाले प्रात्मतत्त्वका श्रद्धान ज्ञान लक्षण वाले सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके सम्पादक पाश्रमको प्राप्त करके सम्यग्दर्शनज्ञानसम्पन्न होकर, कषायकरण विद्यमान होनेसे जीवको पुण्यबन्धको प्राप्तिके कारणभूत क्रमापतित भी सराग चारित्रको दूर उल्लंघन करके, समस्त कषायक्लेशरूपी कलंकसे भिन्न होनेसे निर्वाणप्राप्तिके कारणभूत वीतरागचारित्र नामक साम्यको प्राप्त करता हूं। सम्यग्दर्शन, सम्य
PATES
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
RATTIMI
प्रवचनसारः
AShanchisaudaipaniswapdeos
धिदेवपरमेश्वरपरमपूज्यसुगृहीतनामश्रीवर्धमानदेवं प्रणमामि ॥१॥ तदनु विशुद्धसद्भावत्वादुपातपाकोत्तीर्णजात्यकार्तस्वरस्थानीयशुद्धदर्शनज्ञानस्वभावान् शेषानतीततीर्थनायकान् सर्वान् सिद्धांश्च, ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारयुक्तत्वात्संभावितपरमशुद्धोपयोगभूमिकानाचार्योपाध्यायसाधुत्वविशिष्टान् श्रमणांश्च प्रणमामि ॥ २ ॥ तदन्वेतानेव पंचपरमेष्ठिनस्तत्तद्वयक्तिव्यापिनः सर्वानेव सांप्रतमेतत्क्षेत्रसंभवतीर्थकरासंभवान्महाविदेहभूमिसंभवत्वे सति मनुष्यक्षेत्रप्रतिभिस्ती. र्थनायकैः सह वर्तमानकालं गोचरीकृत्य युगपागपत्प्रत्येकं प्रत्येकं च मोक्षलक्ष्मीस्वयंवरायमाणपरमनैर्ग्रन्थ्यदीक्षाक्षणोचितमंगलाचारभूतकृतिकर्मशास्त्रोपदिष्टवंदनाभिधानेन संभावयामि ।।३।। मंज-वंद स्तुतौ तृतीयगणी, प नम नम्रीभावे प्रथमगणी, सम् आ सीय प्राप्त्यर्थे, उव सं पय गतौ । प्राति. पदिक-एतत्, सुरासुरमनुष्येन्द्रवंदित, धौतधातिकर्ममल, वर्द्धमान, तीर्थ, धर्म, कर्तृ, शेष, पुनः, तीर्थङ्कर, ससर्वसिद्ध, विशुद्धसद्भाव, श्रमण, च, ज्ञानदर्शनचरित्रतपोवीर्याचार, तत्, सर्व, समक, समक, प्रत्येक, एव, प्रत्येक, च, वर्तमान, अर्हत्, मानुष, क्षेत्र, अर्हत्, सिद्ध, तथा, नमः, गणधर, अध्यापकवर्ग, साधु, च, इति, सर्व, तत्, विशुद्धदर्शनज्ञानप्रधानाश्रम, साम्य, यतः, निर्वाणसम्प्राप्ति । उभयपदविवरण-एस एषः-प्रथमा एकवचन । सुरासुरमणुसिंदवंदिदं सुरासुरमनुष्येन्द्रवन्दितं-द्वितीया एकवचन । धोदघाइकम्ममलं धौतघातिकर्ममल-द्वि० ए० । पणमामि प्रणमामि-वर्तमान लट् उत्तम पुरुष एकवचन। वडढमाणं वर्द्धमान, ति तीर्थ-द्वि० ए० । धम्मस्स धर्मस्य-षष्ठी ए०। कत्तारं कर्तारं-द्वि० ए० 1 सेसे शेषान, ति ससव्वसिद्धे ससर्वसिद्धान्, विसुद्धसब्भावे विशुद्धसद्भावान्-द्वितीया बहुवचन । समणे श्रमणान्, णाणदसणचरित्ततववीरियायारे ज्ञानदर्शनचरित्रतपोवीर्याचारान्, ते ते, तान् तान्, सव्वे सर्वान्-द्वि० बहु० । समगं समगं, समकं समक-अव्यय । पत्तेगं प्रत्येक-द्वि० एक० । वंदामि वन्दामि-वर्तमान लट् उत्तम पुरुष एक० । ग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको ऐक्यस्वरूप एकाग्रताको मैं प्राप्त हुआ हूं, यह इस प्रतिज्ञाका अर्थ है । इस प्रकार यह (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्य देव) साक्षात् मोक्षमार्गको प्राप्त हुआ।
तात्पर्य----पाराध्यकी आराधना कर परम अभेद अाराधनाका प्रतिज्ञापन हुअा है । __ प्रसंगविवरण--प्राचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव प्रवचनसार गाथाग्रंथ की रचना करने वाले हैं सो उससे पहिले सर्वप्रथम तीर्थनायक महावीर भगवानको प्रणाम करके फिर समस्त आरा. ध्य देव गुरुवोंको प्रणाम करके ग्रंथरचनाके प्रयोजनभूत समताभावको प्रतिपन्नताकी भावना कर रहे हैं। - तथ्य प्रकाश--(१) आराध्यके आराधकको स्वयं अपना प्रात्मा स्वसंवेदनप्रत्यक्षगम्य है सो अपने आपको देखता हुआ कह रहा है कि यह मैं वर्द्धमान देवको प्रणाम करता हूँ। (२) वर्द्धमान प्रभुको त्रिलोकगुरुताका सर्वजन विदित प्रमाण यह है कि प्रभु तीन लोकोंके इन्द्रों द्वारा वंदित हैं । (३) घातिया कर्मोंके दूर होनेसे वर्द्धमान प्रभुमें संसारी प्राणियोंका अनुग्रह करने में समर्थ अनंत शक्तिका पारमैश्वर्य प्रकट हुअा है। (४) चौबीसवें तीर्थंकर श्री वर्द्धमान स्वामीका तीर्थ इस समय बर्त रहा है इस कारण ये योगियोंके तीर्थ हैं, धर्मकता हैं
l
maamannanorancommama
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां अथैवमर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधूनां प्रणतिवन्दनाभिधानप्रवृत्तद्वैतद्वारेण भाव्यभावकभावविजम्भितातिनिर्भरेतरेतरसंवलन बलविलीननिखिलस्वपरविभागतया प्रवृत्ताद्वैतं नमस्कारं कृत्वा ।४। तेषामेवाहत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधूनां विशुद्धज्ञानदर्शनप्रधानत्वेन सहजशुद्धदर्शनज्ञानस्वभावात्मतत्त्वश्रद्धानावबोधलक्षणसम्यग्दर्शनज्ञानसंपादकमाश्रमं समासाद्य सम्यग्दर्शनज्ञानसंपन्नो भूत्वा, जीवत्कषायकणतया पुण्यबन्धसंप्राप्तिहेतुभूतं सरागचारित्रं क्रमापतितमपि दूरमुत्क्रम्य सकलकषायकलिकलङ्कविविक्ततया निर्वाणसंप्राप्तिहेतुभूतं वीतरागचारित्राख्यं साम्यमुपसंपद्ये । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैक्यात्मकैकाग्र्यं गतोऽस्मीति प्रतिज्ञार्थः । एवं तावदयं साक्षान्मोक्षमार्ग संप्रतिपन्नः ॥५॥ य च, इदि इति, तह तथा, जत्तो यत:-अव्यय । वट्ट ते वर्तमानान्, अरहते अर्हतः-द्वि० एक० । माणुसे मानुषे, खेत्ते क्षेत्रे-सप्तमी ए० । किच्चा कृत्वा-असमाप्तिकी क्रिया । अरहंताणं अर्हद्भ्यः, सिद्धाणां सिद्धेभ्यः, गणहराणं गणधरेभ्यः, अज्झावयग्गाणं अध्यापकवर्गेभ्यः, साहूणं साधुभ्यः, सव्वेसि सर्वेभ्य:-चतुर्थो बहु० । णमो नमः-अव्यय । तेसिं तेषां-षष्ठी बहु० । विसुद्धदंसणणाणपहाणासमं विशुद्धदर्शनज्ञानप्रधानाश्रम-द्वि० एक० । समासेज्ज समासाद्य:-असमाप्तिकी क्रिया । उपसंपयामि उपसंपद्य-वर्तमान लट् उत्तम पुरुष एक० । सम्म साम्यं-द्वि० एक० । णिव्वाणसंपत्ती निर्वाणसंप्राप्ति:-प्रथमा एक० । निरुक्तिसमासक्रियते इति कर्म, तीर्थ करोतीति तीर्थंकरः तान, सर्वच सिद्धाश्चेति सर्वसिद्धाः तैः सहिताः ससर्वसिद्धाः तान्, विशुद्धः सद्भावः येषां ते विशुद्धसद्भावास्तान्, ज्ञानं च दर्शनं च चारित्रं च तपश्च वीयं च ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याणि तेषां आचारः येषां ते तान्, एकं एक प्रति इति प्रत्येकं ।। १-५ ॥ और इसी कारण कृतज्ञाताप्रकाशनमें प्रथम हो इनको प्रणाम किया गया है । (५) वर्द्धमान देवको प्रणाम करनेके अनंतर ही तुरंत सर्व परमेष्ठियोंको प्रणाम किया गया है । (६) सभी पाराध्य समान हैं, अतः सबको एक साथ ही प्रणाम करनेकी उमंग हुई है, फिर भी प्रत्येककी वंदना साथ है । (७) प्रत्येक आराध्यको वन्दनाके भाव बिना समुदायको वंदनाका प्रसंग नहीं
आ पाता। (८) यद्यपि इस काल में यहाँ तीर्थंकर नहीं है तो भी पाराधक अत्यन्त भक्तिके बलसे ढाई द्वीपमें विदेहक्षेत्रमें प्रवर्तमान तीर्थनायकोंके साथ वर्तमानकाल जोड़ता हुअा समक्षो. कृत पाराध्योंको प्रणाम करता है। (६) पाराध्य परमेष्ठियोंको प्रणाम वन्दनाके शब्दों द्वारा द्वैतनमस्कार होता है । (१०) आराध्यके स्वरूपकी पाराधनाके बलसे स्वपरविभाग विलीन हो जानेपर स्वरूपाराधनमें अद्वैतनमस्कार होता है । यहाँ प्रात्मा ही आराध्य है व आत्मा ही पाराधक है। (११) सम्यग्दर्शनज्ञानसम्पन्न होकर आगे बढ़नेका पौरुष होनेपर भी कषायकण की जीवितताके समय विशिष्ट पुण्यबन्धकी प्राप्तिका कारणभूत सरागचारित्र आ पड़ता ही है तो भी ज्ञानो उसका उल्लंघन कर निर्वाणप्राप्तिका कारणभूत वीतरागचारित्रनामक समताभावको प्राप्त करता है । (१२) ग्रंथकर्ताने इसी साम्यभावकी भावना की है।
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
M
प्रवचनसार:
ARHarance
अथायमेव बीतरागसरागचारित्रयोरिष्टानिष्टफलत्वेनोपादेयहेयत्वं विवेचयति--
संपज्जदि णिव्वाणं देवासुरमणुयरायविहवेहिं । जीवस्स चरित्तादो दंसणणाणप्पहाणादो ॥६॥ नृसुरासुरेन्द्र वैभव-पूर्वक निर्वाण प्राप्त होता है ।
दर्शनज्ञानप्रधानी चारित सेये हि जीवोंको ॥ ६ ॥ संपद्यते निर्वाणं देवासुरमनुजराजविभवः । जीवस्य चरित्राद्दर्शनज्ञानप्रधानात् ॥ ६ ॥
___ संपद्यते हि दर्शनज्ञानप्रधानाच्चारित्राद्वीतरागान्मोक्षः । तत एव च सरागाद्देवासुरमनुनामसंज्ञ---णिव्वाण, देवासुरमणुयरायविहव', जीव, चरित्त, दंसणणाणप्पहाण । धातुसंज्ञ - सं पज्ज गतौ प्रथमगणी, निर वा वायुसंचरणयोः । प्रातिपदिक-निर्वाण, देवासुरमनुज राजविभव, जीव, चारित्र, दर्शनज्ञानप्रधान । मूलधातु-सं पद गतौ दिवादि, निस् वा गतिगन्धनयोः अदादि । पदविवरण-संपज्जदि संपद्यते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । णिव्वाणं निर्वाण-प्र० ए० । देवासुरमयरायविहवेहिं देवा
सिद्धान्त--- (१) अद्वैतनमस्कारमें ध्याता ध्येयका विकल्प न रहकर मात्र अात्मस्वरूप का आदर है।
दृष्टि- १- अविकल्पनय, ज्ञानज्ञेयाद्वैतनय (१६२, १७६) ।
प्रयोग--समतापुञ्ज अाराध्य परमेष्ठियोंकी द्वैत आराधनासे आगे बढ़कर स्वरूपरुचिमात्र अद्वैत अाराधनामें अविकार स्वरूपका अनुभव करना ॥१-५॥
___अब ये ही (कुन्दकुन्दाचार्यदेव) वीतरागचारित्रकी इष्टफल रूपसे और सरागचारित्र की अनिष्टफल रूपसे उपादेयता व हेयताका विवेचन करते हैं- [जीवस्य] जीवको [दर्शनज्ञानप्रधानात्] दर्शनज्ञान प्रधान [चारित्रात् ] चारित्रसे [देवासुरमनुजराजविभवैः] देवेन्द्र, असुरेन्द्र और नरेन्द्रके वैभवोंके साथ [निर्वाणं] निर्वाण [संपद्यते प्राप्त होता है ।
__ तात्पर्य---दर्शनज्ञानप्रधान चारित्रसे अनेक वैभवोंसे गुजरकर निर्वाणकी प्राप्ति होती
टीकार्थ-दर्शनज्ञानप्रधान वीतराग चारित्रसे, मोक्ष प्राप्त होता है, और दर्शनज्ञानप्रधान सरागचारित्रसे देवेन्द्र, असुरेन्द्र, नरेन्द्र के वैभवक्लेशरूप बंधकी प्राप्ति होती है । इसलिये मुमुक्षुत्रोंको इष्ट फल वाला होनेसे वीतरागचारित्र उपादेय है, और अनिष्ट फल वाला होनेसे सरागचारित्र हेय है।
प्रसंगविवरण-पूर्व गाथामें बताया था कि मैं समताको प्राप्त होता हूं , जिससे कि निर्वाणकी प्राप्ति होती है । अब इस गाथामें निर्वाणप्राप्तिका साधन बताया गया है ।
तश्यप्रकाश-(१) शुद्धचित्स्वरूपमें रमना चारित्र है । (२) भावसंसारमें डूबे हुए
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०
narwasnaanamasom
am
r iticismanand
सहजानन्दशास्त्रमालायां जराजविभवक्लेशरूपो बन्धः । अतो मुमुक्षुरगेष्टफलत्वाद्वीतरागचारित्रमुपादेयमनिष्टफलत्वात्सरागचारित्रं हेयम् ॥६॥ सुरमनुजराजविभवैः-तृतीया बहु । जीवस्स जीवस्य--१० ए० । चरित्ता दो चारित्रात्-पंचमी ए० । दसणणाणप्पहाणादो दर्शनज्ञानप्रधानात्-पं० ए० । निरुक्ति-नि:शेपेण वानं निर्वाण, दीव्यति देवः, सुरति सुरः, मनोः जातः मनुजः, विशेषेण भवनं विभवः, जीवति जीवः, चरणं चारित्रं । समास-दिवाश्च असुराश्च मनुजाश्च देवासुरमनुजा) तेषां राजानः देवा०, तेषां विभवाः तैः, दर्शनशाने प्रधाने यत्र तत् तस्मात् ।।६।। प्राणीका उद्धार कर निर्विकार शुद्ध चतन्य में धारण करने वाला चारित्र है, अतः चारित्र धर्म है । (३) मोह और क्षोभका शामक होनेसे चारित्र शम है । (४) राग द्वेष परिणतिसे निवृत्ति करने वाला होनेसे चारित्र साम्यभाव है । (५) शुद्धात्मश्रद्धानरूप सम्यक्त्वका विनाशक दर्शनमोह मोह कहलाता है। (६) निविकार निश्चल जानवृत्तिरूप चारित्रका विनाशक चारित्रमोह क्षोभ कहलाता है । (७) जिसके सम्यग्दर्शन ज्ञान हुया है उसीके चारित्र होता है । (८) जिस साधुके कषायकरण जीवित है उसका चारित्र सरागचारित्र है । (६) जिस साधुके रागका अभाव हो गया उसका चारित्र वीतरागचारित्र है । (१०) वीतरागचारित्रसे मोक्ष होता है । (११) सरागचारित्रसे देवेन्द्र असुरेन्द्र नरेन्द्रके वैभवक्लेशरूप बंध होता है। (१२) सरागचारित्रसे होने वाले बन्धका कारण रागांश है, चारित्रांश बन्धका कारण नहीं । (१३) सरागचारित्रसे देवेन्द्रादि वैभव प्राप्त होते, फिर भी वह ज्ञानी निर्ग्रन्थ पुरुष हो जाता है । (१४) सम्यक्त्वमें मरण करने वाला असुरोंमें व असुरेन्द्रों में उत्पन्न नहीं होता, किन्तु सम्यग्दृष्टि जीव निदान बंध से सम्यक्त्वकी विराधना करके असुरोंमें उत्पन्न होता है । (१५) निश्चयसे वीत. रागचारित्र उपादेय है व सरागचारित्र हेय है ।
सिद्धान्त-(१) वीतरागचारित्रसे मोक्ष होता है ।
दृष्टि-- १- उपाध्यभावापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकन य, शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय [२४, २४ब] ।
प्रयोग-सम्यग्दर्शनज्ञानसम्पन्न होकर ज्ञाता द्रष्टा रहनेका पौरुष करना और प्रारंभमें वहाँ पाने वाले सरागचारित्रके विकल्पको उपेक्षा कर वीतरागचारित्रमय होनेका ध्यान बनाना ॥६॥
अब चारित्रका स्वरूप व्यक्त करते हैं--- [चारित्रं] चारित्र [खलु] वास्तवमें [धर्मः] धर्म है । [यः धर्मः] जो धर्म है [तत् साम्यम्] वह साम्य है, [इति निर्दिष्टम्] ऐसा कहा गया है। [साम्यं हि] साम्य [मोहक्षोभविहीनः] मोहक्षोभरहित [प्रात्मनः परिणामः] प्रा. त्माका परिणाम है।
*
SE
565
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसारः
अथ चारित्रस्वरूपं विभावयति
चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो समो त्ति णिदिट्टो। मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो॥७॥ चारित्र धर्म धर्म भि, साम्य बताया व साम्य भी क्या है ।
मोह क्षोभसे विरहित, अविकृत परिणाम प्रात्माका ॥७॥ चारित्रं खलु धर्मो धर्मो यस्तत्साम्य मिति निदिष्टम् । मोक्षोभविहीनः परिणाम आत्मनो हि साम्यम् ।।७।।
स्वरूपे चरणं चारित्रं । स्वसमय प्रवृत्तिरित्यर्थः । तदेव वस्तुस्वभावत्वाद्धर्मः । शुद्धचैतन्यप्रकाशनमित्यर्थः तदेव च यथावस्थितात्मगुरणत्वात्साम्यम् । साम्यं तु दर्शनचारित्रमोहनीयोदयापादितसमस्तमोहक्षोभाभावादत्यन्तनिर्विकारो जीवस्य परिणामः ॥७॥
नामसंज्ञ--चारित्त, खलु, धम्म, ज, त, सम, इत्ति णिद्दिव, मोहक्खोहविहीण, परिणाम, अप्प, ह, सम । धातुसंज्ञ-णि दिस प्रेक्षणे। प्रातिपदिक चारित्त, खलु, धर्म, यत्, तत्, साम्य इति निदिष्ट, मोहक्षोभविहीन, परिणाम, आत्मन्, खलु, साम्य । मूलधातु-निर दिश देशने । पदविवरण---चारितं चारित्रप्र० ए० । खलु खलु-अव्यय । धम्मो धर्म:-प्र० एक० । जो सो यः सः समो सम:-प्र० एक० । इत्ति इति-- अव्यय । णिद्दिट्ठो निर्दिष्ट:--प्र० एक० कृदन्त क्रिया। मोहनखोहविहीणो मोहक्षोभविहीनः परिणामो परिणामः समो सम:-प्र० ए० । अप्पणो आत्मनः-पष्ठी एक० । निरुक्तिसमास-चरण चारित्रं,मोहक्षोभश्च मोहक्षोभो ताभ्यां विहीनः मोहक्षोभविहीनः ।। ७ ।।।
तात्पर्य-सहजात्मस्वरूप में रमना सम्यक्चारित्र है, यही धर्म है।
टीकार्थ--स्वरूप में चरण करना (रमना) चारित्र है । स्वसमयमें प्रवृत्ति करना (अपने स्वभावमें प्रवृत्ति करना) ऐसा इसका अर्थ है। वही वस्तुका स्वभाव होनेसे धर्म है। शुद्ध चैतन्यका प्रकाश करना ऐसा इसका अर्थ है । वही यथावस्थित आत्मगुरण होनेसे साम्य है । और साम्य दर्शनमोहनीय तथा चारित्रमोहनीयके उदय से उत्पन्न होने वाले समस्त मोह और क्षोभके अभावके कारण जीवका अत्यन्त निविकार परिणाम है।
प्रसंगविवरण---पूर्व गाथामें बताया था कि निर्वाणकी प्राप्ति चारित्रसे होती है। अब उसी चारित्रका स्वरूप इस गाथामें बताया गया है ।
तथ्यप्रकाश --- (१) चारित्रके फलको बताकर उत्थानिकामें कहा है कि अब चारित्रके स्वरूपको विशेष रूपसे हुवाते हैं इसमें अपना भाव व उद्यम बताया गया है । (२) अपने प्रात्मस्वरूपमें रमण चारित्र है । (३) अपने प्रात्मस्वरूप में रमण स्वसमयवृत्ति है। (४) अपने
आत्मस्वरूपमें रमण धर्मधारण है । (५) अपने आत्मस्वरूपमें रमणके मायने शुद्ध चैतन्यका प्रकाशन है । (६) अपने आत्मस्वरूपमें रमण साम्यभाव है । (७) अपने प्रात्मस्वरूपमें रमण
TRICK
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२
सहजानन्दशास्त्रमालायां
प्रथात्मनश्चारित्रत्वं निश्चिनोति--
परिणमदि जेण दव्वं तत्कालं तम्मय त्ति पण्णत्तं । तम्हा धम्मपरिणदो अादा धम्मो मुणेयव्वो ॥ ८॥ द्रव्य जिस भावसे परि-रणमता उस काल तन्मयो होता।
इससे ही धर्मपरिणत प्रात्माको धर्म ही मानो ॥८॥ परिणमति येन द्रव्यं तत्कालं तन्मयमिति प्रज्ञप्तम् । तस्माद्धर्मपरिणत आत्मा धर्मो मन्तव्यः ।।८।।
यत्खलु द्रव्यं यस्मिन्काले येन भावेन परिणमति तत् तस्मिन् काले किलौष्ण्यपरिणतायःपिण्डवत्तन्मयं भवति । ततोऽयमात्मा धर्मेण परिणतो धर्म एव भवतीति सिद्धमात्मनश्चारित्रत्वम् ॥ ८ ॥
नामसंज्ञ-ज, दव, तत्काल, तम्मय, इति पण्णत्त, त, धम्मपरिणद, आदा, धम्म, मुगेयव । धातुसंज्ञ-परि णम प्रबत्वे शब्दे च, प न्नना अवबोधने, मुण ज्ञाने । प्रातिपदिक-यत्, द्रव्य, तत्काल, तन्मय, इति, प्रज्ञप्त, तत्, धर्मपरिणत, आत्मन्, धर्म, मन्तव्य । मूलधातु-परि-णम प्रहत्वे, द्रु गतौ भ्वादि, प्र ज्ञप ज्ञाने ज्ञापने चुरादि, मन ज्ञाने दिवादि । उभयपदविवरण....परिणमदि परिणमति-वर्तमान लट् अन्य परुष एकवचन । जेण येन-तु०ए० । दव्वं द्रव्यं-प्र० ए० तक्कालं तत्काल-अव्यया तम्मय तन्मयं-प्र० ए० । इत्ति इति-अव्यय । पण्णत्तं प्रज्ञप्तम्-प्र० ए० कृदन्त क्रिया। तम्हा तस्मात्-पं० ए० । धम्मपरिणदो धर्मपरिणतः-प्र० ए० । आदा धम्मो मुणेयव्वो आत्मा धर्मः मन्तव्यः-प्र० ए० । निरुक्ति-द्रवति गुणपर्यायान गच्छति इति द्रव्यं । अतति सततं जानाति इति आत्मा। समास (धर्मण परिणतः इति धर्मपरिणतः ॥ ८॥ जीवका निर्विकार परिणाम है । (८) चारित्र धर्म है, सम्यग्दर्शन धर्मका मूल है ।
सिद्धान्त--(१) चारित्र आत्माका निर्विकार शुद्ध चैतन्यप्रकाश है । दृष्टि-- १- शुद्धनिश्चयनय (४६) ।
प्रयोग-----अपने अविकार सहज स्वरूपमें प्रात्मभावनाके दृढ़ भावसे शुद्ध ज्ञानमात्र बर्तना ॥७॥
अब आत्माके चारित्रपनेका निश्चय करते हैं- [द्रव्यं] द्रव्य जिस समय [येन] जिस भाव रूपसे [परिणमति] परिणमता है [तत्कालं] उस समय [तन्मयं] उस मय है [इति] ऐसा [प्रज्ञप्तं] जिनेन्द्रदेवके द्वारा कहा गया है; [तस्मात्] इसलिये [धर्मपरिणतः प्रात्मा] धर्मपरिणत आत्माको [धर्मः मन्तव्यः] धर्म समझना चाहिये ।
तात्पर्य---मात्र ज्ञाता द्रष्टा रहनेरूप धर्मसे परिणत प्रात्मा स्वयं धर्म है, स्वयं चारित्र
टीकार्थ-वास्तवमें जो द्रव्य जिस समय जिस भावरूपसे परिणमन करता है, वह
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसारः
अथ जीवस्य शुभाशुभशुद्धत्वं निश्चिनोति-जीवो परिणमदि जदा हे सुहेण वा सुहो असुहो । सुद्धा तदा सुद्धो हवदि हि परिणामसम्भावो ॥ ६ ॥ जब परिणामस्वभावी, जीव शुभ अशुभ शुद्ध भावसे यह ।
१३
परिणमता तब होता, जीव हि शुभ अशुभ शुद्ध तथा ॥ ॥
जीवः परिणमति यदा शुभेनाशुभेन वा शुभोऽशुभः । शुद्धेन तथा शुद्धो भवति हि परिणामस्वभावः ॥ 2 11 यदायमात्मा शुभेनाशुभेन वा रागभावेन परिणमति तदा जपातापिच्छरागपरिणत
नामसंज्ञ जीव जदा सुह असुह वा सुद्ध तदा हि परिणामसभाव । धातुसंज्ञ व सत्तायां परि णम द्रव्य उस समय उष्णता रूपसे परिणमित लोहेके गोलेकी भांति उस मय है; इसलिये यह आत्मा धर्मरूप परिणमित होनेसे धर्म ही है । इस प्रकार आत्माका चारित्रपना सिद्ध हुआ । प्रसंगविवरण - अनन्तरपूर्व गाथा में बताया गया था कि निश्चयतः चरित्र ही धर्म है । अब इसीके सम्बन्ध में इस गाथामें कहा गया है कि चारित्र धर्मसे परिरणत प्रात्मा ही स्वयं धर्म है ।
तथ्यप्रकाश - (१) चारित्रभावसे परिरणमा आत्मा स्वयं चारित्रमय है । (२) श्रात्मा और चारित्र अलग अलग नहीं हैं । (३) जिस कालमें जो द्रव्य जिसरूप परिणमता है उस कालमें वह द्रव्य उस मय है । ( ४ ) उदाहरण में स्पष्ट है कि उष्णता से परिणत लोहगोला उष्णतामय है ।
सिद्धान्त - ( १ ) शुद्धपर्यायके कालमें द्रव्य अशुद्धपर्यायमय है । ( २ ) शुद्धपर्यायपरिणत आत्मा शुद्धपर्यायमय है ।
। २- शुद्ध निश्चयनय [ ४६ ] |
दृष्टि - १ - शुद्ध निश्चयनय [ ४७ ] प्रयोग - मैं अपने आप केवल रह कर किस रूप हो सकता हूं ऐसे चिन्तनसे मात्र ज्ञाता द्रष्टा रूप मनन करके पर्यायध्यान छोड़कर पर्यायकी स्रोतभूमि सहजसिद्ध चिन्मात्र अपनेको अनुभवनेका पौरुष करना ||८||
जीवका शुभपना, अशुभपना श्रीर शुद्धपना निश्चित करते हैं [ परिणामस्वभावः ] परिणामस्वभाव [ जीवः ] जीव [ यदा] जब [ शुभेन वा अशुभेन] शुभ या अशुभ भावरूपसे [ परिणमति ] परिणमता है [ शुभः प्रशुभः ] तब शुभ या अशुभ ही होता है, [ शुद्ध ेन ] और जब शुद्धभावरूपसे परिणमता है [ तदा शुद्धः हि भवति ] तब शुद्ध स्वयं ही होता है ।
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
}
सहजानन्दशास्त्रमालायां
स्फटिकवत् परिणामस्वभावः सन् शुभोऽशुभश्च भवति । यदा पुनः शुद्धेनारागभावेन परिण
प्रत्वे । प्रातिपदिक - जीव, यदा, शुभ, अशुभ, वा, शुद्ध, तदा, हि, परिणामस्वभाव । मूलधातु- परि म प्रहृत्वे, भू सत्तायां । उभयपदविवरण जीवो जीवः प्रथमा एकवचन । परिणमदि परिणमति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन किया। जदा यदा तदा वा हि-अव्यय । सुहेण शुभेन असुहेण अशुभेन
१४
तात्पर्य - शुभ प्रशुभ शुद्ध परिणमनके समय जीब शुभ अशुभ तथा शुद्ध ही है । टीकार्थ -- जब यह आत्मा शुभ या अशुभ रागभावसे परिणमता है तब जपा कुसुम या तमाल पुष्पके लाल या काले रंगरूप परिणमित स्फटिकको भाँति, परिणामस्वभाव यह जीव शुभ या अशुभ होता है और जब वह शुद्ध प्ररागभाव से परिमित होता है तब शुद्ध रागपरिणत ( रंगरहित) स्फटिककी भाँति, परिणामस्वभाव होनेसे शुद्ध होता है याने उस समय प्रात्मा स्वयं ही शुद्ध है । इस प्रकार जीवका शुभत्व अशुभत्व और शुद्धत्व सिद्ध हुआ । प्रसंगविवरण - अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि जो द्रव्य जिस काल में जिस मय होता है । अत्र आत्मा के विषय में उसीका
रूपसे परिणमता है वह द्रव्य उस कालमें उस स्पष्टीकरण इस गाथामें किया गया है ।
तथ्य प्रकाश-- - ( १ ) जीव परिणमता है इस कथनसे स्पष्ट है कि जीव नित्य है, किन्तु अपरिणामी कूटस्थ नित्य नहीं है । (२) जीव परिणमता है इस कथनसे स्पष्ट है कि जीव पूर्व पर्याय को छोड़कर नवीन पर्याय में प्राता रहता है । (३) जीव परिणमता है इस कथन से स्पष्ट है कि जीव जिस पर्यायरूप परिणमता है उस समय वह उस पर्यायमय है । (४) जीव जब शुभभावसे परिणमता है तब जीव शुभ है । (५) जब जीव प्रशुभभाव से परिमता है तब वह अशुभ है । ( ६ ) जब जीव शुद्धभावसे परिणमता है तब जीव शुद्ध है । ( ७ ) जब जीव शुभ, अशुभ या शुद्धभावसे परिणमता है तब यह जीव स्वयं शुभ, अशुभ या शुद्ध है, अन्य किसीने शुभ, अशुभ या शुद्ध नहीं किया । (८) जीवका शुभ अशुभ होना कर्मदशाका निमित्त पाकर होता है, क्योंकि शुभ अशुभ भाव जीवका स्वभावानुरूप परिणमन नहीं है । ( ६ ) जीवका शुद्ध परिणमन होना उपाधिके प्रभाव में अर्थात् जीवकी केवलतामें हुई स्थिति है, क्योंकि शुद्धभाव जीवका स्वभावानुरूप परिणमन है । (१०) लाल पीला उपाधिके सान्निध्य में ही स्फटिकमरिण लाल पीला रूप परिणमता है ऐसे ही उपाधिकर्मदशा के सान्निध्य में जीव शुभ अशुभ भावरूप परिणमता है । ( ११ ) लाल पीला उपाधिके न रहनेपर ( दूर होनेपर ) स्फटिक मणि स्वभावानुरूप स्वच्छ परिणमता है, ऐसे ही कर्मउपाधिके न रहने पर जीव स्वभावानुरूप शुद्ध स्वच्छ ज्ञानादिरूप परिणमता है । ( १२ ) प्रथम, द्वितीय, तृतीय गुणस्थानों में उत्तरोत्तर घटता हुआ शुभोपयोग है । (१३) चतुर्थ, पञ्चम, षष्ठ गुणस्थान में
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
मन की शा
प्रवचनसारः
१५
मति तदा शुद्धारागपरिणतस्फटिकवलरिणामस्वभावः सन् शुद्धो भवतीति सिद्ध जीवस्य शुभाशुभशुद्धत्वम् ।। ६ ।
सुद्धेण शुद्धेन - तृतीया एक० | सुहो शुभः असुहो अशुभः सुद्धो शुद्धः प्रथमा एक० । हवदि भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । परिणामसभावो परिणामस्वभावः प्रथमा एक० । निरुवित जीवति इति जीवः, शोभते इति शुभः, शुद्ध्यति इति शुद्धः । समास परिणामः स्वभावः यस्य सः परिणामस्वभावः || ६ || उत्तरोत्तर स्वच्छता के लिये बढ़ता हुआ शुभोपयोग है । (१४) सप्तम गुणस्थानसे बारहवें गुणस्थान तक स्वच्छता व स्थिरतामें बढ़ता हुग्रा शुद्धोपयोग है । (१५) केवली भगवानके शुद्धयोगका फल आत्मोत्थ ज्ञान व ग्रानन्दका परिपूर्ण परिणाम है ।
सिद्धान्त - ( १ ) परिणामस्वभाव द्रव्य परिणमता रहना है । ( २ ) कर्माधिके सा न्निध्य में जीव शुभ अशुभभावरूप परिणमता है । (३) उपाधिके अभाव में जोव शुद्ध भावमय होता है ।
२- उपाधिसापेक्ष ग्रशुद्ध
दृष्टि - १ - उत्पादव्ययसापेक्ष अशुद्धद्रव्याथिकनय (२५) । द्रव्यार्थिकनय (२४) । ३ उपाध्यभावापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय ( २४ अ ) |
प्रयोग -- शुभ अशुभ भावोंको औपाधिक व क्षोभमय जानकर उनसे उपेक्षा करके सहज सिद्ध सहजशुद्ध सहजबुद्ध एकस्वभाव चिन्मात्र ग्रन्तस्तत्त्वकी और उपयोग रखनेका पौरुष
करना ॥ ६ ॥
परिणामको वस्तुके स्वभावरूपसे निश्चित करते हैं - [ इह ] इस लोक में [ परिरामं विना ] परिणाम के बिना [ श्रर्थः नास्ति ] पदार्थ नहीं है, [ श्रथं विना ] पदार्थ के बिना [ परिणाम: ] परिणाम नहीं है, [ अर्थः] वास्तव में पदार्थ [ द्रव्यगुणपर्ययस्थः] द्रव्य गुण पर्याय में रहने वाला और [ श्रस्तित्वनिर्वृत्तः ] उत्पादव्ययीव्यमय अस्तित्व से बना हुआ है ।
तात्पर्य - द्रव्य गुण पर्यायात्मक पदार्थ सत् है ।
टोकार्थ -- वास्तव में परिणाम के बिना वस्तु सत्ताको धारण नहीं करती, क्योंकि वस्तु की द्रव्यादिके द्वारा परिणामसे भिन्न उपलब्धि नहीं है । परिणामरहित वस्तु गधेके सींगके समान है तथा परिणामरहित वस्तुको दिखाई देने वाले गोरस दूध, दही वगैरह के परिणामों के क्योंकि साथ विरोध आता है । वस्तुके बिना परिणाम भी अस्तित्वको धारण नहीं करता, स्वाश्रयभूत वस्तुके प्रभाव में निराश्रय परिणामको शून्यताका प्रसङ्ग प्राता है । वस्तु तो ऊदूसामान्यस्वरूप द्रव्य में, सहभावी विशेषस्वरूप गुणोंमें तथा क्रमभावी विशेषस्वरूप पर्यायों में अवस्थित उत्पादव्ययघ्रौव्यमय अस्तित्व से बनी हुई है; इसलिये वस्तु परिणामस्वभाव वाली ही है ।
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
।
१६
सहजानन्दशास्त्रमालायां अथ परिणाम वस्तुस्वभावेन निश्चिनोति
णत्थि विणा परिणाम अत्थो अत्थं विणेह परिणामो। दव्वगुणपजयत्थो अत्थो अत्थित्तणिव्वत्तो ॥ १० ॥ परिणमन बिना वस्तु न, परिणति भो है नहीं बिना वस्तू ।
द्रव्यगुरणपर्ययस्थित, वस्तू अस्तित्वसे निर्मित ॥१०॥ नास्ति विना परिणाममर्थोऽथ विनेह परिणामः । द्रव्यगुणपर्ययस्थोऽर्थोऽस्तित्वनिर्वृत्तः ।। १० ।।
न खलु परिणाममन्तरेण वस्तु सत्तामालम्बते । वस्तुनो द्रव्यादिभिः परिणामात् पृथगुपलम्भाभावान्निःपरिणामस्य खरशृङ्गकल्पत्वाद् दृश्यमानगोरसादिपरिणामविरोधाच्च । ____ नामसंज्ञ-ण, विणा, परिणाम, अत्थ, इह, दव्वगुणपज्जयत्थ, अत्थ, अत्थित्तणिवत्त । धातुसंज्ञ-अस सत्तायां प्रथमगणी । प्रातिपदिकन, विना, परिणाम, अर्थ, इह, द्रव्यगुणपर्ययस्थ, अर्थ, अस्तित्वनिवृत्त । मुलधातु- अस भुवि अदादि । उभयपदविवरण-ण न विणा विना इह-अव्यय । अत्थि अस्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । परिणाम-द्वितीया एकवचन । अत्थो अर्थ:-प्रथमा एक० । अत्थं अर्थद्वितीया एक०। परिणामो परिणाम: दल्वगुणपज्जयत्थो द्रव्यगुणपर्ययस्थः अत्थो अर्थः अत्थित्तणिब्बत्तो
प्रसंगविवरण ---अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि जीव जब शुभ, अशभ व शुद्ध भावसे परिणमता है तब वह शुभ, अशुभ व शुद्ध है। अब इस गाथामें उसीकी पुष्टिके लिये सामान्य नियम द्वारा कहा गया है कि परिणाम तो (परिणमन तो) वस्तुके स्वभावसे होता ही रहता है।
तथ्यप्रकाश ---(१) पर्याय न हो तो वस्तु ही कुछ नहीं है । (२) ध्रुव वस्तु न हो तो पर्याय कैसे व कहाँ हो ? (३) पदार्थको अभेददृष्टि से ध्र व देखनेपर त्रैकालिक अखण्ड द्रव्य कहा जाता है । (४) पदार्थको भेददृष्टि रखकर ध्र व अंश देखनेपर गुण विदित होते हैं । (५) पदार्थका अभेद परिणमन देखनेपर एक समयमें एक अखंड प्रवक्तव्य पर्याय विदित होता है । ( ६ ) पदार्थका भेददृष्टि से परिणमन देखनेपर एक ही समय में अनेक पर्याय (प्रत्येक गुणके पर्याय) विदित होते हैं । (७) द्रव्य गुण पर्यायमें स्थित अर्थ सत् है । (८) वस्तुके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव वस्तुसे भिन्न उपलब्ध नहीं हैं । (६) शुद्धात्मोपलब्धि रूप शुद्ध परिणमनके बिना शुद्ध जीवपदार्थ नहीं है । (१०) शुद्ध जीवपदार्थके बिना शुद्धात्मोपलब्धिरूप शुद्ध परिणमन नहीं है । (११) यह परमात्मपदार्थ प्रात्मस्वरूप द्रव्य व सहज ज्ञानादि गुण व केवलज्ञान आदि पर्यायोंमें अवस्थित सत् है । (१२) वस्तु द्रव्यगुणपर्यायमय है। (१३) वस्तुको अभेद, अन्वय, व्यतिरेक, प्रदेश आदि अनेक दृष्टियोंसे परखनेपर अखंड द्रव्य, अखण्ड पर्याय, अनेक गुण व अनेक पर्यायें ज्ञात होती है, पर ये भिन्न सत् नहीं, इनके प्रदेश भिन्न नहीं । (१४) त्रैका
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार:
१७
अन्तरेण वस्तु परिणामोऽपि न सत्तामालम्बते । स्वाश्रयभूतस्य वस्तुनोभावे निराश्रयस्व परिणामस्य शून्यत्वप्रसङ्गात् । वस्तु पुनरूर्ध्व तासामान्यलक्षणरणे द्रव्ये सहभाविविशेषलक्षणेषु गुणेषु क्रमभाविविशेषलक्षणेषु पर्यायेषु व्यवस्थित मुत्पादव्ययधीव्यमयास्तित्वेन निर्वर्तितं निर्वृत्तिमच्च, ग्रतः परिणामस्वभावमेव ||१०||
अस्तित्वनिर्वृत्तः प्र० ए० । निरुक्ति अर्थते निश्चीयते इति अर्थः । समास- द्विव्यं च गुणं च पर्यायश्चेति द्रव्यगुणपर्ययाः तेषु तिष्ठति इति द्रव्यगुणपर्ययस्थः, अस्तित्वेन निर्वृत्तः इति अस्तित्वनिर्वृत्तः ।। १० ।
लिक ऊर्ध्वप्रवाहरूप सामान्य द्रव्य है । ( १५ ) त्रैकालिक साथ साथ रहने वाले विशेष गुण हैं । (१६) क्रमशः होने वाले विशेष पर्यायें हैं । ( १७ ) उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त पदार्थ सत् है । (१६) अभेदरूप द्रव्य व भेदरूप गुरण ध्रौव्यांशरूप हैं । (१६) प्रभेद पर्याय व भेदरूप पर्याय उत्पादव्ययरूप हैं । (२०) ग्रात्माको एकान्ततः कूटस्थ नित्य ध्रुव माननेपर ग्रात्माको मोक्ष मार्ग की आवश्यकता ही क्या ? (२१) ग्रात्माको क्षणक्षयी माननेपर ग्रात्माको मोक्षमार्ग की आवश्यकता ही क्या ? (२२) आत्मा उत्पादव्ययघ्रीव्ययुक्त है, अतः प्रज्ञान परिणाम से हट कर ज्ञानपरिणाममें प्राकर आत्मीय ग्रानन्द पानेके लिये मोक्षमार्गकी व मोक्षमार्ग में प्रगतिकी आवश्यकता होती है ।
सिद्धान्त - ( १ ) वस्तु उत्पादव्ययधीव्ययुक्त है । ( २ ) पदार्थ परिणामस्वभाव होनेसे निरन्तर परिणमता रहता है । (३) प्रत्येक वस्तु अनाद्यनन्त है ।
दृष्टि - ( १ ) उत्पादव्ययसापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय [ २५ ] । ( २ ) द्रव्यत्वदृष्टि [२०६] । ( ३ ) ऊर्ध्व सामान्यनय [ १६ ] |
प्रयोग - अशुभ परिणामसे हटकर शुभपरिणामसे गुजरकर द्रव्य गुणपर्यायके भेद से परे द्रव्यगुणपर्याय समवस्थित अपने अंतस्तत्त्वको अभेद अनुभवनेके लिये परमविश्राम करना ||१०|| | अब चारित्र परिणाम के साथ संपर्क और संभव वाले शुद्ध और शुभ परिणामका ग्रहण तथा त्यागके लिये उनका फल विचारते हैं- [धर्मेण परिणतात्मा ] धर्मसे परिणत स्वरूप [आत्मा]] आत्मा [यदि ] यदि [ शुद्धसंप्रयोगयुतः ] शुद्ध उपयोग में युक्त है तो [निर्वाणसुखं] मोक्षसुखको [ प्राप्नोति ] प्राप्त करता है [ शुभोपयुक्तः वा ] और शुभोपयोग वाला है तो [ स्वर्गसुखं] स्वर्गके सुखको प्राप्त करता है ।
तात्पर्य - धर्मसे परिणत आत्मा साक्षात् या परम्परया निर्वाणसुखको प्राप्त होता है ।
टीकार्थ - जब यह आत्मा धर्मपरिणत स्वभाव वाला होता हुआ शुद्धोपयोगपरिणतिको धारण करता हैं तब विरोधी शक्तिसे रहितपना होनेके कारण अपना कार्य करनेके लिये समर्थ चारित्र वाला होनेसे साक्षात् मोक्षको प्राप्त करता है, परन्तु जब वह धर्मपरिणत स्वभाव वाला
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८
सहजानन्दशास्त्रमालायां अथ चारित्रपरिणामसंपर्कसम्भववतोः शुद्धशुभपरिणामयोरुपादानहानाय फलमालोचयति
धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सद्धसंपयोगजुदो। पावदि णिव्वाणसुहं सुहोवजुत्तो व सग्गमहं ॥११॥
धर्मपरिणतस्वभावी, है यदि शुद्धोपयोगयुत प्रात्मा ।
निर्वाणानन्द लहे, शुभोपयोगी लहे सुरसुख ॥ ११ ॥ धर्मेण परिणतात्मा आत्मा यदि शुद्धसंप्रयोगयुतः । प्राप्नोति निर्वाणसुखं गुभोपयुक्तो वा स्वर्गसुखम् ।।११।।
यदायमात्मा. धर्मपरिणतस्वभावः शुद्धोपयोगपरिणति मुद्वहति तदा निःप्रत्यनीकशक्तितया स्वकार्यकरणसमर्थचारित्रः साक्षान्मोक्षमवाप्नोति । यदा तु धर्मपरिणतस्वभावोऽपि शुभोपयोग
नामसंज्ञ-धम्म परिणदप्प अप्प जदि सुद्धसंपओगजुद णिव्याणसह सहोवजुत्त व सग्गसुह । धातुसंज--प आव प्राप्तौ तृतीयगणी । प्रातिपदिक-धर्म परिणतात्मन् आत्मन् यदि गुद्धसंप्रयोगयुत निर्वाणसुख शुभोपयुक्त स्वर्गसुख । मूलधातु-प्र आप्ल व्याप्तौ स्वादि । निरुक्ति- धरति इति धर्मः, निःशेषेण होकर भी शुभोपयोग परिणतिके साथ युक्त होता है तब विरोधी शक्तिसे सहितपना होनेसे स्वकार्य करनेमें असमर्थ और कथंचित् विरुद्ध कार्य करने वाले चारित्रसे युक्त जीव, जैसे अग्नि से गर्म किया हुआ घी किसी मनुष्यपर डाल दिया जावे तो वह उसकी जलनसे दुःखी होता है, उसी प्रकार वह स्वर्गसुखके बन्धको प्राप्त होता है, इस कारण शुद्धोपयोग उपादेय है और शुभो. पयोग हेय है।
प्रसंगविवरण-अनंतरपूर्व गाथामें प्रात्मरमणरूप चारित्रप्राप्तिके प्रयोजनसे वस्तुका व वस्तुके परिणामस्वभावका वर्णन किया था। अब इस गाथामें चारित्रमार्गके सम्पर्कमें पाये हुए आत्माको शुभ परिणामके भी त्यागके लिये व शद्ध परिणामके पानेके लिये शुद्धोपयोग व शुभोपयोगके फलकी आलोचना की है।
तथ्यप्रकाश- (१) गाथाकी उत्थानिकामें "पालोचयति'' क्रिया देकर शुद्धोपयोग व शुभोपयोगके फलकी आलोचना की है । (२) गुण व दोषको यथावत् दिखानेका नाम पालोचना है । (३) प्रात्माका स्वभाव अात्मस्वभावरूप धर्मसे परिणत होना है। (४) यथायोग्य घातिकर्मप्रकृति विपाकके अभाव में प्रात्मा मोक्षमार्गमें लगता है । (५) साक्षात् मोक्षमार्ग मोहक्षयज शुद्धोपयोग है । (६) यथाशक्ति धर्ममार्गमें चलते हुए भी प्रात्मा शुभोपयोग परिणतिसे संगति करता है तो वह स्वर्गादि सुखोंका बन्धन पाता है । (७) शुभोपयोगका फल भोगनेके पश्चात् यह ज्ञानी परमसमाधिसामग्रीके सद्भावमें शुभोपयोगातीत शुद्धोपयोगसे साक्षात् मोक्ष पाता है। (८) अशुभोपयोगसे हटकर शुभोपयोगसे गुजरकर मात्र शुद्धोपयोगसे मोक्ष होता है । (६) अशुभोपयोग अत्यंत हेय है, शुभोपयोग हेय है, शुद्धोपयोग अत्यन्त उपादेय है ।
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार:
१६
परिणत्या संगच्छते तदा सप्रत्यनीकशक्तितया स्वकार्यकररणासमर्थः कथंचिद्विरुद्ध कार्यकारिचारित्रः शिखितप्तघृतोप सिक्तपुरुषो दाहदुःखमिव स्वर्गसुखबन्धमवाप्नोति । श्रतः शुद्धोपयोग उपादेयः शुभोपयोगो हेयः ॥ ११ ॥
वानं गमनं निर्वाणं । समास-परिणतश्चासौ आत्मा चेति परिणतात्मा, शुद्धश्चासौ संप्रयोगः इति शुद्धसंप्रयोग:, तेन युतः, निर्वाणस्य सुखं निर्वाणसुखं, शुभेन उपयुक्तः शुभोपयुक्त:, (स्वर्गस्य सुखं स्वर्गसुखं । उभयपदविवरण - धम्मेण धर्मेण - तृतीया एक० । परिणदप्पा परिणतात्मा अप्पा आत्मा सुद्धसंपओगजुदो शुद्धसंप्रयोगयुतः सुहोवजुत्तो शुभोपयुक्तः प्रथमा एक पावदि प्राप्नोति वर्तमान अन्य० एक० क्रिया । व्विाणसुहं निर्वाणसुखं सग्गसुहं स्वर्गसुखं- द्वितीया एकवचन ॥ ११ ॥
सिद्धान्त - ( १ ) शुद्धोपयोगका फल स्वात्मोपलब्धिरूप सिद्धिका लाभ है । (२) शुभो - पयोगका फल काल्पनिक सुखका बन्धन है ।
दृष्टि - १ - शुद्ध निश्चयनय (४६) । २ - अशुद्ध निश्चयनय (४७) ।
प्रयोग - श्रविकारस्वभाव सहज चैतन्यस्वरूपको प्रतीति रुचि अनुभूति के मार्ग प्रवर्त कर शुद्धोपयोगवृत्तिके लाभके लिये आत्मविश्राम करना ॥ ११ ॥
अब चारित्रपरिणाम के साथ सम्पर्कका प्रभाव होनेसे अत्यन्त हेयभूत प्रशुभ परिनामका फल विचारते हैं - [ शुभोदयेन ] अशुभ उदयसे [आत्मा] आत्मा [ कुनर: ] कुमनुष्य [ तिर्यग्] तिर्यंच [ नैरयिकः ] और नारकी [भूत्वा ] होकर [दुःखसहस्र : ] हजारों दुःखोंसे [ सदा अमिद्रतः ] सदा पीड़ित हुआ [ श्रत्यंतं भ्रमति ] संसार में अत्यन्त भ्रमण करता है । तात्पर्य - प्रशुभ परिणामके फलमें पापके उदयसे जीव दुर्गतियों में दुःखी होता हुआ भ्रमण करता है ।
टीकार्थ जब यह ग्रात्मा किंचित् मात्र भी धर्मपरिणतिको प्राप्त न करता हुग्रा शुभोपयोग परिणतिका अवलम्बन करता है, तब यह कुमनुष्य, तिर्यंच प्रौर नारकी के रूपमें परिभ्रमण करता हुआ, तद्रूप हजारों दुःखोंके बन्धनका अनुभव करता है; इसलिये चारित्रके लेशमात्रका भी प्रभाव होनेसे यह प्रशुभोपयोग अत्यन्त हेय ही है ।
प्रसंगविवरण - प्रनन्तरपूर्व गाथामें चारित्रपरिणाम सम्पर्क वाले शुद्ध परिणामके ग्रहणके लिये और चारित्रपरिणामसंभव वाले शुभ परिणामके त्यागके लिये उन दोनों परिणामों के फलकी आलोचना की थी । अब इस गाथा में अत्यंत हेय अशुभोपयोगके फलकी प्रालोचना की गई है ।
तथ्यप्रकाश - ( १ ) जिसके रंच भी धर्म परिणति नहीं और अशुभोपयोगका परिरणमन है वे खोटे मनुष्य, तिर्यंच व नारकोंमें भ्रमण कर महान् दुःख भोगते हैं । ( २ ) जहाँ
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां अथ चारित्रपरिणामसंपर्कासंभवादत्यन्तहेयस्याशुभपरिणामस्य फलमालोचयति
अस होदयेण यादा कुणरो तिरियो भवीय गोरइयो। दुक्खसहस्से हिं सदा अभिधुदो भमदि यच्चंतं ॥१२॥
अशुभोदयसे आत्मा, कुनर व तिर्यंच नारकी होकर ।
पीडित भ्रमता अशभो-पयोग अत्यन्त हेय अतः ॥१२॥ अशुभोदयेनात्मा कुनरस्तिर्यग्भूत्वा नैरयिकः । दुःखसहस्रः सदा अभिद्रुतो भ्रमत्यत्यन्तम् ।। १२ ।।
यदायमात्मा मनागपि धर्मपरिणतिमनासादयन्न शुभोपयोगपरिणतिमालम्बते तदा कुमनुष्यतिर्यङ्नारकभ्रमणरूपं दुःखसहस्रबन्धमनुभवति । ततश्चारित्रलवस्याप्यभावादत्यंतहेय एवायमशुभोपयोग इति ।। १२ ।।
___ एवमयमपास्तसमस्तशुभाशुभोपयोगवृत्तिः शुद्धोपयोगाधिकारमारभते ।
नामसंज्ञ---असुहोदय, अत्त, कुणर, तिरिय ोरइय, दुक्खसहस्स, सदा, अभिधुद, अच्चतं । धातुसंज्ञ—भव सत्तायां प्रथमगणी, भम भ्रमणे प्रथमगणी । प्रातिपदिक-अशुभोदय, आत्मन्, कुनर, तिरश्च्, नैरयिक, दुःखसहस्र, सदा, अभिद्रुतः, अत्यन्तं । मूलधातु-भू सत्तायां, भ्रमु चलने भ्वादि, भ्रमु अनवस्थाने दिवादि । उभयपदविवरण-असुहोदयेण अशुभोदयेन-तृ० एक०। आदा आत्मा कूणरो कुनर: तिरियो तिर्यक रइयो नैरयिक: अभिधुदो अभिद्र त-प्रथमा एक० । दक्खसहस्सेहि दुःखसहस्र:-तु० बह० । भवीय भूत्वा-असमाप्तिकी क्रिया । भमदि भ्रमति भ्राम्यति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । अच्चतं अत्यंतअव्यय । निरुक्ति-नरति नृणाति इति वा नरः, उत्कर्षेण अयनं उदय)। समास-(अशुभस्य उदयो अशुभोदयः, दुःखानां सहस्राणि दुःखसहस्राणि तैः ।।१२।। चारित्रका रंच भी अंश नहीं वहाँ अशुभोपयोग होता है । (३) अशुभोपयोगमें पंच इन्द्रियोंको अभिलाषासे सम्बंधित तीव्र संक्लेश होता है या विषयोंके बाधकोंपर द्वेष जगता है। (४) अशुभोपयोग अत्यन्त हेय है, इसका तो रंच भी संपर्क न होना चाहिये । (५) जहाँ चारित्र का कुछ संपर्क है वहाँ चारित्रके साधकों व साधनोंसे अनुराग है वह शुभोपयोग है। (६) परतत्त्वोंके प्रति अनुराग होना बंधन है सो यह शुभोपयोग हेय है । (७) निःप्रत्ययनीक शक्ति विकसित न होनेकी स्थितिमें ज्ञानीके शुभोपयोग आता है उससे उपेक्षा कर ज्ञानी अविकारस्वभाव सहज चैतन्यस्वरूपको प्रात्मरूप अनुभवनेको धुन रखता है । (८) जहाँ समस्त शुभ अशुभ उपयोगकी वृत्ति दूर हो गई वहां ही शुद्धोपयोगकी वृत्तिपर अधिकार बनता है।
, सिद्धान्त-(१) अशुभोपयोगका निमित्त पाकर कार्माणवर्गरणावोंमें अशुभ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। (२) अशुभ अघाती प्रकृतियोंके उदयका निमित्त पाकर आहारवर्गणावोंमें खोटी शरीररचना होती है । (३) घातिया प्रकृतियोंके उदयका व असातावेदनीयके उदयका निमित्त पाकर जीवमें सहस्रों दुःखोंकी वेदना होती है।
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
मारITAARTHATANAM
T
ARATHIROHIPUNarpanMAHEN
BE
प्रवचनसारः
तत्र शुद्धोपयोगफलमात्मनः प्रोत्साहनार्थमभिष्टौति
अड्सयमादसमुत्थं विसयातीदं अणोव:मणतं । अव्वुच्छिण्णां च सुहं सुद्ध वयोगप्पसिद्धाणं ॥१३॥ अतिशय प्रात्मसमुद्भव अतीतविषयी अनन्त व अनुपम ।
अव्यय प्रानन्द मिले, प्रसिद्ध शुद्धोपयोगको ॥ १३ ॥ अतिशयमात्मसमुत्थं विषयातीतमनौपम्यमनन्तम् । अव्युच्छिन्नं च सुखं शुद्धोपयोगप्रसिद्धानाम् ।। १३ ।।
प्रासंसाराऽपूर्वपरमाद्भुताहादरूपत्वादात्मानमेवाश्रित्य प्रवृत्तत्वात्पराश्रयनिरपेक्षत्वादत्यन्तविलक्षणत्वात्समस्तायतिनिरपायित्वान्नरन्तर्यप्रवर्तमानत्वाच्चातिशयवदात्मसमुत्थं विष.
नामसंज्ञ-अइसय आदसमुत्थ विषयातीद अणोवम अणंत अव्वुच्छिण्ण च सुह सुद्ध वओगप्पसिद्ध । धातुसंज्ञ-अ वि उत् च्छिद छेदने तृतीयगणी, प सिज्झ निष्पत्तौ। प्रातिपदिक-अतिशय आत्मसमुत्थ विषयातीत अनौपम्य अनन्त अन्युच्छिन्न च सुख शुद्धोपयोगप्रसिद्ध । मूलधातु-~अ वि उत् छिदिर् द्वेधीकरणे रुधादि, प्रषिध गत्या स्वादि, विधु सराद्धौ दिवादि । उभयपदविवरण-अइसयं अतिशयं आ समु.
दृष्टि---- १, २, ३- निमित्तदृष्टि (५३ अ) । का प्रयोग ----अशुभोपयोगको दूर कर अविकारस्वभाव मोघ कारणसमयसारके अभिमुख होना ॥ १२ ॥ । इस प्रकार पूज्य श्रीकुन्दकुन्दाचार्य समस्त शुभाशभोपयोग वृत्तिको जिनने ऐसे होते हुए शुद्धोपयोगवृत्तिको आत्मरूप करते हुए शुद्धोपयोग अधिकार प्रारम्भ करते हैं। उसमें पहले शुद्धोपयोगके फलका आत्माके प्रोत्साहनके लिये अभिस्तवन करते हैं- [शुद्धोपयोगप्रसिद्धानां] शुद्धोपयोगसे निष्पन्न हुए आत्माओंका अर्थात् अरहंत और सिद्धोंका [सुखं] सुख [अतिशयं] अतिशय [अात्मसमुत्थं] अात्मोत्पन्न [विषयातीतं] विषयातीत [अनौपम्यं] अनुपम [अनन्तं] अनन्त व अविनाशो [अव्युच्छिन्नं च] और अटूट है।
तात्पर्य----शुद्धोपयोगके फल में यह प्रात्मा आत्मीय अनन्त आनन्द प्राप्त करता है ।
टीकार्थ-अनादि संसारसे अपूर्व परम अद्भुत प्राह्लादरूप होनेसे, आत्माका ही प्राश्रय लेकर प्रवर्तमान होनेसे, पराश्रयसे निरपेक्ष होनेसे, अत्यन्त विलक्षण होनेसे समस्त अागामी कालमें कभी भी नाशको प्राप्त न होनेसे, और निरन्तर प्रवर्तमान होनेसे शुद्धोपयोगनिष्पन्न हुए आत्मानोंके अतिशयवान, अात्मसमुत्पन्न, अतीन्द्रिय, अनुपम अनन्त व अटूट सुख अर्थात् आनन्द होता है, इस कारण वह सुख सर्वथा वांछनीय है।।
- प्रसंगविवरण--अनन्तरपूर्व गाथामें चारित्रपरिणामका सम्पर्क असंभव होनेसे अत्यंत हेय अशुभपरिणामसे हटना बताया गया था अब अशुभोपयोगसे हटकर शुभोपयोगसे गुजरकर
SHRUNRIBE
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां
यातीतमनौपम्यमनन्तमव्युच्छिन्नं च शुद्धोपयोगनिष्पन्नानां सुखमतस्तत्सर्वथा प्रार्थनीयम् ||१३|| त्थं आत्मसमुत्थं विसयातीद विषयातीतं अणोवमं अनौपम्यं अनंतं अनन्तं अव्युच्छिष्णं अव्युच्छिन्नं सुहं सुखं प्र० एक० । सुद्धपओगप्पसिद्धाणं शुद्धोपयोगप्रसिद्धानां पष्ठी बहु० । निरुक्ति शुध्यति इति शुद्ध उपयोजनं उपयोगः, प्रकर्षेण सिद्ध्यति इति प्रसिद्धाः तेषां । समास- न औपम्यं यस्य इति अनौपम्यं / शुद्धश्चासौ उपयोगः शुद्धोपयोगः तेन प्रसिद्धाः तेषां ।। १३ ।।
२२
उस उपलभ्य शुद्धोपयोगके फलको इस गाथामें बताया गया है जिससे कि शुद्धोपयोग वृत्ति होनेके लिये विवेकीको प्रोत्साहन मिले ।
तथ्यप्रकाश - ( १ ) परिपूर्ण शुद्धोपयोग हो जानेसे ग्रात्मा प्ररहंत व सिद्ध अवस्थाको प्राप्त करते हैं अर्थात् प्रभु हो जाते हैं । (२) शुद्धोपयोगका फल प्रभु हो जाना है । ( ३ ) प्रभु का प्रानन्द अपूर्व है, यह आनन्द प्रभु होनेसे पहिले कभी प्राप्त हो ही नहीं सकता । ( ४ ) प्रभु . का श्रानन्द अत्यन्त निराकुलतामय होनेसे परम श्रद्भुत प्रह्लादरूप है । ( ५ ) प्रभुका श्रानन्द अपने आप केवल विकार शुद्ध श्रात्माके आश्रयसे ही होता है । ( ६ ) प्रभुका आनन्द स्वाधीन है क्योंकि वह आनन्द किसी भी परपदार्थके, स्पर्शरसादि विषयके व संकल्पविकल्पके श्राश्रयकी अपेक्षाको कभी भी रंचमात्र नहीं करता । (७) प्रभुके आनन्दका उदाहरण संसार में कहीं मिल ही नहीं सकता, क्योंकि जो प्रभु नहीं उनके सुखसे अत्यन्त विलक्षण है प्रभुका आनन्द | ( ८ ) प्रभुका श्रानन्द कभी भी नष्ट न होगा, क्योंकि प्रभुका आनन्द स्वाभाविक है । ( 2 ) प्रभुका श्रानन्द निरंतर ही बना रहता है, किसी भी समय कमी या बाधा नहीं आती, क्योंकि वहां बाधक कुछ भी उपाधि नहीं है । (१०) वीतराग व सर्वज्ञ होनेसे प्रभुका प्रानन्द अपरिमित है, अनन्त है । ( ११ ) परम सहज आनन्द शुद्धोपयोगसे ही प्राप्त होता । ( १२ ) शुद्धोपयोग ही सर्वथा उपादेय है ।
सिद्धान्त - ( १ ) अविकारस्वभाव सहजसिद्ध चैतन्यस्वरूपकी प्रभेद प्राराधना से आत्मीय परम सहज आनन्द प्रकट होता है ।
दृष्टि - ( १ ) शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय, शुद्धनिश्चयनय [ २४ ब, ४६] । प्रयोग - सांसारिक सुखोंको सर्वथा प्रसार जानकर उनसे हटकर परम सहज आनन्द के धाम निज सहज ज्ञानस्वभावकी आराधना करना ।। १३ ।।
अब शुद्धोपयोगपरिणत आत्माका स्वरूप कहते हैं: - [सुविदितपदार्थसूत्रः ] पदार्थोंको और सूत्रोंको जिन्होंने भली भाँति जान लिया है, [ संयमतपः संयुतः ] जो संयम और तपसे युक्त हैं, [विगतरागः ] रागरहित हैं [ समसुखदुःखः ] सुख-दुःख जिनको समान हैं, [ श्रमरणः ] ऐसा श्रमण [ शुद्धोपयोगः इति भरिणत०] शुद्धोपयोगी है ऐसा कहा गया 1
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
PEED
Danient
SEAN
ENTATE
प्रवचनसारः अथ शुद्धोपयोगपरिणतात्मस्वरूपं निरूपयति
सुविदिदपयत्थसुत्तो संजमतवसंजुदो विगदरागो। समणो समसुहदुक्खो भणिदो सुद्धोवनोगो ति ॥१४॥ यह अर्थ सूत्र ज्ञाता, संयम तप युक्त रागसे विरहित ।
सुख दुखमें समहि श्रमरण, होता शुद्धोपयोगी है ॥१४॥ सुविदितपदार्थसूत्रः संयमतपःसंयुतो विगत रागः । श्रमणः समसुखदुःखो भणितः शुद्धोपयोग इति ॥ १४ ॥
सूत्रार्थज्ञानबलेन स्वपरद्रव्यविभागपरिज्ञानश्रद्धानविधानसमर्थत्वात्सुविदितपदार्थसूत्रः, . नामसंज्ञ---सुविदिदपयत्थसुत्त संजमतवसंजुद विगदराग समण समसुहदुक्ख भणिद सुद्धवओग त्ति । धातुसंज्ञ-सु विद ज्ञाने प्रथमगणी, भण कथने प्रथमगणी। प्रातिपदिक-सुविदितपदार्थसूत्र संयमतपःसंयुत विगत राग श्रमण समसुखदुःख भणित शुद्धोपयोग इति । मूलधातु-विद्ल ज्ञाने, भण शब्दार्थे ।
तात्पर्य-ज्ञानी, संयमी, विराग, सुख दुःखमें समान श्रमणात्मा शुद्धोपयोग है।
टीकार्थ--सूत्रोंके अर्थ के ज्ञान बलसे स्वद्रव्य और परद्रव्य के विभागके परिज्ञान में श्रद्धान और आचरण में समर्थपना होने से पदार्थोंको और उनके वाचक सूत्रोंको जिन्होंने भलीभांति जान लिया है, समस्त छह जीवनिकायके हननके विकल्पसे और पंचेन्द्रिय सम्बंधी अभिलाषा के विकल्पसे अात्माको हटा करके प्रात्माके शुद्ध स्वरूपमें संयमन करनेसे और स्वरूपविश्रान्त निस्तरंग चैतन्यप्रतपन होनेसे जो संयम और तपसे युक्त हैं, सकल मोहनीयके विपाकसे विवेक की भावनाको स्वच्छतासे निर्विकार प्रात्मस्वरूपको प्रगट किया होनेसे जो वीतराग हैं और परमकलाके अवलोकनके कारण साता वेदनीय तथा असाता वेदनीय के विपाकसे उत्पन्न होने वाले सुख-दुःख जनित परिणामोंकी विषमता अनुभव नहीं होनेसे जो समसुखदुःख हैं, ऐसे श्रमण "शुद्धोपयोग" ऐसा कहे जाते हैं।
प्रसंगविवरण---अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि शुद्धोपयोग जिनके प्रसिद्ध हो गया है उन उत्तम प्रात्मावोंको स्वाधीन अविनाशी प्रात्मोत्पन्न परम आनन्द प्राप्त होता है । अब इस गाथामें निरूपित किया है कि शुद्धोपयोगपरिणत अात्माका स्वरूप कैसा होता
SHIRANASVEER
ॐ
8085
तथ्यप्रकाश-(१) निरूपित सूत्रार्थ के ज्ञानके बलसे प्रात्मा स्वद्रव्य व परद्रव्यका विभाग जानने में समर्थ होता है । (२) स्वद्रव्य व परद्रव्यको अलग अलग स्वतंत्र स्वतंत्र सद्रूप जानने वाला आत्मा स्वपरविभागका श्रद्धान करता है। (३) स्वद्रव्यका यथार्थ श्रद्धान होते ही प्रात्मा सम्यग्ज्ञानी होता है । (४) स्वद्रव्यका यथार्थ श्रद्धानी ज्ञानीका स्वभावके अनुरूप
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां सकलषड्जीवनिकायनिशम्भनविकल्पात्पंचेन्द्रियाभिलाषविकल्पाच्च व्यावात्मनः शद्धस्वरूपे संयमनात् स्वरूपविश्रान्तनिस्तरङ्गचैतन्यप्रतपनाच्च संयमतपःसंयुतः, सकलमोहनीयविपाकविवेकभावनासौष्ठवस्फुटीकृतनिविकारात्मस्वरूपत्वाद्विगत रागः, परमकलावलोकनाननुभूयमानसातासातवेदनीयविषाकनिर्वतितसुखदुःख जनितपरिणामवैषम्यत्वात्समसुखदुःख: श्रमणः शुद्धोपयोग इत्यभिधीयते ।। १४ ॥ उभयपदविवरण- सुविदिदपयत्थसुत्तो सुविदितपदार्थसूत्रः संजमतवसंजुदो संयमतपःसंयुतः विगदरागो विगतराग: समणो श्रमणः समसुहदुक्खं समसुखदुःखः सुद्धवओगो शुद्धोपयोग:-प्र० एक० भणिदो भणितःप्र० ए० कृदन्त क्रिया। निरुक्ति--सूत्रयति इति सूत्रः, रज्यते इति रागः, श्राम्यति इति श्रमणः) समाससुविदिते पदार्थसूत्रे येन सः, संयमः तपः चेति संयमतपसी ताभ्यां संयुतः, समे सुखःदुखे यस्य सः, शुद्धश्चासौ उपयोगः शुद्धोपयोगः ।।१४॥ - उपयोग होने लगता है। (५) स्वभावके अनुरूप उपयोग रखनेको धुन वाला प्रात्मा अपनेको प्राणासंयम व इन्द्रियासंयमसे हटाकर शुद्धात्मसंवेदनके बलसे निज शुद्धस्वरूप में संयत होता है । (६) जब प्रात्मा शुद्ध स्वरूपमें संयत होता है तब स्वरूप में स्थिरताके कारण विकल्प. रहित होता हुआ चैतन्यस्वरूपमें प्रतापवंत होता है । (७) अविकार आत्मस्वभावके अभिमुख होकर अपना प्रताप पाने वाला अविकार शुद्धात्मत्वकी भावनाके बलसे प्रात्मा रागद्वेषादि विकारोंसे रहित हो जाता है । (८) मोक्षमार्गमें प्रगतिशील अन्तरात्मा अपने अविकार चित्स्वरूपके संचेतनके स्वादमें तृप्त होता हुआ सुख-दुःखादि स्थितियोंमें समान निरपेक्ष हो जाता है । (६) समताका साधन उपाधि और विकारसे भिन्न अपनेको मात्र चैतन्यस्वरूपमय निरखना है । (१०) अविकार सहजसिद्ध आत्मस्वरूपका संचेतन वह परम कला है जिसके प्रसाद से परम समता उपलब्ध होती है । (११) सुख दुःखमें समान विगतराग शुद्धात्मत्वमें उपयुक्त श्रमण स्वयं शुद्धोपयोग है । .. सिद्धान्त--(१) स्वपरविवेकबलसे स्वको एकत्वविभक्त निरखकर मात्र आत्मस्वभाव में उपयुक्त होकर आत्मा सिद्धि पाता है । - दृष्टि-- १- ज्ञाननय (१६४)।
प्रयोग- शद्धोपयोगके लाभके लिये ज्ञानसंयमी विराग सुख दुःख में समान होना आवश्यक है ॥१४॥
___ अब शुद्धोपयोगको प्राप्तिके अनन्तर होने वाले शुद्ध प्रात्मस्वभावके लाभको प्रशंसा करते हैं--[यः] जो [उपयोगविशुद्धः] उपयोगविशुद्ध अर्थात् शुद्धोपयोगी है [आत्मा] वह प्रात्मा [विगतावरणान्तरायमोहरजाः] ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय और मोहरूप रजसे
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार:
श्रथ शुद्धोपयोग लाभानन्तरभावविशुद्धात्मस्वभाव लाभमभिनन्दति-उद्योगविसुद्धो जो विगदावरणं तरायमोहरयो । भूदो सयमेवादा जादि परं गोयभूदाणं ||१५||
उपयोगशुद्ध आत्मा, विगतावरणान्तरायमोह स्वयं ।
·
ज्ञेयभूत सकलार्थों के पूरे पारको पाता ।। १५ ।। उपयोगविशुद्ध यो विगतावरणान्तरायमोहरजाः । भूतः स्वयमेवात्मा याति पारं ज्ञेयभूतानाम् ।। १५ ।। यो हि नाम चैतन्यपरिणामलक्षणेनोपयोगेन यथाशक्ति विशुद्धो भूत्वा वर्तते स खलु प्रतिपदमुद्भिद्यमानविशिष्ट विशुद्धिशक्तिरुद्ग्रन्थितासंसारबद्धदृढतर मोहग्रंथितयात्यन्तनिर्विकारचैत
नामसंज्ञ – उवओगविसुद्ध ज विगदावरणंतरायमोहरअं भूद सयं एव अप्प पर रोयभूय । धातुसंज्ञभव सत्तायां, जागतौ । प्रातिपदिक उपयोग विशुद्ध, यत्, विगतावरणान्तरायमोहरजस्, भूद, स्वयं, एव, आत्मन, पार, ज्ञेय, भूत । मूलधातु भू सत्तायां, या प्रापणे। उभयपदविवरण उवओगविसुद्धो उपयोगविशुद्धः जो यः विगदावरणंत रायमोहरओ विगतावरणान्तरायमोहरजाः - प्रथमा ए० । भूदो भूतः - प्र० एक० रहित [ स्वयमेव भूतः ] स्वयमेव होता हुआ [ ज्ञेयभूतानां ] ज्ञेयभूत पदार्थों के [पारं याति ] पार को प्राप्त होता है ।
तात्पर्य - शुद्धोपयोग के फल में ग्रात्मा निर्मल और सर्वज्ञ हो जाता है ।
टीकार्थ -- जो चैतन्य परिणामस्वरूप उपयोगके द्वारा यथाशक्ति विशुद्ध होकर वर्तता है, वह आत्मा पद पदपर अर्थात् प्रत्येक पर्याय में जिसके विशिष्ट विशुद्धि शक्ति प्रगट होती जाती है, ऐसा होता हुआ अनादि संसारसे बंधी हुई दृढ़तर मोहग्रन्थि छूट जानेसे प्रत्यन्त निर्विकार चैतन्य वाला और समस्त ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तरायके नष्ट हो जाने से निर्विघ्न विकसित आत्मशक्तिवान स्वयमेव होता हुआ ज्ञेयताको प्राप्त पदार्थोके अन्तको पा लेता है । यहां यह लक्ष्यभूत ग्रात्मा ज्ञानस्वभाव है, और ज्ञान ज्ञेय प्रमाण है; इसलिये समस्त ज्ञेयोंके भीतर रहने वाला ज्ञान जिसका स्वभाव है ऐसे आत्माको ग्रात्मा शुद्धोपयोगके प्रसादसे ही प्राप्त करता है ।
२५
प्रसङ्गविवरण - प्रनन्तरपूर्व गाथा में शुद्धोपयोग के स्वरूपके विषय में कहा गया था । अब इस गाथा में शुद्धोपयोगके लाभ और अनन्तर होने वाले शुद्ध आत्मस्वभावका अभिनन्दन किया गया है ।
तथ्यप्रकाश - ( १ ) इस गाथाको उत्थानिका में 'अभिनन्दति' क्रियासे यह ध्वनित हुआ है कि प्राचार्यदेव विशुद्धात्मस्वभाव के प्रति ही पूर्ण अनुराग होनेसे उसको इस उल्लास से कहते हैं कि उसका अभिनन्दन हो रहा है, अपनेमें सर्व प्रदेशों में ग्राह्लादित हो रहे हैं । (२)
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां न्यो निरस्तसमस्तज्ञानदर्शनावरणान्तरायतया निःप्रतिविम्भितात्मशक्तिश्च स्वयमेव भूतो ज्ञेयत्वमापन्नानामन्तमवाप्नोति । इह किलात्मा ज्ञानस्वभावो ज्ञानं तु ज्ञेयमात्रं ततः समस्तज्ञेयान्तर्वतिज्ञानस्वभावमात्मानमात्मा शुद्धोपयोगप्रसादादेवासादयति ॥ १५ ॥ कृदन्त क्रिया। सयं स्वयं एव-अव्यय । आदा आत्मा-प्र० एक०। जादि याति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । परं पारं-द्वितीया एक० । रणेयभूदाणं ज्ञेयभूतानां-पष्ठी बहु० । निरुक्ति-(विशेषण शुध्यति इति विशुद्धः ज्ञातुं योग्यं ज्ञेयं) समास-उपयोगेन विशुद्धः उपयोगविशुद्ध विगतं आवरणं अन्तरायः मोहरजः यस्येति विगतावरणान्तरायमोहरजाः । १५ ।। जिसको शुद्धोपयोगके स्वरूपकी खबर है और शुद्धोपयोगके फलकी रुचि है वही भव्य पुरुष शुद्धोपयोगके लाभके अनन्तर प्रकट हुए निर्मल अात्मस्वभावका अभिनन्दन कर सकता है। (३) निर्मोह शुद्धात्मत्वका परिणमन शुद्धोपयोग है। (४) मोहका निःशेषतया विनाश पृथक्त्ववितर्कवीचार नामक प्रथम शुक्लध्यान रूप शुद्धोपयोगसे हो जाता है । (५) शेष घातिया कर्मोंका निःशेषतया विनाश एकत्ववितर्क अवीचार नामक शुक्लध्यान रूप शुद्धोपयोगसे हो जाता है । (६) शुद्धोपयोगसे निःशेष घातिया कर्मोका क्षय होनेपर केवलज्ञान होता है । (७) शुद्धोपयोगसे सर्वज्ञता प्राप्त हो जाती है । (८) शुद्धोपयोगसे ही शुद्धात्मस्वभावका लाभ होता है, अतः शुद्धात्मस्वभावलाभ शुद्धोपयोगका फल है ।
सिद्धान्त-( १ ) शुद्धोपयोगसे निःशेषतया घातिया कर्मोका क्षय होता है । (२) शुद्धोपयोगसे शुद्धात्मस्वभावका लाभ होता है।
दृष्टि---- १- निमित्तदृष्टि (५३ अ) । २- उपादानदृष्टि (४६ ब)। __ प्रयोग-शुद्धोपयोगके फलस्वरूप शुद्धात्मस्वभावलाभके लिये अबिकार सहज चैतन्यस्वरूपमें आत्मत्वका अनुभव बनाये रहना ॥ १५ ॥
प्रब शुद्धोपयोगसे होने वाले शुद्धात्मस्वभावका लाभ अन्य कारकोंसे निरपेक्षपना (स्वतंत्र) होनेसे अत्यन्त प्रात्माधीन है याने लेश मात्र स्वाधीन नहीं है यह प्रगट करते हैं[तथा] इस प्रकार [सः प्रात्मा] वह आत्मा [लब्धस्वभावः] स्वभावको प्राप्त [सर्वज्ञः] सर्वज्ञ [सर्वलोकपतिमहितः] और सर्व लोकके अधिपतियोंसे पूजित [स्वयमेव भूतः] स्वयमेव हुना होनेसे [स्वयंभूः भवति] स्वयंभू है [इति निर्दिष्टः] ऐसा जिनेन्द्रदेवके द्वारा कहा गया है।
तात्पर्य-स्वभावको प्राप्त सर्वज्ञ देव स्वयं प्रभु होनेसे स्वयंभू है ।
टोकार्थ---शुद्ध उपयोगकी भावनाके प्रभावसे समस्त घातिकर्मोंके नष्ट होनेसे प्राप्त किया है शुद्ध अनन्त शक्तिवान चैतन्यस्वभावको जिसने ऐसा यह विशुद्ध आत्मा--(१) शुद्ध अनन्तशक्तियुक्त ज्ञायक स्वभावके कारण म्वतंत्रपना होनेसे ग्रहण किया है कर्तृत्वके अधिकार
EE
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसारः
२७
अथ शुद्धोपयोगजन्यस्य शुद्धात्मस्वभावलाभस्य कारकान्तरनिरपेक्षतयाऽत्यन्तमात्मायत्तत्त्वं द्योतयति--
तह सो लद्धसहावो सव्वण्हु सव्वलोगपदिमहिदो। भूदो सयमेवादा हवदि सयंभु त्ति णिदिट्टो ॥१६॥
शुद्ध चिद्भावदर्शी सर्वज्ञ समस्त लोकपतिपूजित ।
हुप्रा स्वयं यह प्रात्मा, अतः स्वयंभू कहा इसको ॥१६॥ तथा स लब्धस्वभावः सर्वज्ञः सर्वलोकपतिमहितः । भूतः स्वयमेवात्मा भवति स्वयम्भूरिति निर्दिष्ट: ।।१६।।
अयं खल्वात्मा शुद्धोपयोगभावनानुभावप्रत्यस्तमितसमस्तघातिकर्मतया समुपलब्धशुद्धानन्तशक्तिचित्स्वभावः, शुद्धानन्तशक्तिज्ञायकस्वभावेन स्वतन्त्रत्वाद्गृहीतकर्तृत्वाधिकारः, शुद्धा
नामसंज्ञ-तह त लद्धसहाव सव्वण्हु सबलोगपदिसहिदो भूद सयं अत्त सयंभु त्ति णिहिट्ट । धातुसंज्ञ-भव सत्तायां, मह पूजायां । प्रातिपदिक-तथा तत् लब्धस्वभाव सर्वज्ञ सर्वलोकपतिमहित भूत स्वयं को जिसने ऐसा । (२) शुद्ध अनन्तशक्तियुक्त ज्ञानरूपसे परिणमित होनेके स्वभावके कारण स्वयं ही प्राप्यपना होनेसे याने स्वयं ही प्राप्त होनेसे कर्मत्वका अनुभव करता हुआ । (३) शुद्ध अनन्तशक्तियुक्त ज्ञानरूपसे परिणमित होनेके स्वभावसे स्वयं ही साधकतम अर्थात् उत्कृष्ट साधन होनेसे करणपनाको धारण करता हुआ । (४) शुद्ध अनन्तशक्तियुक्त ज्ञानरूपसे परिणमित होनेके स्वभावके कारण स्वयं ही कर्म द्वारा समाश्रित होनेसे अर्थात् निजपरिणमन स्वयं को ही देने में आता होनेसे सम्प्रदानपनेको धारण करता हुया । (५) शुद्ध अनन्तशक्तिमय ज्ञानरूपमें परिणमित होनेके समय पूर्व में प्रवर्तमान विकलज्ञानस्वभावका नाश होनेपर भी सहज ज्ञानस्वभावसे स्वयं ही ध्र वताका अवलम्बन करनेसे अपादानपनेको धारण करता हुआ और (६ ) शुद्ध अनन्तशक्तियुक्त ज्ञानरूपसे परिणमित होनेके स्वभावका स्वयं ही आधार होनेसे अधिकरणपनेको आत्मसात् करता हुआ स्वयमेव छह कारकरूप होनेसे अथवा उत्पत्ति अपेक्षा से द्रव्य-भावभेदसे भिन्न धातिकर्मोंको दूर करके स्वयमेव आविर्भूत होनेसे 'स्वयंभू' कहलाता है। अतः निश्चयसे परके साथ आत्माका कारकताका सम्बन्ध नहीं है जिससे कि शुद्धात्मस्वभावलाभके लिये सामग्री खोजनेको व्यग्रतासे परतंत्र होना पड़े, फिर क्यों शुद्धात्मस्वभावको प्राप्तिके लिये बाह्य साधन ढूंढ़ने की व्यग्रतासे जीव व्यर्थ ही परतंत्र हुए जा रहे हैं। * प्रसङ्गविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें शुद्धोपयोगके लाभके अनन्तर इस शुद्धात्मस्व. भावलाभका अभिनन्दन किया गया था। अब इस गाथामें उसी शुद्धोपयोगजन्य शुद्धात्मस्वभावलाभकी पूर्ण निरपेक्षता व प्रात्माधीनताका वर्णन किया गया है ।
'' तथ्यप्रकाश--(१) शुद्धात्मस्वभावलाभ अर्थात् परमात्मत्वविकासको अन्य नहीं कर
20...
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८
सहजानन्दशास्त्रमालायां नन्तशक्तिज्ञानविपरिणमनस्वभावेन प्राप्यत्वात् कर्मत्वं केलयन, शुद्धानन्तशक्तिज्ञानविपरिणमनस्वभावेन साधकतमत्वात् करणत्वमनुविभ्राणः, शुद्धानन्तशक्तिज्ञानविपरिणमनस्वभावेन कर्मणा समाश्रियमारणत्वात् संप्रदानत्वं दधानः, शुद्धानंतशक्तिज्ञानविपरिणमनसमये पूर्वप्रवृत्तविकलज्ञानस्वभावापगमेऽपि सहजज्ञानस्वभावेन ध्र वत्वालम्बनादपादानत्वमुपाददानः, शुद्धानन्तशक्तिज्ञानविपरिणमनस्वभावस्याधारभूतत्वादधिकरणत्वमात्मसात्कुरिणः, स्वयमेव षट्कारकीरूपेणोपजायमानः, उत्पत्तिव्यपेक्षया द्रव्यभावभेदभिन्न घातिकर्माण्यपास्य स्वयमेवाविर्भूतत्वाद्वा स्वयंभूरिति निर्दिश्यते । अतो न निश्चयतः परेण सहात्मनः कारकत्वसम्बन्धोऽस्ति, यतः शुद्धात्मस्वभावलाभाय सामग्रीमार्गरणव्यग्रतया परतंत्रैर्भूयते ।। १६ ।। एव आत्मन् स्वयंभु इति निदिष्ट । मूलधातु-भू सत्तायां, मह पूजायां । उभयपदविवरण-तह तथा एव सयं स्वयं त्ति इति-अव्यय । सो सः-प्र० एक० । लद्धसहावो लब्धस्वभाव: सब्बण्ह सर्वज्ञः सव्वलोगपदिमहिदो सर्वलोकपतिमहितः आदा आत्मा सयंभू स्वयंभु-प्र० एक० । भूदो भूत:-प्र० ए० कृदन्त क्रिया। हवदि भबति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । णि द्दिट्टो निर्दिष्ट:-प्रथमा एकवचन कृदन्त क्रिया। निरुक्ति-सर्व जानाति इति सर्वज्ञः, स्वयं भवति इति स्वयंभुः) समास-लब्धः स्वभावः येन सः लब्धस्वभाव:, (सर्वलोकानां पतयः सर्वलोकपतयः तैः महितः।। १६ ।।
जाता, किन्तु यही प्रात्मा शुद्ध अनन्तशक्तिमान ज्ञायकस्वभावी होनेके कारण स्वतन्त्रतया करता है । (२) शुद्धात्मस्वभावलाभ किसी अन्यका काम नहीं है, किन्तु स्वयं ही शुद्ध अनंत ज्ञानादिरूप परिणमनेके कारण इसी आत्माका काम है । (३) शुद्धात्मस्वभावलाभ किसी अन्य साधनासे नहीं बनता है, किन्तु शुद्ध अनंत ज्ञानादिरूप परिणत होनेके स्वभावके कारण परम साधनरूप स्वयंसे हो बनता है। (४) शुद्धात्मस्वभावलाभ किसी दूसरेके लिये नहीं होता है, किन्तु शुद्धात्मस्वभावका फल परमसहजानंद स्वयं ही आत्मा पाता है, अतः वह लाभ स्वयं के लिये होता है। (५) शुद्धात्मस्वभावलाभ किसी दूसरेके लिये नहीं दिया जाता है, किंतु वह शुद्धात्मस्वभावलाभ स्वयंके लिये ही देने में आता होनेसे स्वयं के लिये ही दिया जाता है । (६) शुद्धात्मस्वभावलाभ किसी अन्यसे नहीं निकलता है, किन्तु ध्र व सहज चैतन्यस्वभावमय इसी प्रात्मासे प्रकट होता है । (७) शुद्धात्मस्वभाव किसी अन्य में नहीं होता, किन्तु शुद्धात्मस्वभावकी प्रकटताके परिणमनका आधार स्वयं ही यह प्रात्मा है, इसी स्वयं प्रात्मामें शुद्ध।त्मस्वभावलाभ होता। (८) शुद्धात्मस्वभावलाभ सजातीय विजातीय समस्त द्रव्यान्तरोंसे अत्यन्त निरपेक्ष है। (8) शुद्धात्मस्वभावलाभ स्वयं ही स्वयंमें स्वयंसे स्वयंके लिये स्वयं के द्वारा होता है, अतः यह लाभ अत्यन्त स्वाधीन है । (१०) अपने वास्तविक लाभके लिये अन्य सामग्री ढुंदनेसे लाभ हो ही नहीं सकता । (११) शुद्धात्मस्वभावके लाभके लिये अन्य सामग्री
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार:
अथ स्वायम्भुवस्यास्य शुद्धात्मस्वभावलाभस्यात्यन्तमनपायित्वं कथंचिदुत्पादव्ययप्रौव्ययुक्तत्वं चालोचयति-
भंगविणो य भवो संभवपरिवजिदो विगासो हि । विज्जदि तस्सेव पुणो ठिदिसंभवणाससमवायो ॥१७॥
भंगरहित है संभव संभववर्जित विनाश होकर भी ।
1
२६
शुद्धके ध्रौव्य संभव, व्ययका समवाय रहता है ॥१७॥
भङ्गविहीनश्च भवः सम्भवपरिवर्जितो विनाशो हि । विद्यते तस्यैव पुनः स्थितिसम्भवनाशसमवायः ||१७|| अस्य खल्वात्मनः शुद्धोपयोगप्रसादात् शुद्धात्मस्वभावेन यो भवः स पुनस्तेन रूपेण प्रलयाभावाद्भगविहीनः । यस्त्वशुद्धात्मस्वभावेन विनाशः स पुनरुत्पादाभावात्संभवपरिवर्जितः ।
है ।
नामसंज्ञ - भंगविहीण य भव संभवपरिवज्जिव विणास हि त एव पुणो ठिदिसंभवणाससमवाय । धातुसंज्ञ वज्ज वर्जने, विज्ज सत्तायां । प्रातिपदिक- भङ्गविहीन च भव संभवपरिवर्जित विनाश हि तत् एव पुनर् स्थितिसंभवनाशसमवाय । मूलधातु-- विद सत्तायां दिवादि, वृजी वर्जने । उभयपदविवरण -- भंग विहीणी भंगविहीनः भवो भवः संभवपरिवज्जिदो सम्भवपरिवर्जितः विणासो विनाशः णिदिसंभवणाससमवाओ स्थितिसम्भवनाशसमवायः - प्रथमा एक० । य च हि एव पुणो पुनः अव्यय । तस्स तस्य षष्ठी ढूंढ़ने वाला परतन्त्र है । १२ - परतन्त्र जीव शुद्धोपयोगको प्राप्त नहीं कर सकते, फिर शुद्धोपयोगका फल परतन्त्रको मिलना कैसे संभव हो सकता है ?
सिद्धान्त - - १ - परमात्मत्वविकास सहज चैतन्यस्वभावकी अभेदोपासनासे प्रकट होता
सदैव है ।
दृष्टि - १ - शुद्ध निश्चयनय, शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय, ज्ञाननय [ ४६, २४ब,
१६४] ।
प्रयोग - सहजपरमात्मतत्त्व के सहजानन्दमय स्वभावरूप विकासके लिये चिन्मात्र सहज परमात्मतत्त्वकी ज्ञप्ति, दृष्टि, प्रतीति, रुचि व आराधना करना ||१६||
अब इस स्वयंभू शुद्धात्मस्वभावकी प्राप्तिके अत्यन्त अविनाशीपना और कथंचित् अर्थात् कोई प्रकारसे उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तताका विचार करते हैं -- [ भंगविहीनः च भवः ] शुद्धात्मस्वभावको प्राप्त आत्मा के विनाशरहित उत्पाद है, और [ संभवपरिवर्जितः विनाशः [हि] उत्पादरहित विनाश है [ तस्य एव पुनः ] उसके ही फिर [ स्थितिसंभवनाशसमवायः विद्यते ] धौव्य, उत्पाद और विनाशका समवाय अर्थात् एकत्रित समूह विद्यमान है ।
1
तात्पर्य -- शुद्धात्मा के शुद्धत्व नष्ट नहीं होता, अशुद्धत्व आ नहीं सकता, आत्मत्व
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०
सहजानंदशास्त्रमालायां
प्रतोऽस्य सिद्धत्वेनानपायित्वम् । एवमपि स्थितिसंभवनाशसमवायोऽस्व न विप्रतिषिध्यते, भङ्गरहितोत्पादेन संभववर्जितविनाशेन तद्वयाधारभूतद्रव्येण च समवेतत्वात् ||१७||
एक० । विज्जदि विद्यते - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया । निरुक्ति-- भजनं भङ्गः, भवनं भवः, विनशनं विनाशः । समास (भिंगेन विहीनः भंगविहीन) सम्भवेन परिवर्जितः सम्भवपरिवर्जितः, स्थितिः सम्भवः नाश: चेति स्थितिसम्भवनाशाः तेषां समवायः स्थितिसम्भवनाशसमवायः ।। १७ ।।
टीकार्थ- वास्तव में इस शुद्धात्मस्वभावको प्राप्त ग्रात्मा शुद्धोपयोगके प्रसादसे शुद्धात्मस्वभावरूपसे जो उत्पाद है, वह पुनः उस रूपसे प्रलयका प्रभाव होनेसे विनाशरहित है; और जो उत्पाद है, वह पुनः उस रूपसे प्रलयका प्रभाव होनेसे विनाशरहित है और जो शुद्धात्मस्वभाव रूपसे विनाश है वह पुनः उत्पत्तिका अभाव होनेसे उत्पादरहित है । इस कारण उस आत्मा के सिद्धरूपसे अविनाशीपन है । ऐसा होनेपर भी उस श्रात्माके उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यका समवाय अर्थात् एकत्र होना विरोधको प्राप्त नहीं होता, क्योंकि वह विनाशरहित उत्पादके साथ, उत्पादरहित विनाशके साथ और उन दोनोंके आधारभूत द्रव्यके साथ समवेत है अर्थात् तन्मयतासे युक्त एकमेक है ।
प्रसंगविवरण - अनन्तर पूर्व गाथा में शुद्धात्मस्वभाव के लाभको स्वायंभुव सिद्ध किया था । अब इस गाथामें "स्वायंभूव शुद्धात्मलाभका कभी भी विनाश न होगा" इस समर्थन के साथ साथ उसकी कथंचित् उत्पाद व्यय - ध्रौव्यात्मकताका भी विचार किया गया है ।
तथ्य प्रकाश-- - ( १ ) शुद्धात्मस्वभाव शुद्धोपयोग के प्रसादसे प्रकट होता है । ( २ ) अशुद्धात्मभावका अभाव भी शुद्धोपयोग के प्रसादसे हुआ है । ( ३ ) शुद्धात्मस्वभाव के प्रकट होने पर उसका कभी भी प्रलय नहीं होगा । ( ४ ) अशुद्धात्मभावका प्रभाव होनेपर अशुद्धात्मभाव की कभी भी संभवता नहीं होगी । ( ५ ) प्रशुद्धात्मभावका प्रलय होना व शुद्धात्मस्वभावका आविर्भाव होना यही सिद्धपना है । ( ६ ) सिद्धपना सदैव कायम रहेगा । ( ७ ) इस परमात्मद्रव्यका सिद्धपर्यायरूपसे उत्पाद हुआ है, संसारपर्यायरूपसे विनाश हुआ है व ऐसे उत्पादव्यय के आधारभूत स्वद्रव्यत्वसे धौव्य रहता है ।
सिद्धान्त - ( १ ) प्रभु शुद्धात्मभाव से हटकर शुद्धात्मस्वभावविकासरूप हुए हैं । (२) प्रभु सदा अविनाशी हैं ।
दृष्टि - १ - सादिनित्यपर्यायार्थिकनय [ ३६ ] । २- उत्पादव्ययगोणसत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिकनय [२२] ।
प्रयोग - प्रशुद्धात्मभाव के विनाशके लिये व शुद्धात्मस्वभाव के विकासके लिये शुद्धोपयोगके बीजरूप आत्मस्वभावाराधना करना ।। १७ ।।
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
नाम.DAIनIMIMIRELAIMER
प्रवचनसार:
spandane
1 SAREERS36malini
dance
अथोत्पादादित्रयं सर्वद्रव्यसाधारणत्वेन शुद्धात्मनोऽप्यवश्यंभावीति विभावयति
उप्पादो य विणासो विजदि सव्वस्स अट्टजादस्स। पजाएगा द कवि अहो खलु होदि सब्भूदो ॥१८॥
संभव व्यय दोनों भी, रहते हैं सकल अर्थ सार्थोमें ।
पर्यायविवक्षासे, वे ही सद्भूत निश्चयसे ॥ १८ ॥ उत्पादश्च विनाशो विद्यते सर्वस्यार्थजातस्य । पर्यायेण तु केनाप्यर्थः खलु भवति सद्भुतः ।। १८ ।।
यथाहि जात्यजाम्बूनदस्याङ्गदपर्यायेणोत्पत्तिष्टा । पूर्वव्यवस्थितांगुलीयकादिपर्यायेण च विनाशः । पीततादिपर्यायेण तूभयत्राप्युत्पत्तिविनाशावनासादयतः ध्र वत्वम् । एवमखिल
नामसंज्ञ-उप्पाद य विणास सव्व अट्ठजाद पज्जाय दु क बि अट्ठ खलु सन्भूद। धातुसंज्ञ -- विज्ज सत्तायां । प्रातिपदिक-उत्पाद च विनाश सर्व अर्थजात पर्याय किम् अपि अर्थ खलु सद्भत । मलधातविद तत्तायां, भू सत्तायां। उभयपदधिवरण-~-उप्पादो उत्पादः विणासो विनाश:-प्रथमा एकवचन । विज्जदि विद्यते होदि भवति-वर्तमान अन्य पुरुष एक० क्रिया । सव्वस्स सर्वस्य अट्ठजादस्स अर्थजातस्य
अब उत्पाद आदि तीनों (उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य) सर्व द्रव्यके साधारण है, इस. लिये शुद्ध आत्मा केवली भगवान और सिद्ध भगवानके भी अवश्यम्भावी है, यह विशेष रूपसे हुवाते हैं, व्यक्त करते हैं---[सर्वस्य] सर्व [अर्थजातस्य] सर्वपदार्थका [उत्पाद:] किसी पर्याय से उत्पाद [विनाशः च] और किसी पर्यायसे विनाश [विद्यते] होता है; [केन अपि पर्यायेरण तु] और किसी पर्यायसे [अर्थः] पदार्थ [खलु सद्भूतः भवति] वास्तवमें ध्र व है।
तात्पर्य....प्रत्येक पदार्थ उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक है ।
टीकार्थ-जैसे कि उत्तम स्वर्णकी बाजू बन्दरूप पर्यायसे उत्पत्ति दिखाई देती है, पूर्व अवस्थारूपसे वर्तने वाली अंगूठी इत्यादिक पर्यायसे विनाश देखा जाता है, और पीलापन इत्यादि पर्यायसे दोनोंमें याने बाजूबन्द और अंगूठी में उत्पत्ति विनाशको प्राप्त न होनेसे ध्रौव्यत्व दिखाई देता है । इस प्रकार सर्व द्रव्योंके किसी पर्यायसे उत्पाद, किसी पर्यायसे विनाश और किसी पर्यायसे ध्रौव्य होता है, ऐसा जानना चाहिये । इस कारण शुद्ध आत्माके भी द्रव्यका लक्षणभूत उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप अस्तित्व अवयम्भावी है ।
प्रसंगविवरण---अनन्तरपूर्व गाथामें शुद्धात्मस्वभावलाभकी अविनाशिता व कथंचित् उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तता बताई गई थी। अब इस गाथामें "उत्पादादित्रय सर्वद्रव्योंमें पाया जाता है सो शुद्धात्माके भी अवश्य होते हैं" यह वर्णन किया गया है।
तथ्यप्रकाश-१- सभी द्रव्योंमें अपेक्षावोंसे उत्पाद व्यय ध्रौव्य एक साथ रहते हैं । २- जैसे- पुद्गलपिण्डका स्वर्णरूपसे उत्पाद, स्वर्णमिट्टी रूपसे नाश व पुद्गलपिण्डरूपसे
।
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२
सहजानन्दशास्त्र्यालायां
द्रव्याणां केनचित्पर्यायेणोत्पादः केनचिद्विनाशः केनचिद्व्यमित्यवबोद्धव्यम् । श्रतः शुद्धात्मनोsप्युत्पादादित्रयरूपं द्रव्यलक्षरणभूतमस्तित्वमवश्यंभावि ।। १८ ।।
षष्ठी ए० । पज्जायेण पर्यायेन केण क्रेन-तृतीया एक० । अट्टो अर्थ: सब्भूदो सद्भूतः - प्रथमा एकवचन । य च दु तु खलु-अव्यय । निरुक्ति (परि अयते गच्छति पर्यायः, प्रर्यते इति अर्थः । समास - अर्थानां जातः समूहः अर्थजातः तस्य ।। १८ ।।
ध्रौव्य है । ३ - जैसे- संसारी जीवका मनुष्यपर्यायरूपसे उत्पाद देवपर्यायरूपसे विनाश व जीवद्रव्यरूपसे ध्रौव्य है । ४- परमात्माका सिद्धपर्यायरूपसे उत्पाद संसारपर्यायरूपसे विनाश वशुद्धात्मद्रव्यरूप से ध्रौव्य है । ७- परमात्माका नवीन केवल ज्ञानादि पर्यायरूपसे उत्पाद, पूर्व केवलज्ञानादि पर्यायरूपसे विनाश व शुद्धात्मद्रव्यरूप से ध्रौव्य रहता है । अगुरुलघु गुणोंके निमित्तसे होने वाली षड्गुण हानि वृद्धिरूप परिणमनके कारण परमात्मा के प्रतिसमय उत्पाद व्यय ध्रौव्य बर्तता है । - परमात्मद्रव्य के ध्रौव्य रहते हुए भी सम स्वाभाविक पर्यायों के रूपसे उत्पादव्यय होता रहता है ।
सिद्धान्त - १ - प्रत्येक सत् उत्पादव्ययध्रौव्य त्रिलक्षणसत्तामय है । २- परमात्मद्रव्य सम स्वाभाविक पर्यायों के रूपसे परिणमते रहते हैं ।
दृष्टि - १ - उत्पादव्ययसापेक्ष प्रशुद्ध द्रव्यार्थिकनय [ २५ ] । नित्य शुद्धपर्यायार्थिकनय [ ३६ ] |
प्रयोग - सहजानन्दमय सम स्वाभाविक पर्यायोंके रूपसे परिणमते रहने के लिये टंकोकी एक ज्ञायकभावस्वरूप अन्तस्तत्त्व में आत्मत्व अनुभवना ॥ १८ ॥
शुद्धोपयोग प्रभावसे स्वयंभू हो चुके इस शुद्ध आत्माके इन्द्रियोंके बिना ज्ञान पौर श्रानन्द कैसे होता है ? इस संदेहको दूर करते हैं: - [ प्रक्षोरणघातिकर्मा] जिसके घातिकर्म नष्ट हो चुके हैं, [ श्रतीन्द्रियः जातः] जो प्रतीन्द्रिय है, [ अनन्तवरवीर्यः ] अनन्त उत्तम वीर्य वाला, और [ अधिकतेजाः ] जिसके केवलज्ञान और केवलदर्शन रूप तेज अधिक अर्थात् अनन्त है [स] वह स्वयंभू ग्रात्मा [ज्ञानं सौख्यं च ] ज्ञान और सुखरूप [ परिणमति ] परिणमता रहता हैं |
तात्पर्य -- स्वयंभू परमात्मा के अनन्त ज्ञान व अनन्त आनन्द निरन्तर रहता है ।
टीकार्थ- शुद्धोपयोग सामर्थ्यसे घातिकर्म क्षयको प्राप्त हुए हैं जिसके, क्षायोपशमिक ज्ञानदर्शन के साथ संपर्क रहित होनेसे जो प्रतीन्द्रिय हो गया है, समस्त अन्तरायका क्षय होने से जिसके अनन्त उत्तम वीर्य है, समस्त ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मका प्रलय हो जानेसे अधिक (नंत ) है केवलज्ञान और केवलदर्शन नामक तेज जिसके, ऐसा यह स्वयंभू आत्मा
-2
२- उपाधिनिरपेक्ष
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसारः
intert19019.nipair.2015...
15000
....Antimi
अथास्यात्मनः शुद्धोपयोगानुभावात्स्वयंभुवो भूतस्य कथमिन्द्रियविना ज्ञानानन्दाविति संदेहमुदस्यति--
पक्खीणवादिकम्मो अणंतवरवीरित्रो अहियतेजो। जादो अदिदियो सो गाणं सोक्खं च परिणामदि ॥१६॥
प्रक्षोणघातिकर्मा, अनन्तवर वीर्य अधिक तेजस्वी ।
हुया प्रतीन्द्रिय इससे, हो ज्ञानानन्द परिणामता ॥१६॥ प्रक्षीणघातिकर्मा अनन्तबरवीयोऽधिकतजाः । जातो. तीन्द्रियः स नानं सौख्यं च परिणति ।। १६ ॥
___अयं खल्वात्मा शुद्धोपयोगसामर्थ्यात् प्रक्षीणधातिकर्मा, क्षायोपशमिज्ञानदर्शनासंपृक्तस्वादतीन्द्रियो भुतः सन्निखिलान्त रायक्षयादनलवरवीर्यः कृत्स्नज्ञानदर्शनावरण प्रलयादधिककेवल. ज्ञानदर्शनाभिधानतेजाः समस्त मोहनीयामाबादत्यंतनिर्विकारशुद्ध चैतन्यस्वभावमात्मानमासादयन
. नामसंज-पवखीणघादिकम्म अणं तवरवीरिअ अहियतेज जाद अदिदिअ त णाण सोक्स च । धातुसंश-विख क्षत्रे, जा प्रादुर्भाव, परि गम प्रवत्वे । प्रातिपदिक.....प्रक्षोणघातिकर्मन् अनन्तवरवीर्य अधिकलेजस् जात 1 अतीन्द्रिय तत् ज्ञान सौख्य च मूलधातु-क्षि क्षये, जनि प्रादुर्भावे, परि सम प्रवत्वे 1 उभयपदविवरण-पक्खीणघादिकम्मो प्रक्षोणघातिकर्मा अग्गंतबरवीरिओ अनन्तवरवीर्य: अहियतेजो अधिकतेजा:प्र० ए० । जादो जात:- एक दन्त क्रिया । अदिदिओ अतीन्द्रियः सो सः-प्रथमा एक । णाणं जाने समस्त मोहनीयके अभावके कारण अत्यन्त निर्विकार शुद्ध चैतन्यस्वभाव बाले प्रात्माका अनुभव करता हुआ स्वयमेव स्वपरप्रकाशकतारूप ज्ञान और अनाकुलतारूप मुख होकर परिणामित होता है । इस प्रकार प्रात्माका ज्ञान और ग्रानन्द स्वभाव ही है । और स्वभावके अनपेक्षपना होनेसे इन्द्रियोंके बिना भी ग्राहमाके ज्ञान और प्रानन्द होता है।
प्रसंगविवरण----अनन्तरपूर्व गाथामें कहा गया था कि उत्पाद व्यय ध्रौव्य सर्व द्रव्यमें होते हैं सो शुद्धात्माके अर्थात् परमात्माके भी ये तीनों होते हैं । अब इस गाथामें शुद्धोपयोगके प्रतापसे स्वयंभू हुए शुद्धात्माके इन्द्रियोंके बिना ज्ञान प्रानन्द कैसे हो सकता है इस सन्देहको खत्म कर दिया है।
तथ्य प्रकाश----(१) यह प्रात्मद्रव्य अधिकारस्वभाव सहज ज्ञानदर्शनात्मक चैतन्यस्वरूप है। (२) अनादि कमोपाधिबन्धनके निमित्तसे इस जीवका ज्ञान और मानन्द प्रा. च्छादित हो गया है । (३) जिसका ज्ञान और आनन्द आच्छादित है वह शरीरधारी ही है । (४) शरीरबन्धन भी कर्मोपाधिके निमित्तसे चला आ रहा है । (५) शरीरबद्ध जीव कर्मोपाधिक्षयोपशमके अनुसार इन्द्रियोंके आश्रयसे कुछ अल्प ज्ञान व अन्य सुखरूप परिणमता है । (६) यह जीव वस्तुस्वरूपके परिज्ञानसे वैसी दृष्टिका अभ्यास करता हुआ कभी अविकार
ar
t
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
S
सहजानन्दशास्त्रमालायां
स्वयमेव स्वपर प्रकाशकत्वलक्षण ज्ञानमनाकुलत्वलक्षणं सौख्यं च भूत्वा परिणामते । एवमास्मनो ज्ञानानन्दो स्वभाव एव । स्वभावस्य तु परानपेक्षस्वादिन्द्रियविनाप्यात्मनो ज्ञानानन्दी संभवतः ॥१६॥ सोवखं सौरू-०ए० परिणदि परिणमति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया 1 निरुक्ति-क्रियते इति कर्म | समास-प्रक्षोहानि बालिकर्माणि यस्य सः प्रक्षीणचातिकर्मा, अनन्तं वरवीर्य यस्य स: अनंतबरवीर्यः, अधिक तेजः यत्र स; अधिकतेजाः इन्द्रिय अतिक्रान्तः अतीन्द्रियः)।१६।। स्वभाव निज सहज ज्ञानदर्शनात्मक आत्मस्वरूपका अनुभव कर लेता है । (७) अविकार सहजचित्स्वभावका अनुभव कर लेने वाले ज्ञानी प्रात्माको धुन स्वरूपरमण को हो जाती है । (८) स्वरूपरमणको धुन वाला ज्ञानी एतदर्थ सर्व परिग्रहका न आत्मस्वभावका प्रसंग छोड़ देता है । (६) निर्ग्रन्थ दिगम्बर श्रमणके निर्विकल्पसमाधि अर्थात् शुद्धोपयोगके प्रतापसे कर्मप्रकृतियोंका क्षय हो जाता है । (१०) समस्त घातिया कर्माका क्षय हो चुकत हो अात्मा केवलज्ञानी हो जाता है । (११) केवलज्ञान केवल आत्माके द्वारा हो जानता है, इन्द्रियों द्वारा नहीं। (१२) आत्माको ज्ञानरूप व प्रानन्दरूप परिणमनेमें इन्द्रियादिक पर निमित्नोंकी अपेक्षा नहीं होती है। (१३) ज्ञान का स्वरूप स्वपरप्रकाशकता है और आनन्दका स्वरूप निराकुलता है । (१४) उपाधिरहित ज्ञान और आनन्द परिपूर्ण और अनन्त होता है, क्योंकि स्वभावको परकी अपेक्षा नहीं होती। (१५) केवलज्ञानी परमात्मा परिपूर्ण ज्ञान रूप व परिपूर्ण आनंद. मय होकर स्वयं ही परिणमते रहते हैं । (१६) स्वयंभु परमात्मामें इन्द्रियोंके बिना ही असीम ज्ञान और असीम अानन्द बर्तसा रहता है। (१७) स्वभावपरिणमनमें परको अपेक्षा रंचमात्र भी नहीं होती।
सिद्धान्त--(१) शुद्धोपयोगके सामर्थ्यसे धातिया कर्मोका निःशेष क्षय होता है । (२) घातिया कमोंका क्षय होनेसे अनन्त ज्ञान दर्शन प्रानन्द व शक्तिमय परिगमन होता है ।
दृष्टि----१- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय [२४ ब] । २- उपाध्यभावापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय [२४] ।
प्रयोम-शाश्वत सहज परिपूर्ण ज्ञानानन्दके लाभके लिये अविकार ज्ञानानन्दस्वभाव अन्तस्तत्वका ज्ञान बनाये रहनेका सहज पौरुष करना ॥१६॥
अब अतीन्द्रियताके कारण ही शुद्ध प्रात्माके शारीरिक सुख दुःख नहीं है यह व्यक्त करते हैं---[केवलज्ञानि::] केवलज्ञानीके [देहगतं] शरीरसम्बन्धी सौख्यं] सुख वा पुनः दुःखं] व दुःख [नास्ति] नहीं है, [यस्मात्] क्योंकि [अतीन्द्रियत्वं जात] अतीन्द्रियता उत्पन्न हुई है [तस्मात् तु तत् ज्ञेयम्] इसलिये प्रभुका ज्ञान व आनन्द अतीन्द्रिय ही जानना चाहिये ।
raRIOne
w
Dammamer
wwwne
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार: अशातीन्द्रियस्वादेव शुद्धात्मनः शारोरं सुखं दुःखं नास्तीति विभावयति----
सोक्खं वा पुग्ण दुक्खं केवलगाणिम्म शात्थि देहगदं । जम्हा अदिदियत्तं जादं तम्हा दु तं शोयं ॥२०॥ केवलज्ञानो प्रभुके, हुआ प्रतीन्द्रियपना है इस कारण ।
शारीरिक सुख अथवा, दुख भो नहि केवलो प्रभुके ॥२०॥ सौख्य का पुनदुख केवलज्ञानिनो नास्ति बेहगतम् । घरमादतीन्द्रियत्वं जातं तरमा तज्ज्ञेयम् ॥ २० ॥
कायत एवं शुद्धात्मनो जातवेदस इच कालायसगोलोत्कुलितपुद्गलाशेषविलासकल्पो नास्तीन्द्रियग्रामस्तत एवं धोरधनधाताभिघात रंगरास्थानीयं शरीरगतं सुखदुःखं न स्यात् ॥२०॥
नामश-सोक्व वा पुण दुधख के वरणणि ण देहगद ज अदिदियन जाद त दुल गोय। धातुसंजअस सत्तायो, जा प्रादुर्भाव । प्रातिपदिक . सौख्य या पुनर् दुःख जवलशानिन् न दहगत यत् अतीन्द्रियत्व जात तत् तु शेय। मुलधातु-...असा भुवि, जनि प्रादुर्भावे । उभयपद विवरण-----सोक्खं सौख्यं दुक्खं दुःखं देहगद देहात-प्रथमा एकवचन । केवलणाणिस्रा केवलजानिन:-ठी एक० । जम्हा यस्मात् तम्हा तस्मात्पचमी एक वाणन तु-अव्यय । अत्यि अरित-प्रतमान लट 3
पुरुष एकल
तत्-प्रथमा एक । गोयं जयं-प्र० ए० कृदन्त किया। निरुक्ति-दिह्यते इति देहः । समास--(दहे गतं देगतं २०
। तात्पर्य - अतीन्द्रियपना होनेसे प्रभुके सुख और दुःख नहीं है, किन्तु अतीन्द्रिय ही अनन्त ज्ञान व आनन्द है।
टीकार्थ---जैसे अग्निको लोहेके गोलेके तप्त पुद्गलोंका समस्त विलास नहीं है उसी प्रकार शुद्ध प्रात्माके अर्थात् केवलज्ञानी भगवान के इन्द्रियसमूह नहीं है। इस कारण जैसे अग्नि को घनके घोर प्राधातोंकी परम्परा नहीं है, इसी प्रकार शुद्ध यात्माके शरीर सम्बन्धी सुख
का
S
का प्रसंगविवरण ---- अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि परमात्मा इन्द्रियोंके बिना
ही मनन्तशक्ति अनन्त परिपूर्ण ज्ञानानन्दको अनुभवत्ता है ! अब इस माथामें बताया गया है * कि अतीन्द्रिय होनेसे परमात्माके शारीरिक सुख दुःख नहीं हैं ।
नई सध्यप्रकाश---(१) परमात्माका ज्ञान और प्रानन्द स्वाभाविक है, अतीन्द्रिय है, परिपूर्ण है। (२) जैसे लोहे के सम्बन्ध का अभाव होनेसे अग्नि का घनघालसे पिटना नहीं होता पोसे ही इन्द्रियग्राम न होनेसे भगवान के शारीरिक सुख दुःखरूप आपदा नहीं रहती। (३) सिद्ध भगवानके तो शरीर नहीं है वहां तो शारीरिक सुख दुःखका व इन्द्रियज ज्ञान प्रानन्द का संदेह भी किसोको नहीं हो सकता। (४) अरहंत भगवानके शरीरका सम्बन्ध तो है, किन्तु क्षायोपशमिक ज्ञान दर्शन न होनेसे प्रभु अतीन्द्रिय हैं, ज्ञानावरणादि धातिया कर्मोका
।
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
:३६
सहजानन्दशास्त्रमालायां
अथ ज्ञानस्वरूपप्रपञ्चं च क्रमप्रवृत्तप्रबन्धद्वयेनाभिदधाति । तत्र केवलिमतीन्द्रियज्ञानपरिपतत्वात्सर्वं प्रत्यक्षं भवतीति विभावयति----
परिणमदो खलु गाणं पञ्चकखा सव्वदव्वपज्जाया । सो व ते विजादि उग्गहपुव्वाहिं किरियाहि ॥ २१ ॥ ज्ञानपरित प्रभू, सब प्रत्यक्ष हैं द्रव्यपर्यायें ।
सो वे ग्रहादिक पूर्वक नहिं जानते क्रमसे ॥२१॥ परिणममानस्य खलु ज्ञानं प्रत्यक्षाः सर्वद्रव्यपर्यायाः । स नैव तान् विजानात्यग्रहभिः क्रियाभिः ॥ यतो न खल्विन्द्रियाण्यालम्ब्यावग्रहाचायपूर्वक प्रक्रमेण केवली विजानाति, स्वयमेव समस्तावरणक्षक्षण एवानाद्यनन्ताहेतुकासाधारणभूतज्ञानस्वभावमेव कारणत्वेनोपादाय तदु
नामसंज्ञ परिणमन्त खलु पच्चवख सव्यदव्वपज्जाय तण एवं उग्गहया किरिया । धातुसंज्ञ fa जा अवबोधने । प्रातिपदिक- परिणममान खलु ज्ञान प्रत्यक्ष सर्वद्रव्यपर्याय तण एवं त अवग्रहपूर्वा क्रिया । मूलधातुवि ज्ञा अवबोधने । उभयपद विवरण- परिणमदो परिणममानस्थ-पष्टी एक परिण ममान अन्तर्गत क्रियाविशेषण | खलुन एव अन्यय । पच्चवखा प्रत्यक्षाः - प्रथमा बहु | सदा. क्षय होनेसे अनन्त ज्ञान दर्शन ग्रानन्द शक्ति वाले हैं उनका शरीरसे कुछ प्रयोजन नहीं है । अतः शारीरिक सुख दुःख नहीं । (५) अरहंत भगवानके घातिया कर्मका प्रभाव होनेसे अनंत आनन्द है वहाँ शुधादि दुःख नहीं है । (६) अरहंत भगवान के परमोदारिक देहमें सूक्ष्म सरस सुगंध नोकर्म वर्गका सम्बन्ध ( नोकर्माहार) होता रहता है, श्रतः सहजानन्तानन्दमय भगवान के कबलाहारादि सुखका क्षोभ नहीं । ( ७ ) भगवान के अतीन्द्रिय अनन्त ज्ञान और अतीन्द्रिय ग्रनन्त श्रानन्द है ।
सिद्धान्त --- (१) प्रभुके आत्मीय श्रनन्त ज्ञान व आनन्द है । (२) प्रभुका ज्ञान व आनन्द स्वाभाविक है ।
दृष्टि - १- शुद्ध निश्चयनय [४६] २- स्वभावगुणव्यञ्जनपर्यायदृष्टि [२१२] | प्रयोग - भगवानके स्वाधीन ज्ञान आनन्दके स्वरूपको निरखकर अपने उपलब्ध ज्ञात वसुखको भी इन्द्रियनिमित्तक होनेपर भी ग्रात्मा से ही हुआ निरखना ॥२०॥
अब ज्ञान के स्वरूपका विस्तार और सुखके स्वरूपका विस्तार क्रमशः प्रवर्तमान दो स्थलोंके द्वारा कहते हैं । इनमें से पहले अतीन्द्रिय ज्ञानरूप परिणमित होनेसे केवली भगवान के सब प्रत्यक्ष है यह प्रगट करते हैं - [ खलु ] वास्तव में [ ज्ञानं परिरणममानस्य ] ज्ञानरूपसे अर्थात् केवलज्ञानरूपसे परिणमित होते हुए केवली भगवान के [ सर्वद्रव्यपर्यायाः ] सव द्रव्यपर्यायें [ प्रत्यक्षाः ] प्रत्यक्ष हैं [ सः ] वह [ तान् ] उन्हें [ श्रवग्रहपूर्वाभिः क्रियाभिः ] अवग्रहादि
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
मैनाली
परि प्रविणत्केवलज्ञानोपयोगीभूय विपरिणमते, ततोऽस्याक्रमसमाक्रान्त समस्त द्रव्यक्षेत्र कालभावतया समक्षसंवेदनालम्वनभूताः सर्वद्रव्यपर्यायाः प्रत्यक्षा एव भवन्ति ॥ २१ ॥
प्रवचनसारः
쿠션
या सर्वद्रव्यपर्यायाः प्रथमा बहु० । सोमः प्र एक ते तान हितीया बहुर। विजानादि विजानातिवर्तमान लट् अन्य पुरुष एक किया । उग्गहृपुचाहि किरिया अवग्रहपुर्वाभिः क्रियाभिः तृतीया बहु | निरुक्ति--जानाति इति था जानाति अनेन इति ज्ञानं विवासा किया। समास-व्याणि पर्यायाः सर्वद्रव्यपर्यायाः अवग्रहः पूर्व बागांना अवग्रहः ।। २२ ।।
क्रिया [नॅव विजानाति ] नहीं जानता ।
तात्पर्य- केवली के ज्ञानमें सर्व सत् अपक्ष ज्ञेय हैं, वहाँ परोक्षविधि वाला ज्ञान होता ही नहीं है ।
Bag
टीकार्य -- केवली भगवान इन्द्रियोंका ग्रालम्बन कर अवग्रह-हा-यत्राय पूर्वक क्रमसे नहीं जानता, किन्तु स्वयमेव समस्त आवरण के क्षपके अमें ही अनादि अनन्त अहेतुक और असाधारण ज्ञानस्वभावको हो कारणरूप से उपादान करके उसके ऊपर प्रवेश करने वाले केवलज्ञानोपयोगरूप होकर परिणमते हैं। इस कारण उनके समस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका ग्रहण होनेसे प्रत्यक्ष ज्ञानके ग्रालम्बनभूत समस्त द्रव्य पर्याय प्रत्यक्ष ही हैं ।
प्रसंगविवरण- अनंतरपूर्व गाथा में बताया गया था कि अतीन्द्रियपना होनेसे शुद्धात्मा के शारीरिक सुख दुःख नहीं है । ग्रव इस गाथामें बताया गया है कि अतीन्द्रिय ज्ञानपरिणत होते से शुद्धात्मा ज्ञान में सर्व पदार्थ प्रत्यक्ष प्रतिभासित होते हैं ।
तथ्यप्रकाश -- ( १ ) प्रभुके ज्ञान में सर्व ज्ञात होनेका कारण इन्द्रियोंका आलम्बन न लेकर स्वयं सहज जानना है। (२) प्रभुका ज्ञान केवल अनादि अनन्त हेतु विज सहज ज्ञानस्वभावरूप आत्मा उपादान कारणका व्यक्तरूप है । ( ३ ) सहजज्ञानस्वभावपर केवलज्ञानोपयोगका प्रवेश होकर शुद्धात्मा अनंतकाल तक निरन्तर केवलज्ञान नामक स्वभावगुणव्यंजन पर्याय होता ही रहता है । ( ४ ) शुद्धात्मा के परिपूर्ण स्वच्छ केवलज्ञान में समस्त पदार्थ प्रमेयत्वगुणमय होनेसे एक ही साथ प्रतिबिम्बित ( प्रतिभासित) होते हैं । ( ५ ) शुद्धामार्क निरुपावि केवलज्ञान में अपनी सहज कलाके कारण आत्मप्रदेशों में सर्वज्ञेया शारचित्रित होनेसे सर्वद्रव्यपयय प्रत्यक्ष ही ज्ञात होते हैं । (६) केवलज्ञान होने का बीज अविकार स्वसंवेदन ज्ञान अर्थात् शुद्धोपयोग है । (७) पदार्थोकी एक साथ जानकारी न होकर कमसे कुछ जानकारी होनेका कारण ज्ञानको क्षायोपशमिकता थी वह कमजोरी भगवान नहीं रहीं। (८) ज्ञानावरण कर्मके निःशेष क्षय हो जानेके निमित्तसे उत्पन्न हुए केवलजानकी कला बेरोकटोक सर्वज्ञता में विलास करती है ।
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८
सहजानन्दशास्त्रमालाया अथास्य भगवतोऽतीन्द्रियज्ञानपरिणतत्वादेव न किंचित्परोक्षं भवतीत्यभिप्रेति---
त्थि परोक्खं किंचि वि समंत सव्वक्वगुणासमिद्धस्स । अक्खातीदस्स सदा सयमेव हि णाणजादस्स ॥ २२ ॥
कुछ भी परोक्ष नहिं है, समन्त सर्वाक्ष गुरणसमृद्धोंके ।
ज्ञायक प्रतीन्द्रियोंके, स्वयं सहज ज्ञानशीलोंके ॥२२॥ नास्ति परोक्ष विचिदपि समन्तत: सर्वाक्षगुणसमृद्धस्य । अक्षालीतस्य सदा स्वयमेव हि ज्ञानजातस्य ॥२२॥
प्रस्थ खलु भगवतः समस्तावरणक्षयक्षण एवं सांसारिकपरिच्छित्तिनिष्पत्तिबलाधानहेतुभूतानि प्रतिनियतविषयग्राहोण्यक्षारिग तैरतीतस्य, स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दपरिच्छेदरूपः सम
नामसंज----ण परोक्ख किचि वि समंत सव्ववस्खगुणसमिद्ध अवखातीत सदा सयं एवं हि णाण जाद। धातुसंज---अस' सत्तायां । प्रातिपदिक-न परोक्ष किचित् अपि समन्ततः साक्षगुणसमृद्ध अक्षातीत सदा स्वयं एव हि ज्ञानजात । मूलधातु--असा मुवि अक्ष व्याप्ती अद्ध तृतौ । उभयपदविवरण--ण न किंचि
सिद्धान्त--(१) केवलज्ञान सहजज्ञानस्वरूप उपादान कारण से ही प्रकट होता है। (२) शुद्धात्मा सर्व पदार्थोको जानता है। (३) केवलज्ञान समस्त ज्ञानावरणके क्षयसे प्रकट होता है।
दृष्टि-१-- शुद्धनिश्चयनय [४६] 1 २- स्वाभाविक उपचरित स्वभावव्यवहार [१०५] । ३- निमित्तदृष्टि, उपाध्यभावापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय [५३, २४] ।
प्रयोगअपने आपको सहज विकसित रखनेके लिये सहज ज्ञानस्वभावमें आत्मत्वका उपयोग करना ॥२१॥
___ अब अतीन्द्रिय जानरूप परिणतपना होनेसे ही भगवानके कुछ भी परोक्ष नहीं है, ऐसा अभिप्राय व्यक्त करते हैं----सदा अक्षातीतस्य] सदा इन्द्रियातीत [समन्ततः सर्वाक्षगुरणसमृद्धस्य सर्व पोरसे अर्थात् सर्व प्रात्मप्रदेशोंसे सर्व इन्द्रियगुणोंसे समृद्ध [स्वयमेव हि ज्ञानजातस्य] स्वयमेव ज्ञानरूप हुए उन केवली भगवानके [किचित् अपि] कुछ भी [परोक्षं नास्ति परोक्ष नहीं है।
तात्पर्य-इन्द्रियातीत स्वयं ज्ञानरूप हुए केवली प्रभुके कुछ भी परोक्ष नहीं है।
टीकार्थ-समस्त प्रावरणके क्षयके क्षण में ही सांसारिक ज्ञानकी निष्पत्ति करनेमें बलाधान हेतुभूत, सपने-अपने निश्चित विषयों को ग्रहण करने वाली इन्द्रियोंसे अतीत, स्पर्श रस गंध वर्ण और शब्दके ज्ञानरूप सर्व इन्द्रियगुणोंके द्वारा सर्व ओरसे समरस रूपसे समृद्ध और जो स्वयमेव समस्त रूपसे स्वपरके प्रकाश करने में समर्थ अविनाशी लोकोत्तर ज्ञानरूप हुए ऐसे केवली भगवानके समस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावका अक्रमिक ग्रहण होनेसे कुछ भी
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसारः
३६
REAAMAYANKA
रसतया समन्ततः सर्वेरेवेन्द्रियगुणः समृद्धस्य, स्वयमेव सामस्त्येन स्वपरप्रकाशनक्षमानश्वरलोकोत्तरज्ञान जातस्थ, अक्रमसमाकान्तसमस्तद्रव्यक्षेत्रकालभावतया न किंचनापि परोक्षमेव स्यात् ।। २२ ।। किंचित् वि अपि समंत समन्ततः सदा मयं स्वयं एव हि-अव्यय । अस्थि अस्ति--वर्तमान लद अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । परोक्वं परोक्ष-प्रथमा एक० । सध्वक्खमुणसमिद्धस्स सर्वाक्षगुण समद्धस्य अक्खाती दस्स अक्षातीतस्य णाणजादस्स ज्ञानजातस्य-षष्ठी एक० । निरुक्ति-अक्षणोति व्याप्नोति जानाति इति अक्षः, आर्धत् इति ऋद्धं । समास-सर्वे अक्षाः सर्वाक्षारतेषां गुणाः सक्षिगुणा: सैः समृतः तस्य (अक्ष अतिक्रान्तः अक्षातीतः तस्य ।। २२ ॥ परोक्ष ही नहीं है।
प्रसंगविवररर -----अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि केवली भगवानके अतीन्द्रिय ज्ञान होनेसे सर्व पदार्थ प्रत्यक्ष हो जाते हैं। अब इस गाथामें बताया गया है कि केवली भगवान के प्रतीन्द्रियज्ञान होनेसे हो कुछ भी परोक्ष नहीं है ।
तथ्यप्रकाश-(१) ऋपसे कुछ कुछ पदार्थों का कुछ कुछ जानना अर्थात् परोक्ष ज्ञान इन्द्रियों के प्राश्रय के कारण होता है, किन्तु इन्द्रियोंसे अतीत भगवानके अतीन्द्रिय ज्ञानमें कुछ भी परोक्ष नहीं होता । (२) ज्ञान का कार्य जानना है, जाननेकी स्वयं कोई सीमा नहीं होती, ज्ञप्ति सीमाके निमित्त और संबंधकोंका केवली प्रभुके अभाव है, अतः केवलीके ज्ञान में सब स्पष्ट प्रत्यक्ष है । (३) प्रमुका ज्ञान त्रिलोकत्रिकालवर्ती समस्त पदार्थो को स्पष्ट जाननेसे तथा अविनश्वर होनेसे लोकोत्तर है।
सिद्धान्त..... (१) ज्ञानावरणादि उपाधिरहित केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है। दृष्टि-१- उपाध्यभावापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय [२४] ।
प्रयोग----सहजज्ञानस्वभावके अनुरूप विकास पानेके लिये सहज ज्ञानस्वभावकी अभेद आराधना करना ।। २२ ।।
अब प्रात्माके ज्ञानप्रमाणपनेको और ज्ञानके सर्व गतपनेको उद्योतते हैं--- [आत्मा] प्रात्मा [ज्ञानप्रमाणंज्ञान प्रमाण है [ज्ञानं] झान [यप्रमारवं] ज्ञेय प्रमाण [उद्दिष्ट] कहा मया है [ज्ञेयं लोकालोकं] ज्ञेय लोकालोक है [तस्मात्] इसलिये [ज्ञानं तु] ज्ञान [सर्वगतं] सर्वगत याने सर्व व्यापक है ।
तात्पर्य----ज्ञान अथवा प्रात्मा ज्ञानरूपसे समस्त लोकालोकमें व्यापक है ।
टीकार्थ-'समगुणपर्यायं द्रव्यं' इस वचनके अनुसार प्रात्मा ज्ञानसे हीनाधिकतारहित रूपसे परिणमित है, इसलिये ज्ञानप्रमाण है, और ज्ञान ज्ञेयनिष्ठ होनेसे, दाह्यनिष्ठ-दहनको
.
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०
सहजानन्दशास्त्रमालायां अथात्मनो ज्ञानप्रमाणत्वं ज्ञानस्य सर्वगतत्वं चोद्योतयति
श्रादा गाणपमागां गाणं गोयप्पमाणमुद्दिट्ट। गणेयं लोयालोयं तम्हा गाणं तु सव्वगयं ॥२३॥
प्रात्मा ज्ञानप्रमाण हि, जेंयप्रमाण है ज्ञान बतलाया ।
लोकालोक ज्ञेय है, ज्ञान हुमा सर्वगत इससे ॥ २३ ॥ आत्मा ज्ञानप्रमाणं ज्ञातं जयप्रमाणमुद्दिष्टम् । ज्ञेयं लोकालोकं तस्माज्ज्ञानं तु सवंगतम् ।। २३ ।।
___ यात्मा हि 'समगुणपर्यायं द्रव्यम्' इति वचनात् ज्ञानेन सह हीनाधिकत्वरहितत्वेन परिणतत्वात्तत्परिमाणः, ज्ञानं तु शेयनिष्ठत्वाबाह्यनिष्ठदहनदत्तस्परिमाणं; ज्ञेयं तु लोकालोकविभागविभक्तानन्तपर्यायमालिकालीढस्वरूपसूचिता विच्छेदोपदशितधीच्या षड्द्रध्यो सर्वमिति यावत् । ततो नि:शेषावरणक्षयक्षण एव लोकालोकविभागविभक्तासमस्तवस्त्वाकारपारमुपगम्य तथैवाप्रच्युतत्वेन व्यवस्थितत्वाद् ज्ञानं सर्वगतम् ।।२३।।
नामसंज्ञः--अत्त णाणपमाण णाण शेयप्पमाण उट्टि गोय लोयालोय, त, माण, तु, सव्वगय । धातुसंज- उत् दिस प्रेक्षणो, सा अवबोधने । प्रातिपदिक-...-आत्मन् ज्ञानप्रमाण ज्ञान ज्ञेयप्रमाण उद्दिष्ट ज्ञेय लोकालोकत झान तु सर्वगत । मूलधातु-- ज्ञा अवबोधने, उत् दिश अतिसर्जने । उभयपदविवरण-आदा • आत्मा-प्रथमा ए माणपमाणं ज्ञानप्रमाणं गाणं ज्ञानं शेयप्पमाणं जयप्रमाण-प्र० ए ० । उद्दिष्ट उद्दिष्ट--- प्र० एक० कृदन्त क्रिया। गेयं ज्ञेयं-प्र० एक० कृदन्त निया। लोयालोयं लोकालोक गाणं ज्ञानं सध्वगयं सर्वगत- प्रथमा एक तम्हा तस्मातू...पंचमी एक | निरुक्ति--ज्ञातुं योग्यं ज्ञेयं, लोक्यते द्रव्याणि यत्र स लोकः । समास-लोकश्च अलोकाश्च लोकालोको तयोः समाहारः लोकालोक, सर्वस्मिन् गतं सर्वगतम् ।।२३।। भांति ज्ञेयप्रमाण है । ज्ञेय लोक और अलोकके विभागसे विभक्त अनन्त पर्यायमालासे पालिगित स्वरूपसे सूचित (ज्ञात), विनाया होते रहनेपर भी दिखाया है ध्रौव्य जिसने ऐसा द्रव्य समूह, यही तो सब कहलाता है। इसलिये नि:शेष प्रावरणके क्षयके समय ही लोक और अलोकके विभागसे विभवत समस्त वस्तुओंके अाकारोंके पारको प्राप्त करके उसी प्रकार अच्युत रूपसे व्यवस्थितपना होनेसे ज्ञान सर्वपत है।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि प्रतीन्द्रिय ज्ञान होनेसे भगवानके कुछ भी परोक्ष नहीं है । अब इस गाथामें बताया गया है कि ज्ञान सर्वगत है और प्रात्मा ज्ञानप्रमाण है।
तथ्यप्रकाश-(१) द्रव्य अपने गुणपर्याय बराबर है अर्थात् द्रव्य गुरुपर्यायोंसे अभिन्न है । (२) प्रात्मा ज्ञानस्वरूप है सो प्रात्मा ज्ञानप्रमाण है । (३) ज्ञान ज्ञेयाकारके जाननस्व. · रूप ही तो है सो ज्ञान ज्ञेयप्रमाण है जैसे कि अग्नि जल रही चीजके बराबर है। (४) ज्ञेय
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
MARRELERS
प्रवचनसारः
hoffician
प्रथात्मनो ज्ञानप्रमाणत्वानभ्युपगमे द्वौ पक्षावुपन्यस्य दूषयति-- Tags णाणप्पमाणमादा ा बदि जस्सेह तस्स सो यादा।
हीणो वा अहियो वा गाणादो हवदि धुवमेव ॥२४॥ हीणो जदि सो आदा तण्णागामचेदणं गण जाणदि । अहियो वा गाणादो गाणेगा विणा कहं गादि ॥२५॥ (जुगल) ज्ञानप्रमाण हि आत्मा, जो नहि माने उसके यह आत्मा। अधिक ज्ञानसे होगा, या होगा हीन क्या मानो ॥ २४ ॥ यदि होन कहोगे तो, ज्ञान अचेतन हुअा न कुछ जाने ।
यदि अधिक कहोगे तो, ज्ञान बिना जानना कैसे ॥२४॥ ज्ञानप्रमाणमात्मा न भवति यस्येह तस्य स आत्मा । हीनो बा अधिको वा ज्ञानाद्भवति अवमेव ।। २८ ।। HTTARAI होतो यदि स आत्मा तद ज्ञानमचेतनं न जानाति । अधिको वा ज्ञानात् ज्ञानेन विना बाथ जानाति ।।२५।।
यदि खल्वयमात्मा होनो ज्ञानादित्यभ्युपगम्यते, तदात्मनोऽतिरिच्यमानं ज्ञानं स्वाश्रयनामसं--प्रवणप्पमाण अल ण ज इह त न अत्त हीण वा अहिअ या गाण धुव एव हीण जदित अत्त तणाण अचेदण ण अहिअ वा माण विणा कहं । धातुसंज .. हब सत्तायां, जाण अवधाधने, ना अयसमस्त लोकालोक है अर्थात् ज्ञेय समस्त सत् है, छहों प्रकारके सब द्रव्य हैं। ( ५ ) ज्ञानका स्वभाव जो भी सत् हो सबको जाननेका है । (६) जहाँ समस्त ज्ञानाबरणाका क्षय हो चुका वहाँ ज्ञान पूर्ण विकसित हो जाता है । (७) ज्ञान का पूर्ण विकास हुए बाद ज्ञान सदैव पूर्ण विकसित. रहेगा।
अब प्रात्माका ज्ञानप्रमाणपना न माननेमें दो पक्षोंको उपस्थित करके दोष बतलाते है। इह] इस जगतमें [यस्य] जिसके मत में [प्रात्मा] अात्मा जाननमारणं] जानप्रमाणा नि भवति] नहीं होता है [तस्य] उसके मतमें [सः श्रात्मा] वह आत्मा [ध्र वम् एव] निश्चित ही [ज्ञानात होनः वा] ज्ञानसे हीन [अधिकः वा भवति] अथवा अधिक होना चाहिये। [यदि] यदि [सः आत्मा] वह प्रात्मा [होनः] ज्ञानसे होन हो [तत्] तो वह [ज्ञान] ज्ञान [प्रचंतनं] अचेतन हुआ न जानाति] कुछ नहीं जानेगा, [ज्ञानात् अधिकः वा] और यदि प्रात्मा ज्ञानसे अधिक हो तो यह प्रात्मा [ज्ञानेन विना] जानके बिना [कथं जानाति] कैसे जानेगा ?
तात्पर्य-प्रात्मा ज्ञानप्रमाण है ज्ञानसे हीन या अधिक नहीं है । टोकार्थ---यदि यह आत्मा ज्ञान से होन माना जाता है. तो यात्मासे आगे बढ़ जाने
A25000%20ane
GORBANARASTRAMRAPARISHNAA
Riwww
MORRORISMANA
M Kउल्लाया
SHREE
S
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२
सहजानन्दशास्त्रमालायां
भूतचेलनद्रव्यसमवायाभावादचेतनं भवद्रूपादिगुणकल्पतामापत्नं न जानाति । यदि पुनर्ज्ञानादधिक इति पक्षः कक्षीक्रियते तदावश्यं ज्ञानादतिरिक्तत्वात् पृथग्भूतो भवन् घटपटादिस्थानीयतामापन्नो ज्ञानमन्तरेण न जानाति । ततो ज्ञानप्रमाण एवायमात्माभ्युपगन्तव्यः ।। २४-२५।। बोधने । प्रातिपदिक ज्ञानप्रमाण आत्मन् न यत् इह तत् तत् आत्म हीन वा अधिक वा ज्ञान ध्रुव एव हीन यदि तत् आत्मन् तत् ज्ञान अचेतनन अधिक वा ज्ञान विना कथं । मूलधातु- भू सत्तायां ज्ञा अव बोधने, चितीसंज्ञाने । उभयपदविवरण णाणप्यमाणं ज्ञानप्रमाणं प्र० ए० या न इह वा जदि यदि कह कथं विणा विना-अव्यय । जस्रा यस्य तरस तस्य षष्ठी एक । सो सः प्र० एक० हीणी हीनः अहिओ अधिक:- प्र० ए० | ग्राणादों ज्ञानात्-पंचमी ए० । हर्वाद भवति वर्तमान सट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । ध्रुवं ध्रुवं अव्यय । तष्यायं अचेतनं तद्ज्ञानं अमेलनं प्र० एक० जाणादि जानाति वर्तमान अन्य० एक० क्रिया । णा ज्ञानेन - तृतीया एक जाणादि जानाति वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन किया ||२४-२५।। वाला ज्ञान अपने आश्रयभूत चेतन द्रव्यका सम्बन्ध न रहनेसे रूपादि गुणको समानताको प्राप्त अचेतन होता हुआ नही जानेगा; और यदि यह आत्मा ज्ञानसे अधिक है ऐसा पक्ष रखा जाता है तो अवश्य ही ( आत्मा ) ज्ञानसे आगे बढ़ जानेसे ज्ञानसे पृथक् होता हुआ घटपटादि जैसी वस्तु सदृशताको प्राप्त हुआ ज्ञानके बिना नहीं जानेगा । इसलिये यह ग्रात्मा ज्ञानप्रमाण ही जानना चाहिये ।
प्रसंगविवरण -- अनन्तरपूर्व गाथा में युक्तिपूर्वक बताया गया था कि ज्ञान सर्वगत है । अब इस गाथा में आत्माको ज्ञानप्रमाण न माननेपर क्या दोष होते हैं उनका वर्णन किया गया है ।
तथ्यप्रकाश ---- ( १ ) प्रदेशापेक्षया श्रात्मा संसारावस्थामें देहप्रमाण विस्तार में है । (२) प्रदेशापेक्षतया श्रात्मा मोक्षावस्था में चरमदेह प्रमाण है । ( ३ ) गुणपेक्षया आत्मा सर्वत्र ज्ञानप्रमाण है । ( ४ ) परमात्माका ज्ञान सर्व ज्ञेयप्रमाण है । ( ५ ) प्रदेशापेक्षया आत्मा कभी बटबीज प्रमाण है । ( ६ ) ग्रात्मा कादाचित्क समुद्घात अवस्थाके सिवाय कभी भी देहसे अधिक नहीं है । ( ७ ) गुणापेक्षया यदि प्रात्मा ज्ञानप्रमाणसे छोटा है तो श्रात्मासे बाहरका ज्ञान चेतन आत्माका आधार न पाने वाला अचेतन हुआ कुछ जान न सकेगा । (८) आत्मा यदि ज्ञानप्रमाणसे अधिक है तो ज्ञानसे बाहरका श्रात्मा ज्ञानशून्य होनेसे कुछ न जान सकेगा ।
सिद्धान्त - - ( १ ) परमात्मा सर्वज्ञेयाकाराक्रान्त है । ( २ ) आत्मा ज्ञान द्वारा सर्व ज्ञेयोंमें गत है ।
दृष्टि--- १ - प्रशुन्यनय ( १७४ ) । २ - सर्वगत नय ( १७१ ) ।
प्रयोग- ज्ञानका स्वतंत्र विलास होने देनेके लिये अपनेको सहज ज्ञानमात्र अनुभवना
॥२४-२५॥
--------
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसारः
मात्मनोऽपि ज्ञानवत् सर्वगतत्वं न्यायायातमभिनन्दति - सव्वगदी जिवसहो सव्ये विय तरगया जगदि यहा । मयादो यजिणो विसयादो तस्स ते भणिया ||२६||
४३
सर्वगत जिनवृषभ है. क्योंकि सकल अर्थ ज्ञानमें गत है । जिन ज्ञानमय है श्रुतः, वे सर्व विषय कहे उसके ॥ २६ ॥
1
ariat frequeः सर्वेपि न सद्मता जगत्यर्थाः । ज्ञानमयाजिनो विषयत्वाम्यते भणिताः ॥२६॥ ज्ञानं हि त्रिसमयावच्छिन्न सर्वद्रव्यपर्यायरूपव्यवस्थितविश्र्वज्ञेयाकारानाक्रामत् सर्वगतमुक्तं तथाभूतज्ञानमयीभूय व्यवस्थितत्वाद्भगवानपि सर्वगन एव । एवं सर्वगतज्ञानविषयत्वानामसंज्ञ -- सव्वगज जिणवराह सब विगतग्मय जगद अहू णाणमय जिण विषय त व मंदि धातुसंज्ञ.... मण कथने । प्रातिपदिक सर्वगत जिनपर सर्व अपि च जगत् अर्थ ज्ञानमयत्व जिन विषयत्व तत् भणित। मूलधातु भण शब्दार्थः । उभयपदविवरण - लब्बगओ जिणवसह सर्वगतः जिनवृषभ:-अब ज्ञान की भाँति आत्माका भी सर्वगतपना न्यायसे प्राप्त हुआ, यह बतलाते हैं[जनवृषभः ] जिनवर [ सर्वगतः ] सर्वगत है [च] और [जगति ] अगल के [सर्वे अपि श्रर्थाः ] सर्व ही पदार्थ [ तद्गताः ] जिनवरगत हैं। [ जिनः ज्ञानमयत्वात् ] जिन ज्ञानमय है श्रतः [च] और [ते] वे याने सब पदार्थ [विषयत्वात् ] ज्ञानके विषय हैं इस कारण सब पदार्थ [तस्य ] जिनवरके विषय [ भरिणताः ] कहे गये हैं ।
तात्पर्य -- ज्ञानकी व्यापकता होनेसे ज्ञानमय प्रात्माको भी व्यापक कहा गया है । टीकार्थ--- ज्ञान विकालके सर्वद्रव्य पर्यायरूप प्रवर्तमान समस्त ज्ञेाकारोंको प्राक्रमता हुम्रा अर्थात् जानता हुग्रा सर्वगत कहा गया है। और ऐसे सर्वगत ज्ञानके विषय होनेसे सर्वगत ज्ञानसे प्रभिन्न उन भगवानके वे विषय हैं, ऐसा शास्त्रमें कहा होनेसे सर्व पदार्थ भगवान गत ही हैं अर्थात् भगवानमें प्राप्त हैं । वहां निश्वयनयसे ग्रनाकुलतालक्षण सुखके संवेदनका अधि ष्ठापनेसे सहित श्रात्माके बराबर हो ज्ञान स्वतत्त्वको छोड़े बिना समस्त ज्ञेयाकारोंके निकट गये बिना, भगवान सर्व पदार्थोंको जानते हुए भी व्यवहारनयसे भगवान सर्वगत हैं ऐसा कहा जाता है तथा नैमित्तिकभूत ज्ञेयाकारोंको आत्मस्थ देखकर सर्व पदार्थ आत्मगत हैं ऐसा उपचार किया जाता है, परन्तु परमार्थतः उनका एक दूसरे में गमन नहीं होता, क्योंकि सर्व द्रव्यको स्वरूपनिष्ठता है । यही क्रम ज्ञानमें भी निश्चित किया जाना चाहिये ।
प्रसंगविवरण नंतरपूर्व गाथाद्वय में युक्तिपूर्वक ग्रात्मा के ज्ञानप्रमाण होने का सम र्थन किया गया था । अब इस गाथा में ज्ञान द्वारा आत्मा के सर्वव्यापक पनेका कथन किया गया
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दयास्त्रमालायां
सर्वे अपि सर्वगतज्ञानाव्यतिरिक्तस्य भगवतस्तस्य ते विषया इति भरिगतत्वात्तद्गता एवं भवन्ति । तत्र निश्वयनयनानाकुलत्व लक्षण सौख्य संवेदनश्वाधिष्ठानत्वावच्छिन्नात्मप्रमाज्ञानस्त्रतत्त्वापरित्यागेन विश्वशेघाकाराननुपगम्यावबुध्यमानोऽपि व्यवहारनयन भगवान् सर्वगत इति व्यपदिश्यते । तथा नमित्तिकभूतज्ञेयाका रानात्मस्थानवलोक्य सर्वऽर्थास्तद्गता इत्युपचर्यते न तेषां परमार्थतोऽन्योन्यगमनमस्ति सर्वद्रव्याणां स्वरूपनिष्ठत्वात् । अयं को ज्ञानेऽपि नि प्रवेयः ॥ २६ ॥
८४
प्रथमा एक. मन अट्टा स तद्गताः अर्था:-प्र० । जगदि जगत-सातमी एकमादी ज्ञानमयत्वात् १० ए० जिणां जिन: । विमयादी विषयत्वात्-पं० ए० । तस्म तम्य षष्ठी एक ते ते बहु । भणिदा भणिताः प्र० बहु कृदन किया। निरुक्ति (सर्व गतः सर्वगत) अर्थइति अर्थाः ज्ञानेन निवृत ज्ञानमय नम्मात् । समास जिनेषु वृषभ: श्रेष्ठ: जिनण्यासवृपति वाजिनवृपः स्मिन् गताः तद्गता ॥२६॥
तथ्यप्रकाश....... (१) त्रिलोकत्रिकालवर्ती सर्व पदार्थों में पहुंचा हुआ ज्ञान सर्वगत है । ( २ ) सर्वगतज्ञानमय भगवान भी सर्वगत हैं । (३) सर्व पदार्थ ज्ञानमें प्रतिविम्वित होनेसे सर्वज्ञेय ज्ञानगत होते हैं । ( ४ ) निश्चयसे श्रात्मा बाहर किसी भी ज्ञेयमें नहीं पहुंचकर अपने ही प्रदेशों में ज्ञानस्वभावसे सर्वविषयक ज्ञान करता है । ( ५ ) सर्व ज्ञेय जान लिये जाने के कारण भगवानको व्यवहारनयसे सर्वगत कहा गया है । (६) निश्चयसे सर्व ज्ञेय पदार्थ अपने अपने प्रदेशों ही रहते हैं । (७) जाननरूप निश्वयतः ज्ञानके विषयभूत ज्ञेयाकार आत्मस्थ हैं । (८) अवहारयसे सर्वज्ञेयोको आत्मगत कहा गया है ।
सिद्धान्त - - (१) ग्रात्मा ज्ञानमुखेन सर्वज्ञेयवर्ती है । (२) म ज्ञेय पदार्थ अपने अपने स्वरूपमें ही रहते हैं।
दृष्टि - १- सर्वगतनय (१७१ ) २- स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्याथिक नय (२८) | प्रयोग - सर्व ज्ञेयोक जाननेके स्वभाव वाले ज्ञानगुणसे प्रभिन्न अपने आत्माको अपने स्वरूपमें निष्ठ निरखना ।। २६ ।।
अब आत्मा और ज्ञानके एकत्व व अन्यत्वका चिन्तन करते हैं--- [ज्ञानं मात्मा] ज्ञान आत्मा है [ इति मतं ] ऐसा जिनेन्द्रदेवका मत है | | आत्मानं विना ] आत्मा बिना [ज्ञानं न वर्तते ] अन्य किसी भी द्रव्यमें ज्ञान नहीं होता, [तस्मात् ] इस कारण [ज्ञानं श्रात्मा ) ज्ञान आत्मा है; [आत्मा] और श्रात्मा [ज्ञानं वा ] ज्ञान है [ श्रन्यत् वा ] श्रथवा अन्य है याने सुखादि गुणरूप है ।
तात्पर्य-ज्ञान तो ग्रात्मा है ही, किंतु ग्रात्मा ज्ञानरूप भी है तथा दर्शन श्रानंद श्रादि
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनकारः
veeWARISTIBISAWAIIMalotricks
885
प्रथात्मज्ञानयोरेकत्वान्यत्वं चिन्तयति -..
गाणं अप्प त्ति मदं वदि गााग विणा | अप्पाम् । तम्हा गणाग अप्पा अप्पा गांव अगवा ॥२७॥ कहा ज्ञान प्रात्मा है, क्योंकि न है शान बिना आत्माके ।
इससे ज्ञान है आत्मा, प्रात्मा ज्ञान द अन्य भी है ।।२७।। झानमात्मेति मा स्तंत ज्ञानं विभा नात्मानम : AERA जानमात्मा आत्मा ज्ञान या अपहा : २७
यतः शेषसमस्तचेतनाचेतनवस्तु समवायसम्बन्ध निकमुक्तयाऽनाद्यनंतस्त्र भावसिद्ध समदायसंबन्धकमात्मानमाभिमुख्येनावलाव्य प्रवृत्तस्यात् तं विना प्रात्मानं ज्ञानं न धारयति, ततो ज्ञानमात्मैव स्यात् । आत्मा त्वनंतधर्माधिष्ठानत्वात् ज्ञानधर्मद्वारेण ज्ञान मन्य धर्मद्वारेणान्य.
नामसंज्ञ.....याण अप नि मद गरण विणा अराण अप्प अग। धातसंज्ञ... मन्न अबवोधने. वत्त बर्तने । प्रातिपदिक --- ज्ञान आत्मन् इति मत जान दिनान आत्मन् त णाण अश्य गाण अभ्य । मूलधातु---वृतु वर्तन, जा अवबांधने । उभयपदविवरण ...णाण ज्ञान-प्रए | अप्पा आत्मा
शाण जान-प्र०प० | अप्पा आत्मा--प्र०ए| नि रूप भी है।
टोकार्थकि शेष समस्त चेतन तथा अचेतन परतुनोंके साथ समवायसम्बन्ध न होनेसे तथा अनादि अनंत स्वभावसिद्ध समवायसम्बंधमय एक प्रात्माका अति निकटाया (अभिन्न प्रदेशरूपसे) अवलम्बन करके प्रवर्तमान होनेसे आत्मके बिना ज्ञान अपना अस्तित्व नहीं रख सकताः इसलिये ज्ञान प्रात्मा ही है । परन्तु प्रात्मा ग्रनंत धर्मों का आधार होनेसे ज्ञानधर्मके द्वारा ज्ञान है और अन्य धर्मके द्वारा अन्य भी हैं । और फिर यहाँ अनेकान्त बलवान है । यदि एकान्तसे ज्ञान प्रात्मा है यह माना जाय तो ज्ञान गुण प्रात्मद्रव्य हो जाने
हानका प्रभाव हो जायेगा, और ऐसा होने से प्रात्माके अचेतनता पा जायेगी अथवा विशेष । गुणका अभाव होनेसे प्रात्माका अभाव हो जायेगा । यदि सर्वथा प्रात्मा ज्ञान है यह माना जाय तो निराश्रयताके कारण ज्ञानका प्रभाव हो जायेगा अथवा आत्माकी शेष पर्यायोंका
प्रभाव हो जायेगा, और उनके साथ ही अधिनाभावी सम्बंध वाले आत्माका भी प्रभाव हो । जायेगा।
. प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें ज्ञानमुखेन प्रात्माको सर्वगत बताया गया था। अब आत्मा और ज्ञान के एकत्व व अन्यत्वका इस गाथामें वर्णन किया गया है ।
तथ्यप्रकाश-(१) प्रात्मपदार्थ के बिना ज्ञान अपना स्वरूप नहीं पाता, अत: ज्ञान प्रात्मा ही है । (२) प्रात्मा अनंतधर्मात्मक है, उन अनंत धमोंमें एक ज्ञान भी धर्म है । (३) प्रात्मा अनंत धर्मोका प्राश्रय होनेसे जैसे ज्ञान प्रात्मा है वैसे ही दर्शन सुख प्रादि भी प्रात्मा
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
DoAARAMMIS
सहजानन्दशास्त्रमालायां
दपि स्यात् । कि चानेकान्तोऽत्र बलवान् । एकान्तेन ज्ञानमात्मेति ज्ञानस्याभावोऽचेतमत्वमात्मनो विशेषगुणाभावादभावो वा स्यात् । सर्वथात्मा ज्ञानमिति निराश्रयत्वात् ज्ञानस्याभाव प्रात्मनः शेषपर्यायाभावस्तदबिनाभाविनस्तस्याप्यभावः स्यात् ।।२।। इति ण न ३ वा-अव्यय । अपाणं आत्मान-द्वि० ए० । तम्हा तस्मात् ६० ए० । णाणं ज्ञानं अप्पा आत्मा अप्पा आत्मा गाणं ज्ञान अण्ण अन्यद-प्र. एक | निरुक्ति ...अतति सततं गछति जानाति इति आत्मा, जानाति इति ज्ञायते अनेन इति वा अप्तिमाथा झानम् ॥२७॥ हो है । ( ४ ) ज्ञान गुरणसे ही सर्व व्यवस्था होती है अत: अनंताधर्ममय होने पर भी ज्ञानको मुख्यतासे आत्माको ज्ञानमय कहा जाता है । (५) अभेददृष्टि से सर्व परिणमन ज्ञानपरिणमन रूपसे घटित हो जाते हैं । (६) भेददृष्टि से सर्व परिणामन भिन्न-भिन्न गुणों के परिणमनरूपसे विदित होते हैं । (७) यदि सर्वथा ज्ञानको ही आत्मा कहा जाय तो प्रात्मा ज्ञान गुणमात्र हो रहा, फिर आत्मामें अानंद प्रादि गुण नहीं रह सकते । (८) यदि अात्मा में ज्ञानगुण ही मानकर पानंद वीर्य प्रादि धर्मों का प्रभाव माना जाय तो उन सब गुणोंका अभाव होनेसे प्रात्माका भी अभाव हो जायगा। (६) अन्य गुणोंका अभाव होनेसे प्रसक्त अात्माका प्रभाव होनेसे आधारके अभावमें प्राधेयभून ज्ञानगुणका भी प्रभाव हो जायगा । (१०) प्रात्मा च्याएक है, ज्ञान न्याय है, अतः ज्ञान आत्मा है, अात्मा ज्ञान है अन्य भी है।
सिद्धान्त --(१) आत्मा शाश्वत ज्ञानस्वभावमें नियत है । (२) प्रात्मा दर्शन झान आदि अनंत गुण वाला है।
दृष्टि ----१- नियलिनय (१७७) । २-- 'पर्यायनय (भेदनय) (१५३) ।
प्रयोग---ज्ञान दर्शन आदि गुणोंसे प्रात्माका परिचय कर ज्ञान द्वारा ज्ञानमात्र अपने को अनुभवना ॥२७॥
अब ज्ञान और ज्ञेयके परस्पर गमनका निषेध करते हैं, अर्थात् ज्ञान और ज्ञेय एक दूसरेमें प्रवेश नहीं करते ऐसा कहते हैं.---- [ज्ञानी] आत्मा [ज्ञानस्वभावः] ज्ञानस्वभाव है [अर्थाः हि] और पदार्थ [ज्ञानिनः] आत्माके [ज्ञेयात्मकाः] ज्ञेयस्वरूप हैं ये रूपाणि इब चक्षुषोः] चक्षुवोंमें रूपकी तरह [अन्योन्येषु] एक दूसरेमें [न एव वर्तन्ते] नहीं वर्तते ।
तात्पर्य-परमार्थतः न ज्ञानमें ज्ञेय जाता है और न ज्ञेयमें ज्ञान जाता है।
टोकार्थ---यात्मा और पदार्थ स्वलक्षणभूत पृथक्त्वके कारण एक दूसरेमें नहीं बर्तते हैं, परन्तु उनके मात्र नेत्र और रूपी पदार्थकी भांति ज्ञानज्ञेयस्वभाव सम्बन्धसे होने वाली एक दूसरे में प्रवृत्ति मात्र कहा जा सकता है । जैसे नेत्र और उनके विषयभूत रूपी पदार्थ परस्पर प्रवेश किये बिना ही ज्ञेयाकारोंको ग्रहण और समर्पण करनेके स्वभाव वाले हैं, उसी प्रकार
S wapingManomiAahilaenimmisplitictimsanilipmeanipa
w
algaran
MARATommyinpaswi
m
weapmapmapianmmmmmmताका
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
ELAM
प्रवचनसार:
ANNESBFसामा
AAWARA
।
पथ शानज्ञेययोः परस्परगमनं प्रतिहन्ति .....
गाणी गाणसहावो अट्ठा गोयपगा हि शास्मि । रूवाणि व चक्खूणं गोवण्णोण्यो मे वति ॥२८॥
ज्ञानी ज्ञानस्वभावी, ज्ञानीके जयरूप अर्थ रहें ।
चक्ष में रूपकी ज्यौं, वे नहि अन्योन्यमें रहते ॥२॥ माती ज्ञानस्वभावोऽर्था संथात्मका हि ज्ञानिनः । रूपाणीव चक्षुगों: नैऋान्योन्येषु यतन्ते ।। २८ ।। MA जानी चार्थाश्च स्वलक्षणभूतपृथक्त्वतो न मिश्रो वृत्तिमासादयन्ति किंतु तेषां ज्ञानज्ञेयस्वभावसंबन्धसाधितमन्योन्यवृत्तिमात्रमस्ति चक्षुरूपवत् । यथा हि चक्षषि तद्विषयभूतरूपिद्रव्यामि च परस्परप्रवेशमन्तरेणापि ज्ञेयाकार ग्रहणसमर्पणप्रवणान्यवमात्माऽर्थाश्चान्योन्यावृत्तिमन्तरेणापि विश्वजयाकारग्रहणसमर्पणप्रवणः ।।२।। Male नामसंजः पाणि णाणसहाब अट्ट गेयपग हि गाणि कव व चक्षु ण एब अगोण | धातुसंजबन वर्तन । प्रालियविक-ज्ञानिन् ज्ञानस्वभाव अर्थ ज्ञेयात्मक हि ज्ञानिन् कप इव चक्ष न एक अन्योन्य । मुलधात - वृतु वर्तने । उमयपदविवरण-~-गाणी ज्ञानी माणसहायो ज्ञानस्वभाव:-प्र० ए० । अन्टा अर्था; सयममा जेयात्मका:-प्रथमा बहु० । गाणिस ज्ञानिन:-गली एकल | रुवाणि रूपानि-प्रथमा बहु० । 'व "एक मिन एव हि अव्यय । चक्लूण-पष्ठी बह०, चक्षुपो:-षष्ठी द्विवचन । अयोग्यसु अन्योत्येषु सप्तमी बह ॥ वृद्ध ति वर्तन्ते-बर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुवचन किया। निरुक्ति-ज्ञातुं योग्यः यः, रूप्यते Mइति रूप नष्ट इति चक्षुः । समास-ज्ञान स्वभाव: यस्या ज्ञानस्वभावः ॥२८]] मात्मा और पदार्थ एक दूसरेमें प्रविष्ट हुए बिना ही समस्त झेयाकारोंके ग्रहण और समर्पण करतके स्वभाव वाले हैं। a असंगविवरण-- अनंतरपूर्व गाथामें प्रात्मा और जानका एकमात्र न अन्यपना बताया Minal या । सब इस गाथामें बताया गया है कि ज्ञानी ज्ञेयोंको अपनी स्वभावकलासे जान लेता है, लेकिन न ज्ञानी ज्ञेयके प्रदेशों में जाता है, न ज्ञेय ज्ञानी के याने प्रात्माके प्रदेशों में जाता है ।
। तध्यप्रकाश---(१) प्रत्येक द्रव्य अन्य द्रव्योरो भिन्न है। (२) प्रात्माका स्वभाव ही हमा है कि जो ज्ञेय हो उसके विषय में अात्मा जान लेता है । (३) जो सत् हैं वही ज्ञेय होता है, असन जय हो ही नहीं सकता सो यह सत्का स्वभाव है कि वह जय हो जाता है। (४) मात्मा और सब सत् पदार्थों में ज्ञान ज्ञेय होनेरूप ही सम्बन्ध समझमें आया । (५) आत्मा व पदा का ज्ञान ज्ञेय सम्बन्ध होनेपर भी वे एक दूसरेके प्रदेशों में प्रवेश नहीं करते । (६) चक्षु वाली जगह ही रहता, दृश्य पदार्थ अपनी ही जगह रहते, फिर भी चक्षु द्वारा पदार्थ दिख जाता है, इस उदाहरण द्वारा ज्ञाता व ज्ञेयमें अन्योन्यप्रवेशका अभाव बिल्कुल स्पष्ट है।
सिद्धान्त ---(१) प्रत्येक द्रव्य आत्मद्रव्यसे भिन्न हो है । (-) प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने
ॐॐॐ
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां अथार्थेष्ववत्तस्यापि ज्ञानिनस्तद्वत्तिसाधकं शक्तिवैचित्र्यमुद्योतयति.....
ण पविट्ठो रणाविट्ठो गाणी येसु रूवामिव चक्खू । जाणदि पस्सदि णियदं अक्खातीदो जगमसेसं ॥२६॥
नहिं मग्न अमग्न नही, ज्ञानी ज्ञेयों में रूप चयूवत् ।
इन्द्रियातीत वह तो, जाने देखे समस्तोंको ॥२६॥ न प्रविष्टो नावाटो जानी जयेषु रूपमिय चक्षुः । जानाति पश्यति नियतमक्षानीतो जगदशेषम् ।। २६ ।।
___ यथाहि चक्षू रूपियारिग स्वप्रदेशैरसंस्पृशदप्रविष्टं परिच्छेद्यमाकारमात्मसात् कुर्वन्न चाविष्टं जानाति पश्यति च, एवमात्माप्यक्षातीतत्वात्प्राप्यकारिताविचारगोचरदरतामवालो
नामसज-ण पविट ण आविट्ठ णाणि रणेय रूव इव चक्ख णियद अक्खातीद जग असेस । धातुसंज्ञ--विस प्रवेशने, जाण अवधोधन पास दर्शने । प्रातिपदिक....न प्रविष्ट न अविष्ट ज्ञानिनु जय रूप इव चक्षुषु नियत अक्षातीत जगत् अशेष । मुलधातु--जा अवबोधने. इशिर् दशने। उभयपदविवरण--- न ही प्रदेशों में अपने ही स्वरूपसे परिणामते रहते हैं ।
दृष्टि---१-परद्रव्यादिग्राहक शुद्ध द्रव्याथिकनय (२६)। २-अगुरुलघुत्वदृष्टि (२०७) । प्रयोग—अपनेको परसे अत्यंत पृथक और अपने स्वरूपमात्र अनुभवना चाहिये ।।२८।।
ज्ञानी पदार्थो में प्रवृत्त नहीं होता, तथापि जिससे उसका अन्य पदार्थों में प्रवृत्त होना सिद्ध होता है उस शक्तिवैचित्र्यको उद्योत करते हैं..--[चक्षुः रूपं इव] जैसे चक्षु रूपको ज्ञेयोंमें अप्रविष्ट रहकर तथा अप्रविष्ट न रहकर जानती, देखती है उसी प्रकार ज्ञानी] प्रात्मा
पक्षातीतः] इन्द्रियातीत होता हुआ [प्रशेषं जगत्] समस्त लोकालोकको [ज्ञेयेषु] ज्ञेयोंमें [न प्रविष्टः] अप्रविष्ट रहकर [न प्रविष्टः] तथा अप्रविष्ट न रहकर [नियतं] निरन्तर [जानाति पश्यति] जानता देखता है।
___ तात्पर्य--प्रात्मा ज्ञानापेक्षया ज्ञेयों में प्रविष्ट होकर व प्रदेशापेक्षया शेयोंमें अप्रविष्ट होकर जानता देखता है।
टोकार्थ—जिस प्रकार चक्षु रूपी द्रव्योंको स्वप्रदेशों द्वारा द्वारा स्पर्श न करता हुआ अप्रविष्ट रहकर तथा ज्ञेयाकारोंको प्रात्मसात् करता हुअा अप्रविष्ट न रहकर जानता देखता है; उसी प्रकार प्रात्मा भी इन्द्रियातोतपनाके कारण छू कर जानने देखने के विचार विषयसे भी दूर हुप्रा ज्ञेयभूत समस्त वस्तुओंको स्वप्रदेशोंसे स्पर्श न करता हुआ प्रविष्ट न रहकर तथा शक्तिवैचित्र्यके कारण वस्तुमें वर्तते समस्त ज्ञेयाकारोंको मानो मूलमें से हो उखाड़कर भक्षण करता हुआ अप्रविष्ट न रहकर जानता देखता है । इस प्रकार इस विचित्र शक्ति वाले आत्माके पदाथोंमें अप्रवेणकी तरह प्रवेश भी सिद्ध होता है ।
lahtdavwiththichiothitomommaithuntihanim
mmotianswwwmmmRimitatidaimommitmpitimarimmedia
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसारः
KALRAKA
इवर अन्य
THERONPATI
SMS
ज्ञेयतामापन्नानि समस्तवस्तूनि स्वप्रदेशरसंपृशन्न प्रविष्टः शक्तिवैचित्र्यवशातो वस्तुवतिनः समस्तजयाकारानुन्मूल्य इव कवलयन्न चाप्रविष्टो जानाति पश्यति ध । एवमस्य विचित्रशक्तियोगिनो शानिनोऽर्थेष्वप्रवेश इव प्रबेशोऽपि सिद्धिमवतरति ॥ २६ ॥
प्रविष्ट: अविटठो अविष्ट:-प्रथमा एकवचन कृदन्त क्रिया।णाणी ज्ञानी-० एका०1 येसु जयेधु-सप्तमी बहु । रुवं पं-हित o चवधू चक्षुः-.प्र.० ए० 1 जाण दि जानाति पस्रादि पश्यतिवतमान लट अन्य पुरुष एकवचन क्रिया। यिद नियतं-अव्यय क्रियाविशेषण । अक्खातीदा अक्षा Ho To | जगदु जगत् असेसं अशेष--द्वि एक निरुक्ति ----प्रकर्षेण विष्टः प्रविष्टः,न विष्ट; अविष्टः ।) समास- अक्ष अतिक्रान्तः अक्षातीतः ॥ २६ ।। RAN प्रसंग विवरण-----अनंतरपूर्व गाथामें बताया गया था कि ज्ञानी व ज्ञेयका परस्पर प्रवेश नहीं है । अब इस गयामें बताया गया है कि ज्ञानी प्रथोंमें अप्रविष्ट होकर भी प्रविष्ट हुमा पदार्थोंको जानता है।
तथ्यप्रकाश- (१) बहिर्शयाकार तो ज्ञेयपदार्थों में हो है, ज्ञातासे बाहर ही है। (२) पत्त याकार ज्ञाताकी ज्ञेयोंके विषयमें जाननेरूप खुदकी परिणति है । (३) ज्ञाता अन्तर्जेयाकारों में प्रविष्ट है, अन्तयाकार ज्ञातामें प्रविष्ट है । (४) बहिर्जेयाकार ज्ञातामें प्रविष्ट नहीं, भाता बहियाकारोंमें प्रविष्ट नहीं । (५) ज्ञानकी स्वाभाविक कला ही है ऐसी कि ज्ञानमें ज्ञेयों को झलकना पड़ता ही है । (६) ज्ञेय पदार्थका अस्तित्व उसी पदार्थमें है। (७) ज्ञेयपदार्थविष्यक झलक ज्ञातामें है । (८) समक्ष स्थित पदार्थके अनुरूप प्रतिबिम्ब दर्पणमें है, समक्ष स्थित पदार्थ पदार्थमें ही है । (8) दर्पणाको प्रकृति ही ऐसी है कि दर्पणा में समक्षस्थित पदार्थों को मलकना ही पड़ता है।
सिद्धान्त -- (१) ज्ञाता अपने आपके प्रदेशों में ही रहकर अपने पापके परिणामको ही जानता है । (२) माता ज्ञानमुखेन ज्ञेयपदार्थोंमें प्रविष्ट हुया उन्हें जानता है ।
दृष्टि..... १-- शुनिश्चयनय [४६] । २-- सर्वगतनय [१७१], पराधिकरणत्व असदुद्भूत व्यवहार [१३४] ।
प्रयोग---बहिर्जेयाकारसे पृथक् अन्त याकारपरिमात अपनेको निरखकर अन्त याकार परिणमनके स्त्रोतभूत सहज चैतन्यस्वभावको प्रात्मरूप अनुभवना ।। २६ ॥
- अब इस प्रकार ज्ञान पदार्थों में प्रवृत्त होता है, यह संभावित करते हैं---[यथा जैसे इह] इस जगसमें [दुग्धाध्युषितं] दूधके मध्य पड़ा हुप्रा [इन्द्रनील रत्नं] इन्द्रनील रत्न [स्वमासा] अपनी प्रभाके द्वारा [तदपि दुग्धं] उस दूधको [अभिभूय] व्यापकर [वर्तते] वर्तता है, [तथा उसी प्रकार [ज्ञान] ज्ञान अर्थात् ज्ञातृद्रव्य [अर्थेषु] पदार्थों में व्याप्त होकर
WATRO
de
।
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
..........
५०
सहजानन्दशास्त्रमालायां
अज्ञानमर्थेषु वर्तत इति संभावयतिरणमिह इंदणीलं दुद्धज्झसियं जहा सभासाए । अभिभूयतं पिदुद्ध दि तह गाणमत्थे ||३०|| ज्यौं नील रत्न पयमें बसा स्वकान्तिसे व्यापकर पयको ।
वर्तता ज्ञान त्यों ही, ग्रथोंमें व्यापकर रहता ॥ ३० ॥
रत्नमिहेन्द्रनील दुग्धाध्युषितं यथा स्वभासा । अभिभूय तदपि दुग्धं वर्तते तथा ज्ञानमर्थेषु ॥ ३० ॥ यथा किलेन्द्रनीलरत्नं दुग्धमधिवसत्स्वप्रभाभारेण तदभिभूय वर्तमानं दृष्टं, तथा संवे नमप्यात्मनोऽभिन्नत्वात् कत्रंशेनात्मतामापत्न करणांशेन ज्ञानतामापन्नेन कारणभूतानामर्थान कार्यभूतान समस्तज्ञेयाकारानभिव्याप्य वर्तमानं कार्यकारणत्वेनोपचर्यं ज्ञानमयनिभिभूय वर्तत इत्युच्यमानं न विप्रतिषिध्यते ॥३०॥
नामसंज्ञ -- रयण इह इंदणील दुढज्भसिय जहा सभासा त पि दुह तह पाण अत्थ । धातुसंज्ञभव सत्तायां वत्त वर्णने । प्रातिपदिक-रत्न इह इन्द्रनील दुग्धाध्युषित यथा स्वभास् तत् दुग्ध तथा ज्ञान अर्थ : मूलधातु-भू सत्तायां वृतु वर्तते । उभयपद विवरण- रयणं रत्नं इंदणील इन्द्रनील बुद्धज्झसियं दुग्धाध्युषितं प्रथमा एक० । जहा यथा पि अपि तह तथा अव्यय । सभासाए स्वभासा - तृतीया एक० । यदि वर्तते - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया । णाणं ज्ञानं प्र० एक० । अत्थेसु अर्थेषु सप्तमी बहुत । निरुक्ति- दुह्यते यत् दुग्धं । समास- दुग्धै अध्युषितं दुग्धाभ्युषितं, स्वस्य भा: स्वभाः तेन स्वभाषा ॥३०॥
वर्तता है ।
तात्पर्य - प्रात्मा ज्ञानप्रभा द्वारा समस्त विश्वको प्रकाशित करता है, अतः ज्ञान सर्वव्यापक कहा जाता है ।
टोकार्थ — जैसे दूध में पड़ा हुआ इन्द्रनील रत्न अपने प्रभासमूहसे दूधको व्यापकर ता हुआ देखा गया है, उसी प्रकार संवेदन अर्थात् ज्ञान भी आत्मासे अभिन्न होनेसे कर्ताश्रंशसे आत्मताको प्राप्त होता हुआ ज्ञानपनेको प्राप्त करण-अंशके द्वारा कारणभूत पदार्थों के कार्यभूत समस्त ज्ञेयाकारोंको व्यापकर वर्तता है, अतः कार्य में कारणका उपचार करके यह कहना प्रतिषिद्ध नहीं होता कि ज्ञान पदार्थोको व्यापकर वर्तता है ।
प्रसंगविवरण नंतरपूर्व गाया में बताया गया था कि ज्ञान पदार्थोंमें प्रविष्ट न होकर पदार्थों में प्रविष्ट जैसा होता हुआ पदार्थोंको जानता है । अब इस गाथामें बताया गया है कि ज्ञान किस प्रकार प्रथमें वर्तता है ।
तथ्यप्रकाश - - ( १ ) बहिर्ज्ञेय तो बाहर स्थित याने भिन्न सत्ता वाले सभी पदार्थ हैं । (२) बहिर्ज्ञेय कारणोंके ( विषयोंके ) कार्यभूत अन्तर्ज्ञेय भी उपचारसे अर्थ कहलाते हैं । ( ४ )
wwwww .......
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार
ज्ञाने वर्तन्त इति संभावयति-
जदि ते ण संति अट्ठा गाणे गाणं ण होदि सव्वगयं । सव्वरायं वा गाणं कहं गा गागादटिया चट्टा ॥ ३१ ॥
५.१
वे श्रर्थ ज्ञानमें नहि हो तो नहि ज्ञान सर्वगत होगा ।
ज्ञान सर्वगत है तो क्यों न हुए अर्थ ज्ञानस्थित ॥ ३१॥
"यदि ते न सन्त्यर्था ज्ञाते ज्ञानं न भवति सर्वगतम् । वा ज्ञानं कथं ज्ञानस्थिता अर्थाः ॥ ३१ ॥ यदि खलु निखिलात्मीयज्ञेयाका रसमाद्वारेणावतोर्णाः सर्व न प्रतिभान्ति ज्ञाने तदा तन्तु सर्वगतमभ्युपगम्येत। अभ्युपगम्येत वा सर्वगतम् । तहि साक्षात् संवेदन मुकुरुन्दभूमि
नामसंज्ञ-जदित ण अटूट णाय सव्वराय कहे जाय । धातुसंज्ञ-अस मत्तायां, हो बतायां । प्रातिपदिक--यदि तत् न अर्थ ज्ञान सर्वगत कथं जानस्थित मूलधातु अस भुवि भू सत्तायां । उभयग्रन्तयभूत प्रमें ज्ञान बर्तता है यह कथन निर्दोष हैं । (५) प्रन्तर्ज्ञेत्राकार बहिर्जयाकारोंके ही अनुरूप है, अतः हिज्ञेयों में ज्ञान जाता है यह कथन उपचारसे युक्त है । (६) अनन्त ज्ञेयों से भरे हुए विश्व में रहता हुआ यह भगवान ग्रात्मा अपनी ज्ञानप्रभासे समस्त ज्ञेयको प्रकागित करता है। (७) दूधसे भरे हुए भगोने में पड़ा हुआ इन्द्रनील रत्न भी तो अपनी प्रभा समस्त दूधको नील वर्ण कर देता है । (८) निश्चयसे इन्द्रनील रत्न अपने आपको हो नील वर्गकिये हुए हैं । (६) निश्चयसे ग्रात्मा अथवा ज्ञान अपने आपको ही ज्ञेयरूप किये हुए है । (१०) उपचारसे इन्द्रनील रत्न और उसको प्रभा पात्रस्थ समस्त दूधमें व्यापक है । (११) उपचारसे आत्मा और उसका ज्ञान लोकालोकवर्ती समस्त ज्ञेयोंमें व्यापक है ।
सिद्धान्त-- १- आत्मा अपने ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में है । २- प्रात्मा ज्ञानमुखेन समस्त ज्ञेयोंमें है ।
दृष्टि- १- स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय [२६] । २- सर्वगतनय [ १७१ ] + प्रयोग-- सर्वज्ञेयाकारानुरूप अंतर्ज्ञेयाकारपरिगत आत्माको निरखकर सर्वज्ञानस्वभाव वाले मतभूत ग्रन्तस्तत्त्वकी आराधना करना ||३०||
अब इस प्रकार पदार्थ ज्ञानमें वर्तते यह संभावित करते हैं ( कहते हैं ) - [ यदि ] यदि [ते धर्माः] वे पदार्थ [ज्ञाने न संति ] ज्ञानमें नहीं हैं तो [ज्ञानं] ज्ञान [सर्वगतं ] सर्वगत [न भवति ] नहीं हो सकता, [वा] और यदि [ज्ञानं सर्वगतं ] ज्ञान सर्वगत है तो [ अर्थाः ] पदार्थ [ज्ञानस्थिताः] ज्ञानस्थित [कथं न ] कैसे नहीं हैं अर्थात् अवश्य हैं ।
तात्पर्य--ज्ञान सबको जाननेसे सर्वगत कहलाता है तो पदार्थ ज्ञानस्थित सिद्ध हो
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
MARATORS
५२
सहजानन्दशास्त्रमालाय
कावतीर्णप्रतिबिम्बस्थानीयस्वीयस्वीयसंवेद्याकारकारणानि परम्परया प्रतिबिम्बस्थानीयसंवेद्या. कारकारणानीति कथं न ज्ञानस्थायिनोऽर्या निश्चीयन्ते ॥ ३१ ॥
पदविवरण...... जादि यदि ण न कहं कथं-अव्यय । ते ते अट्ठा अर्था:-प्रथमा बह० । णागे जाने-सप्तमी एक० । णाणं ज्ञानं सब्वगथं सर्वगतं-प्र० ए० । णाटिया ज्ञानस्थिता: अट्ठा अर्था:-प्रथमा बहु० । निरुक्ति-अर्यन्ते निश्चीयन्ते इति अर्थाः । समास-सर्वेषु गतं सर्वगतं, ज्ञाने स्थिताः इति ज्ञानस्थिताः ।।३१||
जाते हैं।
8:5:::::
:
50.00-
2008-2008
टोकार्थ—-यदि समस्त स्वज्ञेयाकारोंके समर्पण द्वारा अवतरित होते हुए समस्त पदार्थ ज्ञान में प्रतिभासित न हो तो वह ज्ञान सर्वगत नहीं माना जा सकता । और यदि वह ज्ञान सर्वगत माना जाय तो फिर (पदार्थ) साक्षात् ज्ञानदर्पण भूमिकामें अवतरित प्रतिबिम्बकी भाँति अपने-अपने ज्ञेयाकारोंके कारणभूत और परम्परासे प्रतिबिम्बके समान ज्ञेयाकारों के कारणभूत ये सब पदार्थ कैसे ज्ञानस्थायी निश्चित नहीं होते अर्थात् अवश्य ही ज्ञानस्थित निश्चित होते हैं।
प्रसंगविवरण---अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि ज्ञान अर्थोमें (पदाथोंमें) रहता है । अब इस माथामें बताया गया है कि अर्थ (पदार्थ) ज्ञानमें रहते हैं।
तथ्यप्रकाश----(१) ज्ञानमें होने वाला अन्सर्जेयाकार ज्ञानकी ही अवस्था है। (२) दर्पणमे होने वाला प्रतिबिम्ब दर्पणको ही अवस्था है । ( ३ ) दर्पणमें प्रतिबिम्ब समक्षस्थित पदार्थ के सान्निध्यका निमित्त पाकर होता है । (४) ज्ञानमें होने वाला ज्ञेयाकार पदार्थोंके ज्ञेयाकारका निमित्त पाकर होता है । (५) दर्पणस्थ प्रतिबिम्ब कार्यमें समक्षस्थित बालकादिक कारणका उपचार करके कहा जाता है कि बालकादिक दर्पणमें है । (६) अन्तर्जेयाकार कार्यमें बहिर्जेयाकार कारणका उपचार करके कहा जाता है कि ज्ञान में बाह्य पदार्थ अथवा बहिर्जेयाकार हैं। (७) ज्ञेय पदार्थोंने अपना आकार ज्ञानको समर्पित कर दिया है। (८) समक्षस्थित बालकादिकोंने अपना प्राकार दर्पणको समर्पित कर दिया है । (६) जेय पदार्थोंका निमित्त पाकर ज्ञानने स्वयं अपने में अपना ज्ञेयाकार बनाया है । (१०) समक्षस्थित बालकादिकोंका सान्निध्य पाकर दर्पणने स्वयं अपने में प्रतिबिम्ब बनाया है।
सिद्धान्त--(१) वास्तबमें ज्ञान अपने आपको ही जानता है । (२) व्यवहारत: ज्ञान बाह्य पदार्थोंका ज्ञाता है ।
दृष्टि-१-- शुद्धनिश्चयनय, प्रपूर्ण शुद्धनिश्चयनय [४६, ४६८] । २- स्वाभाविक उपचरित स्वभावव्यवहार, अपरिपूर्ण उपचरित स्वभावव्यवहार [१०५, १०५] ।
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
M
inisanepal
प्रवचनसार:
५३
न अथवं ज्ञानिनोऽभैः सहान्योन्यवृत्तिमत्त्वेऽपि परग्रहणमोक्षणपरिणमनामावेन सर्व पायतोऽध्यवस्यतश्चात्यन्तविविक्तत्वं भावयति
गेण्हदि णेव ण मुचदि ण परं परिगामदि कवली भगवं । पेच्छदि समंतदो सो जाणदि सव्वं णिरवसेसं ॥ ३२ ॥
नहि गहता नहि तजता, परिणामता है न केवली परको।
यह तो सर्व तरफसे, जाने देखे अशेषोंको ॥ ३२ ॥ हानि नव न मचर्ति न परं परिणमति केबन्दी भगवान् । पश्यति समन्ततः स जानाति सर्व निम्त्रकोषम् ।।२।
अयं खल्वात्मा स्वभावत एव परद्रव्यग्रहणमोक्षणपरिणामनाभावात्स्व तत्त्वभूतकेबल. जानस्वरूपेण विपरिणम्य निष्कम्पोन्मज्जउज्योतिजत्यिमणिकल्पो भूत्वाऽव लिनुमानः समन्ततः
नामज्ञ-अ एव ण पर केवलि भगवंत समददीन सय निरवसेस । धातुसंज्ञः-गह ग्रहण, मच त्यागे, परि गमः प्राङ्गत्वे, पास दर्शने, जाण अवबोधने । प्रातिपदिक----न एव न पर केवलिन भगवन्न सम
प्रयोग-ज्ञान और ज्ञेयका ऐसा हो स्वभाव है कि ज्ञानमें ज्ञेयोंको झलकना ही पड़ता है, फिर भी मानन्द ज्ञेयके झलकनेके कारण नहीं, किन्तु ज्ञानको अविकारता के कारण है ऐसा जानकर ज्ञेयके प्रति रंच भी प्राकषित न होना, अविकार सहज ज्ञानस्वभावकी हो अाराधना
अब इस प्रकार प्रात्माका पदार्थो के साथ एक दूसरेमें वर्तना होनेपर भी परका ग्रहण त्यागरूप परिणमनका अभाव होनेसे अर्थात् पररूप परिणमित हुए बिना सबको देखने जानते हये प्रात्माका अत्यन्त विविक्तपना हुवाते हैं, भाते हैं, कहते हैं-- केवली भगवान् ] केवली भगवान [पर] परको [न एवं ग्रहाति] न तो ग्रहण करता [न मुचति] और न छोड़ता नि परिपमति] तथा न परिणमित होता [स:] वह तो [निरवशेष सर्व निरवशेष रूपसे सबको समन्ततः] सर्व मोरसे अर्थात प्रात्मप्रदेशोंसे [पश्यति जानाति देखता जानता है ।
तात्पर्य-प्रभु सबको मात्र देखता जानता है, न किसी परको ग्रहण करता, न किसी परको छोड़ता और न किसी परपदार्थरूप परिणमन करता।
टीकार्थ---वास्तबमें यह प्रात्मा स्वभावसे ही परद्रव्यके ग्रहण त्यागका तया परद्रव्य रूपसे परिणमन होनेका अभाव होनेसे स्वतत्त्वभूत केवलज्ञानस्वरूपसे परिणत होकर निष्कम्प उभरने वाली ज्योति वाला उत्तम मरिण जैसा होकर रहता हुआ, सर्व ओरसे याने सर्व प्रात्म. प्रदेशोसे दर्शनशानशक्ति स्फूरित है जिसके ऐसा होता हुआ, निःशेष रूपसे समस्त ही प्रात्मा को प्रात्मासे आत्मामें संचेतता है, जानता है, अनुभव करता है । अथवा एक साथ ही सर्व
।
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां
स्फुरितदर्शनज्ञानशक्तिः, समस्तमेव निःशेषतयात्मानमात्मनात्मनि संचेत यते । अथवा युगपदेव सर्वार्थसार्थसाक्षात्करणेन शतिपरिवर्तनाभावात् संभावितग्रहणमोक्षणलक्षणक्रियाविराम: प्रथममेव समस्तपरिच्छेधाकारपरिणतत्वात् पुनः परमाकारान्त र परिणममानः समन्ततोऽपि विश्वमशेष पश्यति जानाति च एवमस्यात्यन्तविविक्तत्वमेव ॥३२॥ न्तत: तत् सर्व निरवशेष । मूलधातु----मुल्ल मोक्षरणे. ग्रह उपादाने. परि णम प्रवत्वे, शिर् प्रेक्षरणे, ज्ञा अवबोधने । उभयपदविवरण-~ोण्हाद गृहालि मुंचदि मुंचति परिणमदि परिशमति पेच्छति पश्यति जाणदि जानाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया । ण न एव-अध्यय । परं सच सर्व निरवसेसं निरवशेषद्वि० एक० । समतदो समतत:-अव्यय । निरुक्ति-केयलं अस्य अस्ति इति कवनी ॥३२॥ पदार्थों के समूहका साक्षात्कार करनेसे ज्ञप्तिपरिवर्तनका अभाव होनेसे ग्रहण त्यागरूप क्रिया विरामको प्राप्त हुई है जिसके ऐसा होता हुमा, पहलेसे ही समस्त ज्ञेयाकाररूप परिणतपना होनेसे फिर अन्य प्राकारान्तररूपसे नहीं परिणमित होता हुया सर्व प्रकार से अशेष विश्वको मात्र देखता जानता है, इस प्रकार आत्माका पदार्थोंसे अत्यन्त भिन्नपना है हो ।
प्रसंगविवरण-अनंतरपूर्व गाथामें बताया गया था कि गुर्थ ज्ञान में वर्तते है। अब इस गाथामें बताया गया है कि ज्ञानीका अर्थोके साथ अन्योन्यवृत्तिमानपना होनेपर भी सर्वको देखते जानते हुए समस्त परपदार्थोसे ज्ञानी अत्यन्त निराला रहता है ।
__ तथ्यप्रकाश--(१) माताका पदार्थोके साथ व्यवहारसे ग्रामग्राहक सम्बन्ध है । (२) ज्ञाताका पदार्थोके साथ सम्पर्कादि नहीं है । (३) वस्तुत: परमात्मा व सभी प्रात्मा किसी भी परद्रव्यको ग्रहण नहीं कर सकता, अतः प्रात्मा परद्रव्योंसे भिन्न ही है । (४) जब किसी परपदार्थका ग्रहण ही नहीं तो परमात्मा व सभी प्रात्मा किसी परपदार्थको छोड़ता है यह कहना भी बेकार है, अतः प्रात्मा परद्रव्योंसे भिन्न ही है । (५) परमात्मा व सभी प्रात्मा परपदार्थोके विषय में जानकारीभर रखता है, किंतु किसी भी परद्रयरूप परिणम नहीं सकता, अतः प्रात्मा परद्रव्योंसे भिन्न ही है । (६) परमात्मा सर्व प्रात्मप्रदेशोंसे अपनेको ही अनुभवते हैं, अत: प्रत्येक प्रात्मा सर्व परपदार्थोसे भिन्न ही है। (८) परमात्मा सभी पदार्थोंको युगपत् जानते हैं, उन्हें कुछ भी जानना शेष नहीं रहता सो ज्ञप्तिपरिवर्तन न होने के कारण अन्य मांकाररूप भी न परिणमता हुआ समस्त परपदार्थोसे यह अत्यन्त भिन्न ही है । (६) केवली भगवान व प्रत्येक प्रात्मा समस्त परपदाथोंसे अत्यन्त भिन्न है । (१०) प्रत्येक प्रात्मा ज्ञानस्वभाव के कारण अपने ही प्रदेशों में अपने ही द्वारा जानन विकल्परूपसे परिणामते रहते हैं । (११) समस्त ज्ञेय पदार्थ अपने चतुष्टयमें रहते हुए अपने अपने परिणमनसे परिणभते रहते
8688003885608888
KHADKhiliPANMAAVARIABARiiiiiii
.
.
.
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसारः
. ५.५
ar केवलज्ञानश्रुतज्ञानिनोरविशेषदर्शनेन विशेषाकांक्षाक्षोमं क्षपयति-जो हि सुदे विजादि अप्पाणं जाणगं सहावेण । तं सुकेवलिमिसियो भांति लोयप्पदीवयरा ॥३३॥ जो हि जानता श्रुतसे आत्माको है स्वभावसे ज्ञायक : लोक प्रदोषक ऋषिगण उसको श्रुतकेबली कहते ॥ ३३ ॥
यो दिन विजानात्यात्मानं ज्ञायकं स्वभावेन । तं श्रुतकेवलिनमृषयो भणन्ति लोकप्रदपराः ॥ ३३ ॥ यथा भगवान् युगपत्परिणत समस्त चैतन्य विशेषशालिना केवलज्ञानेनानादिनिधन निष्कारणासाधारणस्व संचेत्यमान चैतन्यसामान्य महिम्न श्वेतकस्वभावेनैकत्वात् केवलस्यात्मन ग्रात्मता
नामसंज्ञ जहि सुद अप्प जाणग त सुयकेवल रिसि लोयप्पदीवर धातुसंज्ञ - वि जाण अव बोध, मण कथने । प्रातिपदिकयत् हि श्रुत आत्मन् नायक स्वभाव तत् श्रुतकेवल ऋषि लोकप्रदीएक मूलधातु-विज्ञा अवबोधने, भग सध्दार्थे । उभयपदविवरण- जो यः प्रथमा एक हि-अव्यय ।
सिद्धान्त - - ( १ ) प्रत्येक आत्मा अपने द्रव्य क्षेत्र, काल, भावसे सत् होनेके कारण अपने में ही अपने रूपसे परिणमते रहते हैं, जानते रहते हैं । ( २ ) प्रत्येक आत्मा समस्त परद्रव्यों रूपसे सत् न होनेसे सर्व परसे प्रत्यन्न भिन्न है ।
दृष्टि--- १ - स्वद्रव्यादिग्राहक शुद्ध ध्यार्थिकनय [२८] २- परद्रव्यादिग्राहक शुद्ध द्रव्याथिकनय [२६] |
प्रयोग — पदार्थोंको जानना, अपना स्वभाव निरखकर किसी परके प्रति संबंध नसा नना आकर्षण न करना व सर्व परपदार्थोंसे निराला स्वयंको सहजात्मस्वरूप निरखना ॥३ना अब केवलज्ञानोका और श्रुतज्ञानीका प्रविशेषरूप दिखनेके द्वारा विशेष ग्राकांक्षा के क्षोभको नष्ट करते हैं- [यः हि ] जो वास्तवमें [ श्रुतेन ] श्रुतज्ञानके द्वारा [ स्वभावेन ज्ञायकं ] स्वभावसे ज्ञायकस्वभाव [ श्रात्मानं ] आत्माको [विजानाति ] जानता है [ तं] उसे [लोकप्रदीपकरा: ] लोकके प्रकाशक [ ऋषयः ] ऋषिगण [ श्रुतकेवलिनं भरपन्ति ] श्रुतवली कहते
तात्पर्य --- केवली व श्रुतकेवलोकी मूल महिमा अनाद्यनंत अहेतुक सहज चेलन्यस्वरूपमय केवल अपने आपको अपने आपमें अनुभवने में है ।
टीकार्थ--- जैसे भगवान युगपत् परिणत समस्त
चैतन्यविशेषयुक्त केवलज्ञानके द्वारा अनंत अहेतुक असाधारण स्वसंवेत्यमान चैतन्यसामान्य महिमा वाले तथा चेतक स्वभाव से एकत्व होनेसे केवल शुद्ध, प्रखंड ग्रात्माको ग्रात्मा श्रात्मामें अनुभवने के कारण केवली हैं, उसी
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
माहजानन्दशास्त्रमालायां
स्मनि संचेतनात् केवली, तथायं जनोऽपि क्रमपरिणममाणकतिपयचैतन्यविशेषशालिना श्रुतः। ज्ञानेनानादिनिधननिष्कारणासाधारणस्व संचेत्यमानचैतन्य सामान्यमहिम्नश्चेतकस्वभावेनैकत्वात् केवलस्यात्मन प्रात्मनात्मनि संचेतनात् श्रुतकेवली । अलं विशेषाकांक्षाक्षोभेण, स्वरूपनियचलरेवावस्थीयते ॥३३॥ सुदेण थुलेन-तृतीया एनाल | विजागदि विजानाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया। अगाणं आत्मानं जाणगं ज्ञायन-वि० एक० । सहावेण स्वभावेन-तृतीया ए० । तं मुयकेलि श्रुतकेवलिनं-द्वितीया एक० । इसिणों ऋषिणो लोयरपदीवयरा लोकप्रदीपकरा:-प्रथमा बह० । भणति भणन्ति-वर्तमान लट अन्य पुरुष बहुबचन क्रिया। निरुक्ति---श्रूयते यत् श्रुतं, जानातीति जायक: । समास--स्वस्य भावः स्वभाव: तेन, लोकस्य प्रदीपं कुर्वन्ति इति लोकप्रदीपकरा: ।। ३३ ।। प्रकार यह पुरुष भी क्रमश: परिणमित होते हुए कितने ही चैतन्य विशेषों से युक्त श्रुतज्ञानके द्वारा, अनाद्यनंत अहेतुक असाधारण स्वसंवेद्यमान चैतन्यसामान्य महिमा वाले तथा चेतक स्वभावके द्वारा एकत्व होनेसे केवल शुद्ध अखण्ड प्रात्माको प्रात्मासे आत्मामें अनुभवनेके
कारण श्रुतकेवली है । अतः विशेष आकांक्षाका क्षोभ व्यर्थ है, अब तो हम स्वरूपनिश्चल हुए .. ही रहते हैं।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें प्रभुकी समस्त परद्रव्योंसे अत्यन्त विविक्तता दिखाई थी । अब इस गाथामें केवलज्ञानी व श्रुतज्ञानोमें मूल रीतिको समानता दिखाकर विशेष प्राकक्षिाके क्षोभको समाप्त किया है।
तश्यप्रकाश--(१) निराबरण होनेसे पूर्ण विकसित केवलज्ञानके द्वारा केवली भग• वानको वस्तुतः आत्मावा परिज्ञान होता है । (२) ज्ञानावरणके क्षयोपशमसे एकदेश विकसित स्वसंवेदनरूप भावश्रुतके द्वारा छद्मस्थ ज्ञानीको प्रात्माका परिज्ञान होता है । (३) जैसे केवलज्ञान प्रमाण है, ऐसे ही केवलज्ञान प्रणीत पदार्थ प्रकाशक श्रुतज्ञान भी परोक्ष प्रमाण है। (४) जिसमें एक साथ समस्त चैतन्यविशेष विकसित हैं ऐसे केवलज्ञानके द्वारा केवल अर्थात् शुद्ध प्रात्माको जाननेसे प्रभु केवली कहलाते हैं। (५) जिसमें क्रमसे चैतन्यविशेष विकसित होते रहते हैं, ऐसे केवल ज्ञानके द्वारा केवल आत्माको जाननेसे अन्तरात्मा श्रुतज्ञानी अथवा श्रुतकेवली है । (६) केवलज्ञानी भी अपनेको जानता, श्रुतज्ञानी भी अपनेको जानता, फिर अधिक अर्थात् परपदाथोंके जाननेकी इच्छाका क्षोभ करना बिल्कुल बेकार है । (७) विवेकी जन अधिक जानने की इच्छाका क्षोभ न करके स्वरूपमें ही निश्चल रहनेका पुरुषार्थ करते हैं 1 (८) स्वसंवेदनज्ञानरूप भावभुतज्ञान केवलज्ञानोत्पत्तिका चीज है ।
सिद्धान्त--(१) आत्मा सर्वत्र अपने आपको ही अनुभवता है । (२) परमात्मा केवल
HOUR
S ITAutdasurwwwwwaran
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
SSES
प्रवचनसारः
७
2556SIC
MARA
अथ ज्ञानस्य श्रुतीपाधिभेदमुदस्यति----
सुत्तं जिणोबदिनै पोग्गलदब्वप्पगेहिं वयगोहिं । तं जाणणा हि गाणं सुत्तस्स य जाणणा भणिया ॥३४॥
पुद्गलमय वचनोंसे, जो जिन उपदेश उसे सूत्र कहा ।
ज्ञान है ज्ञप्ति उसकी, उसको ही सूत्र ज्ञान कहा ॥३४॥ सूत्र जिनोपदिष्ट पुद्गलद्रव्यात्मकर्धचनैः । तज्ज्ञप्तिहि ज्ञानं मुत्रस्य र ज्ञप्तिमणिना ।। ३४॥
प्रतं हि तावत्सूत्रम् । तच्च भगवदहेल्सर्वज्ञोपझं स्यात्कारने तनं पोद्गलिक शब्दब्रह्म । तज्ज्ञप्तिाहि ज्ञानम् । श्रुतं तु तत्कारणत्वात् ज्ञानत्वेनोपचयंत एव । एवं सति सुत्रस्य ज्ञप्तिः
नामसंज....सुत्त जिणोब विट्ठ पोगलदध्वप्पग क्यण तंजाणणा हि णा सुत्त य भणिया। धात संज्ञ भण कथने, उव दिस प्रेक्षणे दाने च । प्रातिपदिक-- सूत्र जिनोपदिष्ट पुरगलद्रव्यात्मक वचन जानके द्वारा अपनेको अनुभवते हैं । (३) अन्तरात्मा श्रुतज्ञानके द्वारा अपनेको अनुभवते हैं । (४) बहिरात्मा दर्शनमोहमिश्रित ज्ञानके द्वारा विकारपर्याय रूप में अपरेको अनुभवते हैं ।
इष्टि----१-- उपादानदृष्टि [४६ब] । २- शुद्धनिश्चयनय [४६] । -- अपूर्ण शुद्ध निश्चयतय [४६ब] । ४- अशुद्ध निश्चयनय [४७] ।
.: प्रयोग-~-परपदार्थको तो मैं अनुभवता ही नहीं तब बाहरमें कुछ जानने व प्रवृत्तिको इच्छा छोड़कर अपनेको निरपेक्ष सहनसिद्ध चैतन्यस्वभावमात्र निरखना ।। ३३ ।।
अब ज्ञानके श्रुत-उपाधिकृत भेदको दूर करते हैं----[ पुद्गलद्रव्यात्मकः वचनः] पुद्गल द्रव्यात्मक वचनोंके द्वारा [जिनोपदिष्टं] जिनेन्द्र भगवान के द्वारा उपदिष्ट [सूत्रं] मूत्र है तज्ज्ञप्तिः हि] उसकी जानकारी [जानं] ज्ञान है [च] और वही [सूत्रस्य ज्ञप्तिः] सूत्रकी ज्ञप्ति (श्रुतज्ञान) [भरिणता] कही गयी है।
तात्पर्य---- ज्ञान का स्वरूप मात्र जानना ही है। । टोकार्थ-पहले तो श्रुत ही सूत्र है, और वह सूत्र भगवान अहंत सर्वज्ञके द्वारा उप। विष्ट, स्यात्कारचिन्हयुक्त, पौद्गलिक शब्दब्रह्म है । उसकी अप्ति याने जानकारी सो ज्ञान है । सूत्र तो ज्ञानका कारण होनेसे ज्ञानके रूपसे उपचरित किया जाता है ऐसा होनेपर सूत्रको ज्ञप्ति सो श्रुतज्ञान है. यह फलित होता है । अब सूत्र तो उपाधि होनेसे आहत नहीं किया जाता, तब शप्ति ही शेष रह जाती है, और वह ज्ञप्ति केवलो और श्रुतकेवलीके प्रात्माके संचेतनमें । समान ही है । इस प्रकार ज्ञान में श्रुत-उपाधिकृत भेद नहीं है । MAR प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि जब आत्मा अपनेको हो
SSCRICSSINHAWANCE
20592525
PRODISHRA
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
.....................
५५
सहजानन्दशास्त्रमालायां
श्रुतज्ञानमित्यायाति । श्रथ सूत्रमुपाधित्वान्नाद्रियते इप्तिरेवावशिष्यते । साच केवलिनःश्रुत केवलिनश्वात्मसंचेत तुल्यैवेति नास्ति ज्ञानस्य श्रुतोपाधिभेदः ॥ ३४॥
तज्ज्ञप्ति हि ज्ञान सूत्र च ज्ञप्ति भणिता । मूलधातु-भण रण-सुत्तं सूत्रं जिणोत्रदिट्ट जिनोपदिष्ट-प्रथमा एक वचनैः - तृतीया बहु० । संजाणणा तज्ज्ञप्तिः प्रथमा एक एक० च हि-अव्यय । जागणा ज्ञप्तिः प्र० ए० । भणिया अणिता-प्र० ए० कृदन्त किया । निरुक्तिसूत्रयते इति सूत्रम् जयति कर्मारातीन् इति जिनः । समास (जिनेन उपदिष्टं इति जिनोपदिष्टं ) पुद्गलद्रव्यं आत्मा येषां ते पुद्गलद्रव्यात्मकाः तैः वस्य अप्तिः तज्ज्ञप्तिः ।। ३४ ।।
शब्दार्थ, उप विश अतिसर्जने । उभयपदविवपगलदव्वपगेहि पुद्गलद्रव्यात्मकः वयोह जागं ज्ञानं प्र० एक० । सुतस्य सुत्रस्थ - षष्ठी
जानता है तब बाह्यपदार्थ के जाननेकी थाकांक्षाका क्षोभ करना व्यर्थ है । अब इस गाथामें ज्ञान में से श्रुतको उपाधि भी दूर करके ज्ञानकी विशुद्धताका ग्रहण कराया गया है ।
तथ्यप्रकाश —- १ - शब्दरूप द्रव्यश्रुतको व्यवहारसे ज्ञान कहा है। २- अर्थपरिच्छेदन रूप भावतको निश्चयसे ज्ञान कहा गया है । ३- मुद्गलद्रव्यात्मक दिव्यध्वनिके वचनों द्वारा जिनेन्द्रभगवानके हुए उपदेशको द्रव्यश्रुत कहते हैं । ४- द्रव्यश्रुतके प्राधारसे भव्य जीवोंको जो अर्थविज्ञान होता है वह भावश्रुत हैं । ५- द्रव्यश्रुत के आधारसे भी जो ज्ञान हुआ है वह ज्ञान तो श्रात्माका है, द्रव्यश्रुत तो वहाँ उपाधिरूपमात्र है । ६-सूत्रकी जानकारी ऐसा कहनेपर भी जानकारी परिणति सूत्रकी नहीं है, किंतु श्रात्माकी है ७ - भावश्रुतमें मात्र ज्ञान ही देखा जाय, सूत्र उपाधिको न गिना जाय तो वहाँ मात्र "ज्ञप्ति" हो शेष है, प्रवर्तमान है ५-ज्ञप्ति तो केवली और श्रुतज्ञानीके श्रात्मा के संचेतनरूप निश्चयवृत्तिकी पद्धति में समान ही है । ६-ज्ञानस्वरूपमें श्रुत उपाधिकृत भेद नहीं है ।
सिद्धान्त -- १ - वास्तव में ज्ञान तो प्रखण्ड एक प्रतिभासस्वरूप है । २- उपयोगतः निरुपाधि ज्ञान परिपूर्ण विकसित केवलज्ञान ज्ञान है । ३- उपयोगतः सोपाधि ज्ञान मतिज्ञानादिक ज्ञान है ।
दृष्टि-- १ - शुद्धनय [ १६८] २ - शुद्ध निश्चयनय [ ४६ ] । ३ - अशुद्धनव [१६७ ] । प्रयोग -- साधन आधार आदि न देखकर ज्ञानमें मात्र ज्ञानस्वरूप निहारना ||३४|| अब आत्मा और ज्ञानका कर्तृत्व करणत्वकृत भेद हटाते हैं- [ यः जानाति ] जो जानता है [ सः ज्ञानं ] सो ज्ञान है [ ज्ञानेन] ज्ञानके द्वारा [श्रात्मा] आत्मा [ज्ञायकः भवति ] ज्ञायक है [न] ऐसा नहीं है; [स्वयं] ज्ञायक स्वयं ही [ज्ञानं परिणमते ] ज्ञानरूप परिणमित होता है [ सर्वे ]:] और सर्व पदार्थ [ ज्ञानस्थिताः ] ज्ञानस्थित हैं ।
तात्पर्य - ज्ञानस्वरूप ज्ञायक स्वयं ही स्वयंके द्वारा जानता है, यहाँ बर्ताव करण
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
Datio
h ibiMHARASTARAMMAgameplasm
RRLI
प्रवचनसारः
प्रथात्मज्ञालयोः कर्तृकरणताकृतं भेदमपनुदति -
जो जादि मो माग हा वदि गाणोण जाणगो आदा। णाणं परिणमदि सयं अट्टा गागाठिया सव्वे ॥ ३५ ॥
जो जाने सो जान हि, ज्ञानसे बनता न ात्मा ज्ञायाह ।
स्वयं ज्ञानमय होता, ज्ञानस्थित सर्व अर्थ वहां ॥ ३५ ॥ । यो जानाति सा शाने न भवति ज्ञानेन नायक आत्मा । ज्ञानं परिणामते स्वयमार्था ज्ञानस्थिता: ।। ३५ ।।
अपृथग्भूतकर्तृ करणत्वशक्तिपारमैश्वर्य योगिस्वादात्मनो य एव स्वयमेव जानाति स एव जानमन्तौनसाधकतमोगात्वशक्तेः स्वतंत्रय जातवेदसो दहनक्रियाप्रसिद्धेशव्यपदेशवत् । न तु यथा पृथग्वतिना दाबेण लावको भवति देवदत्तस्तथा ज्ञानेन जायको भवत्यात्मा । तथा । सत्युभयोरचेतनत्वमवेतनयोः संयोगेऽपि न परिच्छित्तिनिष्पत्तिः । पृथक्त्ववर्तिनोरपि परिच्छेदा.
. नामसंज्ञ.....ज त ण णाश जाणम अत्त पहाण सयं णाट्टिय सध्य । धातुसंज्ञा..जाण अवबोधने, हवः सत्तायां, परि ग्राम प्रसत्वे । प्रातिपदिक . यत् सत् ज्ञान न ज्ञायक आत्मन् स्वयं अर्थ ज्ञानस्थित सर्व | मुलघातु-ज्ञा अवबोधने, भू सत्तायां, परि णम प्रक्षुत्वे । उपयपदविवरण- जो यः सो स: जागो ज्ञायक: भिन्न नहीं हैं।
टोकार्थ-अपृथग्भुत कर्तृत्व और करणत्वकी शक्तिरूप पारमश्वर्य से युक्त होनेसे जो स्वयमेव जानता है याने ज्ञायक है, वही ज्ञान है जैसे कि साधकतम उमाल्वशक्ति जिसमें अन्तर्लीन है ऐसी स्वतंत्र अग्नि के दहन क्रियाकी प्रसिद्धि होनेसे उष्णता कही जाती है । परन्तु, जैसे पृथग्वर्ती दांतलीसे देवदत्त काटने वाला कहलाता है उसी प्रकार पुथग्थती ज्ञान से प्रात्मा जानने वाला याने ज्ञायक है ऐसा नहीं है । यदि ऐसा हो तो दोनोंके अचेतनता पा जायेगी
और दो अचेतनोंका संयोग होने पर भी ज्ञपिल उत्पन्न नहीं होगी । अात्मा और ज्ञानके पृथस्वर्ती होनेपर भी यदि आत्माके ज्ञप्ति होना माना जाये तो परज्ञानके द्वारा परको ज्ञप्ति हो जायेगी और इस प्रकार राख इत्यादिके भी शशिकी निष्पत्ति निरंकुश हो जायेगी । और क्या, कि अपनेसे अभिन्न समस्त ज्ञेयाकाररूप परिणत ज्ञान उसरूप स्वयं परिणमित होने वाले, कार्यभूत समस्त ज्ञेयाकारोंके कारणभूत समस्त पदार्थ ज्ञानवर्ती ही कथंचित होते हैं। सो अव ज्ञाता और ज्ञान के विभागको क्लिष्ट कल्पनासे क्या प्रयोजन है ?
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामे प्रात्ममनन के प्रयोजनमें ज्ञानको श्रुत उपाधिको दूर किया था। अब इस गाथामें प्रात्मा और ज्ञान में कर्तृकरणपनेका भेद दूर कराया है।
तथ्यप्रकाश---(१) प्रात्मा का है, ज्ञान कारण है ऐसा व्यवहार होने पर भी प्रात्मा
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
६०
म्युपगमे परपरिच्छेदेन परस्य परिच्छित्तिर्भूतिप्रभृतीनां च परिच्छित्तिप्रसूतिरनङ्कुशः स्यात् । किच---स्वतोऽव्यतिरिक्तसमस्तपरिच्छेद्याकारपरिगतं ज्ञानं स्वयं परिणाममानस्य कार्यभूतसमस्तज्ञेयाकारकारणीभूताः सर्वेऽथ ज्ञानवर्तिन एवं कथंचिद्भवन्ति, किं ज्ञातृज्ञान विभागक्लेशकल्प
नया || ३५ ।।
सहजानन्दशास्त्रमालायां
गाणं ज्ञानं प्र० ए० | आदा आत्मा-प्रथमा एक० जागेण ज्ञानेन तृतीया एक पाणं ज्ञान अध्यय परिणमते क्रियाका विशेषण । परिणमदि परिणमति जापदि जानाति वदि भवति वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । णन सयं स्वयं अव्यय । अट्ठा अर्थाः गाणठिया ज्ञानस्थिताः सव्वे सर्वे - प्रथमा बहु० । निरुक्ति--अर्यन्ते निश्चीयन्ते इति अर्थाः । समास । ज्ञाने स्थिताः ज्ञानस्थिताः ॥५॥
और ज्ञान भिन्न-भिन्न नहीं है । (२) भिन्न ज्ञानके द्वारा आत्मा ज्ञानी नहीं होता । (३) आत्मामें भिन्न ज्ञानका समयाय माननेपर उसका ग्रात्मामें ही क्यों समवाय होता है इसका कोई उत्तर नहीं हो सकता । ( ४ ) ज्ञानके समवायसे पहिले आत्मा ज्ञानी है या जड़ है दोनों ही विचार निराधार हैं । (५) यदि भिन्न ज्ञानसे आत्मा ज्ञानी माना जाय तो भिन्न ज्ञानसे घट पट आदि भी ज्ञानी बन जायेंगे | ( ६ ) ग्रात्मा ही उपादानरूपसे ज्ञानरूप परिणमता है । ( ७ ) श्रात्मा ज्ञानमय हैं, उसका परिचय करानेके लिये लक्षण प्रयोजनादिभेदसे भेद करके समझाया जाता है | ( 5 ) यही आत्मा की परमेश्वरता है कि अभिन्न कर्ताकरण शक्ति से यह स्वयं जानता है ।
सिद्धान्त - ( १ ) ज्ञानस्वरूप आत्मा अपने द्वारा अपने आपको जानता है दृष्टि-- १ - कारककार किभेदक सद्भूतव्यवहार [ ७३ ] ।
प्रयोग अपने को अपने द्वारा अपने आपमें ज्ञप्तिपरिणत निरखनेके द्वारसे अभेदोपासना करते हुए अभिन्नकारक प्रक्रियांस उत्तीर्ण होकर ज्ञानमात्र अनुभवनेका पौरुष करना ||३५|| अब ज्ञान क्या है और ज्ञेय क्या है, यह व्यक्त करते हैं-- [तस्मात् ] इस कारण [जीवः ज्ञानं ] जीव ज्ञान है [ज्ञेयं ] और ज्ञेय [ त्रिधा समाख्यातं ] भूत भावी वर्तमान पर्यायसे तीन प्रकार में प्रसिद्ध कालिक [ द्रव्यं ] द्रव्य हैं [ पुनः द्रव्यं इति ] वह ज्ञेयभूत द्रव्य अर्थात् [आत्मा] आत्मा याने स्व [परः च ] और पर [ परिणामसम्बद्धः ] परिणामसंयुत हैं ।
तात्पर्य--- ज्ञान तो स्व आठमा है और शेष स्व आत्मा, पर आत्मा व समस्त प्रचेतन पदार्थ ये सब हैं, सभी द्रव्य ज्ञान या ज्ञेय या उभय रूपसे निरन्तर परिणमते रहते हैं । टोकार्थ - चूंकि ज्ञानरूपसे स्वयं परिणमित होकर स्वतंत्रतया ही जानता है इसलिये जोव ही ज्ञान है, क्योंकि अन्य द्रव्य ज्ञानरूप परिणमिल होने तथा जाननेमें असमर्थ हैं । और ज्ञेय, पर्त चुकी, वर्त रहो और वर्तने वाली विचित्र पर्यायोंके प्रकारसे त्रिविध कालकोटिको
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार:
साथ कि ज्ञान कि ज्ञेयमिति व्यक्ति
तम्हा गाणं जीवो शोयं दब्वं तिहा समक्खादं । दब्वं ति पुणो श्रादा परं च परिणामसंबद्ध ॥३६॥ जीव ज्ञान है इससे, त्रिकालगत द्रव्य ज्ञेय बतलाये ।
परिणामबद्ध प्रात्मा, तथा इतर द्रव्य यों मानो ॥३६॥ तस्माजज्ञान जीवो क्षेत्र द्रव्यं विधा रामाण्यातम् । द्रव्यमिति पुनरात्मा परश्च परिणामसंबद्धः ।। ३६ ।।
यतः परिच्छेदरूपेण स्वयं विपरिणम्य स्वतंत्र एवं परिच्छिनत्ति ततो जीव एव ज्ञानमत्यद्रव्याणों तथा परिरगन्तुं परिच्छेत्तुं चाशक्तेः । ज्ञेयं तु वृत्तवर्तमानतिष्यमाणविचित्रपर्याथपरम्पराप्रकारेण विधाकालकोटिस्पशित्वादनाद्यनन्तं द्रव्य, तत्तु ज्ञेयतामापद्यमानं धात्मपरवि. कल्पात । इष्यते हि स्वपरपरिच्छेदकत्वादवबोधस्य बोध्यस्येवंविधं वैविध्यम् । नन स्वात्मनि क्रियाविरोधात कथं नामात्मपरिच्छेदकत्वम् । का हि नाम क्रिया को दृशश्च विरोध: ? क्रिया
नामसंज-तणाण जीव पोय बम्व तिहा समक्खाद ति पुणो आदा पर च परिणामसम्बद्ध । धातुसजशा अवबोधने, सं बंध बन्धने । प्रातिपदिक..... तत् ज्ञान जीव ज्ञेय द्रव्य त्रिधा समास्यात इति पुनस आसन पर च परिणामसम्बद्ध । मूलधातु -- ज्ञा अवबोधने । उभयपदविवरण ...तम्हा तस्मात्-पंचमी ए० 1 स्पर्श करता हुआ होनेसे अनादि अनन्त द्रव्य है। यह ज्ञेयको प्राप्त स्व और पर ऐसे दो भेद से दो प्रकारका है । ज्ञान स्वपरज्ञायक है, इसलिये ज्ञेयकी ऐसी द्विविधता मानी जाती है। प्रश्न--अपने में क्रियाके हो सकनेका विरोध होनेसे आत्माके स्वज्ञायकता कसे घटित होती है ? उत्तर- कौनसी क्रिया है, और किस प्रकारका विरोध है ? जो यहाँ प्रश्नमें विरोधी क्रिया कही गई है. वह या तो उत्पत्तिरूप होगी या ज्ञप्तिरूप होगी। उत्पत्तिरूप किया 'कोई स्वयं अपनेमें से उत्पन्न नहीं हो सकता' इस ग्रागम कथनसे विरुद्ध ही है; परन्तु ज्ञप्तिरूप किया का प्रकाशन नियासे हो प्रत्यवस्थितपना होनेसे ज्ञप्तिक्रिया में विरोध नहीं आ सकता। जैसे कि प्रकाश्यताको प्राप्त परको प्रकाशित करते हुए प्रकाशक दीपको स्व प्रकाश्यको प्रकाशित करने के सम्बन्ध में अन्य प्रकाशकको अनावश्यकता नहीं होती, क्योंकि उसके स्वयमेव प्रकाशन क्रियाको प्राप्ति है; इसी प्रकार ज्ञेयपनेको प्राप्त परको जानते हुए ज्ञायक प्रात्माको स्वज्ञेयके जानने के सम्बन्धमें अन्य ज्ञायककी आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि स्वयमेव ज्ञान क्रियाको वहाँ प्राप्ति है । प्रश्न--- प्रात्माके द्रव्यज्ञानरूपता और सब द्रव्योंके प्रात्मज्ञेयरूपता, कैसे बन जाती है ? उत्तर-परिणाम वाले होनेसे प्रात्माके द्रव्यज्ञानरूपपना और द्रव्योंके प्रात्मजयरूपपना सही है । चूंकि प्रात्मा और द्रव्य परिणामोसे संबद्ध हैं, इस कारण प्रात्माके
ॐ
3
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
महानन्दशास्त्रमालायां
ह्यत्र विरोधिनो समुत्पत्तिरूपा वा ज्ञप्तिरूपा वा । उत्पत्तिका हि तावन्नक स्वस्मात्प्रजायत इत्यागमाद्विरुदेव । ज्ञप्तिरूपायास्तु प्रकाशाननि ययैव प्रत्यवस्थितत्वान्न सत्र विप्रतिषेधस्यावतारः । यया हि प्रकाशकस्य प्रदीपस्य परं प्रकाश्यतागापन्न प्रकाशयतः स्वस्मिन् प्रकाश्ये न प्रकाशकान्तरं मृग्यं, स्वयमेव प्रकाशन क्रियायाः समुपलभात् । तथा परिच्छेदकस्यात्मनः परं परिच्छेद्यतामापन्न परिच्छिन्दतः स्वस्मिन् परिच्छेधे न परिच्छेदकान्तर मृग्यं, स्वयमेव परिच्छे. दन क्रियायाः समुपलम्भात् । ननु कुत प्रात्मनो द्रव्यज्ञानरूपत्वं द्रव्याणां च ग्यात्मज्ञेयरूपत्वं च ? परिणामसंबन्धत्वात् । यतः खलु आत्मा द्रव्यापि च परिणामः सह संबध्यन्ते, तत आत्मनो द्रव्यालम्बन ज्ञानेन द्रव्याणां तु ज्ञानमालम्ब्य ज्ञेयाकारे परिणतिरबाधिता प्रतपति ।। ३६ ।। णाणं ज्ञानं दन्यं यं-प्रथमा एक० । जीवो जीवः आदा आत्मा-प्रथमा एक । गोयं जेय-प्रथमा एक० कृदन्त किया । तिहा बिधा पुणो पुनः ति इति व अव्यय । समक्खादं समाल्यातम्-प्रथमा एक० कृदन्त क्रिया ! परं परः परिणामसंबद्धं परिणामसंबद्ध:-५० ए० | निरुक्ति --ज्ञातुं योग्य ज्ञेयं, प्राण : जीवति इति जीवः दुनि पर्यायान् गच्छति इति द्रव्यं । समास- (परिणामेन सम्बद्धः परिणामसम्वन्तः । ३६ ।। द्रव्यविषयक ज्ञानसे और द्रव्योंके ज्ञानका अवलम्बन लेकर ज्ञेयाकाररूपसे परिणति अबाधित होती हुई प्रतापवंत वर्तती है।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें अात्मा और ज्ञान में बर्तृ करणताकृत भेद दूर किया गया था । अब इस गाथामें ज्ञान क्या है और ज्ञेय क्या है यह व्यक्त किया गया है ।
तथ्यप्रकाश--- १- जानने वाला कोई एक प्रात्मा ज्ञान है तो स्वयं यह स्व प्रात्मा तथा शेष सब प्रात्मा, और समस्ल पुद्गलद्रव्य, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश द्रध्य व प्रसंरूयातकाल द्रव्य ये सब ज्ञेय हैं । २- चाँकि आत्मा ही उपादानरूपसे ज्ञानरूप परिणामता है
और पदार्थों को जानता है. अत: आत्मा ही ज्ञान है । ३-समस्त ज्ञेय उत्पाद व्यय-ध्रौव्यात्मक हैं । ४-- ज्ञान स्वयं अपने पापको भी जानता है । ५-- यदि ज्ञान दूसरे ज्ञानके द्वारा जाना जाय तो वह दूसरा ज्ञान भी तीसरे ज्ञानके द्वारा जाना जायगा तीसरा भी चौथे से यों अनवस्था होनेसे अनिश्चित ज्ञान कुछ भी न जान सकेगा। ६-ज्ञप्ति क्रिया ज्ञप्तिमें से उत्पन्न नहीं होती, वह अात्मद्रव्यसे उत्पन्न होती । ७-- ज्ञप्तिक्रिया जान नस्वरूप है अत: उससे स्व पर दोनों का ज्ञान होता है। -पर्याय में से पर्याय उत्पन्न नहीं होता, पर्याय द्रव्यमें से उत्पन्न होता, किन्तु पर्याय तो कार्यस्वरूप ही है उसके कार्यभे परापेक्षता नहीं। -प्रकाश पर्याय दीपकसे उत्पन्न होता है, किन्तु प्रकाशपर्याय स्व परको प्रकाशित करने में किसी परकी अपेक्षा नहीं करता । १०-- जानन पर्याय आत्मामें से उत्पन्न होता है, किन्तु जाननपर्याय स्त्र परको जानने में किसी परकी अपेक्षा नहीं करता है । ११-पर्यायकी उत्पत्ति स्वपरप्रत्ययक है, किन्तु
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार:
६३
प्रयातिवाहितानागतानामपि द्रव्यपर्यायाणां तादात्विकवत् पृथक्त्वेन जाने वृत्तिमुद्योतयतितक्कालिगेव सव्वे सदसन्दा हि पजया तासि । ते ते गाणे विसेसदो दव्वजादीगणं ॥ ३७ ॥ द्रव्यजातियोंके सब वर्तमान प्रवर्तमान पर्यायें ।
aaraat ज्यों, विशेषसे ज्ञानमें वर्तें ॥३७॥
तात्कालिका इव सर्व सदसता हि पर्यायास्तासाम् वर्तते ते ज्ञाने विशेषन दव्यजातीनाम् ॥ २७ ॥ fara foransतीनां त्रिसमयावच्छिन्नात्मलाभ भूमिकत्वेन क्रमप्रतपत्स्वरूपसंपद: सद्भूतासद्भूततामायान्तो में यावन्तः पर्यायास्तं तावन्तस्तात्कालिका इवात्यन्तसंकरेणाप्य
नामसंज्ञ- तक्कालिंग इव स सदसव हि पज्जय ताण विदो व्यजादि । धातुसंज्ञ-स वर्तत । प्रातिपदिक- तात्कालिक इव सर्व सदसद्भुत हि पर्याय वा रात् ज्ञान विशेषतः द्रव्यजाति । उत्पन्न पर्याय अपने कार्यमें निरपेक्ष है । १२- सभी पदार्थ प्रमेयत्व गुणास्वभाव से ज्ञान में ज्ञेय होते हैं । १३ - ज्ञाता आत्मा ज्ञानगुण स्वभावसे सत् विषयक ज्ञान करता रहता है । सभी पदार्थ अपने अपने स्वरूप में स्वभावानुरूप प्रतापवंत प्रवर्ता करते हैं ।
१४
सिद्धान्त- १ - श्रात्मा द्वारा जेय आत्मा है। २ श्रात्मा के द्वारा ज्ञेय सर्व सत् हैं । दृष्टि-- १ - कारककार किभेदक सद्भूत व्यवहारनय [ ७३] । २- स्वाभाविक उपचरित स्वभावव्यवहार [ १०५ ] |
WW
प्रयोग - स्वयं सहज जो ज्ञेय हो सो होग्रो, अपनेको तो सहज ज्ञानस्वभावमात्र धनुभवता ॥३६॥
ne gariat प्रतीत और अनागत पर्यायें भी तात्कालिक पर्यायोंकी भाँति पृथक् रूप से ज्ञानमें होनेको उद्योतित करते हैं याने दिखाते हैं-- [तासाम् द्रव्यजातीनाम् ] उन जीवादि व्यातियोकी [ते सर्वे ] वे समस्त [ सदसद्द्भूताः हि ] विद्यमान और अविद्यमान [पर्यायाः ] पर्याये [तात्कालिकाः इव] वर्तमान पर्यायोंकी तरह [ विशेषतः ] विशिष्टता पूर्वक अर्थात् अपने ते भिन्न-भिन्न स्वरूपसे [ज्ञाने वर्तन्ते ] ज्ञानमें वर्तती हैं ।
तात्पर्य केवलज्ञान समस्त द्रव्योंकी समस्त पर्यायोंको युगपत् जानता है । टोकार्थ- वास्तव में समस्त हो द्रव्यजातियोंके पर्यायोंकी उत्पत्तिकी मर्यादा तीनों कालीमै आत्मलाभ की भूमिकासे युक्तपना होनेके कारण क्रमपूर्वक तपती हुई स्वरूपसम्पदा anit, fararaat और श्रविद्यमानताको प्राप्त जो जितनी पर्यायें हैं, वे सब तात्कालिक अर्थात् वर्तमानकालीन पर्यायोंकी भाँति अत्यंत मिश्रित होनेपर भी निश्चित हैं सब पर्यायोंके
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
यहजानन्दभास्त्रमालायां
वधारितविशेषलक्षणा एकक्षण एवावबोधसीधस्थितिमवतरन्ति । न खल्वेतदयुक्तं दृष्टाविरोघात् । दृश्यते हि छद्मस्थस्यापि वर्तमानमिव व्यतीतमनागतं वा वस्तु चिन्तयता संविदालम्बितस्तदाकार: । किंच चित्रपटोस्थानीयत्वात् संविदः । यथा हि चित्रपटचामतिवाहितानामनुपमूलधातु-वृतु वर्तने । उभयपदविवरण---लक्कालिगा लत्कालिका: सच्चे म मदसम्भवा सदसद्भूता: पज्जया पर्याया:--प्रबहातासि तासा-पष्ठी वह । ते-प्रबह पारणे ज्ञाने-सप्तमी एक० । विसेसदो विशेषतः अव्यय पंचभ्यर्थे । दावजादी द्रव्यजानौनां...ठी बह। निरक्ति-सरि अयन्ते इति
विशिष्टलक्षण जिनके ऐसी वे एक क्षण में ही मानमंदिरमें स्थितिको प्राप्त होती है । वास्तवमें यह अयुक्त नहीं है; क्योंकि १- उसका दृष्टके साथ अविरोध है। जगत्में वर्तमान वस्तुको तरह भूत और भविष्यत् वस्तुका चितवन करते हुए छद्मस्थके भी ज्ञाननिष्ठ ज्ञेयाकार देखा जाता है । २-- और क्योंकि ज्ञान चित्रपटके समान है सो जैसे चित्रपट में अतीत, अनागत और वर्तमान वस्तुओंके प्रतिभास्य प्राकार पक्षात एक क्षणमें ही भासित होते हैं। इसी प्रकार ज्ञानरूपी भित्तिमें भी अतीत अनागत और वर्तमान पर्यायोंके ज्ञेयाकार साक्षात् एक क्षणमें ही भासित होते हैं । (३) और क्या कि सर्व ज्ञेयाकारोंको वर्तमानता पविरुद्ध है। जैसे चित्रपट में नष्ट और अनुत्पन्न वस्तुमोके पालेख्याकार वर्तमान हो हैं, इसी प्रकार ज्ञान में अतीत और अनागत पर्यायोंके ज्ञेयाकार वर्तमान हो हैं ।
प्रसंगविवरण----अनन्तरपूर्व गाथामें ज्ञान और ज्ञेयका निर्देशन किया गया था। अब इस गाथामें यह बताया गया है कि प्रभुके ज्ञान में वर्तमान पर्यायोंकी तरह भूत भविष्यको पर्यायें भी रहती हैं।
तथ्यप्रकाश----(१) चित्रपट में भूत, वर्तमान, भविष्यके महापुरुषोंके चित्र लिखित हों तो दिखने में तो सब वर्तमान जैसे हैं । (२) प्रभुक्रे ज्ञान में भूत, वर्तमान, भविष्यकी सब पर्याय प्रतिभासित हैं तो जाननेमें तो सब वर्तमानकी तरह उसी समयमें हैं । (३) छदास्य पुरुष भी जब भूत भविष्यको पर्यायोंका मनमें चिन्तन कर रहा हो तब उन भूत भविष्य पर्यायोंका प्रतिभास तो वर्तमानको तरह उसो समयमें है । (४) केवलज्ञानी समस्त परद्रव्य पर्यायोंको जाननमात्ररूपसे जानते हैं, तन्मय होकर नहीं। (५) केवलज्ञानी तो केवलज्ञानादि गुणोंके प्राधारभूत अपनी परिपूर्ण विकसित पर्यायको ही स्वसंवेदनाकारसे तन्मय हो जानते हैं । (६) साधक पुरुष भी अपने निश्चयरत्नत्रयपर्यायको ही तन्मय होकर जानते हैं. अन्य द्रव्य गुण पर्यायोंको जाननमात्ररूपसे जानते हैं । (७) मात्माकी ज्ञानशक्ति ऐसी ही अद्भुत है कि जिससे निराकरण ज्ञानी आत्मा सर्व त्रिलोकत्रिकालवर्ती समस्त पदार्थोको जानता ही है।
नाmrauD
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
SINMENT
प्रवचनयार:
802825
स्थितानां वर्तमानानां च वस्तुनामाले ल्याकाराः साक्षादेकक्षण एवावभासन्ते, तथा संविद्भित्तावपि । किंछ सर्वज्ञेयाकाराणां तादात्विकत्वाविरोधात् । यथा हि प्रध्वस्तानामनुदिताना न वस्तूनामालेल्याकारा वर्तमाना एव, तथातीलानामनागनानां च पर्यायारणां ज्ञेयाकारा वर्तमान। एद भवन्ति ।। ३७ ॥ पर्यायाः । समास-तस्य कालः तत्कालः तत्र भवाः तात्कालिका द्रव्याणां जातयः द्रव्यशालयः लायां ॥३७॥ (a) ज्ञेय पदार्थोकी प्रमेयत्वशक्ति ऐसी है कि जिससे त्रिलोक त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थ निरावण ज्ञान में ज्ञेय होते ही हैं ।
- सिद्धान्त---(१) निरावरण ज्ञानी प्रात्मामे त्रिलोक त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थ प्रतिविम्बित होते हैं । (२) परमात्मा अपने परिपूर्ण विकसित पर्यायको ही तन्मय होकर जानते
।
दृष्टि---१- प्रशून्यनय [१४] । २- मुद्धनिश्चयनय [४६]
प्रयोग---जिसमें ज्ञेय प्रतिभासित हैं ऐसे निज विकासको ही तन्मयतासे जानता हूं ऐसा निश्चय करके बाद्य पदार्थोसे अपना सम्बन्ध न मानकर निर्विकल्प होने का गम सहज पौरुष करना ।। ३७ ।।
अब अविद्यमान पयायोंको कथंचित् विद्यमानता धारण कराते हैं (बतलाते हैंघि पर्यायाः] जो पर्यायें [हि वास्तवमें [संजाताः न एव] उत्पन्न नहीं हुये हैं, नया [ये] जो पायें खितु] वास्तवमें [भूत्वा मष्टाः] उत्पन्न होकर नष्ट हो गये हैं. [ते] वे [असद्भूताः पर्यायाः] अविद्यमान पर्यायें [ज्ञानप्रत्यक्षाः भवन्ति ज्ञान में प्रत्यक्ष होते हैं ।
तात्पर्य-प्रतीत और अनागत पर्याय प्रभुके ज्ञान में स्पष्ट प्रत्यक्ष होते हैं।
टोकार्थ----जो पर्यायें अभी तक भी उत्पन्न नहीं हुये और जो उत्पन्न होकर नष्ट हो गये हैं वे पर्याय वास्तवमें अविद्यमान होनेपर भी ज्ञान के प्रति नियत होनेसे ज्ञान प्रत्यक्षता को अनुभवते यापार स्तम्भमें उत्कीर्ण, भूत और भावी देवोंकी भांति अपने स्वरूपको प्रक.
पतया ज्ञानको अर्पित करते हुये विद्यमान हो है। A प्रसंगविवरण-अनंतरपूर्व गाथा में बताया गया था कि प्रभुके ज्ञान में भूत भविष्यको
पाय भी बर्तमानपर्यायको तरह ज्ञेय हैं। अब इस गाथामें असद्भूत पर्यायों को प्रभुज्ञानमें । सदभूत बना दिया गया है।
तथ्यप्रकाश---.-- प्रतीत व भविष्यत् पर्याय असद्भूत कहलाते हैं, क्योंकि वे वर्तमातमें अभी नहीं हैं । २-- असद्भूत पर्यायें भी भगवान के वर्तमान ज्ञान में विषयभूत हैं, अतः
HAR
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
EXAMS
सहजानन्दशास्त्रमालायां अथासद्भुतपर्यायाणां कथंचित्सद्भूतत्वं विदधाति--
जे गोव हि संजाया जे खलु णा भवीय पजाया । ते होति असम्भूदा पजाया णाणपक्खा ॥ ३८ ॥
जो उत्पन्न हुये नहि, जो होकर नष्ट हो गये वे सब ।
असद्भूत पर्यायें, ज्ञान माहि प्रत्यक्ष हैं ये ।३८ ॥ ये नैव हि संजाता ये खलु नष्टा भूत्वा पर्याया: ! ते भवन्ति असद्भूना: पर्याया: ज्ञानप्रत्यक्षाः ।। ३८ ।।
च खलु नाद्यापि संभूतिमनुभवन्ति, ये चात्मलाभमनुभूय विलयमुपगतास्ते किलासद्भूता अपि परिच्छेदं प्रति नियतत्वात् ज्ञान प्रत्यक्षतामनुभवन्तः शिलास्तम्भोत्कोगभूतभाविदेववदप्रकम्पापितस्वरूपाः सद्भूता एव भवन्ति ।। ३८ ।।
नामसंज---जण एव संजाय ज खलु भट्ट पज्जाय त असम्भूद पज्जाय गायनवाल धातुसंजभत्र सत्तायां हो सतायां, मस्स नाशे, जा प्रादुभदि । प्रातिपदिक ....यल न एव संजान खन्नु नट फ्यान तत् असदभूत पर्याय नानप्रत्यक्ष । मूलधातु-जनि प्रादुर्भाद, णश अदर्शने दिवादि, भू मनाया । उभयपदविवरणजे ये जाया संजाता: णट्ठा नष्टा: पज्जाबा पर्याया: अशभूदा असद्भार: णायक बयखा ज्ञानप्रत्यक्षा:-प्रथमा बहु० । ण न एव हि खलु अव्यय । भवीय भूत्वा-असमाप्तिकी क्रिया अव्यय । होसि भवन्तिवर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुवचन किया। निरुक्ति-अक्षं आत्मानं प्रतीत्य उत्पद्यमानाः प्रत्यक्षा: । समास(ज्ञाने प्रत्यक्षाः ज्ञानप्रत्यक्षा (न सद्भुता: असत्भूताः ।।३।।
असद्भूत पर्यायें भी भगवान के ज्ञानमें सद्भूत हैं । ३-भगवानके ज्ञान में जैसे वर्तमान पर्याय प्रत्यक्ष हैं. ऐसे ही भगवान के ज्ञानमें अनीत व भावी पर्यायें भी प्रत्यक्ष हैं 1 ४-शिलामें उकेरी गई भूत वर्तमान भविष्यत् तीर्थंकरोंकी प्रतिमायें शिलामें तो वे सब वर्तमान ही हैं । ५- प्रभु के ज्ञान में प्रतिविम्बित भूत वर्तमान भविष्यत् पर्यायें प्रभुके ज्ञान में तो वर्तमान ही हैं । त्रिलोकत्रिकालवी समस्त पदार्थ परमात्माके ज्ञान में एक साथ ही प्रतिविम्बित हैं व अग्नि जल जैसे परस्पर विरुद्ध पदार्थ भी एक ही साथ एक ही ज्ञान में यात्माके उन्हीं प्रदेशों में रह रहे हैं यही परमात्माका पारमश्चर्य है।
सिद्धान्त--(१) भगवान के पारमैश्वर्षमय ज्ञानमें भूत, भविष्य, वर्तमान सभी अर्थों का एक साथ प्रातिभास्यत्वरूप प्राक्रमण होता है ।
दृष्टि- १- अशून्यनय [१७४] ।
प्रयोग- ज्ञान के सहज स्वच्छ विलासके अनुभव के लिये अविकार सहज ज्ञानस्वभाव की प्रात्मरूपमें उपासना करना ।। ३८ ॥
अब अविद्यमान पर्यायोंकी इसी ज्ञान प्रत्यक्षताको दृढ़ करते हैं--- [यदि वा] यदि
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवन्न मार:
अर्पतदेवासद्भूतानां ज्ञानप्रत्यक्षत्वं दृष्यति---
जदि पनवखमजायं पजायं पलयं च गागास्स । गा हदि वा तं गागां दिव्वं ति हि के परवेति ॥३६॥ यदि प्रजात प्रलयित पनि प्रत्यक्ष ज्ञानमें नहि हो ।
तो वह ज्ञान दिव्य है, कौन रूपण करे ऐसा ॥३६॥ दि प्रत्यक्षो जात: पर्यायः प्रलयतन ज्ञानय ! न न न कानमा दिव्यमिति हि के प्ररूपयन्ति !३!!
यदि खल्बसंभावितभावं संभावितभा क पा मालमप्रतिविम्भिताखण्डितप्रतापप्रमाक्तितया प्रसभेनैव नितान्त माक्रम्याक्रमसमागतम्बानस्थमात्मानं प्रतिनियतं झानं न करोति, तदा तस्य कुलगतनी दिन्यता स्यात् । ग्रन्द प्रामस्य परिच्छेदस्य सर्वमेतदुपप
नामसंज-जदि पवाय अजाय पहजार नामा दिनक जदि च ण वा लिहियदि मना ति हि । धातुसंज्ञ---जा प्रादृमांचे. व सत्तायई. व बदनाय ! प्रातिपदिक..... यत् नव हि अजात साय प्रलयित जान ज्ञान दिव्य इति हि किम् ! मुलवात-जनी प्रार्भावे, म सत्तायां प्र रूप क्रियायां । उभयपदविवरण-अदिदि च न वा ति त हि-अकारा ! चवलं प्रत्यक्ष अजायं अजात: पज्जार्य पार्याय. पलइय अलयित:-प्रथमा एक० । णाणकस बानम्ब-पष्टी ! पाणं ज्ञान-द्वि० एकदिव्वं दिय--- " एक के के-प्र० ४० । पविलि प्ररूपयन्ति-वर्तमान सिट अन्य पुरुष बहुवचन क्रिया : निरूक्ति-4. जारः अजातः समास अक्षं प्रति इति प्रत्यक्षम् ।। अजातः पर्यायः अनुत्पन्न पर्याय [च] और प्रिलयितः न पर्याय [ज्ञानस्य केवलज्ञानके प्रत्यक्षः न भवति] प्रत्यक्ष न हो तो तत् माता जानको [दिव्यं इति हि] दिव्य है
ऐसा के प्ररूपयंति कौन प्ररूपण कर सकते हैं ? MAR तात्पर्य ---दिक्ष्य केवलज्ञान में भूत भविष्यन पर्याय भी स्पष्ट ज्ञात हैं।
टीकार्थ----जिसने अस्तित्व का अनुभव नहीं किया, और जिसने अस्तित्व का अनुभव कर लिया है ऐसे अनुत्पन्न और नष्ट पाय समुहको यदि जान अपनी निविघ्न विकसित, प्रखडितः प्रतापयुक्त प्रभुशक्ति के द्वारा बनात अत्यन्त प्राक्रमित करे याने जाने तथा वे पर्यायें अपने स्वरूपसर्वस्वको प्रक्रमसे अर्पित करें अर्थात एक ही साथ ज्ञानमें ज्ञात हों, इस प्रकार शदि उन्हें अपने प्रति नियत न करे अर्थात् प्रत्यक्ष न जाने, तो उस ज्ञानकी दिव्यता किस प्रकार हो? इस कारण पराकाष्ठाको प्राप्त ज्ञान के लिये यह सब ठीक बनता है ।
प्रसङ्गविवरण.---प्रनंतर पूर्व माथामें बताया था कि प्रभुज्ञान में असद्भूत पायें भी सद्भूत हो जाते हैं। अब इस गाथामें असद्भुत पयायोको ज्ञानप्रत्यक्षताको दृढ़ किया है।
SSSS
RAKAR
Y
S
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालाया
अथेन्द्रियज्ञानस्यैव प्रलोममनुत्पन्नं च ज्ञातुमशक्यमिति वितर्कयति
अत्थं अक्खणिवदिदै ईहापुब्वेहिं जे विजागति। ' तेसिं परोक्खभूदं णादुमसक्कं ति पण्णत्तं ॥४३॥
इन्द्रियनियमित प्रयों, को ईहापूर्व जानते हैं जो।
उनके जाननमें नहि, परोक्षके अर्थ पा सकते ॥४०॥ अथमनिपतितमीहाग विजानन्ति । तेषां परोलभूतं ज्ञातुमशक्यमिति प्राप्तम् ॥४०॥
ये खलु विषयविषयिसन्निपातलक्षणमिन्द्रियार्थसन्निकर्षमधिगभ्य क्रमोपजायमानेनेहादि.)
नामसंज्ञ-यत्व अक्वणिवदिद ईहापून्त्र ज त परोक्खभूद असक्क लि पण्णत्त । धातुसंज्ञ--णि पड मतने, वि जाण अवबोधने, का अवबोधने । प्रातिपदिक-अर्थ अक्षनिपतित ईहापूर्व यत् तत् परोक्षभूत है।
तथ्यप्रकाश.... ( १ ) केवलज्ञानकी यह दिव्यता है, अलौकिकता है कि वह वर्तमानपर्याय की तरह प्रतीत अनागत पर्यायोंको भी बिना क्रमके, बिना इन्द्रिय मनके, बिना व्यवधानके साक्षात् प्रत्यक्षा करता है। (२) यदि परिपूर्ण विकसित ज्ञान त्रिलोक त्रिकालवर्ती सब पदाथों को एक साथ स्पष्ट न जाने तो वह ज्ञान ही नहीं । (३) केवली भगवान परद्रव्यपर्यायोंको जाननमात्र रूपसे जानता है । (४) केवलो भगवान तन्मयतासे तो सहजानंदमय निज शुद्धात्मा • में स्वपर्यायको जानता है। (५) ज्ञानी जन परद्रव्य गुण पर्यायवा परिज्ञान जाननमात्ररूपसे करता है । (६) ज्ञानी जन तन्मयतासे तो केवल स्व में संवेदन पर्यायको जानता है।
सिद्धान्त ----(१) प्रभु अन्तर्जेयाकारपरिणत अपने आपको जाननेसे प्रात्मज्ञ है । (२) प्रभु त्रिलोकत्रिकालगत सर्व द्रव्य पर्यायोंको जाननेसे सर्वज्ञ हैं।
दृष्टि---१-- शुद्ध निश्चयनय [४६] । २- स्वाभाविक उपचरित स्वभावव्यवहार
8888888888
ission
प्रयोग---ज्ञानको सहज विकसित कलाको अनुभवनेके लिये ज्ञानके सहज स्वभावको आत्मस्वरूपमें अनुभवना ।। ३६ ॥
___ अब नष्ट और अनुत्पन्नको जानना अशक्य इन्द्रियज्ञानयो हो है, यह वितकित करते हैं अर्थात् युक्तिपूर्वक निश्चित करते हैं--- [ये] जो [अक्षनिपतितं] इन्द्रियगोचर [अर्थ] पदार्थ को [ईहापूर्वेः] ईहादिक द्वारा [विजानन्ति] जानते हैं, [तेषां] उनके लिये परोक्षभूतं] परोक्षभूत पदार्थको [ज्ञातु] जानना [अशक्यं] अशक्य है [इति प्रज्ञप्तं] ऐसा सर्वजदेवने कहा है।
तात्पर्य-इन्द्रियज्ञान ही भूत भविष्यत् पर्यायोंको नहीं जान सकता।
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
६६
प्रक्रमेण परिचिछन्दन्ति ते किलातिवाहितस्वास्तित्वकाल मनुपस्थितस्वास्तित्वकालं वा यथो दितलक्षणस्य ग्राह्यग्राहकसंबन्धस्यासंभवतः परिच्छेत्तुं न शक्नुवन्ति ॥ ४० ॥
प्रवचनसारा
अदाक्य इति प्रज्ञप्तः । मूलधातुनि पत पवने, विना अवबोधने जप साने ज्ञापनेन । उपपदविवरण अत्य अर्थ अपणिवदिदं अदनिपतित- द्वितीया एक हायेहि तृतीया । जेथे बहु० 1 विजाति विजानन्ति वलंगान अन्य पुरुष बहुवचन । सितेपः पष्ठी बहु । परोबसभूदं परोक्षभूत- द्वि० एक० पादं ज्ञातुं अवश्य कुदन्त हेत्वर्थे । अस अपश्यं प्रथमा एकवचन । ति इतिअव्यय । पुष्णसं प्रज्ञप्तं प्र० एक० दन्त किया। निरुक्त ईहा (न गवयं अक्षम । समास -- ईहा
पूर्व येषा ते तैः ।। ४० ।।
टोकार्थ - विषय और विषयका लक्षण है जिसका ऐसे इन्द्रिय और पदार्थके सत्रिको प्राप्त करके, जो क्रमसे उत्पन्न ईहादिकके प्रक्रमसे जानते हैं जिनका अस्तित्व बीत गया है, तथा जिनका अस्तित्व काल उपस्थित नहीं हुआ है उन्हें नही जान सकते, क्योंकि प्रतीत प्रनागत पदार्थ और इन्द्रियके विषयविषयिसन्निपात लक्षस वाले ग्राह्यग्राहकसम्बन्धकी प्रसंभवता हैं।
प्रसंगविवरण -- प्रनंतरपूर्व गाथामें बताया गया था कि प्रभु ज्ञानमें प्रतीत प्रनागत रूप सद्भूत पर्यायें भी प्रत्यक्ष हैं । अब इस गाथामें बताया गया है कि इन्द्रियज्ञान ही प्रतीत अनागतको जाननेके लिये अशक्त है ।
तथ्यप्रकाश ---- ( १ ) इन्द्रियज्ञान अतीत, प्रनागत, अमूर्त सूक्ष्म
पदार्थो को नहीं जान सकता, क्योंकि इन्द्रियोंका उन पदार्थों के साथ सम्बन्ध व समक्षपना नहीं हो सकता । (२) इन्द्रियां मूर्तको व मूर्त में भी स्थूलको व स्थूल में भी सन्निधिको व उन्हें भी कमसे विषय कर पाती हैं, अतः इन्द्रियज्ञानसे सर्वज्ञ होना असंभव है । (३) रागादिविकल्परहित स्वसंवेदनज्ञान हो सर्वज्ञताको निप्पत्तिका कारण है । ( ४ ) जो पुरुष इन्द्रियसुखों में, सानोभूत इन्द्रियज्ञानमें नाना मनोरण त्रिकल्परूप मानसिक ज्ञानमें ग्रासक्ति करते वे सर्वज्ञपद प्राप्त नही कर सकते । ( ३ ) इन्द्रियजज्ञान होन ज्ञान है और हेय है।
सिद्धान्त - ( १ ) इन्द्रियज ज्ञान औपाधिक व विकृत ज्ञान है ।
दृष्टि१ विभावगुणञ्जनपर्यायदृष्टि [२१३] +
प्रयोग इन्द्रियसुखको व इन्द्रियसुखसाधनीभूत इन्द्रियज्ञानको सकलङ्क हीन व हेय जानकर उससे उपेक्षा कर निष्कलङ्क, उच्च व उपादेय अतीन्द्रिय आनंद व प्रतीन्द्रिय जानकी निष्पत्ति के लिये प्रतीन्द्रिय सहजानंदमय सहजजानस्वभावको आराधना करना ।। ४० ।।
अतीन्द्रिये ज्ञानके लिये जो जो कहा जाता है वह वह संभव है, यह भले प्रकार
*
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
७०
सहजानंदशास्त्रमालायां अथातीन्द्रियज्ञानस्य तु यद्यदुच्यते तत्तत्भवतीति संभावयति----
अपदेसं सपदेस मुत्तममुत्तं च पज्जयमजादं । पलयं गयं च जाणदि तं गागामदिदियं भणियं ॥४१॥ कायिक प्रकाय भूतिक, अमूर्त सात् भावि नष्ट पर्यायें ।
सबको हि जानता जो. शान अतीन्द्रिय कहा उसको ॥४१॥ अप्रदेशं सप्रदेश मुर्तममूर्त च पर्वयमजातम् । प्रलयं गतं च जानाति तज्ज्ञानमतीन्द्रियं भोणतम् ॥ ४१॥
इन्द्रियज्ञानं नाम उपदेशान्तःकरणेन्द्रियादीनि विरूपकात्वेनोपलब्धिसंस्कारादोन अंतरङ्गस्वरूपकारणत्वेनोपादाय प्रवर्तते । प्रवर्तमानं च सप्रनेश मेवाध्यवस्यति स्थूलोपलम्भकत्वानाप्रदेशम् । मूर्तमेवावगच्छति तथाविधविषयनिबन्धनसद्भावान्नामूर्तम् । वर्तमानमेव परिच्छि
नामसंक-..अपदेस सपदेश सुत अमुल च पजप अजाद पलय गय तणाण अदिदिय भणिय । धातसंज्ञ---जाण अवबोधने, भण कथने । प्रातिपदिक-अप्रदेश प्रदेश मूर्त अमुतं च पर्यय अजात प्रलय गत हुवाते हैं, स्पष्ट करते हैं-[प्रप्रदेशं] जो ज्ञान प्रदेशको सप्रदेशं] सप्रदेशको [भूत] मुर्तको [अमूर्त च] और अमूर्तको तथा [अजातं] अनुत्पन्न पर्यायको [च] और [प्रलयंगतं] नष्ट [पर्याय ] पर्यायको [जानाति जानता है [तत् ज्ञान] वह ज्ञान [अतीन्द्रियं] अतीन्द्रिय [भरिपतम्] कहा गया है।
तात्पर्य----प्रतीन्द्रिय केवलज्ञान एकप्रदेशी बहुप्रदेशो मूर्तिक अमूर्त भूत भविष्यत् सबको जानना है।
टीकार्थ---इन्द्रियज्ञान उपदेश, अन्तःकरण और इन्द्रिय इत्यादिको भिन्न व बाह्य कारणतासे और लब्धि, संस्कार इत्यादिको अन्तरङ्ग स्वरूप कारतासे ग्रहण करके प्रवृत्त होता है; और वह प्रवृत्त होता हुया सप्रदेशको ही जानता है, स्थूल को जानने वाला होनेसे अप्रदेशको नहीं जानता, वह मूर्तको ही जानता है, मूर्तिक विषयके साथ उसका सम्बन्ध होनेसे वह अमूर्तको नहीं जानता, वह वर्तमानको ही जानता है, विषय-विषयोके सन्निपातका सद्भाव होनेसे वह प्रवर्तित हो चुकने वाले को और भविष्य में प्रवृत्त होने वालेको नहीं जानता । परन्तु जो अनावरण अनिन्द्रिय ज्ञान है, उसके अपने अप्रदेश, सप्रदेश, मूर्त और अमूर्त (सर्व पदार्थ) तथा अनुत्पन्न एवं व्यतीत पर्यायसमूह, ज्ञेयताका अतिक्रमण न करनेसे यह सब ज्ञय ही है, जैसे प्रज्वलित अग्नि के अनेक प्रकारका ईधन, दाह्यताका अतिक्रमण न करनेसे दाह्य हो है ।
प्रसङ्गविवरण-अनंतरपूर्व गाथामें इन्द्रियजज्ञान की हीनताका चित्रण किया गया था । अब इस गाथामें अतीन्द्रिय ज्ञानकी उदात्तताका वर्णन किया गया है ।
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार:
७१
ARRESPREE
क
नत्ति विषयविषयिसन्निपातसद्भावान्न तु वृत्तं वय॑च्च । यत्तु पुनरनावरणमनिन्द्रियं ज्ञानं तस्य समिधूमध्वलस्येवानेकप्रकारतालिङ्गितं दाह्य दाह्यतानतिक्रमाबाह्यमेव यथा तथात्मनः अप्रदेश सप्रदेश मूर्तममूर्तमजातमतिवाहितं च पर्यायजातं ज्ञेयतानतिक्रमात्परिच्छेद्यमेव भवतीति ।।४।। तत् शान अतीन्द्रिय भणित । मूलधातु--शा अश्योधन, मण शब्दार्थः । उभयपदविवरण-अपदस अप्रदेश सपदेस संप्रदेश मुत्तं भूत अमुत्तं अमुर्त पज्मयं पर्याय अजादं अजाल पलयं प्रलयं गयं गत-द्वितीयो एक० । जाणादि जानाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक.० किया । सं तत् णाणं ज्ञान अदिदियं अतीन्द्रियं-प्र० एका । मणिय भणित-प्र० एक० कृदन्त किया। निरुक्ति-प्रकण लयनं प्रलयः तं । समास-न प्रदेश: यत्र स अप्रदेश बहुप्रदेश इत्यर्थः, इन्द्रियं अतिक्रान्तम् अतीन्द्रियं ।। ४१ ।।
तथ्यप्रकाश---(१) इन्द्रियज्ञान उपदेश, मन, इन्द्रियोंको कारणरूप इत्यादि बाह्य अर्थ का प्राश्रय पाकर होता है अतः वह पराधीन है । (२) इन्द्रियज्ञान तत्तदिन्द्रियज्ञानावरण का योपशम, संस्कार प्रादिको नारणरूपसे उपादान करके प्रवृत्त होता है अतः वह अतिसीमित है। (३.) इन्द्रियज्ञान प्रति स्थूलका ग्रहण करने वाला है, प्रतः अनन्तप्रदेशी स्कन्ध को ही जान सकता है, अप्रदेशको नहीं । (४) इन्द्रियज्ञान मूर्त पदार्थ को ही विषय करके जान सकता है, अतः वह मूर्तको हो जान सकता है अमूर्तको नहीं ! (५) इन्द्रियज्ञान विषय विषयी की समक्षता में ही जान सकता है, अतः वह वर्तमानको ही जान सकता है । (६) अतीन्द्रियज्ञान किसी भी परपदार्थ के कारण विना हो होता है अत: वह स्वाधीन है। (७) अतीन्द्रिय ज्ञान क्षायिक, निरावरण होनेसे वह पूर्ण विकसित ज्ञान है। (८) अतीन्द्रिय ज्ञान सर्वका परिचटोदक होनेसे वह स्थूलको भी जानता, सूक्ष्मको भी जानता, सप्रवेशको भी जानता, अप्र. देशको भी जानता । (E) अतीन्द्रियज्ञान सर्व सत्का जानने वाला होनेसे वह मूर्त पदार्थको भी चालताः अमतको भी जानता । (१०) अतीन्द्रिय ज्ञान समंवत प्रदेशोसे जानता, इसके लिये सर्व भूत वर्तमान भविष्य ज्ञेयताका उल्लंघन न करनेसे समक्ष है, अतः वह ज्ञान भूत भविष्य वर्तमात सबको जानता है । (११) अतीन्द्रिय ज्ञान निष्कलंक, परमोत्कृष्ट व उपादेय है ।
सिद्धान्त---(१) परमात्मा निरावरण अतीन्द्रिय ज्ञान द्वारा स्वाधीनतया सर्व ज़योंको जानता रहता है।
दृष्टि-१- स्वभावनय (१७६) ।
प्रयोग----स्वाभाविक ज्ञानपरिणमन के अविनाभावी सहग अानंदको उपलब्धिके लिये सहज ज्ञानस्वभावको प्रात्मरूपसे उपासित करना ॥४१॥
अब जय पदार्थरूप परिणमन जिसका लक्षण है ऐसी झंयार्थपरिणाम नस्वरूप क्रिया शानमें से नहीं होती यह श्रद्धान करते हैं, ऐसी श्रद्धा व्यक्त करते हैं ..... [ज्ञाता] ज्ञाता [यदि]
SEAR
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां
ॐॐ888
अथ ज्ञेयार्थपरिगमनलक्षणा क्रिया ज्ञानान्न भवतीति श्रद्दधाति---
परिणमदि णेयम णादा जदि णेव खाइगं तस्स । णाणं ति तं जिणिंदा खवयंत कम्ममेवुत्ता ॥ ४२ ॥
ज्ञेयार्थों रूप यदि, जो परिणम जाय कोइ ज्ञाता।
उसका ज्ञान न क्षायिक, कर्मक्षपक जिन कहें ऐसा ॥४२॥ परिणमति ज्ञेयमर्थ ज्ञाता यदि नव क्षायिक तस्य । ज्ञानमिति तं जिनेन्द्राः क्षपयन्तं कर्मैयोक्तवन्तः ।। ४२ ।।
परिच्छेत्ता हि यत्परिच्छेद्यमय परिणमति तन्न तस्य सकल कर्मकक्षक्षयप्रवृत्तस्वाभा
नामसंज-–ोय अटु णादार जदि ण एव खाइग त णाण ति त जिणिद खवयंत कम्म एच उत्त। धातुसंज्ञ-परि णम प्रहत्ये, वच्च, व्यक्तायो वाचि । प्रातिपदिक---जेय अर्थ ज्ञातृ यदि न एव क्षायिक तत् ज्ञान इति तत् जिनेन्द्र क्षपयत् कर्म एव उक्तवत् । मूलधातु-परि णम प्रहत्वे, वच परिभाषो । उभयपदविवरण-गेयं ज्ञेयं अट्ठ अर्थ-द्वितीया एक० । परिणमदि परिणति-वर्तमान अन्य एक त्रिया। मादा ज्ञाता-म० एक० । जदि यदि ण न एव ति इति-अव्यय । खाइगं क्षायिक-प्रथमा एकवचन । तरस तस्ययदि [ज्ञेयं अथ] ज्ञेय पदार्थरूप परिणमति] परिणमित होता है तो [तस्य] उसके [क्षायिक ज्ञान] क्षायिक ज्ञान [न एव इति ] होता ही नहीं; इस प्रकार [जिनेन्द्राः] जिनेन्द्रदेवोंने [तं] उसे [कर्म एव] कर्मको ही [क्षपयन्त] अनुभव करने वाला [उक्तवन्तः] कहा है ।
तात्पर्य-~-ज्ञय पदार्थरूप परिणमने वाले जीवको क्षायिक ज्ञान नहीं होता, वह तो बन्ध करने भोगने वाला होता है ।
टोकार्थ-यदि ज्ञाता ज्ञेय पदार्थरूप परिणमित होता हो, तो उसे सकल कर्मकक्षके क्षयसे प्रवर्तमान स्वाभाविक जानपनका कारमाभूत क्षायिक झान नहीं है अथवा उसे ज्ञान ही नहीं है, क्योंकि व्यक्तिश: प्रति पदार्थ पदार्थकी परिणत्तिके द्वारसे मृगतृष्णामें जलसमहकी कल्पना करनेको भावना वाला वह प्रात्मा अत्यन्त दुःसह कर्मभारको ही भोगता हुना है ऐसा जिनेन्द्रदेवोंके द्वारा कहा गया है ।
असंगविवरण---अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि प्रतीन्द्रिय ज्ञानके सारे ही सब प्रकारके पदार्थ जय हैं । अब इस गाथामें कहा गया है कि ज्ञ यार्थपरिणमनरूप क्रिया ज्ञान से नहीं होती।
तथ्यप्रकाश-(१) बन्धका कारण राग द्वेष मोह है, ज्ञान नहीं। (२) यह लाल है यह हरा है इत्यादि विकल्परूपसे श यार्थके अनुरूप परिणमन है तो वह क्षायिक शान नहीं है । (३) झे यार्थपरिणमनरूप क्रिया तीन रूपोंमें परखी जाती है.---- १- दर्शनमोहसंबंधित, २- दर्शन मोहरहितचारित्रमोहसम्बन्धित, ३- वीतराग क्षायोपशमिक ज्ञान सम्बन्धित । (४)
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
RANAMA
ENGA
प्रवचनसार:
.
.
.
m yam
विपरिच्छेदनिदानमथका ज्ञान मेव नास्ति तस्य । यतः प्रत्यर्थपरिणतिद्वारेण मृगतृष्णाम्भोभारसंभावनाकरणमानसः सुदुःसह कर्मभारमेवोषभुलानः स जिनेन्द्ररुद्गीतः ॥४२॥
षष्ठी एक० । पाणं ज्ञान-प्र. जिणिन्द्रा जिनन्द्राः-१० वहु० । खययन क्षपयंत काम कर्म-द्वि० 0 | - उत्ता उक्तवन्त:-प्रथमा बहुवचन वृदन्त क्रिया । निरुक्ति ज्ञातु योग्यं ज्ञेयं, अपने इनि अर्थः, जानानि इति ज्ञाता, क्षय भवं क्षायिनं । समारा-जिनानां इन्द्राः जिनेन्द्राः ।। २।। प्रात्मरूपसे अङ्गीकृत ज्ञयाकारके अनुरूप इष्टानिष्टादिविकल्पभावपरिगति दर्शनमोहसम्वन्धिल जयार्थपरिणमनरूप क्रिया है। (५) प्रात्मरूपसे अंगीकृत न होने पर भी ज्ञयाकारके अनुरूप हर्ष विषादादि विकल्पभाव परियाति दर्शनमोहरहित चारित्रमोहसंबंधित झयार्थपरिणमन रूप किया है । (६) वीतराम छमस्थ श्रमणोंके क्षायोपशमिक ज्ञानमें ज्ञानावरण देशघातिस्पर्द्धकाविपाकवश होने वाली अस्थिरता वीतराग क्षायोपशामिक ज्ञान सम्बन्धित ज्ञयार्थपरिमामनरूप किया है । (७) ज्ञयार्थ परिणमन कर्मका अनुभवन है ज्ञानका नहीं। (८) यदि ज्ञान प्रत्येक अर्थरूप परिणाम कर जाया करे तो सर्व पदार्थ का परिज्ञान सम्भव ही नहीं हो सकता । (8) बाह्य ज्ञेय पदार्थोंके चिन्तनके समय में समादिविकल्परहित स्वसंवेदन ज्ञान नहीं होनेसे वह चित्तनरूप ज्ञान परमार्थतः ज्ञान हो नहीं है । (१०) निविकार सहज आनंदमय वर्तते हुए सहज जानन होना परमार्थतः ज्ञान है । (११) ज्ञेय पदार्थोको अपनाना ज्ञानका स्वरूप नहीं । (२) जय पदार्थों में रुकता जानका स्वरूप नही । (१३) जयके सम्मुख उपयोगवृत्ति होना || ज्ञानका स्वरूप नहीं। (१४) जैसे ज्ञध है उस प्रकार जाननमात्र उपयोगधुत्ति होना ज्ञानका स्वभाव है।
सिद्धान्त---(१) ज्ञयार्थपरिणमन लक्षणा क्रिया ज्ञान दौर्बल्य अन्य परिणति है । (२) अनेक ज्ञयाकारोंसे करमिजत होने पर भी ज्ञान मात्र जाननस्वरूप एक है ।
दृष्टि-------- विभावगुणन्य जनपया दृष्टि [२१३] । २- ज्ञानज्ञ यातनय 1१७५] ।
प्रयोग--ज्ञेयके अनुरूप हर्षादि विकल्प न बनाकर सहज विश्राममें रहकर जो सहज जानन हो सो ही होनो ऐसा परमविश्रामका पौरुष करना ।। ४२ ॥ स यदि ऐसा है तो फिर ज्ञेय पदार्थरूप परिणमन जिसका लक्षण है ऐसो ज्ञ यार्थपरिममनस्वरूप किया और उसका फल किस कारणासे उत्पन्न होता है, यह विवेचन करते हैं(उबयगताः कर्मांशाः] उदयप्राप्त कर्माश [नियत्या] नियमसे. [जिनयरवृषभः] जिनवर अ वृषभोके द्वारा [भरिणताः] कहे गये हैं। [तेषु] उन कर्भाशोंके होनेपर, [विमूढः रक्तः दुष्टः या जीव मोही, रागो अथवा द्वेषी होता हुअा [बन्धं अनुभवति]. बन्धका अनुभव करता
RECE
H
omedelewrituttaweetentindiawwwAMMewwwo
u
TM
..
HMIRALASA.lia1452-.-..........
FILI..............
.........
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां
अथ कुलस्त ज्ञेयार्थ परिमनलक्षरणा क्रिया तत्फलं च भवतीति विवेचयति उदयगदा कम्मंसा जिवरवसहेहि तेसु विमूढो रत्तो ढुट्टो वा बंधम
संसारी जीवोंके, उदयागत कर्म हैं कहे जिनने ।
७४
यदिणा भणिया । भवदि ॥ ४३ ॥
उनमें मोही राम, द्वेषी हो बन्ध अनुभवते ॥४३॥
उदयगताः कर्माचा जिना वृषभैः नियत्या भणिताः । तेषु विमूढो रक्तों दुष्टों वा बन्धमनुभवति ।। ४३ ।। संसारिणां हि नियमेन तावदुदयगताः पुद्गलकर्माशाः सन्त्येव । अथ स सत्सु तेषु
नामसंज्ञ उदयगद कम्मंस जिणवरवसह णिर्याद भणिय त विमूढ रत छुट्टु वा बंध धातुसंज्ञअनुभव सत्तायां मुज्भः मूर्च्छायां रज्ज रागे. दुस वैकृत्ये अप्रीती । प्रातिपदिक उदयगत कर्माश जिनवर वृषभ नियत भणित तत् विमुढ रक्त दुष्ट वा बन्ध । मूलधातु - अनु सत्तायां, मुह वैचित्ये, रंज रागेभ्वादि दिवादि, द्विप अप्रीती अदादि वा दुवैकृत्ये दिवादि । उभयपदविवरण -- उदयनदा उदयगताः कम्मंसा कर्माशाः - प्रथमा बहु० । जिणवरसहेहि जिनवरवृषभैः तृतीया बहू । णिर्यादिणा नियत्यातात्पर्य – कर्मके उदयका निमित्त पाकर जीव गोड़ी रागी द्वेषी होता है व ग्रागामी कर्मबन्ध भी करता है ।
टोकार्थ-संसारी जीव के नियमसे उदयगत पुद्गल कर्माश होते ही हैं । और वह संसारी जोव उन उदयगत कर्माशोंके उदित होनेपर संचेतन करता हुग्रा मोह राग द्वेषमें परितपना होनेसे ज्ञयार्थपरिणमनरूप क्रिया के साथ युक्त होता है और इसीलिये क्रिवाके फलभूत बन्धको प्रनुभवता है। इस कारण यह सिद्ध हुआ कि गोहके उदयसे ही क्रिया और क्रियाफल होता है, ज्ञानसे नहीं ।
प्रसंगविवरण - प्रनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि यदि ज्ञाता ज्ञेयार्थरूप परिसमता है याने यदि ज्ञाता के ज्ञयार्थपरिणमनलक्षण क्रिया है तो उसके स्वाभाविक ज्ञान है ही नहीं । अब इस गाथायें बताया गया है वह ज्ञयार्थपरिणमनलक्षण क्रिया क्यों होती है ? तथ्यप्रकाश - ( १ ) य पदार्थों के परिणमनके अनुरूप अपना परिणमन करना ज्ञेयार्थ परिणमन है । ( २ ) अज्ञानियोंका अन्तर्ज्ञेयार्थ मोहकलुषित श्राश्रयभूतनोकर्मानुरूप जोयाकार है । (३) जीव मोहपरिगत होनेसे ज्ञेयार्थपरिणमनक्रिया के साथ युक्त होता है । ( ४ ) ज्ञेयापरिणमन क्रिया ज्ञानके कारण नहीं होती है । (५) ज्ञेयार्थपरिणमन क्रिया मोहभावके कारण होती है । (६) मोहभाव मोहकर्मके उदयका निमित्त पाकर होता है । ( ७ ) क्रमोंके उदयसे कर्मोका बन्ध नहीं है । (८) कर्मोदयन देहादिकी क्रियावोरी भी कर्मोका बन्ध नहीं है । (६) ज्ञयार्थपरिणमनक्रिया के निमित्तसे कर्मोका बन्ध हैं । (१०) मोहनीय कर्मका उदय
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
MARATORSTERS
प्रवचनसारः
७५
momwwwwwwwwwwwwwww
EEEEEEEET
संचेतयमानो मोहरामद्वेषपरिणतत्वात् ज्ञयार्थपरिणामान लक्षणया क्रियया युज्यते । तत एव च क्रियाफलभूतं बन्ध मनुभवति । प्रतो मोहोदयात क्रियाक्रियाफले न तु ज्ञानात् ॥४३॥ Hए । भणिदा भगिता:-प्र० बहु० बदन्त क्रिया । तेसु ता-स० वतुः । विमुढो विमूद: रत्तो रक्तः इट्रों दुष्ट:-प्रथमा एकवचन । बंध बन्ध-वि० एक० । अगुभवादि अनुभवति-वर्तमान अत्यः एक क्रिया । निरुक्ति--जयतीति जिनः, बंधनं बंधः । समास-उदय गताः उदय गता जनेषु धरा तेषु वृषभाः तैः ।।४।। रूप परिसमन उन्हीं मोहनीय कर्म प्रकृतियोंमें होता है। (११) मोहनकृतिक उदय में विकृत प्रकृतिमुद्रा उपयोगमें प्रतिफलित होतो है । (१२) संसारी जीव उस प्रतिफलित प्रकृतिमुद्राको अपनी वर्तमान योग्यतानुसार यात्मसात् करता है । (५३) प्रकृति मुद्राको आत्मसात् करते ही जयार्थपरिणमन क्रिया हो जाती है। (१४) वीतराग छद्मस्थोंका शतिपरिवर्तनरूप ज्ञयार्थपरिणमन पूर्व भूत ज्ञानको अस्थिरताके संस्कारवश होता है । (१५) रागद्वेष मोहभाव नैमित्तिक हैं, प्रकृतिविपाकके प्रतिफलन हैं, आकुलतामय हैं, पराश्रयज है, अतः हेय हैं।
सिद्धान्त-(१) उदयगत कर्माशों में मोही रागो द्वेषो जोव बन्धको अनुभवता है। दृष्टि-१- उपाधिसापेक्ष प्रशुद्ध द्रव्याथिकनय [२४] ।
प्रयोग–बंधका कारण कांदिय नहीं, देहादि क्रिया नहीं, किन्तु मोह राग द्वेष भाव है ऐसा जानकर नैमित्तिक विकार भावोंसे उपयोग हटाकर अविकारस्वभावी स्वकीय अन्तस्तत्वमें उपयोग लगाना व रखना ॥४३॥ । अब केवली भगवानके क्रिपा भी क्रियाफलको अर्थात् बन्धको उत्पन्न नहीं करती यह उपदेश करते हैं--[तेषाम् अर्हता] उन अरहन्त भगवन्तोंके [काले] उस समय [स्थाननिषयाविहाराः खड़े रहना, बैठना, विहार होना धर्मोपदेशः च और धर्मोपदेश होना [स्त्रीरण मायाचारः इव] स्त्रियोंके मायाचारको तरह [नियतयः] प्राकृतिक ही याने प्रयत्न बिना ही होता है।
तात्पर्य ----अरहंत प्रभुकी बिहार उपदेश ग्रादि क्रिया रागपूर्वक नहीं, किन्तु प्राकृतिक होती है।
टोकार्थ-वास्तवमें जैसे स्त्रियोंके, प्रयत्नके बिना भी, उस प्रकारको योग्यताका सद्भाव होनेसे स्वभावभूत ही मायाके ढक्कनसे ढका हुमा व्यवहार प्रवर्तता है, उसी प्रकार * फेवली भगवानके, प्रयत्न के बिना हो उस प्रकारकी योग्यताका सद्भाव होनेसे खड़े रहना, की बैठना, विहार होना और धर्मदेशना स्वभावभूत ही प्रवर्तते हैं । और यह सब बादलके दृष्टांत
से अविरुद्ध है। जैसे बादलके प्राकाररूप परिणमित पुद्गलोंका चलना, ठहरना, गरजना और EAR पानी बरसना ये सब पुरुषप्रयत्न के बिना भी देखे जाते हैं, उसी प्रकार केवली भगवानके
3888888888
4000
Magarat
Siwww
SAREE
Rash
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
६७६
सहजानन्दशास्त्रमालायां
प्रथ केवलिनां क्रियापि क्रियाफलं न साधयतीत्यनुशास्तिटासेिज्जविहारा धम्मुवदेसो य गियदयो तेसिं । अरहंताणं काले मायाचारो व्व इत्थीगां ॥ ४४ ॥ सामयिक थान आसन, विचरण धर्मोपदेश जिनवरका | स्वाभाविक सब होता, स्त्रीकी सामयिक मायावत् ॥४४॥ स्वानविषयाविहारा धर्मोपदेशश्च नियतयस्तेषाम् अर्हतां काले मायाचार इव स्त्रीणाम् ।। ४४ । यथा हि महिलानां प्रयत्नमन्तरेणापि तथाविधयोग्यतासङ्गावात् स्वभावभूत एव मा योपगुण्ठनागुण्ठितो व्यवहारः प्रवर्तते तथा हि केवलिनां प्रयत्नमन्तरेणापि तथाविधयोग्यतासद्भावात् स्थानमासनं विहरणं धर्मदेशना च स्वभावभूता एवं प्रवर्तन्ते । श्रपि चाविरुद्धमेत दम्भोधरदृष्टान्तात् । यथा खल्वम्भोवराकारपरिणतानां पुद्गलानां गमनमवस्थानं गर्जनमम्बुब च पुरुषप्रयत्नमन्तरेणापि दृश्यन्ते तथा केवलिना स्थानादयोऽबुद्धिपूर्वका एव दृश्यन्ते, प्रतोऽमी स्थानादयो मोहोदयपूर्वकत्वाभावात् क्रियाविशेषा अपि केवलिनां क्रियाफलभूतबन्धसाधनानि न भवन्ति ।। ४४ ॥
नामसंज्ञ-ठाणणिसेज्जविहार धम्मुवदेश य न अरहंत काल मायाचार व इत्यी । धातुसंज्ञ द्वा गतिनिवृत्त। प्रातिपदिक -स्थाननिषद्याविहार धर्मोपदेशच नियति तत् अर्हत् काल मायाचार व स्त्री । मूलधातु-टा गतिनिवृत्त, अहं पुजायां । उभयपदविवरण-ठाणसेज्जविद्वारा स्थाननिषद्याविहारा:प्रथमा बहुरु | धम्मुदेो धर्मोपदेशः प्र० ए० । चत्र इव - अव्यय । णिवदयो नियतयः - प्र० बहु । तसि तेषां अरहंताणं अहंतां--पष्टी बहु काले काले-सप्तमी एक० । भायाचारो मायाचारः - १० ए० । इत्थीणं स्त्रीणां पष्ठी बहु । निरुक्ति स्त्यायति गर्भः अस्यां इति स्त्री । समास - (स्थानं च निपद्मा च विहारश्चेति स्थाननिषद्याविहारा, धर्मस्य उपदेशः धर्मोपदेशः, मायायाः आचारः मायाचारः ॥४४॥
खड़े रहना इत्यादि प्रबुद्धिपूर्वक हो याने इच्छा के बिना हो देखा जाता है । इसलिये यह स्थानादिक व्यापार महोदयपूर्वक न होनेसे क्रियाविशेष होनेपर भी केवल भगवान के क्रियाफलभूत बन्धके साधन नहीं होते ।
प्रसंग विवरण -- अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि ज्ञयार्थपरिणमनलक्षणा क्रिया व बन्धरूप क्रियाफल मोहादिभाव से होता है । अब इस गाथामें बताया गया है कि केवली भगवानकी क्रिया प्रयत्न बिना होनेसे क्रियाफलको अर्थात् बन्धको नहीं करती ।
तथ्यप्रकाश -- ( १ ) केवली भगवानके खड़ा होना, बैठना, बिहार करना, ठहरना ये harastraम्बन्धित क्रियायें प्रघातिया कर्मके उदयसे सहज ही होती हैं । (२) केवली प्रभुकी दिव्यध्वनि द्वारा धर्मोपदेशरूप वचनयोगको क्रिया भी अघातिया कर्मके उदयसे सहज होती
wwwwwwww
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
७
प्रवचनसारः
KARNALI
S
TRISAASAANCE
m
msmarat
अधैव सति तीर्थकृतां पुण्यविपाकोऽकिचित्कर एवेत्यवधारयति ----
पुण्याफला अरहंता तेसिं किरिया पुणहो हि अोदया। मोहादीहिं विरहिया तम्हा सा खाइग ति मदा ॥४५॥ ____ अर्हन्त पुण्यफल हैं, यद्यपि उनकी क्रिया हि औधिको ।
तो भी मोहादिरहित, अतः उसे क्षायिकी मानी ।। ४५ ।।। गुण्यफलाः अहन्तस्तेदां श्रिया पूनहि औदयिकी । मोहादिभिः विरहिता दम्मा ग शामिकीत मला ।।४५
अर्हन्तः खलु सवालसम्यकपरिपक्वपुण्यकल्पवाद प्रफला एवं भवन्ति । किया तु तेषां या A काचन मा सर्वाधि तदुदयानुभावसंभावितात्मभूतितया किलोदयिकोव । अथवभूतापि सा
नामसंज्ञ-पुण्णफाल अरहंत त किरिया 'पुणो हि ओवश्य मोहादि विरहिय त न खाइग ति भदा । पासुसज्ञः-रह त्यागे, क्खि' क्षये । प्रातिपदिक -- 'पुगयफान अहंत तत् कि पुलम् हि औदायिकी मोहादि थिहै। (३) प्रभुकी कोई भी क्रिया इच्छापूर्वक्र नहीं होती, क्योंकि प्रभुक मुक्ष्मसे सूक्ष्म भी इच्छादि मोहनीय भावोंका प्रभाव है । (४) प्रयत्न बिना प्राकृतिक होने वाली केवली भगवानकी क्रिया बन्धका कारण नहीं होती। (५) बन्धका कारण मात्र राग द्वेष मोह भाव है 1 (६) जैसे मेघाकारपरिणत पुद्गलोंका गमन व अवस्थान पुरुषप्रयत्न बिना होता है ऐसे ही केवली भगवानका विहार व अवस्थान इच्छाके बिना व प्रयत्न के बिना होता है । (७) जैसे मेघाकार परिणत पुद्गलोंका संयोग वियोगज गर्जन पुरुषप्रयत्न चिना सर्वाङ्गत: होता है ऐसे ही केवली भगवान की बचनयोगज व भव्यभाग्योदयज दिव्यध्वनि इच्छा के बिना अबुद्धिपूर्वक सर्वाङ्गतः होती है। (८) मोहनीयकर्मका क्षय होनेपर शेष तीन घाति के मौका क्षय होनेपर केवली प्रभु होता है सो प्रभुके इच्छा रचमात्र नहीं है । (5) इच्छारहित केवली भगवान की क्रिया वन्ध का कारण नहीं बन सकती ।।
सिद्धान्त--(१) उपाधिक प्रभावमें द्रव्य का शुद्ध परिणमन होता है। दृष्टि----१-- उपाध्यभावापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनर [२४] ।
प्रयोग-समस्त बन्धनों का मूल कारण इच्छा है ऐसा जानकर इन्छारहित ज्ञानमात्र अन्तस्तत्वमें उपयुक्त होना ।। ४४ ।।
अब ऐसा होनेपर तीर्थंकरोंके पुण्यको विपाक अकिंचिकर ही है, यह निश्चित करते है-[महन्तः] अरहंत भगबान [पुण्यफला:] पुण्यफल वाले हैं [पुनः हि] और [तेषां क्रिया] उनको क्रिया [ौयिकी] प्रोदयको होनेपर भी [मोहादिभि: विरहिता] मोहादिसे रहित है [तस्मात] इसलिये [सा] वह [क्षायिको] क्षायिकी [इति मता] मानी गई है।
i
rintiminishimARRIDuradnyaanimamminner
MIMIM E000000000WARKES BowwwXXSE iwwwWOR
।
888
BESE
REAS
...............
...
.
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानंदशास्त्रमालायां
समस्तमहामोहमूर्धाभिषिक्तरकन्धाबारस्यात्यन्तक्षये संभूतत्वान्मोहरागद्वेषरूपाणामुपरचकानामभावाच्चतन्यविकारकारगतामनासादयन्ती नित्यमौदयिको कार्यभूतस्य बन्धस्याकारणभूततया कार्यभूतस्य मोक्षस्य कारणभूततया च क्षायिक्येव कथं हि नाम नानुमन्येत । अथानुमन्येत चेत्तहिं कर्मविपाकोऽपि न तेषां स्वभावविधाताय ।। ५ ।। रहिता तत् तत् क्षायिकी इति मता । मूलधानु... रह त्यागे, क्षि शये । उभयपदविवरण पूष्णकला पुण्य. फला: अरहका अहन्तः-१० बहु । तेलि तेषां-ठी बहः । किरिया त्रिया ओदश्या औदायको-प्र० ए०। पुणो पुन:हि ति इति-अव्यय । मोहादीहि मोहादिभिः-तृतीया बहु । बिरहिया विरहिता सा सा खाइग क्षायिकी-प्रथमा एक तम्हा तस्माल-पंचमी एक० । मद्रा भता--प्रथमा एक कदन्त त्रि अर्हन्तीनि अहंन्तः, मोहन मोहः, क्षये भवा क्षायिकी | समास --(मोहः आद्रियेषां ते मोहादयः सः ।।४।।
तात्पर्य—अरहंत भगवान के प्रघातिकर्मोदयज हुई क्रियायें बन्धका कारण नहीं और वे कर्म निष्फल नष्ट हो जाते हैं।
टीकार्थ-.-अरहन्त भगवान वास्तव में पुण्यरूपी कल्पवृक्षक समस्त फल भले प्रकार परिपक्व हुए हैं जिनके ऐसे ही हैं, सो उनको जो भी क्रिया है वह सब उस पुण्यके उदयके प्रभावसे उत्पन्न होनेके कारण प्रौदयिकी ही है। किन्तु ऐसी होनेपर भी वह सदा प्रौदग्रिकी क्रिया महामोह राजाको समस्त सेनाके सर्वथा क्षय होनेपर उत्पन्न हुई है इस कारण मोहरागद्वेषरूपी उपरंजकोंका अभाव होनेसे चैतन्यके विकारके कारणपनेको नहीं प्राप्त होती हुई कार्यभत बन्धकी अकारणमततासे और कार्यभत मोक्षको कारणभूततासे क्षायिकी ही क्यों न माननी चाहिये ? और जब क्षायिको ही मानी जावे तब कर्मविपाक भी उन अरहन्तोंके स्व. भावविधात के लिये नहीं होता।
प्रसङ्गविवरण----अनंतर पूर्व गाथामें बताया गया था कि केवली प्रभुको विहारादि क्रिया क्रियाफलको नहीं साधती हैं अर्थात् बन्धका कारण नहीं बनती। अब इस गाथामें बतलाया गया है कि केवली भगवान की तरह सभी जीवोंके स्वभावविघातका प्रभाव नहीं है ।
तथ्यप्रकाश ---- (१) अरहंत भगवान पुण्यरूपी कल्पवृक्षके पुष्ट परिपक्व फल हैं । (२) अरहंत भगवानको विहारादि क्रिया अघातिया पुण्यकर्म के उदयसे होनेके कारण प्रौदयिकी है, स्वाभाविकी नहीं और विकारभावपूर्वक नहीं । (३) अरहंत भगवानकी क्रिया औदयिकी होने पर भी चूंकि वह क्रिया समस्तमोहकर्मका क्षय होनेपर हुई है अतः वहाँ उपरञ्जक मोह राग द्वेष रंच भी नहीं है । (४) जहाँ मोह राग द्वेष रंच भी नहीं है तथा विकारोंका व विकारों के निमित्तभुत कर्मप्रकृतियोंका मूलतः क्षय हो चुका है वहाँ अघातिया कर्मोदयसे क्रिया भी हो जाय तो भो क्रियाफल (बंध) नहीं है । (५) जिन अधातिया कर्मोके उदयसे वीतराग सकलपर.
.................
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
।
प्रवचनशार: प्रय केवलिनामिक सर्वेषामपि स्वभाबविधाताभावं निषेधयति----
जदि सो सुहो व असुहो गए हबदि श्रादा सयं महावेण । संसारो वि ण विजदि मवेसि जीवकायाणं ॥ ४६ ॥ ___ यदि संसारी आत्मा, शुभ अशुभ न हो स्वकीय परितिसे ।
तो संसार भी नहीं, होगा सब जीववृन्दोंके ॥ १६ ॥ - यदि स शुभो वा अमो न भवति आगा स्वयं स्वभावेन । अंगारोगि न विद्यते सबषां जीवकायानाम् ।।
यदि खल्चेकानेन शुभाशुभभावस्व मावन स्वयमात्मा न परिणामते तदा सर्वदेव सर्वथा सामसंज्ञ---जदित सुह व असुहण अन मयं सहाव संसार विण राध्य जीवकाय । धातुसंज्ञ---हव सत्तायां, विज्ज सत्तायां । प्रातिपदिक यदि तत् गा या अशुभ ग आत्मन् स्वयं स्वभाव गंमार अपि न सत्रं जोनकाय । मूलधातु-भू सत्ताया. विद शनायां विवादि । उभयपदविवरण: जदि यदि व वा पा न सयं मात्माके विहारादि क्रिया होती है वे कम अपन) अनुभाग समाप्त कर खिर जाते हैं अतः वह प्रौदयिकी क्रिया क्षायिकी ही है अर्थात् कर्मक्षय कराने वाली ही है । (६) जी क्रिया क्षायिकी हो जाय वह स्वभावविधात करने वाली कैसे मानी जा सकती है ? (७) सकलपरमात्माके समवशरणादि लक्ष्मी च सातिशय विहार दिव्यध्वनि प्रादि पुण्यपिाकसे होता है तो भी उनका वह पुण्यविपाक किञ्चित्वर (संसार फल न देने वाला) ही होता है।
सिद्धान्त... (१) सफलपरमात्मा विहारादि क्रिया वीतरागला होने के कारण क्षायिकी
MES
।
d idabandragirineshwinlsdiIIIIIm
an
दृष्टि-१- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकानय [२४] ।
प्रयोग— सर्व क्रियायोंको औयिकी निरखकर व अपने अन्तस्तत्वको अविकार तन्यस्वरूप निरखकर शातामात्र रहना ।।४।।
अब केवली भगवानकी तरह समस्त जीवोंके स्वभावविघातका अभाव होनेका निषेध करते हैं--[यदि] यदि [सः आत्मा] बह आत्मा [स्वयं] स्वयं [स्वभावेन ] अपने भावसे [शुभः या प्रशुभः] शुभ या अशुभ [न भवति ] नहीं होता सर्वेषां जीवकायानां] तो समस्त जीवनिकायोंके [संसारः अपि] संसार भी न विद्यते विद्यमान नहीं है, यह प्रसंग आता है।
तात्पर्य--वीतराग होनेसे केवली प्रभुको औयिकी क्रिया बन्धका कारण नहीं है, किन्तु रागो मोही जीवका विकार व्यापार बन्धका कारण है और बन्धफलका, सुख दुःखका अनुभव करता है।
टोकार्थ--वस्तुतः यदि एकान्तसे यह माना जाय कि शुभाशुभभावरूप अपने भावसे
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्द शास्त्रमालायां
निविधातेन शुद्धस्वभावेनैवावतिष्ठते । तथा च सर्व एवं भूतग्रामाः समस्त बन्धसाधनशून्यत्वा
दाजवंज़वाभावस्वभावतो नित्यमुक्तता प्रतिपद्येरन् । तन्त्र नापगम्यते । अात्मनः परिणाम. __.धर्मत्वेन स्फटिकस्य जपातापिच्छरागस्वभावत्ववत् शुभाशुभस्वभावल्यधोतनात् ॥४६॥
स्वयं वि आग-अव्यय । सो सः सुही शुभः असुही अशुभः आदा आत्मा संसारो संसार:-प्रथमा एक० । महावेण स्वभावेन-तृतीया एक० । सन्वेसि गवेषां जीबकायाणं जीवकायानां-पष्ठी बहु । सददि भवति बिज्जादि विद्यते वर्तमान लद अन्य पुरुष एकवचन त्रिया । निरुक्ति--शोभनं भः, संसरणं संसारः। समास.....स्थस्य भावः स्वभावः ।। ४६ ।। प्रात्मा स्वयं परिणमित नहीं होता, तो यह प्रसंग आता कि वह आत्मा सदा ही सर्वथा निविधात शुद्ध स्वभावसे ही रहता है । और इस प्रकार सभी जोक्समूह समस्त बन्धकारणोंसे रहित प्रसक्त होनेसे संसारके अभावरूप स्वभावके कारण नित्यमुक्तताको प्राप्त हो जायेंगे, किन्तु ऐसा स्वीकार नहीं किया जा सकता; क्योंकि स्फटिकमणि के जपाकुसुम और तमालपुष्प के रंग-रूप स्वभावपले की तरह आत्माके परिणामधर्मपना होनसे शुभाशुभ स्वभावयुक्तता प्रकाशित होती है।
प्रसंगविवरण-----अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि अरहंत भगवानके पुण्यविपाकवश सातिशय विहारादि क्रिया होती हैं, किन्तु उनका बह पुण्यविपाक स्वभावविधात न कर सकनेके कारमा अकिचित्कर ही है। अब इस गाथामें बताया गया है कि संसारी जीवों की चेष्टायें केवली भगवानको तरह स्वभावविघात न कर सकें ऐसी नहीं हैं।
तथ्यप्रकाश-....(१) प्रात्माको स्वभाव विकाररूप परिणामनेका नहीं है । (२) मोहकर्मबद्ध जीवमें विकाररूप परिणमने की योग्यता हो जाती है । (६) मोहकमबद्ध जीव कर्म विपाकका प्रतिफलन होनेपर शुभ अशुभ भावसे स्वयं न परिणमे तो स्वयं सदा शुद्धदशामें । रहा कहलायगा तब वो सभी प्राणो नित्य मुक्त हो गये जो कि प्रत्यक्षविरुद्ध हैं, फिर उपदेश व तप ज्ञान प्रादिकी आवश्यकता ही क्यों रहेगी ? (५) उपाधिसम्पर्क में स्फटिक मणिकी तरह कर्मविपाकसम्पर्क में जीव शुभ अशुभ विकाररूप खुद परिणम जाता है । (६) स्वभावदृष्टिसे कोई भी जीव शुभ अशुभ भावरूप नहीं परिणमता । (७) पर्याय दृष्टि में अशुद्धनिश्चयन यसे जीव शुभाशुभ भावरूप परिणमता ही ज्ञात होता है । (-) जैसे केवली भगवान के शुभाशुभ भावोंका अभाव है ऐसे ही सब जीवोंके शुभाशुभ भावोंका अभाव नहीं समझ लेना । (8) राग द्वेष मोहसे उपरजक संसारी जीवोंकी चेष्टायें स्वभावविघातक, बन्धकारी व सुख दुःखका अनुभव कराने वाली होती हैं ।
सिद्धान्त – (१) कर्मोदयविपाकके सान्निध्यमें जीव विकाररूप परिणमता है ।
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार...सप्जदमाङ्गी टीका अय पुनरपि प्रकृतमनुसृत्यातीन्द्रियज्ञान सर्वज्ञत्वेनाभिनन्दति--
जं तकालियभिदरं जाणदि जुगवं ममतदो सव्वं । प्रत्थं विचित्तविसमं तं गाणं खाइयं भणियं ॥४७॥ जो भूत भावि साम्प्रल, विषम विचित्र सब अर्थको जाने ।
युगपत् समंतसे उस को क्षायिक ज्ञान बतलाया ।। ४७ ।। यत्तालालिकामतर जानाति गुनगानमन्ततः राबंभ । अ विविधिम तत् भानं क्षायिक भणितम् ।। ४७॥
। तत्कालकलितवृत्तिकमतीतोदकंकालकलितत्तिक चाप्येकाद एवं समन्ततोऽपि सकलम। ध्यर्थजाले पृथवत्ववृत्तस्वलक्षगालक्ष्मी कटाक्षितानेकप्रकारव्यतिवचित्र्यमितरेतरविरोधधापितासमान जातीयत्वोहामितवैषम्य क्षायिक जानं किल जानीयात् । तस्य हि क्रमप्रवृत्मिहतभूतानां
नामसंज्ञ..... तत्कालिग दर जुगवं गमतदो मब अत्थ विचित्तचिलम त गाण खाइग भणिय । धातुसंज्ञ-जाण अवबोधन, भण कथने । प्रातिपदिक---- यत् तात्कालिक इतर युगपत् ममन्ततः मन्त्र अर्थ विचित्रविएम तत् ज्ञान क्षायिक भणित । मूलधातु ----शा अवबोधने, भण शब्दार्थः । उभयपदविवरण-जं
MERIES
..."man.
i
n
दृष्टि-१-- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय [२४] ।
प्रयोग-सर्व आपदावोंका मूल कर्मविपाकप्रतिफलनको अपनाना है, सो निरापद होने के लिये कमसे, कर्मविपाकसे व कर्मविपाकप्रतिफलनसे भिन्न अविकार ज्ञानमात्र अपनेको निरखनेका पौरुष करना ।।४६॥
अब फिर भी प्रकररगत विषयका अनुसरण करके अतीन्द्रिय ज्ञानको सर्वज्ञपनेसे अभिनन्दते हैं याने अतीन्द्रिय ज्ञानको सर्वज्ञताका गुरणानुवाद करते हैं- [यत्] जो [युगपद् ] एक ही साथ समन्ततः] सर्व प्रात्मप्रदेशोसे [तात्कालिक] तात्कालिक [इतरं] या प्रतात्कालिक विचित्र विषम] अनेक प्रकारके और मूर्त, अमर्त प्रादि असमान जातिके [ सर्व प्रथं] समस्त पदार्थोंको [जानाति ] जानता है [तत् ज्ञान] उस ज्ञानको [क्षायिकं भरिगतम्] दायिक कहा गया है।
टीकार्थ----वास्तव में जिनमें पृषक रूपसे वर्तते स्वलक्षणरूप लक्ष्मीसे पालोकित अनेक प्रकारों के कारण वैचित्र्य प्रगट हुआ है और जिन में परस्पर विरोधसे उत्पन्न होने वालो असमानजातीयताके कारण वैषम्य प्रगट हुया है, ऐसे वर्तमान में वर्तले तथा भूत भविष्यत् कालमें वर्तने वाले समस्त पदार्थोंको सर्व आत्मप्रदेशों से एक ही समय में क्षायिक ज्ञान जान लेता है। वह क्षायिक ज्ञान क्रमप्रवृत्तिके हेतुभूत, क्षयोपशम अवस्थामें रहने वाले ज्ञानावरणीय कर्मपुद्गलोंका अत्यन्त प्रभाव होनेसे वह तात्कालिक या अतात्कालिक पदार्थसमूहको समकाल में ही
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
८२
सहजानन्दशास्त्रमालायां
क्षयोपशमावस्थावस्थितज्ञानावरणीय कर्मपुद्गलानामत्यन्ताभावात्तात्कालिक मतात्कालिकं वाप्यर्थजातं तुल्यकालमेव प्रकाशेत । सर्वतो विशुद्धस्य प्रतिनियत देशविशुद्धेरन्तः प्लवनात् समन्ततोऽपि प्रकाशत | सर्वावर रक्षयाद शावर क्षयोपशमस्यानवस्थानात्सर्वमपि प्रकाशत। सर्वप्रकारणानावरणीय क्षयादसर्व प्रकारज्ञानावरणीय क्षयोपशमस्य विलयनाद्विचित्रमपि प्रकाशेत । श्रसमानजातीयज्ञानावरणक्षयात्समानजातीयज्ञानावरणीय क्षयोपशमस्य विनाशनाद्विषममणि प्रकाशत | यत्तक्कालिक तत्कालिक इदर इतर सर्व्वं सर्व अत्य अर्थ विचित्रविमं विचित्रविषम-द्वितीया एक जुग युगपत् -- अव्यय । जाणदि जानाति वर्तमान अन्य० एक० क्रिया । तं तत् णाणं ज्ञान खाइगं क्षायिकप्रकाशित करता है । सर्वतः विशुद्ध क्षायिक ज्ञान प्रतिनियत प्रदेशोंको विशुद्धिका सर्वविशुद्धि के भीतर डूब जानेसे अर्थसमूहको सर्व ग्रात्मप्रदेशोंसे प्रकाशित करता है । सर्व आवरणोंका क्षय होनेसे, देश श्रावरणका क्षयोपशम न रहने से वह सबको भी प्रकाशित करता है । सर्व प्रकार ज्ञानावरण के क्षयके कारण असर्वप्रकारके ज्ञानावरणका क्षयोपशम विलयको प्राप्त होनेसे वह विचित्र अर्थात् अनेक प्रकारके पदार्थों को भी प्रकाशित करता है । समानजातीयज्ञानावराके क्षय के कारण समानजातीयज्ञानावरणका क्षयोपशम नष्ट हो जानेसे वह विषम अर्थात् श्रसमानजातिके पदार्थोंको भी प्रकाशित करता है । श्रथवा प्रतिविस्तारसे कुछ लाभ नहीं, जिसका श्रनिवारित फैलाब है, ऐसा प्रकाशमान होनेसे क्षायिक ज्ञान श्रवश्यमेव सर्वदा, सर्वत्र, सर्वथा सर्वको जानता हो है ।
प्रसंगविवरण- प्रनंतरपूर्व गाथामें बताया गया था कि केवलो भगवानको तरह सभी संसारी जीवोंके स्वभावविघातका प्रभाव हो ऐसा नहीं है । अब इस गाथामें केवली भगवान के प्रकरण के अनुसार ही प्रभुके अतीन्द्रिय ज्ञानको सर्वज्ञपनेके रूपसे अभिनंदित किया है ।
तथ्य प्रकाश -- ( १ ) ज्ञानावरणकर्मका पूर्ण क्षय हो जानेसे क्षायिक ज्ञान तीनों काल की वृत्ति वाले सब पदार्थोंको जान लेता है । ( २ ) ज्ञानावरणकर्मका क्षय होनेसे ज्ञानावरण कर्मकी क्षयोपशम अवस्थाका प्रसंग ही नहीं, प्रत। क्षायिक ज्ञान क्रम क्रमसे पदार्थों को नहीं जानता, किन्तु एक ही समय में सबको जानता है । ( ३ ) पूर्ण निर्विकार होनेके कारण द्रव्येन्द्रियके प्रदेशोंसे ही जाननेका प्रसंग ही नहीं, अतः क्षायिक ज्ञान समस्त आत्मप्रदेशोंसे जानता है । ( ४ ) सर्वार्थज्ञानावरणका क्षय होनेसे क्षायिक ज्ञान सबको ही जानता है । (५) सर्व प्रकार के ज्ञान के प्रावरणका क्षय हो जानेसे सर्व प्रकारके पदार्थोंको अर्थात् विचित्र विचित्र भी सब पदार्थोंको क्षायिक ज्ञान जानता है । (६) विभिन्न - विभिन्न जातिके पदार्थोंके ज्ञानके ग्रावरण का क्षय हो जानेसे क्षायिक ज्ञान विषम विभिन्न विभिन्न जातिके पदार्थोंको जानता है ।
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका प्रलमथवातिविस्तरेण, अनि बारितप्रसरप्रकाशशालितया क्षायिकज्ञानमवश्यमेव सर्वदा सर्वत्र सर्वथा सर्वमेव जानीयात् ।।४७।। प्रथमा एकवचन । भणियं भणितं-प्रथमा एक० कृदन्त क्रिया। निरुक्ति-अर्यते इति अर्थः तं, क्षये भवं क्षायिकं । समास-विचित्रं च विषमं च विचित्रविषमे तयोः समाहार: विचित्रविषमं ॥४७॥
(७) पूर्ण निराव रण हो जानेसे ज्ञान का अनिवार्य असोम फैलाव हो जाता है, अत: क्षायिक ज्ञान सब समय, सब जगह, सब प्रकार सबको जानता ही रहता है। (८) परमात्माका ज्ञान अर्थात् क्षायिक ज्ञान त्रिलोक त्रिकालवर्ती सर्व पदार्थको जानता रहता है, सो यह ज्ञानस्वभाव का प्रताप है इस कारण वहाँ व्याकुलता नहीं, प्रत्युत अनंत प्रानंद है । (६) घातिया कर्मों का क्षय हो जानेसे जैसे ज्ञानस्वभाव असोम विकसित हो जाता है ऐसे ही प्रानंदस्वभाव भो प्रसीम विकसित हो जाता है। (१०) ज्ञान प्रानंद आदि समस्त गुणोंका असीम विकास निश्चयतः प्रात्मप्रदेशों में ही है।
सिद्धान्त--- (१) घातियाकोपाधिरहित परमात्मा त्रिलोकत्रिकालवर्ती समस्त ज्ञेयाकारकरम्बित निर्विकार प्रात्माको जानते रहते हैं ।
दृष्टि-१-- स्वभावगुणव्यञ्जनपर्यायदृष्टि [२१२] ।
प्रयोग-नियत आत्मप्रदेशोंसे किसी किसीको ही क्रमपूर्वक जाननेको स्वभावप्रतिकूल कार्य जानकर ऐसे जाननसे विरक्त होकर निज सहज ज्ञानस्वभावमें उपयुक्त होकर सहज सत्य विश्राम करना ।। ४७ ।।
अब जो सबको नहीं जानता वह एकको भी नहीं जानता, यह निश्चित करते हैं[य:] जो [युगपद्] एक ही साथ [कालिकान् त्रिभुवनस्थान] तीनों कालके और तीनों लोकके [अर्थान] पदार्थोको [न विजानाति] नहीं जानता, [तस्य] उसे [सपर्ययं] पर्यायसहित [एक द्रव्यं वा] एक द्रव्य भी [ज्ञातुन शक्यं] जानना शक्य नहीं है।
तात्पर्य-जो सबको नहीं जानता वह एक पदार्थको भी पूरा नहीं जान सकता।
टोकार्थ----इस विश्व में एक आकाशद्रव्य, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, असंख्य कालद्रव्य और अनंत जीवद्रव्य हैं तथा उनसे भी अनंतगुरणे पुद्गलद्रव्य हैं, और उन्हींके प्रत्येकके प्रतीत, अनागत और वर्तमान ऐसे तीन प्रकारोंसे भेद वाली निरवधि वृत्तिप्रवाहके भीतर पड़ने वाली अनंत पर्यायें हैं । इस प्रकार यह समस्त याने द्रव्यों और पर्यायोंका समुदाय ज्ञेय है इनमें ही एक कोई भी जीवद्रव्य ज्ञाता है । अब यहाँ जैसे समस्त दाह्यको जलाती हुई अग्नि समस्त दाह्य जिसका निमित्त है ऐसे समस्त दाह्याकार पर्यायरूप परिणमित सकल
PHERA
।
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
shay
2
८४
सहजानन्दशास्त्रमालायां
अथ सर्वमजानमेकमपि न जानातीति निश्चिनोति
जो विजादि जुगवं अत्येतिकालिगे तिहुवत्थे । पादु तस्स ण सक्कं सपज्जयं दव्यमेगं वा ॥ ४८ ॥ जो जानता न युगपत् त्रैकालिक त्रिभुवनस्थ अर्थोको ।
वह जान नहीं सकता, एक सपर्यत्र द्रव्यको भी ॥ ४८ ॥
यो विजानाति युगपदर्थान् कालिकान त्रिभुवनस्थान् । ज्ञातुं तस्य न शक्यं पर्ययं द्रव्यमेकं वा ॥ ४८ ॥ किमाद्रव्यमेकं धर्मद्रव्यमेकमधर्मद्रव्यमसंख्येयानि कालद्रव्याण्यनंतानि जीवद्रव्याणि । ततोऽप्यनन्तगुणानि पुद्गलद्रव्याणि । तथैषामेव प्रत्येकमतीतानागतानुभूयमानभेदभिविश्वधिवृत्तिप्रवाहपरिपातिनोऽनन्ताः पर्यायाः । एवमेतत्समस्तमपि समुदितं ज्ञेयं, इहैवैक 'किचिज्जीवद्रव्यं ज्ञातृ । अथ यथा समस्तं दाह्य दहन दहनः समस्तदाह्यहेतुक समस्तदाह्याकारपरिणतसकले दहनाकारमात्मानं परिणमति तथा समस्तं ज्ञेयं जानन ज्ञाता समस्तहेतुक समस्तज्ञेयाकारपर्यायपरिस्तसकलकज्ञानाकार चेतनत्वात् स्वानुभवप्रत्यक्षमात्मानं परिणमति ।
नामसंज्ञ - जग जुगवं अश्य तिक्कालिग तिहूवगत्य त सनक सगज्जय दव्व एव वा । धातुसंज्ञविजा घोष, सक्क सामर्थ्य प्रातिपदिकवत् न युगपत् अर्थ त्रैकालिक त्रिभुवनस्य तत् न शक्य सत्य द्रव्य एक वा । मूलघातु- विशा अवबोधने शक् सामर्थ्यं । उभयपद विवरण- जो यः प्र० ए० । विज्ञादि विजानाति वर्तमान अन्य पुरुष एक किया । अथे अर्थात् तिक्कालिगे कालिकान तिहुवत्ये त्रिभुवनस्थान - द्वितीया बहु० । गाद ज्ञातु हैश्वर्थ कृदन्त । वत्स तस्य षष्ठी एक० । सक्क दाक्यं - प्रथमा एक दहन जिसका स्वरूप हैं, ऐसे अपनेरूप परिणमित होती है, वैसे ही समस्त ज्ञेयको जानता हुआ आता याने आत्मा समस्त ज्ञेय जिसका निमित्त है ऐसे समस्तज्ञ याकारपर्यायरूप परिण मिल सकल एक ज्ञान जिसका स्वरूप है ऐसें चेतनता के कारण स्वानुभव प्रत्यक्षभूत निजरूप परिमित होता है । ऐसा वास्तव में द्रव्यका स्वभाव है। किंतु जो समस्त ज्ञेयको नहीं जानता वह आत्मा जैसे समस्त दाह्यको न जानती हुई अग्नि समस्तदाह्यहेतुक समस्तदाह्याकारपर्याय रूप परिमित सकल एक दहन जिसका प्राकार हैं ऐसे अपने रूपमें परिणमित नहीं होती, उसी प्रकार समस्तयहेतुक समस्त ज्ञेयाकारपययरूप परिणमित सकल एक ज्ञान जिसका श्राकार है ऐसे अपने रूप स्वयं चेतनता के कारण स्वानुभवप्रत्यक्ष होनेपर भी परिणमित नहीं होता, इस प्रकार यह फलित होता है कि जो सबको नहीं जानता वह अपने को भी नहीं..
जानता ।
प्रसंग विवरण --- अनन्तरपूर्वं गायामें बताया गया था कि क्षायिक ज्ञान अर्थात् परमाHer ज्ञान त्रिलोकत्रिकालवर्ती सर्व प्रकारके सर्व पदार्थोंको जानता है । अब इस गाथामें
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनमार-सप्तदशाङ्गी टीका
masters-M-RRECENT
BOSSHARES Hdyear
एनं मिल द्रव्यस्वभावः । यस्तु समस्तं ज्ञेयं न जानाति स समस्तं दाह्यमदहन समस्तदाहाल समस्तदाहाकारपर्यायपरिणतसकलकदहनाकारमात्मानं दहन इव समस्तज्ञेयहेतुबमामायाकात्पर्यायपरिणतसकलकज्ञानाकारमात्मानं चेतनत्वात् स्वानुभव प्रत्यक्षत्वेऽपि न परिणाम । एवमतदायाति यः सबै न जानाति स प्रात्मानं न जानाति ।। ४८ ।। का कुरन्त । संपज्जयं सपर्ययं दब्वं द्रव्यं एक-दिल एक । निक्ति-शा योग्य सायं. जिन स्थिताः त्रिभुवनस्थाः तान् । समास-पियेण लहिन सपययं । ४८ । बलाया गया है कि जो त्रिलोकत्रिकालवर्ती सर्व पदार्जको युगपत् नहीं जानता है वह का दिल्यको नहीं जान सकता है। 2 तथ्यप्रकाशा---(१) द्रव्य छह जातिके होते हैं— अाकाशद्रव्य, धर्मद्रव्य, अधदिव्य, कालव्य, जीवद्रव्य व पुद्गलद्रव्य । (२) अाकाश द्रव्य एक ही है व असीम च्यापन है. इस सब इत्यास व्याप्त व अव्यास क्षेत्रको दृष्टिसे लोकाकाश व लोकालाश ऐसे दो विभाग माने जाते है । (३) धर्मद्रब्ध एक ही है व लोकाकाशप्रमाण है, यह जीव पुद्गलोंकी गति निमितमत है । (४) अधर्मद्रव्य एक है व लोकाकाश प्रमाण है, यह जीव पुद्गलोकी विनिता निमित्तभूत है । (४) कालद्रव्य असंख्यात हैं और वे एक-एक कालगन्य लोकाकाशक -एक प्रदेशपर ही प्रबस्थित हैं, ये सर्व द्रव्योंके परिणमन के निमित्तभूत हैं। (६) जीवद्रव्य - मत है और वे सब लोकाकाशमें ही हैं । (७) पुद्गल द्रव्य जीव द्रव्योंसे भी अनंतानंत है। Maौर के सब लोकाकाशमें ही हैं । (८) सभी द्रव्योंमें अनन्त पर्याय प्रतीत हो चु, अनन्त पर्याय भविष्य में होंगी और वर्तमान पर्याय एक एक होती जाती है । (६) उक्त समय पायोंका समह सब ज्ञेय है । (१०) सर्व ज्ञेयों में केवल जीवद्रव्य ही ज्ञाता हैं । (१५) कुछ बुर
गोको जानने का स्वभाव ज्ञानका नहीं, ज्ञानका स्वभाव कालिक पर्यायोसहित समस्त क्षेत्रों के जाननरूप प्राकारसे परिणामनेका है । (१२) जो ज्ञाता समस्त ज्ञेयोंके जाननरूप प्रामारसे नहीं "परिणाम रहा वह अपने ही पूर्ण विलासरूप नहीं परिणम रहा । (१३) जो समस्त जोको नहीं जानता वह एक अपनेको भी पूर्ण रीत्या नहीं जानता। (१४) जो ज्ञातालीम बर्तमान पर्याय प्रतिबिम्बित स्व प्रात्मद्रव्यको नहीं जानता है वह प्रतीतानागतवतमालपर्याय सहित समस्त द्रव्यों को नहीं जानता वह किसी भी एक द्रव्यको पूर्ण रीत्या नहीं जानता ।
सिवान्त----(१) प्रात्मा स्वभावतः सर्वज याकाराकान्त निजको निश्चयतः जालना
Ma MOMRAAGARIHAwestesteronoun
m entations
minindi
u
-.......
wwwdesitani mminuism.k
.
हटि-१- सर्वगवनय (१७१) ।
mmmmm.in
Ra
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
८६
सहजानन्दशास्त्रमालायां
अर्थकमजानन सर्व न जानातीति निश्चिनोति
दव्यं अणंतपजयमेगमणं ताणि दबजादाशि। ण विजाणदि जदि जुगवं किथ सो सब्वाणि जागादि ॥४६॥ अनंत पर्यायसहित, एक स्वयं गव्यको न जाने जो।।
सब अनंत द्रव्योंको, वह युगपत् जान नहि सकता ॥४६॥ द्रव्यमनन्तपयमेवामनन्तानि द्रव्यजातानि । न विजानाति यदि युगपत् कथं स सर्वाणि जानाति ।। ४६ ।।
प्रात्मा हि तावत्स्वयं ज्ञानमयत्वे सत्ति ज्ञातृत्वात् ज्ञान मेय । ज्ञानं तु प्रत्यारगति प्रतिभासमयं महासामान्यम् । तत्तु प्रतिभासमयानन्तविशेषत्वापि । ते च सर्वव्यायनिबन्धनाः । अथ यः सर्वद्रव्यपर्यायनि बन्धनानन्तविशेषव्यापिप्रतिभासमयमहासामान्यरूपमात्मानं स्वानुभव प्रत्यक्षं न करोति स कथं प्रतिभासमयमहासामान्यव्याप्यप्रतिभासमयानन्त विशेषनि बन्धन भूत.
नामसंश--दव अणंतपज्जय ग अणंत व जाद यदि जूग किल सन । धातुसं जाण अवबोधने । प्रातिपदिक-द्रव्य अनंतपर्यय एक अनंत द्रव्यशाल न यदि युगपत् बाथं तत् सर्व । मूलधातु-विज्ञा अवबोधने । उभयपदविवरण -दव द्रव्य अणतपजयं अनंतपर्याय-हितीया एक० । अणं
प्रयोग-स्वयं सहज जो जानने में प्राय, प्राधे, हमको तो सहन प्रतिभासमय निज आत्माको जानना चाहिये ॥ ४८ ।।
__ अब एकको न जानता हुमा ज्ञान सबको नहीं जानता, यह निश्चित करते हैं--- [यदि] यदि [अनन्तपर्याय] अनन्त पर्याय वाले [एक द्रव्यं] एक प्रध्यको अर्थात् एक प्रात्मद्रव्यको [न विजानाति] नहीं जानता [सः] तो वह [युगपद्] एक ही साथ [सर्वारिण अनन्तानि द्रव्यजातानि समस्त अनन्त द्रव्यसमूहको [कथं जानाति] कैसे जान सकता ?
. तात्पर्य----सर्वज्ञ याकारमय एक अपने आत्माको न जानतेपर सबका जानना से हो सवता ?
टीकार्थ-प्रात्मा तो वास्तव में स्वयं ज्ञानमयपना होनेपर ज्ञातृत्वके कारण ज्ञान हो है; और ज्ञान प्रत्येक प्रात्मामें रहता हुप्रा प्रतिभासमय महासामान्य है। वह प्रतिभासमय अनन्तविशेषोंमें व्यापी है; और वे विशेष सर्वद्रव्यपर्यायनिमित्तक है । अब जो अात्मा सर्व द्रव्यपर्याय जिनके निमित्त हैं ऐसे अनन्त विशेषों में व्याप्त होने वाले प्रतिभासमय महासामान्य रूप प्रात्माका स्वानुभव प्रत्यक्ष नहीं करता, वह प्रतिभासमय महासामान्य द्वारा व्याप्य प्रसिभासमय अनन्त विशेषोंके निमित्तभूत सर्व द्रव्यपर्यायोंको कैसे प्रत्यक्ष कर सकेगा ? अर्थात् नहीं कर सकेगा इससे यह फलित होता है कि जो आत्माको नहीं जानता बह सबको नहीं
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
८७
SEE
wwwmay
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका मद्रव्यपर्यायान् प्रत्यक्षीकुर्यात् । एवमेतदायाति य प्रात्मानं न जानाति स सर्व न जानाति । प्रय सर्वज्ञानादात्मज्ञानमात्मज्ञानात्सर्वज्ञान मित्यवतिष्ठते । एवं च सति ज्ञानमयत्वेन स्वसंचेतकवादात्मनो ज्ञातृज्ञ ययोर्वस्तुत्वेनान्यत्वे सत्यपि प्रतिभासप्रतिभासमानयोः स्वस्यामवस्थायामन्यो
यसवलतैनात्यन्त मशक्यविवेचनत्वात्सर्वमात्मनि निखातमिव प्रतिभाति । यद्येवं न स्यात् तदा - शानस्य परिपूर्णात्मसंचेतनाभावात् परिपूर्णस्यकस्यात्मनोऽपि ज्ञाने न सिद्धयत् ॥ ४६ ।। Poar बजादाणि अनन्तानि द्रव्यजातानि-द्वितीया बहु० । ण न जाँद यदि किध वाथं जगवं युगा
अध्ययः । विजाणदि विजानाति जाणादि जानाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । सो मा. TA | सवाणि सर्वाणि-द्वितीया बहु० । निरुक्ति द्रवति पर्यायान् इति द्रव्यं । समास-न अन्तः परय म् अनन्तम द्रियाणां जातानि द्रव्यजातानि ४६॥ जानता । अब यह निश्चित हुप्रा कि सर्वके ज्ञान से प्रात्माका ज्ञान और प्रात्माके ज्ञानसे सर्व का ज्ञान होता है और ऐसा होनेपर अत्मा ज्ञानमयताके कारण स्वसंचेतक होनेसे, शाता और मन थका वस्तुरूपसे अन्यत्व होनेपर भी प्रतिभास और प्रतिभासमान इन दोनोंका स्व अवस्था में प्रन्योन्य मिलन होने के कारण उनका भेद करना अत्यन्त अशक्य होनेसे सब पदार्थसमक्ष ग्राम में प्रविष्ट हो गयेकी तरह प्रतिभासित होता है, यदि ऐसा न हो तो, अर्थात् यदि प्रात्मा
को न जानता हो तो ज्ञानके परिपूर्ण प्रात्मसंचेतनका प्रभाव होनेसे परिपूर्ण एक मात्माका भी ज्ञान सिद्ध न होगा।
प्रसंगविवरण..अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि सबको न जानने वाला Elim प्रारमा एकाको भी पूर्णरीत्या नहीं जानता है। अब इस गाथामें बताया गया है कि एकको गारीत्या न जानने वाला आत्मा सबको नहीं जानता।
तथ्यप्रकाश-(१) प्रात्मा स्वयं ज्ञानमय है, जाता है, ज्ञान ही है । (२) वह ज्ञान सामान्यदृष्टि से प्रात्मगत प्रतिभासमय महासामान्यरूप है । (३) वह ज्ञान विशेषदृष्टि से अनन्त नविशेषोंमें (अर्थों में) व्यापने वाला अर्थात् अनन्त पदार्थोको जानने वाला प्रतिभासमय है । (४) अनन्त सर्व पदार्थोके जानने वाले ज्ञान के विषयरूप निमित्त सर्व द्रव्य पर्याय हैं। (५) सर्व दत्य पर्यायोंके निमित्तसे अनन्तविशेषों में व्यापने वाले प्रतिभासमय महासामान्यरूप अपने मात्माको स्वानुभव प्रत्यक्ष करनेके मायने सबका जानना कहते हैं 1 (६) जो सर्वार्थव्यापी प्रतिभासमय महासामान्यरूप एक निज प्रात्माको नहीं जान पाता वह सर्व अर्थोंको कैसे जान सकता है ? (७) सर्वके ज्ञानसे प्रात्माका ज्ञान होता, प्रात्माके ज्ञान से सर्वका ज्ञान होता । E) प्रतिभासप्रतिभासमानपनेके नातेसे सर्व पदार्थ प्रात्मामें जड़े हुएसे विदित होते हैं।(8) अयना ज्ञान और सबका ज्ञान एक साथ ही होता है। (१०) परिपुर्ण स्वयंका ज्ञान न हो
pyakamsumma
AMAVATmedtutwwwwwwwwwwwsimob
d
.saar
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
राहजानन्यशास्त्रमालायां अथ कमकृतप्रवृत्त्या ज्ञानस्य सर्वगतत्वं न सिद्धयतीति निश्चिनरेति
उम्पाजदि जर्जाद णाणं कमसो अटे पडुच्च गाणिम्स । तं गणेव हवदि णिच्चं हा खाइगं गणेव सब्बगदं ॥५०॥
अर्थोका आश्रय कर, क्रमसे यदि ज्ञान जीवका जाने ।
तो वह ज्ञान न होगा, नित्य न सर्वगत नहीं क्षायिक ।।५।। उत्पद्यते यदि ज्ञान क्रमशोऽर्थान् प्रतीत्य ज्ञानिनः । नन्नव भान नित्यं न क्षाधिक नैव सर्वगतम् ।। ५.० ।।
यत्किल कमेणकमर्थमालम्ब्य प्रवर्तते ज्ञानं तदेकार्थालम्बनादुत्पन्न मन्यार्था लम्बनात्
नामसंज्ञ--- जादणाण कमसो अट्ट णाणितणाव णि ण खाग एव सध्यगद । धातुसंजहेव सत्ताया, उद पज्जं गतौ । प्रातिपदिक... यदि ज्ञान क्रमश: अर्थ ज्ञानिन तत् न एव नित्यं न आयिक न एक सर्वगत । मुलधातु --भु सत्तायां, उत् पद गती। उभयपदविवरण--जदि यदि ण न णिच्च नित्यं तो सबका ज्ञान होना असंभव है। (११) प्रतिभासमान सबका ज्ञान न हो तो एक पूर्ण स्वयंका ज्ञान होना भी असंभव है।
सिद्धान्त... सर्वज्ञदेव विश्वप्रतिभासमय निज प्रात्माको ही जानते हैं। दृष्टि ---- १-- शुद्भनिश्चयनय (४६)।
प्रयोग --- अन्य पदार्थको जानना अशक्य ही है, अन्यपदार्थविषयक प्रतिभासमय निज प्रात्माका ही जानना हुआ करता है ऐसा जानकर अन्य पदार्थको जाननेका विकल्प भी न कर अपने आपको ही निरखनेका पौरुष करना ॥४६॥
अब यह निश्चित करते हैं कि क्रमशः प्रवृत्तिसे ज्ञानको सर्वगतता सिद्ध नहीं होती ---- [यदि] यदि [ज्ञानिनः ज्ञान] प्रात्माका ज्ञान क्रमशः] क्रमशः [अर्थात् प्रतीत्य] पदार्योका अवलम्बन लेकर [उत्पद्यते] उत्पन्न होता है [तत्] तो वह ज्ञान [न एव नित्यं भवति] न तो नित्य हो सकता, [न क्षायिक न क्षायिक हो सकता [न एव सर्वगतम् ] और न सर्वगत हो सकता ।
तात्पर्य-ब्रामप्रवृत्तिसे जानने वाला ज्ञान नित्य, क्षायिक व सर्वव्यापक नहीं हो सकता।
टीकार्थ----जो ज्ञान क्रमश: एक एक पदार्थका अबलम्बन लेकर प्रवृत्ति करता है, वह एक पदार्थ के अवलम्बन से उत्पन्न हुअा दूसरे पदार्थ के अवलम्बन से नष्ट हुअा नित्य नहीं होता हमा तथा कर्मोदयसे एक व्यक्तिको प्राप्त करके फिर अन्य व्यक्तिको प्राप्त करता हुमा क्षायिक भी न होता हुमा, अनन्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावको व्यापने में असमर्थता होने के कारण सर्वगत नहीं है।
1380ww
480
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
=&
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
प्रतीयमानं नित्यमसत्तथा कर्मोदयादेको व्यक्ति प्रतिपन्नं पुनर्व्यवत्यन्तरं प्रतिपद्यमानं श्राविकभ प्यसदनन्तद्रव्य क्षेत्रकालभावानाक्रान्तुमशक्तत्वात् सर्वगतं न स्यात् ॥५०॥
कमसो क्रमशः अव्यय 1 जाणं ज्ञानं खाइर्ग क्षायिक सर्व सवंगप्र० एक पच्च प्रतीत्य- असमाप्तिकी क्रिया । गाणिम्स ज्ञानिनः यष्टी एक तत्प्रथमाएर भग वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक । निरुक्ति-नानं अम्बास्तीति ज्ञानी तस्य क्षवे गवं वा । समाससर्वषु गतं सर्वगतं || ५० ॥
प्रसंग विवरण -- ग्रनन्तरपूर्व गाथामें सबको भी नहीं जानता । अब इस गाथा में जानके सर्वगतपना सिद्ध नहीं होता है ।
बताया गया था कि जो एकको नहीं जानना बह बताया गया है कि कमलप्रवृत्तिसे जाननहार
करके
तथ्य प्रकाश--- ( १ ) जो ज्ञान क्रम क्रमसे एक एक अर्थका श्राश्रय करके जानता है वह सर्वगत अर्थात् सर्वज्ञ नहीं हो सकता । ( २ ) क्रमवर्ती ज्ञान एक अर्थका जानेगा तब पहिलेके अन्य अर्थका आश्रय न रहा सो वह ज्ञान नित्य न रहा तो ससके पदार्थों को तो नहीं जान सकता । ( ३ ) जो ज्ञान एक अर्थका प्राश्रय करके जानने के बाद उसको जानन छोड़कर अन्य अर्थको ग्राश्रय करके जाननेके बाद उसका जानना छोड़कर अन्य अर्थको आश्रय करके जानता है वह ज्ञान क्षायिक तो नहीं हो सकता सो कैसे श्रनन्तयोंके ज्ञानतरूपः परिणमेगा ।
सिद्धान्त - ( १ ) यह जीव क्रमवर्ती ज्ञान द्वारा अपने आपको जानता है। दृष्टि--- १- अस्वभावनव [१८०] ।
प्रयोग- क्रमवर्ती ज्ञानको अपनी अस्वभाववृति जानकर उसमें स्थान करके पर को जाननेका विकल्प न कर विशुद्ध प्रतिभासमात्र अपनेको निरखना || ५० ॥
युगपत् प्रवृत्तिके द्वारा ही ज्ञानका सर्वगतपना सिद्ध होता है, यह निश्चित करते -- [त्रकाल्यनित्यविषमं ] तीनों कालमें सदा विषम [सर्वत्र संभवं ] सर्व क्षेत्र में रहने वाले [[चित्र] विविध [सकल ] समस्त पदार्थोंको [जैनं] जिनदेवका ज्ञान [ युगपत् जानाति ] एक साथ जानता है [ श्रहो हि] अहो ! कैसा अदभुत [ज्ञानस्य माहात्म्यम् ] यह ज्ञानका माहात्म्य
तात्पर्य---युगपदवृत्तिसे जानने वाला ज्ञान ही सर्वज्ञ होता है ।
टीकार्थ- वास्तव में क्षायिक ज्ञान सर्वोत्कृष्टताका स्थानभूत उत्कृष्ट माहात्म्य वाता है और जो ज्ञान एक साथ ही समस्त पदार्थों का अवलम्बन लेकर लेता है वह ज्ञान कोकीर्णन्यायसे अवस्थित समस्त वस्तुवोंका ज्ञेयाकारपना होनेसे जिसने नित्यत्व प्राप्त किया है,
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
''.
inism
सहजानन्दशास्त्रमालायां अथ योगपद्यप्रवृत्त्येव ज्ञानस्य सर्वगतत्वं सिदश्यतीति व्यवतिष्ठते ...
तिकालणिच्चविसमं सयलं मव्वत्थ संभवं चित्तं । जुगवं जादि जोण्डं अहो हि गाणस्स माहप्पं ॥५१॥ त्रैकाल्य नित्य व विषम, त्रिलोकके विविध सर्व अर्थोंको ।
ज्ञान प्रभूका जाने, युगपत् यह ज्ञानको महिमा ।। ५१ ॥ काल्यनित्यविपमं सकल रात्र संभव चित्रम् । युगपज्जानाति जनमहो हि ज्ञानस्य माहात्म्यम् ।। ५१ ।।
क्षायिकं हि ज्ञानमतिशयास्पदोभूतपरममाहात्म्य, यतु युगपदेव सर्वार्थानालम्ब्य प्रवर्तते जान तलोत्कीर्णन्यायावस्थितसमस्तवस्तुज्ञेयाकारतयाधिरोपितनित्यत्वं प्रतिपन्न समस्तव्यक्तित्वेनाभिव्यक्तस्वभावभासिक्षायिकभावं काल्येन नित्यमेव विषमीकृतां सकलामपि सर्वार्थसंभूतिमनन्त जातिप्रापिसवैचित्र्यां परिच्छिन्ददक्रमसमाक्रान्तानन्तद्रव्यक्षेत्रकालभावतया प्रकटीकृताद. भुतमाहात्म्यं सर्वगतमेव स्यात् ॥ ५१ ।।
नामसंज्ञ-विकालणि चविसभ सबल सव्वत्थ संभव चित जुगव जोगह अहो हि णाण माहाप । घातृसंज्ञ--जाण अवबोधने। प्रातिपदिक-त्रैकाल्यनित्य विषम सकल सर्वत्र संभव चित्र युगपत् जैन अहो हि माहात्म्य । मुलधातु-...-शा अवबोधने । उभयपदविवरण---सिक्कालणिचविसमं त्रकाल्यनित्यविषम
लं सकलं संभवं चितं चित्र जोहं जन माहप्पं माहात्म्य-प्र० 1 सम्वत्थ सर्वत्र जगवं युगपत् अहो हि-अव्यय । णास जानरय-पष्ठी एक० । निरुक्ति--जयलीति जिनः, जिनस्येदमिति जैनं। समास-.... वकाल्ये नित्यं विषमं इति काल्पनित्यविषम।।५।। और समस्त विशेषोंको प्राप्त कर लेनेसे स्वभावप्रकाशक क्षायिक भाव प्रगट किया है जिसने ऐसा त्रिकालमें सदा विषम रहने वाले और अनन्त प्रकारों के कारण विचित्रताको प्राप्त संपूर्ण सर्व पदार्थोके समूहको जानता हमा, प्रक्रमसे अनन्त द्रव्य. क्षेत्र, काल. भावको प्राप्त होनेसे अद्भुत माहात्म्य प्रगट किया है जिसने ऐसा यह ज्ञान सर्वगत ही है ।
प्रसंगविवरण-अनंतरपूर्व गाथामें बताया गया था कि क्रम-क्रमसे जानने वाले ज्ञान के सर्वगतपना नहीं सिद्ध होना । अब इस गाथामें बताया गया है कि एक साथ त्रिलोकत्रिकालवर्ती समस्त ज्ञेयोंके जानने वाले ज्ञानके ही सर्वगलपना सिद्ध होता है।
__ तथ्यप्रकाश--(१) ज्ञानका स्वभाव जानना है । (२) स्वतः जानन में ज्ञेयकी छाँट नहीं होती कि इसको जानना इसको नहीं जानना । (३) ज्ञानशक्तिपर ज्ञानावरणकर्मका यावरण होनेसे क्षयोपशमानुसार ज्ञेयकी छांट होती है । (४) जहाँ ज्ञानावरण कर्मका क्षब हो चुका है वहाँ इस क्षायिक ज्ञानका असीम बिकास स्वभावतः होता ही है। (५) क्षायिक ज्ञान उत्कृष्ट परममाहात्म्यमय ही है । (६) सदा सर्व प्रथों को विषय करता हुना जानता
.
..ists
:
Jimithunaghe.mmmmmmmmmmmertime.mummernmmmmmm.in.samshastrument---manprenneshumaanmainamainaramination
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
000000
प्रवचनमार-सप्तदशाङ्गी टीका
अयं ज्ञानिनो शतक्रियासद्भावेऽपि क्रियाफलभूतं बन्धं प्रतिषेधयन्नुपसंहरतिविपरिणमदि सा गेहदि उपज्जदि गोव तेसु जाणण्णव ते यादा प्रबंधगो तेा पण्णत्तो ॥ ५२ ॥
सु ।
--
६१
परिणमता न न गहता, उन प्रथमें न श्रात्मा उपजता ।
उनको विजानता भी, यह इस ही से अबन्धक है ॥५२ ||
लोपि परिणमति न गृह्णाति उत्पद्यते नैव तेष्वर्थेषु । जानन्नपि नात्मा बन्धकीन व्रज्ञः ॥ ५२ ॥ इह खलु 'उदयगदा कम्मंसा जिरणवरवसदेहिं रियदिणा भणिया । तेसु त्रिमूढो रत्ता दुट्टो वा बंधमभवदि ॥ इत्यत्र सूत्रे उदयगतेषु पुद्गलकर्माशिषु सत्सु संचेतयमानी मोहराग द्वेषपरिणतत्वात् ज्ञेयार्थ परिणमनलक्षणया क्रियया युज्यमानः क्रियाफलभूतं बंधमनुभवति, न तु ज्ञानादिति प्रथममेवार्थपरिणमन क्रियाफलवेन बन्धस्य समर्थितत्वात् । तथा गण्हदि गोत्र प मुञ्चदि परं परिणमदि केवली भगवं । पेच्छदि समंतदो सो जाणदि सव्वं शिरवसेस ।।'
नामसंज्ञ- - विणण एव त जट्ट त अत्त अबंधन तु पण्णत्त धातुसंज्ञ परिणम प्रत्वं गिष्ट ग्रहणे, जद पञ्ज गती आण अवबोधनं । प्रातिपदिकन अधिन एव तत् अर्थ तत् आत्मन् अत पण मूलधातु-परि गम प्रहृत्वे, ग्रह ग्रहणे, उत् पद गती, ज्ञा अवबोधने । उभयपदविवरण न रहने क्षायिक ज्ञान नित्य है । ( ७ ) सदा सर्वप्रकारके सर्व पदार्थको सर्वात्मप्रदेशोसे जानने वाला ज्ञान सर्वगत कहलाता है ।
सिद्धान्त - ( १ ) व्यवहारसे श्रात्मा सर्व पदार्थों का ज्ञाता है । (२) शुद्ध निश्चयसे मात्मा परिपूर्ण प्रतिभासमय अपने आपका ज्ञाता है ।
दृष्टि
-१- स्वाभाविक उपचरित स्वभावव्यवहार [१०५ ] । २- शुद्ध निश्चयनय
[४६ ] ।
प्रयोग सर्वज्ञ होने का विकल्प नहीं करना, क्योंकि वीतराग होने का तो वह फल हो आत्मीय आनन्द तो वीतरागता के कारण है ऐसा जानकर अविकारस्वभाव सहज अन्तस्तत्वमय अपना अनुभव करना ।। ५१ ।।
ज्ञानीके (केवलज्ञानी ग्रात्माके) शतिक्रियाका सद्भाव होनेपर भी क्रियाफलरूप का निषेध करते हुए उपसंहार करते हैं-- [ श्रात्मा] आत्मा [ तान् जानन् अपि ] पदार्थो को जानता हुआ भी [न अपि परिणमति ] न तो उसरूप परिणमित होता, [ न गृह्णाति ] न ही उन्हें ग्रहण करता, [न एव तेषु प्रर्थेषु उत्पद्यते ] और न ही उन पदार्थों के रूप में उत्पन्न होता है [ते] इस कारण [ अबन्धकः प्रज्ञप्तः ] वह ज्ञानी अबन्धक कहा गया है ।
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२
सहजानन्दशास्त्रमालायां
इत्यर्थपरिणामनादित्रियाणामभावस्य शुद्धात्मनो निरूपितत्वाचार्थानपरिगमतोऽगृततस्तेष्वनुपद्यमानस्य चात्मनो लिक्रियास इवेऽगि न खनु क्रियाफलभूतो बन्धः सिद्धयत् ।। ५२ ।। वि अपि न एब-अव्यय । तेषु अन, अर्थ--सप्तमी बहु । परिशमदि परिणति गेहदि गृह्णाति उपजदि उत्पद्यते..वर्तमान नाद अन्य गुमप एकाचन चिया । जाणं जानन्-प्रथमा एक कृदन्त किस ।
तात्पर्य--प्रभु सबको जानते हुए भी उनका किसी से कुछ संसर्ग नहीं प्रतः सर्वज्ञ प्रभु बन्ध रहित हैं।
टोकार्थ-यहाँ "उदयगदा का मंसा जिगाव रब सहेहि गियदिणा भगिया । तेमु विमूढा रत्तो वो बा बंधाशुभव दि ।।'' इस गाथ! सूत्रमें "उदयगत पुद्गल कर्माशोंके होनेपर अनुभव करने वाला जीव मोह-राग-द्वेष में परिणतपना होनेसे ज्ञेयार्थ परिण मनस्वरूप क्रियाके साथ युक्त होला हुआ क्रियाफलभूत बन्धको अनुभवता है, किन्तु झानसे नही" इस प्रकार पहले ही अर्थपरिणमन क्रियाक फलरूपसे बन्धका समर्थन किया गया है तथा "गेण्हदि रोव गा मुञ्चदि राण दरं परिमादि केवली भगवं । पेच्छदि समतदो को जागदि सव्यं गिरवसेसं ॥” इस गाया सूत्र में शुद्धात्माके अर्थपरिणमनादि क्रियाअोंके प्रभावका निरूपण किया गया होनेसे पदार्थरूप में परिणमित नहीं होते हुए, उसे ग्रहण नहीं करते हुए और उसरूप उत्पन्न नहीं होते हुए यातगाके शतिक्रियाका सद्भाव होनेपर भी वास्तवमें क्रियाफलभूत बन्ध सिद्ध नहीं होता।
__अब पूर्वोक्ता आया यको काव्य द्वारा कहकर, केवलज्ञानी ग्रात्माकी महिमा बताते हैंजानन् इत्यादि.--.-अर्थ-कर्मोको छेद झाला है जिसने ऐसा यह प्रात्मा भूत, भविष्यत् और दर्तमान समस्त विश्वको एक ही साथ जानता हुआ भी मोहके अभावके कारण पररूप परि. स्पमित नहीं होता, इस कारण अत्यन्त विकसित झप्तिके विस्तारसे स्वयं पी डाला है वाकारोंको जिसने ऐसा वह ज्ञानमूर्ति तीनों लोकके पदार्थों को पृथक् और अपृथक प्रकाशित करता हमा मुक्त ही रहता है । इस प्रकार ज्ञान-अधिकार समाप्त हुया ।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि युगपवृत्तिसे ही जानने में शानका सर्वगतपना सिद्ध होता है। अब इस गाथामें सर्वज्ञदेवके ज्ञप्तिक्रिया निरन्तर होते रहनेपर भी उसके क्रियाफलभूत बन्धका प्रतिषेध किया गया है।
तथ्यप्रकाश---(१) जाननक्रिया होनेपर भी यदि प्रात्मा झेंयार्थपरिणमन क्रियासे युक्त नहीं है तो उसके कर्मबन्ध नहीं होता । (२) मोहनीय कर्मका उदय होनेपर वेदन करने वाला जीव मोह रागद्वेष भावसे परिणत होता है । (३) मोह रागद्वेषसे परिणस जीव ज्ञेयार्थपरिणमन क्रियासे युक्त होता है । (४) जेवार्थपरिणामान क्रिपासे युक्त हो रहा जीव क्रियाफल
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
SA
muotelistasmpowSHORanties
प्रवचनमा?-राप्तवशाली टीका जागन्येष विश्व युगपदपि भव-विभून सामरलं मोहाभावाचदात्मा परिरमति पर नेत्र निलनकर्मा । तेनास्ले मुक्त एव प्रसविलासितास्तिविस्तारपीसनेयाका त्रिलोकी पृथपृथगथ गौतयनु ज्ञानमूर्तिः ||४|| इति ज्ञानाधिकारः । से तानः द्वि० बहु० । आदा आत्मा-- रावा । अबश्यगी अबकाया: 6 '
Te:--Yo Do कृदन्त त्रिया । लेग्य तेन-तृतीया एन । निस्ति । तिनका कति अवचन: ।५.२।। भूतः बन्धको अतुझ्यता है । (५) मोहनीयकमका उदित अनुभाग उपयोगभूमिकामें प्रतिफलित होता हैं। (६) प्रतिफलित अनुभागको स्वीकार करनगे मोह राम द्वेष भाव होता है। (७) मोह राग द्वेष भाव होनेसे विषयभूत ज्ञेय पदार्थको परिगमनके अनुसार जोद अपना परिणाम बनाता है । (5) ज्ञेय पदार्थ के परिणमान के अनुसार इष्ट अनिष्ट ग्रादि भावरूप परिणाम बनाने को ज्ञयार्थपरिणमन क्रिया कहते हैं । (६ } केबली भगवान परपदार्थको न तो ग्रहशा करते हैं, न छोड़ते हैं, न परिण माते हैं, न जेय अर्थ के परिण मान के अनुसार परिणामते हैं, ये तो बल देवते जानते हैं । (१०) इष्ट अनिष्ट बुद्धि नकार मान्न देखने जानने वालेको ज्ञाता द्रष्टा कहते है। (११) सर्वज्ञदेव बोतराग हैं, ज्ञाता द्रष्टा हैं, अत: उन के ज्ञेयार्थपरिणामन क्रिया नहीं होती, वल ज्ञप्तिक्रिया होती। (१२) युछ भी विकल्प न कर मात्र जाननेको झप्तिकिया कहते
(१३.) सर्वज्ञदेव के ज्ञप्तिक्रिया है, किन्तु सेवार्थपरिगामन क्रिया नहीं, अत: केवली प्रभुके सर्वविश्वज्ञेयाकाराकान्त होनेपर भी .मबन्ध नहीं होता। (१४) प्रभुया कार्य अर्थात् कर्म जान (जानना) है। (१५) कोई भी कार्य किया बिना नहीं होता । (१६) निश्चयतः कर्म और क्रिया उस एक ही द्रव्यमें है । (१४) ज्ञान (जानन) की क्रियाको ज्ञप्तिक्रिया कहते हैं। १) भगवान ज्ञानको हो ग्रहण करते हैं, अतः ज्ञान प्राप्य होनस ज्ञान हो प्रभुका कर्म है । [१६) प्रभु शानरूप ही परिणामिल होते हैं, अतः ज्ञान विकार्य होने ज्ञान ही प्रभुका कम है। (३०) प्रभु ज्ञानरूप ही उत्पन्न होते हैं, अत: ज्ञान ही निर्वयं होनेसे ज्ञान ही प्रभुका कम है। (२१) ज्ञप्तिक्रियाका फल निरपेक्ष सहज प्रानन्य है । (२२) ज्ञेयार्थपरिणमन क्रिया का फल कर्मवन्ध है।
सिद्धान्त-(१) उपाधिका अभाव होने से भगवानका शुद्ध ज्ञान परिमन होता है। दृष्टि--- १- उपाध्यभावापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकान य [ ५४] ।
प्रयोग..---संसारसंकटोंके कारणभूत कमबन्धसे हटने के लिय अविकार चैतन्यस्वभावमें उपयुक्त होकर ज्ञाता द्रष्टा रहनेका पौरुष करना ॥५२॥
अब ज्ञानसे अभिन्न सुखके स्वरूपको विस्तारपूर्वक वर्णन करते हुए ज्ञान और मुख
MobsevibiteANOHemammiOMADR
ASINOMPANIMALINSAHASRE6000000002पासासम00000000000080Y
wwwAKAAMRE
CRPORATikam
muTIRIYA
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां
अथ ज्ञानादमिन्नस्य सौख्यस्य स्वरूप प्रपञ्चयन ज्ञानसौख्ययोः हेयोपादेयत्वं चिन्तयति ---
अस्थि अमुत्तं मुत्तं अदिदियं इंदियं च अत्थसु । णाग च तहा सोक्खं जं तेसु परं च तं गणेयं ॥५३॥ अर्थोका ज्ञान व सुख, भूतं अमूर्त इन्द्रियज प्रतीन्द्रिय ।
हो जो इन में उत्तम, वही उपादेय है मानो ॥ ५३ ॥ अन्त्यमूर्त मुमतीन्द्रियमंन्द्रियं चायपु । ज्ञानं च तथा सौख्यं यत्तेषु परं च तत् अयम् ॥ ५३ ।।
प्रत्र ज्ञानं सौख्यं च मूर्तेमिन्द्रियजं चैकमस्ति । इतरदमूर्तमनीन्द्रियं चास्ति । तत्र यद. मूर्तमतीन्द्रियं च तत्प्रधानत्वादुपादेयत्वेन ज्ञातव्यम् । तार्थ भूर्ताभिः क्षायोपशमिकीभिहायोग
नामसंज्ञ....अमुक्त मुत्त अदिदिय इंदिय च अत्थ णाण चहा सोपख जत पर च त रोय । धातुसंज्ञअस मनायां, ना अवबोधने । प्रातिपदिक... अमूर्त मूतं अतीन्द्रिय इन्द्रिय न अर्थ ज्ञान च सौख्य यत् तथा तत् पर ज्ञेय । मूलधातु-अरा भुबि, ज्ञा अवबोधने । उभयपदविवरण... अमुत्तं अमूर्त मुक्तं मूतं अतीन्द्रियं की हेयोपादेयताका चिन्तन करते हैं- [अर्थेषु ज्ञान] पदार्थ सम्बन्धी जान [अमूर्त मूत] अमूर्त, मूर्त [अतीन्द्रियं ऐन्द्रियं च अस्ति] प्रतीन्द्रिय और ऐन्द्रिय होता है; [च तथा सौख्यं] और इसी प्रकार अर्थात् अमूर्त, मतं, अतीन्द्रिय और ऐन्द्रिय सुख होता है । [तेषु च यत् । परं] उनमें जो उत्कृष्ट है [तत् ज्ञेयं] वह उपादेयरूप जानने योग्य है। __तात्पर्य--अमूर्त व अतीन्द्रिय ज्ञान एवं सुख ही उत्कृष्ट और उपादेय है।
टीकार्थ-~~~यहाँ एक तो ज्ञान और सुख मूतं और इन्द्रियज है; और दूसरा ज्ञान तथा । सुख अमूर्त और अतीन्द्रिय है वह प्रधान होनेसे उपादेयरूप जानना । यहाँ पहला ज्ञान तथा सुख अर्थात् मूर्त द इन्द्रियज ज्ञान और सुख मूर्तरूप क्षायोपशमिक उपयोगशक्तियोंमे उस-उस प्रकारकी इन्द्रियोंके द्वारा उत्पन्न होता हुमा पराधीन होनेसे कादाचित्क, क्रमशः प्रवृत्त होने बाला, सप्रतिपक्ष और हानि वृद्धियुक्त है, अत: गौण है, यह समझकर वह हेय है; और दूसरा । ज्ञान तथा सुख अर्थात् अमूर्त अतीन्द्रिय ज्ञान व मुख अमूर्तरूप चैतन्यानुविधायी एकाको आत्मपरिणाम शक्तियोंसे तथाविध अतीन्द्रिय, स्वाभाविक चिदाकारपरिणामोंके द्वारा उत्पन्न होता हमा अत्यन्त आत्माधीन होनेसे निस्य, युगपत् प्रवर्तमान, निःप्रतिपक्ष और हानि वृद्धिरहित है, अतः मुख्य है, यह समझकर वह उपादेय है।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि सर्वज्ञदेवके ज्ञप्तिक्रिया होनेपर भी कर्मबन्ध नहीं होता। अब इस गाथामें ज्ञानसे अभिन्न सौख्यका स्वरूप निर्दिष्ट कर ज्ञान और सौख्यमें कौनसा ज्ञान व सौख्य हेय है और कोनसा ज्ञान ब सौख्य उपादेय है यह बताया
Kammar
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
SHREmailARMERRRRRIA
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका शक्तिभिस्तथाविधेभ्य इन्द्रियेभ्यः समुत्पद्यमानं परायत्तत्वात् कादाचित्कं, क्रमकृतप्रवृत्ति सप्रति. पक्ष सहानिवृद्धि च मोगामिति कृत्वा ज्ञानं च सौख्यं च हेयम् । इतरत्पुनरमूर्ताभिश्चैतन्यानविधायितीभिरेकाकिनीभिरेवात्मपरिणामणक्तिभिरतथाविधेभ्य: स्वाभाविकचिदाकारपरिणामेभ्य: समुत्पद्यमानमत्यन्तमात्मायत्तत्वान्नित्यं, युगपत्कृतप्रवृत्ति निःप्रतिपक्षमहानि वृद्धि च मुख्यमिति कृत्वा शान सौख्यं चोपादेयम् ।। ५३ ।। अदिदिय इंदियं इन्द्रियं णाणं ज्ञान सोक्त सौख्यं न यत् तत्-प्रश्रमा एक । रोयं जप-ए कदम किया । निक्सि-न मूर्ती अमूर्त, सुखयन सुखं तग्य भावः सोय । समास इन्द्रिय अतिका अलीरिद्रय ।। ५३ ।।
।
तथ्यप्रकाश-(१) ज्ञान दो प्रकारका होता है...--- १ - मूर्त इन्द्रियज ज्ञान, २- प्रमूर्त प्रतीरिद्रय ज्ञान 1 (२) सौख्य भी दो प्रकारका है.---- १-- मूर्त इन्द्रियज सौख्य, २- अमूर्त प्रतीन्द्रियज सौख्य । (३) उपादान दृष्टि से भूत क्षायोपशमिक उपयोग शक्तियों द्वारा निमित्तदृष्टि से भूत इन्द्रियों द्वारा उत्पन्न हुमा ज्ञान व सौख्य मूर्त इन्द्रियज कहलाता है । (४) प्रमूर्त अकेली चैतन्यपरिणमन शक्तियोंके द्वारा उत्पन्न हुअा इन्द्रियातीत ज्ञान व सौख्य अमूर्त अतीनिद्रय कहलाता है । (५) मूर्त इन्द्रियज ज्ञान व सौख्य पराधीन होनेसे अनित्य है। (६) मूतं इन्द्रियज ज्ञान व सौख्य पराधीन होनेसे 'मसे अपनी प्रवृत्ति कर पाता है। (५) मूर्स इन्द्रियज ज्ञान व सोख्य अज्ञानसे व दुःख से सहित है । (८) मूर्त इन्द्रियज ज्ञान व सांस्य हानि व वृद्धि से सहित है । (६) विनश्वर क्रमवर्ती प्रज्ञानरूप दुःखव्याप्त विषम ज्ञान एवं सौख्य हेय : है । (१०) अमूर्त प्रतीन्द्रिय ज्ञान व सौख्य पूर्ण प्रात्माधीन होनेसे नित्य है, एक साथ परिपूर्ण प्रवर्तने वाला है, प्रज्ञान व दुःखसे बिल्कुल रहित है एवं हानि वृद्धिसे रहित असीम परिपूर्ण होनसे उपादेय है।
सिद्धान्त(.) प्रभुका ज्ञान व सौख्य प्रात्मोत्थ व स्वाभाविक है । (२) मोही प्राणियों का ज्ञान व सौख्य निमित्तापेक्ष एवं विकृत है ।
दृष्टि----१-- शुद्धनिश्चयनय [४६] । २-- अशुद्धनिश्चयनय ४७] । PART प्रयोग---हेयभूत मूर्त इन्द्रियज ज्ञान ब सौख्यसे उपेक्षा करके उपादेय भूत अमूर्त व प्रतीरिद्रय ज्ञान एवं सौख्यके लाभके लिये अमूर्त सहज चतन्यस्वरूपका अवलंबन करना ॥५३॥
। अब अतीन्द्रिय सुखका साधनीभूत अतीन्द्रिय सान उपादेय है, ऐसा अभिस्तवन करते है अर्थात् उसका प्रास्थाके साथ गुणानुवाद करते हैं-- [प्रेक्षमाणस्य यत्] देखने वालेका जो
।
RAGAR
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां
अथातीन्द्रिय सौख्य साधनीभूतमतीन्द्रियज्ञानमुपादेयमभिष्टौति - जं पेच्छदो अमुत्तं मुत्तेमु दिदियं पच्छणां । सयलं सगं च इदरं तं गाणं हवदि पच्चक्खं ॥५४॥ ज्ञान प्रत्यक्ष वह जो, द्रष्टाका ज्ञान जानता होवे ।
मूर्त मूर्त अतीन्द्रिय, प्रच्छन्न स्व पर समस्तोंको ॥ ५४ ॥
यत्प्रेक्षमाणस्यामूर्त मूर्तेष्वतीन्द्रियं च प्रच्छन्नम् । सकलं स्वकं च इतरत् तद्ज्ञानं भवति प्रत्यक्षम् ॥ ५४ ॥ अतीन्द्रियं हि ज्ञानं यदमूर्तं यन्मूर्तेष्वप्यतीन्द्रियं यत्प्रच्छन्नं च तत्सकलं स्वपरविकल्पान्तःपाति प्रेक्षत एव । तस्य खल्वमूर्तेषु धर्माधर्मादिषु मूर्तेष्वप्यतीन्द्रियेषु परमाण्वादिषु द्रव्यप्रच्छन्नेषु कालादिषु क्षेत्र प्रच्छन्नेष्वलोकाकाशप्रदेशादिषु कालप्रच्छन्नेष्व सांप्रतिकपर्यायेषु, भावप्रच्छन्नेषु स्थूलपर्यायानन्तर्लीनसूक्ष्मपर्यायेषु सर्वेष्वपि स्वपरव्यवस्थाव्यवस्थितेष्वस्ति द्रष्टृत्व
नामसंज्ञ-ज पेच्छंत अमुत्त मुत्त अदिदिय च पच्छण्ण सयल सग च इदर त णाण पच्चक्ख । धातुसंज्ञ - हव सत्तायां । प्रातिपदिकयत् प्रेक्षमाण अमूर्त मूर्त अतीन्द्रिय च प्रच्छन्न सकल स्वक इतर तत् ज्ञान प्रत्यक्ष । मूलधातु भू सत्तायां । उमयपदविवरण --- जं यत् अमुत्तं अमूर्त अदिदियं अतीन्द्रियं पच्छन्न प्रच्छन्नं सयलं सकलं - द्वि० एक० । पेच्छदो प्रेक्षमाणस्य षष्ठी एक० । मुत्तेसु मूर्तेषु सप्तमी बहुवचन ।
ज्ञान [श्रमूर्त] अमूर्तको [ मूर्तेषु ] मूर्त पदार्थों में भी [प्रतीन्द्रियं ] इन्द्रियागोचर परमाणु आदि को [ च प्रच्छन्नं ] और प्रच्छन्नको, [स्वकं च इतरत् ] ऐसे स्व तथा पररूप [ सकलं ] इन सबको जानता है [ तत् ज्ञानं ] वह ज्ञान [प्रत्यक्षं भवति ] प्रत्यक्ष है ।
तात्पर्य -- प्रतीन्द्रिय ज्ञान अमूर्त इन्द्रियागोचर गुप्त स्व पर सभी पदार्थों को प्रत्यक्ष रूपसे जानता है ।
टोकार्थ - - जो अमूर्त है, जो मूर्त पदार्थोंमें भी प्रतीन्द्रिय है, और जो प्रच्छन्न ( ढका हुम्रा) है, उस सबको जो कि स्व और पर इन दो भेदों में समा जाता है उस सबको प्रतीन्द्रिय ज्ञान श्रवश्य देखता है। अमूर्त धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय आदिकोंमें और मूर्त पदार्थों में भी अतीन्द्रिय परमाणु आदिकोंमें तथा द्रव्यप्रच्छन्न काल आदिकों में, क्षेत्रप्रच्छन्न अलोकाकाशके प्रदेश आदिकों में, कालप्रच्छन्न असाम्प्रतिक ( प्रतीत अनागत) पर्यायों में तथा भाव प्रच्छन्न स्थूलपर्याय अन्तर्लीन सूक्ष्म पर्यायोंमें, स्व और परकी व्यवस्थासे व्यवस्थित उन सबमें ही उस अतीन्द्रिय ज्ञानके दृष्टापन है, प्रत्यक्षपना होनेसे । वास्तव में प्रनन्त शुद्धिका सद्भाव प्रगट हुआ है जिसके ऐसे चैतन्यसामान्यके साथ अनादिसिद्ध सम्बन्ध वाले एक ही प्रक्ष नामक ग्रात्मा के प्रति जो नियत है जो इन्द्रियादिक अन्य सामग्रीको नहीं ढूंढता, और जो अनन्तशक्तिके सद्भाव
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
Site www
प्रवचनसार ... सप्तवनाङ्गी टीका प्रत्यक्षत्वात् । प्रत्यक्ष हि ज्ञान मुद्धिनानन्तशुद्धिसन्निधान मनादिसिद्धचतन्यसामान्यसंबन्धमेकमवाक्षनामानमात्मानं प्रतिनियमितरों सामग्रीममृगयमाणमनन्तशक्तिसद्भावतोऽनन्ततामुपगतं दहनस्येव बाह्याकारायण ज्ञानस्य ज्ञेया काराणामनतिकमायथोदितानुभावमनुभवत्तत् केन नाम निवायेत । अतस्तपादेयम् ।। ५.४ ।। हुदर इतरं तं तत् णाणसानं प्रत्यक्ष-प्रथमा एक । वदि भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक किया। निरूक्ति-~-प्रकर्षण ईक्षते इति प्रेक्षमाणः तस्य । समास इन्द्रियं अतिक्रान्तं अतीन्द्रियं ।। ५४ ।। के कारमा अनन्तताको प्राप्त है, सा तथा दहनके दाह्याकारोंकी तरह ज्ञानके ज्ञेयाकारोंका उल्लंघन न होनेसे यथोक्त प्रभावका अनुभव करता हुआ वह प्रत्यक्ष ज्ञान किसके द्वारा रोका जा सकता है ? अतः अतीन्द्रिय शान उपादेय है।
: प्रसंगविवरण --...अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि इन्द्रियज ज्ञान व सुख हेय है तथा अतीन्द्रिय ज्ञान व मुख उपादेय है । अव इस गाथामें उपादेयभूत अतीन्द्रिय सुख को उसके साधनीभूत अतीन्द्रिय ज्ञानको उपादेय बताया गया है।
का तथ्यप्रकाश---- (१) प्रतीन्द्रिय जान अमूर्तको, इन्द्रियागम्य मूर्तको, द्रव्यप्रच्छन्नको, क्षेत्राच्छन्नको, कालप्रच्छन्नको, भावप्रच्छन्नको सभी स्व-पर पदार्थोको जानता है । (२) धर्म, अधम, आकाश, काल व जीव पदार्थ अमूर्त हैं । (३) परमारगु व अति सूक्ष्मस्कन्ध इन्द्रिया. गभ्य मूर्त हैं । (४) काल आदिक पदार्थ द्रव्यप्रच्छन्न हैं। (५) अलोकाकाशके प्रदेश प्रादिक
क्षेत्रप्तच्छन्न हैं । (६) भूत भविष्यत् पर्याय कालप्रच्छन्न हैं । (७) स्थूल पर्यायोंमें अन्तलीन Famom सूक्ष्म पर्यायें भावप्रच्छन्न हैं। (८) समस्त पदार्थ स्व व परकी व्यवस्थामें व्यवस्थित हैं। EHATI) प्रभुका अतीन्द्रियज्ञान सफल प्रत्यक्ष है । (१६) सकलप्रत्यक्षमें अनन्त ज्ञेय ज्ञात होते ही
सा ही ज्ञानस्वभावके कारण व ज्ञेयस्वभाव के कारण अनिवारित नियम है।
सिद्धान्त--(१) निरुपाधि शुद्ध ज्ञान सदैव सर्वज्ञेयाक्रान्त रहता ही है ।
दृष्टि-.--१- असून्यनय [१७४] । FAMI प्रयोग--ज्ञानस्वभाव के कारण ज्ञान को अपना विलास करने दो, एतदर्थ अपने वर्त. Fun मान उपयोगको प्रखण्ड एक प्रतिभासमात्र अन्तस्तत्त्वमें उपयुक्त करना ॥५४॥ SMART अब इन्द्रियसुख का साधनीभूत इन्द्रियज्ञान हेय है, ऐसा उसको प्रकर्षरूपसे निन्दते हैं Sam अति इन्द्रियज ज्ञानके प्रति हेयबुद्धि रखकर उसका अवगुण कहते हैं--स्वयं प्रमूर्तः स्वयं
अमूर्त [जीवः] जीव [भूतिगतः] मूर्त शरीरको प्राप्त होता हुआ [तेन मूर्तिना] उस मूर्त शरीरके द्वारा [योग्य भूत] योग्य मूर्त पदार्थको [अवगृह्य] अवग्रह करके [तत्] उसे [जा.
.AVAVASSASSASSSSSSSSSSS
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्द शास्त्रमालायां
प्रथेन्द्रिय सोय साधीभूतमिन्द्रियज्ञानं हेयं प्ररिन्दति -
६८
जीवो सयं श्रमुत्तो मुत्तिगदो तेा मुत्तिणा मुत्तं । श्रोगेण्हित्ता जोगं जायदि वा तण्ा जाणादि ॥५५ ॥ श्रात्मा स्वयं अमृतिक, सूर्ति मूर्तसे योग्य मूर्तीको
प्रवग्रह हि जाने या नहिं जाने ज्ञान वह क्या है ।। ५५ ।।
जीवः स्वयममूर्ती मूर्तिगतस्तेन मूर्तिना मूर्तम् । अवगृह्य योग्यं जानाति वा तन्न जानाति ॥ ५५ ॥ इन्द्रियज्ञानं हि मूर्तीपलम्भकं मूर्तीपलभ्यं च तद्वान् जीवः स्वयममूलोऽपि पञ्चेन्द्रिया त्मकं शरीरं मूर्तमुपागतस्तेन ज्ञप्तिनिष्पत्तौ बलाधाननिमिततयोपलम्भकेन मूर्तेन मूर्त स्पर्शादिप्रधानं वस्तुपलभ्यतामुपागतं योग्यमवगृह्य कदाचित्तदुपर्युपरि शुद्धिसंभवादवगच्छति, कदाचितसंभवान्नाव गच्छति । परोक्षत्वात् । परोक्षं हि ज्ञानमतिदृढतराज्ञानतमोग्रन्थि गुण्डनान्निमोलि
नामसंजीव सयं अमृत मुत्तिगद त मुत्ति मुत्त जोग यात ण । धातुसंत- अब गिव्ह ग्रहणे, जाण अवबोधने । प्रातिपदिक-जीव स्वयं अमूर्त मूर्तिगत मूर्ति मूर्त योग्य वा तत् न । मूलघातु- अब ग्रह उपादाने, ज्ञा अवबोधने । उभयपदविवरण जीवो जीवः अमुक्ती अमूर्त: मुत्तिमदो मूर्तिगतः प्रथमा ए० । माति ] जानता है [ वा न जानाति ] प्रथवा नहीं जानता है । तात्पर्य यह प्राणी इन्द्रियोंके द्वारा कभी मूर्त पदार्थका श्रवग्रह ज्ञान करके मागे कुछ जान भी पाता व नहीं भी जान पाता, ऐसा यह इन्द्रियज जान बहुत कमजोर ज्ञान है । टोकार्य - इन्द्रियज्ञान मूर्तका उपलम्भक है, और मृर्तके द्वारा उपलभ्य है । वह इंद्रियज्ञान वाला जीव स्वयं अमूर्त होनेपर भी मूर्त-पंचेन्द्रियात्मक शरीरको प्राप्त होता हुमा, ज्ञप्ति उत्पन्न करनेमें बलधारणका निमित्त होनेसे उपलम्भक हुए उस मूर्त शरीरके द्वारा मूर्त स्पर्शादिप्रधान वस्तुको जो कि योग्य हो अर्थात् इन्द्रियोंके द्वारा उपलभ्य हो उसे श्रवग्रह करके परोक्षपना होनेसे कदाचित् उससे ऊपर ऊपरकी शुद्धिके सद्भाव के कारण उसे जानता है और कदाचित् श्रवग्रहसे ऊपर ऊपरकी शुद्धिके श्रसद्भाव के कारण नहीं जानता है । देखियेचैतन्यसामान्यके साथ अनादिसिद्ध सम्बन्ध होनेपर भी जो प्रति दृढ़तर अज्ञानरूप प्रन्धकारसमूह द्वारा प्रवृत होनेसे संकुचित हो गया है व स्वयं जाननेके लिये असमर्थ हो गया है ऐसे श्रात्माका उपात्त और प्रतुपास परपदार्थरूप सामग्रीको नेकी व्यग्रतासे प्रत्यंत चंचल-तरलअस्थिरता हुआ, प्रनन्तशक्तिसे च्युत होनेसे अत्यन्त खिन्न वर्तता हुमा, महामोह-महलके जीवित होनेसे परको परिमित करनेका अभिप्राय करनेपर भी पद पदपर ठगाईको प्राप्त होता हुआ परमार्थतः न जानने की संभावनाको प्राप्त है; इस कारण वह हैय है ।
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
पन्न ननसार--सनदशाङ्गी टीका तस्यानादिसिद्वतन्य सामान्य संबन्धस्याप्यात्मन: स्वयं परिच्छेत्तमश्चमसमर्थस्योपात्तानुपात्तपरप्रत्ययसामग्रीमार्गसाध्यतयात्यन्त बिसाटलत्वमवलम्बमानमनन्तायाः शक्तः परिस्खलनान्नितान्तविक्लवीभूतं महामोहमनस्यहोवादास्यत्यान परपरिंगातिप्रतिताभिप्रायमपि पद पर प्राप्तविप्रलम्भमनुपलभगभावनामेव परमानंतोहति । अतस्तद्रं यम् ॥१५॥ सयं स्वयं वा --अव्यय । तेण लेन मुनिया म्यूतिना--तृतीया क० । 'संत जोग योग्य त नन्-द्वि० एक० । ओगिहिता जयगृत्य-असमतिकी मिया । जादि जानानि जापानि जानाति-वर्तमान लट् अन्य “पुरुष एकवचन किया। निरुक्ति-प्राणवितीति जीवः समास - मुलि गत: सुमिगतः ||५||
प्रसंगविवरण-अनंतर पूर्व गाथामें अतीन्द्रिय सूखके माधनीभूत अतीन्द्रिय ज्ञानको उपादेय बताया गया था। अब इस गाथामें इन्द्रियमुखके साधनीभूत इन्द्रियज्ञानको हेय बलाया
inten
NIROKSATTA
: तथ्यप्रकाश---- (१) इन्द्रियज ज्ञान परोक्ष ज्ञान होनेसे होन ज्ञान है । (२) इन्द्रियन ज्ञान मत पदार्थको ही जान सकता है अमर्तकों नहीं। (३) इन्द्रियजज्ञान मर्त इन्द्रियोंके द्वारा बनता है, इन्द्रियोंके बिना केवल अमूर्तात्मशक्तिसे नहीं । (४) इन्द्रियज ज्ञान वाला जीव स्वयं अमूत होकर भी इन्द्रियात्मक मूर्त शरीरको पाता झुमा मृतं बन रहा है । (५) इन्द्रियज्ञान किसी वस्तका नवग्रह करके इतना ही जानता है, कभी और कुछ क्षयोपशमके अनुसार कुछ अधिक जानता है, कभी विशेष नहीं जानता है । (६) इन्द्रियज्ञान जाननेके लिये प्रकाश आदि बाह्य पदार्थको ईढने की व्यग्रताके कारण क्षुब्ध रहता है। (७) इन्द्रियज्ञान जानने के लिये इन्द्रियको ठीक रखने की व्यग्रतामें चल रहता है। (८) इन्द्रियज्ञान अल्पशक्ति वाला होनेसे खदखिन्न होता है । (६) इन्द्रियज्ञान परपदार्थका परिणमन करनेका अभिप्राय होनेसे इच्छानुकूल परपरिणामन न देखकर पद पदपर ठगा हुअा रहता है। (१०) इन्द्रियज्ञान परमार्थसे मज्ञान ही है । (११) इन्द्रियज्ञान दुःखव्याप्त होनेसे, अस्वभाव होनेसे हेय है । जानन , सिद्धान्त-(१) इन्द्रियज्ञान प्रशुद्ध होनेसे हय है ।।
दृष्टि-----१-- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याधिकनय [२४] ।।
प्रयोग---इन्द्रियसे 4 इन्द्रियज्ञानसे उपेक्षा करके सर्वविशुद्ध ज्ञानमात्र अन्तस्तत्व में उपयुक्त होनेका पौरुष करना ।।५।। ....... अब इन्द्रियोंकी मात्र अपने विषयों में भी युगपत् प्रत्युत्त नहीं होनस इन्द्रियान हेय ही है, यह अवधारित करते हैं अर्थात् अपने मनमें इन्द्रियज नको म हानिर्णय रख. कर इन्द्रियज ज्ञानका दोष बताते हैं--[स्पर्शः] स्पर्श [ सगंधः] गंक [वर्णः]
लविधि को महाराज
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
१००
सहजानन्दशास्त्रमालायां
factose
अथेन्द्रियारणां स्वविषयमात्रेऽपि युगपत्प्रवृत्त्यसंभवाद्ध यमेवेन्द्रियज्ञानमित्यवधारयति -
फासो रसो य गंधो वण्णो सहो य पुग्गला होति। अक्खाणं ते अक्खा जुगवं ते गोव गेण्हंति ॥५६॥ स्पर्श रस गंध वर्ण रु, शब्द पुद्गल विषय हैं प्रक्षोंके ।
उसको भी ये इन्द्रिय, युगपत् नहि ग्रहण कर सकतों ॥५६॥ स्पर्शो रसश्च गन्धो वर्णः शब्दश्च पुद्गला भवन्ति । अक्षाणां तान्यक्षाणि युगपत्तान्नव गृहन्ति ।। ५६ ॥
इन्द्रियाणां हि स्पर्शरसगन्धवर्णप्रधानाः शब्दश्च ग्रहणयोग्याः पुद्गलाः । अथेन्द्रियैर्युगपत्तेऽपि न गृह्यन्ते, तथाविधक्षयोपशमनशक्तेरसंभवात् । इन्द्रियाणां हि क्षयोपशमसंज्ञिकाया:
POLITamanemapOSTSDCUDEICHE
नामसंज्ञ-फास रस य गंध वण्ण सद्द य पुग्गल अक्ख त अक्ख जूगवं त ण एव । धातुसंज्ञ-हो सत्तायां, गिण्ह ग्रहरणे । प्रातिपदिक----स्पर्श रस च गन्ध वर्ण शब्द च पुद्गल अक्ष तत् अक्ष युगपत् तत् न एव। मूलधातु-भू सत्तायां, ग्रह उपादाने । उभयपदविवरण----फासो स्पर्शः रसो रसः गंधो गन्धः वण्णो वर्ण:-प्र० एक० । य च जुगवं युगपत् ण न एव-अव्यय । पुग्गला पुद्गला:-प्र० बहु० । अक्खाणं अक्षाणांवर्ण [शब्दः च] और शब्द [पुद्गलाः] पुद्गल हैं, वे [अक्षारणां भवन्ति] इन्द्रियोंके विषय हैं [तानि अक्षारिण] परन्तु वे इन्द्रियाँ [तान्] उन्हें भी [युगपत्] एक साथ [न एव गृहन्ति] ग्रहण नहीं करती, नहीं जान सकती।
तात्पर्य--इन्द्रियाँ तो अपने विषयको भी एक साथ ग्रहण नहीं कर सकती।
टोकार्थ-वास्तव में स्पर्श, रस, गंध, वर्ण हैं प्रधान जिनमें ऐसे पुद्गल व पौद्गलिक शब्द इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण करने योग्य हैं। किन्तु, वे भी इन्द्रियोंके द्वारा एक साथ ग्रहण नहीं किये जा पाते, क्योंकि उस प्रकारके क्षयोपशमनको शक्ति असंभव है । इन्द्रियोंको क्षयोपशम नामक अन्तरंग ज्ञातृशक्तिकी कौवेकी अाँखकी पुतलोकी तरह क्रमिक प्रवृत्ति होनेसे अनेकतः जाननेके लिये असमर्थपना होनेसे द्रव्येन्द्रिय द्वारोंके विद्यमान होनेपर भी समस्त इन्द्रियोंके विषयोंके विषयभूत पदार्थोका ज्ञान एक ही साथ नहीं होता, क्योंकि इन्द्रियज ज्ञान परोक्ष है।
प्रसंगविवरण---अनन्तरपूर्व गाथामें इन्द्रियसौख्यके साधनीभूत इन्द्रियज्ञानको हीन दिखाकर हेय बताया गया था। अब इस गाथामें इन्द्रिय ज्ञान की हेयताके समर्थन में बताया गया है कि इन्द्रियोंको अपने संकुचित विषयमें भी एक साथ प्रवृत्ति नहीं हो सकनेसे इन्द्रिय ज्ञान हेय ही है।
तथ्यप्रकाश-(१) स्पर्शन इन्द्रियके द्वारा ग्रह योग्य हैं स्पर्शप्रधान पुद्गल । (२)
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०१
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
परिच्छेयाः शक्तेन्तरङ्गायाः काकाक्षितारकवत् क्रमप्रवृत्तिवशादनेकतः प्रकाशयितुमसमर्थत्वासत्स्वपि द्रव्येन्द्रियद्वारेषु न यौगपद्येन निखिलेन्द्रियार्थावबोधः सिद्धचेत्, परोक्षत्वात् ॥५६॥ षष्ठी बहु० 1 ते तानि अत्रखा अक्षाणि प्र० बहु० । ते तानि द्वितीया बहु० | होति भवन्ति हतिगृह्णन्ति-वर्तमान लद अन्य पुरुष बहुवचन क्रिया । निरुक्ति-स्पर्शन स्पर्शः रसनं रसः, गन्धनं गन्ध:, वर्ण वर्गः शब्दनं शब्दः, अक्ष्णोति इति अक्षः ॥ ५६ ॥
रसना इन्द्रियके द्वारा ग्रहणयोग्य हैं रसप्रधान पुदगल । (३) प्राणइन्द्रियके द्वारा ग्रहण योग्य हैं गन्धप्रधान पुद्गल । (४) चक्षुरिन्द्रियके द्वारा ग्रहणयोग्य हैं प्रधान पुद्गल । ( ५ ) क इन्द्रियके द्वारा ग्रहणयोग्य हैं शब्दपरिरात पुद्गल । ( ६ ) इन्द्रियाँ करती हैं सो ये ग्रपने विषयमें भी युगपत् प्रवृत्ति नहीं कर सकती, वाली क्षयोपशमन शक्ति होती ही नहीं है । ( ७ ) जैसे कोवाकी आँख की पुतलीका उपयोग दोनों खोंसे हो रहा जंचता है, ऐसे ही स्थूलदृष्टिसे क्षयोपशमनशक्तिजन्य ज्ञानका उपयोग शीघ्र बदलने से इन्द्रियोंके विषय एक साथ ज्ञात हो रहे जचते हैं, परन्तु वस्तुतः वे क्रमसे ही ज्ञात होते हैं । ( ६ ) इन्द्रियज्ञान हीन एवं क्षो महेतु होने से हेय है ।
मात्र अपने विषयको ग्रहण क्योंकि युगपत् ग्रहण कराने
सिद्धान्त - ( १ ) इन्द्रियज्ञान हीन व पराधीन होनेसे अशुद्ध है ।
दृष्टि - - १ - अशुद्ध सुक्ष्म ऋजुसूत्र प्रतिपादक व्यवहार [८] 1 विभावगुण व्यञ्जन पर्यायदृष्टि [२१३] ।
प्रयोग --- इन्द्रियज्ञानको पूर्ण व हेय जानकर उससे उपेक्षा करके सहज ज्ञानकी दृष्टिके बलसे ज्ञानका सहज परिणमन होने देना ।। ५६ ।।
करते हैं [तानि अक्षारिण] वे ग्रात्मस्वभावरूप [न एवं मणिश्रात्माका [ उपलब्धं ] उपलब्ध
na इन्द्रियज्ञान प्रत्यक्ष नहीं होता, यह निश्चित इन्द्रियाँ [परद्रव्यं] परद्रव्य हैं [ आत्मनः स्वभावः इति ] वे तानि ] नहीं कहे गये हैं । [तैः ] उनके द्वारा [ श्रात्मनः ] ज्ञान [प्रत्यक्षं] प्रत्यक्ष [ कथं भवति ] कैसे हो सकता है ?
तात्पर्य - श्रात्मस्वभाव न होनेसे परद्रव्यरूप इन्द्रियों द्वारा प्राप्त हुथा ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं हो सकता ।
टीकार्थ --- केवल आत्माके प्रति हो नियत ज्ञान वास्तव में प्रत्यक्ष है । परन्तु भिन्न प्रस्तित्व वाली होने से परद्रव्यत्वको प्राप्त ग्रात्मस्वभावको किचिन्मात्र स्पर्श नहीं करती हुई इन्द्रियोंके द्वारा उपलब्धि करके उत्पन्न हो रहा इन्द्रियज्ञान आत्माके प्रत्यक्ष नहीं हो सकता । प्रसंगविवरण - अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि इन्द्रियज्ञान अपने संकुचित विषय में भी एक साथ प्रवृत्त न होनेसे हेय है । अब इस गाथामें निश्चय किया गया है कि
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालाया प्रथेन्द्रियज्ञानं न प्रत्यक्ष भवतीति निश्चिनोति
परदव्वं ते अक्खा णेव सहावो ति अप्पणो भगिदा । उवलद्ध तेहि कधं पच्चक्खं अपणो होदि ॥ ५७ ॥
इन्द्रिय परद्रव्य कहीं, वे नहिं होते स्वभाव आत्माके ।
उनसे जो जाना वह, आत्मप्रत्यक्ष कैसे हो ॥ ५७ ।। परट्रव्यं तान्यक्षाणि नव स्वभाव इत्यात्मनो भणितानि । उपलब्ध : कार्य प्राधमात्मनो भवति ।। ५७ ।।
प्रात्मानमेव केवलं प्रतिनियतं किल प्रत्यक्षं, इन व्यतिरिक्तास्तित्वयोगितया परद्रव्यतामुपगतरात्मनः स्वभावता मनागप्यसंस्पृशदिरिन्द्रयरुपलभ्योपजन्यमानं न नामात्मनः प्रत्यक्ष भवितुमर्हति ॥ ५७ ।।
नामसंज्ञ-परदन्य त अक्ख व सहाब ति मणिय बलत कार पाचवा गण । धातुसंजभण कथने, हो गत्तायां । प्रातिपदिक----परद्रव्य तत् अक्ष न एव स्वभाव इति आत्मन भणित उपलब्ध तत् कथं प्रत्यक्ष आत्मन् । मुलधात..... भ मसाय, भण शब्दार्थः । उभयपक्षविवरण-... 'परदा परद्रध्य-प्रथमा एक । ते तानि अवखा अक्षामि-प्रथमा बहु | न एच शिनि कयं कथं-अव्यय । महाको स्वभाव:प्रथमा एक० । अपणो आत्मन:--Tठी एकः । भणिदा गणितानि प्रथमा बहु कदन्त किया । उचलखें उपलब्ध-प्र. ० । लेहिं तै:-तृतीया बहु । पञ्चव प्रत्यक्ष-प्रथमा राय । होदि भवति-वर्तमान सट् अन्य पुरुष एकवचन किया । निक्ति (द्रवति अद्र यत् द्रोयति पर्याान् इति द्वयं सभास.....परं च तत् द्रव्यं चेति पर द्रव्यं ।। २७ ।। इन्द्रियज्ञान प्रत्यक्ष नहीं होता।
तथ्यप्रकाश-~-(१) जो केवल आत्माको प्रति नियत हो वह जान प्रत्यक्ष है। (२) इन्द्रियज्ञान भिन्न परद्रध्यरूप अनालमस्पशी इन्द्रियों द्वारा पर पदार्थों को उपलब्ध कर जन्य होने से प्रत्यक्ष नहीं हो सकता । (३) जो ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं उसके अनुभव में सहज प्रानन्द नहीं जग सकता । (४) जिस ज्ञानके साथ सहज प्रानन्द नहीं, प्रल्यूत क्षोभ है यह ज्ञान (इन्द्रियज्ञान) हेय है। (५) केवल प्रात्मास ही निष्पन्न होने वाला निराकरण ज्ञान सकलप्रत्यक्ष है न उपादेय है । (६) निरावरण सकलप्रत्यक्ष ज्ञान बाट जोहनेसे नहीं उपलब्ध होता. किन्तु सहज ज्ञानस्वभावमें उपयुक्त होते हुए मग्न होने पर यही सहज ज्ञानस्वभाव स्वयं पूर्ण विकसित होता हुमा केवलज्ञानरूप परिणमता है।
___ सिद्धान्त---(१) इन्द्रियज्ञान क्षोभसे व्याप्त है । (२) अतीन्द्रिय ज्ञान सहज आनन्द से व्याप्त है।
दृष्टि---- १-- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय [२४] । २- उपाध्यभावापेक्ष शुद्ध
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनगार-गुप्तदशाङ्गी टीका
अथ परोक्षप्रत्यक्षलक्षणमुपलक्ष्यत --
जं परदो विण्णागणं तं तु परोक्ख त्ति मणिमसु । जदि केवलेा गार्ड हवदि हि जीवेण पञ्चकखं ॥५८॥ जो परसे प्रथका ज्ञान हुआ वह परोक्ष बतलाया ।
१.०३
जो केवल आत्मासे, जाने प्रत्यक्ष कहलाता ॥ ५८ ॥
यस्तो विज्ञानं तत्तु परोक्षमिति भणितमषु । यदि केवलेन ज्ञातं भवति हि जीवन प्रत्यक्षम् ॥ यसु खलु परद्रव्यभूतादन्तःकरणादिन्द्रियास रोपदेशादुपलब्धेः संस्कारादालोकादेव निमित्ततामुपगतात् स्वविषयमुपगतस्यार्थस्य परिच्छेदनं तत् परतः प्रादुर्भवत्परोक्षमित्यलक्ष्यते ।
रन्तःकरणमिन्द्रियं परोपदेशमुपलब्धिसंस्कारमालोकादिकं वा समस्तमपि परद्रव्यमनपेक्ष्यारमस्वभावमेवैकं कारणत्वेनोपादाय सर्वद्रव्यपर्यायजामेकपद एवाभिव्याप्य प्रवर्तमान परिच्छेदन तत् केवलादेवात्मनः संभूतत्वात् प्रत्यक्षमित्वालध्यते । इह हि राजसख्यसाधनभूतमिदमेव महाप्रत्यक्षमभिप्रेतमिति ॥ ५८ ॥
नामसंज्ञ-ज परदो विष्णाण त तु परोक्स सि भणिद अटू जदि केवल भाद हि जीव गच्च । धातुसंज्ञ--भण कथने व सत्तायां । प्रातिपदिकयत् परतः विज्ञान तन्तु परोक्ष इति भषित अर्थ यदि केवल ज्ञात हि जीव प्रत्यक्ष । मूलधातुभग शब्दार्थः भुबत्तायां । उभयपदविवरण -- यद् विष्णावं विज्ञानं तं तत् परोक्ख परीक्ष० ए० । पर परतः अव्यय पंचम्यर्थे । तुति इति जदि यदि हि-अव्यय । भणिदं भणितं प्रथमा एक० कृदन्त किया । अगु अर्थेषु सप्तमी बहु के केवलेन जी जीवनतृतीया एक. | पादं ज्ञानं पञ्चवखं प्रत्यक्षं प्रथमा एक । यदि भवति वर्तमान अन्य एक चिया निरुषित- अक्षं आत्मानं प्रतीत्य आश्रित्य उत्पद्यते इति प्रत्यक्ष
इव्यचिकनय [ २४ ] |
प्रयोग-- इन्द्रियज्ञानकी उपेक्षा करके ज्ञानस्वभाव अन्तस्तत्त्वमें उपयुक्त होना ॥५७॥ अब परोक्ष और प्रत्यक्ष लक्षको उपलक्षित करते हैं अर्थात् अपने उनकी संभा यता निरखकर उनके स्वरूपको प्रकट करते हैं-- [ परतः ] परके द्वारा होने वाला [व] जो [प्रयेषु विज्ञानं] पदार्थ सम्बन्धी विज्ञान है [ तत् तु] वह तो [परोक्ष इति भणितं ] परोक्ष कहा गया है [ यदि ] यदि [ केवलेन जीवेन] मात्र जीवके द्वारा ही [ ज्ञातं भवति ] ज्ञात होता है [[हि प्रत्यक्षं ] वह ज्ञान वास्तव में प्रत्यक्ष है ।
तात्पर्य --- इन्द्रियादिक परके निमित्तका अवलम्बन पाकर उत्पन्न हुआ ज्ञान परोक्ष है और मात्र आत्मा हुआ ज्ञान प्रत्यक्ष है ।
टीकार्थ -- निमित्तताको प्राप्त परद्रव्यभूत मन इन्द्रिय, परोपदेश, उपलब्धि, संस्कार
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०४
अर्थतदेव प्रत्यक्षं पारमार्थिक सौख्यत्वेनोपक्षिपति-
सहजानन्दशास्त्रमालायां
जादं सयं समंतं खाणमतत्थवित्थडं विमलं । रहियं तु प्रोग्गहादिहिं सुहं ति एगंतियं भणियं ॥५६॥ जात स्वयं व समतज, निर्मल विस्तृत अनन्त प्रथमं ।
श्रवग्रहादिसे रहित ज्ञान हि को सुख कहा वास्तव ॥५६॥
ज्ञातं स्वयं समतं ज्ञानमनन्तार्थविस्तृतं विमलम हुने लवग्रहादिभिः सुखमिति ऐकान्तिक भणितम् ॥५६॥ स्वयं जातत्वात् समन्तत्वात् अनन्तार्थविस्तृतत्वात् विमलत्वात् प्रवग्रहादिरहितत्वा * प्रत्यक्षं ज्ञानं सुखमैकान्तिकमिति निश्चीयते श्रनाकुलस्यैकलक्षणत्वात्सौख्यस्य । यतो हि परत जायमानं पराधीनतया श्रसमंतमितद्वारावरणेन कतिपयार्थ प्रवृत्तमितरार्थत्या
नामसंज्ञ--जाद सयं समंत गाण अर्थात् विमन रहिय तु ओग्गहादि सुनिएन भणिय । धातुसंज्ञ भण कथने । प्रातिपदिक-जात स्वयं समन्त ज्ञान अनन्तार्थविस्तृत विमन रहित अवग्रहादि सुख इति ऐकान्तिक भणित । मूलधातु भग शब्दार्थः । उभयपदविवरण - जा जान समं गाणं ज्ञानं व प्रकाशादिक से होने वाला स्वविषयभूत पदार्थका ज्ञान परके द्वारा प्रगट होता हुआ परोक्ष है ऐसा जाना जाता है, और जो अंतःकरण, इन्द्रिय, परोपदेश, उपलब्धि संस्कार या प्रकाशादिक व परद्रव्यकी अपेक्षा न करके एक मात्र ग्रात्मस्वभावको ही कारण ग्रहण करके सर्व द्रव्य पर्यायोंके समूहको एक समय में ही व्यापकर प्रवर्तमान ज्ञान है वह केवल आत्मासे ही उत्पन्न होनेसे प्रत्यक्ष है ऐसा जाना जाता है | यहाँ सहन सुखका सावनभूत यही महा प्रत्यक्ष ज्ञान इष्ट माना गया है ।
प्रसंगविवरण -- ग्रनन्तरपूर्व गाथा में इन्द्रियज्ञानके प्रत्यक्षार्हत्वका निषेध किया था । अब उसीके स्पष्टीकरण के लिये इस गाथा में परोक्ष व प्रत्यक्षका लक्षण कहा गया हैं ।
तथ्यप्रकाश - - ( १ ) परद्रव्य निमित्तके योग में पदार्थका ज्ञान करने वाला ज्ञान परीक्ष कहलाता हैं । (२) परोक्षज्ञानके होने में उपादान कारण पदार्थोपलब्धिके संस्कारसे युक्त वह आत्मा है । (३) परोक्ष ज्ञान होनेमें निमित्त कारण तत्तद्विषयकज्ञानावरका क्षयोपशम आदि है । ( ४ ) परोक्षज्ञान होनेपर संबद्ध निमित्तकारण है मन व इन्द्रियाँ | ( ५ ) परोक्ष ज्ञान होने में बाहरी निमित्त कारण है परोपदेश, प्रकाश आदि । ( ६ ) मन इन्द्रिय उपदेश संस्कार प्रकाश आदि कारणको अपेक्षा किये बिना मात्र ग्रात्मस्वभावको कारणरूप से उपादान करके जानने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाता है । ( ७ ) प्रत्यक्ष ज्ञान सहज श्रानंदका परम साधनीभूत है | ( ) जो सहज श्रानन्दका परमसाधनीभूत ज्ञान है वह महा प्रत्यक्ष ज्ञान है ।
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रत्रवनसार मनाङ्गी टीका
१०५
समलमसम्यगवबोधेन श्रवग्रहादिसहितं क्रमकृतार्थ ग्रहखेदेन परोक्षं ज्ञानमप्यन्तमाकुलं भवति । ततो न तत् परमार्थतः सौख्यम । इदं तु पुनरनाविज्ञान सामान्यस्वभावस्योपरि महाविकशिना भिव्याप्य स्वत एवं व्यवस्थितत्वात्स्वयं जायमानमात्माधीनतया समन्तात्मप्रदेशान् परममम राजानोपयोगोभूयाभिव्याप्य व्यवस्थितत्वात्समन्तम् शेषहारापावरसेन, प्रसभं तिपीतमस्त अणतत्ववित्थड अन्नार्थविस्तृत विमलं रहियं रहित ऐकान्तिक माहि हादिभिः तृतीया बहु० । भणिदं भणितं प्र० एक० दन्न क्रिया । निरुक्ति - अनन्ताय ने अ
सिद्धान्त - ( १ ) इन्द्रियज्ञान में संस्कारवशवर्ती ग्रहपज्ञ आत्माका बोध है । (२) - दिय ज्ञानमें संस्कारादिकी श्रावश्यकतासे जन्य सर्वज्ञ आत्माका बोध है।
दृष्टि-- ग्रस्वभावनय [१८०] २- स्वभावनय [ १७६ ] |
प्रयोग अपनेको संस्कारादिशून्य सहज ज्ञानस्वभावमात्र निरखना ॥५॥
व इसी प्रत्यक्षज्ञानको पारमार्थिक मुखरूपसे अपने पास रखते हैं अर्थात् पारमार्थिक सुखमय प्रत्यक्ष ज्ञानको अपने में रखनेकी तीव्र भावनासहित उसका स्वरूप बतलाते हैं - [स्वयं जात] अपने आप ही उत्पन्न [समंत ] ग्रात्मकि सर्व प्रदेशों में हुआ [ अनन्तार्थविस्तृतं ] ग्रनन्त पदार्थों में विस्तृत [ विमलं ] निर्दोष [तु] और [श्रवग्रहादिभिः रहितं ] ग्रहादि रहित [ज्ञानं ] ज्ञान [ ऐकान्तिकं सुखं ] ऐकान्तिक अर्थात् सर्वथा सुखरूप [ इति भणितं ] ऐसा सर्वदेव द्वारा कहा गया है ।
तात्पर्य- केवल ज्ञान स्वयं सहजानन्दमय हैं ।
निर्दोष परिपूर्ण सुख है यह निश्चित होता
• टीकार्य - स्वयं उत्पन्न होनेसे, समंत होनेसे, अनन्त पदार्थों में विस्तृत होनेसे और अवग्रहादिरहित होनेसे, प्रत्यक्षज्ञान सर्वथा है क्योंकि सुखका एक मात्र अनाकूलता हो लक्षण है। चूंकि परोक्ष ज्ञान (१) परके द्वारा उत्पन्न होता हुआ पराधीनता के कारण, (२) इतर द्वारोंके ग्रावरणके कारण, (३) अन्य "पदार्थों को जानने की इच्छा के कारण ( ४ ) समल' होता हुआ मिथ्या श्रवबोधके कारण और (५) 'वाहादि सहित' होता हुआ क्रमशः होने वाले पदार्थग्रहणके खेदके कारण अत्यन्त प्राकुल हैं। इसलिये वह परमार्थसे सुख नहीं है । परन्तु यह प्रत्यक्षज्ञान ( १ ) अनादि ज्ञानसामान्यरूप स्वभावपर महाविकास से व्याप्त होकर स्वतः ही व्यवस्थित होनेसे स्वयं उत्पन्न होता हुआ स्वाधीनता के कारण ( २ ) समस्त आत्मप्रदेशों का परम प्रत्यक्ष ज्ञानोपयोग होकर व्याप करके रहने से समंत होता हुआ समस्त द्वारोंके निरावरण होनेके कारण, (३) बिल्कुल भी लिये गये समस्त वस्तुओंके ज्ञेयाकार रहनेसे अनन्त पदार्थोंमें विस्तृत होता हुआ सर्व
SATTAM
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
mea
nemosmaran
BookSAMAKAwam
ramansames
nindiansir..............
.......
...
ne
वतने याकाः परमं वैश्वसमभिन्याय व्यवहिवन वादनन्तार्थविस्तृतम समस्ता बुभुत्मया, सकल शक्तिप्रतिबन्धकका सामान्यनि:शान्त तथा परिसरकाश भास्वरं स्वभावमभियान थ्यवस्थितन्त्र दिवमादिरहितम नमानार्थ पण व दाभावेन प्रत्यक्ष ज्ञानबुल भवन । नतम्रमाधिक बल मौरुवम् ॥५६॥ अनन्नाथा: बार लिग अनन्ताय नृतम् ।। .. !! पदार्थों को जाननकी इच्छाके प्रभाव के कारण ४) मला अतिको रोकने वाला कर्ममामान्य (जार में निकल जाने से (ज्ञान अत्यंत प्रकाशक वारा प्रकाशमान स्वभाव, व्यास होकर रहने से निर्मल होता हुआ यथार्थ जानने के कारण तथा (५) युगपत् ममपिन किया है तीन कालोंका अपना स्वरूप जिसने हमे लोकानको नार रहने से सबनहादिरहित हाना मा कम किये गये पदार्थ ग्रहाय वेदक प्रभावके कारणा अनाकुन्न है.। इस कारण वास्तव में वह पारमार्थिक सुन्द्र है।
प्रसंगविवरण--'अनन्तरपूर्व गाथामे परोक्षद प्रत्यक्ष ज्ञानका स्वरूप बनाया गया था । अब इस माथामें इसी प्रत्यक्ष जातको पारमाथिक प्रानन्दरूप कहा गया है ।
तथ्यप्रकाश-- (१) स्वयं ही उत्पन्न मा ज्ञान (प्रत्यक्ष ज्ञान स्वाधीन होने से मानन्दरूप है, पर इन्द्रियादिके निमित उत्पन्न प्रा परोक्ष ज्ञान पराधीन होनसे याकुल रहता है । (२) सर्व भाभप्रदेशास जानने वाला मामला ज्ञान परिपूर्ण होना अानन्दरूप है, किन्तु अन्य हारोंके यावरस वाला ब क इन्द्रिय कारसे किञ्चित् जानने वाला ज्ञान काल रहता है । (5) सर्व अनन्त पदार्थो का जानन हार न म जान चुकने के कारण प्रानन्दरूप है, किन्तु कुछ ही पदार्थोंभे प्रवर्त सकने वाला जान अन्य पदार्थोंके जानने की इच्छा रहने के कारण प्राकुल रहता है । (४) निर्दोष अतीन्द्रिय नान सही जानने के कारण सानन्दरूप है, किन्तु सदोष इन्द्रियज्ञान यथार्धजला न होने से प्राहुल रहता है । (५) युगपत् विश्वको जानने वाला ज्ञान जिज्ञासाखेदरहित होने के कारण ग्रानन्दरूप है, किन्तु अवग्रहादि विधिले जानने वाला शान कृमकृत अर्थग्रहण के खेदो बन होनक मारला अाकुल है । (६) निराकरण प्रत्यक्ष ज्ञान अनिवारित अानन्दरूप है।
सिद्धान्त-- (१) स्वभाव की निर्ममता सर्व निर्मलता है। दृष्टि-१- स्वभावगुणाव्यशुनपायष्टि [२१४] ।
प्रयोग ---सहज परम ग्रानन्दधे अनुभव के लिये अविनाभाना सहन परम ज्ञान के स्रोतभूत सहज मानस्वभावको उपासना करना ॥५६॥
M ARAHARI HAIsog
# am
ISHES-
FichoidaisiATTAMATSARORAKHAND
ari
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशा टीका
१०७
केवलस्यापि परिणामद्वारेण खेदस्य संभवादैकान्तिकसुखत्वं नास्तीति प्रत्याच जं केवलं ति गाणं तं मोक्खं परिणामं च सो चैत्र । खेदो तस्स भगदो जम्हा वादी खयं जादा ॥६०॥ केवल ज्ञान हि सुख है, है वह परिणामरूप हो तो भो । खेद न च वहां है, क्योंकि घातिकर्म नष्ट हुए ॥ ६० ॥ केवलमिति ज्ञानं तत्सीय परिणामश्च ग चैत्र । दस्तस्य न गणिती वरमात् पातीनि श्रयं नामानि ॥६
अत्र कोहि नाम खेदः कश्व परिणामः कश्च केवलमुखयतिरेकः यतः केवलकान्तिकसुखत्वं न स्यात् । खेदस्यायतनानि घातिकर्माणि न नाम केवल परिणाममाश्रम् | पातिकर्माणि हि महामोहोलादकत्वादुन्मत्तवदतस्मिंस्तद्बुद्विमाधाय परिच्छेदमर्थं प्रत्यात्मानं यतः परिणामयति, ततस्तानि तस्य प्रत्यर्थं परिणम्य परिणम्य श्राम्यतः खेदनिदानां प्रतिप द्यन्ते तदभावात हि नाम केवले खेदस्योद्भेदः । यतश्च समयावच्छिन्न सकलपदार्थ परि
दण भणिद जघादि सब जाइ । तत् राख्यि परिणाम चन
नामसंज्ञज केवल विभाग व सोख परिणम चतएव धातुसंज्ञ -- गण कथने जा प्रादुर्भाव । प्रातिपदिकयत् केवल इति ज्ञान एव खेद तत् न भणित यत् घाति क्षय जाय। मूलधातुभग शार्थ जी प्राइमवि । उभयपदविवरणयेव केवलं गाणं ज्ञानं तं तत् सोक्खं मौख्यं परिणम परिणामः योगः मंदो मेदः प्रथम
सकता
अब केवलज्ञानके भी परिणामके द्वारा खेदको सम्भवता होनेसे ऐकान्तिक सुखरूपता नहीं है' इस अभिप्रायका खंडन करते हैं--- [ यत् ] जो [ केवलं इति ज्ञानं ] 'केवल' नामका ज्ञान है [ तत् सौख्ये ] वह सुख है [ परिणामः च] परिणाम भी [सः च एवं ] बड़ी है [ वेदः न भणितः ] उसके खेद नहीं कहा गया है, [ यस्मात्] क्योंकि [धातीनि ] वानियाक राव [क्षयं जातानि ] क्षयको प्राप्त हुए हैं ।
तात्पर्य केवलज्ञान परिणमन तो स्वाभाविक परिणगत है वह भी नहीं
टीकार्थ-यहाँ केवलज्ञानके सम्बंध में, वास्तव में खेद क्या परिणमन क्या तथा केवलज्ञान और सुखका भेद क्या, जिससे कि केवलज्ञानको ऐकान्तिक नुखपना न हो ? देखिये-चकि (१) खेदके प्रायतन प्रालिक हैं, केवल परिणमन मात्र नहीं । यातिकर्म महामोहक उत्पादक होनेसे पागलको तरह तत् तत् बुद्धि धारण करवाकर आत्माको शेयपदार्थ के प्रति परिणमन कराते हैं। इस कारण वे घातिकर्म प्रत्येक पदार्थ के प्रति परिमित हो-होकर थकने वाले आत्माके लिये खेदके कारणपने को प्राप्त होते हैं । उन घातिकमका प्रभाव होनेसे केवल
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
......................
१०८
हजानन्दायमानायां
च्छेद्याकारवैश्वरूप्यप्रकाशनास्पयोभूतं चित्रभितिस्थानीयमनन्तस्वरूपं स्वयमेव परिणमत्केवल : मेव परिणामः ततः कुतोऽन्यः परिणामो बहारेण खेदस्यात्मलाभः । यच समस्त स्वभाव प्रतिघाताभावात्समुल्लसितनिरंकुशानन्तशक्तितया सकलं त्रैकालिक लोकालोकाकारमभिव्याप्य कूटस्यत्वेनात्यन्ततिःप्रकम्प व्यवस्थितत्वावनाकुलतां सौख्यलक्षणभूनामात्मनोऽव्यतिरिक्तां बिभ्राणं केवलमेव सौख्यम् । ततः कुः वयोव्य॑तिरेकः | अतः सर्वथा केवलं खमैकान्ति कमनुमोदनीयम् ॥६०॥
तन्मय-पुष्टी एक भगिदी भाषन दिया। जम्हा भात पंचमी एक घादी भातीनि प्र० बहु० । खयं क्षयं द्वितीया जादा जानाति प्रथमा बहूत किया । निरुक्ति--- वेब: पातयन्तीति घातला
जान में खेद कहाँसे प्रगट होगा ? (२) और चूंकि लोन कालोंसे ग्रवच्छिन्न समस्त पदार्थोको याकाररूप विविधताको प्रकाशित करनेका स्थानभूत केवलज्ञान चित्रित दीवारकी भाँति, स्वयं ही अनन्त स्वरूप परिमित होता हुआ केवलज्ञान हो परिणमन है । इस कारण अन्य परि मन कहाँसे हो जिससे कि वेदको उत्पत्ति हो ? (३) और चूंकि समस्त स्वभावप्रतिघातके प्रभाव के कारण निरंकुश ग्रनन्त शक्ति उल्लमित होनेसे समस्त त्रैकालिक लोकालोकके श्रा कारमें व्याप्त होकर कूटस्थता प्रत्यं निष्कम्प रहनेसे आत्मासे अभिन्न मुख -लक्षभून अना कुलताको धारण करता हुआ केवलज्ञान ही सुख है, इस कारण केवलज्ञान और सुखका व्य तिरेक कहाँ है ? इससे 'केवलज्ञान ऐकान्तिक सुख है' यह सर्वथा प्रनुमोदन के योग्य हैं ।
प्रसंग विवरण -- ग्रनन्तरपूर्व गाथा में प्रत्यक्षज्ञानको पारमार्थिक प्रानन्दरूप बताया गया था । अब यदि कोई अतीन्द्रिय केवलज्ञान में यह संदेह करे कि केवलज्ञान भी तो प्रति समय होने वाला परिणमन है और जहाँ परिणामन है वहाँ खेद हैं, तो उनके इस संदेहका निराकरण इस गाथामें किया गया है ।
तथ्यप्रकाश -- ( १ ) द्रव्यत्व गुरणके कारण पदार्थ में परिणयन प्रतिसमय होता हो रहा है व होता ही रहेगा । (२) पदार्थ परिणामशून्य कभी रहेगा ही नहीं । ( ३ ) परमात्मपदार्थ भी शुद्ध परिणमनोंसे परिणमता ही रहेगा । ( ४ ) परिणमनमात्र वेदका कारण नहीं है । (५) खेदका कारण घातिया कर्मोंके उदयके निमित्तसे होने वाला परोन्मुख परिणमन है । ( ६ ) घातिया कर्मके उदयसे महामोहका उत्पाद होने के कारण जीव तत् में तद्बुद्धि कर लेता है अर्थात् वस्तुस्वरूपसे विपरीत निर्णय रखता है । (७) विपरीत बुद्धि वाला जीव ज्ञेय पदार्थ के अपको परिणमनेका विकल्प करते हैं । (८) ज्ञेयार्थपरिणमन बुद्धिसे यह जीव इष्टानिष्ट
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
..
ANS
maintamansama
A
R
MIRAMMANITERAMMARRITERa
m sungarpummaNawm
a
kalins
प्रबदनसार---सप्तदशाङ्गी टीका अथ पुनरपि केबलस्य सुखस्वरूपतां निरूपयन्नुपसंहरति..
णाणं अत्यंतगयं लोयालोएसु वित्थडा दिट्ठी। णट्टमणिट सब इटं घुगण जे तु तं लद्ध ॥६१ ।।
ज्ञान अर्थान्तगत है. दृष्टि है लोकालोकमें विस्तृत ।
नष्ट अनिष्ट हुआ सब, जो परमेष्ट वह लब्ध हुआ ।।६१॥ जानमन्तिमतं लोकालोकेषु विस्तृता अप्टि: । नाटनिटं मिट पुनयनु तल्लव्यम् ।। ६१ ॥
स्वभावप्रतिघाताभावहतुकं हि सौख्यम् । आत्मनो हि शिजती स्वभावः तयोर्लोकालोकविस्तृतत्वेनान्तिगतत्वेन च स्वछन्दविजमितवाद्भवति प्रतियाताभावः । ततस्तहेतुक सोश्यमभेदविवक्षायां केवलस्य स्वरूपम । किन केवलं सौख्यमेव, सर्वानिष्टप्रहागात सर्वेष्टोपMAD नामसंज-णोण अत्यंतगय लोयालोय हित्य डा दिदि भट्ट अगिट सव्य इस प्ण जनुन लद्ध ।
तिस-दिस प्रेक्षयो, नत्स ना, लभ पाती। प्रातिपदिक ज्ञान अर्थान्तगत लोकालोक। तता दृष्टि नष्ट अनिष्ट सर्व इष्ट पुनर् यत् तु लब्ध । मूलधातु... शिर दर्शने. "श अदर्शन दिवादि, झुलभ प्राप्नो। उभयपदविवरण–णाणं ज्ञानं अत्थंगदं अन्तिगण नरटं अगिट्ट अनिष्टं सब्वं सर्च इ→ दुष्टं जं यत् कल्पनाघोंसे थककर खेद किया करता है । (5) धालिया कोका अभाव होनेपर खेदका प्राय. मन न रहनेसे केवलज्ञान में खेद बिल्कुल असंभव है। (१०) केवलज्ञान परिणमन उस प्रतिभा में ही है जिसके धातिया कर्म क्षीण हो चुक्रने से विद्यमान ही नही है । (११) निरुपाधि ज्ञान केवलज्ञान केवलज्ञानरूप प्रतिसमय परिणमन हो-होकर अनन्तकाल अनन्तों केवलज्ञानरूप परिणमता रहेगा। (१२) परमात्य पदार्थके परिणमन न हो तो केवलज्ञान नष्ट ही हो जाअगा। (१.३) त्रिकालवर्ती समस्त ज्ञेयोंके प्राकारादिके अनुरूप प्रतिबिम्बित अन्तर्शयाकारमय मात्माको जाननेरूप परिणमना यही केवलज्ञान परिणमन है तो यह स्वाभाविक है और यह परिण मन सहज प्रानन्दका अविनाभावी है । (१४) केवलज्ञान सर्वथा अपरिणामी नहीं है, किन्तु वह ज्ञेयपरिवर्तन नहीं करता अर्थात् कालिक समस्त ज्ञेयाकारोंको सर्वदा जानता रहता है जो कि स्वभावानुरूप विकास है वहां खेदकी गुंजाइश ही नहीं । (१५) केवलज्ञान स्वयं सहज असीम प्रानन्दमय है।
सिद्धान्त---(१) शुद्ध प्रात्मा केवलज्ञान मय है और अनन्तआनन्दमय है । दृष्टि-१- सभेद शुद्ध सद्भूत व्यवहार [७२] ।।
प्रयोग-प्राकुलताके साधनीभूत इन्द्रियज्ञानको हेय जानकर तथा अनन्त शुद्ध सहज Jain मानन्दके परमसाधनीभूत अतीन्द्रियज्ञानको उपादेव जानकर अतीन्द्रिय ज्ञान के प्रोध उपादान
RAMAYA
ISROR
।
--100011ANILOADI
dindia
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां
CriminexmarAyawwwINARImaticipanilewlativummimmemaine
लम्मा । सोहि केवलावस्थायां सुख प्रतिपत्तिविपक्ष भूता दुःखस्य मानिनामुमतमजानमखिलगद प्रणयात, मुखय साबनीभूतं तु परिपूर्ण ज्ञान मुपजायत । ततः कवलमब समयनित्यलं प्रान् ॥६१!
ग-44 14 ला लोकालोका० अह । विस्थामा विनिता दिली ....He वा | लग-
प्रकाश लिया । पुनर पुनः ?--अव्यय । निरुक्ति ... | इट अनिष्ट, लारा गाषि Affiमरान । समास अयय अन्तः अर्थानःन्निं गनः अगाः ।। १।।
రాజు
Imanensisonmentapmurgicancyemkanswermmsmicpmmmmmunities
कारण प्रतान्तिय अधिकार सहज चैतन्यस्वरूपमें अात्मत्वका अनुभव करना i६०।।
आधार भो 'केवलजान सुख स्वरूप है। यह निरूपण करते हुय उपाहार करना है.--- [शान] ज्ञान अन्तिगत] पदार्थोक पारको प्राप्त है । दृष्टिः] और दर्शन लोकालोक वि. स्तृताः लोकालोक में विस्तृत है; [सर्व अनिष्ट] सर्व अनिष्ट [नष्टं] नष्ट हो चुका है. पुनः] और [यत् तु जो इदं] इष्ट है [तत् ] वह मुख [लब्ध] प्राप्त हुप्रा है।
तात्पर्य ---- केवल ज्ञान के होनेपर सर्व अनिष्ट मिट चुका व पुर्ण ३ मिल गया, इस कार भी केवलज्ञान परिपूर्ण प्रानन्दमय है ।
टोकार्थ-स्वभवाप्रतिधात के अभाव के कारण ही परमार्थ सुख है ! आत्मावा स्वभाव दर्शन शान है; उन दोनों के लोकालोक में विस्तृसपना होने से और पदार्थोक पारको प्राप्त होतो व स्वतन्त्रता विकसितपना होने से प्रतिघातका अभाव है। इस कारण स्वभाव प्रतिधाता का अभाव जिसका कारसा है ऐसा भूख अभेदविवक्षामें केवल जानका स्वरूप है। और अया, कि केवलज्ञान गुख हो हैं, क्योंकि सर्व अनिष्टों का नाश हो चुका है और सम्पूर्ण दृष्ट की प्राप्ति हो चुकी हैं। चूंकि केवल अवस्थामें, मुखोपलब्धिक विपक्षभूत दुःखके सावनपनाको प्राप्त समस्त ही अजान नष्ट हो जाता है और सुखका साधनीभूत परिपूर्ण ज्ञान उत्पन्न होता है, इसबारा केवल ही मत है । यह अधिक विस्तारसे बस होयो ।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्ण गाथामें बताया गया था कि केवलज्ञान परिणामल है सो बहाँ खद संभव होगा, अतः अानन्दका अभाव होगा, एसी शंका नहीं रखनी चाहिये । यस इस गाथामें पुनरपि वेधलमानको ग्रानन्दस्वरूपताका निरूपण किया गया है ।
तथ्यप्रकाश-(१) प्रानन्द तो स्वभावका प्रतिघात न होनेके कारण सुया करता है। (२) प्रामाका स्वभाव दर्शन ज्ञान है । (३) प्रभुका दर्शन ज्ञान असीम विकसित है वहां स्वभावका प्रतिधान नहीं है । (४) जहां स्वभावका प्रतिघात नहीं है वहां अनंत आनंद है और वही अभेदविवक्षामें केवलज्ञानका स्वरूप है । (५) केवलज्ञान होनेपर कोई आनिष्ट नहीं रहा
Ganapyaar
ictarteentheEANING
ముందు కు కు కు కు కు కు కు మందు
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनमार-पीट
अर्थ केवलिनामेव पारमार्थिक सुखमिति श्रद्धापयति यो सति हेम परमं ति विगद्घादी | सुणिऊण ते भव्वा भच्या वा तं पडिच्छति ||३२|| farara प्रभुका सुख, सुखों उत्कृट यह वचन सुनकर । नहि श्रभव्य सरवाने भव्य हि प्रसा ॥ ६२ ॥ पति: सौख्य सुत्रेषु परममिति विवा इह खलु स्वभावप्रतिघात
मोहनीयादिकर्मजालशालिना खा
माथिको सुखमिति रूढिः । केवलिन तु भगवतप्रधानकर्मणां स्वभावप्रतिधातानावान दालत्वाच्च यथोदितस्य हेतोर्लागस्य चारमार्थिक सुखमिति श्रव । न किलेव नामसंज्ञो सोख हाते । वातु यहधारी (सहा), सुप श्रवणे तृतीयगणी प्रातिपदिक गौल्य पर विग तपाति तत् अभव्य भव्य वा तत् । मूलाधारणपणयोः हत्या याि प्रति इस इच्छायां स्वादि। उन्यपदविवरण-इ-अव्यय । गोवस्त्र समय सम्मन्वना एक । सुखेषु सप्तमी बहुरूपी
प
१११
सर्व इष्ट पा लिया, अतः केवलज्ञान अत्यंत निराकुल अनन्न ग्रानन्दमय है । (६) केवलज्ञान की प्रवस्था दुःखका साघनीभूत अज्ञान तो गर्व नष्ट हो चुका ोर यावा साधतीन परिपूर्ण ज्ञान आविर्भूत हुआ अतः वह केवलज्ञान आप ही है ।
सिद्धान्त - (१) शुद्ध परमात्मय ज्ञान धानन्द आदि का परम विकास है। दृष्टि - १ - शुद्धभेदविषयो द्रव्यविकता शुद्ध सूक्ष्म ऋजुगुय [ ५१ ] प्रयोग - पने आत्माकी स्वस्थता के लिये अपने केकी अर्थात् एकत्वविभक्त शायक Taran aerस्वको प्राराधना करना ||३१||
अब केवलज्ञानियोंके ही पारमार्थिक सुख होता है. यह श्रद्धा कराते है - [ विगत घातिनां] धातिकर्म नष्ट हो गये हैं जिनके उनका [ सौर्य ] मुख [ सुखेषु परमं नवं मुखमें [ है [ster] यह सुनकर [न अति] जो श्रद्धा नहीं करते [ते अभव्याः] वे [अभव्य हैं [ भय्याः वा ] और भव्य [ तत् | उसे [ प्रतीच्छन्ति ] स्वीकार करते है, उसकी श्रद्धा करते हैं।
तात्पर्य- केवलज्ञानियोंके अनन्तमुखका जिनके अज्ञान नहीं के मिथ्यादृष्टि है । टीकार्थ- इस लोक में मोहनीयादि कर्मजाल वालोंके स्वभावप्रतिघातके कारण और आकुलता के कारण सुखाभास होनेपर भी उस खाभासको 'सुख' ऐसा कहनेकी पा
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
SSEMB
११२
सहजानन्द शास्त्रमालायां
येषां श्रद्धानमस्ति ते खलु मोक्षगुख गुधापान दूरवतिनो मृगतृष्णाम्भोभारमेवाभव्याः पश्यन्ति । ये पुनरिमिंदानीमव बचः प्रतीच्छन्ति ते शिवथियो भाजनं समासन्न भक्ष्याः भवन्ति । य तु पुरा प्रतीच्छन्ति ते तु दुरभव्या इति ।।६२॥
...
लिपलीच्छन्ति-वर्तमान लन् अन्य का बहवचन क्रिया । ते अभव्या अभव्याः भव्या भव्या... प्र. वह । गुणिण श्रुत्वा-असमाप्तिको किया । तं तत्-द्वितीया एक० । निक्ति-भवितुं योन्या: व्याः) समासविगतानि घातीनि येषां ते विगतधातिनःषां विगतनातिनां ।। ६२ ।।
E
mamutaintenamaAARAMmmmmmmmwwwindlanswmawwamirminimumlawiyowwwwn
...... Kamarp.................... R amecommmmmmmmontainions m uanseavmmmmmanuel30AMA neesBASSASTE Mamiti
www.
magas
रमाथि की रूढ़ि है: परन्तु जिनके घातिकम नष्ट हो चुके हैं ऐसे केवलो भगवान के, स्वभावप्रतिबालके लाभाव के कारण और अनाकुलताके कारण सुखके यथोक्त कारणका और लक्षाका सद्भाव होनेसे पारमार्थिक सुख है.---यह श्रद्धा करने योग्य है। वास्तव में जिनके ऐसी श्रद्धा नहीं है वे मोक्षसुखके मुधापानसे दूर रहने वाले अभध्य मृगतृष्णाके जलसमूहको देखते हैं। और जो उस वचनको इसी समय स्वीकार करते हैं के मोक्षलक्ष्मोक भाजन आसन्नभन्य हैं, और जो आगे जाकर स्वीकार करेंगे वे दूरभव्य हैं।
प्रसंगविवरण-..-अनन्तरपूर्व गाथामें केवलजानकी प्रानन्दरूपताका निरूपण किया गया था । अब इस गाथामें बताया गया है कि केवली भगवान के ही पारमार्थिक प्रानन्द है।
तथ्यप्रकाश- (१) मोहग्रस्त जीवोंके सुखाभासको जो मुख कहनेकी रूहि है वह वास्तविक नहीं है । (२) मुखाभास अति इन्द्रियजन्य सुख कष्टरूप ही है, क्योंकि वह सुखाभास आत्मस्वभावका घात करता है और प्राकुलतासे व्याप्त है। (३) केवली भगवान का आनन्द अर्थात् अतीन्द्रिय प्रानन्द पारमाथिक अानन्द है। (४) अतीन्द्रिय अानन्द निवि कला नसीम सहज परम श्राह्लादस्वरूप है, क्योंकि कहीं स्वभावका घात नहीं और वह पूर्ण निराकुलतामय है । (५) जिनको प्रभुके सहज प्रानंदको श्रद्धा नहीं हैं ये तृष्णाग्रस्त मोक्षानन्दामृत दूरवर्ती जीव खोटी होनहार वाले हैं। (६) जो प्रभुके सहज प्रानन्दकी श्रद्धा करते हैं और ऐसे ही निज सहज प्रानन्दकी रुचि रखते हैं वे मोक्षलक्ष्मोके पात्र हैं, निकटभव्य हैं । (७) के वली भगवानमें सहज परम प्रानन्द है यह श्रद्धा निज सहज प्रानन्दकी रुचिकी साधिका है ।
सिद्धान्त -- (१) शुद्धस्वरूपको भावनाके प्रसादसे शुद्ध पर्यायका प्राविर्भाव होता है और कमोंका क्षय होता है।
दृष्टि-... १ - शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकन य [२४] ।
प्रयोग-निजविकासके अर्थ प्रभुविकासके स्वरूपकी श्रद्धा कर उम विकासके प्राधारभूत सहज चैतन्यस्वभावकी दृष्टि कर स्वपरविभागरहित शाश्वत सहज चतन्यस्वभाव में उपयुक्त
Hists-
IANDER
ARIAntitteneK
5 M
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
।
प्रवचनसार... सप्तदशाङ्गी टीका
११३ अय परोक्षज्ञानिनामपारमार्थिकमिन्द्रियमुखं विचारयति---
मणुप्रासुरामरिंदा यहिदा इंदियेहिं सहजहिं ।
असहता ते दुक्खं रमति विसरासु रुम्मसु ।। ६३ ॥ .... नृसुरासुरेन्द्र पीडित, प्राकृतिक इन्द्रियों के द्वारा हो।
उस दुखको न सहन कर, रमते हैं रम्य विषयों में ॥३॥ मतुमासुरामरेन्द्रा: अभिद्रुता इन्द्रियः गजैः 1 असहमानास्ता रमन्ते विषयेषु रम्येषु ।। ६३ ।।
अमीषां प्राणिनां हि प्रत्यक्षज्ञानाभावात्परोक्षज्ञानमुपसाता तत्सामग्रीभूतेषु, स्वरसत एवेन्द्रियेषुः मंत्री प्रवर्तते । अथ तेषां ता मैत्रोमुपगतानामुदीरामहामोहकालानलकवलिताना सप्तायोगोलानामिवात्यन्तमुपात्ततृष्णानां लद्दाखवेगमसहमानानो व्याधिसात्म्यतामुपगतेषु रम्येनु
नामसंज्ञ---.मगुआगुरामारद अहिददुद इन्द्रिय महज अाहत न दुवण विराय म । धातुसंज्ञ-अभि इस सप्ता, सह सहने, 'रम क्रीडायां । प्रातिपदिक---मनुजामुग़मरेन्द्र अभिल इन्द्रिय गहज असहमान तत् दुःख विषय रम्य । मूलधानु - अभि द्रुज हिंसायां, यह मर्पण, रमु शीडाया । उभयपदविवरण--गणआसुरामरिंदा मनुजासुरामरेन्द्राः अहिदा अभिगुताः असहना असहमाना:-प्र० बहु० : इंदि यहि इन्द्रियः सहजेहि सहज-तृतीया बहु । तं तत् दुःवग्वं दुःख-द्वितीया एका० । रमति रमन्ते--वर्तमान० अन्य० बहुः । होना ॥६॥
अब परोक्ष ज्ञान वालोंके अपारमाणिक इन्द्रियमुखको विचारते हैं ---- [मनुजासुराम। रेन्द्राः] मनुष्येन्द्र अर्थात् चक्रवतों अमरेन्द्र और सुरेन्द्र [सजः इन्द्रियः] प्राकृतिक इन्द्रियों से [अभिद्र ता] पीड़ित होते हुए [तद् दुःखं] व उस दुःखको असहमानाः] सहन न कर सकते हुए [रम्येषु विषयेषु] रम्य विषयोंमें [ रमन्ते] रमण करते हैं ।
तात्पर्य---संसारके बड़े इन्द्रियजनानो भो इन्द्रियविषयोंकी तृष्णावी पीड़ाको न सहकर कल्पित रम्य विषयों में रमण करते हैं ।
टोकार्थ-प्रत्यक्षज्ञान के प्रभावके कारण परोक्षज्ञान का प्राश्रय लेने वाले इन प्राणियों के उस परोक्षज्ञानकी सामग्नोरूग इन्द्रियों के प्रति निजरससे (स्वभावसे) ही मैत्री प्रवर्तती है । उन इन्द्रियोंमें मैत्रीको प्राप्त उदयप्राप्त महामोहरूपी कालाग्निसे ग्रस्त तप्त लोहके गोलेकी तरह उत्पन्न हुई है, अत्यन्त तृष्णा जिनके उस दुःखके वेगको सहन न कर सकने वाले उन प्राणियोंके व्याधिके प्रतिकारके समान है। इसलिये इन्द्रियां व्याधि समान होनेसे और विषय व्याधिके प्रतिकार समान होनेसे छम्मस्थोंके पारमार्थिक सुख नहीं है।
प्रसङ्गविवरण----अन्तरपूर्व गाथामें यह श्रद्धा कराई गई थी कि पारमार्थिक आनंद के वली प्रभुके ही है । अब इस गाथामें बताया गया है कि परोक्षज्ञानियोंका इन्द्रियसुख अपार
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
m
११४
सहजानंदशास्त्रमालाया विषयेषु रतिरुपजायते । ततो न्याधिस्थानीयत्वादिन्द्रियाणां अयाधिसाम्यसमत्वाविषयागो च न प्रस्थानों पारमार्थिक सौख्यम् ।। ६३ ॥ विसएस विषयेषु रमेसु रम्येष-तभी बह । निरुक्ति--सनोः जातः मनुज सरति इति सुरः । समास -- (मनुजाश्य अनुरास्त अमराश्य मनुजारामा इन्द्रा: मनासुरामरेन्या: ।। ६३ ।। माथिक है।
तथ्यप्रकाश -- (१) इन संसारी प्राणियोंके प्रत्यक्ष ज्ञान नही है । (२) प्रत्यक्षज्ञान न. होनेसे में प्राणी परोक्षज्ञान में ही रेंगते रहते हैं । (३) परोक्षजानसे चिपटने वालों के परोक्षज्ञान के साधनीभूत इन्द्रियों में मित्रता प्रकृत्या ही हो जाती है । (४) इन्द्रियों में मंत्री को प्राप्त, महामोहकालाग्नि से ग्रस्त तृष्णपाल इन प्राणियों को इन्द्रियोंके रम्य विषयों में अनुरक्ति हो जाती है। (५) ये इन्द्रियवृत्तियाँ रोगके समान है। (६) वे इन्द्रियविषयसेवन रोगमें थोड़ा पाराम जैसा अनुभव कराने वाले उपचार के समान हैं । (७) विषयसेवनमें क्षोभव्याप्त पाल्पित सुत्र होनेसे वह इन्द्रियसुख सुखाभास है । (८) परोक्षज्ञानियोंका इन्द्रियसुख पारमार्थिक तत्त्व नहीं है । (६) इन्द्रियानुरागी छदास्थ प्राणियोंके पारमार्थिक सुख होता ही नहीं है । (१०) चक्क. वती देबेन्द्र जैसे पुण्यवान जीव भी इन्द्रियविधयपीडाके दुःखको सहन न करते हुए कल्पनामात्र रम्य विषयों में रमते हैं।
सिद्धान्त---(१) विषयवासनासंर कारवशक्ती परीक्षजानीका इन्द्रियमुख अपारमार्थिक है । (२) अशुद्ध मोहग्रस्त जीवका खोटे विकल्पोंमें रमण होता है। (३) विषयवासनापीडित जीव इष्ट रम्य स्पर्शादि विषयोंमें रमता है।
दृष्टि-...१ - अस्वभावनय [१८०] । २- अशुद्धनिश्चय नय [४] । ३- प्राश्रये नाथको उपचारक व्यवहार [१५.१] ।
प्रयोग - इन्द्रियज्ञानको प्रेरगावोंको अहितकर जानकर इन्द्रियविषयों में रमा न भार अतीन्द्रिय अविकार सहज ज्ञानस्वरूपमें मग्न होनेका पौरुष करना ।।६।।
अब जब तक इन्द्रियों हैं जब तक स्वभावसे हो दुःख है, यह युक्तियोंसे निश्चित करते हैं—येषां] जिनके [विषयेषु रतिः विषयों में रति है तेषां] उनके [दुःखं दुःख [स्वाभावं] प्राकृतिक [विजानीहि] जानो, [हि] क्योंकि [यदि] यदि [तद) वह दुःख [स्वाभावं न] प्राकृतिक न हो तो [विषयार्थ] विषयों के अर्थ [व्यापारः व्यापार [न अस्ति नहीं हो
i
rmiiwwwmawaanawarimmswinitiatimsammaankrantikairmiri--mite
......
सकता
तात्पर्य-विषयोमे राग होनेसे दुःख होना स्वाभाविक हो है ।
camerammar
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
MIRE
SOCIANE
SSES
प्रवचनसार----सप्तदशाङ्गी टीका अथ यावदिन्द्रियाणि तावत्स्वभावादेव दुःखमेवं वितकंयति ....
जेसि विमयेसु रदी तेमिं दुक्खं वियागा मुभावं । जड़ तं णा हि मभावं वावारो णस्थि विसयत्थं ॥६॥ जिनको विषयोंमें रति, उनके तो क्लेश प्राकृतिक जानो।
यदि हो ने प्राकृतिक दुख, विषयार्थ प्रवृत्ति नहिं होती ।।६४। । येषां विषयेषु रतिस्तेषां दुःखं विजानीहि ब्वाभाथम् । यदि नन्नति प्रवाभाव व्यापारी नास्त्रि विषयाणम् 11 RO येषां जीवदयस्थानि हलकानोन्द्रियारिम, न नाम तेषामुपाधिप्रत्ययं दुःखम्, किंतु स्वा.
भाविकमेव, विषयेषु रतेरवलोकनात् । अवलोक्यते हि तेयो स्तम्ने रमस्य करेगकुटनीगा स्पर्श - इव, सफरस्य बडिशामिपर वाद इव, इन्दिरस्य संकोचसमुखारविन्दामोद इव, पतङ्गस्य प्रदीपा
चीरूप इव, कुरङ्गस्य मृगयुगे यस्वर इव, दुनिवारेन्द्रियवेदनावशीकृतानामासन्न निपातेष्वपि विषयेष्वभिपातः । यदि पुनर्न तेषां दुःखं स्वाभाविकमभ्युपगम्येत तदोपशाल शीतज्वरस्य संस्वे. दतमिव, प्रहीरादाहज्वरस्यारनालपरिक इव, निवृत्तनेत्रसंरम्भस्य च वाचवर्णन मित्र,
नामसंज्ञ--...ज विजय रदि त दुबख समाव जाइत ण हि सम्भाय वावार ण विसयत्थ । धातुसंज---- वि जाण अवोधने, असा सत्तायां । प्रातिपदिक-यन् विषय रति तत् दुःख स्वाभाय यदि तत् न हि स्वा
भाव व्यापार न विषयाथें । मूलधातु--विज्ञा अवबोधने, वि आ पडा व्यायाम तुदादि, पार कर्मसमाप्तो HAI चुरादि, अस् भुन्नि । उभयपदवियरण..जेसि येषां-पष्ठी बहु० । विराएर विषपु-सप्तमी बढे । 'रदी
पा रतिः--प्र० ए० तेसिं तेषांवठी वह।। दुक्तं दुःखं सगावं स्वाभावंद्विल एक० | वियाण विजानीहि- आयर्थ लोट् मध्यम पुरुष एक० किया । जइ यदि न हि-अव्यय । सम्भावं स्वाभाव वावारो व्यापार:
टोकार्थ-जिनको हतक (हत्यारो निकृष्ट) इन्द्रियां जोवित हैं, उनके उपाधिके कारण दुःख नहीं है, किन्तु स्वाभाविक ही है, क्योंकि उनकी विषयों में रति देखी जालो है। हाथीका हथिनीरूपी कुट्टिनीके शरीरस्पर्श की तरह, मछलोका बंसी में फंसे हुए मांसके स्वादको तरह,
भ्रमरका बन्द हो जाने वाले कमलके गंधकी तरह, पतंगेका दीपकको ज्योतिके रूपकी तरह । और हिरनका शिकारीके संगीतके स्वरको तरह दुनिवार इन्द्रियबेदनाके वशीभूत होते हुए । उनके निकट याने विषयों में अभिपात होता है अर्थात् विषयोंसे नाश अति निकट है, विषय
क्षणिक हैं तो भी विषयों की प्रोर दौड़ते दिखाई देते हैं। और यदि उनका दुःख स्वाभाविक स्वीकार न किया जाये तो जिसका शीतज्वर उपशांत हो गया है, उसके पसीना पानेके लिये उपचार करनेकी तरह तथा जिसका दाह्य ज्वर उत्तर गया है उसके प्रारनालसे शरोरके परि. षेक करने की तरह तथा जिसकी अांखोंका दुःख दूर हो गया है उसके वटाचूर्ण प्रांजनेकी तरह
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां
muhankhummitil.instavsADMAMARRIAnkumarmindsayrywwsMAHAAAPur
।
विनष्ट कर्णशूलस्य बस्तमूत्रपूरणमिव, रूढवणस्यालेपनदान मित्र, विषयव्यापारो न दृश्येत । दृश्यते चासो । ततः स्वभावभुतदुःख योगिन एवं जीवदिन्द्रियाः परोक्षज्ञानिनः ।।६४।। प्रथमा एक । अस्थि अस्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष क. बिया । विसवत्थं विषार्थ-चयर्थे अव्यय । निक्ति-विशेषेण पयनं गमनं विषयः । समास ...रवस्य भार: स्वमात्र बभावस्य इदं स्वाभावं ।।६।। तथा जिसका कर्णशूल नष्ट हो गया हो उसके कान में बकरेका मूत्र डालनेकी तरह और जिसका घाव भर जाता है उसके फिर लेप करनेकी तरह उनका विषयों में व्यापार नहीं दिखना चाहिये किन्तु उनके वह विषयप्रवृत्ति तो देखी जाती है । इससे सिद्ध हुअा कि जिनके इन्द्रिया जीवित हैं ऐसे परोक्षज्ञानी स्वाभाविक दुःख से युक्त हैं ही।
प्रसंगविचरण--- अनन्तरपूर्व गाथामें कहा गया था कि परोक्षज्ञानी प्राणियोंका इन्द्रियसुख कष्टरूप है, अपरमार्थ हैं । अब इस गाथामें बताया गया है कि जब तक इन्द्रियाँ जीवित हैं तब तक दुःख होना प्राकृतिक ही है।
तथ्यप्रकाश-(१) जिनके इन्द्रियविषयवासना व रही है उनके दुःख होना प्राऋतिक बात है । (२) विषयों में रति होनेसे प्रारणीके दु:ख बाह्य विषयों के कारण नहीं, किन्तु विकारजन्य है । (३) विकारजन्य दुःखको न सह सकनेसे जीवोंकी विषय भोगने में प्रवृत्ति होती है । (४) इन्द्रियवेदना इतनी कठिन पीड़ा है कि इसके वशीभूत प्राणी निकट हो जिनमें मरण हो ऐसे भी विषयों में गिर पड़ते हैं। (५) उद्धत इन्द्रियों वाले परोक्षजानो के स्वयके विभाव जन्य दुःख है तभी वे विषयों में व्यापार करते हैं । (६) जिन प्राणियों को विषयों में प्रेम है उनको नियमसे विषयरतिके विकारसे दःख हो रहा है। (७) विषयों में प्रेम होने का कारण निजमें भेदविज्ञानका अभाव है । (८) विषयोंमें प्रेम होनेका निमित्त कारण उस प्रकारको रागवाली प्रकृतियोंका उदय है।
सिद्धान्त---(१) विभावगुणव्यञ्जनपर्याय स्वभावका प्रतिघातक होनेसे कष्ट रूप ही है । दृष्टि----- ५ --- विभावगुणव्यञ्जनपर्यायदृष्टि [२१६] ।
प्रयोग–दुःखकारक विकारोंसे, विकारके निमित्तभूत कर्मविपाकसे, कर्मबन्ध के निमि. सभूत विभावोंसे उपेक्षा करके बातोन्द्रिय ज्ञानस्वभावमें उपयोगको लगाना ॥६४।।
अब मुक्त आत्माके सुखकी प्रसिद्धिके लिये, शरीरको सुखसाधनताका खंडन करते हैं— स्पर्शः समाश्रितान्] स्पर्शनादिक इन्द्रियोंसे समाश्रित [इष्टान् विषयान् ] इष्ट विषयोंको
प्राप्य] पाकर [स्वभावेन] अपने अशुद्ध स्वभावसे परिणममानः] परिणामन करता हुन्या [प्रात्मा] प्रात्मा [स्वयमेव] स्वयं ही [सुख] इन्द्रियसुखरूप होता है [देहः न भवति] देह
Smamalnायणस्यममुम
-
---
SENSE
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार -- सप्तदशाङ्गी टीका
श्रथ मुक्तात्मसुखप्रसिद्धये शरीरस्य सुखसाधनतां प्रतिहन्ति
पप्पा
विसये फासेहिं समस्सिदे सहावेण ।
परिणममाणो अप्पा सयमेव सुहं ण हवदि देहो ॥ ६५ ॥
स्पर्शादिसे समाश्रित, इष्ट विषय या स्वभावसे आत्मा ।
११७
परिणममान स्वयं सुख, होता नहि देहसे कुछ सुख ॥ ६५ ॥
प्राप्येष्टान् विषयान् स्पर्शः समाश्रितान् स्वभावेन । परिणममान आत्मा स्वयमेव सुखं न भवति देहः || ६५|| अस्य खल्वात्मनः सशरीरावस्थायामपि न शरीरं सुखसाधनतामापद्यमानं पश्यामः, यतस्तदापि पोतोन्मत्तकरसैरिव प्रकृष्टमोहवशवर्तिभिरिन्द्रियैरिमेऽस्माकमिष्टा इति क्रमेण विषया नभिपतद्भिरसमीचीन वृत्तितामनुभवन्नुपरुद्ध शक्तिमारेणापि ज्ञानदर्शन वीर्यात्मकेन निश्वयकारण
नामसंज्ञ - इट्ठ विसय फास समस्सिद सहाव परिणममाण अप्प सयं एव सुह ण देह । धातुसंज्ञ-सम् आ सिण सेवायां, प अप्प अर्पणे, हव सत्तायां । प्रातिपदिक- इष्ट विषय स्पर्श समाश्रित स्वभाव परिणममान आत्मन् स्वयं एव सुख न देह । मूलधातु सम् आश्रित्र सेवायां, भुसत्तायां प्र आलू प्राप्तौ । उभयपद विवरण- इट्ठे इष्टान् विसए विषयान् समस्सिदे समाश्रितान् द्वि० बहु० । फासेहिं स्पर्शैः - तृतीया सुखरूप नहीं होता ।
तात्पर्य- इष्ट विषयोंका प्राश्रय कर भी जीव जब सुखी होता है तब वहाँ जीव ही सुखरूप होता है, देह सुखरूप नहीं होता ।
टीकार्थ - वास्तव में इस आत्माके सशरीर अवस्था में भी शरीर सुखसाधनताको प्राप्त हो ऐसा हम नहीं देख रहे हैं, क्योंकि तब भी, उन्मादजनक मदिराका पान कर लेने वालों की तरह प्रबल मोहके वश वर्तने वाली, 'यह विषय हमें इष्ट है' इस प्रकार विषयोंकी प्रोर दौड़ती हुई इन्द्रियोंके द्वारा प्रयोग्य परिणतिका अनुभव करता हुआ भी जिसकी शक्तिकी उत्कृष्टता रुक गई है ऐसे भी निश्चयकाररणताको प्राप्त अपने ज्ञान दर्शन वीर्यात्मक स्वभावसे परिणमन करता हुआ स्वयमेव सुखत्वको प्राप्त करता है । किन्तु शरीर प्रचेतनपना होनेसे सुखत्वपरिणतिका निश्चय कारण न होता हुआ किंचित् मात्र भी सुखत्वको प्राप्त नहीं
करता, यह सब पूर्णतया निःसंदिग्ध है ।
प्रसंगविवरण -- ग्रनन्तरपूर्व गाथा में
बताया गया था कि जब तक इन्द्रियाँ उद्धत हैं तब तक प्रकृति से ही दुःख है । अब इस गाथामें मुक्त प्रात्मावोंके सुखकी प्रसिद्धि के लिये शरीर के सुखसाधनपनेका निराकरण किया है ।
तथ्यप्रकाश - ( १ ) शरीरसहित अवस्था में भी जीवके सुखका वास्तविक साधन शरीर
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
KARE
. immine
.................... heandeshisewwwseonamokemolisaseraruwaonlowanc
....manasaninibesid e nt n ewYeaningvvwwwwnews
unitistiatinidia"
metersor
म ...AAMAmawwwwww
mwarayaMEINSTTATRE SAMBROASCHEARSHARERARBERAR walawintamansahaipmWAmmythma
mwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwere
ANISHAC
११८
महनामशरमारा तामुपागतेन स्वभावेन परिणाम मा स्वमेवायामा मुख्तामापयते । शरीरं विजेतात्यादेव पुरवत्वारिणने निश्चम रसमलामा म जान मुरत भुपोकत ति ।। || यह हाहा: मनन- गिगा नाम
:अधमा :: | १४| नि- TRA चा गायनर .. " S-आम | निस्ति
। स माना ग्यमान ॥६५॥ नहीं है, किन्तु उग प्रकारका विकला। | विषय में इ! , it होस मात्रामा इन्द्रियों firitv यू.बड़ी है। याने कूदा पालो निशार होत मलिन पुस्तिक आनुव करने : १४ मनिनिका अनुसार यान गयका नात्मशक्तिसार रक जाता है । {1. प्रामकिपर र जानकर भी न बुदनी दर्शनथीमत्र स्वभाव जीव परिणाम यह। उम परिणामममे ओर गवः"प मान्य शाला यार रहा है। (५) पुरसहित आवस्या में भी जोधा शुधिराभिस पारा को चिव शानदानवीर्यात्मक स्वभाव परिणमना है । (0) अवेतन होरों सर का विश्व गतः कारण ही हो नहीं सकना । (5) माय गरियन व शरीर भित्र भित्र मात. अतः रोग सुखकारणताही । 16 मनः जीयोः प्रागीर रही है, इस बार लोग कोसे हो राबता ? यह संदेह नही करना, योनि र बकायम नर, गलब'। नित्र. यतः शाधन मार रहाम! {s) दिसम्बका गी निचरा या असमभाव है 1 १११) मृत जीवोंक प्रामादा कारण yिei fम यात्मप्रकाशन (2) इन्द्रिसमजामा परिणम काल अस्माको शानदार स्वभावः। म ज f कर विकार की योग्यता हो जाना ही अद्ध स्वभान होना कहना।
सिद्धान्त-१) अामा प्रानन्दन यानि .1!! माना । दृष्टि--- उपादानटि ४६५] ।
प्रयोग ... मुख प्रानन्यका जिय महलानन्याम पयस्य प्रत्य मान होने का पौमा झरना । ६५ ।।
प्रय इस तथ्यको दृश करते हैं... एकान्तेन ति] कालने इत्याद नियम स्वर्ग वा स्वर्ग भी देहा। गोरदेहिनः ] शरीरी प्रात्माको [सुखं न करोति सरत्र नहीं वसा [तु विषयवशेन] परन्तु विषयों के वशने [साय वा दुःश्यं] मुख अथवा दुःखहण [स्वयं ग्रात्मा भवति । स्वयं प्रात्मा होता है।
तात्पर्य --- स्वगंमें भी वो गीत्र हो मुख दरवरूप होता है, उनका जोर नहीं।
a
d ithtitutONTINUT
sswowsERA232RAPoooooooooooooorainercise
Thil
mA
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
११६
Eins
**
प्रवचनसार ... सग्नदशाली टीका शतदेव इयति
एगतेण हि देहो मुहं गण देहिस्स कुणादि सम्गे वा । विसयवसेगा द सोखं दुकग्वं वा हदि सयमादा ॥६६॥
स्वर्गमें भी नियमसे, देहीके देहसे नहीं सुख है।
विषयवशसे स्वयं यह, सुख व दुखरूप होता है ॥६६॥ एकान्तेन हि देहः सुखं न देहिनः करोतिबग बा । विषयवशेन तु सांस्यं दुःखं बो भवति स्वयमारमा ।।६।।
। अयमत्र सिद्धांतो यदिव्य वैक्रियिकत्वगि शरीर न खलु मुखाय करतेतीष्टानामनिष्टानां वा विषयाणां शेन मुखं वा दुःखं वा स्वयमेवात्मा स्यात् ।। ६६ ।।
नारसंज्ञ---एगत हि देह मुह दहि माग चिसयवरा दु गोका दुव का सवं अन्ना । धातुसंज्ञ.. Film इव सत्तायां । प्रातिपदिक -- कालहि देह सुख दाहन स्वर्ग या विषयवश तु सौम्या व स्वयं Fircume आत्मन् । मूलधातु... डुकृञ् करणे, भू गवायां । उभयपदविवरण--(पगंले एकान्तेत-तृतीया बहु । देहो वह सोकर सौख्यं दुवखं दुरवं आदा आत्मा-
प्रक० । मुहं सुध-हिती या एक० । देहिम देहिनः पप्टी Enा । विसयवसेण विषयवशेन-तीया गक० । हदि भत्रति वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया 1 EMANM निषित (अतन्ति (सततं भन्छति जानाति) इति आत्मा । समास-विषयस्य यश: विषयवश तन ६६॥
टीकार्थ---यहाँ यह सिद्धान्त है कि दिव्य वैकियिकपना होने पर भी शरीर सुखके लिये नहीं माना जाता, यह सुनिश्चित है, आत्मा स्वयं ही इष्ट अथवा अनिष्ट विषयों के वशसे सख अथवा दुःख रूप स्वयं ही होता है।
प्रसङ्गविवरण----.अनंतरपूर्व गाथामें मुक्तात्मावोंके अानन्दको प्रसिद्धि के लिये शरीरके सखसाधनपनेका निराकरण किया था। अब इस गाथामें उसी देहको सुख साधनताके निराकरणको इट किया है। को तथ्यप्रकाश-(१) शरीर जोबको सुख या दु:ख नहीं देना । (२) ष्ट अनिष्ट विषयों के वसे सुख व दुःखरूप स्वयं हो जीव होता है। (5) देवोंका क्रियक शरीर मुखका कारण नहीं । (४) नारकियोंका वैक्रियक शरीर दुःखका कारण नहीं । (५) जीव हो स्वर कल्पनावश सुख अथवा दुःखरूप परिणमता है।
सिद्धान्त----(१) परद्रव्य अात्माके परिणमनका निश्चय कारण नहीं । दृष्टि-....१ - प्रतिषेधक शुद्धनय [४६] ।
प्रयोग-----सस्य सहज प्रानन्दके लाभ के लिय सहजानन्द के स्रोतभूत सहज जान स्वभाव की उपासना करना ।। ६६ ।
अब आसमाको स्वयं ही सुखपरिणामकी शक्तिसे युक्तता होनेसे विषयों को अकिचितक
*
mimiti
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानंदाश्रमालायां
अथात्मनः स्वयमेव सुखपरिणामशक्तियोगित्वाद्विषयाणामकिंचित्करत्वं द्योतयति---- तिमिरहरा जह दिट्ठी जणस्स दीवेा गत्थि कायव्यं । तह सोक्खं समादा विसया किं तत्थ कुव्वंति ॥६॥ जिसकी दृष्टि तिमिरहर, उसको नहि कार्य दीपसे ज्यौं कुछ ।
त्यों श्रात्मा सस्यमयी, वहां विषय कार्य क्या करते ॥ ६७ ॥ मिहिरा यदि दृष्टितस्य दीपेन नास्ति कर्तव्यम् । गथा नीयं रवयात्मा दिया कि तय यथा हि केषांचिन्नक्तंचराणां चक्षुषः स्वयमेव तिमिरविकरणशक्तियोगका
१२०
॥
पा
का
नामसंज्ञ तिमिरहरा as विटिज सह सोय अन विधि धातुसंजका करणे, कुकर । प्रातिपदिक तिमिरहरा यदि दृष्टिजनकतया मोरय स्वयं आत्मन् विषय किं तत्र । मूलधातु - कुञ कर. अम् मुवि । उभयपदविवरण-मन दिली रताका द्योतन करते हैं-- (यदि ] यदि [ जनस्य दृष्टिः] प्राणीकी दृष्टि [तिमिरहरा ] निमिरनाक हो तो [ दीपेन नास्ति कर्तव्यं ] दीपक से कोई प्रयोजन नहीं है, [तथा ] इसी प्रकार जहाँ [आत्मा] आत्मा [ स्वयं ] स्वयं [ सौख्यं ] सुखरूप परिणमन करता है. [ तत्र ] वहीं [ विषयाः] विषय [किं कुर्वन्ति ] क्या कर सकते हैं ।
तात्पर्य - प्राणी स्वयं सुखरूप परिणमता है विषयभूत पदार्थ जीवोंके सुखरूप नहीं परिणमते, न जोवोको सुखरूप परिणमा |
टीका--जैसे किन्हीं उल्लू बिल्ली इत्यादि निशाचरोके नेत्र स्वयमेव सत्यकारको नष्ट करने की शक्ति वाले होते हैं, इस कारण उन्हें अंधकार नाशक स्वभाव वाले दीपक प्रका शादिसे कोई प्रयोजन नहीं होता, इसी कार संसार में या मुक्ति में स्वयमेव मुखरूप परिक्षामित इस श्रात्माका अज्ञानियों द्वारा सुखसाधनबुद्धिसे व्यर्थ माने गये भी विषय क्या कर सकते हैं ? प्रसङ्गविवरण अनंतरपूर्व गाथामे शरीरको सुखसाधनताके निराकरणको दृढ़ किया था । अब इस गाथा में आत्मा की स्वयंकी सुखपरिणामशक्तिको दिखाकर विषयोंकी किञ्चि करता प्रसिद्ध की है ।
तथ्यप्रकाश - ( १ ) यह ग्राम चाहे संसारदशामें हो या मुक्तावस्था में हो, स्वयं ही सुखरूपसे परिमित होता है । (२) संसारदशामें इन्द्रियसुख होने में भी सुखरूप परिणमता आत्मा ही है, सातादिकमदिय मात्र निमित है और विषयभूत पदार्थ श्राश्रयभूत कारण है। (३) श्राश्रयभूत विषय में उपयोग जुटाये तो वे श्राश्रयभूत कारण कहलाते है सिर भी ये स्पर्शादि विषयश्रात्मा में कुछ परिणमन नहीं करते । ( ४ ) अज्ञानीजन ही विषयोंको सुखका
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार - राप्तवाङ्गी टीका
१२१
वन प्रदीप्रकाशादिना कार्यं एवमस्यात्मनः संसारे मुक्तौ वा स्वयमेव सुखतया परिराममानस्य सुखसाधनधिया अर्धमुचाध्यास्यमाना अपि विषया: कि हि नाम कुर्युः ॥६७॥ दृष्टि: सोक्खं सौख्यं अदा आत्मा-प्रथमा एक० । जइ यदि ण न तह तथा व स्वयं तत्त-अव्यय । कि अव्यय या हि एक जणस्स जनस्व-पष्ठी एक दीवेग दीपेन-तृतीया एक अन्य अस्तिवर्तमान सद अन्य एक क्रिया काय कर्तव्यं प्रथमा एक कृदन्त क्रिया । विराया विस्या:-प्र०बहु ति कुर्वन्ति वर्तमान अन्य पुरुष बहुवचन ॥ ६७ ॥
कर्ता मानकर व्यर्थ हो विषयका प्राश्रय करते हैं ।
सिद्धान्त - (१) विषयोंको जीवसुखका कर्ता कहना मात्र उपचार है । (२) जीव अपनी सुखपरिमन शक्तिसे परिगता है ।
दृष्टि--- १- परकर्तृत्व उपचरित प्रसद्भूत व्यवहार [१२], श्राश्रये आश्रयी उपचारक व्यवहार [१५१] । २- उपादानदृष्टि [४] ।
प्रयोग-परपदार्थको अपने सुखपरिणमनमें अकिञ्चित्कर जानकर और स्वयंको हो प्रानन्दस्वरूप पहिचानकर परविकल्पसे हटना और अविकल्प सहजानन्दधाम सहजचित्स्वभाव में उपयोग लगाना || ६७ ॥
अब आत्माका सुखस्वभावत्व दृष्टान्त द्वारा दृढ़ करते हैं - [ यथा । जैसे [ नभसि ] Heart [ श्रादित्यः ] सूर्य [स्वयमेव ] अपने आप ही खुद [तेजः ] तेज [ उष्णः ] उस [च] और [देवता ] देव है [ तथा ] उसी प्रकार [लोके ] लोकमें [ सिद्धः अपि ] मिद्ध भगवान भी अपने आप ही स्वयं [ज्ञानं ] ज्ञान [सुखं च ] सुख [ तथा देवः ] और देव हैं । तात्पर्य- - भगवान स्वयं ही अनन्तज्ञानमय अनन्तानन्दमय और देवस्वरूप हैं ।
. टीकार्थ - जैसे आकाश में ग्रन्य कारणकी अपेक्षा रखे बिना ही सूर्य स्वयमेव अत्यधिक प्रभा समुहसे चमकते हुए स्वरूपके द्वारा विकसित प्रकाशयुक्त होनेसे तेज है, और जैसे कभी उष्णतारूप परिणमित लोहे के गोले की तरह सदा उष्णतापरिणामको प्राप्त होनेसे उप है, और जैसे देवगतिनामकर्मके धारावाहिक उदयके वशवर्ती स्वभावगतेसे देव है, इसी प्रकार लोक
अन्य कारणकी अपेक्षा रखें बिना हो भगवान श्रात्मा भी स्वयमेव स्त्रपरको प्रकाशित करने में समर्थ यथार्थ अनन्तशक्तियुक्त सहज संवेदन के साथ तादात्म्य होनेसे ज्ञान है, और उसी प्रकार मातृप्ति से उत्पन्न होने वाली परिनिर्वृत्तिसे प्रवर्तमान अनाकुलता में सुस्थितता के कारण सौख्य हैं, और उसी प्रकार जिन्हें आत्मतत्वकी उपलब्धि निकट है ऐसे बुधजनों मनरूपी शिलास्तम्भ में जिसको अतिशय द्युति स्तुति उत्कीर्ण है ऐसा दिव्य आत्मस्वरूपवान होने से देव है । इस कारण इस ग्रात्माको सुखसाधनाभासके विषयों बस हो । इस प्रकार यह आनन्दप्रकरण पूर्ण हुआ । अब यहां शुभपरिणामका अधिकार प्रारम्भ होता है ।
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
NEER
m- i
mmit--tutimanabadikamSALMAN
१२२
सहजानन्दशास्त्रमालायां प्रथात्मनः सुखस्वभावत्वं दृष्टान्तेन दृढयति
मयमेव जहादिचो तेजो उपहो य देवदा गामसि । सिद्धो वि तहा गाणां सुहं च लोगे तहा देवो ॥६॥
स्वयमेव सूर्य नभमें, तेजस्वी उमरण देव है जैसे ।
स्वयमेव सिद्ध सुखमय, ज्ञान तथा देव हैं तैसे ॥६८।। स्वयमेव यथादित्यस्तेमः गश्च देवता नभास । गि-होपि तथा ज्ञानं सुग्वं च लोक तथा देवः ।। ६८ ||
यथा खलु नभसि कारणान्तरमनापेक्ष्येव स्वयमेव प्रभाकरः प्रभूतप्रभाभारभारवरस्य रूपविकस्वरप्रकाणशालिलया लेजः, यथा च कादाचित्कोरप्यारिणताय पिण्डन्नित्यमवारण्यपरिगामापन्नत्वाष्णः, यथा च देवगतिनामकर्मोदयानुवृत्तिवशतिस्वभावतया देवः । तथंव लोके कारणान्तरमनपेक्ष्यव स्वयमेव भगवानात्मापि स्वपरप्रकाशन समर्थनिवितथानन्तशक्तिसहजसंबेदनतादात्म्यात् ज्ञानं, तथैव चात्मतृप्तिसमुपजातपरिनिवृतिप्रतितानाकुलत्वसुस्थितत्वात सौख्यं, तथैव चासन्नात्मतत्त्वोपलम्भलब्धवाजन मान राशिलास्तम्भोत्कोहीसमुदीर्शाद्युतिस्तुतियोगिदिव्यात्मस्वरूपत्वावः । अतोऽस्यात्मनः मुखसाधनाभासविषयः पर्याप्तम् । इति प्रानन्दप्रप. अन्नः । अथ शुभएरिणामाधिकारप्रारम्भः १.६८।।
नामसंज्ञ.... सये एव जहा आदिच्च तेज उन्ह व देवदा भस् म वि अपि तहा णाण सह च लोग तहा देव । धातुसंजः सिज्म चिम्पत्तौ । प्रातिपदिक--स्वयं एव पथा आदित्य नेजस उष्ण च देवता नभस् सिद्ध अपि तथा ज्ञान सख च लोक तथा देव' । मूलधातु----विध गली, गिधु संगही दिवादि । उभयपदविवरण-सयं स्वयं एव जहा यथा य च वि अपितहा तथा अव्यय । आदिच्चो आदित्यः तेजी लेजः उन्हो उपण देवदा देवता सिद्धो सिद्धः पहाणं ज्ञानं सुहं सुख देवो देवः-प्रथमा एक । पसि नाम लोमे लोकेसप्तमी एकवचन । निरूक्ति-सिद्धयति स्म इति सिद्धः, अति मत गन्छति इति आदिर
प्रसङ्गविवरण .... अनन्तरपूर्व गाथामें आत्माको सुखपरिणामनशक्तियोगिता दिखाकर विषयोंको अकिश्चित्कारता सिद्ध की थी। अब इम गाथामें आत्माके प्रानन्दस्वभावपनेको दृष्टान्तपूर्वक दृढ़ किया है। .
तथ्यप्रकाश-१- प्रात्माके ग्रानन्दका वास्तविक साधन स्वयं अात्मा है । २- संसा. रदशामें आनन्दगुरगकी विकृत पर्यायरूप सुख सुखाभास है। ३- सुखाभासके ग्राश्रयभूत साधन साधनाभास हैं। ४-- सुखसाधनाभासोंसे प्रात्माको कोई लाभ नहीं है । ५-- भगवान मात्मा अन्य कारणोंकी अपेक्षा किये बिना स्वयं ही स्वपरप्रकाशन में समर्थ अनन्तशक्तियुक्त सहज. संवेदनमय होनेसे ज्ञानरूप है । ६– सहज संवेदनमय होनेसे यह भगवान प्रात्मा परम प्रात्मतृप्तिसे प्रवर्तमान निराकुलतामें सुस्थित होनेसे सहजपरमानन्दमय है । ७- सम्यग्ज्ञानोके नम
त्यः 11६८।
ॐॐ
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२३
momhinnamann...]
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका अथेन्द्रियसुखस्वरूपविचारमुपक्रममारणस्तत्साधनस्वरूपमुपन्यस्यति---
देवददिगुरुपूजासु चेव दाणम्मि वा सुसीले । उवासादिसु रत्तो होवोगप्पगो अप्पा ॥६६॥
देवगुरुभक्तिमें नित, दान सदाचार अनशनादिकमें।
जो प्रवृत्त प्रात्मा वह, है सरल शुभोपयोगात्मक ॥६६॥ देवतातिगुजारा व दान वा सुशीलेषु । उपवासादिपु रक्तः भोपयोगात्मक आत्मा ।। ६६ ।।
यदायमात्मा दुःखस्य सावनीभूता द्वेषरूपामिन्द्रियार्थानुरागरूपां चाशुभोपयोगभूमिका
नामसंज्ञ.....देवददिगुरुपूजा व एक दाण वा सुसील उपवासादिर मुहाच ओमप्पस अप । धातुसंज-राज रागे । प्रातिपदिक .. देवतायतिमुम्पुजा च एवं दान वा सुशील उपवासादि रक्त गुभोपयोगास्मकं आत्मन् । मूलधातु- रंज' रागे । उभयपदविवरण -- देवददिगुरुगुजास दवतायतिगुजारा सुसीलेसु में सातिशय द्युति स्तुति जिसकी प्रतिफलित है, ऐसा दिव्यस्वरूप भगवान श्रआत्मा देव है। --- जो स्वयं ज्ञान है, स्वयं प्रानन्द है, स्वयं देव है उस यात्माको सख साधनाभासोंसे क्या प्रयोजन है ? - भगवानको तरह सब जीवोंका स्वभाव है, अतः ग्रानंदाभिलाषो जीवोंको विषयावलंबन की कल्पना छोड़कर सहजानन्दस्वभावभय अंतस्तस्वकी उपासना करनी चाहिये ।
सिद्धान्त--१-- भगवान ग्रात्मा अपने ही स्वरूपसे प्रकट स्वतंत्र ज्ञानानन्द विलासका अनुभव करता है।
दृष्टि -.-१-- अनीश्वरनय [१६] ।
प्रयोग----परिपूर्ण अनाकुल रहावे लिये अपने महजानन्दस्वभावमय सहज ज्ञानस्वरूप अन्तस्तस्त्र में उपयोग रमाना ।।६८॥
अब इन्द्रियसखस्वरूप सम्बन्धी विचारको लेते हुए आचार्य इन्द्रियसखके साधनभूत शुभोपयोगके स्वरूपको समीपमें धरोहरवत् धरते हैं अर्थात् जैसे दूसरेको धरोहर बिना ममता के धरी जाती है ऐसे शुभोपविषयक बातका प्रसंग करते हुए भी उसका ममत्व न कर स्वरूप को कहते हैं---[देवतायतिगुरुपूजासु] देव, यति व गुरुकी पूजामें [दाने च एवं] और दान में [सुशीलेषु वा] एवं सुशीलोंमें | उपवासादिषु] और उपवासादिकमें | रक्तः प्रात्मा] अनुरागी प्रात्मा [शुभोपयोगात्मकः] शुभोपयोगात्मक है।
तात्पर्य---मोक्षमार्गके साधकोंकी सेवादिक शुभानुष्ठानों में अनुरागी शुभोपयोगी जीव
।
टोकार्थ-जब यह प्रात्मा दुःखको साधनोभूत द्वेषरूप तथा इन्द्रियविषयकी अनुराग
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२४
सहजानन्दशास्त्रमालायां मतिक्रम्य देवगुरुयतिपूजादानशीलोपवासप्रीतिलक्षरगं धर्मानुरागमङ्गीकरोति तदेन्द्रियराखस्य साधनीभूतां शुभोपयोगभूमिकामधिरूकोऽभिलप्त ।। ६६ ।। सुशीलए उपवासादियः उपवासादिपु सप्तमो बहु । च एव वा-अाय । दाणगि दान-गनमी एक० | रतो रक्तः सहोवअंगप्पगो भोपयोगात्मकः अपा आत्मा.प्रश्रमा एक निक्ति--परते इति यतिः, उप बसनं उगवाराः । समास (दंबता च यतिस्च गुमश्च देवतातिगुरवः नेपा पूजा का शुभश्चासी जपयोगः शुभोपयोगः शुभोयोग एवं आत्मकः याय ग भोपयोगात्मकः ।। ६६ ।। रूप अशुभोपयोग भूमिकाका उल्लंघन करके, देव-गुरु-यतिकी पूजा, दान, शील और उपवासादिकके प्रीतिस्वरूप धर्मानुरागको अंगीकार करता है तब वह इन्द्रियसुखकी साधनीभूत शुभोपयोगभूमिकाको प्राप्त हुया कहलाता है।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि यह भगवान आत्मा स्वयं सुखस्वभावी है । अद इस गाया इन्द्रियमुखके विचारके प्रसंगमें इन्द्रियसुख के साधनके स्वरूप निर्देश किया है।
तथ्यप्रकाश---१-- द्वेष एवं इन्द्रियविषयोंका अनुराग अशुभोपयोग है । २-- अशुभोपयोगकी भूमिकाका उल्लंघन करनेपर शुभोपयोग होता है । ३- देव यति गुरुकी पूजा, गोल, दान, उपचास में प्रीति आदि धर्मानुराग शूभोपयोग है। ४- शुभोपयोग इन्द्रियमुखका साधन है। ५- इन्द्रियमुख हेय है, इसलिये इन्द्रियसुखके साधन भूत शुभोपयोगकी आवश्यकता न होनी चाहिये, किन्तु शुद्धोपयोग शुभोपयोगपूर्वक ही होता है, अतः शुद्धोपयोगसे पहिले शुभीपयोग होना अनिवारित है। ६- निर्दोष सर्वज्ञ परमात्मा देव हैं। ७-- भेदाभेद रल्लनायके पाराधक व अाराधनाथी भव्य जीवोंको दीक्षा देने वाले साधु गुरु हैं। :- इन्द्रियविजय करके शुद्धात्मस्वरूप में प्रयत्मपरायणा साधु यति कहलाते हैं । -जो अशुभोपयोगको भूमिका को उल्लंघन करके जो धर्मानुराग करता है वह शुभोपयोगी कहलाता है ।
सिद्धान्त-१- इन्द्रियसुखका निमित्त सातादिकर्मप्रकृतिका उदय हैं । २- सातादि कर्मप्रकृतियोंके बन्धका निमित्त शुभोपयोग है । ३- इन्द्रियसुखका साधन शुभोपयोग है।
दृष्टि-----१, २- निमित्तदृष्टि [५३] । ३- निमित्तपरम्परादृष्टि [५३ब] ।
प्रयोग-शाश्वत ग्रानन्दके लाभ के लिये अशुभोपयोगभूमिकाका उल्लंघन न कर शुभोपयोगभूमिकामें आकर शुद्धोपयोगके लक्ष्य में बढ़ कर दोनों प्रशुद्धोपयोगरी निवृत्त होकर शुद्धोपयोगरूप परिणमन के लिये सहज परमविश्राम करना ॥६६॥
अब शुभोपयोगके साध्यपनेसे इन्द्रियमुखको कहते हैं--- [शुभेन युक्तः] शुभीपयोग युक्त [मात्मा] अात्मा [तियंक वा] तिथंच [मानुषः वा] मनुष्य [देवः वा] अथवा देव [भूतः] होकर [तावत्काल] उतने समय तक [विविधं] विविध [ऐन्द्रियं सुखं] इन्द्रियसुखको
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
Com
g
arllowancim
१२५
ॐ
W
.
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका Foअथ शुभोपयोगसाध्यत्वेनेन्द्रियसखमाख्याति--
जुत्तो सुहेण यादा तिरियो वा माणुसो व देवो वा । भूदो तावदि कालं लहदि मुहं इन्दियं विविहं ॥७०॥
शुभयुक्त जीव होकर, तियञ्च मनुष्य देवगल वाला।
उतने काल विविध इन्द्रियसुखको प्राप्त करता है ।।७।। Mयुक्त शुभेत आत्मा तिर्यग्वा मानुषा वा बंबा वा । भूतरतावत्यानं लभने सबमन्द्रिय बिबिध । ७० ||
अयमात्मेन्द्रियसुखसाधनीभूतस्य शुभोपयोगस्य सामथ्याल दधिष्ठान भूनानां तिर्यम्मानुष. देवत्वभूमिकानामन्यतमा भूमिकामनाप्य यावत्कालमवलिष्ठते, तावत्काल मने प्रकामिन्द्रि सुखं समासादयतीति ॥७०।।
नामसंज्ञ...जुन्न सह अन्न निरिय का माम सिद्ध वा भूदलाबाद काल राह क्षय विवह । धातुसंह भव सत्तायां लभ प्राप्त । प्रातिपदिक.....युक्त शुभ आत्मन् तिच वा मानुग दंव भूत तावत् काल सख इन्द्रिय विविध । मूलधातु... भू सातायां कुलभ प्राप्ती 1 उभयपदविवरण जुनी युक्त: आम आत्मा लिरिया तिर्यम् माणुसो मानुष: देवो देवः-प्रथमा Pro ! गुहेण शुभेन-तृतीया एक० । लहदि लभतेवतमान अन्य पुरुष एक क्रिया । सह राख इदियं ऐन्द्रियं विविहं विविध-द्वितीया o ! भुवो भूत:-प्रथमा म । तावत् काल-अव्यय । निरुक्ति'-..गोभते गति शुभ: तेन, दिव्यसीति दयः ।। ७ ।। लमते प्राप्त करता है।
टीकार्थ--यह आत्मा इन्द्रियसुखके साधनभूत शुभोपयोगको सामर्थ्यसे उसके आधारभूत तिर्यंच मनुष्य और देवत्व की भूमिकामोमें से किसी की भूमिकाको प्राम करके जितने समय लक उसमें रहता है उतने समय तक अनेक प्रकारके इन्द्रियमुखको प्राप्त करता है ।
प्रसंग विवरण ---- अनन्तरपूर्व गाथामें इन्द्रियमुखके साधनके स्वरूपका निर्देश किया था । अब इस गाथामें इन्द्रियमुखको शुभोपयोग द्वारा साध्यपनेसे प्रकट किया गया है ।
तथ्यप्रकाश-१-- इन्द्रियमुखका मूल साधन है शुभोपयोग । - शुभोपयोगके सामभयंसे तियच मनुष्य व देव- इनमें से किसी भी पर्याय में प्रात्मा पाता है रहता है । ३- जब तक यह प्रात्मा लियंच मनुष्य व देव पर्याय में रहता है तब तक यह इन्द्रियसुखको प्राप्त
SARAS
ड
F
33
- सिद्धान्त..... १- शुभोपयोगके निमित्तसे सातादि पुग-र प्रकृतियोंका बन्ध होता है । २ सातादि पुण्यप्रकृतियोंके उदय के निमित्तसे जोव इन्द्रियसुखको पाता है । ३- इन्द्रियसुखके निमित्तका निमित्त होने से इन्द्रियमुखका मूल साधन शुभोपयोग है।।
दृष्टि---१, २- निमित्तदृष्टि ५३५] । २- निमित्तपरम्परादृष्टि | * ३५] ।
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
ANUSICAERE
m aiIAssococe
mtimarathiammmmshimami
१२६
सहजानन्दशास्त्रमालायां अथवमिन्द्रियमुखमुक्षिप्य दुःखत्वे प्रक्षिपति-----
मोक्वं महावसिद्ध गास्थि मुगणं पि सिद्धमुवदसे । ते दहवेदणहा रमंति विमएम रम्मेमु ॥ ७१ ॥ स्वाभाविक सुख देवों, के भी नहीं आगमोक्त हैं वे तो।
देहेन्द्रियपीछावश, रम्य विषयोंमें रमते हैं। ७१ ।। सोन्य बिमामलं नाति सुत्राणामपि समुपदेशे। त दहबदनाता रमन्द्र मिया रम्येप ।। ६१
इन्द्रियमवभाजने हि प्रधाना दिवौकसः, तेकामपि स्वाभाविक न बनु सुखमस्ति प्रत्युत तेषां स्वाभाविक दुःख मेवावलोयते । यतस्त पञ्चेन्द्रियात्मक शरीरपिशाचोडया परवशा भूगुप्रभातस्थानीयान्मनोज्ञविषयान भियतन्ति ।। ७१ ॥
नामसंज्ञ.. गोद महाविद ए म राम मिल ज्वदेश ते दहवेदणट्टा बिमाम रमन । धातुसंजअस बतायां, रम क्रीडायां, घर ऐश्वयंदीप्त्योः । प्रातिपदिक.....मौख्य स्वभावमित सुरपि निक उपदेश नत वेदना विषय रम्य । मूलधातु--अम् भुत्रि, रमु क्रीडायां । उभयपदविवरण-दोन मौल्य बहावमिदं स्त्रभावसिद्ध मिड-प्रथमा एक ! उवद उपदेशे-सातमी एकः । ते दहा वेदना:-प्रथमा. बहु । रमति रमन्ते-यतमान लट् अन्य पुरुा बहुवचन क्रिया । विसएस विषयेए रम्मम् रम्या-गप्तमी बहुवचन निरुक्ति ... सरन्तीनि साना रन्न बाध्य तम्य । समास-स्वभावेन मिटवभावमई(दहस्य वेदना हवेदना नया आगः ||१|
प्रयोग--इन्द्रिय मुखको व इन्द्रियमुम्बके साश्वत भूत शुभोपयोगको हय जानकर परम उपादेय दाद्धोपयोगके प्राश्रयभूत निज सहज अन्तस्तत्वमें उपयुक्त होना ।।5011
इस प्रकार इन्द्रियमुख की बात उठाकर अब उसे दुःखरूपमें प्रशिक्षित करते हैं-[उप. देशे सिद्ध] (जिनेन्द्रदेवके) उपदेशले सिद्ध है कि [सुराणाम् अपि देवों के भी स्वभाव सिद्ध स्वभावसिद्ध [सौख्यं] मुख [नास्ति नहीं है, [ते] वे [देह वेदनाता] (पंचेन्द्रियमय) दहकी वेदनासे पीड़ित होनेसे [ रम्येषु विषयेषु] रभ्य विषयों में [रमन्ते रमते हैं।
टोकार्थ--इन्द्रियमुखके अधिकारियों में प्रधान देव हैं; उनके भी वास्तव में स्वाभाविक सूस नहीं है, प्रत्युत उनके स्वाभाविक दुःख ही देखा जाता है; क्योंकि वे पंचेन्द्रियात्मक शरीर रूपो पिशाचकी पीड़ासे परवश होते हुए शिखर से गिरने के समान मनोज्ञ विषयों की ओर दौड़ते
TITIONS
प्रसङ्गविवरण----प्रनंतर पूर्व मायामें बताया गया था कि इन्द्रियमुख शुभोपयोग द्वारा साध्य है । अब इस गाथामें इन्द्रियसुखको उखाड़कर दुःखपने में फेंका गया है ।
तथ्यप्रकाश-१- इन्द्रिय सुख जिन जीवोंको मिला है उनमें सर्वाधिक इन्द्रियमुख
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
Mandirman
JoilmmmmmmmmsinindmmmmmmmyN000000000Nmoniummamalinmunninikin
2030
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका र प्रथवमिन्द्रियसुखस्य दुःखतायां युक्तधावतारितामामिन्द्रियसुख साधनीभूतपुण्यनिर्वतंकशुभोपयोगस्य दुःखसाधनोभूतपापनिर्वतकाशुभोपयोगविशेषादविशेषत्वमवतारयति--
गारगणारयतिरियमुरा भजति जदि देहसंभवं दुक्खं । किह सो महो व अमहो उवयोगो हदि जीवाणं ॥७२॥
नर नारक तिर्यक् सुर, यदि देहोव हि क्लेश अनुभवते ।
if कैसे वह शुभ व अशुभ, होता उपयोग जीवोंका ॥ ७२ ।। नरनारकासनकमत्त भजन्ति यदि देहसंभार दुःन्य बाथ भी बाऽभ उपयोगा भव: जीवानाम् ।७२।
* यदि शुभोपयोषजन्यसमुदीपुण्यसंपदस्त्रिदशदियोभोपयोगजन्यथयांगतपातकापदो वा नाकादययन, उभयेऽपि स्वाभाविक गुखाभावाद विशेषेण पन्चेन्द्रियात्मशारीरप्रत्ययं दुःखमेवा.
नाम- करणारयतिरियगर जदि देहसंभत्र दुख किहना मुह ब अगर उधोग जीव । धात #मज सेवाया, हव सत्तायां । प्रातिपदिक ... सरनारनियंगुर यदि देहसंभव दुःख नाथ तत् शुभ वा बाल देव है । २- इन्द्रियसखपात्रप्रधान देवोंके भी मुख स्वाभाविक नहीं है । ३-- इन्द्रियसुख बाल वैवोंके भी वास्तव में वह दुःख ही है । ४-- देव भी इन्द्रियात्मक शरोरपिशाचकी पीड़ासे रखा नए मनोश विषयों में गिर पड़ते हैं । ५-- इन्द्रियसुख क्षोभरे व्याप्त है, अतः इन्द्रियसूख हेय है । ६- इन्द्रियसुख का मूल साधन शुभोपयोग भी हेय है। - नाना दुःखोंका मुल सावन प्रभोपयोग अत्यन्त हेय है । - अशुभोपयोग अत्यन्त दय इस कारण है कि माभापयोगले उद्धारका अवसर हो नहीं मिलता । 8- शुभोपयोग अत्यन्त हेय इस कारण नहीं कि शुभोपयोगी जीवको उद्धारका अवसर मिल सकता है । १०. शुद्धोपयोग शुभोपयोग का ही होता है। अशुभोपयोगपूर्वक नहीं 1
सिद्धान्त--(१) इन्द्रियविषयदशवती जोव देहवेदनावश विषयासक्त भावसे दुःखो
namini
समागम
दृष्टि-- १- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याश्रिकनय [२४] । प्रयोग-विषयोपयोग छोड़कर निज सहज शुद्ध स्वभावका उपयोग करना ॥७॥
इस प्रकार युक्तिसे इन्द्रियसुखको दुःखरूप प्रगट करके अब इन्द्रियमुखके साधनीभूत - व्यको रखने वाले शुभोपयोगको दुःखके साधनीभुत पापको उत्पन्न करने वाले अशुभोपयोगसे
पविशेषताको प्रगट करते हैं---[ नरनारकतिर्यक्सराः] मनुष्य नारकी तिर्यंच और देव सभी गिरि] यदि [ देहसंभव] देहोत्पन्न [दुःखं] दुःखको [भजति] अनुभव करते हैं तो [जीवानां] जीवोका सः उपयोगः] वह अशुद्ध उपयोग [शुभः वा अशुभः] शुभ और अशुभ दो प्रकार
3000mAR
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८
नुभवन्ति । ततः परमार्थतः शुभाशुभोपयोगयोः पृथक्त्वव्यवस्थानावतिष्ठते ॥ ७२ ॥
[
अशुभ उपयोग जीव मूलधातु भज सेवायां भूरासायां । उभयपद विवरण- गरणारयतिरियसुरा नर नारकतिर्यगुराः प्र० हु० | देहसंभवं दुख दुःख - द्वि० ए० । भजति वर्तमान अन्य पुरुष बहु क्रिया जदि यदि किं कथं वा अव्यय हवदि भवति - वर्तमान अन्य गुस्स बहू किया। सुहो शुभः असुहो भः उगो उपयोगः- प्र० १० जीवाणं याता-पी बहु । निषित-नृणाति इति नः । समासनैरश्व नारकश्व तिर्यक् च सुरश्च नरनारकतिर्यक्कुराः ॥ ७२ ॥
सहजानन्दशास्त्रमालायां
का [ कथं भवति ] कैसे है ? अर्थात् दोनों हो समान हैं, अशुद्ध उपयोग है ।
तात्पर्य- आत्मीय श्रानन्दके विराधक होनेसे शुभ अशुभ दोनो ही उपयोग समान हैं, शुद्ध हैं ।
टीकार्थ-यदि शुभोपयोगजन्य उदयगत पुण्यको सम्पत्ति वाले देवादिक और अशुभो पयोगजन्य उदयगत पापको श्रापदा वाले नारकादिक दोनों स्वाभाविक सुखके प्रभाव के कारण बिना अन्तरके पंचेन्द्रियात्मक शरीर सम्बन्धी दुःखका ही अनुभव करते हैं तब फिर परमार्थसे. शुभ और अशुभ उपयोगको पृथक्त्व व्यवस्था नहीं रहती । प्रसंगविवरण- अनन्तरपूर्व गाथामें इन्द्रियसुखको इस गाथामें इन्द्रियसुखके साघनीभूत पुण्यनिर्वर्तक शुभोपयोग में निर्वर्तक अशुभोगयोग में ग्रविशेषताका अवधारण दिया है।
दुःखरूप बताया गया था | अब और दुःखके साघनीभूत पाप
तथ्यप्रकाश - ( १ ) शुभोपयोगसे देवेन्द्र आदिक गुण्यसंपदाको प्राप्त करते हैं । (२) शुभयोगसे जीव कुयोनियोंमें ग्रापत्ति पाते हैं । (३) शुभोपयोगजन्य पुण्यसंपदा वालोंमें व शुभपयोगजन्य पर्यायगत पापविपदा वालोंमें श्रात्मीय सहज श्रानन्द नहीं है । (४) पुण्योदय वाले व पापोदय वाले पञ्चेन्द्रियात्मक शरीरके निमित्त दुःख ही अनुभव करते हैं । (५) शुभपयोग व शुभोपयोग दोनों का ही परिणाम कष्टरूप होनेसे दोनों में कोई अन्तर नहीं है। (६) शुभोपयोग व अशुभोपयोग दोनोंको ही प्रतिक्रान्त करके होने वाला शुद्धोपयोग हो परम कल्याण है ।
C
सिद्धान्त - ( १ ) शुभोपयोग व अशुभोपयोग दोनों अशुद्धोपयोग हैं ।
दृष्टि - १ - सादृश्यनय [२२] ।
प्रयोग - प्रशुभोपयोगसे व पश्चात् शुभोपयोग से उपेक्षा करके सहज चित्स्वभाव के श्रालम्बन सहज शुद्धोपयोगरूप परिणमना ॥७२॥
अब शुभोपयोगजन्य फल वाले पुण्यको विशेषत: दूषरा देनेके लिये मान करके उखाने ड़ते हैं - [ कुलिशायुधचक्रधराः ] इन्द्र और चक्रवर्ती [ शुभोपयोगात्मकः भोर्गः] शुभोपयोग
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
अट
susalemstrsana
ARRESEREE
R
HRARUHAGRA
प्रवचनसार-गप्तदशाङ्गी टीका अय गुभोपयोगजन्य फलवत्पुण्यं विशेषेण दूषणार्थमभ्युपगम्योत्थापयति--
कुलिसाउहचकधरा सुहोवयोगप्पगेहिं भोगेहिं । देहादीणं विद्धिं करेंति सुहिदा इवाभिरदा ॥७३॥ वनधर चक्रदर भी, शुभोपयोग फलरूप भोगोंसे ।
सुखकल्पो भोगनिरत, देहादिक पुष्ट करते हैं ॥७३॥ अलिशायुन चक्रधराः शुभोपबोगात्मक: भोगैः । देहादीनां वृद्धि कुर्वनिय सुस्थिता वाभिरताः ।। ७३ ।।
यतो हि शक्राश्चक्रिरणा व स्वेच्छोपगत गैः शरीरादीन पुष्णान्सस्तेषु दुष्टशोणित इव जलोकसोज्त्यन्तमासक्ताः सुखिता इव प्रतिभासन्ते । ततः शुभोपयोगजन्यानि फलवन्ति पुण्यान्यवलोषयन्ते ।।७.३।।
मामसन- कलिसाउहचवर सुहोवोगप्पग भोग दहादि विद्धि हिंद इव अभिरद । धातुसंज.... १ करो। प्रातिपदिक कुलिशायुश्चक्रधर शुभोपयोगात्मक भोग दक्षादि वृद्धि सुखित इव अभिरत । समान इकन करणे । उभयपदविवरण-लिसाउहचक्काघरा कलिशायुधचत्रधर): सुहोवओगप्पगा मिापयोगात्मका, सहिदा सखिताः अभिरदा अभिरता:-प्रथभा वह । भोगेहि भोग-तृतीया वह । देहालोग वहादीना-षष्ठी बहु । विद्धिन्द्धि-द्वितीया एक० करेंति कुर्वन्ति-वर्तमान अन्य० एक क्रिया । मिति वनं वृद्धिः 1 समास---कुस्लिश आयुध वेषां ते कुलिशायुधा, धरन्ति इति चाधराः) कुलिमायुधापन चक्रवराश्चेति कुलियायुधचक्रधराः ।। ७३ ।। असूलक भोगीके द्वारा विहादीनां] देहादिकोंकी [वृद्धि कुर्वन्ति] पुष्टि करते हैं और [अभिरताः] इस प्रकार) भोगों में रत वर्तते हुए [सुखिताः इव] सुखी जैसे मालूम होते हैं ।
तात्पर्य इन्द्र चक्री जैसे बड़े लोग भी शुभोपयोगहेतुक पुण्यके फल भोगोंको भोगते । भोगामें रत होते हुए सुखी जैसे लगते हैं, किन्तु वह सब होता नहीं है।
टीकार्थ चाकि शुक्र और चक्रवर्ती अपनी इच्छानुसार प्राप्त भोगोंके द्वारा शरीरादि को पुष्ट करते हुए दूषित रक्तमें प्रत्यन्त प्रासक्त वर्तती हुई जोककी तरह उन भोगों में अत्यन्त वासक्त वर्तते हुए सुखी जैसे प्रतिभासित होते हैं, इससे शुभोपयोगजन्य फलवान पुण्य दिखाई
प्रसंगविवरण---अनंतरपूर्व गाथामें शुभोपयोग क अशुभोपयोगमें अविशेषताका अवधामरण कराया था। अब इस गाथामें शुभोपयोगजन्य फलवान पुण्यका दूषण प्रसिद्ध किया गया
FEE
सभ्यप्रकाशः-(१) इन्द्र, चक्री आदि बड़े प्राणी भोगों द्वारा शरीर प्रादिको पुष्ट करते हुए भोगों ग्रासक्त होते हैं । (२) भोगासक्त इन्द्र चक्री प्रादि सुखी जैसे लगाते हैं,
NIONLILAadisonam
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां
श्रवमभ्युपगतानां पुण्यानां दुःखबीज हेतुत्वमुद्भावयति
जदि संति हि पुराणि य परिणामसमुब्भवाणि विविहाणि । जगायंति विसयतण्हं जीवाणं देवतागणं ॥ ७४ ॥
शुभ उपयोगजनित जी, नानाविध पुण्य विद्यमान हुए । करते हि विषय तृष्णा, देवों तकके भि जीवोंके ||७४ ||
१३०
यदि सन्ति हि पुण्यानि परिणाममुद्भवानि विविधानि । जनयन्ति विषयतृष्णां जीवन्नां देवतान्तानाम् 1 यदि नामैव शुभोपयोगपरिणामकृतसमुत्पत्तीन्यनेकप्रकाराणि पुण्यानि विद्यन्त इत्य भ्युपगम्यते, तदा तानि सुधाशनानामप्यवधि कृत्वा समस्तसंसारियां विषयतृष्णामवश्यमेव.
नामसंत-जदि हि पुष्ण व परिणामसमुन्भव विवि विष्ट जीव देवदत | धातुसंज्ञ--अस सत्तावां, जण उत्पादने । प्रातिपदिक यदि हि पुण्य परिणामसमुद्भव विविध विषयतृष्णा जीव देवतान्त | मूलधातु --- अस भुवि जन जनने जुहोत्यादि जनी प्रादुर्भाव दिवादि भिजन्ते । उभयपद विवरण- जि यदि हि यच-अव्यय | पुण्याणि पुण्यानि परिणामसमुदभवाणि परिणामसमुद्भवानि विविहाणि विवि धानि प्रथमा बहु० । संति सन्ति वर्तमान अन्य० एक० किया । अणयति जनयन्ति वर्तमान अन्य पुरुष किन्तु हैं वे सब क्षुत्र । ( ३ ) ये भोग पुष्यके फल हैं, सो पुण्यका अस्तित्व तो है, पर उसका परिणाम संसार ही है ।
सिद्धान्त - (१) शुभोपयोग अशुद्धोपयोग है और नमिसिक है। दृष्टि-- १ उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याधिकनय [ ५३ ] ।
प्रयोग-- शुभपयोगसे अशुभोपयोगका आक्रमण दूर करके सुरक्षित होकर सहज शुद्ध चैतन्यस्वभावका उपयोग करते हुए सहज शुद्धोपयोगी होना ॥ ७३ ॥
व इस प्रकार माने गये पुण्योंकी दुःखबीजकारणताको उद्भावित करते हैं--- [ यदि ] यदि [ परिणामसमुद्भवानि] शुभोपयोगरूप परिणाम से उत्पन्न होने वाले [विविधानि पुण्यानि च] नाना प्रकार के पुण्य [संति ] विद्यमान हैं [ देवातान्तानां जीवानां] तो वे देवपर्यन्त जीवों के [favor] विषयकी तृष्णाको [हि जनयन्ति ] हो उत्पन्न कराते हैं ।
तात्पर्य- इन्द्रादिकों के पुण्य हैं तो वे पुण्य विषयतृष्णाको हो उत्पन्न कर दुःखके ही बीज बनते हैं ।
टीकार्थ - यदि इस प्रकार शुभोपयोग परिणामसे उत्पन्न होने वाले अनेक प्रकारके gor विद्यमान हैं, यह माना जाता है तो वे पुण्य देवों तक के समस्त संसारियोंके विषयतृष्णा को अवश्य हो उत्पन्न करते हैं (यह भी मानना पड़ेगा ) । वास्तवमें तृष्णा के बिना दूषित रक्त में जोककी तरह समस्त संसारियोंकी विषयोंमें प्रवृत्ति दिखाई न दे; किन्तु वह तो दिखाई
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
Mana
S
m
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
१३१ समुत्पादयन्ति । न खलु तृष्णामन्तरेण दुष्ट शोणित इव जलूकानां समस्तसंसारिणां विषयेषु प्रवृत्तिरवलोक्येत । नवलोक्यते च सा । ततोऽस्तु पुण्यानां तृष्णायतनत्वमाधितमेव ॥७॥ बहराचन गिजन्त क्रिया । विसयतण्हं विषयतृष्णां-द्वितीया एक । जीवाणं जीवानां देवदंताण देनामाना-पाठी बह। निरुक्ति---यूबी अनेनेति पुगवपिण्यक्ति रथात्मकतया बियणं संबध्नन्ति प्रति विषया) तृष्यते अनयेति तृष्णा ! समास....परिणामन गमुद्भवानि परि०, विरयाणां नृणा वि० ||७४।। देती है। इस कारण पुण्योंकी तृष्णायतनपना प्रदाधित हो है ।।
A प्रसंगविवरण-अनंतरपूर्व गाथामें शुभोपयोगजन्य पुण्यकर्मका दूषण स्पष्ट किया गया था। अब इस गाथामें उन पूण्य कमाँको दुःखकारणताको प्रकट किया है।
। तथ्यनकाश---(१) शुभोपयोगके परिणामसे अनेक प्रकारके पुण्यकर्म बन जाते हैं। (२) व पुण्यकर्म बड़ेसे बड़े प्रारगी देवेन्द्रों तकके संसारियों के विषयतृष्णाको उत्पन्न करते हैं । (२) यदि उन. पुण्यकर्म वाले बड़े प्राणियोंके पुण्यकर्म विषयतृष्णाजनक न होते तो उनकी विषयों में प्रवृत्ति न देखी जाती । (४) पुण्योदय वाले प्राणियोंके विषयतृष्णा व विषयप्रवृत्ति देखो जाती है, अतः अबाधित सिद्ध है कि पुण्यकर्म तृष्णाके घर ही हैं। (५) वास्तव में पुण्यकर्म सुखके साधन तो क्या होंगे वे तो दुःख के बीजरूप तृष्णाके ही घर हैं ।
। सिद्धान्त--(१) तृष्णाका कारण है मोहोदय के साथ पुण्योदय, पुण्यबन्धका कारण या है. सभोपयोग ।
- दृष्टि--१- निमित्तपरम्परादृष्टि [५३५] ।
- प्रयोग---पुण्यकर्मको भी दुःख बोज जान कर पुण्यकर्मसे, पुण्यकर्मके फलसे व पुण्यकर्म में साधनसे उपेक्षा करके शुद्ध सहज अन्तस्तत्व की दृष्टि करना ।।७४।।
अब पुण्यके दुःखबीजरूप विजय घोषित करते हैं--[पुनः] फिर [उदीर्णतृष्णा ते उदोणं है तृष्णा जिनकी ऐसे वे जीव [तृष्णाभिः दुःखिताः] तृष्णाप्रोंके द्वारा दुःखी होते हुए अपामरणे | मरण पर्यंत [विषयसौख्यानि इच्छन्ति] विषयमुखोंको चाहते हैं [च] और
संतप्ता:] दुःखोंसे संतप्त होते हुए [अनुभवंति उन्हें भोगते हैं। A तात्पर्य—जिनके तृष्णा बढ़ी-चढ़ी है वे विषयचाहको दाहसे मरणपर्यन्त दुःख भोगते
११:45
ASTRA
AartySARAN
E
टीकार्थ----जिनके तृष्णा बढ़ो-चढ़ी है ऐसे देवपर्यंत समस्त संसारी, सृरुणा दुःख का बीज होतेसे पुषयजनित तृष्णामोंके द्वारा भी दुःख बीजपना होनेसे अत्यंत दखी होते हुए मृगसमापासे जल को भांति विषयोंसे सुख चाहते हैं, और उस दुःख-संतापके वेगको न सहने ए जोकको भौति विषयोंको तब तक भोगते हैं, जब तक कि मरणको प्राप्त नहीं होते । जैसे
URI
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३२
सहजानन्दशास्त्रमालायां अथ पुण्यस्य दुःखबीज विजयमाधोषयति ---
ते पुगण उदिण्यातण्हा दुहिदा तण्हाहिं विमयसोयाणि । इच्छंति अणुभवति य ग्रामरणं दुक्खसंतत्ता ।। ७५ ॥
फिर तृष्णाको दुखिया, हो तृष्णासे हि विषयसौख्योंको ।
श्रामण चाहते बे, दुखसे संतप्त हों भोगें ॥ ५ ॥ ते पुनरुदीर्णत: दुन्वितार तृष्णाभिविषयमलयानि इत्यनुभवन्ति च आभरण दुःख संतप्ता: ।। ७५ 11
___ अथ ते पुनस्त्रिदशाबसानाः कृत्स्नगंसारिणः समुद्री तृष्णा: पुण्य निर्वतिताभिरपि तृष्णाभिदु:खबीजतयाऽत्यन्त दुःखिताः सन्तो गृप.तृष्णाभ्य इवाम्मासि विधयेभ्यः सौख्यान्यभिल. स्ति । तदःख संतापवेग मसहमाना अनुभवन्ति च विषयान् जलायुवा इथ, ताव द्यावत् क्षयं
नामसंज्ञ... पृण उदिगहराह दुहिद तण्डा चिरायगोवस्व य आमरणं दुबलसंतप्त । धातुसंज्ञ--इच्छ इच्छायां, अणु भन्' सत्तायां । प्रातिपदिक-तस् पुनर, उदीर्णतृणा दुसित तृष्णा विषयग़ौख्य आमरणं जोक तृष्णा जिसका बीज है ऐसे विजयको प्राप्त होती हुई दुःखांकुर से क्रमशः प्राकान्त हो रही दूषित रत्त को चाहती हुई और उसोको भोगती हुई मरणपर्यंत बलेशको पाती है, उसी प्रकार यह पुण्यशाली जीव भी पापशाली जीवोंकी भांति तृष्णा जिसका बीज है ऐसे विजयप्राप्त द.खांकुरों के द्वारा क्रमशः अाक्रान्त हो रहे हुए विषयोंको चाहते हुए और उन्हींको भोगते हुए विनाश पर्यन्त बलेश पाते हैं । इस कारण पुण्य सुखाभासप दुःखका ही साधन
प्रसंगवियर ..... अनंतरपूर्व गाथामें पुण्यक मौकी दुःखबीजता प्रकट की थी। अब इस गाथामे यह घोषित किया गया है कि पुण्य दुःखरूप फल को देता है, इसरूपमें पुण्यको विजय प्रसिद्ध है।
तथ्यप्रकाश-- (१) देवपर्यन्त सभी संसारी जीव तृष्णामें सने हैं। (२) पुण्यरचित तृष्णावोंके कारण सभी संसारी जीव दुःखी हैं। (३) तृष्णापीडित प्राणी विषयोंसे सूखकी अभिलाषा करते हैं । (४) पुण्योदय वाले मोही प्राणी तृष्णाजन्यपीडाको न सहते हए तब त विषयों को भोगते रहते हैं जब तक वे मर मिट जायें। (५) गौच तृष्णावश मरणपर्यन्त दुष्ट खून को बाहती व पोती रहती हैं, ऐसे ही पुण्योदयो मुग्ध प्राणी पापयुक्त प्राणियोंको तरह प्रलयपर्यन्त विषयों को बाहते, भोगते व कष्ट पाते हैं। (६) पुण्य सुखाभासरूप दुःखके ही साधन हैं । (४) जिनके निर्विकल्प परमसमाधिसे उत्पन्न परमाहादस्वरूप तृप्ति नहीं है उनके विषयतृष्णा अवश्य वर्तती है । (८) पाश्रयभूत कारणोंमें उपयोग जुटानेपर विषय
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
S3690
minine
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका मास्ति । यथा हि जलायुकास्तृष्णाबीजेन विजयमानेन दुःखांकुरेण क्रमतः समाक्रम्यगाणा दुष्टसोलालमभिलषन्त्यस्तदेवानुभवन्त्यश्चाप्रलयात क्लिश्यन्ते । एवममी पि पुपयशालिनः पापमालिन इव तणाबीजेन विजयमानेन दुःखांकुरे या क्रमतः समाक्रम्यमारणा विषयानभिलपन्तधालेवानुभवन्तश्चाप्रलयात् विलश्यन्ते । अतः पुण्यानि मुखाभासस्य दुःखः सेव साधनानि
289
लसतत । मूलधातु..--उत् ऋ गतिमापणो स्वादि, भ्रा गतौ ऋ वादि, विपिन बन्धन स्वादि ऋयादि, हर इच्छाग्य, अनु भः सत्तायां । उभयपदविवरण-- उदिताहा उदीणतृष्णा: दुनिया दुविता: दुसम्वमतचा पसंतपता-पु० बहु । पुण पुनः य च-अव्यय । न हाहि तृष्णाभि:-तृतीया बहु० । विसवसो. माणि विषयसौख्यानि-द्वि बहु । इच्छति इन्ति अणुभवति अनुभवन्ति-वर्तमान लट् अन्य गुरुप
आमरण क्रियाविशेषण अव्यय भासा निरक्ति-....म्रियतं मरण । समास-उदीण तुणा गेखां सोतिष्णा, विषयाणां सौस्यानि विदुः ख न संतप्ताः दुःखसंतप्ता: ५॥ तमा व्यक्त होती है । (६) आश्रयभूत कारणों मे उपयोग न जुटानेपर विषयतृणा व्यक्त होती है । (१०) तृष्णारूप बीज क्रमश: अंकुररूप होकर दु:ख रूप वृक्ष बढ़ता है। (११)
सदाहका वेग असह्य होनेपर जीव विषयों में प्रवृत्ति करते हैं । (१२) जिनके विषयों में प्रति है वे सब संसारी जीव स्पष्ट दुःखो हैं । (१३) जैसे मृगमरीचिकासे जल प्राप्त नहीं होता. ऐसे ही इन्द्रियविषयों से सुख प्राप्त नहीं होता है ।
सिद्धान्त - (१) कर्मोदयवश जीव विकारी और प्राकुल होता है । R इष्टि-- १-- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रध्याथिकनय (२४) ।
म प्रयोग:--सुखाभासोंसे हटकर पारमार्थिक सुखके स्रोत ज्ञानानन्दस्वभावमय अंतस्तत्त्व aft करना ।।७५॥
अब पुनः भी पुण्यजन्य इन्द्रिधसुखको अनेक प्रकारसे दुःख रूप उद्योतित करते हैं... अपना जो [इंद्रियः लब्धं] इन्द्रियोंसे प्राप्त होता है [तत् सौख्यं] वह सुख [सपरं] परद्रव्याकि पावासहित] बाधासहित [विच्छिन्नं विच्छिन्न [बंधकारणं] बंधका कारण [विषम मीर विषम है, [तथा] इस प्रकार [दुःखं एवं] वह दुःख ही है।
तात्पर्य ---जो सुख पराधीन बाधासहित विनाशोक व बन्धका कारण हो वह तो
RSSIC
टीकार्य--परापेक्षता होनेसे, बाधासहितपना होनेसे, विच्छन्नपना होने से, बन्धका भारणपना होनेसे, और विषमता होनेसे, पुण्य जन्य भी इन्द्रियसुख दुःख ही है । घरसम्बन्ध डाला होता हुमा पराश्रयताके कारण पराधीनता होनेसे बाधासहित होता हुमा खाने, पीने
hwww
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
:
:
B
:
:
१३४
थ पुनरपि पुण्यजन्यस्येन्द्रियसुखस्य बहुधा दुःखत्वमुद्योतयति-सपर बाधासहियं विच्त्रिणं बंधकारणं विसमं । जं इन्दियेहिं लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव तहा ॥७६॥
सपर सबाध विनाशी, बन्धनकारण तथा विषम जो भो । सुख इन्द्रियसे पाया, वह सुख क्या दुःख ही सारा ॥ ७६ ॥ सुपर बाधासहितं विच्छिन्नं बन्धकारणं विषमम् । यदिन्द्रियैर्लब्धं तत्सौख्यं दुःखमंत्र तथा ।। ७६ ।। सपरत्वात् बाधासहितत्वात् विच्छिनत्वात् बंधकारणत्वात् विषमस्वाच्च पुण्यजन्यमपीन्द्रियसुखं दुःखमेव स्यात् । सपरं हि सत् परप्रत्ययत्वात् पराधीनतया, बाधासहितं हि सद
सहजानन्दशास्त्रमालायां
नामसंज्ञ - सुपर बाधासहिय विच्छिष्ण बंधकारण विसम ज इंदिय ऋद्ध त सोख दुक्ख एव तहा | धातुसंज्ञ - - विच्छिद छेदने, लभ प्राप्तौ । प्रातिपदिक-सपर बाबासहित विभिन विषम यत् इन्द्रिय लक्ष्ध तत् सौख्य दुःख एवं तथा । मूलधातु-विदिर्वीकरणे सुलभ प्राप्ती । उभयपद विवरण- सपरं बाधासहिय वाधासहित विचिष्ण विभिन्न बंधकारणं विसमं विषमं जं यत् सोनख सौख्य दुक्तं दुःखं प्रथमा एक० । इंदियेहि इन्द्रियैः तृतीया बट्ट | सद्धं लब्धं प्रथमा एक कृदन्त क्रिया । एव
और मैथुनको इच्छा इत्यादि तृष्णाकी प्रगटताओंसे युक्त होनेके कारण अत्यन्त श्राकुलता होने से 'विच्छिन्न' होता हुआ असातावेदनीयका उदय जिसे च्युत कर देता है, ऐसे सातावेदनीय के उदयकी प्रवृत्तिरूपसे अनुभव में आनेके कारण विपक्षको उत्पत्ति वाला होनेसे, बंधका कारण होता हुआ विषयोपभोगके मार्ग में लगी हुई रागादि दोषोंकी सेनाके अनुसार, कर्मेरजके ठोस समूहका सम्बन्ध होनेके कारण दुःसह परिणाम होनेसे; और विषम होता हुआ हृानि वृद्धिमें परिमित होनेसे अत्यन्त अस्थिर होनेके कारण वह इन्द्रियसुख दुःख ही है । लो, अब ऐसा पुण्य भी पापकी तरह दुःखका साधन ही सिद्ध हुआ ।
प्रसंगविवरण - प्रनन्तरपूर्व गाथा में पुण्यकी दुःखबीजताके रूपमें विजय की घोषणा की थी । अब इस गाथामें पुनः पुण्यजन्य इन्द्रियमुखका अनेक प्रकारसे दुःखपना बताया गया
है ।
तथ्यप्रकाश - - ( १ ) इन्द्रियसुख यद्यपि पुण्यजन्य है तथापि वह अनेक कारणोंसे दुःखरूप ही हैं । ( २ ) इन्द्रियसुख परनिमित्त के योग में होनेके कारण पराधीन है । ( ३ ) इन्द्रियसुख खाने पीने मैथुन यादिको इच्छात्रों रूप तृष्णाविशेषोंके कारण अत्यन्त आकुल है । (४) इन्द्रियसुख असातावेदनीयके उदय द्वारा खंडित किया जानेसे विनाशक है । ( ५ ) विषयोपभोग के मार्ग लगे हुए रागादि दोषोंके अनुसार धन कर्मवणायें बँधनेसे इन्द्रियसुख बन्धका
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवधनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
११५ शनार्यादन्यावषस्यादिभिस्तृष्णाव्यक्तिभिरुपेतत्वात् अत्यन्ताकुलतया, विछिन्न हि सदसवेनोदगच्याक्तिसउद्योदयप्रवृत्तत्तयाऽनुभवत्याद्भूतविपक्षत या, बंधकारमा हि सद्विषयोपभोगमार्गानु. लग्न रागादिदोष सेनानुसारसंगच्छमानधनकर्मपांमुघटलत्वादुददुःसहत या, दिपमं हि सदभिवद्धिरिहाणिपरिणतत्वादत्यन्त विसंष्टुलतया च दुःख मेव भवति । अर्शवं पुण्यमपि पापवद्धःखमा. धनमायातमः ॥७६॥ MAथा अध्यय 1 निषित-बाध्यते अनोति माया, बन्धन बन्धः, चमार सामः (णम अवलय) । समासबाधया सहित वा०, बन्धस्य कारण विगाः समः यस्मात् तत् विपमं ।।७।। कारण है । (६) हानि-वृद्धिरूप परिणत होते रहने से इन्द्रियसुख विषम है। (७) पराधीन माधासहित विनाशीक बन्यकारणभूत विषम इन्द्रियसुख पुण्य जन्म होनेपर भी दःख ही है । MEE) अहो पुण्य भी पापकी तरह दुःखसाधन बन जाता है।
सिद्धान्त-(१) पुण्पजन्य होने पर भी इन्द्रियसुख दुःखरूप ही है। दृष्टि-१-- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४)।
प्रयोग--इन्द्रियसुखसे, उसके निमित्त भूत पुपयकर्मसे, पुण्यकर्मके निमित्त भूत शुभोपयासे उपेक्षा कर के सहज चैतन्यस्वरूगमें उपयोग लगाकर सहज विश्राम पाना 11७६।।
। अब पुण्य और पापको अविशेषताको निश्चित करते हुए उपाहार करते हैं.--[एवं] म प्रचार पुण्यपापयोः] पुण्य और पाप में [विशेषः नास्ति] फर्क नहीं है इति] यों [य] जो न हि मन्यते] नहीं मानता [ मोहसंछन्नः] वह मोहसे आच्छादित होता हुआ [घोरं अपार संसार] घोर अपार संसारमें [हिण्डति] परिभ्रमरण करता है।
तात्पर्य बन्धहेतु होनेसे पुण्य पाप दोनोंमें फर्क नहीं है, एसा जो नहीं मानता वह इस भयानक संसारमें भटकता रहता है।
। टीकार्थ-यों पूर्वोक्त प्रकारसे शुभाशुभ उपयोग के द्वैतकी तरह और सुख दुःखके द्वैत की नरह परमार्थसे पुण्य पापका द्वैत भी नहीं टिकता, क्योंकि दोनोंमें अनात्मधर्मत्वको अविशेषता है । परन्तु जो जीव उन दोनों में सुवर्ण और लोहको बेडीको तरह अहंकारमय अन्तर मामता हामहमिन्द्रपदादि-सम्पदायोंके कारणभूत धर्मानुरागका अत्यन्त गाह रूपसे अवलम्बन करता है, वह जीव वास्तव में चित्त भूमिके उपरक्त होने से शुद्धोपयोग शक्तिका तिरस्कार किया है जिसने, ऐसा बर्तता हुआ, संसारपर्यंत शारीरिक दुःखका ही अनुभव करता है । MANE प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें पुण्यजन्य भी इन्द्रियमुख की बहुत प्रकारसे दुःखबता बताई गई थी। अब इस गाथा पुण्य और पापमें अविशेषपनेका निश्चय कराकर
3AKRA
e
R etainmemom
simammimamtamilanowsamstianitlimitu
HINDI
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३६
अथ पुण्यपापयोरविशेषत्वं निश्चिन्वन्नुपसंहरति
सहजानन्दचास्त्रमालायां
हिदि जो एवं णत्थि विसेसो त्ति पुण्णपावाणं । हिंडदि घोरमपारं संसारं मोहसंछष्णो ॥ ७७ ॥ पुण्य पाप में अन्तर न कुछ भि ऐसा न मानता जो वह । मोहन होकर, अपार संसार में भ्रमता ।। ७७ ।।
न हि मन्यते स एवं नास्ति विशेष इति पुण्यपापयोः । हिण्डले घोरमपारं संसार मोहसंच्छनः ॥ ७७ ॥ एवमुक्तक्रमेण शुभाशुभोपयोग द्वैतमिव सुखदुःखद्वैतमिव च न खलु परमार्थतः पुण्यपापद्वैतमवतिष्ठते, उभयत्राप्यनात्मधर्मत्वाविशेषत्वात् । यस्तु पुनरनयोः कल्याणवालायस निगलयीरिवाहङ्कारिक विशेषमभिमन्यमानोऽहमिन्द्रपदादिसंपदा निधानमिति निर्भरतरं धर्मानुरागभवन लम्बते स खलूपरक्तचित्तभित्तितया तिरस्कृतशुद्धोपयोगशक्तिरासंसारं शारीरं दुःखमेवानुभवति ।। ७७ ।।
नामसंज्ञ- हिज एवं ण विसेय त्ति गुण्णपाय घोर अपार संसार मोहसंच्छ धातुसंज्ञ मन्न अवोधने तृतीयगणी अस सत्तायां, हिंड भ्रमणे शब्द च । प्रातिपदिकन हि यत् एवं न अस्ति विशेष इति पुण्पाप घोर अपार संसार मोहसंछन् । मूलधातु-मन ज्ञाने दिवादि, अस सुबि हिडि गत्यनादरयोः । उभयपदविवरण ण न हि एवं इति-अव्यय । मादि मन्यते अस्थि अस्ति हिदि हिण्डवर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन किया। जो यः विसेस विशेषः प्रथमा एकवचन । घोरं अपार संसारद्वि० एक० ! मोह्स छष्णो मोहसंछन्नः प्रथमा एक निरुक्ति-शेपनं शेषः विगतः शेषः यरमात्र विशेषः याति रक्षति आत्मानं शुभात् इति पापं स सरणं संसारः तं । समास स्पुण्यं च पाप पुण्यातयोः पुण्यपायो मोहेन सन्नः मोहरा छनः ॥ ७७ ॥
शुभपयोग व्याख्यान का उपसंहार कर दिया गया है ।
तथ्यप्रकाश - ( १ ) शुभपयोग व अशुभोपयोग में अनात्मधर्मत्वकी समानता है । (२) सुख और दुःखमें अनात्मधर्मत्वको समानता है । ( ३ ) पुण्य और पाप में अनात्मधर्मत्व की समानता है । ( ४ ) मुग्धजन ही पुण्यको अहमिन्द्रादिपदका कारण देखकर पुण्यबंधके कारणभूत शुभोपयोगकी पकड़ बनाये रहते हैं । ( ५ ) शुभोपयोगको ही अपना सर्वस्व धर्म मानकर उसकी पकड़ रखने वाले शुद्धोपयोग की शक्तिको तिरस्कृत करने के कारण संसारपर्यन्त शारीरिक दुःखको ही भोगते हैं ।
सिद्धान्त --- ( १ ) शुभोपयोग विभाव गुणव्यञ्जन पर्याय है और उसे ही परम धर्म मानकर उसकी पकड़ होना मिथ्याभाव है ।
दृष्टि--. १- विभावगुणव्यञ्जन पर्यायदृष्टि ( २१३), स्वजातिपर्याय स्वजातिपर्यायोप
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
TwitSASSARAI
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका अर्थवमबधारितशुभाशुभोपयोगाविशेषः समस्तमपि रागद्वेषद्वतमपहासयन्नशेषदुःख. क्षयाय सुनिश्चितमनाः शुद्धोपयोगमधिवसति-...
एवं विदिदत्थो जो दव्वेसु गा रागमेदि दोमं वा । उपभोगविसुद्धो सो खवेदि हेहुम्भवं दुक्खं ॥७॥
यो सत्य जानकर जो, द्रव्योंमें राग द्वष नहि करता ।
शुद्धोपयुक्त हो वह, देहोद्भव दुख मिटाता है ।। ७८ ॥ एवं विदिताओं चो द्रव्येषु न रागति द्वेष वा। उपयोगविद: सक्षपति दहोशय दुःखमा ।। ७८ ॥
यो हि नाम शुभानामशुभाना व भावानामविशेषदर्शनेन सम्यकपरिच्छिन्नबस्तुस्वरूपः स्वपर विभागावस्थितेषु समग्रेषु ससम अपर्यायेषु द्रन्येषु राम दुषं चाशेष भेव परिवर्जयति स किले
नामसंज्ञ..एवं विदिदस्थ ज दव्व ण राग दोस वा उवओविसुद्ध त देहुभव दुनन् । धालुसंज्ञइगती, खव क्षण बारणे तृतीयगणी, विद ज्ञाने । प्रातिपदिक....एवं विदितार्थ यत् द्रव्य न राग द्वेष वा उपयोगविशुद्ध सत् दही व दु.ख । मूलधातु----विदल ज्ञाने, इण् गती, क्ष क्षये पुकानिदेशात क्षपि क्षये भ्वादि । उभयपदविवरण ---- एवं ण न वा-अध्यय । विदिदत्थो विदितार्थ: जो यः उयोगविसुद्धो उपयोगचारकव्यवहार (१०८)।
प्रयोग----पुण्य पाप दोनोंको विकार जानकर उनमे उपेक्षा करके पण्यपापरहित सहज चैतन्यस्वभावमें उपयुक्त होना ॥२७।।
अब इस प्रकार अवधारित किया है शुभ और अशुभ उपयोगकी अविशेषता जिसने, ऐसा समस्त रागद्वेषक हुँतको दूर करता हुया अशेष दुःखका भय करने का मनमें दृढ़ निश्चय करने वाला ज्ञानी पुरुष शुद्धोपयोगमें निवास करता है...... [एवं] इस प्रकार [विदितार्थः] जान लिया है वस्तुस्वरूपको जिसने ऐसा [यः] जो ज्ञानी [द्रव्येषु] द्रव्योंमें [राग द्वेषं वा राग व द्वेषको [न एतिः] प्राप्त नहीं होता [सः] वह [उपयोगविशुद्धः] उपयोगविशुद्ध होता हुप्रा [देहोद्भवं दुःखं] देहोत्पन्न दुःखका [क्षपयति] क्षय करता है ।
तात्पयं-- वस्तुस्त्र रूपको जानकर जो ज्ञानी पदार्थों में राग द्वेष नहीं करता बह दुखों का विनाश करता है।
टीकार्थ...-जो जीव शुभ और अशुभ भावोंकी समानताकी श्रद्धासे वस्तुस्वरूपको - सम्यकप्रकार से जानता है, स्व और पर - ऐसे दो विभागोंमें रहने वाली समस्त पर्यायोसहित समस्त द्रव्यों में राग और ष सारा हो छोड़ता है वह जीव एकान्त उपयोगविशुद्धपना होने से छोड़ दिया है परद्रध्यका मालम्बन जिसने, ऐसा वर्तता हुआ लोहके गोलेमें से लोहेके सार
BHUSHREE
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां
कान्तेनोपयोगविशुद्धतया परित्यकपरद्रव्यालम्बनोऽग्निरिवायःपिण्डादननुष्ठितायःसारः प्रचण्ड. घनघातस्थानीय शारीरं दुःखं क्षपति, ततो ममाय मवेकः शरणं शुद्धोपयोगः ॥ ७ ॥ विशुद्धः सो सः-प्रथमा एकवचन । दवेसु द्रव्येषु-सप्तमी बहु०। राग दोस द्वेषं दुहब्भवं देहोदभव दुक्ख दुःख-वि० mast निरुक्ति.... अति गति पर्यायानिति द्रा, रंजन रागः, द्वेषणं द्वेषः (द्विष अप्रीती), दुःखयनं दुःखं । समास (विदितः अर्थः येन सः विदितार्थ उपयोगेन विशुद्धः उपयोगविशुद्धोदिहे उद्भवं देहोदभवम् ।।८।। · का अनुसरण न करने वाली अग्निको भौति प्रचंड घनके प्राधात समान शारीरिक दुःख का क्षय करता है। इस कारण मेरा यहो एक शुद्धोपयोग शरण है ।
प्रसंगविवरण- अनन्तरपूर्व गाथामें पुण्य पापको अविशेष बताते हुए शुभोपयोग कथनका उपसंहार किया गया था। अब इस गाथामें बताया गया है कि शुभोपयोग व अशु. भोपयोगके प्रविशेषपनेका प्रवधारण करने वाला भव्य रागद्वेषको हटाता हुप्रा समस्त दुःखक्षय के लिये दृढ़ निश्चय करता हुप्रा शुद्धोपयोगको अङ्गीकार करता है ।
तथ्यप्रकाश -... ( १) शुभ व अशुभ भावों में प्रविशेषता वही भव्य जानता है जो वस्तु. स्वरूपको सम्यक् जानता है । (२) वस्तुस्वरूपका ज्ञानी समस्त सपर्याय द्रव्योंमें राग द्वोषका परिहार कर देता है। (३) रागद्वेषपरिहारी ज्ञानी परद्रव्यका पालम्बन छूट छाने शारीरिक दुःखका वेदन नहीं करता । (४) प्रात्माका एक यही शुद्धोपयोग शरण है। (५) लोहेका संग न करने वाली अग्निको धन घातके प्रहारका प्रश्न ही नहीं उठना । (६) शरीरका संग न करने वाले प्रात्माको शारीरिक दुःख होनेका प्रश्न ही नहीं उठता । (७) लोहेके सत्त्वको धारण न करने वाली अग्निपर प्रचण्ड धनके प्रहार नहीं होते । (८) परद्रव्यका मालम्बन न करने वाले प्रात्माको शारीरिक दुःखका वेदन नहीं होता ।
सिद्धान्त-~~-(१) रागद्वषारहारी स्वावलम्बी जीव शुद्धोपयोगको अङ्गीकार करता
दृष्टि----१- उपाध्यभावापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४५), शुद्ध भावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकानय (२४५)।
प्रयोग---समस्त दुःख विनाशके लिये शुभ अशुभ उपयोगमें अविशेषता निरखकर समस्त राग द्वषको दूर कर शुद्धोपयोगरूप होना ।। ७८ ॥
अब सर्व साबसायोगको छोड़कर चारित्रको प्रङ्गीकार करता हुमा भी यदि मैं शुभो. पयोगपरिणतिके वश होकर मोहादिका उन्मूलन न करू तो मेरे शुद्ध नात्माका लाभ कहांसे होगा ? इसलिये मोहादिके उन्मूलन के लिये सर्व उधमपूर्वक उठता है-[पापारम्भ] पापा
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार--सप्तदशाङ्गी टीका
१३६ अथ यदि सर्वसावधयोगमतीत्य चरित्रमुपस्थितोऽपि शुभोपयोगानुवृत्तिवशतया मोहा. दोनोन्मूलयामि, ततः कुतो मे शुद्धात्मलाभ इति सर्वारम्भेगोत्तिष्ठते----
वत्ता पाचारंभ समुट्टिदो वा सुहम्मि चरियम्हि । गा जहदि जदि मोहादी ण लहदि सो अप्पगं सुद्ध ॥७॥ पापारंभ छोड़कर, शुभ चरित्रमें उद्यमी भी हो।
यदि न तजे मोहादिक, तो न लहें शुद्ध प्रात्माको ॥७॥ त्यक्त्वा पापारम्भ समृश्रितो वा शुभे चरित्रे । न जहति यदि मोहादीन्न लभते स आत्मकं शुद्धम् ।। ७ ।।
य खलु समस्तसावधयोगप्रत्याख्यानलक्षणं परमसामायिकं नाम 'चारित्रं प्रतिज्ञायापि शुभोपयोगवृत्त्याऽटकाभिसारिकयेवाभिसार्यमाणो न मोहबाहिनीविधेयतामकिरति स किल समासन्न महादुःख सङ्कटः वथमात्मानमविप्लुतं लभते । प्रतो मया मोहवाहिनीदिजयाय बद्धा कोयम् ।। ७६ ।।
नामसंश-पावारंभ समुट्टिद वा सुह चरिध ण जाँद मोहादि ण त अप्पग मुद्ध। धातुसंज्ञच्चय त्यागे तृतीयगणी, सम् उद् ट्ठा गतिनिवृत्ती, जहा त्यागे, लभ प्राप्तो। प्रातिपदिक-पापारंभ समुत्थित वा शुभ चारित्र न यदि मोहादि न सत् आत्मक शुद्ध । मूलपातु-त्यज त्यागे, सम् उत् ष्ठा गतिनिवृत्तौ, ओहाका त्यागे जुहोत्यादि, दलभप प्राप्ती । उभयपदविवरण....पावार में पापारम्भं अप्पगं आत्मक सुद्धं शुद्ध-द्वितीया एकः । समुट्टिदो समुत्थितः सो सः-प्रथमा एक । सुहम्मि शुभे चरियाम्ह चारित्रे-सप्तमी एक० । मोहादी मोहादीन्-द्वितीया बहु । बत्ता त्यक्त्वा-असमास्तिकी क्रिया कृदन्त । जहदि जहात्ति लहदि लभते-दर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० किया । निरुक्ति-- शोभनं शुभः, चरणं चारित्रं, मोहनं मोहः । समास-मीपस्य आरम्भः पापारम्भः)तं पापारम्भ ।।६।। रम्भको त्यिवाया] छोड़कर [शुभे चरित्र] शुभ चारित्रमें समुत्थितः वा उठा हमा भी [दि] यदि जीव [मोहादीन] मोहादिको [न जहाति नहीं छोड़ता तो [सः] वह [शुद्ध आत्मक] शुद्ध प्रात्माको [न लभते] नहीं पाता है ।
तात्पर्य--पापारम्भ त्याग कर चारित्रमार्गमें लगकर भी यदि शुभोपयोगको हठसे मोहादिको नहीं छोड़ता है तो वह सहजात्मस्वरूपको नहीं प्राप्त कर सकता।
टोकार्थ जो जीव समस्त सावद्ययोगके प्रत्याख्यानस्वरूप परमसामायिक नामक चारित्रको प्रतिज्ञा करके भी धर्त अभिसारिकाकी तरह शुभोपयोगपरिणतिसे मिलन पाता हुमा मोहकी सेनाके कृत्यको दूर नहीं कर डालता, वास्तव में महादुःख संकट निकट हैं जिसके, ऐसा वह शद्ध प्रात्माको कैसे प्राप्त कर सकता है ? इस कारण मैंने मोहकी सेनापर विजय प्राप्त करनेको यह कमर कसी है।
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४०
HTATARIS
सहजानन्दशास्त्रमालायां अथ कथं मया बिजेतव्या मोहवाहिनीत्युपायमालोचयति
जो जाणदि अरहंतं दव्यत्तगुणत्तपज्जयतेहिं । मो जादि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं ॥८॥ जो जिनवरको जाने, द्रव्यत्व गुरगत्व पर्ययपनेसे ।
वह जाने प्रात्माको, उसके नहिं मोह रह सकता ॥८॥ यो जानात्यहन्तं द्रव्यत्वगुणत्वपर्ययत्वैः । स जानात्यात्मानं मोहः खलु याति तस्य लयम् ।। ८०।1
यो हि नामान्त द्रव्यत्वगुणत्वपर्ययत्वैः परिच्छिनत्ति स खल्वात्मानं परिच्छिनत्ति, उभयोरपि निश्चये नाविशेषात् । अर्हतोऽपि पाककाष्ठागतकार्तस्वरस्येव परिस्पष्टमात्मरूपं, तत
नामसंज....ज अहंत दध्वत्तगुणत्तपज्जयत्त त अप्प भोह खलु त लय धातुसंज्ञ----जा गती जाण अवबोधने, अरह योग्यतायां । प्रातिपदिक...यत् अहंत ध्यत्वगुणत्यपर्य प्रत्व तत् आत्मन् मोइ खलु तत्
प्रसङ्गविवरण- अनन्तर पूर्व माथामें बताया गया था कि शुभाशुभोपयोगविशेषज्ञ रागद्वघका परिहार करता हुअा शुद्धोपयोगको अङ्गीकार करता है। अब इस गाथामें बताया गया है कि सर्व पागको त्यागकर चारित्र अंगीकार करते हुए भी यदि शुभोपयोगवृत्तिवश होकर मोहादिकको नहीं उखाड़ता है तो शुद्धात्माका लाभ नहीं होता है । इस कारण यह ज्ञानी सर्वोद्यमपूर्वक उठता है अर्थात् मोहादिकको उखाड़ फेंकनेके लिये तैयार होता है ।
तथ्यप्रकाश--(१) मोक्षोद्यमी पुरुष सर्वपापसंबंध को हटानेरूप परमसामायिक नामक चारित्रका प्रतिज्ञापन करता है । ( ) यदि कोई परमसामायिक चारित्रको प्रतिज्ञा करके भी शुभोपयोगवृत्तिके वश होकर मोहसेनाको व्यस्त नहीं करता है वह दुःखी जीव प्रात्माको प्राप्त कर सकता है । (३) मुमुक्षुको मोहसेनापर विजयके लिये कमर कसना चाहिये ।
सिद्धान्त... (१) आत्माके पुरुषार्थ से निमोह प्रात्मपदकी सिद्धि होती है। दृष्टि–१- पुरधकारनय (१८३)।
प्रयोग -- पापारंभको छोड़कर चारित्रमें बढ़कर निर्मोह भावसे रहकर प्रात्मस्वभावमें उपयुक्त होना ॥७६।।
अब मेरे द्वारा मोहकी सेना कैसे जीती जानी चाहिये ऐसा उपाय वह निरखता है.--- [यः] जो | अन्ति] अरहंतको द्रिय रवगुरगत्वपर्ययत्व:] द्रव्यपने, मुरापने और पर्यायपनेसे [जानाति] जानता है, [सः] वह [प्रात्मान] अपने प्रात्माको [जानाति] जानता है, और [तस्य मोहः] उसका मोह [खलु] निश्चयतः लयं याति] विनाशको प्राप्त होता है।
तात्पर्य--जो अपने में समानता असमानता व उपायको दृष्टिपूर्वक द्रव्यत्व गुणत्व व
e nionshTV HTASTRASTROTESTANTTAMATKARENDMERIES
OmsammaNETISTICTIHARTIYASETIMATImmuneTASTOTASHRAISEXJRAMSHR
PurnrvarnamammAware...mawrappin
EWARI
SHIRAMMemonetimonkeammar
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार -...सप्सदमाङ्गी टीका
१४१ तत्परिच्छेद सर्वात्मपरिच्छेदः । तत्रान्वयो द्रव्यं, अन्वयविशेषणं गुरगः, अन्वयव्यतिरेका: पाया । तब भगवत्यर्हति सर्वतो विशुद्धे त्रिभूमिकमपि स्वमन सा समय पश्यति । यश्चेतनोव्यमित्या व्यस्तव्यं, यच्चान्वयाश्रित चतन्यमिति विशेष स गुग:, थे चैव समय मात्राववृत. कालपरिमागतया परस्परपरावृत्त। अन्यन्यतिरेकास्ने पर्यायाचिद्विवर्तन ग्रन्धय इति यावत । अर्थवमस्य निकालमप्येककालमाकलयतो मुक्ताफलानोच प्रलम्बे प्रालम्बे चिद्विवतश्चेतन एव संक्षिय विशेषणविशेष्यत्ववासनान्तर्धानाद्धवलिमानमिव पालम्बे वेतन व चैतन्य मन्तहित लय । मलधात-ज्ञा अवबोधन, या प्रापणे । उभयपदविवरण--जो यः सोमः माहो माहः-प्रथमा ए | भरहत्त अहन्त अप्पाणं आत्मानं लय- ा य..। दसगुणत्तपञ्जयतेश द्रव्यत्वगुणत्व गवत्य:-ननीया यवत्वनः । तस्सं तस्य-षष्ठी, एक.० । जाणदि जानाति जादि याति-चतमान लद न्य पाएक० क्रिया ।
पर्ययत्व से भगवानको जानता है उसका मोह नष्ट हो जाता है ।
टीकार्थ---जो वास्तवमें अरहनको द्रव्यरूपसे, गुशारूपसे और पर्यायरूपसे जानता है वह वास्तव में अपने आत्माको जानता है, क्योंकि दोनोंके भी निश्चयसै अन्तर नहीं है । पर. "हंसका भी अन्तिम तावको प्राप्त सोने के स्वरूपवी तरह अात्मस्वरूप परिस्पष्ट है, इसलिये उसका ज्ञात होनेपर सर्व यात्माका ज्ञान होता है । वहाँ अन्वय द्रव्य है । अन्वयका विशेषरण गुगा है और अन्वयके व्यतिरेक अर्थात भेद पर्यायें हैं। सर्वत: विशुद्ध भगवान अरहंत में जीव विभूमिक याने द्रव्यगुणपर्याययुक्त समयको (निज प्रात्मको) अपने मन से जान लेता है, समझ लेता है। यह चेतन है। इस प्रकार का जो अन्वय है वह द्रव्य है । अन्वयके आश्रित रहने वाला बतन्य' विशेषण वह गुण है, और एक समय मात्रकी मर्यादा वाला कालपरिमाण होनेसे परस्पर अनवृत्त अन्वयव्यतिरेक वे पर्यायें हैं जो कि चिक्विर्तनकी अथान प्रात्माके परिणमन की अधियाँ हैं । अब इस प्रकार कालिक अात्माको भी एक काल में समझ लेने वाला वह जीव, मुलते हुए हारमें मोतियोंकी तरह चिद्विवर्तीको चेतनमें हो अन्तर्गत करके तथा विशेपण विशेष्यताको वासनाका अन्तनि होनेसे हार मे सफेदीको तरह चैतन्यको चेतन में ही अन्तहित करके, मात्र हारकी तरह केवल प्रामाको जानते हुए के उसके उत्तरोत्तर क्षण में कर्ता
क्रियांका विभाग क्षीयमाण होने से निस्क्रिय चिन्मात्र भावको प्राप्त हुएके उत्तम मरिएकी सरह निर्मल प्रकाश अ रूस प्रतिमान है जि.स. १, रे से उस जीद के, मोहांधकार निराश्नबलाके कारण अवश्यमेव प्रलयको प्राप्त होता है । यदि ऐसा है तो मैंने मोहकी सेनाको जीतने का उपाय प्राप्त कर लिया है।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें कहा गया था कि चारित्र अङ्गीकार करके भी
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४२
सहजानन्दशास्त्रमालायां
।
विधाय केवल प्रालम्बमित्र केवलमात्मानं परिच्छिन्दतरतदुत्तरोत्तर क्षणक्षीयमानवल भक्रियाविभागतया निक्रियं चिन्मानं भवधिगतस्य जातस्य मरगेरियाकम्पप्रवननिर्मलालोवस्याव
ममेव निराश्रयतया भोहतमः प्रलीयते । यद्येवं लब्धो मया मोहवाहिनी विजयोपायः ।। ८० ॥ निरुक्ति-अति इति आत्मा, लयन लय: । समास---ध्यत्व गुणन्य पयल चौत व्यत्वगुणत्वपमेयत्वानिनः द्र.1001 यदि शुभोपयोगानुवृत्तिवश होकर मोहादिक विकारको उखाडकर नहीं फेंकता हूं तो मेर शुद्धास्मत्वका लाभ वैसे हो सकता है ? अब इस गाथामें उसी मोहादिकको उखाड़ फेंकने के एक उपायका प्रकाशन किया है।
तथ्यप्रकाश... (१) निश्चयतः अरहंत प्रभुका द्रव्यत्व और मेरा ध्यान समान है, क्योंकि साधारणासाधारमा गुणमय द्रवणशील अनादि अनन्त प्रात्मरब सब अात्माकाका समान है । (२) अरहंत प्रभु और मैं गुणरूपसे समान हैं, क्योंकि एकल्प चैतन्य गुण सब प्रात्भावों का समान है। (३) अरहतप्रभुमें और मुझमें पर्यायरूपसे अन्तर है, क्योकि प्रभु राग द्वेषसे रहित व सर्वज्ञ हैं, मैं राग द्वेषसे सहित व अल्पज्ञ हूं । (४) पर्याय कृत अन्तर द्रव्यरूपसे, अभेद गुरारूपसे पाल्माकी उपासना करने पर दूर हो जाता है । (५) अरहंतका पर्याय प्रात्मद्रव्य व गुणके पूर्ण अनुरूप है, अतः प्ररहतको जानने से अपने अन्तःस्वरूपका परिचय सुगम हो जाता है । (६) अनादि अनन्त प्रात्माको जानते समय गुरग व पर्यायोंका अात्मामें ही अन्तर्धान हो जाता है और वहां गुरग पर्यायके भेदका विकल्प नहीं रहता । (७) गुरण पर्याय के भेद विकल्पसे प्रतीत अन्तस्तत्त्वके जानते समय परिणाम परिणाम परिणतिका भेद विकल्प भी नष्ट हो जाता है । (८) निर्विकल्प अन्तस्तत्त्वका अनुभविता यात्मा निष्क्रिय चिन्मात्रभावको प्राप्त होता है । (६) निष्क्रिय चिन्मात्रभावको प्राप्त आत्माके मोह अन्धकार प्रलयको प्रारत होता है। (१०) अरहतप्रभुको द्रव्य गुण पायरूपसे जानना मोहथिनाशका एक सुगम उपाय है, क्योंकि अरहंतप्रभुका स्वरूप अत्यन्त स्पष्ट है । (११) अरहंत प्रभुका स्वरूप निरखनेपर विषमताविकल्प न होने के कारण सहजज्ञानानन्दस्वरूपका अनुभव सहज बन जाता है । (१२) अरहत भगवानके परिचयके लिये अरहंतके द्रव्य गुण पर्यायका परिचय किया जाता है । (१३) अरहंत प्रभुके परिचयके बाद परमात्माके गुण थे पर्यायोंको परमात्मद्रव्यमें समाविष्ट कर देपर गुण पर्यायके विकल्पसे छूटकर मात्र यात्म द्रव्यका जानना होता है और तब सहज अानन्दका अनुभव होता है । (१४) लोकमें भी हार खरीदते समय हार सफेदी मोती आदिकी परीक्षा की जाती है, किन्तु हारके पहिननेके समय सफेद मोती
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
PANESENESSPREE
प्रवचनसार--सप्तदशाङ्गी टीका अर्थवं प्रातचिन्तामणेरपि मे प्रमादो दस्युरिति जागति---
जीवो वक्गदमोहो उबलद्धो तच्चमपणो सम्म । जहदि जदि रागदोसे मो यापागण नदि सुद्ध ॥८१॥ निर्मोह जीव सम्यक् निज आत्मतत्त्वको जानकर भो ।
यदि राग द्वष तजता, तो पाता शुद्ध आत्माको ॥१॥ जोधो व्यपगतमोह उपलब्धवांस्तत्वमात्मनः सम्यग् । जहाति वाच रागदपो र आल्गालभते शुद्धम् ।।
- एव परिणतस्वरूपेरगोपायेन मोहमसायर्यापि सम्यगात्मतत्वमुपलभ्यापि यदि नाम "रागद्वेषों निर्मूलयति तदा शुद्धमात्मान मनुभवति । यदि पुनः पुनरपि सायनुवर्तते सदा प्रमाद
नामसंज- जीव ववगदमोह उवला तच अप राम्म जादि रागदोश न अष्ण मुद्ध। धातृसंज्ञ---.. जहा त्यागे लभ प्राप्ती । प्रातिपदिक जीव व्यपगतमाह उपलब्ध तत्व अमन सम्यक् यदि रागद्रेण तत् आमत शछ । मलपात--जीब प्राणधारगे, मह वैचित्ये. ओहाय त्यागे, डूलभ पाती। उभयपदविवजीवो जीवदेवगदमोही व्यपगतमोहः-प्रथमा वचन । उवलो
साधपान-प्रथमा एक दन्त प्रादिको हारमें ही समाविष्ट कर उनका ख्याल छोड़कर मात्र हारको जानता है और हार पहिननेके सुख का वेदन करता है । (१५) धास्तविक जिनेन्द्रभक्तिका वास्तविक परिणाम यह है कि मोहका विलय हो जाये। .
सिद्धारत-(१) द्रव्यत्व निरीक्षण में सर्व प्रात्मा समान निरखे जाते हैं । दृष्टि-१- उपाधिनिरपेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकन य (२१) ।
प्रयोगः-प्रभुस्मरणमें प्रभुके पर्यायको गुसा में एवं गरग व पर्यायको एक प्रवाहरूप मात्मध्य में प्रस्तनिहित करके उस चित्स्वरूपस्मरणसे स्वपरविभाग हटाकर माम चित्स्वरूप का अनुभव करना ॥१०॥ ALL मब इस प्रकार चितामणि रत्न प्राप्त कर लिया है जिसने, ऐसा होनेपर भी मेरे प्रमाद चोर विद्यमान है, इस कारण यह जगता है.... व्यपगतमोहः ] जिसने मोहको दूर लिया है और सिम्यक् प्रात्मनः तत्वं] प्रात्माके सम्यक तत्वको [उपलब्धवान] प्राप्त किया है ऐसा [जीवः] जीव [यदि] यदि रागद पौ] राग और द्वेषको जहाति] छोड़ता है [सः] तो यह शुद्ध प्रात्मानं] शुद्ध प्रात्माको [लभते] पाता है ।
तात्पर्य-निर्मोह व प्रात्मतत्त्वका ज्ञाता प्रात्मा यदि रागद्वषसे रहित हो जाता है सो वह परमात्मा होता है।
टीकार्थ-- इस प्रकार वर्णन किया गया है स्वरूप जिसका, ऐसे उपाय द्वारा मोहको
SREE
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४४
सहजानन्द शास्त्रमालायां
तन्नाया लुण्ठितशुद्धात्मतस्योपलम्भचिन्तारत्नोऽन्तस्ताम्यति । अतो मया रागद्वेधनिषधायात्यन्तं जागरितव्यम् ।।८१।। किया । नमसरय-द्वितीया एक० । अप्पणो आत्मन:-पष्ठी एक० सम्म सम्यक अदि यदि-अव्यय । जहदि जहातिलहदि लभते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । गोले रागदंगी-दि० द्विवचन । सो स:-प्रथमा पाक: । अगाशं आत्मानं-द्वितीया एकः । सुद्ध मुद्ध-द्वितीया एक० । निरुक्ति–तस्य भावः तस्वं । समास---मगत: मोहः यस स: ब्यपगत मोहः, रागदच (पदन रागहें पौ तौ ।।८१ दूर करके भी सभ्य का आत्मतत्वको प्राप्त करके भी यदि जीव राग दूधको निर्मूल करता है तो वह शुद्ध लामाका अनुभव करता है । यदि पुनः पुनः भी गपका अनुसरण करता है, तो प्रमादके अधीन होनेसे लुट गया है शुद्धात्मतत्वका अनुभवरूप चितामरिंग रत्न जिसका, ऐसा वह अन्तरंग में खेदको प्राप्त होता है। इस कारण मुझे रागद्वेष को दूर करनेके लिये अत्यन्त जागृत रहना चाहिये ।
प्रसंगविवरण--अनंतरपूर्व गाथामें अर्हत्स्वरूपविज्ञानको मोहालयका उपाय बताया। गया था। अब इस गाथामें बताया गया है कि मोह दूर करके प्रात्मतत्त्वकी प्राप्ति होनेपर भी यदि रागद्वेषको छोड़ा जाता है तो शुद्धात्माका अनुभव होता है ।
तथ्यप्रकाश---- (१) भूतार्थनिधिसे अहत्स्वरूपके परिचयसे सहजात्मस्वरूपका परि चय होता है 1 (२) सहजात्मस्वरूपके परिचयसे मोह दूर हो जाता है । (३) मोह हटनेपर समीचीन अात्मतत्त्वकी उपलब्धि होती है । (४) आत्मतत्त्वको उपलब्धि होने पर भी रागद्वेष का पूर्ण निर्मूलन होनेपर ही परिपूर्ण शुद्ध आत्माका अनुभव होता है। (५) आत्मतत्त्वको उपलब्धि होनेपर भी यदि बार-बार रागद्वेष रूप परिमन किया जाता है तो प्रात्मतत्त्वकी उपलब्धि भी खतम हो जायगी । (६) अात्मतत्त्वको उपलब्धि नष्ट होनेपर अत्यन्त खेदको दशा बर्तने लगेगी। (७) विवेक का कर्तव्य है कि प्रात्मतत्त्वकी उपलब्धि होने पर प्रमाद (राग द्वेष) चोरोंसे सावधान रहे और रागद्वेषको समूल नष्ट करे । (८) सम्यक्त्व प्राप्त करके भी व सराग चारित्र प्राप्त करके मोक्षके साक्षात् साधनभूत वीतराग चारित्र पानेके लिये रागद्वेषका समूल प्रयत्न होना आवश्यक है।
सिद्धान्त---यात्माका शुद्धभाव बर्तनेपर काँका प्रक्षय होता है । दृष्टि-..-१-शुद्धभावनापेक्ष शुद्धद्रव्याथिक नय (२४ ब)।
प्रयोग----रत्नत्रयकी 'उपलब्धि व पूर्णताके लिये अविकार सहजचिस्वभावको उपासना करके रागद्वेषसे छुटकारा पाना ॥१॥
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार- -सप्तदद्याङ्गी टीका
१४५
anant भगवद्भिः स्वयमनुभूयोपदशितो निःश्रेयसस्य पारमार्थिकः पन्था इति
मति व्यवस्थापयति
सव्वे विरहंताण विधागा खविदकम्मंसा । fear aatai व्विादा ते रामो तेसिं ॥ ८२ ॥ सब ही धरत प्रभु, इस विधि कर्माश नष्ट करके हो ।
उपदेश नहीं करके, युक्त हुए हैं नमोस्तु उन्हें ॥ ८२ ॥
चान्तस्तेन विधानेन क्षपितकर्माशाः । कृत्वा तथोपदेशं निर्वृतास्ते नमस्तेभ्यः ॥ ८२ ॥ यतः खल्यातीतकालानुभूत्क्रमप्रवृत्तयः समस्ता अपि भगवन्तस्तीर्थंकरा: प्रकारान्तरस्यासंभवादसंभावित द्वैतेनामुनकेन प्रकारेण क्षपणं कर्माशानां स्वयमनुभूय, परमाप्ततया परे
नामसंज्ञ-सन् वित विधाण खविदकम्मंस तथा उवदेश णिव्वाद त णमो त । धातुसंश- खब क्षयकरणे, का करणे । प्रातिपदिक- सर्व अपि अर्हत् तत् विधान क्षपितकर्मा तथा उपदेश तत् नमः तत् । मूलधातु - सेक्ष्य पुकानिर्देशः, डुकृञ् करणे । उभयपदविवरण -- सव्वे सर्वे अर
अब यही एक भगवन्तोंके द्वारा अनुभव करके प्रगट किया हुआ निःश्रेयसका पारमार्थिक पन्थ है - इस प्रकार मतिको व्यवस्थित करते हैं-- [ सर्वे श्रपि च ] सभी [ अर्हन्तः ] महन्त भगवान [तेन विधानेन ] उसो विधिसे [ क्षपित कर्माशा: ते ] कर्माशों को नष्ट कर चुके वे [ तथा ] उसी प्रकारसे [ उपदेशं कृत्वा ] उपदेश करके [ निर्वृताः ] मोक्षको प्राप्त हुए [ नमः तेभ्यः ] उन सबको नमस्कार होश्रो ।
तात्पर्य - शुद्धोपयोग द्वारा घातिया कर्मो का क्षय कर अरहंत होकर मोक्षमार्गका उपदेश कर निर्वाणको प्राप्त हुए उन सबको नमस्कार है ।
टीकार्थ-- चूंकि प्रतीत कालमें क्रमशः हुए समस्त तीर्थंकर भगवान प्रकारान्तरका संभव होनेसे जिसमें द्वैत संभव नहीं है, ऐसे इसी एक प्रकारसे कर्माशों का क्षय स्वयं होकर परमाप्तता के कारण भविष्यकाल में अथवा इस (वर्तमान) काल में अन्य मुमुक्षुत्रों को भी इसी प्रकारसे कर्मक्षयका उपदेश देकर मोक्षको प्राप्त हुए हैं; इस कारण निर्वारणका अन्य कोई मार्ग नहीं है, यह निश्चित होता है अथवा अधिक प्रलापसे क्या ? मेरी मति व्यवस्थित हो गई है, भगवन्तोंको नमस्कार हो ।
प्रसङ्गविवरण --- अनंतर पूर्व गाथा में बताया गया था कि श्रात्मतत्वकी उपलब्धि होनेपर रागद्वेषको निर्मूल कर देनेसे परिपूर्ण शुद्धात्माका अनुभव होता है । अब इस गाथा में उसी विधानका सभक्ति समर्थन किया गया है |
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
ANE
R
१४६
सहजानंदशास्त्रमालायां
.............
A KAI
पामयाप्यत्यामिदानीत्वे वा मुमुक्षुरणा नथैव तदुपदिश्य निःश्रेयसमाध्याश्रिताः । ततो नान्यद्वत्म निर्वाणस्येत्य वधार्यते । ग्रलमधता प्रलपितेन । व्यवस्थिला मतिर्मम, नमो भगवद्भयः ।।८२॥ हंता अहंन्तः सविदाम्सा क्षपितकाशा: णिव्वादा विला:-प्रखमा बहा लेण तेन विधागेण विधा
न-ततीया एक । नि अपि स च तथा तथा णमो नमः-अध्याय । जबर्दस देश-द्वितीया एका तसि-- षष्ठी बहु । तेभ्यः--चतुर्थी बहुः । निरुक्ति--सर्वणं सर्वः, उपदेशन उपदेशः । समास---किमयां अंशाः कमीशा: अगिता कर्माशा: यैरते क्षपितकर्माशाः ।। ६२ ।।
तथ्यप्रकाश----- (१) काल अनादि अनन्त है और यद्यपि प्रत्येक सिद्ध ग्रात्मा अशुद्धावस्थाको स्यागकर सिद्ध हुए हैं तथापि सिद्ध होनेका प्रादि नहीं है, अतः तीर्थकर अब तक अनन्त हो चुके । (२) मुक्त होनेका उपाय अन्य प्रकार असंभव होनेसे सम्बक्त्वलाभ और रागद्वेषका समूल नष्ट हो जाना ही मुक्तिका उपाय है । (३) सभी तीर्थंकरोंने उक्त विधिसे घालिकर्मका क्षय करके, आप्त सर्वज्ञ होकर अन्य मुमुक्षुबोंको उसी विधिका उपदेश कर प्रधा. तिया कहेका क्षय होनेपर मोक्ष पाया । (४) भविष्य में भी अनन्त तीर्थंकर अात्मतत्वोप. लम्भ व रागद्वेष परिहारकी विधिसे सकलपरमात्मा होकर इसी विधिका उपदेश कर अधाति. कर्म क्षय होते ही मोक्ष जावेंगे। (५) इस समय भी विदेहमें वर्तमान तीर्थकर उक्त विधिसे सकलपरमात्मा होकर विधिका उपदेश देकर अघातिक्षय होनेपर मोक्ष जा रहे हैं। (६) नि. वारणप्राप्तिका मार्ग प्रारमतत्त्वोपलम्भ द रागद्वेषपरिहारके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है।
सिद्धान्त-१-शुद्ध भावके होनेपर कर्मप्रकृतियोंका क्षय होकर कैवल्य प्रकट होता है। दृष्टि-...-१-- शुद्ध भावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याकिनय (२४व)।
प्रयोग... कैवल्यलाभके लिये भूतार्थका प्राश्रय कर सम्यक्त्व पाकर स्वभावदृष्टिको दृढ़तारो रागद्वेषका परिहार होने देना ॥२॥
अब शुद्धात्म लाभके शत्रु मोहके स्वभाव और उसकी भूमिकानों को विभावित करते हैं -[जीवस्य जीवके [द्रव्यादिकेषु मूढः भावः] द्रव्य आदिकोंमें मूढ़ भाव [मोहः इति भवति] मोह है [तेन अयच्छन्नः] उससे आच्छादित हुआ जोव [रागं वा द्वेषं वा प्राप्य] राग अथवा द्वेषको प्राप्त करके [शुभ्यति] क्षुब्ध होता है।
तात्पर्य-द्रव्य गुण पर्यायोंमें यथार्थ ज्ञान व सुध न होनेका परिणाम मोह है। उस मोहसे अाक्रान्त प्राणी रागी द्वेषी होकर दुःखी रहता है ।
___टोकार्थ----धतूरा खाये हुए मनुष्यको तरह पूर्ववर्णित द्रव्य, गुण, पर्यायोंमें होने वाला जीवका तत्त्वकी अप्राप्तिरूप मूढभाव वास्तव में मोह है। उस मोहसे आच्छादित ढक गया है आत्मरूप जिसका, ऐसा यह प्रात्मा परद्रव्यको स्वद्रव्यरूपसे, परगुणको स्वगुणरूपसे, और
AiminimammiummitmmmmmmmmmmmmmHIMAMR
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
H
&ame
प्रवचनसार-सप्तदवाङ्गी टीका
१४७ मय शुखात्मलामपरिपन्थिनो मोहस्य स्वभाव भूमिकाश्च विभावयति--
दव्वादिएम मूढो भावो जीवस्म हवदि मोहो त्ति । खुभदि तेगुच्छपण पप्पा रागं व दोसं वा ॥८३॥ द्रव्यादिक में आत्मा, का सूढ हि भाव मोह कहलाता ।
मोहावत जीव करे, क्षोभ रागद्वेषको पाकर ॥ ३ ॥ Salimseयादिकेषु मूहों भावो जीवस्य भवति मोह इति । अभ्यसि तेनावश्छन्न: प्राय गगं वा गं बा ।। ८३ ।।
यो हि द्रव्यगुणपर्यायः पूर्वमुपणिते पोतोन्मत्तकस्येव जीवस्य तत्त्वाप्रतिपत्तिलक्षणो हो भाकः स खलु मोहः तेनावनात्मरूपः भन्न यमात्मा परद्रव्यमा:मद्रव्यत्वेन परगुणमात्मगुणतया परपर्यायानात्मपर्यायभावेन प्रतिपद्यमानः प्रम दृढतरसंस्कारतया परद्रव्यमेवाहरहरु. गाददानी दग्धेन्द्रियाणां रुचिव शेनाहतेऽपि प्रवर्तितद्तो रुचिताचितेषु विषयेषु रागद्वेषावुपश्लिष्य प्रचुरतराम्भोभाररयाहतः सेतुबन्ध इव द्वेधा विदार्यभारणो नितरां क्षोभमुपैति । अतो मोहरागपभेदास्त्रिभूमिको मोहः ॥८३।।
नामसंश-दवादिय मुढ भाव जीय मोह नित उच्छपण राग वा दोस वा । धातुसंज्ञ-हव मनाया, प. आव प्राप्त । प्रातिपदिक-द्रध्यादिक मुह भाव जीव मोह इति तत् अयच्छन्न राग वा द्वेष "खर । मूलधातु-भू सत्ताया. शुभ संघलने दिवादि, प्र आन व्याप्ती । उभयपदविवरण--दव्यादिएसु हव्यानिकेषु--सप्तमी बहु० । मुटो मुढः भावो भावः मोहो मोहः उच्छाणो अवच्ट्रयः-प्रश्रमा एक । जीवरस जीवस्य-षष्ठी एक० । खेण तेन-सतीया एक हवदि भवति बुगादि क्षुभ्यते-वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन । प्रपा प्राप्य-असमाप्तिकी शिया कृदन्त । राग दोस--द्वि० ए० । निरुक्ति-भवनं भावः, मोहनं मोहा। समास-द्रव्यं आदिक येषां ते द्रव्यादिकाः तेषु द्रव्यादिकेषु ।।१३।।
परपर्यायोंको स्वपर्यायरूप समझकर चले आये दृढ़तर संस्कारके कारण परद्रव्यको ही सदा Mयहा करता हुआ, दग्ध इन्द्रियों को रुचिके वशसे अदतमें भो द्वत प्रवृत्ति करता हुअा, रुचिकर अरुचिकर विषयोंमें रागद्वेष करके अत्यधिक जलसमूहके वेगसे पाहत सेतुबन्ध (पुल) को भौति दो भागोंमें खंडित होता हुअा अत्यन्त क्षोभको प्राप्त होता है । इस कारण मोह, राम और द्वेष-इन भेदोसे मोह तीन भूमिका वाला है ।
प्रसङ्गविवरण– अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि मोहक्षयके उपायको स्वयं करके हुए अरहंत देवोंने इस शुद्धात्मलाभके पारमार्थिक पन्थका उपदेश किया है । अब इस गाथामें शुद्धात्मलाभके निरोधक गोहके परिणामको बिभावित किया गया है।
र तथ्यप्रकाश---(१) अन्तस्तत्त्वकी सुध न होना व परभावोंमें मुग्ध होना मोह है । २) मोही जीव परद्रव्यको स्वद्रव्यरूपसे समझता है । (३) मोही जीव परगुणको स्वगुणरूपसे
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४८
सहजानन्दशास्त्रमाला
अथानिष्टकार्यकारणत्वमभिधाय त्रिभूमिकस्यापि मोहस्य क्षयमासूत्रयति-मोहेण व रागेण व दोसेण व परिणदस्स जीवस्स । जायद विविहो वंधो तम्हा ते संखवइदव्वा ॥ ८४॥ मोह राग द्वेष हि से, परिरणत जीवोंके बन्ध हो जाता । इससे विभावरिका मुमुक्षु निर्मूल नाश करे ॥ ८४ ॥ मोहेन वा रागेण वा द्वेषेण वा परिणतस्य जीवस्य जायते विविधो बन्धस्तस्मात्ते संक्षपतिव्याः ||२४|| एवमस्य तत्त्वाप्रतिपत्तिनिमीलितस्य मोहेन वा रागेण वा द्वेषेण वा परिणतस्य तृणपटलावच्छन्नगर्त संगतस्य करेणुकुट्टनीमा त्रासक्तस्य प्रतिद्विरददर्शनोद्धतप्रविधावितस्य च सिन्धु
नामसंन्त्र मोह व राग व दोस व परिषद जीव विहितं तत संवदन । धातुसंज्ञ-जा प्रादुभवि सं खवक्षयकरणे । प्रातिपदिक मोह वा राग वा द्वेष वा परिणत जीव विदिवचत्य तत् तत् संक्षसमझता । ( ४ ) पोही जीव परपर्यायोंको स्वर्यायरूपसे समझता है । ( ५ ) मोही जीव इन्द्रियोंको रुचिके वश होकर अच्छे बुरे न होकर भी ज्ञेय पदार्थोंके इष्ट और श्रनिष्ट ऐसे दो भाग कर डालता है । (६) मोही जीव इष्ट ( रुचित) विषयोंमें राग करके व अनिष्ट (प्ररुचित) विषयोंमें द्वेष करके अत्यन्त क्षुब्ध व्याकुल रहता है । (७) परभावविमूढ़ता ( मोह) की तीन भूमिकायें हैं--- मोह, राग व द्वेष । (८) मोहको तीनों भूमिकायें मूलतः विनष्ट होनेपर हो कैवल्यका लाभ होता है ।
सिद्धान्त - ( १ ) मोहनीय कर्मविपाक के सान्निध्य में जीव विकाररूप परिणमता है । दृष्टि - १ - उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय ( २४ ) |
प्रयोग - कैवल्यलाभके लिये केवल ज्ञानमात्र अन्तस्तस्वकी माराधना करके विकारसे हटकर स्वभाव में मग्न होना ॥५३॥
अब तीनों प्रकारके मोहकी अनिष्टकार्यकारणता कहकर तीनों ही भूमिका वाले मोह का क्षय सूत्र द्वारा कहते है-- [ मोहेन वा ] मोहरूपसे [ रागेल वा ] रागरूपसे [द्वषेण वा ]
थवा द्वेषरूप से [ परिणतस्य जीवस्य ] परिणमित जोवके [ विविधः बंध: ] नाना प्रकारका बंध [जायते] होता है; [तस्मात् ] इस कारण [ते] वे अर्थात् मोह, राग, द्वेष [ संक्षपति] सम्पूर्णतया क्षय करने योग्य हैं ।
तात्पर्य --बन्धनके बीज मोह राग द्वेष ही हैं, अतः इन तीनोंको निर्मूल नष्ट करना
चाहिये ।
टोकार्थ - इस प्रकार वस्तुस्वरूप के अज्ञान से रुके हुये, मोहरूप, रागरूप या द्वेषरूप
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
रस्येव भवति नाम नानाविधो बन्धः । ततोऽमी अनिष्टकार्यकारियो मुमुक्षुणा मोहरागद्वेषा: सम्यक षित्वा क्षपणीयाः ॥ ८४ ॥
पतित्व | सुलधातु-जनी प्रादुर्भाव दिवादि, सं क्षं क्षये कृतात्वस्य गुका निर्देशे क्षपि । उभयपद विवरणमोहेण मोहेन रागेण रागेन दोमेण द्वेषेण तृतीया एक परिणदस्त परिणतस्य जीवस्य जीवस्य पष्ठी एक० । जायदि जायते वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन । विविहो विविधः बंधो बन्धः - प्रथमा एक० । तम्हा तस्मात् पंचमी एकवचन । ते प्र० हु० । खइदव्या संक्षपयितव्याः प्रथमा बहु० कृदन्त किया । निरु (वित — मोहन मोहः, रंजनं रामः: द्वेषणं द्वेषः, जीवतीति जीवः बन्धनं बन्धः ॥
८४ ॥
१४६
परिमित होते हुए इस जीवको घास के ढेरसे ढके हुए खड्ड को प्राप्त
होने वाले, हथिनीरूपी haritra area और विरोधी हाथीको देखकर उत्तेजित होकर उनकी ओर दौड़ते हुए हाथीकी भांति afar प्रकारका बंध होता है; इसलिये मुमुक्षु जीवको अनिष्ट कार्य करने वाले ये मोह, राग और द्वेष यथावत् निर्मूल नष्ट हों, इस प्रकार कसकर नष्ट किये जाने चाहिये | प्रसंगविवरण - अनन्तरपूर्व गाथा में मोहको तीन भूमिका कही गई थीं। अब इस में उन तीनों भूमिकाटोंको नष्ट करनेका कर्तव्य बताया गया है ।
तथ्यप्रकाश - ( १ ) वस्तुस्वरूपके ज्ञानसे रहित जीव मोह राग व द्वेषरूप से परिपत होकर विविध बन्नोसे बद्ध हो जाता है । (२) उदाहरणार्थ- बनहस्ती तृणाच्छादित गड्ढे के ज्ञानसे (मोहसे), झूठी हथिनी मात्रस्पर्शके रागसे व विषय भोगने के लिये सामने से दौड़कर पाने वाले दूसरे हाथी के द्वेषसे गड्ढे में गिरकर बन्धनको प्राप्त होता है । (३) मोह राग व द्वेष श्रात्माका अहित व अनिष्ट करने वाले हैं । ( ४ ) कल्याणार्थी पुरुषका मोह राग द्वेषको मूलतः पूर्ण नष्ट कर देनेका ग्रावश्यक कर्तव्य है । सिद्धान्त --- (१) वस्तुतः मोही जीव अपने विकारभावोंसे बंधकर क्लेश पाता है। (२) जीवके मोहादि भावका संपर्क पाकर कार्मावर्गणायें स्वयं कर्मरूप परिणत हो जाती है । (३) जीव बद्ध कर्मोंसे बँधा है ।
दृष्टि--- १ - प्रशुद्ध निश्चयनय (४७) २ उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय (५३), निमित्तदृष्टि (५३) । ३- संश्लिष्ट विजात्युपचरित प्रसद्भूत व्यवहार (१२५) ।
प्रयोग -- संसारचक्र से छूटनेके लिये स्वभावदृष्टिके बलसे मोह राग द्वेष भाव से
हटना ।। ८४ ।
अब ये राग द्वेष मोह-इन चिह्नोंके द्वारा पहिचानकर उत्पन्न होते ही नष्ट कर दिये जाने चाहियें, यह प्रगट करते हैं --- [श्रर्थे श्रययाग्रह] पदार्थका विपरीत स्वरूप में [च] और [तिर्यमनुजे करुणाभावः ] तिथंच मनुष्यों में करुणाभाव [ विषयेषु प्रसंग: च ] तथा
:
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५०
सहजानन्दशास्त्रमालायां
प्रथम मीलिङ्गैरुपलभ्योद्भवन्त एव निशुम्भनीया इति विभावयति - धागणं करुणाभावो य तिरियमगुएसु । विसएस यप्पसंगो मोहस्सेदाणि लिंगाणि ॥ ८५ ॥ अर्थविरुद्ध प्रतीती, करुरणाभाव तिर्यंच मनुजोंमें ।
विषयोंका संगम ये मोह विकारके चिह्न कहे ॥८५॥
अर्थे अयथाग्रहणं करुणाभावश्च तिर्यङ मनुजेषु । विषयेषु च प्रसङ्गो मोहस्यैतानि लिङ्गानि ।। ८५ ।। प्रर्थानामयथातथ्यप्रतिपत्त्या तिर्यग्मनुष्येषु प्रेक्षार्हेष्वपि कारुण्यबुद्धया च मोहमभीष्टविषयप्रसंगेन रागमनभीष्टविषयाप्रीत्या द्वेषमिति त्रिभिलिङ्गैरधिगम्य भगिति संभवन्नपि त्रिभूमिकोsपि मोहो निहन्तव्यः ॥ ८५ ।।
नामसंज्ञ - अट्ठ अजधागहण करुणाभाव य तिरियमय विसय य पसंग मोह एत लिंग । धातुसंज्ञग्रहणे । प्रातिपदिक-अर्थ अयथाग्रहण करुणाभाव च तिर्यङ ममुज विषय च प्रसङ्ग मोह एतत् लिंग । मूलधातु ग्रह उपादाने । उभयपद विवरण- अट्ठ अर्थ - सप्तमी एकवचन । अजधारहणं अथथाग्रहणं करुणाभावो करुणाभावः प्रसंगो प्रसंग:- प्रथमा एक० । तिरियमगुएस तिर्यङ मनुजेषु विसएसु विषयेषु सप्तमी बहु० | मोहस्स मोहस्य षष्ठी एक० । एदाणि एतानि लिंगानि लिङ्गानि प्रथमा बहुवचन । निरुक्ति-अर्थते इति अर्थः, विशेषेण सिन्वन्ति इति विषयाः (पित्र बन्धने) । समास ( न यथा अयथा/ ग्रहणं इति अयथाग्रहणं, तिर्यंचः मनुजाः चेति तिर्यङ, मुनुजाः तेषु तिर्यङ मनुजेषु ।। ८५ ।।
विषयोंकी संगति [ एतानि ] ये सब [ मोहस्य लिंगानि ] मोहके चिह्न हैं ।
तात्पर्य - वस्तुस्वरूपका विपरीत ग्रहण, सम्बन्धियों में करुणाबुद्धि व विषयोंका लगाव ये सब मोहके चिह्न हैं ।
टोकार्थ — पदार्थों की अन्यथारूप प्रतिपत्तिके द्वारा और केवल देखे जाने योग्य होनेपर भीतिर्यंच मनुष्यों में करुणाबुद्धिसे मोहको, इष्ट विषयोंकी श्रासक्तिसे रागको और अनिष्ट विषयोंकी प्रीति से द्वेषको यो तीन लिंगोंके द्वारा पहिचानकर तुरन्त ही उत्पन्न होते ही तीनों प्रकारका मोह नष्ट कर देने योग्य है ।
प्रसंग विवरण - अनन्तरपूर्व गाथामें मोह राग द्वेषका निर्मूलन करनेका कर्तव्य बताया गया था । अब इस गाथामें क्षपणीय उन मोह रागद्वेष भावोके चिह्न बताये गये हैं । तथ्य प्रकाश- - ( १ ) पदार्थों की विपरीत स्वरूप में समझ होना मोहका चिन्ह है । ( २ ) तिर्यंच मनुष्यों में तन्मयता से करुणाभाव जगना मोहका चिन्ह है । ( ३ ) इष्ट विषयोंका प्रसंग करना रागका चिन्ह है । (४) अनिष्ट विषयोंमें अरुचि होना द्वेषका चिन्ह 1 ( ५ ) अपनेअपने चिन्होंसे मोह राग द्वेष विकारको जानकर विकारोंका क्षय करना चाहिये ।
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
न
888
HASHISH
।
या wwwWERIKA
प्रवचनसार--सप्तदशांगी टीका
१५१ अथ मोहक्षपणोपायान्तरमालोचयति--
जिणसत्थादो अछे पञ्चक्खादीहिं बुज्झदो गियमा । खीयदि मोहोवचयो तम्हा सत्थं समधिदब्बं ॥८६॥
जिन शास्त्रोंसे अर्थोंके प्रत्यक्षादि रूप ज्ञाताके ।
मोह नशे इस कारण शास्त्रपाठन नित्य प्रावश्यक ॥५५॥ जिनशास्त्रादर्थात प्रत्यक्षादिभिर्बुध्यमानस्य नियमात् । क्षीयते मोहोपचयः तस्मात् शास्त्रं समध्येतव्यम् ।। । यत्किल द्रव्यगुरणपर्यायस्वभावनाहतो ज्ञानादात्मनस्तथा मानं मोहक्षपणोपायल्वेन प्राक प्रतिपन्नमः । तत् खलूपायान्तरमिदमपेक्षते । इदं हि विहितप्रथम भूमिकासक्रमणस्य सार्वज्ञोषज्ञलया सर्वतोऽप्यबाधितं शाब्दं प्रमाणमाक्रम्य काइतस्तत्संस्कारस्फुटीकृत नि शिष्टमंवेदनशक्ति. संपदः सहृदयहृदयानंदोभेददायिना प्रत्यक्षेशान्येन बा तवविरोधिना प्रमाण जालेन सत्त्वतः
नामसंज्ञ--जिणसाथ अट्ठ पच्चवलादि बुज्मद णियम मोहावनय त सत्य समविदल्न । धातसं..... ज्म अवगमने, विख क्षये। प्रातिपदिक--जिनशास्त्र अर्थ प्रत्यक्षादि बुध्यमान नियम मोहोपचय तत् शास्त्र समधितव्य । मूलधातु.. बुध अवगमने, दिक्ष आये, अधि इन अध्ययने । उयपदविवरण-जिणसत्थादो
सिद्धान्त----(१) मोह प्रात्माके सम्यक्त्व गुणकी विकृत दशा हैं । (२) राग द्वेष मात्माक चारित्रगुणकी विकृत दशा है ।
दृष्टि---१, २- विभावगणच्यजनपर्यायदृष्टि (१२३) ।
प्रयोग---अपने में मोह राग द्वेषोंके चिन्होंसे मोह राग एको परख परखकर निज सहाज चित्स्वभावकी दृष्टि के लिये पौरुष करके मोह रागद्वेषका क्षय करना ।। ८५ ।।
अब मोहक्षयका दूसरा उपाय विचारते हैं----[जिनशास्त्रात्] जिनशास्त्रसे [प्रत्यक्षादिभिः प्रत्यक्षादि प्रमाणों द्वारा [अर्थान] पदार्थोंको [बुध्यमानस्य] जानने वालेके [नियमात] नियमसे. मोहोपचयः] मोहसमूह [क्षीयते क्षय हो जाता है [तस्मात् ] इसलिये शास्त्र] शास्त्र [समध्येतव्यम्] सम्यक् प्रकारसे अध्ययन किया जाना चाहिये ।
तात्पर्य----जिनागमसे प्रत्यक्षादि प्रमाणों द्वारा वस्तुस्वरूपका सही ज्ञान करना भोहक्षयका उपाय है।
टोकार्थ-द्रव्य-गुण-पर्याय स्वभावसे अरहतके ज्ञान द्वारा प्रात्माका उस प्रकारका ज्ञान मोहक्षयके उपाय के रूपसे पहले प्रतिपादित किया गया था, वह वास्तव में इस उपायान्तर की अपेक्षा रखता है--
प्रथम भूमिकामें गमन किया है जिसने, ऐसे तथा सर्वज्ञप्रणीत होनेसे सर्व प्रकारसे
EVAN
m
mome
m
aintaanemamaniasiskulikanpuppinitionshionairealndiansanine
ASS
S
RUM
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५२
समस्तमपि वस्तुजातं परिन्दितः क्षीयत एवातस्वाभिनिवेश संस्कारकारी मोहोपचयः । श्रतो हि मोहक्षपणे परमं शब्दब्रह्मोपासनं भावज्ञानावष्टम्भदृढीकृतपरिणामेन सम्यगधीयमानमुपाया
न्तरम् ॥ ८६ ॥
जिनशास्त्रात्-पंचभी एक अहं अर्थान् द्वितीया बहु० । पञ्चवादीहि प्रत्यक्षादिभिः तृतीया बहु० । बुज्भदो बुध्यमानस्य-पष्टी एक० । णियमा नियमात् - पंचमी एक खीर्यादि क्षीयते वर्तमान अन्य पुरुष एक क्रिया । मोहवचयो मोहोपचयः प्रथमा एक तह्मा तस्मात् - o साथ शास्त्र-प्रथमा ए० । समाधिदव्त्रं समध्येतव्यम् प्रथमा एक कृदन्त क्रिया । निरुक्ति (आस्यते अनेन इति शास्त्र (शासु अनुशिट) समास - ओहस्य उपचयः मोहोपचयः, जिनस्य शास्त्र) जिनशास्त्रं तस्मात् जिनशास्त्रात् ॥६६॥ अबाधित द्रव्य श्रुतप्रमाणको प्राप्त करके ज्ञानलीला करते हुए व उसके संस्कारसे प्रकट हुई है विशिष्ट संवेदन शक्तिरूप सम्पदा जिसके तथा सहृदय जनोंके हृदयको आनन्दका उद्भेद देने वाले प्रत्यक्ष प्रमाणसे ग्रथवा उससे अविरुद्ध अन्य प्रमाणसमूहसे तत्त्वतः समस्त वस्तुमात्रको जानने वाले जीवके विपरीताशयका संस्कार करने वाला मोहसमूह अवश्य ही नष्ट हो जाता है । इसलिये मोहका क्षय करनेमें, शब्दब्रह्मकी परम उपासना करना, भावज्ञान के अवलम्बन द्वारा दृढ़ किये गये परिणाम से सभ्यक् प्रकार सभ्यास करना सो उपायान्तर है ।
सहजानन्दशास्त्रमालायां
प्रसंगविवरण 5०वीं गाथा में बताये गये मोहक्षय के उपायके प्रसङ्गमे विविध वर्णन के बाद अनन्तरपूर्व गाथामें नष्ट किये जाने योग्य मोह रागद्वेष चिन्हों को बताया गया था । अब इस गाथामें पूर्वोक्त मोहक्षपणोपायके पूरक अन्य उपायको बताया गया है।
तथ्य प्रकाश---- ( १ ) मोहक्षपरणका पूर्वोक्त उपाय और इस गाथामें कथित उपाय यद्यपि भिन्न-भिन्न मुद्रा में है तो भी यह उपाय पूर्वोक्त उपायका पूरक है । (२) जो पहिली after है उसको सर्वप्रथम श्रागमका अभ्यास करना चाहिये । ( ३ ) आगमाभ्यास से वस्तुस्वरूपका निर्णय करना चाहिये । ( ४ ) आगमाभ्यास से जाने गये वस्तुस्वरूपको युक्ति, स्वसंवेदन प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे दृढ़ अवधारित करना चाहिये । (५) एकत्वविभक्त वस्तुस्वरूप के परिच्छेद के प्रसंग में सहजात्मस्वरूपका परिग्रहण करने वाले भव्यात्मा के मोहका प्रक्षय हो जाता है । (६) भावज्ञान दृढ़ हो, ऐसी पद्धतिसे शास्त्रका अध्ययन करना मोहक्षपणका दूसरा उपाय है । ( ७ ) भावभासना सहित शास्त्राध्ययन से वस्तुस्वरूप स्पष्ट जाननेपर त प्रभुको द्रव्य गुण पर्यायरूपसे जान लेना सुगम होता है ।
सिद्धान्त - १- शास्त्राध्ययन से भावभासनासहित आत्मज्ञान पाकर उसके प्रभिमुख होनेके पौरुष से निर्मोह श्रात्मतत्वका लाभ होता है । दृष्टि - १ - पुरुषकारनय [१८३] ।
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
Sants
METAILASSICALARY
।
B
orgaonline
।
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका अम कर्य जैनेन्द्र शब्दबहारिण किलार्थानां व्यवस्थितिरिति बितर्कयति
दव्याणि गुणा तेसिं पजाया असण्ाया भणिया। तेसु गुणपज्जयाणं अप्पा दव्य ति उवदेसो ॥ ८७ ॥
द्रव्य गुरण तथा उनकी, पर्याय अर्थनामसे संजित :
__ उन गुरए पर्यायोंकी आत्माको द्रव्य बतलाया ॥८॥ रव्याणि गुणास्तेषां पर्याया अर्थसंजया भणिताः । तेषु गुणपर्यायाणामात्मा द्रव्यमित्युपदेशः ।। ८७ ।।
द्रव्याणि च गुणाश्च पर्यायाश्च अभिधेयभेदेऽप्यभिधानाभेदेन अर्थाः तत्र गुपपर्यायानियति गणपर्यापरयन्त इति वा अर्था द्रव्याणि, द्रवप्राण्याश्रयत्वेने यतिद्रव्यराश्रयभूतैरर्यन्त इति वा या गुणाः, द्रव्याणि क्रमपरिणामेनेयति द्रव्यः क्रमपरिणामेनार्यन्त इति वा अर्थाः पर्यायाः ।
नरमसंश-दव गुण त पज्जाथ असण्णय भणिय त गुणपज्जय अप्प दम्ब ति उबदेल । धातसंज्ञ... गती, परि इण् गतो, भण कथने। प्रातिपदिक-द्रव्य गुण तत् पर्याय अर्थसंज्ञा भणित तत् गुणपर्याय भारमन् द्रव्य इति उपदेश । उभयपदविवरण--. दव्याणि द्रव्याणि गुणा गुणाः पज्जाया पर्याया:--प्रथमा मनुवचन । असण्णया अर्थसंज्ञया-तृ० एन० ! भणिया भगिता:-प्रथमा बहु० वृदन्त क्रिया । सेसु तेषु
प्रयोग----निर्मोह आत्मतत्त्वको उपलब्धिके लिये अपनेपर उपदेशको घटित करते हुए मानका अध्ययन करना ।। ६६ ।।
अब जिनागम में वस्तुत: अर्थोकी व्यवस्था किस प्रकार है, यह सतर्क विचार करते है. प्रिव्यागि] द्रव्य [गुणाः] गुण [तेषां पर्यायाः] और उनकी पर्याय [अर्थसंजया] 'प्रार्थ' मामसे [भरिणताः] कही गई हैं ! [तेषु] उनमें [गुरणपर्यायानाम् प्रात्मा द्रव्यम्] गुण-पर्यायों का पारमा द्रव्य है [इति उपदेशः] इस प्रकार जिनागममें उपदेश है ।।
तात्पर्य-द्रव्य, गुण व पर्याय ये अर्थ नामसे कहे जाते हैं, उनमें द्रव्य गुण पर्यायमय
. टोकार्थ--द्रव्य, गुण और पर्याय अभिधेयभेद होनेपर भी अभियानका अभेद होनेसे में अर्थ हैं। उनमें जो गुरणोंको और पर्यायोंको प्राप्त करते हैं अथवा जो गुणों और पर्यायोंके हात प्राप्त किये जाते हैं, ऐसे वे 'अर्थ' द्रव्य हैं, जो द्रव्योंको आश्रयके रूपसे प्राप्त करते हैं भपया जो आश्रयभूत द्रव्योंके द्वारा प्राप्त किये जाते हैं, ऐसे वे 'अर्थ' गुण हैं, जो द्रव्योंको कमपरिणामसे प्राप्त करते हैं अथवा जो द्रव्योंके द्वारा कमपरिणामसे प्राप्त किये जाते हैं ऐसे वे 'अर्थ पर्याय हैं । बास्तवमें जैसे सुवर्ण, पीलापन इत्यादि गुणोंको और कुण्डल इत्यादि मायोको प्राप्त करता है अथवा सुवर्ण उनके द्वारा प्राप्त किया जाता है, इसमें वह सुवर्ण
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५४
सहजानन्दशास्त्रमालायां
यथा हि सुवर्ण पीततादीन गुणान् कुण्डलादीश्च पर्यायानिति तैरर्यमाणं वा अर्थो द्रव्यस्थानीयं, यथा च सूवर्णमाश्रयत्वेनेयतितेनाश्रयभूतेनार्यमारणा वा अर्थाः पीततादयो गणाः यथा च सुवर्ण क्रमपरिणामेनेति तेन क्रमपरिणामेनार्यमारणा वा अर्थाः कुण्डलादयः पर्यायाः । एवमन्यत्रापि । यथा चैतेषु सुवर्णपीततादिगणकुण्डलादिपर्यायेषु पीततादिगुण कुण्डलादिपर्यायाणां सुवर्णादपृथग्भावात्सुवर्णमेवात्मा तथा च तेषु द्रव्यगुणपर्यायेषु गुणपर्यायाणां द्रव्यादपृथग्भावाद्रव्यमेवात्मा ॥७॥ सप्तमी बहु० । गुणपज्जयाण गुणपर्यायाणां-षष्ठी बहु० । अप्पा आत्मा दव्व दव्वं उवदेसो उपदेश:-प्रथमा एक० । निरुक्ति---गण्यते ऐभिः ते गणा:, परियति (गच्छति) इति पर्यायाः। समास -(अर्थस्य संज्ञा अर्थसंज्ञा तया अ०, गुणाश्च पर्यायाश्चेति गुणपर्यायास्तेषा) गुणपर्यायाणां ।। ८७ ॥ द्रव्यस्थानीय 'अर्थ' है । जैसे पीलापन इत्यादि गुण सुवर्णको प्राश्रयके रूप में प्राप्त करते हैं अथवा वे प्राश्रयभूत सुवर्णके द्वारा प्राप्त किये जाते हैं इसलिये पीलापन इत्यादि गुरण 'अर्थ' हैं; और जैसे कुण्डल इत्यादि पर्यायें सुवर्णको क्रमपरिणामसे प्राप्त करती हैं अथवा वे सुवर्ण के द्वारा क्रमपरिणामसे प्राप्त की जाती हैं, इसलिये कुण्डल इत्यादि पर्याय 'अर्थ' हैं; इसी प्रकार अन्यत्र भी है । और जैसे इन सुवर्ण, पीलापन इत्यादि गुण और कुण्डलादि पर्यायोंमें पीलापन इत्यादि गुणोंका और कुण्डल इत्यादि पर्यायोंका सुवर्णसे अपृथक्त्व होनेका उनका सुवर्ण हो अात्मा है उसी प्रकार उन द्रव्य गुण पर्यायोंमें गुण-पर्यायोंका द्रव्यसे अपृथक्त्व होने से उनका द्रव्य ही प्रात्मा है ।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें शास्त्राध्ययनको मोहक्षयका दूसरा उपाय बताया गया था। अब इस गाथामें बताया गया है कि शास्त्रों में पदार्थोकी व्यवस्था किस प्रकार है ?
तथ्यप्रकाश---(१) द्रव्य, गुण व पर्याय अर्थ कहलाते हैं । (२) अर्यते निश्चीयते इति अर्थः, इस निरुक्तिके अनुसार चूंकि द्रव्य, गुण, पर्याय जाने जाते हैं इस कारण वे अर्थ कहलाते हैं । ( ३ ) द्रव्य गुण पर्यायको अर्थ कहनेपर भी सत् द्रव्य ही हैं, गुण पर्याय उस सद्भूत द्रव्यकी विशेषतायें हैं। (४) गुण व पर्याय ही सीधे नहीं जाने जाते, किन्तु गुण व पर्यायरूपसे द्रव्यके ज्ञात होनेपर गुणका व पर्यायका जानना कहा जाता है । (५) ऋ गती धातुका अर्थ प्राप्ति भी है । 'अर्यते प्राप्यते इति अर्थः' इस निरुक्तिसे जो प्राप्त किया जाय वह अर्थ है, तब (६) जो गुण पर्यायोंको प्राप्त करे वह अर्थ द्रव्य है । (७) प्राश्रयभूत अर्थोके द्वारा जो प्राप्त किया जाय वह अर्थ गरण है । (८) क्रमपरिणामसे द्रव्यके द्वारा जो प्राप्त किया जाय वह पर्याय है । (६) गुण व पर्यायोंका सर्वस्व द्रव्य ही है, क्योंकि गुरण व पर्याय द्रव्यसे पृथक् नहीं हैं। (१०) प्रत्येक द्रव्य अपने गुण पर्यायसे तन्मय है, अन्य अथवा अन्य
तिल
mins
eSideo
MANISE
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार --- सप्तदशाङ्गी टीका
१५५.
श्रथैवं मोक्षपरणोपाय भूत जिनेश्वरोपदेशलाभेऽपि पुरुषकारोऽर्थक्रियाकारीति पौरुषं
व्यापारयति -
जो मोहरागोसे यदि उपलब्भ जोहमुवदेसं । सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेा ॥८॥
जैन उपदेश पाकर, हरता जो मोह राग द्वेषोंको ।
वह अल्पकाल में ही सब दुखसे मुक्ति पाता है ॥८८॥
यो मोहरागद्वेपान्निहन्ति उपलभ्य जैनमुपदेशम्। स सर्वदुःखमोक्षं प्राप्नोत्यचिरेण कालेन ॥ ८८ ॥ इह हि द्राघीयसि सदाजवजवपथे कथमप्यमुं समुपलभ्यापि जनेश्वरं निशिततरवारिधारापथ स्थानीयमुपदेशं य एव मोहरागद्वेषाणामुपरि दृढतरं निपातयति स एव निखिल दुःख
नामसंज्ञज मोहरागदास जोह उपदेस सम्वदुक्तमोक्ख अचिर काल । धातुसंज्ञणि हण हिंसायां प आव प्राप्ती । प्रातिपदिकयत् मोहरागद्वेष जैन उपदेश तत् सर्वदुःखमोश अविर काल । मूलधातु-नि हन हिंसागत्योः डुलभष् प्राप्तौ प्र आलू व्याप्ती । उभयपदविवरण जो यः - प्र० एक० । मोहरागदोसे मोहरागद्वेषान् द्वि० ० । हिदि निहन्ति-वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । उपलब्ध द्रव्यके गुण पर्याय अत्यन्त जुदा है । ( ११ ) द्रव्योंका यथार्थस्वरूप ज्ञान होनेपर मोहका क्षय हो जाता है । (१२) यथार्थ वस्तुस्वरूप जिनशास्त्रों में है, ग्रतः जिनशास्त्रका अध्ययन मुमुक्षुका कर्तव्य है ।
सिद्धान्त -- ( १ ) प्रत्येक द्रव्य अपने ही स्वरूपसे है । (२) प्रत्येक द्रव्य परद्रव्यके रूप से नहीं ही है ।
दृष्टि - १ - स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यायिकनय [ २८ ] । २ परद्रव्यादिग्राहक द्रव्याविनय [२६] |
प्रयोग सर्व द्रव्योंको स्वतंत्र स्वतंत्र सत् जानकर समस्त ग्रन्य द्रव्योंसे विविक्त ग्रात्मतत्वकी भावना करना ॥८७॥
इस प्रकार मोहक्षय करनेके उपायभूत जिनेश्वर के उपदेशकी प्राप्ति होनेपर भी पुरुषार्थ प्रक्रियाकारी है, इसलिये व पुरुषार्थको व्यापरते हैं- [यः ] जो [जैनं उपदेशं ] जिनोपज्ञ (उपदेशको [ उपलभ्य ] प्राप्त करके [ मोहरागद्वेषान्] मोह-राग-द्वेषको [ निर्हति ] नष्ट करता है [ सः ] वह [ अनिरेण कालेन ] अन्य काल में [ सर्वदुःखमोक्षं प्राप्नोति ] सर्व दुःखोंसे छुट कारा पा लेता है।
तात्पर्य - जो जिनोपदेश पाकर मोह रागद्वेषको नष्ट करता है वह अल्प कालमें मोक्ष प्राप्त करता है ।
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५६
सहजानन्दशास्त्रमालायां परिमोक्षं क्षिप्रमेवाप्नोति, नापरो व्यापारः करवालपारिगरिव । अत एव सर्वारम्भे मोहक्षप. पाय पुरुषकारे निषोदामि ॥८॥ उपलभ्य-असमाप्तिकी त्रिया । जोगहं जैन उपदेसं उदेश-वि० एक० । सो स:--प्र० एक० । राध्यदुक्खमोक्वं सर्वदःखमोक्ष-द्वितीया एक० । पादि प्राप्नोलि-वर्तमान अन्य पुरुष एकल विया । अधिरेण कालेण । कालेन-तृतीया एका । निरुक्ति---कालनं कालः (कालोपदेशे) । समास----मोहश्च रागश्च द्वेषश्च मोह-। रागद्वेषा: तान मो०, सर्वाणि च तानि दुःखानि चेति सर्वदुःखानि तेभ्यः भोक्षः राबंदुःखमोक्षः तं सर्व०।८।
टोकार्थ-इस अति दीर्घ संसारमार्गमें किसी भी प्रकार से तोपण असिधारा समान जैनेश्वर उपदेशको प्राप्त करके भी जो मोह-राग-द्वपपर अति दृढ़तापूर्वक उसका प्रहार करता है वही शोघ्र ही समस्त दुःखोंसे परिमोक्षको प्राप्त होता है; हाथ में तलवार लिये हुए मनुष्य की भांति अन्य कोई व्यापार समस्त दुःखोंसे परिमुक्त नहीं करता। इसीलिये सम्पूर्ण प्रयत्न पूर्वक मोहका क्षय करने के लिये मैं पुरुषार्थ में लगता हूं।
प्रसंगविवरण---अनन्तरपूर्व गाथामें जैनेन्द्र शाब्दब्रह्म में अर्थोकी व्यवस्था (स्वरूप) बताई गई थी। अब इस गाथामें बताया गया है कि मोहक्षयके उपायभूत जिनेश्वरोपदेशका लाभ होनेपर भी पौरुष (प्रयोग) हो तो कार्यकारी है, अतः तद्विषयक पौरुष करना चाहिये।
तथ्यप्रकाश-~(१) इस जीवका संसारमें अनादिसे उत्पातमय विविध भवधारण। चला पाया है । (२) इस अनादिसंसारमें एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय पर्यायोंको उल्लंघ कर पञ्चेन्द्रिय होना कठिन है । (३) पञ्चेन्द्रियमें भी उत्तम कुल वाला जिनशासन का अनुयायी होना और भी कठिन है। (४) अब किसी प्रकार जिनोपदेशको पाया है तब मोह राग द्वेषपर उपदेशका प्रयोग करके उनका क्षय करनेका पौरुष करना चाहिये । (५) मोह राग द्वेष नष्ट होनेपर ही समस्त दुःखोंसे छुटकारा होता है । (६) जिनोपदेशका लाभ पाया है तब विकारोंसे हटकर स्वभाव में लगना यही मात्र एक व्यापार होना रह जाता है। (७) सर्व प्रयत्नसे अपनेको मोहक्षयके लिये अपने पुरुषार्थमें लगना ही चाहिये ।
सिद्धान्त----१-- प्रात्मपौरुषके प्रसादसे शुद्धात्मत्वका लाभ होता है । दृष्टि---१- पुरुषकारनय [१८३] ।
प्रयोग---सर्व दुःखोंसे छुटकारा पाने के लिये शास्त्राध्ययन कर भावभासना सहित वस्तुस्वरूप जानकर स्वभावदृष्टिके बलसे मोह राग द्वेषका प्रक्षय करना चाहिये ॥८॥
अब स्व-परके विवेककी सिद्धिसे ही मोहका क्षय हो सकता है, इस कारण स्त्र परके विभागकी मिद्धि के लिये प्रयत्न करते हैं--[यः] जो [निश्चयतः] निश्चयसे [ज्ञानात्माकं
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्लवङ्गी टीका
अ स्वरविवेकसिद्ध रेव मोक्षपरणं भवतोति स्वपरविभागसिद्धये प्रयततेयापगमप्पां परं च दव्वत्तणाहिसंबद्ध | जादि जदि यिदी जो मो मोहक्खयं कुगादि ||६||
ज्ञानात्मक आत्माको, परको प्रत्यक् स्वद्रव्यतावर्ती ।
जो निश्चयसे जाने, वह करता मोहका प्रक्षय
मात्मानं परं च द्रव्यत्वेनाभिसंबद्धम् । जानाति यदि नियमोह करोति ॥८॥ य एव स्वकीयेन चैतन्यात्मकेन द्रव्यत्वेनाभिवमात्मानं परं च परकीयन यथोचितेन याद्धमेव निश्चयतः परिच्छित्ति से एवं सम्यगवाप्तस्वपरविवेकः सकलं मोह समयति । श्रतः स्वपरविवेकाय प्रयतोऽस्मि ||
नाममंत्र -- णाणपग अप्प पर दत्त असंबद्ध जदि पिच्छयदो यत् तत् मोह्म्य धातुसंह - आण अवबोधने, कुण करणे । प्रातिपदिकात्मक आमद पर व्यत्व अभिसं यदि निश्चयतः यत् तत् मोक्षय मूलधातु-ज्ञा अवबोधने इत्र करो। उभयपदविवरण- गणप ज्ञा नात्मक अभ्या आत्मानं परं असंबद्ध अभिरावद्ध मोहय मोहयं द्वि० ए० णिच्छ्रयदो निश्चयत:व्यय । जो यः सो सः - प्र० एक० । जागदि जानाति कुर्गादि करोति-वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । निरुक्ति मोहन मोहः । समास- ज्ञानमेव आत्मा यस्य सः ज्ञात्मकः तं झाल ● मोहस्य यः मोक्षयः
Realeli
१५७
] atreenaनेको [च] और [परं] परको [ द्रव्यत्वेन अभिसंबद्धम् ] निज निज द्रव्यत्वसे संबद्ध [यदि जानाति ] यदि जानता है [ सः] तो वह [ मोह क्षयं करोति ] मोहका क्षय करता है।
तात्पर्य- सर्व पदार्थोंका स्वतन्त्र स्वरूप जानने वाला ही मोहका क्षय करता है । टीकार्य जो निश्चयसे अपने को अपने चैतन्यात्मक द्रव्यत्वसे संबद्ध और परको उसी दूसरे यथोचित द्रव्यत्व से संबद्ध ही जानता है, वही जीव, जिसने कि सम्यक् रूपसे स्व-परके विवेकको प्राप्त किया है, सम्पूर्ण मोहका क्षय करता है, इसलिये मैं स्व परके विवेकके लिये प्रयत्नशील हूँ ।
प्रसंगविवरण- प्रनन्तरपूर्व गाथा में विकारभाव के विनाश करनेके लिये पौरुष करने की प्रेरणा दी थी। अब इस गाथामें कहा गया है कि चूंकि स्वपरविवेक सिद्धिसे ही मोहका क्षय होता है अतः स्वपरविभागकी सिद्धिके लिये भव्य प्रयत्न करता है ।
लाभका मूल है । मोहका क्षय करते हैं ।
तथ्यप्रकाश-- - ( १ ) स्वपरविवेक ही उत्कृष्ट पद सम्यक प्रकार से स्वरविवेक प्राप्त किया है वे समस्त
(२) जिन्होंने ( २ ) समस्त
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
S
१५८
सहजानन्दशास्त्रमालाया
EngHROMAARAKSHARADIONAwimmasutrASCHIMSHI
S
ntationmamananews
।
K ARANAenewpPRASADHNATuya pmomsclaimsamwwwmstepwwIGARHMANISATESwwaran,
Expermane
MECE
अथ सर्वथा स्थपरविवेकसिद्धिरागमतो विधातव्येत्युपसंहरति -.
तम्हा जिणमग्गादो गुणेहिं आदं परं च दब्बेसु । अभिगच्छदु गिम्मोहं इन्छदि जदि अप्पणो अप्पा ॥६॥
इससे जिनशासनसे, नियत गुणोंसे स्व पर पदार्थों में ।
___ जानो स्वतंत्रता यदि, अपनी निर्मोहता चाहो ॥ तस्माञ्जिनमागांदगण रात्मानं पर च द्रव्येषु । अभिगच्चतु निमोहमिच्छति बद्यात्मन अात्मा ।। ६० ।।
इह खल्वागमनिगदितेवनन्तेषु गुरणेषु कश्चिद्गुरारन्ययोगध्यवच्छेदकतयासाधारणतामुपादाय विशेषतामुपगतैरनन्तायो द्रव्यसंतती स्वपरविवेक मुपगच्छन्तु मोहाहाणप्रवणबुद्धयो: लब्धवाः । तथाहि-यविदं सदकारातया स्वतः सिद्धमन्तबंहिमुखप्रकाशशालितया स्वपरपरि. च्छेदक मदीयं मम नाम चैतन्यमहमनेन तेन समानजातीयमसमानजातीयं बा द्रव्यमन्यदपहाय
नामसंज..... जिणभमा गण अत्त परं च दब्ध णिम्मोह जदि अप्प | धातसंज्ञ-अभि गहु गतो, इन्छ इच्छाययं । प्रातिपदिक---तम जिनमार्ग गुण आत्मन् पर 'च द्रव्य निहि यदि आत्मन् । मूलधातु'अभि गम्ल गती, इषु इच्छायां । उभयपदविवरण ---तन्हा तस्मात्-पंचमी एक । जिगमग्गादो जिनमा
मोहका क्षय होनेपर केवलज्ञानादि अनन्त चतुष्टयका लाभ होता है, पश्चात् सिद्धावस्थाका लाभ होता है । (४) स्वपरविवेक सम्यग्दृष्टि के होता है। (५) सम्यग्दृष्टि अपने प्रात्माको स्वकीय चैतन्यात्मक द्रव्यत्व से युक्त मानता है। ( ६ ) सम्यग्दृष्टि पर-यात्माको परकीय चतन्यात्मक द्रव्यत्व से युक्त मानता है । (७) सम्पदृष्टि अचेतन पदार्थों को अचैतन्यात्मक उन उनके प्रसाधारण स्वरूपसे युक्त मानता है। (८) स्वपरविवेकबलसे ज्ञात यथार्थ स्वरूपके अवलोकनसे मोहापदा विनष्ट होती ही है । (6) स्वपर विवेक के लिये पौरुष करना श्रेयस्कर है।
सिद्धान्त---(१) स्वपरविवेक द्वारा उपलब्ध शुद्धात्मस्वरूपके अवलोकनसे शुद्धात्मस्वरूपका विकास होता है ।
दृष्टि-१-- ज्ञा प्रयोग..... सकल मोहसंकटविनाशके लिये स्वपरयिवेकका प्रयत्न करना ।।६
अब सब प्रकारसे स्वपरके विवेकको सिद्धि प्रागमसे करने योग्य है, ऐसा उपसंहार करते हैं- [तस्मात् ] इस कारण यदि] यदि [प्रात्मनः] अपना [आत्मा] प्रात्मा [निमोह] निर्मोह भावको [इच्छति] चाहता है तो [जिनमार्गात् ] जिनमार्गसे [गुरगा] गुणों के द्वारा [द्रव्येषु द्रव्यों में [प्रात्मानं परं च] स्वको और परको [अभिगच्छतु] जाने ।
तात्पर्य-यदि अपनेको निर्मोह रखना चाहें तो सवका भिन्न-भिन्न आकान्तरसत्व समझकर स्व व परको भिन्न-भिन्न जानें।
CEBHADRA
zawinn2destinatorywwwwwwwnersympions
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
PM
प्रवचनसार..सप्तदशाङ्गी टीका ममात्मन्येव वर्तमानेनात्मीयमात्मानं राकलनिकालकलितम्रोव्यं न जानामि । एवं पृथक्त्यवृत्तस्वलक्षण व्यमन्यदपहाय तस्मिन्नेव च वर्तमानैः सवालत्रिकालालितनाव्यं द्रध्यमाकाश धर्ममधर्म कालं पुद्गलमात्मान्तरं च निश्चिनोमि । ततो नाहमाकाणं न धमो नाधो न च कालो न पुद्गली नात्मान्तरं च भवति, यतोऽमीये कापवरकप्रबोधितानेक दीपप्रकाणेस्बिर संभुयावस्थितेष्वपि मच्चतन्य स्वरूपादप्रतमेव मां पृथगवगमयति । एवमस्य निश्चित स्वपरवि. वेकस्यात्मनो न खलु विकार कारिणो मोहा रस्ता प्रादुर्भूतिः स्यात् ।। ६० । गीत ॥ ए. । पुरशेहि गुण:-तृतीया । आप आमान पर णम्मान मिाह द्वितीया क । दन्वेसु द्रव्येष-सप्तमी बहु । अध्यण आरमन टी एमः । अप्पा आत्मा--प्र. o | अभिगय अभिगच्छतुआज्ञा अन्य पुरुष एकवचन किया | इच्छद्र अति-वर्तमान अन्य पुरुष एक किया। निवित ... अयरतीति जिनः । समास-जिनस्य मार्ग: जिन मार्गतिमात् जिनमागांत् ।।
टीकार्थ- इस जगत में प्रागम में कथित अनन्तगणों में से किन्हीं गानों के द्वारा-.-..जो पारण अन्य के साथ योगरहित होनेसे असाधारशाता धारण करके विशेषपने को प्राम हुए हैं, ऐसे जिन्हीं गुणों के द्वारा मोहका क्षय करने में प्रखर है बुद्धि जिनकी ऐसे स्वरूपज्ञानी पुरुष अनन्त द्रव्य परम्परामें स्व-परके विवेकको प्राप्त करें। स्पष्टीकरण-- सत् और अकारण होनेसे स्वतः सिद्ध अन्तर्मुख और बहिर्मुख प्रकाश बाला होने से स्व-परका ज्ञायक- ऐसा जो यह मेर साध सम्बन्ध वाला मेरा चैतन्य है तथा जो समानजातीय अथवा असमान जातीय अन्य द्रव्यको छोडकर मेरे प्रात्मामें ही वर्तता है, उसके द्वारा मैं अपने प्रात्माको सकल त्रिकाल में धनत्व या धारक द्रव्य जानता हूं। इस प्रकार अन्य द्रव्यको छोड़कर उसी द्रव्य में वर्तमान पृथक रूपसे रहे स्वलक्षणों द्वारा प्राकाश, धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल और अन्य प्रात्माको सकल विकालमें ध्र बत्वधारक द्रव्य के रूप में निश्चित करता है। इस कारण मैं नाकाज़ नहीं हूं, धर्म नहीं हूं, अधर्म नहीं हूं, काल नहीं हूँ, पुद्गल नहीं हूं और प्रात्मान्तर नहीं हूं; क्योंकि पाक फमरेमें जलाये गये अनेक दोपकोंके प्रकाशको तरह इकट्ठे होकर रहते हुए भी इन द्रव्यों में मेरा चैतन्य निजस्वरूपरो अच्युत ही रहता हुग्रा मुझे पृथक् बताता है । इस प्रकार जिसने स्व-परका विवेक निश्चित किया है ऐसे आत्माके विकारकारी मोहांकुरका प्रादुर्भाव नहीं होता।
: प्रसङ्गविवरण-अनंतरपूर्व गाथामें स्वपरविभागको सिद्धिका प्रयत्न करने की प्रेरणा दी गई थी। अब इस गाथामें अगमसे स्वपरविवेकसिद्धि करने का कर्तव्य बताया है।
: तथ्यप्रकाश---(१) आगममें अनन्त गुरगोंका वर्णन है। (२) अनन्त गुरगों में कई गुग ऐसे हैं जो अन्ययोगका व्यवच्छेदक होनेसे असाधारण हैं 1 (३) असाधारण गुणोंके योग
Diwane
aim
Page
।
BEEEEEES.58
EDERERATERIA
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६०
सहजानंदशास्त्रमालायां
श्रथ जिनोदितार्थश्रद्धानमन्तरेण धर्मलाभो न भवतीति प्रतर्कयतिसत्तासंबद्ध दे सविसेसे जो हि गांव सामणो । सहृदि सो समणो तत्तो धम्मो सतासम्बद्ध सभो, सविशेष हि जो न द्रव्य सरधाने । वह तो श्रमण नहीं है, नहि उनसे धर्मका उद्भव ॥६९॥
सत्तासंवानेतान् सविशेषान् यो हि नैव श्रामध्ये । श्रघाति न ग श्रमणः तव धर्मो न संभवति ॥ ६१ ॥ यो हि नामैतानि सादृश्यास्तित्वेन सामान्यमनुव्रजन्त्यपि स्वरूपास्तित्वेनाश्लिष्टविशे
संभवदि ॥ ६१ ॥
नामसंज्ञ -- सत्तासंबद्ध एत सर्विसेस ज हि ण एवं सामण ण त समण तत्तो धम्मण धातुसंज्ञ सद् दह धारणे, संभव सत्तायां । प्रातिपदिक- सत्तासंवद्ध एतत् सविशेष यत् हि न एव श्रामण्य न तत् से प्रत्येक द्रव्य भिन्न-भिन्न हैं । ( ४ ) असाधारण गुणोंके द्वारा अनन्त द्रव्योंमें स्वपरका विवेक बनता है । ( ५ ) अनन्त द्रव्यों में स्वकीय चैतन्यात्मक द्रव्यत्वसे युक्त आत्मा स्व है, शेष सब यथोचित द्रव्यत्वमे युक्त द्रव्य पर हैं । (६) ज्ञानी जानता है कि मैं ग्रहेतुक स्वतः सिद्ध अन्तर्बहिर्मुख प्रकाशशालो स्वकीय चैतन्यमात्र त्रिकाली ध्रुव हूं । (७) अन्य द्रव्य भी अपने-अपने असाधारण गुणसे तन्मय त्रिकाली ध्रुव हैं । ( ८ ) स्वमें परका प्रत्यन्ताभाव है, परमें स्वका प्रत्यन्ताभाव है । ( ६ ) जिसने स्वपरविवेक पाया है उसके मोहांकुरकी उत्पत्ति नहीं है । (१०) स्वपरविवेक जिनागमके अभ्यास द्वारा यथार्थे वस्तुस्वरूप जाननेसे प्राप्त होता है।
सिद्धान्त - ( १ ) स्वके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे आत्मा के अस्तित्वका परिचय होता है । ( २ ) परके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे श्रात्माका नास्तित्व जाना जाता है । दृष्टि१- अस्तित्वनय [१५४] २- नास्तित्वनय [१५५ ] ।
प्रयोग- श्रागम में उपदिष्ट विधिसे तत्त्वज्ञान करते हुए स्वपरविवेककी सिद्धि
पाना ॥६०॥
अब जिनेन्द्र भाषित अर्थोके श्रद्धान बिना धर्मलाभ नहीं होता, इस तथ्यको तर्कणापूर्वक विचारते हैं -- [ यः हि ] जो [ श्रामण्ये ] श्रमरणावस्था में [ एतान् सत्तासंबद्धान् सविशेषात् ] इन सत्ता संयुक्त सविशेष पदार्थोकी [न एव श्रद्दधाति ] श्रद्धा ही नहीं करता [सः ] वह [ श्रमरण: न ] श्रमण नहीं है; [ततः धर्मः न संभवति ] उससे धर्म संभव नहीं है ।
तात्पर्य - जो मुनि प्रत्येक पदार्थोंको पृथक् पृथक् सत्तामय नहीं मानता वह मुनि नहीं और न वहाँ धर्म सम्भव है ।
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
१६१
वाणि द्रव्याणि स्वपरावच्छेदेनापरिच्छिन्दन्न श्रद्दधानो वा एवमेव श्रामण्येनात्मानं दमयति स खलु न नाम श्रमणः । यतस्ततोऽपरिच्छिन्न रेगुकनककणिकाविशेषाद्ध लिवावकात्कन कलाभ इव तिरुपरागात्मतत्त्वोपलम्भलक्षणो धर्मोपलम्भो न संभूतिमनुभवति ॥ ६१ ॥
श्रमण ततः धर्म न । मूलधातु - श्रद्धा धारणे, सं भू सत्तायां । उभयपदविवरण -- सत्तासंबद्ध सत्तासंब ज्ञान संविसेसे सविशेषान एदे एतान् द्वितीया बहु० 1 जो यः सो सः समणो श्रमणः धम्मो धर्मः प्रथमा एक० | सद्दहदि श्रद्दधाति संभवदि संभवति-वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । तत्तो ततः अव्यय पंचपर्थ निरुक्ति--सतः भावः सत्ता, श्रमणस्य भावः श्रामयं तस्मिन् । समास- सत्तया संबद्धाः सत्तातान् सत्तासंबद्धान् ||६१ ॥
टोकार्थ — जो इन द्रव्योंको जो कि सादृश्य ग्रस्तित्व के द्वारा समानताको धारण करते हुए भी स्वरूपाfeared द्वारा विशेषयुक्त हैं उन्हें स्व-परके भेदपूर्वक न जानता हुआ और श्रद्धा न करता हु यों ही ज्ञानश्रद्धाके बिना मात्र द्रव्यमुनित्वसे प्रात्माका दमन करता है वह वास्तव में श्रमरण नहीं है । इस कारण जैसे जिसे रेती श्रीर स्वर्णकरणोंका अन्तर ज्ञात नहीं है, उसे घूलके घोनेसे उसमेंसे स्वर्ण लाभ नहीं होता, इसी प्रकार उस श्रमाभासमें से निर्वि कार श्रात्मतत्त्वकी उपलब्धि लक्षण वाला घर्मलाभ संभव नहीं होता ।
प्रसंगविवरण- अनंतरपूर्व गाथामें आगमसे स्वपरविवेक सिद्धिका कर्तव्य बताया था। अब इस गाथा में बताया गया है कि केवलित अर्थश्रद्धान के बिना धर्मलाभ नहीं होता है । तथ्यप्रकाश - ( १ ) सादृश्यास्तित्व अर्थात् महासत्ता की दृष्टिसे सर्व द्रव्य समान हैं, प्रविशेष हैं, एक हैं । ( २ ) स्वरूपास्तित्व से द्रव्य अपनी-अपनी विशेषताको लिये हुए हैं । (३) स्वरूपास्तित्वसे ही स्व व परका विवेक बनता है । ( ४ ) जो पुरुष द्रव्योंको यथार्थ स्वपररूपसे नहीं जानता व न ही श्रद्धान करता और यों ही द्रव्यलिङ्गसे अपने श्रात्माको दबाता है वह वास्तव में मुनि नहीं है । (५) स्वपरविवेकसिद्धि हुए बिना द्रव्यमुनि होनेपर भी उसे धर्म उपलब्धि नहीं होती । ( ६ ) निरुपराग श्रात्मतत्त्वकी उपलब्धिको धर्मोपलब्धि कहते
सिद्धान्त - ( १ ) यथार्थं श्रद्धान् ज्ञानसे धर्ममय श्रात्माको उपलब्धि होती है । दृष्टि - १ - ज्ञाननय (१६४) ।
प्रयोग - आगमोक्त पद्धतिसे तत्वश्रद्धान करके सहज निजस्वभावदृष्टि द्वारा अधिकार aar श्रात्माकी उपलब्धि करना ||१||
अब 'उवसंपयामि सम्मं जत्तो गिव्वाण संपत्ती' इस प्रकार पांचवीं गाथामें प्रतिज्ञा करके 'चारितं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो ति विछिट्टो' इस प्रकार ७वीं गाथा में साम्यका
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६२
सहजानन्दशास्त्रमालायां अथ 'उवसंपयामि सम्म जसो णिबाणसंपत्ती' इति प्रतिज्ञाय 'चारित्तं खलु धम्मो : धम्मो जो सो समो ति णिष्ट्रिो' इति साम्यस्य धर्मत्वं निश्चित्य परिणमदि जेण दवं तत्काल तम्मय ति पण्णसे तम्हा धम्मपरिणदो प्रादा धम्मो मुरणेयन्वो' इति यदात्मनो धर्मस्वमासूत्रयितुमुपक्रान्तं, यत्प्रसिद्धये च 'धम्मे परिणदप्पा अम्पा जादि सुद्धसंपनोगजुदो पावदि रिणबाणासुहं' इति निणिसुखसाधनशुद्धोपयोगोऽधिकर्तुमारब्धः, शुभाशुभोपयोगौ च विरोधिनी निध्वस्ती, शुद्धोपयोगस्वरूपं चोपर्वागतं, तत्प्रसादजौ चात्मनो ज्ञानामन्दी सहजो समुद्योतयता संवेदनस्वरूपं सुखस्वरूपं च प्रपञ्चितम् । तदधुना कथं कथमभि शुद्धोपयोगप्रसादेन प्रसाध्य परगनिस्पृहामात्मतृप्त पारमेश्वरोप्रवृत्तिमभ्युपगतः कृतकृत्यतामवाप्य नितान्तमनाकुलो भूत्वा प्रलीन भेदवासनोन्मेषः स्वयं साक्षाद्धर्म एवास्मीत्यवतिष्ठतेधर्मपना निश्चित करके परिणमदि जेण दच्वं तक्कालं तन्मयत्ति पणतं, तम्हा धम्मपरिणदो प्रादा धम्मो मुणेयको' इस प्रकार ८वी गाथामें जो आत्माके धर्मपना कहना प्रारम्भ किया और जिसकी सिद्धि के लिये 'धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपयोगजुदो, पावदि णिवाणसुह' इस प्रकार ११वों गाथामें निर्वाण-सुख के साधनभूत शुद्धोपयोगका अधिकार प्रारम्भ किया विरोधी शुभाशुभ उपयोगको नष्ट किया अर्थात हेय बताया व शुद्धोपयोगका स्वरूप वणित किया तथा शुद्धोपयोगके प्रसादसे उत्पन्न होने वाले प्रात्माके सहज ज्ञान और आनन्दको प्रकाशित करते हुये ज्ञान के स्वरूपका और मुखके स्वरूपका विस्तार किया, उसको अर्थात् प्रा. त्माके धर्मत्वको कैसे कसे ही शुद्धोपयोगके प्रसादसे सिद्ध करके, परमनि:स्पृह आत्मतृप्त पारमेश्वरी प्रवृत्तिको प्राप्त होते हुये, कृतकृत्यताको प्राप्त करके अत्यंत अनाकुल होकर भेदवासना की प्रगटताका प्रलय हुआ है जिसके ऐसे होते हुये प्राचार्य 'मैं स्वयं साक्षात् धर्म ही हूँ' इस प्रकार ठहरते हैं अर्थात ऐसे भावमें स्थिर होते हैं--[यः आगमकुशलः] जो भागममें कुशल हैं, निहतमोहद्दष्टिः] जिसको मोहदृष्टि हत हो गई है, और विरागचरितेअभ्युत्थितः] जो वीतराग चारित्रमें प्रारूढ़ है, [महात्मा श्रमणः] वह महात्मा श्रमण [धर्मः इति विशेषितःा 'धर्म' है इस प्रकार कहा गया है।
तात्पर्य-निर्मोह वीतरागचारित्रमें लगा आगमकुशल मुनिराज धर्मस्वरूप हैं।
टोकार्थ-जो यह आत्मा स्वयं धर्म होता है, सो यह वास्तवमें इष्ट ही है। उसमें विघ्न डालने वाली एकमात्र बहिर्मुख मोहदृष्टि हो है और वह बहिर्मोह दृष्टि आगममें कुशलता से तथा आत्मज्ञानसे नष्ट हुई अब मुझमें पुनः उत्पन्न नहीं होगी। इस कारण वीतराग चारिश्ररूपमें उभरा है अवतार जिसका, ऐसा मेरा यह प्रात्मा स्वयं धर्म होकर समस्त विघ्नोंका
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार---सुप्तदशाङ्गी टीका
जो हिदमोह दिट्ठी श्रागमकुसलो विरागचरियम्हि | दो महप्पा धम्मो ति विसेसिदो समणो ॥६२॥
जो निहतमोहदृष्टी, श्रागमज्ञानी विरागचर्या में ।
१६३
उन्नत महान आत्मा वही श्रमरण धर्ममय माना ॥ ६२ ॥ तिमोहष्टिरागमकुशलो विरागचरिते । अभ्युत्थितो महात्मा धर्म इति विशेषतः श्रमणः ।। ६२ ।। यदयं स्वयमात्मा घर्मो भवति स खलु मनोरथ एव तस्य त्वेका बहिर्मोहदृष्टिरेव रिही । सा चागमकौशलेनात्मज्ञानेन च निहता, नात्र मम पुनर्भावमापत्स्यते । ततो वीतराचारित्रसूत्रितावतारो ममायमात्मा स्वयं धर्मो भूत्वा निरस्त समस्तप्रत्यूहतया नित्यमेव निष्कस्प एवावतिष्ठते । श्रलमतिविस्तरेण । स्वस्ति स्याद्वादमुद्रिताय जैनेन्द्राय शब्दब्रहारणे । स्वस्ति
नामसंज्ञ-ज हिदमोहृदिट्टि आगमकुशल विरागचरिय अहिंद महम्प धम्म त्ति विरोशिद समण | - णि हण हिंसायां अभि उत् ट्ठा गतिनिवृत्तौ । प्रातिपदिकयत् निहतमोहदृष्टि आगमकुशल विरागचरित अभ्युत्थित महारमा धर्म इति विशेषित श्रमण। मूलधातुनि हन हिंसायां अभि उत् ष्टा नाश हो जाने से सदा निष्कंप ही रहता है। अधिक विस्तारसे क्या ? जयवंत वर्तो स्याद्वादमुद्रित जैनेन्द्र शब्दब्रह्म ! जयवंत वर्ती शब्दब्रह्ममूलक श्रात्मतत्त्वोपलब्धिः - कि जिसके प्रसाद से प्रनादि संसारसे बँधी हुई मोहग्रंथि तत्काल ही निकल गई है श्रौर जयवंत वर्तों परमवोत• चारस्वरूप शुद्धोपयोग जिसके प्रसादसे यह ग्रात्मा स्वयमेव धर्म हुआ है ।
आत्मा इत्यादि अर्थ - इस प्रकार शुद्धोपयोगको प्राप्त करके प्रात्मा स्वयं धर्म होता अर्थात् स्वयं धर्मरूप परिणत होता हुआ नित्य श्रानन्दके प्रसारसे सरस ज्ञानतत्वमें लीन होकर अत्यन्त अविचलपनेसे देदीप्यमान ज्योतिर्मय और सहजरूपसे विलसित रत्नदीपकको निष्कंप-प्रकाशमय शोभाको पाता है ।
निश्चित्य इत्यादि, अर्थ - इस प्रकार आत्मारूपी श्राश्रय में रहने वाले ज्ञानतत्वको यथार्थतया निश्चित करके, उसकी सिद्धिके लिये प्रशमके ध्येयसे ज्ञेयतत्त्वको जाननेका इच्छुक (जीव) सर्व पदार्थोंको द्रव्य - गुरण पर्याय सहित जानता है, जिससे कभी मोहांकुरको किचिन्मात्र भी उत्पत्ति नहीं होती |
प्रसंगविवरण --- अनंतर पूर्व गाया में बताया गया था कि जिनोदित अर्थश्रद्धान के बिना नहीं होती । अब इस गाथामें बताया गया है कि शुद्धोपयोगके प्रसादसे साध्यमान यह मैं सात्मा स्वयं साक्षात् धर्म हो हूं ।
तथ्यप्रकाश - ( १ ) यह मैं सहजात्मतत्त्व स्वयं धर्म हूं । (२) धर्मको विघातिका एक
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालाया
सम्मmoovecomindiane
atx29tictun: m emsantalRATOPATSAnanidigipMRISHADAINIKANTIJALA pretextuariuswxixinma.b
A
s
Re
तन्मुलायात्मतत्त्वोपलम्भाय च, यत्प्रसादाग्रन्यितो झगित्थवासंसारबद्धो मोहग्रन्थिः । स्वस्ति च परमवीतरागचारित्रात्मने शुद्धोपयोगाय, बत्प्रसादादयमात्मा स्वयमेव धमों भूत: । प्रात्मा धर्मः स्ययमिति भवन् प्राप्य शुद्धोपयोग नित्यानन्दप्रसरसरसे ज्ञानतत्वे निलीय । प्राप्स्यत्युच्चरविचलतया नि:प्रकम्पप्रकाशा स्फूर्जज्योतिः सहजविलसद्रनदीपस्य लक्ष्मीम् ।।५।। निश्चित्यात्मन्यधिकृतमिति ज्ञानतत्त्वं यथावत् तत्सिद्धयर्थ प्रणमाविषयं ज्ञेयतत्त्वं बुभुत्सुः । सर्वानर्थान कलयति गुरागद्रव्यपर्याययुक्त्या प्रादुर्भतिर्न भवति यथा जातु मोहांकुरस्य ।।६।६२॥
अति प्रवचनसारवृत्तौ तत्त्वदीपिकायां "श्रीमदतचन्द्रमूरि' विरचितायां ज्ञानसत्त्वज्ञापनो' नाम । प्रथमः श्रुतस्कन्धः समाप्त: ।। गति निवृती । उभयपदविवरण--जो य: मिदमोहदिदी निहतमोहष्टि: आगमकुसलो आगमकुशलः अब्भुदिवो अम्युत्थितः महप्पा महात्मा धम्मो धर्मः समणो श्रमणः--प्रथमा एक विरागचरिअम्मि विरागः
न-मातमी एकवचन । बिसेसियो विज्ञपिता-प्रथमा एक० कृदन्त क्रिया । निरुक्ति-श्य अनया सा हरिट प्रियते ज्ञानिभिः इतिः धर्मः । समास-आगमे कुशल: आगमकुशलः, निहता मोहदृष्टि: येन सः नि विरागं च तत् चरितं चेति विपरित तस्मिन् वि० ।। ६२॥ बहिमोह दृष्टि ही है । (३) बहिर्मोहद्दष्टि प्रागमकौशल पात्मज्ञानसे नष्ट हो जाती है । (४) अन्वर स्वभावदृष्टिसे नष्ट हुई बहिमोहदृष्टि पुनः नहीं पा सकती। (५) मोहदृष्टि नष्ट होनेसे योत राग चारित्ररूपमें स्पष्ट प्रकट यह आत्मा स्वयं धर्मरूप है । (६) धर्ममय यह प्रात्मा निरावरण होनेसे नित्य पकम्प रहता है । (७) कल्याणका प्रारम्भक जैनेन्द्र शब्दब्रह्माकी (भागम की) उपासना है। (८) आगमकी उपासनाके प्रसादसे प्रात्मतत्वको उपलब्धि होती है । (8) प्रारमलस्वकी उपलब्धिके प्रसादसे अनादिबद्ध मोहकी गांठ नष्ट होती है। (१०) मोहकी गांठ नष्ट होनेपर परमवीतरागचारित्रात्मक शुद्धोपयोग होता है । (११) शुद्धोपयोगके प्रसाद से यह प्रात्मा स्वयं धर्मरूप प्रकट होता है ।
सिद्धान्त --- (१) स्वभावदृष्टिसे स्वभावका विकास होता है । दृष्टि-१-- स्वभावनय (१७६) ।
प्रयोग—शान्त धर्ममय होने के लिये प्रागमाभ्यास द्वारा प्रात्मतत्त्वकी उपलब्धि करके । प्रस्त्र र स्वभावदृष्टिके बलसे अपनेको अविकार अनुभवना ॥१२॥
इस प्रकार श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यप्रणोत श्रीप्रवचनसारशास्त्र व श्रीमदमृतचंद्राचार्यदेवविरचित 'तत्त्वदीपिका' नामक टोकापर सहजानन्द सप्तदशाङ्गी टीका समाप्त ।।
SHEmmmmmmm
m
ulithaatammam
amboarda
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
SHASANT
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
१६५
२-ज्ञेयतत्त्व-प्रज्ञापन
BREMRAPARIR WRIPRAKRIFFAI
R
S
CHECE
सब मयतत्वप्रज्ञापन, तत्र पदार्थस्य सम्यग्द्रव्यगुरणपर्यायस्वरूपमुपधर्णयति---
अत्थो खलु दब्यमयो दव्वाणि गुणप्यगाणि भणिदाणि । तेहिं पुणो पजाया पजयमूढा हि परसमया ॥६३ ॥
अर्थ द्रव्यमय होता, द्रव्य गुणात्मक व उनसे पर्यायें ।
पर्यायोंके मोही, होते परसमय अज्ञानी ॥६३ ॥ अर्थः खलु द्रव्यमयो द्रव्याणि गुणात्मकानि भगितानि ! तैस्तु पुनः पर्याया: पर्ययमूढा हि परसमयाः ॥१३॥
इह किल यः कश्चन परिच्छिद्यमानः पदार्थः स सर्व एव विस्तारायतसामान्य समुदायासमना द्रव्येणाभिनिर्वृत्तत्वाद्रव्यमयः । द्रव्याणि तु पुनरेकाश्रयविस्तारविशेषात्मकैगुणैरभिनिसवादप्रणात्मकानि । पर्यायास्तु पुन रायतविशेषात्मका उक्तलक्षणव्यैरपि गुणरप्याभिनिवत्तवाददव्यात्मका अपि गुणात्मका अपि । तत्रानेकद्रव्यात्मकंक्यप्रतिपत्तिनिबन्धनो द्रव्यपर्यायः ।
नामसंज्ञ--अस्य खलु दब्बम दच मुणपग भणिद त पुणो पज्जाय पज्जयमुह हि परसमय । धातमग कथने, मुज्झ मोहे । प्रातिपदिक...अर्थ खलु द्रव्यमय द्रव्य गुणात्मक भणित तत् पुनर् पाय
ज्ञेयतत्त्व - प्रज्ञापन - अब ज्ञेयतत्वका प्रज्ञापन प्रारम्भ होता है । वहाँ प्रथम हो पदार्थका यथार्थ द्रव्य गुणयस्वरूप निकटतासे निरखते हैं---[खलु अर्थः] वास्तवमें पदार्थ [द्रव्यमयः] द्रव्यस्वरूप
क्यारिण] द्रव्य [गुणात्मकानि] गुणात्मक [भरिणतानि] कहे गये हैं; [तु पुनः तः मार द्रव्य तथा गुणोंसे [पर्यायाः] पर्याय होती है । [पर्यापमूढाः हि] पर्यायमूढ़ जीव [परसमयाः परसमय अर्थात मिथ्यादृष्टि हैं।
तात्पर्य ---जो पर्यायोंमें मोहित हैं, आत्मबुद्धि करते हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं।
टीकार्थ----वास्तवमें इस विश्व में जो कोई जाननेमें आने वाला पदार्थ है वह समस्त Pा विस्तारसामान्यसमुदायात्मक और आयतसामान्यसमुदायात्मक द्रव्यसे रचित होनेसे द्रव्य .
MSASARASHTRA
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानंदशास्त्रमालायां
Bidheyashaalisa
H
LIKARHamavee INDISORDINTROMOTaperNTRAMMEANIRAMAHAPANC
M ARA
स द्विविधः, समानजातीयोऽसमानजातीयश्च । तत्र समानजातीयो नाम यथा अनेकपुद्गलात्मको द्वयणुकस्यगुक इत्यादि, असमानजातीयो नाम यथा जीवपुद्गलात्मको देवो मनुष्य इत्यादि । गुणद्वारेणायतानैक्यप्रतिपत्तिनिबन्धनो गुणपर्यायः । सोऽपि द्विविधः स्वभावपर्यायो विभावपर्यायश्च । तत्र स्वभावपर्यायो नाम समस्तद्रव्यारणामात्मीयात्मीयागुरुलघुगुणद्वारेण प्रतिसमयसमु. दीयमानषट्स्थानपतितवृद्धिहानिनानात्वानुभूतिः, विभावपर्यायो नाम रूपादीनां ज्ञानादीनां वा स्वपरप्रत्ययवर्तमानपूर्वोत्तरावस्थावतोर्णतारतम्योपदशितस्वभावविशेषानेकत्वापत्तिः । अथेदं दृष्टान्तेन द्रढयति- यथैव हि सर्व एव पटोऽवस्थायिना विस्तारसामान्यसमुदायेनाभिधावताऽऽयतसामान्य समुदायेन चाभिनिर्वय॑मानस्तन्मय एव, तथैव हि सर्व एव पदार्थोऽवस्थायिना विस्तारपर्याय मूढ परसमय। मूलधातु-भण शब्दार्थः, मुह वैचित्ये । उभयपदविवरण-अत्थो अर्थः दव्वमओ
एक०। दव्वाणि द्रव्याणि गुणप्पगाणि गुणात्मकानि पज्जाया पर्याया: पज्जयमुढा पर्यायमूढा: मय है। और द्रव्य एक है प्राश्रय जिनका, ऐसे विस्तारविशेषस्वरूप गुणोंसे रचित होनेसे गुणात्मक है । और पर्यायें-जो कि अायतविशेषस्वरूप हैं वे जिनके-~-लक्षण कहे गये हैं ऐसे द्रव्योंसे तथा गुणोंसे रचित होनेसे द्रव्यात्मक भी हैं, गुणात्मक भी हैं । उसमें अनेक द्रव्यात्मक एकताको प्रतिपत्तिका कारणभूत द्रव्यपर्याय है । वह दो प्रकार है-समानजातीय और असमानजातीय । उनमें समानजातीय वह है-जैसे कि अनेक पुद्गलात्मक द्विअणुक त्रिअणुक इत्यादि। असमानजातीय वह है, जैसे कि जीव पुद्गलात्मक देव, मनुष्य इत्यादि । गुण द्वारा प्रायतकी अनेकताको प्रतिपत्तिका कारणभूत गुणपर्याय है । वह भी दो प्रकार है-स्वभावपर्याय और विभावपर्याय । उनमें समस्त द्रव्योंके अपने-अपने अगुरुलघुगुण द्वारा प्रतिसमय प्रगट होने वाली षट्स्थानपतित हानिवृद्धिरूप नानापनकी अनुभूति स्वभावपर्याय है । रूपादिके या ज्ञानादिके स्व परके कारण प्रवर्तमान पूर्वोत्तर अवस्थामें होने वाले तारतम्यके कारण देखने में पाने वाले स्वभाव विशेषरूप अनेकत्वकी आपत्ति विभावपर्याय है । अब इस कथनको दृष्टान्त से दृढ़ करते हैं--
जैसे सम्पूर्ण पट स्थिर विस्तारसामान्यसमुदायसे और प्रवाहरूप हुये प्रायतसामान्यसमुदायसे रचित होता हुआ तन्मय ही है, इसी प्रकार सम्पूर्ण पदार्थ 'द्रव्य' नामक अवस्थायी विस्तारसामान्यसमुदायसे और दौड़ते हुये प्रायतसामान्यसमुदायसे रचित होता हुआ द्रव्यमय हो है । और जैसे पटमें, अवस्थायी विस्तारसामान्यसमुदाय या प्रवाहरूप प्रायतसामान्यसमुदाय गुणोंसे रचित होता हुआ गुणोंसे पृथक् न पाया जानेसे गुणात्मक ही है, उसी प्रकार पदार्थोंमें, अवस्थायी विस्तारसामान्यसमुदाय या अन्वयरूप प्रायतसामान्यसमुदाय-जिसका नाम
totaantiseedtramatiPEECRETIRESS
instileonionlond
TAGREATREE
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
१६७
सामान्यसमुदायेनाभिधावताऽऽयत सामान्य समुदायेन च द्रव्यनाम्नाभिनिर्वर्त्यमानो द्रव्यमय एव । यथैव च पटेऽवस्थायी विस्तार सामान्य समुदायोऽभिधावन्नायत सामान्यसमुदायो वा गुरभिनि
मानो गुणेभ्यः पृथगनुपलम्भाद्गुणात्मक एवं तथैव च पदार्थेष्ववस्थायी विस्तारसामान्यसमुदायोऽभिधावन्नायत सामान्यसमुदायो वा द्रव्यनामा गुणैरभिनिर्यत्र्य मानो गुणेभ्यः पृथगनुपलम्भाद्गुणात्मक एव । यथैव वानेकपटात्मको द्विपटिका त्रिपटिकेति समानजातीयो द्रव्यपर्यायः तथैव चानेक पुद्गलात्मको द्वयमुकस्यरक इति समानजातीयो द्रव्यपर्यायः । यथैव चानेककीकामपा द्विपटिकापटिकेत्यसमानजातीयो द्रव्यपर्यायः, तथैव चानेकजीवपुदगलामको देवो मनुष्य इत्यसमानजातीयो द्रव्यपर्यायः । यथैव च क्वचित्पटे स्थूलात्गीयागुरुलघुगणद्वारेण कालक्रमप्रवृत्तेन नानाविधेन परिणमनान्नात्वप्रतिपत्तिर्गुणात्मकः स्वभावयः, तथैव च समस्तेष्वपि द्रव्येषु सूक्ष्मात्मीयात्मीय गुरुलघुगुराद्वारेण प्रतिसमयसमुदीयमानपट्स्यानपतितवृद्धिहानिनानात्वानुभूतिः गुणात्मकः स्वभाव पर्यायः । यथैव च पटे रूपादीनां स्वपरप्रत्यपरसमया परमयाः- प्रथमा बहु० । तेहि तैः तृतीया बहु । भणिदाणि भणितानि प्रथमा बहुवचन दन्त किया । खलु पुणो पुनः हि-अव्यय । निरुक्ति-परि वंशि गच्छेति द्रव्यमनु इति पर्यायाः सम् अयते इति 'अन्य' है वह - गुणोंसे रचित होता हुआ गुणोंसे पृथक् न पाया जानेसे गुणात्मक हो है । मोर असे अनेक पदात्मक द्विपटिक, त्रिपटिक यह समानजातीय द्रव्यपर्याय है, उसी प्रकार अनेक पुद्गलात्मक द्विरक, त्रिअस्तुक, ऐसा समानजातीय द्रव्यपर्याय है; और जैसे अनेक रेशमी परसुती पटोंके बने हुए द्विपटिक, त्रिपटिक, ऐसा प्रसमानजातीय द्रव्यपर्याय है उसी प्रकार अनेक जीव पुद्गलात्मक देव, मनुष्य, ऐसी असमानजातीय द्रव्यपर्याय हैं । और जैसे कभी पटमें अपने स्थूल अगुरुलघु गुण द्वारा कालक्रमसे प्रवर्तमान अनेक प्रकाररूपसे परियत
के कारण नानापनकी प्रतिपत्ति गुणात्मक स्वभाव पर्याय है, उसी प्रकार समस्त द्रव्यों में अपने अपने सूक्ष्म अगुरुलघुगुण द्वारा प्रतिसमय प्रगट होने वाली षट्स्थानपतित हानिवृद्धिरूप ताप की अनुभूति गुणात्मक स्वभावपर्याय है; और जैसे पटमें, रूपादिकके स्व-परके कारण वर्तमान पूर्वोत्तर अवस्था में होने वाले तारतम्यके कारण देखने में आने वाले स्वभावविशेषरूप मापत्ति गुणात्मक विभावपर्याय है, उसी प्रकार समस्त द्रव्यों में रूपादिके या ज्ञानादिके स्वपरके कारण प्रवर्तमान पूर्वोत्तर अवस्था में होने वाले तारतम्यके कारण देखने में आने वाले स्वभावविशेषरूप की प्रापत्ति गुणात्मक विभावर्याय है । वास्तव में यह, सर्व पदार्थक पर्यायस्वभावको प्रकाशक पारमेश्वरी व्यवस्था न्याययुक्त है, दूसरी कोई नहीं । क्योंकि बहुत से जीव पर्याय मात्रका ही अवलम्बन करके, तत्त्वकी प्रप्रतिपत्ति लक्षण है जिसका ऐसे मोहको प्राप्त होते हुये परसमय होते हैं ।
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां
१६८
यत्र वर्तमानपूर्वोत्तरावस्थावतीर्णतारतम्योपदर्शितस्वभावविशेषानेकत्वापत्तिगु णात्मको विभावपर्यायः, तथैव व समस्तेष्वपि द्रव्येषु रूपादीनां ज्ञानादीनां वा स्वपरप्रत्ययप्रवर्तमानपूर्वोतरावस्थावतीर्णतारतम्योपदर्शितस्वभावविशेषानेकत्वापत्तिर्गुणात्मकोविभावपर्यायः । इयं हि सर्वपदार्थानां द्रव्यगुणपर्यायस्वभावप्रकाशिका पारमेश्वरी व्यवस्था साधीयसी, न पुनरितरा । यतो हि बहवोऽपि पर्यायभात्रमेवावलम्ब्य तत्त्वाप्रतिपत्तिलक्षणं मोहमुपगच्छन्तः परसमया भवन्ति ॥ २३ ॥
समयः द्रव्येण नित्र सः द्रव्यमयः । समास गुणाः आत्मकाः येषां तानि गुणात्मकानि संययिषु मूढाः पर्यायमूढाः ॥ ६३ ॥
प्रसंगविवरण- प्रारम्भसे श्रनन्तरपूर्व ज्ञेयतरवका प्रज्ञापन किया जा रहा है, जिसमें का स्वरूप कहा गया है ।
तथ्यप्रकाश - ( १ ) जो कुछ जाना गया वह सब अर्थ कहलाता है । ( २ ) अर्थ द्रव्यमय होता है । ( ३ ) द्रव्यविस्तार सामान्य (गुण) और श्रायत ( पर्याय) सामान्यरूप समुदायात्मक है । (३) द्रव्य स्वाश्रित विस्तारविशेषात्मावोंसे अर्थात् गुणोंसे रचा गया होनेसे गुणात्मक हैं । ( ४ ) पर्यायें प्रतिसमय एक एक होकर त्रिकाल होते रहने से प्रायतविशेषात्मक कहलाती हैं । ( ५ ) जो प्रायतविशेषात्मक पर्यायें द्रव्यों द्वारा अर्थात प्रदेशों के प्राकाररूपसे रचित हैं वे द्रव्यव्यञ्जन पर्यायें हैं । ( ६ ) जो प्रायतविशेषात्मक पर्यायें गुणोंसे रचित हैं वे गुराव्यञ्जन पर्यायें हैं । ( ७ ) जो द्रव्यव्यञ्जन पर्याय केवल एक द्रव्यके प्रदेशोंके प्राकारमें है वह स्वभावद्रव्यव्यञ्जनपर्याय है । (८) जो द्रव्यव्यञ्जनपर्याय अनेक बद्ध द्रव्योंके प्रदेशोंके आकारमें है वह या तो समानजातीय द्रव्यव्यञ्जनपर्याय है या असमानजातीय द्रव्यव्यञ्जन पर्याय है । ( ६ ) समानजातिके अनेक द्रव्योंके संश्लेषमें होने वाला आकारपरिणमन समानजातीय द्रव्यaarर्याय है जैसे ये दृश्यमान पुद्गल स्कंध । (१०) श्रसमान जातिके अनेक द्रव्योंके संश्लेष में होने वाला प्राकारपरिणाम प्रसमानजातीय द्रव्यव्यञ्जनपर्याय है, जैसे मनुष्य पशु प्रादि । (११) गुणपर्याय प्रतिसमय अन्य अन्य होता है । (१२) गुणपर्याय दो प्रकारके होते हैं(१) स्वभाव गुण पर्याय, (२) विभाव गुण पर्याय । (१३) स्वभावगुणपर्याय स्वभाव के अनु रूप विकासका नाम है, इसकी अर्थपर्यायसे समानता होने से यहाँ अगुरुलघु गुण द्वारा प्रतिसमय उदित षट्स्थानपतित वृद्धि हानिरूप नानापनकी अनुभूति है, फिर भी विकासकार्य समान है जैसे अदन्त ज्ञान यादि । ( १४ ) विभावगुणपर्याय श्रनुरूपदशावान परपदार्थका
गाथा तक ज्ञानतत्वका प्रज्ञापन किया। अब प्रथम ही समीचीन प्रकारसे द्रव्य गुरण पर्याय
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
SSS
।
।
प्रवचनसार---सप्तदशाङ्गी टीका
१६६ प्रथानुषङ्गिाकोमिमामेव स्वसमयपरसमयध्यवस्था प्रतिष्ठाग्योपसंहरति
जे पन्जयेसु गिरदा जीवा परसमयिग त्ति णिहिट्ठा । थादसहावम्मि ठिदा ते सगसमया मुणेदव्वा ॥४॥
जो पर्यायनिरत हैं, उन जीवोंको परसमय बताया ।
आत्मस्वभावस्थित जो उनको हो स्वकसमय जानो ॥६४|| ये पर्यायेषु निरता जीवाः परसभयिका इति निर्दिष्टाः । आत्मस्वभावे स्थितास्ते स्वकसमया ज्ञातव्याः ।।४।
ये खलु जीवपुद्गलात्मकमसमानजातीयद्रव्यपर्यायं सकलाविद्यानामेक मूलमुपगता यथो. दितात्मस्वभावसंभावनक्लोवास्तस्मिन्नेवासक्तिमुपद्रजन्ति, ते खलूच्छलितनिरर्गलकान्तदृष्टयो मनुष्य एवाहमेष ममवतन्मनुष्यशरीरमित्यहङ्कारममकाराभ्यो विप्रलभ्यमाना अविचलितचेतनाविलासमात्रादात्मव्यवहारात प्रच्युत्य क्रोडोकृतसमस्तक्रियाकुटुम्बकं मनुष्यव्यवहारमाश्रित्य रज्यन्तो द्विषन्तश्च परद्रव्येगा कर्मणा संगतत्वात्परसमया जायन्ते । ये तु पुनरसंकीर्णद्रव्यगुण
नामसंज्ञ- पज्जय णिरद जीव परसमयिंग त्ति णिट्ठि आदसहाव ठिद त परसमय मुगणेदवव । धातुसंज-मुण ज्ञाने । प्रातिपदिक-यत् पर्याय निरत जीव परसमयिक इति निर्दिष्ट आत्मस्वभाव स्थित निमित्त पाकर होनेसे विविध विकाररूप होते हैं जैसे क्रोध, मान, मतिज्ञान आदि । (१५) परमेश्वर अर्हन्तदेवकी दिव्यध्वनिसे प्रकट द्रव्य गुण पर्यायके स्वरूपकी व्यवस्था उक्त प्रकार ही समोचीन है, अन्य कोई व्यवस्था स्वरूपसंगत नहीं। (१६) द्रव्य गुण पर्यायके स्वरूपको सही व्यवस्था जिनको निर्णीत नहीं वे पर्यायमात्रका पालम्बन करके तत्त्वकी अप्रतिपत्तिरूप मोहको अपनाकर मिथ्यादृष्टि रहते हैं । ( १७) द्रव्यगुणपर्यायके स्वरूपकी सही व्यवस्था जिनको निरणीत हो चूकी वे अध्र व पर्यायों में मुग्ध न होकर ध्र व सहज ज्ञानस्वभावमय निज अन्तस्तत्त्वके अभिमुख होकर अपने में अपनेको सम्यक् अवलोकन कर सम्यग्दृष्टि रहते हैं ।
सिद्धान्त----(१) पर्यायको अपना आत्मसर्वस्व मानने वाले जीव परसमय प्रथवा मिथ्याष्टि हैं।
दृष्टि-१-- विजात्यसद्भुत व्यवहार (६८)।
प्रयोग---द्रव्यगुणपर्यायरूपसे पदार्थको यथार्थ जानकर अध्र व व्यतिरेक व भेदसे उपयोगको हटाकर ध्र व अन्वयी अभेद प्रात्मचैतन्यस्वरूपमें प्रात्मत्वको अनुभवना ॥३॥
___ अब आनुषंगिकी इस ही स्वसमय-परसमयकी व्यवस्थाको प्रतिष्ठित करके (उसका) उपसंहार करते हैं--[ये जीवाः] जो जीव [पर्यायेषु निरताः] पर्यायों में लीन हैं [परसमयिकाः इति निर्दिष्टाः] वे परसामयिक कहे गये हैं, [आत्मस्वभावे स्थिताः] और जो जीव
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७०
सहजानंदशास्त्रमालायां
पर्यायसुस्थितं भगवंतमात्मनः स्वभावं सकलविद्यानामेकमूलमुपगम्य यथोदितात्मस्वभावसंभाव नसमर्थतया पर्यायमात्रासक्तिमत्यस्यात्मनः स्वभाव एव स्थितिमासूत्रयन्ति ते खलु सहजबिजू - म्भिताने कान्तदृष्टिप्रक्षपित समस्त कान्त दृष्टिपरिग्र ग्रहा मनुष्यादिमतिषु तद्विग्रहेषु चाविहिताहङ्कारममकार अनेकापवरक संचारित रत्नप्रदीपमिवैकरूपमेवात्मानमुपलभमाना अविचलितचेतनावितत् स्ववसमय ज्ञातव्य । मूलधातु -ज्ञा अथबोधने । उभयपदविवरण जे ये गिरदा निरताः जीवा जीवाः परमयिंग परसमयिकाः ते सगरामया स्वकसमयाः प्रथमा बहु० । पज्जयेसु पर्यायेषु सप्तमी बहु० । जाद
..
आत्मस्वभावमें स्थित हैं [ते] वे [स्वकसमयाः ज्ञातव्याः ] स्वसमय ज्ञातव्य है ।
हैं ।
तात्पर्य - पर्यायोंमें लोन जीव परसमय हैं और आत्मस्वभाव में स्थित जीव स्वसमय
टीकार्थ- वास्तव में जो सकल विद्यायोंकी एक जड़ है जीवपुद्गलात्मक समानजातीय द्रव्यपर्याय, उसका श्राश्रय करते हुए यथोक्त आत्मस्वभावकी संभावना करनेमें 'नपुंसक होनेसे उसीमें प्रासक्तिको धारण करते हैं वे निरर्गल एकान्तदृष्टि उछलती है जिनके ऐसे वे 'यह मैं मनुष्य ही हूं, मेरा ही यह मनुष्य शरीर है' इस प्रकार अहंकार-ममकारसे उगाये जाते हुये, श्रविचलित चेतनाविलासमात्र आत्मव्यवहारसे च्युत होकर, गोदमें ले डाला है समस्त क्रियाकलापको जिसमें, ऐसे मनुष्यव्यवहारका प्राश्रय करके रागी द्वेषी, होते हुए परद्रव्यरूप कर्म के साथ संगतता के कारण वास्तव में परसमय होते हैं । परन्तु जो असंको द्रव्य गुण पर्यायों सुस्थित व सकल विद्यावोंके मूल भगवान श्रात्मा के स्वभावका आश्रय करके यथोक्त ग्रामस्व भावकी संभावना में समर्थ होनेसे पर्यायमात्रकी श्रासक्तिको दूर करके ग्रात्माके स्वभाव में ही स्थिति करते हैं अर्थात् लीन होते हैं निश्चयसे वे जिन्होंने सहज विकसित अनेकान्तदृष्टिसे समस्त एकान्तदृष्टि परिग्रहके आग्रह नष्ट कर दिये हैं, ऐसे मनुष्यादि गतियोंमें और उन शक्तियोंके शरीरोंमें अहंकार-ममकार न करके अनेक कमरोंमें संचारित रत्नदीपककी तरह एकरूप ही श्रात्माको अनुभव करते हुये, अविचलित चेतनाविलासमात्र आत्मव्यवहारको अंगीकार करके, जिसमें समस्त क्रियाकलापसे भेंट की जाती है ऐसे मनुष्यव्यवहारका श्राश्रय नहीं करते हुये, रागद्वेषका प्राकट्य रुक जानेसे परम उदासीनताका प्रालंबन लेते हुये, समस्त परद्रव्योंकी संगति दूर कर देनेसे मात्र स्वद्रव्य के साथ ही संगतता होनेसे वास्तव में स्वसमय होते हैं । इस कारण स्वसमय हो आत्माका तत्व है ।
प्रसंगविवरण -- श्रनन्तरपूर्व गाथामें द्रव्य गुण पर्याय के स्वरूपकी समीचीन व्यवस्था बताई गई थी। अब इस गाथामें उसी प्रसंगसे सम्बन्धित स्वसमय व परसमयको प्रतिष्ठा की
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
१७१ लासमात्रमात्मव्यवहारमुररीकृत्य क्रोडीकृतसमस्तक्रियाकुटुम्बकं मनुष्यव्यवहारमनाश्रयन्तो वि. श्रान्तरागद्वेषोन्मेषतया परममौदासीन्यमवलंबमान! निरस्तसमस्तपरद्रव्यसंगतितया स्वद्रव्येरणव केवलेन संगतत्वात्स्व समया जायन्ते । अतः स्वसमय एवात्मनस्तत्त्वम् ||६४1 सहावम्मि आत्मस्वभावे-सप्तमी एक० । ठिचा स्थिताः णिहिट्ठा निदिष्टाः मुखेदबा ज्ञातव्या:-प्रथमा बहु० कृदन्त क्रिया। निरुक्ति...--नि:शेषण रमन्ते स्म इति निरताः । समास--- आत्मनः स्वभाव: आत्मस्वभावः तस्मिन् आत्मस्वभावे ।।६४||
तथ्यप्रकाश--(१) परके साथ, अस्वभाव भावके साथ अपने प्रात्माका एकत्व मानने वाला अर्थात् पर्यायको हो आत्मसर्वस्व मानने वाला जीव परसमय कहलाता है । (२) पर"समय जीव रागद्वेष मोहसे युक्त होता हुआ पर द्रव्य कर्मके साथ बद्ध हो जाता है । (३) जिसकी गोदमें समस्त क्रियाकुटुम्ब पड़े रहते हैं, ऐसे इस मनुष्यपर्यायमें आत्मव्यवहार करना राग द्वेषका मूल है। (४) मनुष्यपर्यायमें प्रात्मव्यवहार करनेका कारण है ध्र व अचल चेतनात्रि - लासमात्र आत्मव्यवहारसे च्युत हो जाना (अलग हो जाना) । (५) चैतन्यविलासमात्र प्रात्म. व्यवहारसे वे पुरुष च्युत होते हैं जो मनुष्यपर्यायमें ही 'यह मैं हूं, यह मनुष्यशरीर मेरा ही है' इस अहंकार व ममकारसे ठगाये जाते हैं । (६) अहंकार ममकार जैसे विकल्पोंसे वे ही पुरुष ठगाये जाते हैं जो निरर्गल एकान्तदृष्टि रखते हैं । (७) निरर्गल एकान्तदृष्टि उनकी बनती है जो प्रात्मस्वभावका आदर करने में असमर्थ होते हुए जीव पुद्गलात्मक असमान जातीय द्रव्य पर्यायमें, इस मनुष्यप यायमें प्रासक्त रहते हैं । (८) समस्त अज्ञानका मूल मनुष्यादि असमानजातीय द्रव्यपर्यायका लगाव है । (१) जो आत्मा पर द्रव्यकी संगति तजकर केवल स्वद्रव्यसे ही युक्त होते हैं वे प्रात्मा स्वसमय हैं। (१०) परद्रव्यको संगति तजकर स्वदन्यसे ही संगत होना उनके ही संभव है जो राग द्वेष की प्रकटता हट जानेसे परम उदासीन भावको प्राप्त होते हैं। (११) परम उदासीन भावको वे ही पुरुष प्राप्त होते हैं जो समस्तक्रियाकुटुम्बसे घिरे हुए इस मनुष्यव्यवहारका प्राश्रय नहीं करते हैं । (१२) मनुष्यपर्याय व्यवहारका अनाश्रय उनके ही संभव है जो अचल चेतना विलासमात्र प्रात्मव्यवहारको स्वीकृत करते हैं। (१३) प्रचलित चेतना विलासमात्र आत्मव्यवहारको वे ही स्वीकारते हैं जो मनुष्यादि शरोरों में अहंकार ममकार न करते हुए उन शरीरोंमें रहकर भी अपनेको चेतनामात्र एकस्वरूप ही निरखते हैं । (१४) प्रचलित चेतना विलासमात्र प्रात्मव्यवहारको वे पुरुष नहीं स्वीकार कर पाते जो एकान्तदृष्टिके परिग्रह पिशाचसे अभिभूत हैं। (१५) एकान्तदृष्टिका परिग्रहपिशाच उनका दूर होता है जो सहज यथार्थस्वरूप वाले पदार्थको अनेकान्तदृष्टिसे निरखते हैं। (१६)
ॐ
REMImessage
H
HEART
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७२
सहजानन्दशास्त्रमालायां अथ द्रव्यलक्षणमुपलक्षयति
अपरिचत्तसहावेणुप्पादव्वयधुवत्तसंबद्ध ।
गुगणवं च सपज्जायं जं तं दव्वं ति वुच्चंति ॥१५॥ न स्वभाव छुटनेसे, स्थिति व्यय उत्पाद धर्मसे तन्मय ।
जो गुणवंत सपर्यय, उसको प्रभु द्रव्य कहते हैं ।।६।। अपरित्यक्तस्वभावनोत्पादध्ययध्रुवत्वसंबद्धम् । गुपावच्च सपर्यायं यत्तद्र्ध्यमिति दुवन्ति ॥ १५११
___ इह खलु यदनारब्धस्वभावभेदमुत्पादव्ययध्रौव्यत्रयेण गुणपर्यायद्वयेन च यल्लक्ष्यते तद्द्रव्यम् । तत्र हि द्रव्यस्य स्वभावोऽस्तित्वसामान्यान्वयः, अस्तित्वं हि वक्ष्यति द्विविध, स्वरूपास्तित्वं सादृश्यास्तित्वं चेलि ! सत्रोत्पादः प्रादुर्भावः, व्ययः प्रच्चननं, ध्रौव्यमवस्थितिः । गुणा विस्तारविशेषाः, ते द्विविधाः सामान्य विशेषात्मकत्वात् । तत्रास्तित्वं नास्तित्वमेकत्वमन्यत्वं द्रव्यत्वं पर्यायत्वं सर्वगतत्वमसर्वगतत्वं सप्रदेशत्वमप्रदेशत्वं मूर्तत्वममूर्तत्वं सक्रियत्वमक्रियत्वं चेतनत्वमचेतनत्वं कर्तृत्वभकर्तुत्वं भोक्तृत्वमभोवतृत्वमगुरुलधुत्वं चेत्यादय: सामान्यगणाः । अवगाहहेतुत्वं गतिनिमित्तता स्थितिकारणत्वं वर्तनायतनत्वं रूपादिमत्ता चेतनत्यमित्यादयो विशेषगुणाः । पर्याया अायतविशेषाः, ते पूर्वमेवोक्ताश्चतुविधाः । न च तैरुत्पादादिभिर्गुणपर्या
नामसंज--अपरिचत्तसहाव उप्पादव्ययधवत्तसंबद्ध गणवच सपज्जाय ज त दश्व लि । धातसंज. बु व्यक्तायां वाचि । प्रातिपदिक-अपरित्यक्तस्वभाव उत्पादव्यय ध्रुवत्वरांबद्ध गुणवत् सपर्याय यत् तत् पदार्थके यथार्थस्वरूपको अनेकान्तदृष्टि से वे ही पुरुष निरखते हैं जो पर्यायविषयक प्रासक्तिको छोड़कर आत्माके स्वभावमें ही लीन होनेका पौरुष करते हैं। (१७) पर्यायासक्ति छोड़कर आत्मस्वभावमें वे ही पुरुष लीन हो सकते हैं जो प्रात्मस्वभावका आदर करने में समर्थ हैं । (१८) आत्मस्वभावका वे ही पादर कर पाते जो समस्त विद्याके एक मूल भगवान प्रात्मस्वभावकी उपासनामें रहते हैं। (१६) स्वसमय हो आत्माका तत्त्व है।
सिद्धान्त-(१) स्वसमय अवस्थाकी प्राप्तिका साधन एक अखण्ड चैतन्यस्वभावमात्र अात्माका परिचय है।
दृष्टि-१- अखण्ड परमशुद्ध निश्चयनय (४४) । प्रयोग-पर्यायसे उपेक्षा करके आत्मस्वभावमें लीन होनेका पौरुष करना ॥१४॥
अब द्रव्यका लक्षण उपलक्षित करते हैं- [अपरित्यक्तस्वभावेन] नहीं छोड़ा है स्वभाव जिसने ऐसा [यत्] जो [उत्पादव्ययध्र वत्वसंबद्धम्] उत्पादव्ययध्रौव्यसंयुक्त है [च] तथा [गुरगवत् सपर्यायं] गुणयुक्त और पर्याय सहित है, [तत्] वह [द्रव्यम इति] 'द्रव्य' है
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
358
SIC
ifraterdamsutra
प्रवचनसार सप्तदशाङ्गी टीका या सह द्रव्यं लक्ष्यलक्षणभेदेऽपि स्वरूपभेदमुएन जति, स्वरूपत एव द्रव्यस्य तथाविधत्वादुत्तरोयवत् । क्या खलूत्तरीयमुपात्तमलिनावस्थं प्रक्षालिसममलावस्थयोत्पद्यमानं तेनोत्पादेन लक्ष्यते । न च तेन सह स्वरूपभेदमपत्र जति, स्वरूपत एव तथावधित्वमसम्बते । तथा द्रव्यमपि समपात्तप्राक्तनावस्थं समुचित बहिरङ्गसाधन सन्निधिसद्भावे विचित्रबहुतरावस्थानस्वरूप. कर्तृकरणसामर्थ्य स्वभावेनांतरङ्गसाधनतामुपागतेनानुग्रहीतमुत्तराबस्थयोत्पद्यमानं तेनोत्पादेन लक्ष्यते । न च तेन सह स्वरूपभेदमुपत्र जति, स्वरूपत एवं तथाविधत्वमवलम्बते । यथा व तदेवोत्तरीयममलावस्थयोत्पद्यमानं मलिनावस्थया व्ययमानं तेन व्ययेन लक्ष्यते । न च तेन द्रव्य इति । मूलधातु- अ व्यक्तायां वाचि । उभयपदविवरण-अपरिचत्तराहावेण अपरित्यक्तत्वमा "देन-तृतीया एकः । उप्यादब्बयधुवत्तसंबद्धं उत्पादच्यय अश्त्यसंवद्धं गुणवं गुणवत् सपज्जायं सपर्यायं जयत् तं तत् व्वं द्रव-प्रथमा एकः । निरुक्ति-उत्पद्यते इति उत्पाद: । समास......अपरित्यक्तः स्वभाव ऐसा प्रभु [ब्रुवन्ति] कहते हैं ।
तात्पर्य एकस्वभावरूप उत्पादव्य यध्रौव्ययुक्त गुरणपर्यायवान सत् द्रव्य कहलाता है ।
टोकार्थ-दास्तवमें इस विश्वमें नहीं है स्वभावभेद जिसमें, ऐसा जो उत्पादव्ययधौ"व्यत्रयसे और गुणपर्यायद्वयसे लक्षित होता है वह द्रव्य है। उनमें अर्थात् स्वभाव, उत्पाद, व्यय प्रौव्य, गुण और पर्यायमें से द्रव्यका स्वभाव है अस्तित्वसामान्य रूप अन्वय । अस्तित्व दो प्रकारका कहेंगे ----(१) स्वरूपास्तित्व, (२) सादृश्यास्तित्व । उनमें उत्पाद तो प्रादुर्भाव है; व्यय, प्रश्रुति है; धोव्य, अवस्थिति है; तथा गुण, विस्तारविशेष हैं । वे सामान्यविशेषास्मक होने से दो प्रकारके हैं। इनमें अस्तित्व, नास्तित्व, एकत्व, अन्यत्व, द्रव्यत्व, पर्यायत्व, सर्वगतत्व, असर्वगतत्व, सप्रदेशत्व, अप्रदेशत्व, मूर्तत्व, अमूर्तत्व, सक्रियत्व, अक्रियत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, कर्तृत्व, अकर्तृत्व, भोक्तृत्व, अभोक्तृत्व, अगुहलघुत्व इत्यादि सामान्य गुण हैं । अवगाह हेतुत्व, गतिनिमित्तता, स्थितिकार णत्व, वर्तनायतनत्व, रूपादिमत्व, नेतनत्व इत्यादि विशेष गुण हैं । पर्याय अायतविशेष हैं । वे पूर्व ही (६३वी गाथाकी टीकामें) कथित चार प्रकारके हैं । द्रव्यका उन उत्पादादिके साथ अथवा गुरगपर्यायोंके साथ लक्ष्य लक्षण भेद होनेपर भी स्वरूपभेद नहीं है । स्वरूपसे ही द्रव्य उत्पादादि अथवा गुणपर्याय वाला है; वस्त्र के समान ।
जैसे मलिन अवस्थाको प्राप्त वस्त्र, धोया हुमा निर्मल अवस्था रूपसे उत्पन्न होता हमा उस उत्पादसे लक्षित होता है, किन्तु उसका उस उत्पादके साथ स्वरूपभेद नहीं है, स्व. रूपसे ही वैसा है अर्थात् स्वयं उत्पादरूपसे ही परिणत है । उसी प्रकार जिसने पूर्व अवस्था
Rail
--------
-
--
--PATIHASTRI
INS
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७४
सहजानन्दशास्त्रमालायां
सह स्वरूपभेदमुपत्र जति, स्वरूपत एव तथाविधत्वमवलम्बते । तथा तदेव द्रव्यमप्युत्तरावस्थ योत्पद्यमानं प्राक्तनावस्थया व्ययमानं तेन व्ययेन लक्ष्यते । न च तेन सह स्वरूपभेदम्पन्न जति, स्वरूपत एव तथाविधत्वमवलम्बते । यथैव च तदेवोत्तरीयमेककालमलावस्थयोत्पद्यमानं मलि. नावस्थ या व्ययमानमवस्थायिन्योत्तरीयत्वावस्थ या ध्रौव्यमालम्बमानं ध्रौव्येण लक्ष्यते । न च तेन सह स्वरूप भेदमुपद्रजत्ति, स्वरूपत एक तथाविधत्वभवलम्बते । तथैव तदेव द्रव्यमप्येककालमुत्तरादस्थ योत्पद्यमानं प्राक्तनावस्थया व्ययमानमवस्थायिन्या द्रव्यत्वावस्थया ध्रौव्यमालम्बमानं ध्रौव्यण लक्ष्यते न च तेन सह स्वरूपभेदभुपनजति, स्वरूपत एव तथाविधत्वमवलम्बते । यर्थव येन सः अपरित्यक्तस्वभावः तेन (उत्पादः व्ययः अवत्वं चेति उत्पादध्ययध्रवत्वानि तैः संबद्धं इति उत्पादप्राप्त की है ऐसा द्रध्य भी उचित बहिरंग साधनोंके सान्निध्यके सद्भावमें विचित्र नाना स्वरूप के कर्ता व करमाके सामथ्र्य रूप स्वभावसे अनुगृहीत होता हुआ, उत्तर अवस्थारूपसे उत्पन्न होता हुग्रा उत्पादसे लक्षित होता है; किन्तु उसका उस उत्पादके साथ स्वरूपभेद नहीं है, स्वरूपसे हो वैसा है। और जैसे वहाँ वस्त्र निर्मल अवस्थारूपसे उत्पन्न होता हुया और मलिन अवस्थारूपसे व्ययको प्राप्त होता हुमा उस व्ययसे लक्षित होता है, परन्तु उसका उस ब्ययके साथ स्वरूपभेद नहीं है, स्वरूपसे ही वैसा है उसी प्रकार वही द्रव्य भी उत्तर अवस्था रूपसे उत्पन्न होता हुआ और पूर्व अवस्था रूपसे व्ययको प्राप्त होता हुआ उप व्ययसे लक्षित होता है, परन्तु उसका उस व्ययके साथ स्वरूपभेद नहीं है, वह स्वरूपसे हो वैसा है। और जैसे वही वस्त्र एक ही समयमें निर्मल अवस्थारूपसे उत्पन्न होता हुग्रा, मलिन अवस्थारूपसे व्ययको प्राप्त होता हुआ और टिकने वाली वस्त्रत्व अवस्थासे ध्र व रहता हुआ ध्रौव्यसे लक्षित होता है; परन्तु उसका उस ध्रौव्यके साथ स्वरूपभेद नहीं है, स्वरूपसे ही वैसा है; इसी प्रकार वही द्रव्य भी एक ही समय उत्तर अवस्थारूपसे उत्पन्न होता हुग्रा, पूर्व अवस्थारूपसे व्यय होता हुआ, और टिकने वाली द्रव्यत्व अवस्थारूपसे रहता हुमा ध्रौव्यसे लक्षित होता है । किंतु उसका उस ध्रौव्यकै साथ स्वरूपभेद नहीं है, वह स्वरूपसे ही वैसा है।
और जैसे वही वस्त्र विस्तारविशेषस्वरूप शुक्लत्यादि गुरगोंसे लक्षित होता है, किन्तु उसका उन गुणोंके साश्च स्वरूपभेद नहीं है, स्वरूपसे हो वह वैसा है; इसी प्रकार वही द्रव्य भी विस्तारविशेषस्वरूप गुणोंसे लक्षित होता है; किन्तु उसका उन गुणोंके साथ स्वरूपभेद नहीं हैं, वह स्वरूपसे ही वैसा है । और जैसे वही वस्त्र प्रायतविशेषस्वरूप पर्यायस्थानीय संतुषोंसे लक्षित होता है, किन्तु उसका उन तंतुओंके साथ स्वरूपभेद नहीं है, वह स्वरूपसे हो वैसा है । उसी प्रकार वही द्रव्य भी आयतविशेषस्वरूप पर्यायोंसे लक्षित होता है, परन्तु
SHYA
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
P
admaavats,
PawanisemenewNE
M
Amaosale-
S
a
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका चः तदेवोत्तरीयं विस्तारविशेषात्मक गोलक्ष्यते । न च तैः सह स्दरूपभेदमुपव्रजति, स्वरूपत एव तथाविधत्वमवलम्बते । तथैव तदेव द्रव्यमपि विस्तार विशेषात्मवगुगा लक्ष्यते । न च तैः सह. स्वरूप भेदभुपन जति, स्वरूपत एव तथाविधत्वमवलम्बते । यथैव च तदेवोत्तरीयमायतविशेषात्माः पर्यायतिभिस्तन्तुभिलक्ष्यते । त च तैः सह स्वरूपभेदमुपवति, स्थरूपत एव तथाविधत्वमवलम्बते । तथैव तदेव द्रध्यमप्यायत विशेषात्मकः पथिलक्ष्यते । न च तैः सह स्वरूप भेदमुपद्रजति, स्वरूपत एव तथाविधत्वमवलम्बते ॥६.५।। व्ययभूवत्वसंबद्ध, गुणं यस्यारतीति गुणवत् पर्यायन सहित सफ्याँयं ।। ६५।। उसका उन पर्यायोंके साथ स्वरूपभेद नहीं है, वह स्वरूपसे ही वैसा है ।
प्रसंगविवरण -- अनन्तरपूर्व गाथामें स्वसमय व परसमयको व्यवस्था प्रतिस्थापित की थी। अब इस गाथामें द्रव्यका लक्षण उपलक्षित किया गया है।
तथ्यप्रकाश--(१) द्रव्य स्वभावभेदरहित प्रखण्ड सत् है। (२) द्रव्यका स्वभाव अस्तित्वसामान्य रूप अन्वय है। (३) द्रष्यका परिचय उत्पादध्ययनौव्ययुक्ततासे किया जाता है । (४) द्रव्यका परिचय गुणपर्यायवत्तासे किया जाता है। (५) गुरण सामान्य विशेषात्मक हैं। (६) जो गुण अनेक द्रव्योंमें पाये जावें वे गुरुण सामान्य हैं, जैसे अस्तित्व नास्तित्व एकत्व अनेकस्य आदि । (७) जो गुण एक ही द्रव्य में या एक ही जाति के द्रध्यमें पाये जावें वे गुण विशेष हैं । जैसे चेतनस्व, रूपादिमत्त्व, गतिहेतुत्व आदि । (८) पर्याय कालक्रमभावी विशेष
हैं. 1 (6) पर्याय चार प्रकारके होते हैं-स्वभावद्रव्यव्यञ्जन पर्याय, विभावद्रयव्यञ्जन पर्याय, Eme स्वभावगणच्यञ्जन पर्याय, विभावगुणव्यञ्जन पर्याय । १० पर्यायोंसे गुणोंसे उत्पादादिसे द्रव्य
जाना जाता है यों उनमें लक्ष्यलक्षण का भेद है, किन्तु द्रव्यमें स्वरूपभेद नहीं है, क्योंकि गुण पर्याय उत्पादादिसे द्रव्य मात्र लक्षित किया जाता है ।
सिद्धान्त---(१) उत्पादादिसे द्रव्य मात्र लक्षित किया जाता है । (२) द्रव्य परमार्थतः । स्वभावभेदरहित अखण्ड सत् है ।
दृष्टि--१- उत्पादव्ययसापेक्ष अशुद्ध द्रध्याथिकनय (२५) । २- आखण्ड परमशुद्ध निश्चयनय (४४)।
प्रयोग-द्रव्य के लक्षण की विधिसे अपनेको यथार्थ सहजस्वरूप में लक्षित करना ॥६५॥
अब क्रमसे दो प्रकारका अस्तित्व कहते हैं.---स्वरूप-अस्तित्व और सादृश्य-अस्तित्व । उनमें यह स्वरूपास्तित्वका कथन है- [गुरणः] गुणों तथा [चित्रैः स्वकपर्यायः] अनेक प्रकार को अपनी पर्यायोंसे [उत्पादव्याघ्र वत्वैः] और उत्पाद ध्यय प्रौव्यसे [सर्वकालं] सर्वकालमें
amcomAMAURISMANORANummer
मा
HERE
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां अथ क्रमेणास्तित्वं द्विविधमभिदधाति स्वरूपास्तित्वं सादृश्यास्तित्वं चेति तत्रेदं स्व. रूपास्तित्वाभिधानम्---
सम्भावो हि सहावो गुणे हिं सगपज्जएहिं चित्तेहिं । दव्वस्स सव्वकालं उप्पादव्वयधुबत्तेहिं ॥६६॥
गुरण व विविध पर्यायों से उत्पाद व्यय ध्रौव्य धर्मोसे ।
सर्वकाल वस्तूका सद्भाव स्वभाव कहलाता ॥६६॥ सायो हि स्वभावो गुणः स्त्रकपर्यय दिनत्रैः । द्रव्यस्य सर्वकाल मुत्पादन्यय वन।। ६६॥
अस्तित्वं हि किल द्रव्यस्य स्वभावः, तत्पुनरन्यसाधननिरपेक्षत्वादनाद्यनन्ततयाहेतुकयकरूपया वृत्त्या नित्यप्रवृत्तत्वाद्विभावधर्मवैलक्षण्याच्च भावभाववद्भावानानात्वेऽपि प्रदेशभेदाभावाद्येगा सहकत्वमवलम्बमानं द्रव्यस्य स्वभाव एव कथं न भवेत् । तत्तु द्रव्यान्तराणाभिव द्रव्यगुणपर्यायाण न प्रत्येक परिसमाप्यते । यतो हि परस्परसाधितसिद्धियुक्तस्वात्तेषामस्तित्वमेकमेव, कार्तस्वरवत् । यथा हि द्रव्रण वा क्षेत्रेण वा कालेन वा भावेन वा कार्तस्वरात् पृथगनुपलभ्यमानः कर्तृकरणाधिकरणरूपेण पोततादिगुणानां कुण्डलादिपर्यायानां च स्वरूपम्पादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तस्य कार्तस्वरास्तित्वेन निष्पादितनिष्पत्तियुक्तः पीततादिगुणः कुण्डलादिपर्यायश्च यदस्तित्व कार्तस्वरस्य स स्वभावः, तथा हि द्रव्येण वा उत्रेण वा कालेन वा
नामसंज्ञ--सन्भाव हि सहाव गुण समयजय चित्त दव्व सब्वकाल उप्पादक्यघुवत । धातुसंजउद पज्ज गौ. वि इ गतौ । प्रातिपदिक.....सद्भाव हि स्वभाव गुण स्वकपर्याय चित्र द्रब्य सर्वकालं उत्पाद[द्रव्यस्थ साझावः] द्रव्यका अस्तित्व ही हि] वास्तवमें स्विभावः] स्वभाव है ।
__तात्पय----गुणोंसे, पर्यायोंसे, उत्पाद व्यय ध्रौव्यसे सदाकाल द्रव्यका सद्भाव रहना द्रग्यका स्वभाव हैं ।
टोकार्थ----वास्तवमें अस्तित्व द्रव्यका स्वभाव है; और वह अस्तित्व अन्य साधनसे निरपेक्ष होनेके कारण अनादि अनन्त होनेसे अहेतुक, एकरूप वृत्तिसे सदा ही प्रवृत्तपना होने के कारण, विभावधर्मसे विलक्षणताके कारण, भाव और भाववानपना होनेसे अनेकल्क होनेपर भी प्रदेश भेद न होनेसे द्रव्यके साथ एकत्वको धारण करता हुअा, द्रव्यका स्वभाव ही क्यों न हो ? वह अस्तित्व भिन्न-भिन्न द्रव्योंकी तरह द्रव्य गुण पर्याय में प्रत्येकमें समान नहीं हो जाता, क्योंकि उनकी सिद्धि परस्पर होती हैं, इस कारण उनका अस्तित्व एक ही है: मुवर्णकी तरह।
जैसे द्रव्य, क्षेत्र, काल व भावसे सुवर्णसे पृथक् न पाये जाने वाले कर्ता-करण-अधिः करण रूपसे पीतत्वादि गुणोंके और कुण्डलादि पर्यायोंके स्वरूपको धारण करके प्रवर्तमान
-
-
S
AAREE
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७७
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका भावेत वा द्रव्यात्पृथगनुपलभ्यमानी कर्तृकरणाधिकरणरूपेण गुणानां पर्यायारणां च स्वरूपमुपाक्षाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तस्य द्रव्यास्तित्वेन निष्पादितनिष्पत्तियुक्तगुणैः पर्यायश्च यदस्तित्वं द्रव्यस्य स स्वभावः । यथा वा द्रव्येश वा क्षेत्रेण वा कालेन वा भावेन वा पीततादिगुणेभ्यः । कुण्डलादिपर्यायेभ्यश्च पृथगनुपलभ्यमानस्य कर्तृकरणाधिकरणरूपेण कार्तस्वरस्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तः पीततादिगुणैः कुण्डलादिपर्यायश्च निष्पादितनिष्पत्तियुक्तस्य कार्तस्वरस्य मूलसाधनतया तनिष्पादितं यदस्तित्वं स स्वभावः, तथा द्रव्येण वा क्षेत्रेण वा कालेन वा भावेन वा गुणेभ्यः पर्यायेभ्यश्च पृथगनुपलभ्यमानस्य कर्तृ करणाधिकरणरूपेण द्रव्यस्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तैर्गुणः पर्याय न निष्पादितनिष्पत्तियुक्तस्य द्रव्यस्य मूलसाधनतया तनिष्पा. दितं यदस्तित्वं स स्वभावः। किंच-यथा हि द्रव्येण वा क्षेत्रेण वा कालेन वा भावेन वा कार्तस्वरात्पृथगनुपलभ्यमानः कर्तृ करणाधिकरण रूपेरण कृण्टलाङ्गदपीततात्धुपादव्ययध्रौव्याणां व्ययध्रुवत्व । मूलधातु---उत् पद गती, वि इण् गती, ध्रु सधैर्य भ्वादि । उभयपदविवरण--सम्भावो सद्भावः सहावो स्वभाव:-प्रथमा एकः । गुणेहि गुणैः सगपज्जये हि स्वकार्यय: उप्पादक्ष्ययधुवत्तेहि उत्पादसुवर्णके अस्तित्वसे निष्पादित उत्पत्तिसे युक्त पीतत्वादि गुणों और कुण्डलादि पर्यायोंसे जो सुवर्णका अस्तित्व है वह उसका स्वभाव है । इसी प्रकार द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे या भादसे । जो द्रव्यसे पृथक् न पाये जाने वाले कर्ता-करण अधिकरणरूपसे गुणोंके और पर्यायोंके स्वरूप को धारण करके प्रवर्तमान द्रव्य के अस्तित्वसे निष्पादित उत्पत्तिसे युक्त गुणों और पर्यायोंसे जो द्रव्यका अस्तित्व हैं वह द्रव्यका स्वभाव है । अथवा जैसे द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे व भावसे पीतत्वादि गुणोंसे और कुण्डलादि पर्यायोंसे पृथक् न पाये जाने वाले तथा कर्ता करण-अधि। करणरूपसे सुवर्णके स्वरूपको धारण करके प्रवर्तमान पीतत्वादि गुणों और कुण्डलादि पर्यायों से निष्पादित निष्पत्तिसे युक्त सुवर्णका, मूलसाधन पनेसे उन गुहा पर्यायोंसे निष्पन्न होता हुआ जो अस्तित्व है वह उसका स्वभाव है; इसी प्रकार द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे या भावसे गुरगोंसे और पर्यायोंसे पृथक न पाये जाने वाले तथा कर्ता-करण अधिकरणरूपसे द्रव्यके स्वरूपको धारण करके प्रवर्तमान गुणों और पर्यायोंसे निष्पादित निष्पत्तिसे युक्त द्रव्यका, मूलसाधनपनेसे उन गुण पर्यायोंसे निष्पन्न होता हुआ जो अस्तित्व है वह स्वभाव है।
और क्या---जैसे द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे या भावसे सुवर्णसे पृथक् न पाये जाने वाले तथा कर्ता-करण-अधिकरणरूपसे कुण्डलादि उत्पादोंके, बाजुबन्धादि व्ययोंके और पोतत्वादि प्रीव्योंके स्वरूपको धारण करके प्रवर्तमान सुवर्णके अस्तित्व से निष्पादित निष्पत्तिसे युक्त ऐसे कुण्डलादि उत्पाद, बाजूबंधादि व्यय और पोतत्वादि ध्रौव्योंसे जो सुवर्णका अस्तित्व है वह
woma ntitiementikhil
motiVARAVBHARASHTRA
Sywwwmiti
o
n
SARRER
Disa
SRCH
SurusaRAINS
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
hin india
n
"
.
सहजानंदशास्त्रमालायां स्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तस्य कार्तस्वरास्तित्वेन निष्पादितनिष्पत्तियक्तः कुण्डलाल. पीतताद्युत्पादथ्य यधोव्यर्य दस्तित्वं कार्तस्वरस्य स स्वभावः, तथा हि द्रव्येण वा क्षेत्रेण वा कालेन वा भावेन वा द्रध्यात्थगनुपलभ्यमानः कर्तृकरणाधिकरणरूपेणोत्पादव्य यनोव्याणां स्वरूपमुपादाय प्रवर्तमान प्रवृत्तियुक्तस्य द्रव्यास्तित्वेन निष्पादितनिष्पत्तियुक्तरुत्पादव्ययध्रौव्यर्यदस्तित्वं द्रव्यस्य स स्वभावः । यथा वा द्रव्येण वा क्षेत्रेण वा कालेन वा भावेन वा कुण्डलाङ्ग. दपोतताद्युत्पादव्ययध्रौव्येभ्यः पृथगनुपलभ्यमानस्य कर्तृवरणाधिकरणरूपेण कार्तस्वरस्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्ति युक्तः कुण्डलाङ्गदपीतताधुत्पादव्ययनौव्यनिष्पादितनिष्पतियुक्तस्य कार्तस्वरस्य मूलसाधनतया तनिष्पादितं यदस्तित्वं स स्वभावः, तथा द्रव्ये वा क्षेत्रेग वा कालेन वा भावेन बोत्पादव्ययध्रौव्येभ्यः पृथगनुपलभ्यमानस्य कर्तृकरणाधिकरणरूपेण द्रव्यस्वरूपमुपादाय प्रवर्तमान प्रवृत्तियुक्तरुत्पादव्य योन्यनिष्पादितनिष्पत्तियुक्तस्य द्रव्यस्य मूलसाधनतया तैनिपादितं यदस्तित्वं स स्वभावः ॥६६॥ व्यय- वत्वः चित्तेहि चित्र:-तृतीया बहुवचन । दव्यरस द्रव्यस्य-पष्ठी एक० । सव्वकालं सर्वकालं-कियाविशेषण अव्यय । (सदाकाल सद्भाव होना) । निरुक्ति उत्पादने उत्पादः, व्ययनं व्ययः, ध्रुवणं ध्रुवः तस्य भावः ध्र वत्वं । समास- उत्पाद: व्ययः ध्रुवत्वं चेति उत्पादव्यय ध्रुवत्वानि तः उत्पादव्यय ध्रुवत्वः ।।६॥ सुवर्णका स्वभाव है। इसी प्रकार द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे या भावसे द्रव्यसे पृथक् नहीं पाये जाने वाले तथा कर्ता-करया-अधिकरण रूपसे उत्पाद व्यय-ध्रौव्योंके स्वरूपको धारण करके प्रवर्तमान द्रव्यके अस्तित्वसे निष्पादित निष्पत्तिसे युक्त उत्पाद व्यय-ध्रौव्योंसे जो द्रव्यका अस्तित्व है वह उसका स्वभाव है।
अथवा, जसे द्रध्यसे, क्षेत्रसे, कालसे व भावसे कुण्डलादि उत्पादोंसे बाजूबंधादि व्ययों से और पीतत्वादि ध्रौव्योंसे पृथक् न पाये जाने वाले तथा कर्ता-करण-अधिकरण रूपसे सुवर्ण के स्वरूपको धारण करके प्रवर्तमान कुण्डलादि उत्पादों, बाजूबन्धादि व्ययों और पीतत्वादि ध्रौव्योसे निष्पादित निष्पत्तिसे युक्त सुवर्णका, मूल साधनपनेसे उनसे निष्पन्न होता हुआ जो अस्तित्व है, वह उसका स्वभाव है। इसी प्रकार द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे व भावसे उत्पाद व्ययघोच्योसे पृथक् न पाये जाने वाले तथा कर्ता-करण-अधिकरणरूपसे द्रव्य के स्वरूपको धारण करके प्रवर्तमान उत्पाद-व्यय-ध्रीव्योंसे निष्पादित निष्पत्तिसे युक्त द्रव्यका मूल साधनपनेसे उनसे निष्पन्न होता हुअा जो अस्तित्व है वह उसका स्वभाव है।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें द्रव्यका लक्षण अस्तित्व सामान्यरूप अन्वय बताया गया था जो कि स्वरूपास्तित्व व सादृश्यास्तित्व इन दो प्रकारोंसे समझा जाता है।
"
.
maritrull 'san
"
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७६
प्रवचनसार-राप्तदशाङ्गी टीका इदं तु साहश्यास्तित्वाभिवालमस्तीति कथयति
इह विविहलक्खणाणं लक्खणमेगं सदिति सबगयं । उवदिसदा खलु धम्म जिणवरवसहेण पणात्तं ॥६७।। यह विविध लक्षरणोंका, लक्षण सामान्य सत्व व्यापक है ।
धर्म उपदेश कर्ता, जिनवर प्रभुने कहा है यों ।। ६७ ॥ इह विविधलक्षणानां लक्षणमेकं सदिति सर्वगतम् । उपदिशता खलु धर्म जिन वरवृषभेण प्रज्ञप्तम् ।। १७ ।।
इह किल प्रपश्चितवैचित्र्येण द्रव्यान्तरेभ्यो व्यावृत्य वृत्तेन प्रतिद्रव्यं सीमानमासूत्रयता विशेषलक्षणभूतेन च स्वरूपास्तित्वेन लक्ष्यमाणानामपि सर्वद्रव्यागामस्तमितवैचित्र्यप्रपञ्चे
नामसंज्ञ...इह विविहलक्खाण लकडण एग रात् इति सत्वगय उदिरांत खलु धम्म जिणवरवसह पपणत्त । धातुसंज्ञ--लक्ख अंकने, पन्या अवबोधने । प्रातिपदिक-इह विविधलक्षण लक्षण एक सत् इति अब इस गाथामें स्वरूपास्तित्वका कथन किया गया है।
__ तथ्यप्रकाश-(१) अस्तित्व द्रव्यका स्वभाव है । (२) अस्तित्व स्वयंसिद्ध होता है, उसमें अन्य साधनको अपेक्षा नहीं होती। (३) अन्यसाधननिरपेक्ष होनेसे अस्तित्व अनादि अनन्त अहेतुक एकरूप वृत्तिसे नित्य प्रवृत्त रहता है । (४) अस्तित्व भाबसे भाववान द्रव्य लक्षित होता है, किन्तु प्रदेशभेद न होनेसे अस्तित्व द्रव्यके साथ एकत्वको प्राप्त हुआ द्रव्यका स्वभाव ही है । (५) जैसे प्रत्येक द्रव्योंमें भिन्न-भिन्न अस्तित्व है इस प्रकार गुण पर्यायोंके साथ भिन्न-भिन्न अस्तित्व नहीं, क्योंकि द्रव्यगुणपर्यायात्मक है। (६) द्रध्यसे पृथक् न पाये जाने वाले गुण पर्यायोंके परिचय द्वारा जो अस्तित्व जाना जाता है वह द्रव्यका स्वभाव है।
सिद्धान्त --(१) गुणपर्यायवत्त्वके परिचयसे चैकालिक द्रव्यका परिचय होता है । दृष्टि-१- अन्वय द्रव्याथिकनय [२७] 1
प्रयोग-प्रात्मगुणपर्यायों से अपने प्रात्माका परिचय करके गुणपर्यायभेदसे परे अखण्ड चैतन्यात्मक अस्तित्व का अनुभव करना ।। ६६ ॥
अब यह सादृश्य-अस्तित्वका कथन है--[खल वास्तव में [धर्म] धर्मका [उपदिशता] उपदेश करते हुये [जिनवरवृषभेण] जिनवरवृषभके द्वारा [इह] इस विश्वमें [विविधलक्षणानां] विविध लक्षण वाले द्रव्योंका [सत् इति] 'सत्' ऐसा [सर्वगतं] सबमें पाया जाने वाला लक्षणं] लक्षण [एक] एक सादृश्यास्तित्व [प्रज्ञप्तम्] कहा गया है ।
तात्पर्य-धर्मका उपदेश करते हुये जिनवरवृषभ द्वारा विविध लक्षण वाले द्रव्योंका सबमें पाया जाने वाला लक्षण सादृश्यास्तित्व कहा गया है।
PARANGBAR
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८०
सहजानन्दशास्त्रमालायां
-MAMAarm.nwurnmomenwww.www. www
c RANIRAMANANCIASTER
om
प्रवृत्य वृत्तं प्रतिद्रव्यमासूत्रित सीमानं भिन्दत्सदिति सर्वगतं सामान्य लक्षणभूतं सादृश्यास्तित्वमेक खरुखवबोधन्यम् । एवं सदित्यभिधान सदिति परिच्छेदनं च सर्वार्थपरामशि स्यात् । यदि पुनरिदमेव न स्यात्तदा किचित्सदिति किंचिदसदिति किचित्सच्चासच्चेति किंचिदवाच्यमिति च स्थात् । तत्तु विप्रतिषिद्ध मेव प्रसाध्यं चतदनोकहवत् । यथा हि बहूनां बहुविधानामनोवाहाना मात्मीयस्यात्मीयस्य विशेषलक्षणभूतस्य स्वरूपास्तित्वस्यावष्टम्भेनोत्तिष्ठन्नानात्वं, सामान्यलक्षण भूतेन सादृश्योद्भासिनानोकहत्वेनोत्थापितमेकत्वं तिरियति । तथा बहूनां बहुविधानां द्रव्याणामात्मी यात्मीयस्य विशेष लक्षणभूतस्य स्वरूपास्तित्वस्यावष्टम्भेनोत्तिष्ठन्नानात्वं, सामान्यलक्षणभूतेन सादृश्योद्भासिना सदित्यस्य भावनोत्थापितमेकत्वं तिरियति । यथा च तेषामनोकहानां सामान्यलक्षणभूतेन साहश्योद्भासिनानोकहत्वेनोत्थापितनैकत्वेन तिरोहितमपि विशेष लक्षणभूसस्य स्वरूपास्तित्वावष्टम्भेनोत्तिष्ठन्नानात्वमुच्चकास्ति, तथा सर्वद्रव्याणामपि सामान्यलक्षणभूतेन सर्वगत, उपदिशत् खलु धर्म जिन वरवृषभ प्रज्ञप्त । मूलधातु-लक्ष दर्शनाङ्कनयोः, अज्ञप ज्ञापने 1 उभयपदविबरणा-... इह इति खल-अव्यय । विविहलक्खणाणं विविधलक्षणानां-षष्ठी एकवचन । लक्खणं लक्षणं एग एक सत् सव्वगयं सर्वगत-प्रश्वमा एकवचन । उवदिसदा उपविशता-तृतीयो एक० 1 धम्म धर्म पण्णत्तं प्रज्ञात-द्वितीया एक । जिणवरवस हेण जिनवरवृपभेण-तृ० ए० । निरुक्ति-धरति उत्तमे सुखे इति धर्मः)
टीकार्थ-- इस विश्वमें, विचित्रताको विस्तारित करते हुये अन्य द्रव्योसे पृथक् रहकर प्रवर्तमान और प्रत्येक द्रन्यको सीमाको बांधते हुवे ऐसे विशेष लक्षणभूत स्वरूपास्तित्वसे लक्षित हो रहे भी सर्व द्रव्योंका, विचित्रताके विस्तारको प्रस्त करता हुमा, सर्व द्रव्योंमें प्रवृत्त होकर रहने वाला, और प्रत्येक द्रव्यको बँधी हुई भीमाको तोड़ता हुअा, 'सत्' ऐसा जो सर्वगत सामान्य लक्षणभूत सादृश्यास्तित्व है वह वास्तवमें एक ही जानना चाहिये । इस प्रकार 'सत्' ऐसा कथन और 'सत्' ऐसा ज्ञान सर्व पदार्थोंका लक्ष करने वाला है । यदि वह ऐसा सर्वपदार्थपरामर्शी न हो तो कोई पदार्थ सत्, कोई असत्, कोई सत् तथा असत् और कोई अवाच्य होना चाहिये; किन्तु वह तो विरुद्ध ही है, और यह तथ्य वृक्षके दृष्टान्तको तरह सिद्ध कर लेना चाहिये।
जैसे बहुतसे अनेक प्रकारके वृक्षोंके अपने अपने विशेष लक्षगाभूत स्वरूपास्तित्व के अवलम्बनसे उस्थित होते (खड़े होते, अनेकत्वको, सामान्य लक्षणभूत सादृश्यदर्शक वृक्षत्वसे उत्थित होता एकत्व तिरोहित कर देता है इसी प्रकार बहुतसे, अनेक प्रकारके द्रव्योंके अपने अपने विशेष लक्षणभूत स्वरूपास्तित्वके अबलम्बनसे उत्थिन होते अनेकत्वको, सामान्यलक्षरणभूत सादृश्यदर्शक 'सत्' पनेसे उत्थित होता एकत्व तिरोहित कर देता है । और जैसे उन वृक्षों के विषयमें सामान्यलक्षणभूत सादृश्यदर्शक वृक्षत्वसे उस्थित होते एकत्वसे तिरोहित हुअा भी
RES
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८१
Netloom
प्रवचनसार-सप्तदशाली टीका सादृश्योद्धासिना सदित्यस्य भावनोत्थापितेनैकत्वेन तिरोहितमगि विशेष लक्षण भूतस्य स्वरूपास्तित्वस्यावष्टम्भेनोत्तिष्ठन्नानाल्वमुच्चकास्ति ||७|| तं धर्म । समास-...विविधानि च तानि लक्षणानि चेति विविधलक्षणानि ।। ७ ।। अपने अपने विशेष लक्षणभुत स्वरूपास्तित्वके अवलम्बनसे उत्थित होता अनेकत्व स्पष्ट लया प्रकाशमान रहता है इसी प्रकार सर्व द्रव्योंके विषयमें भी सामान्य लक्षणभूत सादृश्य दर्शक 'सत्' पनेसे उत्थित होते एकत्वसे तिरोहित हुअा भी अपने अपने विशेष लक्षणभूत स्वरूपास्तित्वके अवलम्बनसे उत्थित होता अनेकत्व स्पष्टतया प्रकाशमान रहता है।
प्रसंगविवरण----अनंतरपूर्व गाथामें द्रव्यके स्वरूपास्तित्वका कथन किया गया था। अब इस गोथामें सादृश्यास्तित्वका कथन किया गया है ।
तथ्यप्रकाश-(१) प्रत्येक द्रध्य अपने अपने स्वरूपास्तित्व से युक्त है । (२) समस्त द्रव्योंको यदि सत् सामान्यरूपसे देखा जाय तो एक सादृश्यास्तित्व समझा जाता है। (३) । सादृश्यास्तित्वसे सत् ऐसा कहनेपर समस्त अर्थोका ग्रहण हो जाता है । (४) सत् सामान्य कहनेपर स्वरूपास्तित्व गौण हो जाता है । (५) स्वरूपास्तितब निरखनेपर सादृश्यास्तित्वकी प्रतिष्ठा नहीं रहती।
सिद्धान्त-(१) सत् सामान्यके निरखते में सर्व द्रव्योंमें सत्त्वमात्रका परिचय होता है। (२) स्वरूपास्तित्वके निरखने में द्रव्य अन्य द्रव्योंसे विलक्षण ज्ञात होता है।
दृष्टि---१- सादृश्यनय [२०२] । २- वैलक्षण्यनय [२०३] ।
प्रयोग-सब द्रन्यों में स्वरूपास्तित्वको गौण कर सत् सामान्यकी दृष्टिसे निर्विकल्प होते हुए सहज निज स्वरूपास्तित्वको अनुभवना ॥६७||
अब द्रव्योंसे द्रव्यान्तरके प्रारम्भको और द्रव्यसे सत्ताके प्रर्थान्तरत्वको खण्डित करते । है-[ध्य ] द्रव्य [स्वभाव सिद्ध] स्वभावसे सिद्ध और [सत् इति] 'सत्' है, ऐसा [जिनाः] जिनेन्द्रदेवने तत्त्वतः] यथार्थतः [समाख्यातवन्तः] कहा है; [तथा] इस प्रकार प्रागमतः] प्रागमसे [सिद्ध] सिद्ध तथ्यको [यः] जो [न इच्छति] नहीं मानता [सः] वह [हि] वास्तवमें [परसमयः] परसमय है।
तात्पर्य---द्रव्य सहज सिद्ध व सहज सत् है ऐसा न मानने वाला मिथ्यादृष्टि है।
टोकार्थ-वास्तवमें द्रव्योंसे द्रध्यान्तरोंको उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि सवं द्रव्योंके स्वभावसे सिद्धपना है। और उनका स्वभावसिद्धपना उनके अनादिनिधनत्वसे प्रसिद्ध है; है। क्योंकि अनादिनिधन पदार्थ साधनान्तरको अपेक्षा नहीं रखता । वह गुरणपर्यायात्मक अपने
ॐ
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८२
सहजानन्द शास्त्रमालाया अथ द्रव्य व्यान्तरस्यारम्भं द्रध्यादर्थान्तरत्वं च सत्तायाः प्रतिन्ति–
दव्यं सहावसिद्ध सदिति जिणा तबदो समक्खादा । सिद्ध तध आगमदो णेच्छदि जो सो हि परसमग्रो ॥६॥
स्वतःसिद्ध सत् वस्तू, ऐसा प्रभुने कहा यथार्थतया ।
प्रागमसिद्ध भि ऐसा, न माने जो वह वहिष्टि ।। ६८ ॥ द्रव्यं स्वभावसिद्धं सदिति जिनास्तत्त्वतः रामाख्यातवन्तः । सिद्धं तथा आगमतो नेच्छति यः स हि परसमयः ।।
न खलु द्रव्य व्यान्तराणामारम्भः, सर्वद्रव्याणां स्वाभावसिद्धत्वात् । स्वभावसिद्धत्वं तु तेषामनादिनिधनत्वात् । अनादिनिधनं हि न साधनान्तरमपेक्षते । गुणपर्यायामात्मानमात्मनः स्वभावमेव मूलसाधनमुपादाय स्वयमेव सिद्धसिद्धि मद्भूतं वर्तते । यत्तु द्रव्यरारभ्यते न तद्द्रव्यान्तरं कादाचित्कत्वात् स पर्यायः, द्वयरगुकादिवन्मनुष्यादिवच्छ । द्रव्यं पुन रनवधि त्रिसमयावस्थाथि न तथा स्यात् । अथैवं यथा सिद्ध स्वभावत एव द्रव्यं तथा सदित्यपि तत्स्वभावत
नामसंज्ञ-दव्व सहावसिद्ध सत् इति जिण तच्चदो समक्खाद सिद्ध तध आगमदो ॥ ज त हि परसमय । धातुसंज्ञ-वखा प्रकथने तृतीयगणी, इच्छ इच्छायां । प्रातिपदिक---द्रव्य स्वभावसिद्ध सत् इति जिन तत्वतः समाख्यात बत् सिद्ध तथा आगमत: न यत् तत् हि परसमय । मूलधातु...ख्या प्रकथने अदादि, स्वभाव मूल साधनको उपादान करके स्वयमेव सिद्ध हुग्रा वर्तता है । जो द्रव्योंसे उत्पन्न होता है वह तो द्रव्यान्तर नहीं है, किन्तु कादाचिरकताके कारण पर्याय है; जैसे द्वयणुक इत्यादि तथा मनुष्य इत्यादि । द्रव्य तो अनवधि त्रिकालस्थायी होनेसे उत्पन्न नहीं होता। अब इस प्रकार जैसे द्रव्य स्वभाव से ही सिद्ध हैं उसी प्रकार द्रव्य 'सत् है। यह भी स्वभावसे ही सिद्ध है, ऐसा अवधारण कीजिये । कहीं क्योंकि द्रव्य सत्तात्मक अपने स्वभावसे निष्पन्न निष्पत्तिमान भाव वाला है । द्रव्यसै अर्थान्तरभूत सत्ता नहीं बन सकती कि जिसके समयायसे वह द्रव्य 'सत्' हो । देखिये प्रथम तो सत्का व सत्ताका युतसिद्धपना होने के कारण अर्थान्तरत्व नहीं है, क्योंकि दण्ड और दण्डीकी तरह सत् और सत्तामें युतसिद्धता दिखाई नहीं देतो 1 अयुतसिद्धपना होने से भी सत् प्रौर सत्तामें भी अर्थान्तरत्व नहीं बनता । प्रश्न-- 'इसमें यह है अर्थात् द्रव्य में सत्ता है' ऐसी प्रतीति होती है इस कारण अर्थान्तरत्व बन सकता है । उत्तर--'इसमें यह है। ऐसी प्रतीति किसके कारणसे होती है ? यदि ऐसा कहा जाय कि भेदके कारणसे अर्थात द्रव्य और सत्तामें भेद होनेसे होती है तो, वह कौनसा भेद है ? प्रादेशिक या अताद्धाविक ? प्रादेशिक तो है नहीं, क्योंकि युतसिद्धत्व का पहले ही निराकरण कर दिया गया है, और यदि प्रताद्भाविक कहा जाय तो वह ठीक ही है, क्योंकि ऐसा वचन है कि 'जो द्रव्य है वह गुण
NEE
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार -- सप्तदशाङ्गी टीका
१८३
एव सिद्धfecreatiताम् । सत्तात्मनात्मनः स्वभावेन निष्पन्ननिष्पत्तिमद्भावयुक्तत्वात् । न च द्रव्यादर्थान्तरभूता सत्तोपपत्तिमभिप्रपद्यते, यतस्तत्समवायात्तत्सदिति स्यात् । सतः सत्तायाश्च न तावद्युत सिद्धत्वेनार्थान्तरत्वं तयोर्दण्डदण्डिवद्युत सिद्धस्यादर्शनात् । अयुत सिद्धत्वेनापि न तदुपञ्चते । इहेदमितिप्रतीतेपद्यत इति चेत् किनिबन्धना होहेदमिति प्रतीतिः । भेदनिबन्धनेतिचैतु को नाम भेदः । प्रादेशिक अताद्भाविको वा । न तावत्प्रादेशिकः पूर्वमेव युतमिद्धत्वस्याप्रसारणात् । श्रताद्भाविकश्चेत् उपपन्न एव यद्रव्यं तन्न गुण इति वचनात् । अयं तु न खल्वे कान्तेने हे दमितिप्रतीतेनिबन्धनं स्वयमेवोन्मग्ननिमग्नत्वात् । तथाहि--यदेव पर्यायाप्येते द्रव्यं तदेव गुणवदिदं द्रव्यमयमस्य गुणः शुभ्रमिदमुत रोषमयमस्य शुभ्र गुण इत्यादिवदताद्भा विको भेद उन्मञ्जति । यदा तु द्रव्येणाप्यते द्रव्यं तदास्तमित समस्त गुणवासनोन्मेषस्थ तथाविधं अयमेव शुभ्रमुत्तरीयमित्यादिवत्प्रपश्यतः समूल एवाताद्भादिको भेदो निमञ्जति । एवं हि भेदे
3
इच्छायां । उभयपदविवरण-दव्यं द्रव्यं सहावसिद्ध स्वभावसिद्ध सत् प्रथमा एक । इति न वध तथा हि-अव्यय । जिणा जिवा:- प्रथमा बहु० । तचदों तत्त्वतः अव्यय पंचम्यर्थे । समवखादा समास्वातबन्तः- प्रथमा बहु० कृदन्तु क्रिया । सिद्ध - द्रि० ए० | आगमको आगमतः-अव्यय पंचम्यर्थे । इच्छति इच्छ
नहीं है । परन्तु यह ताद्भाविक भेद 'एकान्त से इसमें यह है' ऐसी प्रतीतिका कारण नहीं है, क्योंकि वह स्वयमेव उन्मग्न और निमग्न होता है । वह इस प्रकार है:- जब ही पर्यायके द्वारा द्रव्य अर्पित किया जाता है तब ही 'शुक्ल यह वस्त्र है, यह इसका शुक्लत्व गुण हैं' -इत्यादिकी तरह 'गुण वाला यह द्रव्य है, यह इसका गुण है' इस प्रकार प्रताद्भाविक भेद उछलता है; परन्तु जब द्रव्यके द्वारा द्रव्य अर्पित कराया जाय तब जिसके समस्त गुणवासना के उन्मेष ग्रस्त हो गये हैं ऐसे उस जीवको 'शुक्ल वस्त्र हो है' इत्यादिकी तरह 'ऐसा द्रव्य ही है' इस प्रकार देखनेपर समूल ही प्रताद्भाविक भेद डूब जाता है। इस प्रकार भेदके निमन होनेपर उसके प्राश्रयसे होती हुई प्रतीति निमग्न होती है। उसके निमग्न होनेपर प्रयुतसिद्धत्वजनित अर्थान्तरत्व निमग्न होता है, इस कारण समस्त ही एक द्रव्य ही होकर रहता हैं। और जब भेद उन्मग्न होता है, तब भेदके उन्मग्न होनेपर उसके आश्रयसे होती हुई प्रतीति उन्मन्न होती है, उसके उन्मग्न होनेपर भयुत सिद्धत्वजनित अर्थान्तरत्व उन्मग्न होता है, तब भी द्रव्य के पर्यायरूपसे उन्मग्न होनेसे, जलराशिसे जलतरंगों को तरह द्रव्यसे व्यतिरिक्त नहीं होता । ऐसा होनेपर स्वयमेव सत् द्रव्य है । जो ऐसा नहीं मानता वह वास्तव में 'परसमय' ( मिथ्यादृष्टि ही ) माना जाना चाहिये ।
प्रसंगविवरण - अनन्तरपूर्व गाथा में द्रव्यों के सादृश्यास्तित्वका कथन किया गया था ।
Modia
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८४
सहजानन्दशास्त्रमालायां
निमञ्जति तत्प्रत्यया प्रतीतिनिमञ्जति । तस्यां निमञ्जत्यामयुतसिद्धत्वोत्थमर्थान्तरत्वं निमजति । ततः समस्तमपि द्रव्यमेवैकं भूत्वावतिष्ठते 1 यदा तु भेद उन्मञ्जति तस्मिन्नुन्मञ्जति तत्प्रत्यया प्रतीतिरुन्मञ्जति । तस्यामुन्मञ्जत्यामयुत सिद्धत्वोत्थमर्थान्तरत्वमुन्मञ्जति । तदापि तत्पयत्वेनोन्मञ्जञ्जलराशेर्जलकल्लोल इत्र द्रव्यान्न व्यतिरिक्तं स्यात् । एवं सति स्वयमेव सद्द्रव्यं भवति । यस्त्वेवं नेच्छति स खलु परसमय एव द्रष्टव्यः ॥६८
ति-वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन किया। जो यः सो सः - प्र० एक० । परसमओ परसमय:- प्र० एक० ] निरुवित्त--द्रवति द्रोप्यति अदुद्रुवत् पर्यायान् इति द्रव्यं । समास-स्वभावेन सिद्ध ं स्वभावसिद्ध ं ॥ १८ ॥ अब इस गाथामें बताया गया है कि न तो किसी द्रव्यके द्वारा अन्य द्रव्यका आरम्भ किया जा सकता है और न द्रव्यकी सत्ता उस द्रव्यसे भिन्न होती है ।
तथ्य प्रकाश - ( १ ) समस्त द्रव्य स्वभावसे सिद्ध हैं अतः किसी भी द्रव्यकी सत्ता अन्य द्रव्यसे नहीं होती । ( २ ) समस्त द्रव्य अनादिनिधन होनेसे स्वभावसिद्ध हैं । ( ३ ) अनादिनिधन तत्व अन्य साधनको अपेक्षा नहीं करता । ( ४ ) द्रव्यके द्वारा जो प्रारम्भ होता है वह पर्याय है । (५) द्रव्य और सत्त्व भिन्न नहीं है फिर सत्त्व के समवायसे द्रव्य सत् होता है इस कल्पनाका परिश्रम करना व्यर्थ है । (६) द्रव्य और सत्तामें प्रादेशिक भेद नहीं है कि द्रव्यके प्रदेश अलग हो और सत्वके प्रदेश अलग हों। (७) द्रव्य और सत्त्वमें मात्र प्रताद्भाविक भेद है, क्योंकि तद्भाव समझे बिना भाव व भाववानको समझ नहीं बन सकती । (८) पर्यायदृष्टि से द्रव्य और सत्त्वमें अतद्भावका भेद जगता है । (६) द्रव्यदृष्टिसे द्रव्य के देखने पर सद्भाव भेद भी विलीन हो जाता है । (१०) द्रव्य स्वयं ही सत् है ऐसा न मानने वाले जीव परसमय कहलाते हैं ।
सिद्धान्त --- ( १ ) द्रव्य प्रभेद स्वयमेव सत् है ।
दृष्टि - १ भेदकल्पनानिरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनय ( २३ ) |
प्रयोग — स्वद्रव्यको अन्य सब द्रव्योंसे विविक्त व अपने स्वरूपमात्र निरखना ॥८
अब उत्पाद-व्यय-श्रीन्यात्मक होनेपर भी 'सत् द्रव्य है' यह बतलाते हैं- [ स्वभावे ] स्वभाव में [अवस्थित ] अवस्थित [ द्रव्यं ] द्रव्य [सत्] 'सत्' है [हि] वास्तव में [ द्रव्यस्य ] tarai [यः ] जो [ स्थिति संभवनाशसंबद्धः ] उत्पादव्ययधीव्यसहित [ परिणामः ] परिणाम है [ : ] वह [ श्रर्थेषु स्वभावः ] पदार्थोंका स्वभाव है ।
तात्पर्य -- द्रव्य स्वभाव में अवस्थित है और उत्पादव्ययघ्रोव्ययुक्त है ।
टीकार्थ-यहाँ स्वभावमें नित्य अवस्थित होनेसे सत् यह द्रव्य है । स्वभाव द्रव्यका
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८५
प्रवचनसार -- सप्तदशाङ्गी टीका
प्रयोत्पादव्ययप्रौव्यात्मकत्वेऽपि सद्द्रव्यं भवतीति विभावयतिसदवहिदं सहावेदं दव्वं दव्वस्स जो हि परिणामो । त्थे सो सहावो ठिदिसंभवणाससंबद्धो ॥६६॥ स्वभावस्थ होनेसे द्रव्य कहा सत् व द्रव्यपरिणाम भि । हे अर्थका स्वभाव हि थितिसंभवनाश समवायी ॥ ६६ ॥ दवस्थित स्वभावे द्रव्यं द्रव्यस्य यो हि परिणामः । अर्थेषु स स्वभावः स्थिति संभवनाशसंबद्धः ॥ ६६ ॥ इह हि स्वभावे नित्यमवतिष्ठमानत्वात्सदिति द्रव्यम् । स्वभावस्तु द्रव्यस्य ध्रौव्योत्पादोच्छेदैक्यात्मक परिणामः । यत्र हि द्रव्यवास्तुनः सामस्त्येन कस्यापि विष्कम्भक्रमप्रवृत्तिवर्तिनः सूक्ष्मांशाः प्रदेशा:, तथैव हि द्रव्यवृत्तेः सामस्त्येनैकस्यापि प्रवाहक्रमप्रवृत्तिवर्तिनः सूक्ष्मांशाः परिणामाः । यथा च प्रदेशानां परस्परव्यतिरेकनिबन्धनो विष्कम्भक्रमः, तथा परिणामानां परस्परव्यतिरेकनिबन्धनः प्रवाह क्रमः । यथैव च ते प्रदेशाः स्वस्थाने स्वरूपपूर्वरूपाभ्यामुत्पन्नोच्छ
वात्सर्वत्र परस्परानुस्मृति सूत्रितक वास्तुतयानुत्पन्नप्रलीनत्वाच्च संभूतिसंहारप्रीव्यात्मकमा -स्मानं धारयन्ति तथैव ते परिणामाः स्वावसरे स्वरूपपूर्वरूपाभ्यामुत्पन्नोच्छन्नत्वात्सर्वत्र पर
33
नामसंज्ञ - सद्भवद्विद सहाव दव्य ज हि परिणाम अत्य त सहाय विदिसंभवणाससंबद्ध | धातु(अवट्ठा गतिनिवृत्तौ संबंध बंधने । प्रातिपदिक--- सत्अवस्थित स्वभाव द्रव्य यत् हि परिणाम अर्थ यत् स्वभाव स्थिति संभवनाशसंबद्ध । मूलधातु- अब प्ठा गतिनिवृत्ती, संबन्ध बन्धने । उभयपद विवरणश्रीव्य उत्पादविनाशको एकतास्वरूप परिणाम है । जैसे श्रखण्डतासे एक होनेपर भी द्रव्यवास्तुके विस्तारक्रममें प्रवर्तमान जो सूक्ष्म अंश हैं वे प्रदेश हैं, इसी प्रकार समग्रतया एक होनेपर भी द्रव्यवृत्तिके प्रवाहक्रममें प्रवर्तमान जो सूक्ष्म अंश हैं वे परिणाम हैं । जैसे विस्तारक्रम प्रदेशों के परस्पर व्यतिरेक के कारण है, उसी प्रकार प्रवाहक्रम परिणामोंके परस्पर व्यतिरेकके कारण है । जैसे वे प्रदेश अपने स्थान में स्वरूपसे उत्पन्न और पूर्वरूपसे विनष्ट होनेसे तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्यूति से रचित एकवास्तुतासे अनुत्पन्न - प्रविष्ट होनेसे उत्पत्ति संहारश्रीव्यात्मक अपनेको रखते हैं, उसी प्रकार के परिणाम अपने अवसर में स्वरूपसे उत्पन्न और पूर्वरूप सेविनष्ट होनेसे तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्युतसे रचित एकप्रवाहत्व से अनुत्पन्न - प्रविष्ट होने से उत्पत्ति-संहार प्रौव्यात्मक श्रपनेको रखते हैं । और जैसे वास्तुका जो ही छोटेसे छोटा अंश पूर्व प्रदेश के विनाशस्वरूप है वही ग्रंथ उसके बादके प्रदेशका उत्पाद स्वरूप है तथा वही परस्पर अनुस्यूति से रचित एक वास्तुत्व से अनुभय स्वरूप है, इसी प्रकार प्रवाहका जो प्रल्पाति अल्प अंश पूर्वपरिणामके विनाशस्वरूप है वही उसके बाद के परिणामके उत्पादस्वरूप है, तथा
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
Minimalistiathainismat.Aainmi-TAR..
MAjinstilliliye
R
.........M
thiriinfo.nittiniunaukinetishemamathailiary"womhwamam
..
१८६
सहजानन्दशास्त्रमालायां स्परानुस्यूतिसूत्रितकप्रवाहतयानुत्पन्न मलीनत्वाच्च संभूतिसंहारधोव्यात्मकमात्मानं धारयन्ति । यथैव च य एव हि पूर्वप्रदेशोच्छेदनात्मको वास्तुसीमान्तः स एव हि तदुत्तरोत्पादात्मकः, स एव च परस्परानुस्यूतिसूत्रितंकवास्तुतयातदुभयात्मक इति । तथैव य एव हि पूर्वपरिणामोच्छेदात्मक: प्रवाहसीमान्तः स एव हि तदुतरोत्पादात्मकः, स एव च परस्परानुस्युतिसुत्रित करवाहत्यातदुभयात्मक इति एवमस्य स्वभावत एव विलक्षणायां परिणामपद्धती दुर्ललितस्य स्व. भावानतिक्रमाविलक्षणमेव सत्त्वमनुमोदनीयम् मुक्ताफलदामवत् । यथैव हि परिगृहीतद्राघिम्नि प्रलम्बमाने मुक्ताफलदामनि समस्तेष्वपि स्वधामसूचकासत्सु मुक्ताफलेप्नुत्तरोत्तरेषु धामस्तरोत्तरमुक्ताफलानामुदयनात्पूर्वपूर्वमुक्ताफलानामनुदयनात् सर्वत्रापि परस्परानुम्यूतिसूत्रकस्य सूत्रकस्थावस्थानात्वलक्षण्यं प्रसिद्धिमवतरति, तथैव हि परिगृहीतनित्यवृत्तिनिवर्तमाने द्रव्ये समस्तेवपि स्वावसरेपूच्चकासत्सु परिणामेषत्तरोत्तरेष्व दसरे पुत्तरोत्तरपरिणामानामुदयनात्पूर्वपूर्वपरि. णामानामनुदयनात् सर्वत्रापि परस्परानुस्यूतिसूत्रकस्य प्रवाहयावस्थानात्त्रलक्षण्यं प्रसिद्धिमवतरति ।। ६६ 11 सत्अवद्विदं सत्अवस्थित दव्वं द्रव्यं परिणामो परिणामः सहाको स्वभावः टिदिसंभवणाससंबद्धो स्थितिसंभवनाशसंबद्ध:-प्रथमा एकवचन । सहाचे स्वभावे-सप्तमी एक० । दब्बरस द्रव्यस्य-षष्ठी एकः । अत्थे अर्थेषु-सप्तमी बहु० । सो सः-३० एक- । निरुक्ति ...अव समन्तात् स्थितं इति अवस्थितं. परिणमनं परिणामः, अर्यते गम्यते ज्ञायते यः सः अर्थः, सं भवनं संभवः 1 समास-स्थितिः संभवः नाशश्चेति स्थितिसंभवनाशा:तः संबद्धः इति स्थितिसंभवनाशसंबद्धः ।।६६|| वही परस्पर अनुस्यूतिसे रचित एकप्रवाहत्व से अनुभयस्वरूप है । इस प्रकार स्वभावसे ही त्रिलक्षण परिणामोंको परम्परामें प्रवर्तमान द्रव्य स्वभावका अतिक्रम नहीं करनेसे सत्त्वको मोतियोंके हारकी तरह विलक्षण ही अनुमोदित करना चाहिये । जैसे- लम्बाई ग्रहण को है जिसने ऐसे लटकते हुये मोतियोंके हारमें, अपने अपने स्थानों में प्रकाशित होते हुये समस्त मोतियोंमें, भागे आगेके स्थानोंमें आगे पागेके मोतियोंके प्रगट होनेसे पहले-पहलेके मोतियों के प्रगट नहीं होने से तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्यूतिका रचयिता सूत्र अवस्थित होनेसे विलक्षणत्व प्रसिद्धिको प्राप्त होता है । इसी प्रकार नित्यवृत्ति ग्रहण की है जिसने ऐसे रचित होते हुये द्रव्य में, अपने अपने अवसरोंमें प्रकट होते हुये समस्त परिणामोंमें उत्तरोत्तर अबसरोंपर उत्तरोत्तर परिणाम प्रगट होनेसे और पहले पहलेके परिणाम नहीं प्रगट होनेसे तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्यूति रचने वाला प्रवाह अवस्थित होनेसे त्रिलक्षणत्व प्रसिद्धिको प्राप्त होता है । :: प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि द्रव्योंके द्वारा द्रव्यान्तरका प्रारंभ नहीं होता और सत्ता द्रव्यसे पृथक् नहीं है। अब इस गाथामें बताया गया है कि
..
""
"""
2000000mnewspommentSANSARAS hinnamaskIAAAAmmmm.ante.inwwwvisill-AAAAvinata
W ATM ewats
Aswarademama
E
wwwwwwwww
0
000S
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
न
.
.
.
।
प्रवचनसार--सप्तदशाङ्गी टीका
१८७ प्रयोत्पादव्ययध्रौव्याणां परस्परविनामा दृढ़यति----
ण भवो भंगविहीमो भंगो वा णत्थि संभवविहीणो। उप्पादो वि य मंगो ण विणा धोव्वेण अत्थेण ॥१०॥ व्ययविहीन नहि संभव, व्यय भी संभवविहीन नहिं होता।
संभव व्यय नहि होते, धौध्य तथा अर्थतत्त्व बिना ॥१०॥ FOR न भवो भङ्गविहीनो भङ्गो वा नास्ति संभवविहीनः । उत्पादोऽपि च भङ्गो न विना ध्रौव्येणार्थेन ।।१०।। ... न खलु सर्गः संहारमन्तरेरण, न संहारो वा सर्गमन्तरेण, न सृष्टिसंहारौ स्थितिमन्तरेण, न स्थितिः सर्गसंहारमन्तरेशा । य एव हि सर्गः स एव संहारः, य एव संहारः स एव सर्गः, यावेव सर्गसंहारी सैव स्थितिः, येव स्थितिस्तावेव सर्गसंहाराविति । तथाहि-य एव कुम्भस्य सर्गः स एवं मृत्पिण्डस्य संहार:, भावस्य भावान्तराभावस्वभावेनाभासनात् । य एव च मृत्पि
नामसंज्ञ--ण भव भंगविहीण भंग वा ण संभवविहीण उप्पाद वि य भंग ण विणा धोव्य अत्थ । धातुसंज्ञ---अस सत्तायां । प्रातिपदिकः-- भव भाविहीन भङ्ग वा न संभवविहीन उत्पाद अपि च भङ्ग उत्पादव्ययधोव्यात्मकपना होने पर भी सत् द्रव्य है ।
तथ्यप्रकाश-(१) स्वभावमें नित्य रहने वाला सत् द्रव्य है । (२) उत्पादध्ययध्रौव्य का एकत्वस्वरूप परिणाम द्रव्यका स्वभाव है । (३) द्रव्यके प्रदेश विस्तारक्रममें जाने जाते हैं। (४) द्रव्यके पर्याय प्रवाहकममें जाने जाते हैं । (५) एक प्रदेशको सीमाका अन्त दूसरे
प्रदेशको सीमाको प्रादि है, द्रव्य वही एक है। (६) एक पर्यायका अन्त दुसरे पर्यायका । उत्पाद है, द्रव्य वही एक है । (७) द्रव्य सर्वदा उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक है।
सिद्धान्त-(१) द्रव्य सत्तासापेक्ष सतत उत्पादश्ययात्मक है। दृष्टि-१-- सत्तासापेक्ष नित्याशुद्धपर्यायाथिकनय (६०)।
प्रयोग---विकारपर्यायका व्यय होकर अविकार पर्यायका उत्पाद मुझमें हो सकता है ऐसी प्रेरणा उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकताके परिचयसे पाकर इस विकासके उपायमें ध्रुव चैतन्य स्वभावकी दृष्टि रखना ||६||
अब उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यके परस्पर अविनाभावको दृढ़ करते हैं-[भवः। उत्पाद [भङ्गविहीनः] व्ययसे रहित [न] नहीं होता, [वा] और [भङ्ग] व्यय [संभवविहीनः] उत्पादरहित [नास्ति] नहीं होता; [उत्पादः] उत्पाद [अपि च] तथा [भङ्गः] भंग [ध्रौव्येण अर्थेन विनाj ध्रौव्य पदार्थके बिना [न] नहीं होता।
तात्पर्य-वस्तुमें उत्पाद व्यय प्रौव्य परस्पर अविनाभावी है ।
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८८
सहजानन्दशास्त्रमालायां
PSIRIESivision
ण्डस्य संहारः, स एव कुम्भस्य सर्गः, अभावस्थ भावान्तरभावस्वभावेनावभासनात् । यो च कुम्भपिण्डयोः सर्गसंहारी संवमृत्तिकायाः स्थितिः, व्यतिरेकमुखेनैवान्वयस्य प्रकाशनात् । यैव च मृत्तिकायाः स्थितिस्तावेव कुम्भपिण्डयोः सर्गसंहारी, व्यतिरेकाणामन्वयानतिक्रमणात् । यदि पुनर्नेदमेवमिष्येत तदान्यः सर्गोऽन्यः संहारः अन्या स्थितिरित्यायाति । तथा सति हि केवलं न बिना प्रौव्य अर्थ । मूलधातु- अस् भुवि । उभयपदविवरण- न वा वि अघि विणा विना-अव्यय । भवो भवः भंगविहीणो गङ्गविहीन: भंगो भंगः संभवविहीणो संभवाविहीन: उप्पादो उत्पादः भंगो भगः--
टीकार्थ--वास्तवमें उत्पाद, व्यय के बिना नहीं होता और व्यय, उत्पादके बिना नहीं होता; उत्पाद और व्यय प्रीध्यके बिना नहीं होते, और प्रीव्य, उत्पाद तथा व्ययके बिना नहीं होता । जो उत्पाद है वही व्यय है, जो व्यय है वहीं उत्पाद है; जो उत्पाद और व्यय है वही ध्रौव्य है; जो ध्रौव्य है वही उत्पाद और व्यय है । स्पष्टोकरा--जो कुम्भका उत्पाद है वही मृत्पिण्ड का व्यय है; क्योंकि भावका भावान्तर के प्रभाव स्वभावसे अब भासन है । और जो मृत्पिण्डका व्यय है वहीं कुम्भका उत्पाद है, क्योंकि अभावका भावान्तरके भावस्वभावसे अव भासन है; और जो कुंभका उत्पाद और पिंडका व्यय है वहीं मृत्तिकाको स्थिति है, क्योंकि व्यतिरेकोंके द्वारा हो अन्वय प्रकाशित है । और जो मृत्तिकाकी स्थिति है वही कुम्भका उत्पाद और पिण्ड का व्यय है, क्योंकि व्यतिरेक अन्वयक! अतिक्रम नहीं करते । और फिर यदि ऐसा हो न माना जाय तो ऐसा सिद्ध होगा कि उत्पाद अन्य है, व्यय अन्य है, ध्रौव्य अन्य है । ऐसा होनेपर केवल उत्पाद खोजने वाले कुम्भकी उत्पत्तिके कारणका प्रभाव होनेसे उत्पत्ति हो नहीं होगी; अथवा असत्का ही उत्पाद होगा । और वहाँ, यदि कुम्भकी उत्पत्ति न होगी तो समस्त ही भावोंकी उत्पत्ति ही नहीं होगी । अथवा यदि असत्का उत्पाद हो तो आकाश पुष्प इत्यादि का भी उत्पाद होगा, और, केवल व्यूयारम्भक मृपिण्डका, व्ययके कारणका अभाव होनेसे व्यय ही नहीं होगा; अथवा सत्का ही उच्छेद होगा । वहाँ यदि मृपिण्ड का व्यय न होगा तो समस्त ही भावोंका व्यय ही न होगा, अथवा यदि सत्का उच्छेद होगा तो चैतन्य इत्यादिका भी उच्छेद हो जायगा, और केवल ध्रौव्य प्राप्त हो रही मृत्तिकाको, व्यतिरेक सहित स्थिति के अन्वयका अभाव होनेसे, स्थिति ही नहीं होगी; अथवा क्षणिकको ही नित्यत्व आ जायगा । वहाँ यदि मृत्तिकाका ध्रौव्यत्व न हो तो समस्त ही भावोंका ध्रौव्य ही नहीं होगा, अथवा यदि क्षणिकका नित्यत्व हो तो चित्तके क्षणिक भावोंका भी नित्यत्व हो बैठेगा । इस कारण उत्तर उत्तर व्यतिरेकोंको उत्पत्तिके साथ, पूर्व पूर्वके व्यतिरेकोंके संहारके साथ और अन्वयके अवस्थानके साथ अविनाभाव वाला द्रव्य अबाधित विलक्षातारूप चिह्न प्रकाशमान है जिसका ऐसा अवश्य सम्मत करना चाहिये।
/wwwwwwww
imagews16-hineglutatatant---
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
समस
प्रवचनसार--सप्तदशाङ्गी टीका
१८६ । सर्गः मृगयमारणस्य कुम्भस्योत्पादनकारणाभावादभवनिरेव भवेत्, प्रमदुत्पाद एव वा । तत्र कुम्भस्याभवनौ सर्वेषामेव भावानामभवनिरेव भवेत् । असदुत्पादे वा व्योमप्रसवादीनामप्युत्पादः स्यात् । तथा केवलं संहारमारभमाणस्य मृत्पिण्डस्य संहारकारणाभावादसहरगिरेव भवेत, सदुच्छेद एव वा। तत्र मृतिगण्डस्यासंहरणौ सर्वेषामेव भावानामसंहरगिरेव भवेत् । सदुच्छेदे वा संविदादीनामप्युच्छेदः स्यात् । तथा देवला स्थितिमुपगच्छत्या मृत्तिकाया व्यतिकाक्रान्तस्थित्यन्वयाभावादस्थानिरेव भवेत्, क्षणिकनित्यत्वमेव वा । तत्र मृत्तिकाया प्रस्थानी सर्वेषामेव भावान मस्थानिरेत्र भवेत् । क्षणिकनित्यत्वे वा चित्तक्षणानामपि नित्यत्वं स्यात् । तत उत्तरोत्तरव्यतिरेकाणां सर्गरंग पूर्वपूर्वव्यतिरेकाणां संहारेगाव यस्यवस्थादेनाविनाभूतमुद्योतमाननिविधनलक्षण्यलाञ्छनं द्रव्यमवश्यमनुमन्तव्यम् 11१००। "प्रयमा एकवचन । धौव्वेण ध्रौव्येन अत्थेण अर्थेन-तृतीया एका० । निरुक्ति... भवनं भवः, भंजनं भंगः (भंजो आमर्दने) । समास-(भंगेन विहीन: भंगविहीनः संभवेन विहीनः संभवविहीनः वि०॥
प्रसंगविवरण- अनंतरपूर्व गाथामें बताया गया था कि उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकत्व होनेपर भी सत् द्रव्य होता है । अब इस गाथामें उत्पादव्ययध्रौव्योंका परस्पर अविनाभावको दृढ़ किया गया है।
तथ्यप्रकाश-(१) नवीन पर्यायका उत्पाद पूर्वपर्याय के विनाश बिना नहीं हो सकता है। (२) पूर्व पर्यायका विनाश नवीन पर्यायके उत्पाद बिना नहीं हो सकता। (३) उत्पाद और विनाश ध्रौव्य हुए विना संभव नहीं। (४) नौव्य रहना उत्पाद व विनाशके बिना संभव नहीं । (५) जो ही नवीन पर्यायका उत्पाद है वही पूर्वपर्यायका विनाश है क्योंकि भाव भावान्तरके प्रभावस्वरूप होता है । (६) जो ही पूर्व पर्याय का विनाश है वही नवीन पर्याय का उत्पाद है, क्योंकि अभाव अन्य भावके सद्भावरूप होता है । (७) जो ही पूर्वोत्तर पर्याय का विनाश उत्पाद है वही ध्रौव्य है, क्योंकि इन भिन्नोंमें अन्वयका देखना होता है । (क) जो ही ध्रौव्य है वही उत्पाद विनाश है, क्योंकि ये भेद अन्वयका अतिक्रम नहीं करते । (8) द्रव्य उत्पाद व्ययका अविनाभूत होता है।
सिद्धान्त-(१) द्रव्य उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त है । दृष्टि-१- उत्पादध्ययसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२५) ।
प्रयोग-संसारपर्यायका व्यय, सिद्धपर्यायका उत्पाद व अपने स्वभावका ध्रौव्य वाली EM स्थितिकी प्रतीक्षा करना ।।१०।।
अब उत्पादादिकोंके द्रव्यसे अर्थान्तरपनेको नष्ट करते हैं- [उत्पादस्थितिभङ्गाः]
BEEEEEEEEEEEEEEEEEEजान
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९०
सहजानन्दशास्त्रमालायां अयोत्पादादीनां द्रव्यादर्थान्तरत्वं संहरति----
उप्पादहिदिभंगा विज्जते पजएसु पज्जाया । दव्वे हि संति णियदं तम्हा दव्यं वदि सव्वं ।।१०१॥ ध्रौव्य उत्पाद व्यय हैं, पर्यायोंमें व वे भि पर्यायें ।
है नियत द्रव्यमें इस कारण सब द्रव्य हो होता ॥१०१॥ उत्पादस्थितिभंगा विद्यन्ते पर्यायेषु पर्यायाः । द्रव्ये हि सन्ति नियतं तस्माद्रव्यं भवति सर्वम् ।। १०१।।
उत्पादच्ययनौव्याणि हि पर्यायानालम्बन्ते, ते पुनः पर्यादा द्रव्यमालम्बन्ते । ततः समस्तमप्येतदेकमेव द्रव्यं न पुनद्रव्यान्तरम् । द्रव्यं हि तावत्पर्याय रालम्च्यते । समुदायिनः समुदायात्मकत्वात् पादपवत् । यथा हिं समुदायो पादप: स्कन्धमूलशाल समुदायात्मकः स्कन्धमूलशाखाभिरालम्बित एवं प्रतिभाति, तथा समूदायि द्रव्यं पर्यायसमदायात्मक पर्यायैरालम्बितमेव
IWA
A
RHIFirmmmmmmsm
' नामसंज्ञ-उप्पाददिदिभंग पज्जय दवहिणियदं त दव्व सव्च । धातुसंज्ञ-बिज्ज सत्तायां, हव अस् सत्तायां । प्रातिपदिक-उत्पाद स्थितिभंग पर्याय द्रव्य हि नियत तत् द्रव्य सर्व । मूलधातु-विद सजायां, अस् भुवि । उभयपदविवरण-उत्पादट्टिदिसंगा उत्पादस्थितिभंगा: पज्जाया पर्याया:-प्रथमा बहु । बिज्जते विद्यन्ते–वर्तमान अन्य पुरुष बहु त्रिया । पज्जएर पथविधु-सप्तमी बहु० । दध्वे द्रव्येउत्पाद, ध्रौव्य और व्यय [पर्यायेषु] पर्यायोंमें [विद्यन्ते] वर्तते हैं; [पर्यायाः] पर्याय नियत] नियमसे [द्रव्ये हि सन्ति] द्रव्यमें होती हैं [तस्मात् ] इस कारण [सर्व] वह सब [द्रव्यं भवति] द्रव्य हैं।
तात्पर्य---उत्पाद व्यय ध्रौव्यके प्राश्यभूत अंश द्रव्यमें हो होनेसे वे तीनों द्रव्यरूप
a rAIRMIRRRRRRHETERMERRHKKiskinnnniliwownlHAIMNIMAmimitemistandituntaintintawaniMinimuslional
टोकार्थ----उत्पाद, व्यय और प्रौव्य वास्तवमें पर्यायोंको पालम्बते हैं, पौर वे पर्याय द्रव्यको पालम्बते हैं, इस कारण यह सब एक ही द्रव्य है, द्रव्यांतर नहीं । द्रव्य लो पर्यायोंके द्वारा प्रालम्बित हो रहा है, क्योंकि वृक्षकी तरह समुदायो समुदायस्वरूप होता है। जैसे समु. दायी वृक्ष स्कंध, मूल और शाखाओंका समुदायस्वरूप होनेसे स्कंध, मूल और शाखाओंसे प्रा. लम्बित ही दिखाई देता है, इसी प्रकार समुदायो द्रव्य पर्यायोंका समुदायस्वरूप होनेसे पर्यायों के द्वारा प्रालम्बित ही भासित होता है । और पर्यायें उत्पादव्ययध्रौव्य के द्वारा मालम्बित हैं, क्योंकि उत्पादव्य यध्रौव्य अंशोंके धर्म हैं; बीज, अंकुर और वृक्षत्वकी भांति 1 जैसे अंशी वृक्षके बीज अंकुर वृक्षत्वस्वरूप तीन अंश, व्यय-उत्पाद ध्रौव्यस्वरूप निज धर्मोंसे प्रालम्बित एक साथ ही विदित होते हैं, उसी प्रकार अंशी द्रव्यके नष्ट होता हा भाव, उत्पन्न होता हुना भाव
ESSAGE
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
33coms
प्रवचनसार-सप्तदशाको टीका
१६१ र प्रतिभाति । पर्यायास्तूत्पादव्ययम्रोव्यरालम्ब्यन्ते उत्पादध्यरध्रौव्याणामंशधर्मत्वात् बीजांकुरपादपत्ववत् । यथा किलाशिनः पादपस्य बीजांकुरपादपत्वलक्षणास्त्रयोंऽशा भंगोत्पाद ध्रौव्यलक्षगरात्मधमैरालम्बिता: सममेव प्रतिभान्ति, तथाशिनो द्रव्यस्योच्छिद्यमानोत्पद्यमानावतिष्ठमानभावलक्षणास्त्रयोऽशा भङ्गोत्पादनीव्यलक्षरगरात्मधर्म रालम्बिता: सममेव प्रतिभान्ति । यदि पुनर्भङ्गोत्पादनोव्याणि द्रव्यस्यवेष्यन्ते तदा समग्रमेव विप्लबते । तथाहि भंगे तावत् क्षणभङ्गकटाक्षितानामेकक्षण एव सर्व द्रव्याणां संहरणाद्रव्य शून्यतावतारः सदुच्छेदो वा । उत्पादे तु प्रतिसमयोत्पादमुद्रिताना प्रत्येक द्रव्यारामानन्त्यमसदुत्पादो वा । नीव्ये तु क्रमभुवां भावानामभावाद्रव्यस्याभावः क्षणिकत्वं वा । अत उत्पादव्ययध्रीन्यैरालम्ब्यता पर्यायाः पर्यायश्च द्रव्यमालम्व्यतां, येन समस्लमप्येतदेकमेव द्रव्यं भवति ।।१०१॥ सप्तमी एक० हि णियद नियतं-अव्यय । संति सन्ति--व० अ० ब० किया । तम्हा तस्मात्-पंचमी एकः । दव द्रव्यं सव्वं सर्वप्रथमा एक० । हवदि भवति-व० अ० एक क्रिया | निशक्ति-स्थानं स्थितिः, भंजन भगः समास-उत्पादः स्थितिः भगश्चेति उत्पादस्थितिभंगाः ||१०॥
।
Panduranesewwwkomast
ASSIS
FRE
और अवस्थित रहने वाला भाव;-ये तीनों अंश व्यय-उत्पाद नोव्यस्वरूप निजधर्मों के द्वारा प्रालम्बित एक साथ ही भासित होते हैं । यदि व्यय, उत्पाद और श्रीब्यको (अंशोंका न मानकर) द्रव्यका हो माना जाय तो सारी गड़बड़ी हो जायगी । जैसे—(१) सचमुच यदि व्यय द्रव्यका ही माना जाय तो क्षणभंगसे लक्षित समस्त द्रव्यों का एक क्षणमें ही व्यय हो जानेसे द्रव्यशून्यता आ जायगी, अथवा सत्का उच्छेद हो जायगा । (२) यदि उत्पाद द्रव्यका माना जाय तो समय-समयपर होने वाले उत्पादके द्वारा चिह्नित द्रव्यों को प्रत्येकको अनन्तता प्रा जायगी अथवा असत्का उत्पाद हो जायगा; (३) यदि ध्रौव्य द्रध्यको हो माना जाय तो क्रमशः होने वाले भावोंके अभावके कारण द्रव्यका अभाव हो जायगा, अथवा क्षणिकत्व आ जायगा । इस कारण उत्पाद-व्यय-प्रोन्यके द्वारा पर्याय प्रालम्बित हों, और पर्यायोंके द्वारा द्रव्य पालम्बित हो, क्योंकि वह सब भी यह एक ही द्रव्य है ।
- प्रसंगविवरण--अनन्तरपूर्व गाथामें उत्पादव्ययभ्रीव्योंका परस्पर अविनाभाव दृढ़ । किया गया था । अब इस गाथामें उत्पादादिकोंकी द्रव्यसे अभिन्नता बताई गई है। । तथ्यप्रकाश--(१) उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य पर्यायोंसे बालम्बित हैं । (२) पर्यायें सब द्रव्य के प्राश्रय हैं । (३) उत्पादव्ययध्रौव्य समस्त ही यह एक द्रव्य है द्रव्यान्तर (अन्य अन्य द्रव्य) नहीं है । (४) पर्यायसमुदायात्मक द्रव्य पर्यायोंसे प्रालम्बित है, क्योंकि समुदायी सम. । दायात्मक होता है। (५) पर्याय उत्पाद व्यय प्रौव्यसे आलम्बित हैं, क्योंकि उत्पाद व्यय
SELERSHASS
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९२
सहजानन्दशास्त्रमालायां प्रथोत्पादादीनां क्षणभेदमुदस्य द्रव्यत्वं द्योतयति----
समवेदं खलु दव्वं संभवठिदिणाससण्णिदट्टे हिं । एकम्मि चेव समये तम्हा दब्बं खु तत्तिदयं ॥१०२॥ संभवथितिव्ययसंज्ञित, अर्थोसे रहे द्रव्य समवायो ।
सो एक ही समयमें, तत्त्रितयात्मक हि द्रव्य हुआ ॥१०२।। समवेत खलु द्रध्यं संभवस्थितिनाथसंज्ञितार्थः । एकस्मिन चैव समये तस्माद्रव्य खलु तत्रितयम् ।।१०२॥
इह हि यो नाम वस्तुनो जन्मक्षरणः स जन्मनंब व्यासत्यात् स्थितिक्षणो नाशक्षणश्च न भवति । यश्च स्थितिक्षणः स खलुभयोरन्तरालदुर्ललितत्वाजन्मक्षणो नाशक्षणश्च न भवति ।
नामसंज्ञ---समवेद खलु दव संभवठिविणाससणिण दट्ट एक्क च एव समय त दच खु तत्तिदय । धातुसंज्ञ-सम् अव इ गती, संमा अवबोधने । प्रातिपदिक समवेत खलु द्रव्य संभवस्थितिनाशसंज्ञितार्थ ध्रौव्य अंश धर्मरूप हैं । (६) उत्पाद पर्यायोंमें है. यदि उत्पाद द्रव्यका ही माना जावे तो प्रत्येक उत्पाद द्रव्य बन जायगा तथा असतका उत्पाद हो जायगा । (७) व्यय पर्यायाश्रय है, यदि व्यय द्रव्यका माना जावे तो सब शून्य हो जायगा । (८) ध्रौव्य पर्यायोंके श्राश्रय है, यदि ध्रौव्य द्रव्यका ही माना जावे तो क्रमभावी पर्यायोंका अभाव होनेसे द्रव्यका भी प्रभाव हो जायगा । (6) उत्पाद व्यय प्रौव्योंके द्वारा पर्याय प्रालम्बित हैं । (१०) पर्यायोंके द्वारा द्रध्य प्रालम्बित है । (११) उत्पाद व्यय ध्रौव्य पर्याय सभी यह एक द्रव्य हो है ।
सिद्धान्त - (१) द्रव्य उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त है । (२) उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक सत् प्रखण्ड द्रव्य है।
दृष्टि---१-- उत्पादव्ययसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकन य (२५) । २-- भेदकल्पनानिरपेक्ष शुद्ध द्रव्याधिकनय (२३) ।
प्रयोग...उत्पाद व्यय ध्रौव्य अंश धर्मोसे प्रात्मद्रव्यको पहिचानकर सर्व भेद कल्पनायें तजकर अपनेको चैतन्यस्वभावमात्र अनुभवना ॥१०१॥
___ अब उत्पादादिका क्षणभेद निराकृत करके उनका द्रव्यपना द्योतित करते हैं-द्रव्यं] द्रव्य [एकस्मिन् च एव समये एक हो समयमें [संभवस्थितिनाशसंज्ञितार्थः] उत्पाद, ध्रौव्य
और व्यय नामक अर्थोके साथ [खलु] निश्चयत: [समवेतं] एकमेक है; [तस्मात् ] इसलिये [तत् त्रितयं] यह तीनोंका समुदाय [खलु] वास्तवमें [द्रव्यं] द्रव्य है।
तात्पर्य-द्रव्य उत्पादव्ययध्रौव्यमय है, अतः वह त्रितय द्रव्यरूप ही है । टीकार्थ- प्रश्न–विश्व में वस्तुका जो जन्मक्षरण है वह जन्मसे ही व्याप्त होनेसे
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
Ammommmmmmmm
.
प्रवचनसार ....सप्तदशाङ्गी टीका यश्च नाशक्षणः स तत्पद्यावस्थाय च नश्यतो जन्मक्षण: स्थितिक्षणश्च न भवति । इत्युत्पादा. दीनी वितर्यमाणः क्षणभेदो हृदयभूमिमक्तरति । अवतरत्येवं यदि द्रव्यमात्मनेवोत्पद्यते प्रात्मनेवावतिष्ठते अात्मनैव नश्यतीत्यभ्युपगम्यते । तत्तु नाभ्युपगतम् । पर्यायाणामेवोत्पादादयः कुतः क्षणभेदः । तथाहि-यथा कुलालदण्डचक्र'चीवरारोप्यमाणसंस्कारसन्निधौ य एव वर्धमानस्य एक च एव समय तत् द्रव्य खलु तत्त्रितय । मूलधातु- सम् अब इण गती, संज्ञा अववोधने । उभयपदवि. वरण- रामबेदं समवेतं दत्वं व्यं तत्तिदयं तस्त्रितयं-प्रथमा एक खू खलू च एव अध्यय । सं' णाससपिणद? हि संभवस्थितिनाशसंज्ञितार्थ:-तृतीया बहु० । एक्वाम्हि एकस्मिन् समये-सप्लगी एक । स्थितिक्षण और नाशक्षण नहीं है, वस्तुका जो स्थितिक्षरण है वह वास्तव में दोनोंके अन्तराल में अर्थात् उत्पादक्षण और नाशक्षणके बीच दृढ़तया रहता है, इस कारण ध्रौव्य जन्मक्षण और नाशक्षण नहीं है; और जो नाशक्षण है वह, उत्पन्न होकर और स्थिर रहकर नष्ट हो
रहे वस्तुका जन्मक्षण और स्थितिक्षगा नहीं है। इस प्रकार उत्पादादिकोंका तर्कपूर्वक विचार । किया जा रहा क्षणभेद हृदयभूमिमें अवतरित होता है ? उत्तर-~--उत्पादादिका क्षणभेद चित्त में भी उतरता है जब यह माना जाय कि 'द्रव्य स्वयं ही उत्पन्न होता है, स्वयं ही ध्रुव रहता है और स्वयं ही नाशको प्राप्त होता है । किन्तु ऐसा तो माना नहीं गया है। पर्यायोंके हो उत्पादादि हैं; फिर वहां क्षणभेद कहांसे हो सकता है ? स्पष्टीकरण - जैसे कुम्हार, दण्ड, चक्र और चीवरसे पारोपित किये जाने वाले संस्कारकी उपस्थितिमें जो कलशका जन्मक्षा होता है वही मृत्पिण्डका नाशक्षण होता है, और वही दोनों कोटियोंमें रहने वाला मृत्तिकात्व का स्थितिक्षण होता है; इसी प्रकार अन्तरंग और बहिरंग साधनोंसे आरोपित किये जाने वाले संस्कारोंको उपस्थितिमें, जो उत्तरपर्यायका जन्मक्षण होता है वही पूर्व पर्यायका नाशक्षण, होता है, और वही दोनों कोटियों में रहने वाले द्रव्यत्वका स्थितिक्षण होता है । और जैसे कलशमें, मृत्तिकापिण्डमें और मृत्तिकात्वमें उत्पाद, व्यय और धोव्य एक एकमें वर्तते हुये भी निस्वभावस्पर्शी मृत्तिकामें वे सम्पूर्णतया एक समय में हो देखे जाते हैं; इसी प्रकार उत्तर पर्यायमें, पूर्व पर्याय में और द्रव्यत्वमें उत्पाद, व्यय और धौल्य एक एकमें प्रवर्तमान होनेपर भी त्रिस्वभावस्पर्शी द्रव्यमें वे सम्पूर्णतया एक समय में ही देखे जाते हैं। और जैसे कलश, मृत्तिकापिण्ड तथा मृतिकात्वमें प्रवर्तमान उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य मिट्टी ही हैं, अन्य वस्तु
नहीं; उसी प्रकार उत्तर पर्याय, पूर्व पर्याय और द्रव्यत्वमें प्रवर्तमान उत्पाद, व्यय और भोन्य । द्रव्य ही हैं, अन्य पदार्थ नहीं ।
प्रसंगविवरण-अनंतरपूर्व गाथामें उत्पाद प्रादिकोंको द्रव्यसे भिन्नताका निराकरण
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
:
यूक्र
१९४
सहजानन्दशास्त्रमालायां
जन्मक्षरण: स एव मृत्पिण्डस्य नाशक्षणः स एव च कोटिद्वयाविरूद्स्य मृत्तिकात्वस्य स्थितिक्षण: । तथा अन्तरङ्गबहिरङ्गसाधनारोप्यमाण संस्कारसन्निधी य एवोत्तरपर्यायस्य जन्मक्षणः स एव प्राक्तन पर्यायस्य नाशक्षरणः स एव च कोटिद्वयाधिरूढस्य द्रव्यत्वस्य स्थितिक्षणः । यथा वर्धमानमृडमृत्तिकात्वेषु प्रत्येकवर्तीत्यप्युत्पादव्ययश्रीव्या रिण त्रिस्वभावस्पशिन्यां मृत्तिकायां सामस्त्येनैकसमयएवावलोक्यन्ते तथा उत्तरप्राक्तन पर्यायद्रव्यत्वेषु प्रत्येकवर्तीन्यप्युत्पादव्ययीव्याणि त्रिस्वभावस्पर्शिनि द्रव्ये सामस्त्येनंकसमय एवावलोक्यन्ते । यथैव च वर्धमानपिण्डमृत्तिकाल्व वर्तीन्युत्पादव्ययश्रीव्याणि मृत्तिचैव न वस्त्वन्तरं तथैवोसरप्राक्तन पर्यायद्रव्यत्ववर्तीन्यप्युत्पादव्ययीव्याणि द्रव्यमेव न खल्वर्थान्तरम् ।। १०२ ।।
1
तम्हा तस्मात् - पंचमी एक० निरुक्ति-सम् अब ऐतु इति समवेतवान् कर्मवाच्ये समवेतं । समास- संभव: स्थितिः नाशश्च इति संभवस्थितिनाशाः तैः संशिताः संभवस्थितिनाशसंज्ञितः स्थिति संभवनाशसंज्ञितारच ते अर्थाः इति संभवस्थितिनाशसंज्ञितार्थाः । १०२ ।।
किया गया था। अब इस गाथा में उत्पाद आदिकोंका क्षणभेद निराकृत करके द्रव्यपना प्रकट किया गया है।
तथ्यप्रकाश - ( १ ) वस्तुका जन्मक्षण जुदा है, नाशक्षण जुदा है व स्थितिक्षण जुदा हैं ऐसी शंका नहीं करना चाहिये, क्योंकि जन्म नाश श्रीव्य द्रव्यका नहीं देखा जाता, किन्तु. पर्यायोंमें देखा जाता है । (२) अन्तरङ्ग बहिरङ्ग साधनपर हुए संस्कारको सन्निधिमें जो हो उत्तरपर्यायका उत्तरक्षण है वही पूर्व पर्यायका नाश क्षण है और वही दोनों कोटि में अधिरूढ़ द्रव्यपनेका स्थितिक्षरण है । ( ३ ) द्रव्य में उत्पाद व्यय धीव्य एक समय में हो देखे जाते हैं । (४) उत्तरपर्यायवर्ती उत्पाद पूर्वपर्यायवर्ती विनाश द्रव्यत्ववर्ती प्रोव्य एक द्रव्य हो है अन्य अन्य नहीं ।
..
सिद्धान्त - ( १ ) द्रव्य उत्पादव्ययनौव्यात्मक होनेसे त्रिलक्षण सत्तामय है । दृष्टि - १ - उत्पादव्ययसापेक्ष श्रशुद्ध द्रव्यार्थिकनय ( २५ ) ।
प्रयोग --- मिथ्यात्व पर्यायका व्यय होता हुम्रा मुझमें सम्यवत्व पर्याय होगा, प्रज्ञान पर्यायका व्यय होता हुआ मुझमें केवलज्ञान पर्याय होगा, उस सब विकासका उपाय सहज ज्ञानस्वभाव अन्तस्तत्वमें आत्मत्वका अनुभवन है यह तथ्य जानकर निज सहज ज्ञानदर्शनसामान्यात्मक चैतन्यस्वभाव में प्रात्मत्व अनुभवना ॥१०२॥
BALLELL
द्रव्यके उत्पाद व्यय श्रीव्यको अनेक द्रव्यपर्यायके द्वारा विचारते हैं [ द्रव्यस्य ] प्रव्यका [ अन्यः पर्यायः ] अन्य पर्याय तो [प्रादुर्भवति ] उत्पन्न होता है [च] और [ अन्य:
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
00000000MIND
-
मा
प्रवचनसार-सप्नदाङ्गो टीका
१६५ प्रय द्रव्यत्योत्पादव्ययध्रौव्याण्यनेकद्रव्यपर्यायद्वारेण चिन्तयति
पाडुब्भवदि य अण्णो पजाओ पजयो वयदि अण्णो । दब्बस्स तं पि दव्वं गोव पणा उप्पण्णा ॥ १०३ ॥
द्रव्यको अन्य परिणति, उपजे अरु अन्य परिणती बिनशे ।
द्रव्य वही का वह है, वह नहि उत्पन्न नष्ट हुपा ॥ १०३ ॥ प्रादर्भवति चान्यः पर्यायः पर्यायो व्येति अन्यः । द्रव्यय भषि द्रव्यं नैव प्रणष्टं नोत्पन्नम् ।। १०३ ।।
इह हि यया किलैकस्पगुकः समान जातीयोऽनेकद्रव्यपर्यायोविनश्यत्य न्यश्चतुराक: प्रजायते ते तु अयश्चत्वारो वा पुद्गला अविनष्टानुत्पन्ना एवावतिष्ठन्ते । तथा सर्वेऽपि समान
नामसंज- अण पज्जाअ पज्जब अण दम्ब पि देवश एवं पणट्रण उप्पण। धातसंच-पा आ.दुर भव सत्तायां, व्वय गती । प्रातिपदिक-अन्य पी पयंश अन्य द्रव्य अपि तत् द्रव्य न एव प्रनटन उत्पन्न । मूलधातु-व्यय मतौं । उभयपदविवरण–पाइभवति प्रादुर्भवति बयदि व्यकि--वर्तमान अत्य पुरुष एकवचन क्रिया । य च पि अपने-अध्यय । अमनो अन्यः पज्जाओ पर्यायः पज्जओ एपिः] कोई अन्य पर्याय [ध्येति नष्ट होता है: [तदपि फिर भी [द्रव्यं ] द्रव्य [प्रगष्टं म एवान तो नष्ट होता है, [उत्पन्न न] और न उत्पन्न होता है ।।
तात्पर्य-द्रव्यके पर्याय उत्पन्न व नष्ट होते हैं, द्रव्य उत्पन्न, नष्ट नहीं होता ।
टीकार्य-विश्वमें जैसे एक त्रि-अणुक समान जातीय अनेक द्रव्यपर्याय विनष्ट होती है और दूसरा चतुरणुक (समानजातीय अनेक द्रव्यपर्याय) उत्पन्न होता है; परन्तु वे तीन या चार पुद्गल परमाणु तो अविनष्ट और अनुत्पन्न हो रहते हैं । इसी प्रकार सभी समान जातोय नत्यपर्याय विनष्ट होते हैं और उत्पन्न होते हैं, किन्तु समानजातीय द्रव्य तो अविनष्ट और अनुत्पान ही रहते हैं । और, जैसे एक मनुष्यत्वस्वरूप असमानजातीय द्रव्य-पर्याय विनष्ट होता है और दूसरा देवत्वस्वरूप (असमानजातीय द्रव्यपर्याय) उत्पन्न होता है, परन्तु वह जीव और पुद्गल तो अविनष्ट और अनुत्पन्न ही रहता है, इसी प्रकार सभी असमानजातीय द्रव्य. पर्याय विनष्ट हो जाती हैं और उत्पन्न होती हैं, परन्तु असमान भातीय द्रव्य तो अविनष्ट और अनुत्पन्न ही रहते हैं। इस प्रकार स्वद्रव्यत्वसे ध्र व और द्रव्यपर्यायों द्वारा उत्पाद-व्ययरूप हुए द्रव्य उत्पाद व्यय-धोव्य हैं। /
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथा में उत्पादादिका क्षणभेद निराकृत करके द्रव्यत्व मट किया गया था। अब इस गाथामें अनेकद्रव्यपर्यायरूपसे द्रव्यके उत्पाद व्यय ध्रौव्योंका विहार किया गया है।
26
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
A NDIMBes
-
MAHARARIANDER
marathe
...........................
.....
सहजायन्दशास्त्रमालायां जातीया पर्याया विनश्यन्ति प्रजायन्ते च । समानजातीनि द्रव्याणि त्वविनष्टानुत्पन्नान्येवावतिष्ठन्ते । यथा चको मनुष्यत्वलक्षागोऽसमान जातीयो द्रव्यपर्यायो विनश्यत्यन्यस्त्रिदशत्वलक्षणः प्रजायते नौ च जीवपुद्गलौ अविनष्टानुत्पन्नावेवावतिष्ठते, तथा सर्वेऽप्यसमाननातीया द्रव्य पर्याया विनध्यन्ति प्रजायन्ते च असमान जातीनि द्रव्यारिण त्वविनष्टानुत्पन्नान्येवावलिष्ठन्ते । एवमात्मना ध्र वाणि द्रव्यपर्यायद्वारेगोत्पादव्ययीभूतान्युत्पादव्ययध्रौव्याणि द्रव्याणि भवन्ति
m......
.
.diximediaefiniwww
BRAND
दव द्रव्य-प्रथमा एकवचन । दव्वस्स द्रव्यस्य-षष्ठी एव० । तं तत-प्र० एक. पण प्रणष्टं उप्पणं उत्पन्न-पथमा एकवचन कृदन्त क्रिया । निरुक्ति-परि अयनं पर्यायःप्रवाण नष्टं प्रणष्टं।।१०३ ॥
तथ्यप्रकाश-(१) तोन अरगु वाला आदि समानजातीय अनेक द्रव्य पर्याय नष्ट होता है, चार अरगु वाला पादि समान जातीय पर्याय उत्पन्न होता है वहां वे अणु द्रव्य तो न ना होते न उत्पन्न होते, अवस्थित ही हैं । (२) मनुष्यरूप आदि असमान जातीय द्रव्यपर्याय नष्ट होता है, देव रूप आदि असमानजातीय द्रव्यपर्याय उत्पन्न होता है, वहां वे जीव और पुद्गल द्रव्य न नष्ट होते, न उत्पन्न होते, अवस्थित ही हैं । (३) अपने द्रव्यपनेसे ध्रुव और द्रव्य. पर्यायसे उत्पाद व्ययरूप द्रव्य ही उत्पादव्ययध्रौव्य हैं।
सिद्धान्त --- {१) द्रव्य सदा अवस्थित रहकर द्रध्यपर्यायरूपसे भो उत्पादव्यय करता
दृष्टि- १- सत्तासापेक्ष नित्य अशुद्ध पर्यायाथिकनय (३८) ।
प्रयोग—अनेक द्रव्यपर्यायरूपसे अपना उत्पाद होना कलंक है यह जानकर उस कलंकी से हटने के लिये प्रकलङ्क प्रात्मस्वभावमें आत्मत्व अनुभवना ॥ १०३ ॥
अब अन्यके उत्पाद व्यय ध्रौव्योंको एक द्रव्य पर्यायके द्वारा विचारते हैं.[सदविशिटं] स्वरूपास्तित्वसे अभिन्न [द्रव्यं स्वयं] द्रव्य स्वयं ही [गुरगतः गुरशान्तरं] गुणसे गुणान्तर रूप [परिणमते] परिणमित होता है, [तस्मात् च पुनः] इस कारणसे ही तब [गुणपर्याया: गुरणपर्याय [द्रव्यम् एव इति भरिंगताः] द्रव्य ही हैं इस प्रकार कहे गये हैं।
___ तात्पर्य-अपने स्वरूपास्तित्वसे अभिन्न द्रव्य गुणसे गुणान्तररूप परिणमता है सो के गुणपर्यायें द्रव्य ही हैं।
टीका.....गुणपर्यायें एक द्रव्यकी ही पर्याय हैं, क्योंकि गुणपर्यायोंको एकद्रव्यत्व है, उनका एक द्रव्यत्व पाम्रफलकी तरह है । जैसे--स्वयं ही हरित भावसे पीतभावरूप परिणमित होता हुआ, प्रथम और पश्चात् प्रवर्तमान हरितभाव और पीतभावके पूर्वोत्तर गुणपर्यायों
MAITH7"m -
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
ae aourteoraaruघ्रौव्याण्येकद्रव्यपर्यायद्वारेण चिन्तयतिपरिणमदि सयं दव्वं गुणदो य गुणतरं सदविसिद्धं । तम्हा गुगपज्जाया भणिया पुरा दव्वमेव त्ति ||१०४ ॥ द्रव्य स्वयं परिणमता, गुणसे गुणांतर तदपि सत् वह हो । इससे गुरण पर्यायें, सकल उसी द्रव्यरूप कही ॥ १०४ ॥ परिणमति स्वयं द्रव्यगुणतश्च गुणान्तरं सदविशिष्टम् । तस्माद् गुणपर्याय भणिताः पुनः द्रव्यमेवेति ॥ १०४ ॥ एकद्रव्यपर्याया हि गुणपर्यायाः, गुणपर्यायाणामेकद्रव्यत्वात् । एकद्रव्यत्वं हि तेषां सहकारफलवत् । यथा किल सहकारफलं स्वयमेव हरितभावात् पाण्डुभावं परिणमत्पूर्वोतर प्रवृत्त
૨૭
पाण्डुभावाभ्यामनुभूतात्मसत्ता हरितपाण्डुभावाभ्यां सममविशिष्टसत्ता कतयैकमेव वस्तु न वस्त्वन्तरं तथा द्रव्यं स्वयमेव पूर्वावस्थावस्थित गुण । दुत्तरावस्थावस्थितगुणं परिणमत्पूर्वोत्तरावस्यावस्थितगुणाभ्यां ताभ्यामनुभूतात्मसत्ताकं पूर्वोत्तरावस्थावस्थितगुणाभ्यां सममविशिष्टसत्ता
नामसंज्ञ - सयं दव्य गुणदोय गुणंतर सदवस त गुणपाय शणिय पुर्ण दव्व एव त्ति । धातुसंज्ञपरि म प्रत्वे, भग कथने । प्रातिपदिक स्वयं द्रव्य गुणतः गुणान्तर सदवशिष्ट तत् गुणपर्याय भणित पुनर द्रव्य एव इति । मूलधातु-परि णम प्रहृत्वे, भण शब्दार्थः । उभयपदविवरण परिणमदि परिण मति - वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन किया । एव त्ति इति सयं स्वयं य च गुण पुनः अभ्यय । दव्वं द्रव्यं द्वारा अनुभव किया है अपनी सत्ताको जिसने ऐसा ऐसा श्राम्रफल हरितभाव और पोतभाव के साथ प्रविशिष्ट सत्ता वाला होनेसे एक हो वस्तु है, अन्य वस्तु नहीं; इसी प्रकार स्वयं ही पूर्व भवस्था में अवस्थित गुणसे उत्तर अवस्था में अवस्थित गुणरूप परिणामित होता हुआ, पूर्व और उत्तर प्रस्थामें अवस्थित उन गुणोंके द्वारा अपनी सत्ताका अनुभव किया है जिसने ऐसा द्रव्य पूर्व मौर उत्तर अवस्था में अवस्थित गुणोंके साथ अवशिष्ट सत्ता वाला होनेसे एक ही द्रव्य है। द्रव्यान्तर नहीं । श्रौर, जैसे पोतभावसे उत्पन्न हो रहा, हरितभावसे नष्ट हो रहा, और ग्राम्रफलरूपसे स्थिर हो रहा आम्रफल एक वस्तुको पर्यायके द्वारा उत्पाद-व्यय-प्रोव्य है, उसी प्रकार उत्तर अवस्था में अवस्थित गुणसे उत्पन्न, पूर्व अवस्था में अवस्थित गुणसे नए और द्रव्यत्व गुणले स्थिर होनेसे द्रव्य एक द्रव्यपर्यायके द्वारा उत्पाद व्यय श्रीव्य है । प्रसंग विवरण - अनन्तरपूर्व गाथा में अनेकद्रव्यपर्यायद्वारसे द्रव्यके उत्पाद व्यय घोषों का विचार किया था। अब इस गाथामें एक द्रव्पपर्यायद्वारसे द्रव्यके उत्पाद व्यय प्रोव्योंका विचार किया गया है ।
तथ्यप्रकाश - ( १ ) गुणपर्यायें एक द्रव्यकी पर्याये हैं, क्योंकि गुणपर्यायें एक द्रव्यके रूप है। (२) द्रव्य स्वयं अकेला ही पूर्वगुणपर्यायसे हटकर उत्तरगुणपर्यायरूप परिणमता हुमा
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
EAR
212211mmpwr.Pramarimmamtarrernm-monymmetronouncourna
N
१६८
सहजानन्दशास्त्रमालायां कतर्थकमेव द्रव्यं न द्रव्यातरम् । यथैव चोत्पद्यमानं पाण्डुभावेन, व्ययमानं हरितभावनावतिष्ठः मानं सहकारफलत्वेनोत्यादययप्रौव्यायकवस्तुपर्याय द्वारेण सहकारफले तथैवोत्पद्य मानमुत्तरा बस्थाव स्थित गुरणेन, व्ययमान पूर्वावस्थावस्थितगोतावतिष्ठपानं द्रध्यत्वगुणेनोत्पादव्ययध्रौव्याः ।। ध्ये कद्रव्यपर्यायद्वारेण द्रव्यं भवति ।। १०४ ॥ सदसिट रादवशिष्टं-प्रथगा एवा० । गुणदों गुणत:-पंचम्पर्धे अव्यव । गुणंतरं गुणान्तर--अव्यय क्रियावि
शेषण । तन्हा तस्मात्-पंचमी एक० । गुग्यज्जाया गुणपर्याया:-प्रश्रमा बहु० । मणिया भणिता:-प्रथमा : बहु० वृदन्त किया। निरुक्ति-गुणयनं गुणः, सु अयनं स्वयं । समास-सता अविशिग्टं सदवशिष्ट) गुणाश्च पर्यायाश्चेति गुणपर्यायाः ।। १०४ ।। के साथ एक ही सत्तारूपसे रहता हुअा वही द्रव्य है अन्य द्रव्य नहीं है । (३) विवात मुणपर्याय यद्यपि कर्मविपाकोषाधिका निमित्त पाकर ही होते हैं तथापि निमित्त व उपादान दोनों में नहीं होते, किन्तु उपादान में अकेले में ही अकेलेके परिणमनसे होते हैं। (४) पूर्वावस्थामें अवस्थित गुरासे नष्ट, उत्तराबस्वामें अवस्थित गुणसे उत्पन्न व द्रव्यल्ब गुणसे एकरूप रहने । वाला द्रव्य ही तो एक द्रव्यपर्यायद्वार से उत्पादव्ययत्रीय कहलाता है ।
सिद्धान्त---(१) एक ही समय में गुणों के उत्पादव्ययध्रौव्यरूप द्रव्य ज्ञात होता है | दृष्टि- १- सत्तासापेक्ष निस्व अशुद्ध पर्यायाथिकनय (२८) ।
प्रयोग- मैं आत्मा खुदकी भावना के अनुसार खुद परिणामता हूँ ऐसा जानकर निरा पद स्वभादपरिणमनके लिये निरापद अधिकार सहज ज्ञानस्वभावमें प्रात्मत्वको अनुभवना ॥ १०४ ।।
अब सत्ता और , द्रव्यको अनर्थान्तरत्वमें युक्ति उपस्थित करते हैं— [यदि] .यदि [व्यं] द्रव्य [सत् न भवति ] स्वरूपसे ही सत् न हो तो [ध्रुवं असत् भवति] निश्च यसे. यह असत् होगा; [तत् कथं द्रव्यं] जो असत् होगा वह द्रव्य कैसे हो सकता है ? [वा पुनः अथवा फिर वह द्रव्य [अन्यत् भवति] सत्तासे अलग होगा। (चूंकि ये दोनों बातें नहीं हो । सकती) [तस्मात् ] इस कारण [द्रव्यं स्वयं] द्रव्य स्वयं ही [सत्ता] सत्तास्वरूप है।
तात्पर्य- द्रव्य स्वयं सत्तामय है ।
टीकार्थ-यदि द्रव्य स्वरूपसे ही सत् न हो तो दूसरो गति यह होगी कि वह या तो असत् होगा, अथवा सत्तासे पृथक् होगा। वहीं, यदि वह असत् होगा तो, धौव्यके असंभव। होनेसे स्वयं स्थिर न होता हुआ द्रध्यका ही लोप हो जायगा, और यदि सत्तासे पृथक होगा तो सत्ताके बिना भी स्वयं रहता हुना, इतने ही मात्र प्रयोजन वाली सत्ताका लोप कर देगा।
किन्तु स्वरूपसे ही सत् सत् होता हुआ ध्रौव्यके सद्भावके कारण अपने स्वरूपको
AMEN*MSHALA
urimadlinRayanKCHHADMAAVATumDAMOUSAMIRECAnimunARSERIENokimoniowiniiwiowinianRautavirwiminaniyaindiansionation2mmawwwwwwwwwwwwwwwin
wwwwwww
On50800AAp
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार----सप्तदशाङ्गी टीका प्रथः सताध्ययोरनन्तरत्वे युक्तिमुपन्यस्यति
गण हवदि जदि सद्दवं असदधुव्वं हर्वाद तं कह दव्वं । हवदि पुणो अण्णां वा तम्हा दव्वं सयं सत्ता ॥१०५।।
यदि द्रव्य सत् नहीं हो फिर असत् हुमा हि द्रध्य कैसे हों।
सत्त्वसे पृथक् सत् क्या, अतः स्वयं द्रव्य है सत्ता ॥१०५।। ॥ न भवति यदि सद्व्यमसद्ध्वं भवति रात्कथं द्रव्यम् । भवति पुन रन्या तस्माद्रव्यं स्वयं सत्ता ॥१०॥
यदि हि द्रव्यं स्वरूपत एवं सन्न स्यात्तदा द्वितीयो गतिः असता भवति, सत्तातः पृथग्वा । भवति । तत्रासद्धबद्धोध्यस्थासंभवादात्मानमधारयद्रव्यमेवास्तं गच्छेत् । सत्तातः पूरभवत्
सत्तामन्तरेणात्मानं घारय तावन्मानप्रयोजना सत्तामेवास्तं गमयेत् । स्वरूपतस्तु सद्भबोव्य स्य संभवादात्मानं धारयद्रव्य मुद्गच्छेत् । सत्तातोऽपृथग्भूत्या चात्मानं धारयत्तावन्मात्रप्रयाजना सत्तामुद्गमयेत् । ततः स्वयमेव द्रव्यं सत्त्वेनाभ्युपगन्तव्यं, भावभाववतोरपृथक्त्वेनान्य लात् ॥१०५॥
नामसंज्ञ....ण जदि सत् दब्ध असत धुव्वत वह दव्य पूणो अण्ण वात दव सयं सत्ता । धातुसंसहव सत्तायां । प्रातिपदिक- यदि रात् द्रव्य असत् ध्रुव कथं तत् द्रव्य पुनर अन्यत् वा तत् द्रव्य स्वयं सत्ता । मलयाल-भुसतायां । उभयपदविबरण---ण न अदि यदि कहं कथं पुणो पुनः वा सयं स्वयं-अव्यय । हबदि भवति-बर्तमान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । सत् दश्च द्रव्य असत् धुवं ध्रुवं अण अन्यत् सत्ता-प्रथमा एकवचन । तम्हा तस्मात्-पंचमी एकवचन । निराक्ति---अस्तीति सत्, ध्रुवनं ध्रुवः, ध्रुवस्य भावः ध्रीव्यम् ।।१०५ चारता हुभा द्रव्य इतने ही मात्र प्रयोजन वाली सत्ताको सिद्ध करता है । इस कारण द्रव्य स्वयं ही सत्त्व स्वरूप है ऐसा स्वीकार करना चाहिये, क्योंकि भाव और भाववानका प्रपृथक पना होनेसे अनन्यत्व है।
प्रसंगविवरण -- अनन्तरपूर्व गाथामें एकद्रव्यपर्यायद्वारसे द्रव्यके उत्पाद व्यय प्रौधों का विचार किया था। अब इस गाथामें सत्ता और द्रव्यमें अभिन्न पता है यह युक्तिपूर्वक बताया गया है।
तथ्यप्रकाश--(१) द्रव्य स्वरूपसे ही सत् है । (२) यदि द्रव्य स्वरूपसे ही सन् नहो । याने असत् है तो असत्में धोव्य असंभव ही है सो द्रव्य ही प्रस्त हो गया. कुछ न रहा। । (३) यदि द्रव्य स्वरूपसे ही सत् नहीं याने सत्तासे पृथक् है तो सत्तासे अलग रहकर द्रव्य रह रहा है तो अब सत्ताको जरूरत ही नहीं रही सो सत्ता हो अग्रस्त हो गई कुछ न रहो। (४) द्रव्य स्वरूपसे ही सत् है सो द्रव्यों प्रौव्य संभव है और द्रव्य वास्तवमें द्रव्य है ।
SS
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
।
२००
सहजानंदशास्त्रमालायां अग पृथक्त्वान्यत्वलक्षणमुन्मुद्रपति
पविभत्तपदेसत्तं पुधुत्तमिदि सासां हि वीरस्म । अण्णत्तमतभावो ण तच्भवं होदि कधमेगं ॥१०६॥ प्रविभक्तप्रदेशपने, को बतलाया पृथक्त्व शासनने ।
अन्यत्व अत झाव हि, न तद्भव एक कैसे हो ॥१०६।। प्रविभक्त प्रदेशवं पृथक्त्वमिति शासनं हि वी रम्य । अन्यत्वमतद्भावो न तद्भवत् भवति कय मेकन् ।।१०।।
प्रविभक्त प्रदेशात्वं हि पृथक्त्वस्य लक्षणम् । तत्तु सत्ताद्रव्ययोर्न संभाव्यते, गुणगुणिनोः अविभक्तप्रदेशत्वाभावात् शुक्लोत्तरी यवत् । तथाहि--यथा य एव शुक्लस्य गुणस्य प्रदेशात एवोत्तरीयस्य गुरिंगन इति तयोर्न प्रदेश विभागः, तथा य एष सत्ताया गुणस्य प्रदेशास्त एव
नामसंज्ञ-विभत्तपदेसत्त पुत्त इति सासण हि वीर अण्णत्त अतब्भाव ण तुभव कध एग! पातसंज्ञ-सास गासने, हो सत्तायां । प्रातिपदिक. विभक्तप्रदेशत्व पृथक्त्व इति शासन बीर अन्यत्व (५) द्रव्य सत्तासे अभिन्न है सो उसमें सत्ता प्रकट है । (६) भाव व भाववान अपृथक् होने से द्रव्य स्वयं ही सत्त्वरूपसे जाना जाता है।
सिद्धान्त-(१) द्रव्य स्वयं ही स्वरूपतः सत् है । दृष्टि–१- भेदकल्पनानिरपेक्ष गुद्ध द्रव्याथि कनय (२३) । प्रयोग-स्वयंको परिपूर्ण चतन्यात्मक सत् निरखकर स्वयंको स्वयमें अनुभवन! ।।१०५॥
प्रय पृथक्त्वका और अन्यत्वका लक्षण उन्मुद्रित करते हैं-~[प्रविभक्तप्रदेशत्वं] भिन्न भिन्न प्रदेशपना [पृथक्त्वं] पृथक्त्व है, [इति हि] ऐसा हो [वीरस्य शासन] वीरका उपदेश है । [अतभावः] उसरूप न होना अन्यत्व] अन्यत्व है । [न तत् भवत् ] जो उसरूप न हो वह [कथं एकम्] एक कैसे हो सकता है ?
तात्पर्य-भिन्न भिन्न प्रदेश होनेसे तो अन्यत्व जाना जाता है और सद्भाव न होने से ममत्व जाना जाता है ।
टीकार्थ-भिन्न प्रदेशपना पृथक्त्वका लक्षण है । वह तो सत्ता और द्रव्य में संभव नहीं है, क्योंकि गुण और गुणीमें विभक्तप्रदेशत्वका प्रभाव होता है---शुक्लत्व और वस्त्रको सरह । स्पष्टीकरण---जैसे-..-जो ही शुक्लत्व गुणके प्रदेश हैं वे ही वस्त्र गुणीके हैं, इस कारण रनमें प्रदेशभेद नहीं है; इसी प्रकार जो सत्तागुणके प्रदेश हैं वे ही द्रध्य गुणीके हैं, इस कारण जन में प्रदेशभेद नहीं है। ऐसा होने पर भी उन में अर्थात् सत्ता और द्रव्यमें अन्यत्व है, क्योंकि उनमें प्रत्यत्व के लक्षणका सद्भाव है । अतद्भाव अन्यत्वका लक्षण है । वह तो सत्ता और
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
Ima
Con
DHORSHA
Imti
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
२०१ इक्यस्य गुणिन इति तयोनं प्रदेश विभामः । एवमपि तयोरन्यत्व मस्तितल्लक्षणसद्भावात् । अतअनावी ह्यन्यत्वस्य लक्षणं, तत्तु सत्ताद्रव्ययोविद्यत एवं गुणगुणिनोस्तभावस्याभावात् शुक्लो. तरीयवदेव । तथाहि-यथा यः किल कचक्षुरिन्द्रियविषयमापद्यमानः समस्तेतरेन्द्रियग्रामगोचरमतिकान्तः शुक्लो गुणो भवति, न खलु तदखिलेन्द्रियग्रामगोचरीभूतमुत्तरीयं भवति, यच्च किलाखिलेन्द्रियग्रामगोचरीभूतमुत्तरीयं भवति, न खलु स एकचक्षुरिन्द्रियविषयमापद्यमानः सम। तेतरेन्द्रियग्रामगोचरमतिक्रान्तः शुक्लो गुणो भवतीति तयोस्तद्भावस्याभावः । तथा या कि
लाश्रित्य वतिनी निगुणकगुणसमुदिता विशेषणं विधायिका वृत्तिस्वरूपा च सत्ता भवति, न खलु तदनाश्रित्य पति गुणवदनेकगुणसमुदितं विशेष्यं विधीयमानं वृत्तिमत्स्वरूपं च द्रव्यं भवति मतद्भाव न तद्भवत् कथं एक । मूलधातु-शासु-अनुशिष्टी अदादि, पृथ क्षेपणे, भू सत्तायां । उभयपदविभरण-पविभत्तपदेसत्तं प्रविभक्तप्रदेशत्वं पुधत्त पथक्त्वं सासणं शासनं अण्णत्तं अन्यत्वं अतभावो अतदावः तम्भवं तद्भवत् एग एक-प्रथमा एकवचन । वीरस्स वीरस्य-पष्टी एकवचन । इदि इति हि ण न कप कथं अव्यय । होदि भवति-वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन किया। निरुक्ति प्रकर्षण देशनं प्रदेशः, दश्यक है हो, क्योंकि गुए। और गुणीके तद्भावका अभाव होता है;----शुक्लत्व और वस्त्रकी तरह । वह इस प्रकार है कि जैसे एक चक्षुइन्द्रियके विषय में माने वाला और अन्य सब इन्द्रियों के समूहको गोचर न होने वाला शुक्लत्व गुण है वह समस्त इन्द्रियसमूहको गोचर होने दाला वस्त्र नहीं है; और जो समस्त इन्द्रियसमूहको गोचर होने वाला वस्त्र है वह एक चक्षु. इन्द्रियके विषयमें पाने वाला तथा अन्य समस्त इन्द्रियों के समूहको गोचर न होने वाला एक्लत्व गुण नहीं है, इस कारण उनके तद्भावका अभाव है; इसी प्रकार, किसीके प्राश्रय रहने वाली, निर्गुण, एक गुणरूप बनो हुई, विशेषणभूत विधायक और वृत्तिस्वरूप जो सत्ता है वह किसीके प्राश्रयके बिना रहनेवाला, गुणवाला, अनेक गुणोंसे निर्मित, विशेष्यभूत, विघीयमान और वृत्तिमान स्वरूप द्रव्य नहीं है, तथा जो किसीके श्राश्रयके बिना रहने वाला, गुण वाला, अनेक गुणोंसे निमित, विशेष्यभूत, विधीयमान और वृत्तिमानस्वरूप द्रध्य है वह किसीके आश्रित रहने वाली, निर्गुण, एक गुणसे निर्मित, विशेषणभूत, विधायक और वृत्तिस्वरूप सत्ता नहीं है, इसलिये उनके तद्भावका अभाव है । ऐसा होनेसे ही, सत्ता और द्रव्य के कथंचित अभिन्नपदार्थत्व होनेपर भी उनके सर्वथा एकत्व होगा ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये । क्योंकि तद्भाव एकत्वका लक्षण है । जो उसरूप होता हुआ ज्ञात नहीं होता वह सर्वधा एक कसे हो सकता है ? नहीं हो सकता। परन्तु गुण-गुरणीरूपसे अनेक हो है, यह
HERA
mariUMMEHARRAMMA
प्रसंगविवरण--अनंतरपूर्व गाथामें सत्ता और द्रव्यमें अनन्तिरता दिखाई गई थी।
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
"Hows
२०२
सहजानन्दशास्त्रमालायां
यत्तु किलानाश्रित्य वति गणवदनेकगुणस मुदितं विशेष्यं विधीयमानं वृत्तिमत्स्वरूपं च द्रव्य भवति, न खलु साश्रित्य वतिनी निगुणकगुणसमुदिता विशेषणं विधायिका बृतिस्वरूपा च सत्ता भवतीति तयोस्तद्धावस्याभाव: । अत एव च सत्ताद्रव्य योः कथंचिदनन्तरत्वेऽपि सर्व
कत्वं न शङ्कनीयं, तद्भावो ह्यकत्वस्य लक्षणम् । यत्तु न तद्भवद्विभाव्यते तत्कथ मेकं स्यात् । अपि तु गुणगरिणरूपेणानेकमेवेत्यर्थः ॥१०६॥
शास्यते अनेनेति शासन, (विशिष्टाई लक्ष्मी राति ददाति इति वीरः अस्य बीरस्य, अन्यस्य भावः अन्यत्वं, तस्य भावः तद्भावः न तदभाव: अतद्भावः, तद्भवतीति तदभवत् । समास-प्रविभवतं च तत् प्रदेशत्वं वेति प्रविभक्तप्रदेशत्वं ।। १०६
अब इस गाथामें उक्त तश्यको समझनेके लिये पृथक्त्व और अन्यत्वका लक्षण प्रकट किया
तथ्यप्रकाश- (१) जिनमें पृथपना होता है उनके प्रदेश एक दूसरेसे भिन्न होते . हैं । (२) सत्ता और द्रव्यके भिन्न भिन्न प्रदेश नहीं हैं, क्योंकि गुण और गुरणीके पृथक् प्रदेशो.. पन नहीं होता है । (३) जो ही सत्ता गुणके प्रदेश हैं ये ही द्रव्य गुणोके प्रदेश हैं, अतः उन दोनों में प्रदेशविभाग नहीं है। (४) सत्ता और द्रव्यमें पृथापना नहीं है, तो भी लक्षारणकी दृष्टि से अन्यपना है । (५) प्रतद्भाव (कथंचित् उसरूप नहीं) होना अन्यत्वका लक्षण है। (६) सत्ता गुण है, द्रव्य गुणी है । (७) सत्ता गुणका लक्षण द्रव्य के आश्रय रहना, गुणरहित. होना, एक गुण मात्र होना, एक विशेषतारूप होना, उत्पादध्ययनोव्यकलक्षण वृत्तिरूप होना है । (4) द्रव्यका लक्षण किसीके आश्रय नहीं रहना, गुणवान होना, अनेकगुणसमुदित होना, विशेष्य (जिसकी अनेक विशेषतायें बने) होना, उत्पादश्ययनोव्यकलक्षणसत्तामय होना है। (8) लक्षणभेदसे द्रव्य और सत्तामें अतद्भाव है । (१०) सत्ता और द्रव्यमें अभिन्नता होनेपर । भी सर्वथा एकत्व नहीं, उनमें अतद्भाव है। (११) सर्वथा एकत्वका लक्षण तद्भाव है। . (१२) सत्ता और द्रव्यमें गुणगुरिणरूपसे अन्यपना है, प्रदेशभेद न होनेसे अनन्यपना है ।
. सिद्धान्त ---(१) सत्ता और द्रव्यमें प्रदेशभेद न होनेसे द्रव्य सस्वमय है । (२) सत्ता : और द्रव्यमें लक्षणभेद होनेसे उनमें अतद्भाव है ।
... दृष्टि-१-- उत्पादव्ययसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२५) । २-- गुणगुरिणभेदक शुद्ध : सद्भूत व्यवहार (६६ ब)।
प्रयोग---गुण गुणोकी भेदकल्पना छोड़कर अपनेको स्वभावमात्र अनुभवना ॥१०६॥। : अब अतद्भावको उदाहरणपूर्वक प्रसिद्ध करते हैं---[सत् द्रव्यं] 'सत् द्रव्य' [च सत्
MisrudasuaaxxximuvAITHAIRamesNASALIMdindivwaters
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका अथातद्भावमुदाहृत्य प्रथयति
सहव्वं सच गुणो सच्चेव य पजनो त्ति वित्थारो। जो खलु तस्स अभावो सो तदभावो अतभावो ॥१०७॥ . सत् द्रव्य व सत् गुण है. सत् है पर्याय व्यक्त यह वर्णन ।
अन्योन्य प्रभाव हि को, तदमाव व अतद्भाब कहा ।।१०७।। सव्यं सच्च मुणः सच्चैव च पर्याय इति विस्तारः । यः खलु तस्याभावः स तदभावात दावः ।। १७.७।।
यथा खल्वेकं मुक्ताफलस्रग्दाम, हार इति सूत्रमिति मुक्ताफलमिति बेधा विस्तार्यते, तथैक द्रव्यं द्रव्यमिति गुण इति पर्याय इति श्रेधा विस्तार्यते । यथा चैकस्य मुक्ताफलसरदाम्नः शुक्लो मुणः शुक्लो हार: शुक्ल सूत्रं शुक्लं मुक्ताफलमिति वेवा विस्तार्यन, तथैकस्य द्रव्यस्य सत्तागुणः सद्व्यं सद्गुणः सत्पर्याय इति त्रेधा विस्तार्यते । यथा चकस्मिन् मुक्ताफलम्सग्दामिन
सामसेज.---सत् दव्य सत् च गुण सत् च एंव य पज्ज अति वित्थार जखल त अभाव त तद्भाव अतन्भाव । धातुसंज--परि इ गती, वि स्वर आच्छादने उपसर्गादर्थ परिवर्तनं । प्रातिपदिक.....मत् द्रव्य गुणः] और 'सत्गुण' [च] और [सत् एव पर्यायः] 'सत् ही पर्याय' [इति] इस प्रकार [विस्तारः] सत्तागणका विस्तार है । [यः खलु] और जो उनमें परस्पर तस्य प्रभावः] उसका अभाव' अर्थात् उसरूप होनेका अभाव है सो [सः] वह [तद्भावः] उसका प्रभाव [प्रतद्भावः] अतद्भाव है।
तात्पर्य--सत्को ही द्रव्य गुरण पर्यायरूपमें समझाया जाता है वे स्वतंत्र सत् नहीं
टीकार्थ- जैसे एक मोतियों की माला हार है, धागा है और पोती है इस तरह तीन प्रकारसे विस्तारित को जाती है, उसी प्रकार एक द्रव्य, द्रव्य है, गुण है और पर्याय है इस तरह तीन प्रकारसे बिस्तारित किया जाता है । और जैसे एक मोतियोंकी मालाका शुक्लत्व गुणः “शुक्ल हार", "शुक्ल धागा", और “शुक्ल मोती", यों तीन प्रकारसे विस्तारित किया जाता है, उसी प्रकार एक द्रव्यका सत्तागरण 'सत् द्रव्य', 'सत् गुण' और 'मत पर्याय
यो तीन प्रकारसे विस्तारित किया जाता है । और जैसे एक मोतियोंको मालामें जो शुक्लत्व' * गुण हैं वह हार नहीं है, घागा नहीं है या मोती नहीं है, और जो हार, धागा या मोती है वह शुक्लत्व गुण नहीं है। इस प्रकार एक दूसरेमें जो 'उसका प्रभाव' अर्थात् 'तद्रूप होने का
अभाव' है सो वह 'तद्-अभाव' लक्षण वाला 'अतद्भाव' है, जो कि अन्यत्वका कारण है। । इसी प्रकार एक द्रव्यमें जो सत्ता गुण है वह द्रव्य नहीं है, अन्य गुण नहीं है या पर्याय नहीं
MER
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०४
सहजानन्दशास्त्रमालायां
यः शुक्लो गुणः स न हारो न सूत्रे न मुक्ताफलं यश्च हारः सूत्रं मुक्ताफलं वा स न शुक्लो गुण इतीतरेतरस्य यस्तस्याभाव: स तदभावलक्षरगोऽतद्भावोऽन्यत्वनिबन्धनभूतः । तथैकस्मिन् द्रव्ये यः सत्तागुणस्तन्न द्रव्यं नान्यो गुणो न पर्यायो यच्च द्रव्यमन्यो गुणः पर्यायो वा सन सत्तागुण इतीतरेतरस्य यस्तस्याभावः स तदभावलक्षणोज्जद्भावोऽन्यत्वनिबन्धनभूतः ॥ १०७ ॥ सत्व गुण सत् च एव य पर्याय इति विस्तार यत् खलु तत् अभाव तदभाव अतद्भाव मूलधातु- परि इण गतौ विस्तृञ आच्छादने उपसर्गादर्थपरिवर्तनं । उभयपद विवरण- सत् दव्वं द्रव्यं गुणो गुणः पज्जभो पर्याय: वित्थारो विस्तारः, जो यः अभावो अभावः तदभावो तद्भावः अतभावो अतद्भावः -- प्रथमा एकo | तस्स तस्य-षष्ठी एक० च एव ति इति खलु अव्यय । निरुक्ति - विस्तरणं विरतारः । समास---- तस्य अभावः तदभावः, तस्य भावः तद्भावः न तद्भावः अतद्भावः ।। १०७ ।
है; और जो द्रव्य या अन्य गुण या पर्याय है वह सत्तागुण नहीं है - इस प्रकार एक दूसरे में जो 'उसका प्रभाव' अर्थात् 'तद्रूप होनेका प्रभाव' है वह 'तद् प्रभाव' लक्षण वाला 'अतद्भाव' है जो कि अन्यत्वका कारण है ।
प्रसंगविवरण -- श्रनन्तरपूर्व गाथामें पृथक्त्व व अन्यत्वका लक्षण बताया गया था। अब इस गाथा में उदाहरण देकर श्रतद्भावका स्पष्टीकरण किया गया है ।
तथ्यप्रकाश -- - ( १ ) एक ही प्रावान्तर सत्को द्रव्य गुण पर्याय इन तीन रूपोंसे ज्ञान में फैलाया जाता है । ( २ ) जैसे एक हारको सफेदी गुरगको सफेद हार है, सफेद सूत है, सफेद मोती है यों तीन प्रकारसे निरखा जाता है ऐसे ही एक द्रव्यके सत्ता गुरणको सत् द्रव्य है, सत गुण है, सत् पर्याय है यों तीन प्रकारसे निरखा जाता है । (३) एक हारमें जो सफेदी गुण है वह न हार है, न सूत है, न मोती है और जो हार सूत मोती है वह सफेदी गुण नहीं यो एक में दूसरेका प्रभाव है ऐसा प्रभाव ही प्रतद्भाव कहलाता है । (४) एक द्रव्यमें जो सत्ता गुण है वह न द्रव्य है, न अन्य गुण है, न पर्याय है और जो द्रव्य, प्रत्यगुण व पर्याय है वह सत्ता गुण नहीं यों एकमें दूसरेका प्रभाव है ऐसा प्रभाव ही श्रतद्भाव कहलाता है । (५) श्रतद्भाव अन्यत्व के परिचयका कारणभूत है । ( ६ ) सत्ता व द्रव्य में तद्भाव तो है, किन्तु पृथक्त्व नहीं है ।
सिद्धान्त - ( १ ) द्रव्य गुणी है सत्ता गुण है इतना अतद्भाव इन दोनों श्रभिधेयोंमें
दृष्टि--- १ - गुणगुरिणभेदक शुद्ध सद्भूत व्यवहारनय (६६ब ) |
+ प्रयोग --मात्र परिचयके लिये तद्भावका प्रतिपादन जानकर प्रभावको गौर कर अपनेको स्वरूपमात्र अनुभवना ॥१०७॥
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
Atta
SONGSee
२०५
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका प्रथ सर्वथाऽभावलक्षणत्वमतद्भावस्य निषेधयति----
जं दव्वं तण्ण गुणो जो वि गणो सो ण तच्चमत्थादो। एसो हि अतब्भावो गोव अभावो त्ति णिदिट्टो ॥१०॥
जो द्रव्य न वह गुण है, जो गुण है वह न द्रव्य लक्षरगसे ।
अतद्भाव ऐसा है, किन्तु सर्वथा अभाव नहीं ॥ १०८ ॥ यद्रव्यं तन्न गुणो योऽपि गुणः स न तत्त्वमर्थात । एष ह्यतदभावो नैव अभाव इति निर्दिष्टः ॥ १०८॥
एकस्मिन्द्रव्ये यद्रव्यं गुणो न तद्भवति, यो गुणः स द्रव्यं न भवतीत्येवं यद्रव्यस्य गुणरूपेण गुणस्य वा द्रव्यरूपेण तेनाभवनं सोऽतद्भावः । एतावतवान्यत्वव्यवहारसिद्धेर्न पुन
नामसंज्ञ--ज दव्व त ण मुण ज वि गुण त ण तच्च मत्था एत हि अतब्भाव ण एव अभाव त्ति मिटि । धातुसंज-निर दिरा प्रेक्षणे । प्रातिपदिक- यत् द्रव्य तत् न गुण यत् अपि गुण त न तत्व अर्थ एतत् हि अतद्भाव न एवं अभाव इति निर्दिष्ट । मूलधातु-निस् दिश अतिसर्जने 1 उभयपदविवरण
अब अतद्भावके सर्वथा अभावरूप लक्षणपनेको निषिद्ध करते हैं--[यत् द्रव्यं] जो द्रव्य है [तत् न गुणः] वह गुण नहीं है, [अपि यः गुरणः] और जो गुण है [सः न तस्व] वह द्रव्य नहीं है । [प्रस्थादो] शब्दार्थ लक्षणकी अपेक्षासे [एषः हि प्रतद्भावः] यह ही प्रतद्भाव है; [न एव अभाव:] सर्वथा अभाव अतभाव नहीं है: [इति निर्दिष्टः] ऐसा प्रभुके द्वारा निर्दिष्ट किया गया है ।
तात्पर्य--द्रव्य, गुण, पर्याय में शब्दार्थलक्षणकी अपेक्षा अतद्भाव है, सर्वथा प्रभाव रूप अतद्भाव नहीं।
टोकार्थ---एक द्रव्यमें जो द्रव्य है वह गुण नहीं है, जो गुण है वह द्रव्य नहीं है; इस प्रकार द्रव्यका गुणरूपसे न होना अथवा गुणाका द्रव्यरूपसे न होना अद्भाव है; क्योंकि इलनेसे ही अन्यत्वरूप व्यवहार सिद्ध होता है । परन्तु द्रव्यका प्रभाव गुण है, गुणका प्रभाव द्रव्य है, ऐसे लक्षण बाला प्रभाव अतभाव नहीं है। ऐसा होनेपर एक द्रव्यके अनेकपना प्रो जायगा, उभयशून्यता हो जायगी, अथवा अपोहरूपता आ जायगी । स्पष्टीकरण-जैसे चेतनद्रव्यका प्रभाव प्रचेतन द्रव्य है और अचेतन द्रव्यका प्रभाव चेतन द्रव्या है, इस प्रकार उनके प्रनेकपना है, उसी प्रकार द्रव्यका प्रभाव गुण, और गुरणका प्रभाव द्रव्य है; इस प्रकार एक द्रव्यके भी अनेकपना आ जायगा । जैसे सुवर्णका अभाव होनेपर सुवर्णत्वका प्रभाव हो जाता है, और स्वर्णत्वका अभाव होनेपर सुवर्णका अभाव हो जाता है, इस प्रकार उभयशून्यत्व हो जाता है; उसी प्रकार द्रव्यका अभाव होनेपर गुणका अभाव और गुणका प्रभाव होनेपर अन्य
--
--
-
COM
S
माधPanileon
ACShue
comamritime
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०६
सहजानन्दशास्त्रमालायां
द्रव्यस्याभाको गुणो गुणस्याभावो द्रव्यमित्येवंलक्षणोऽभावोऽतभाव, एवं सत्येकद्रव्यस्यानेकत्वमुभयशून्यत्वमपोहरूपत्वं वा स्यात् । तथाहि-यथा खलु चेतनद्रव्यस्याभावोऽचेतनद्रव्यमचेतनद्रव्यस्याभावश्चेतनद्रव्यमिति तयोरनेकत्वं, तथा द्रव्यस्याभावो गुणो गुणस्याभावो द्रव्यमित्येकस्यापिद्रव्यस्यानेकत्वं स्यात् । यथा सुवर्णस्याभावे सुवरणत्वस्योभावः सुवर्णत्वस्याभावे सुवर्णस्याभाव इत्युभयशून्यत्वं, तथा द्रव्यस्याभावे गुणस्याभावो गुणस्याभावे द्रव्यस्याभाव इत्युभयशून्यत्वं स्यात् । यथा पटाभावमात्र एव घटो घटाभावमात्र एव पट इत्युभयोरपोहरूपत्वं तथा द्रव्याभाव मात्र एव गुणो गुणोभावमात्र एव द्रव्यमित्यत्राप्यपोहरूपत्वं स्यात् । ततो द्रव्यगुणयोरेकत्वमशन्यत्वमनपोहत्वं चेच्छता यथोदित एवातद्भावोऽभ्युपगन्तव्यः ।।१०८॥ जं यत् दव्वं द्रव्यं त तत् गुणो गुणः जो यः गुणो गुणः सो सः तच्चं तत्त्वं एसो एषः अतब्भावो अतद्भावः अभावो अभाव:-प्रथमा एकवचन । अत्थादो अर्थात्-पंचमी एकवचन । णिट्टिो निर्दिष्ट:-प्रथमा एकवचन कृदन्त क्रिया । ण न वि अपि हि एव त्ति इति-अव्यय । निरुक्ति-द्रवति गच्छति पर्यायात् इति द्रव्यम् । समास-न तस्य भावः अतद्भावः ।।१०८।। का अभाव हो जायगा; इस प्रकार उभयशून्यता हो जायगी । जैसे पटाभावमात्र ही घट है, घटाभावमात्र ही पट है, इस प्रकार दोनोंके अपोहरूपता है, उसी प्रकार द्रव्याभावमात्र ही गुण और गुणाभावमात्र ही द्रव्य होगा; इस प्रकार इसमें भी अपोहरूपता आ जायगी, इस कारण द्रव्य और गुणका एकत्व, अशून्यत्व और अनपोहत्व चाहने वालेको यथोक्त ही अतद्भाव मानना चाहिये।
प्रसंगविवरण-अनंतरपूर्व गाथामें अतद्भावका विवरण किया था। अब इस गाथामें बताया गया है कि अतद्भावका सर्वथा अभाव लक्षण नहीं है ।
... तथ्यप्रकाश-(१) जो द्रव्य है वह गुण नहीं, जो गुण है वह द्रव्य नहीं इस प्रकार द्रव्यका गुणरूपसे न होना, गुणका द्रव्यरूपसे न होना अतद्भाव कहलाता है । (२) द्रव्य और गुणके लक्षणमात्रसे ही उनमें अन्यपनेका व्यवहार है । (३) द्रव्य का प्रभाव गुण हो या गुण का अभाव द्रव्य हो इस प्रकारके अभावका नाम अतभाव नहीं । (४) यदि द्रव्यके अभावको गुण व गुणके प्रभावको द्रव्य कहा जाय तो उनका एकत्व न रहेगा अनेकपना हो जावेगा जैसे कि चेतन द्रव्यका अभाव अचेतनद्रव्य व अचेतनद्रव्यका प्रभाव चेतनद्रव्य है सो यहाँ अनेकपना है। (५) यदि द्रव्यका अभाव होनेपर गुणका प्रभाव व गुणका प्रभाव होनेपर द्रव्यका प्रभाव माना जाय तो दोनों ही न रहेंगे जैसे कि सुवर्णका अभाव होनेपर सुवर्णपनेका प्रभाव व सुवर्णका अभाव होनेपर सुवर्णपनेका अभाव दोनों ही न रहे । (६) यदि द्रव्यका प्रभाव मात्र ही गुण व गुणका अभावमात्र ही द्रव्य माना जाय तो मात्र अपोहरूपता रही, तत्त्व
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
न
5
।
A
२०७
Cinik
प्रवचनम्बर --- सप्तदशाङ्गी टीका अथ सत्ताद्रध्ययोगुणगुणिभावं साधयति
जो खलु दव्वसहावो परिणामो सो गुणो सदविसिट्टो । सदवट्टिदं सहावे दव्य त्ति जिणोवदेसोयं ॥ १०६ ॥ द्रव्यस्वभाव त्रितयमय, जो परिणाम वह गुण उसो सत्का ।
सुस्थित स्वभाबमें सत्, उस ही को द्रव्य बतलाया ॥१०॥ खलु द्रव्यस्वभावः परिणाम : स गुणः सदविशिष्टः। सदस्थितं स्वभावे द्रव्यमिति जिनोपदेशोऽयम् ॥१०॥ .. द्रव्यं हि स्वभावे नित्यमवतिष्ठमानत्वात्सदिति प्राक् प्रतिपादितम् 1 स्वभावस्तु द्रव्यस्य परिणामोऽभिहितः । य एव द्रव्यस्य स्वभावभूतः परिणामः, स एव सदविशिष्टो गुण इतोह साध्यते । यदेव हि द्रव्यस्वरूपवृत्तिभूत मस्तित्वं द्रव्यप्रधान निर्देशात्सदिति संशब्यते तदविशिष्ट
नामसंज्ञ-ज खलु दवराहाव परिणाम त गुण सदविसिट्ठ सद्अबट्ठिव सहाथ दब्व ति जिणावदेस इम । धातुसंज्ञ-अवि सेस भेदने, अव ट्ठा गति निवृत्ती तृतीयगणी। प्रातिपदिक---यत् खलु द्रव्यस्वभाव कुछ न रहा । (७) लक्षणभेद वाला ही अतद्भाव मानने पर प्रदेशभेद वाला प्रभाव न मानने पर ही द्रव्य व गुणमें एकत्व रहता है, द्रव्य व गुरण दोनों प्रशून्य होते हैं, द्रव्य व गुरगमें अनपोहत्व रहता है।
सिद्धान्त - (१) द्रव्य और गुणमें सर्वथा अभावरूप प्रतद्भाव नहीं है । दृष्टि-१- अविकल्पनय (१६२), अशन्यनय (१७४) ।
प्रयोग- लक्षणभेदसे द्रव्य गुणका परिचय करके भेदकल्पना टूर करके एकत्वदृष्टि से अपनेको स्वरूपमात्र अनुभवना ॥१०८॥
अब सत्ता और द्रव्यका गुण-गुरिणभाव सिद्ध करते हैं-खिलु यः] वास्तवमें जो [द्रव्यस्वभावः परिणामः] द्रव्य का स्वभावभूत उत्पादव्य यध्रौव्यात्मक परिणाम है [सः] वह [सदविशिष्टः गुणः] सत्तासे अभिन्न गुणा है । [स्वभावे अवस्थितं] स्वभाव में अवस्थित [द्रध्य द्रव्य [सत्] सत् है [इति जिनोपदेशः] ऐसा जो जिनोपदेश है [श्रयम्] वही यह है ।
तात्पर्य-द्रव्य उत्पादव्ययधोव्यात्मक सत्तामें शाश्वत अवस्थित है। . टोकार्थ---द्रव्य स्वभावमें नित्य अवस्थित होनेसे सत् है, ऐसा पहले प्रतिपादित किया गया था; और द्रव्यका स्वभाव परिणाम कहा गया था । यहाँ यह सिद्ध किया जा रहा है कि जो द्रव्यका स्वभावभूत परिणाम है वही 'सत्' से अविशिष्ट गुरण है । जो हो द्रव्यके स्वरूप का वृत्तिभूत अस्तित्व द्रव्यप्रधान निर्देशसे 'सत्' शब्दसे कहा जाता है उस अस्तित्वसे अनन्य । गुग ही द्रव्यका स्वभावभूत परिणाम वास्तवमें भूत, भविष्यत, वर्तमान तीनों कालको स्पर्शने
।
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०६
सहजानन्द शास्त्रमालायां
गुणभूत एव द्रव्यस्य स्वभावभूतः परिणामः द्रव्यवृत्तेहि त्रिकोटिसमयस्पशिन्याः प्रशिक्षण तेन तेन स्वभावेन परिणामनाद्रव्यस्वभावभूत एवं तावत्परिणामः । स त्वस्तित्वभूतद्रव्य दृस्यात्मकत्वात्सदविशिष्टो द्रव्यविधायको गए। एवेति सत्ताद्रव्य योगुणगुणिभावः सिद्धयति ।।१०। परिणाम तत् गुण सदवशिष्ट सत् अवस्थित स्वभाव द्रव्य इति जिनोपदेश इदम् । मूलधातु-विशिय असवर्वोपयोगे चुरादि, अव प्ठा गतिनिवृत्तौ । उभयपदविवरण-जो य: दध्वसहावो द्रव्यस्वभावः परिणामो परिणामः सोमः सदसिट्ठो सदवशिष्टः सदयट्टिदं सदस्थित दन्वं द्रव्यं जिणोपदेसो जिनोपदेशः अयंप्रथमा एकवचन । सहावे स्वभावे-सप्तमी एक खत नि इसि-अव्यय । निरुक्ति-परिणामने परिणाम:, उपदेशून उपदेशः । समास-स्वस्य भावः स्वभाव दुव्यस्य स्वभावः द्रव्यस्वभावः, जिनस्य उपदेशः जिनोपदेश: 108 पाली द्रव्यवृत्तिका प्रतिक्षण उस उस स्वभावरूप परिमन होनेसे भले प्रकार द्रव्यका स्वभावभूत ही परिणाम है; और वह उत्पाद-व्यय प्रौव्यात्मक परिणाम अस्तित्वभूत उन्धको वृत्ति स्वरूप होनेसे, 'सत्' के अविशिष्ट, द्रव्यका रचयिता गण ही है । इस प्रकार सत्ता और द्रव्य का गुण्ड-गुणी भाव सिद्ध होता है ।
प्रसंगविवरण-अनंतरपूर्व गाथामें बताया गया था कि द्रव्य व गरग में जो प्रतद्भाव कहा गया है सो उसका लक्षण सर्वथा अभाव नहीं है । अब इस गाथामें सत्ता व द्रव्य में गुरण. गुरिणभावको सिद्ध किया गया है।
तथ्यप्रकाश-(१) द्रव्य स्वभावमें नित्य अवस्थित रहनेसे सत् है । (२) द्रव्यका स्वभाव परिणाम है । ( ३ ) जो द्रव्यका स्वभावभूत परिणाम है वही सत्ता है और वह मस्तित्वसे प्रविशिष्ट है । (४) द्रव्याथिकको प्रधानतासे द्रव्यके स्वरूपका वृत्तिभूत अस्तित्व ही सत् कहा जाता है । (५) पर्यायाथिकको प्रधानतासे उस अस्तित्वसे अनन्य गण ही द्रव्यका परिणाम कहा जाता है। (६) सत्ता और द्रव्यका गुणगणिभाव युक्तिसे सिद्ध है।
सिद्धान्त----(१) निर्विकल्प वस्तुके परिचयका प्रारम्भ गुणगुणिभेदके व्यवहारसे होता
दृष्टि ----१ - गुणगुणिभेदक शुद्ध सदभूत व्यवहार (६६ब)।
प्रयोग--मुणगुरिणभेदसे प्रात्मबस्तुका मौलिक परिचयका संकेत पाकर अभेद प्रात्मवस्तुमें परम विश्राम पाने के लिये भेदकल्पना छोड़कर चैतन्यमात्र आत्मवस्तुको अनुभवनेका सहज पौरुष होने देना ।।१०६॥
__अब मुरण और गुणीके नानापनका खण्डन करते हैं- [इह] इस विश्वमें [गुरणः इति वा कश्चित्] गुरण ऐसा कुछ [पर्यायः इति वा] या पर्याय ऐसा कुछ [द्रव्यं विना नास्ति] द्रव्यके बिना नहीं होता; [पुनः द्रव्यत्त्वं भावः] और द्रव्यत्व उत्पादव्ययभोव्यात्मक
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०३
000000000
23
प्रवचनसार... सप्तदशाङ्गी टीका प्रय गुणगुणिनो नात्वमुपहन्ति--
णत्थि गुणो त्ति व कोई पजाबो तीह वा विणा दव्यं । दव्वत्तं पुगण भावो तम्हा दब्बं सयं सत्ता ।। ११०॥
इन्ध बिना कोई गुण, अयदा पर्याय कोइ कुछ महिं है।
द्रव्यत्व भार उसका, श्रतः द्रव्य है स्वयं सत्ता ॥ ११० ॥ नास्ति गुण इति वा कश्चित् पर्याय इती वा विना द्रव्यम् । द्रध्यत्वं पुनर्भावस्तस्माद्दश्य स्वयं सत्ता ।।११०॥
न खलु द्रव्यात्पृथग्भूतो गुण इति ना पर्याय इति का कश्चिदपि स्यात् । धधा सुवर्णापृथरभूत तत्पीतत्वादिमिति मा तत्कुण्डलत्वादिकमिति था । अथ तस्य तु द्रन्यस्य स्वरूपा वृत्तिभूतमस्तित्वाख्यं यदव्यत्वं स खलु तद्भावाख्यो गुण एवं भवन् कि हि द्रव्यात्यूयम्भूतत्वेन वर्तते । न वर्तत एव । तहि द्रव्यं सत्ताऽतु, स्वयमेव ।। ११० ।।
नामसंजण गुण त्ति व कोई पजाति महश विणा दब्य दवत' पुण भाव त दब्य रायं सत्ता। बासुसज-- अस सत्तायां । प्रातिपदिक---- गुण इति वा कश्चितु पर्याय इति वा विना द्रव्य द्रव्यत्व पुनर राब तत द्रव्य स्वयं सत्ता । मूलधातु ....अस भुवि । उभयपदविवरण .... न त्ति इति व वा इह बा विणा विसा पुर्ण पुनः सयं स्वयं-अत्यय 1 मुणो गुणः पज्जाओ पर्यायः दव्वत्तं द्रव्यत्वं भावो भावः वयं द्रव्य संता-प्रथमा एकवचन । दध्वं द्रव्यं (विना द्रव्य)-द्वितीया एकवचन । अयि अस्ति-समान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया ! निरुक्ति----गुण्यते भियते द्रप प्रतिबोधनाय यैस्ते गुणा: । द्रध्यस्य भावः द्रव्यत्वं, भवन भावः ॥ ११०।। सदभाव है [तस्मात्] इस कारण द्रव्यं स्वयं सत्ता] द्रव्य स्वयं सत्तारू । है ।
तात्पर्य-गुणपर्यायवान व उत्पादन्यायध्रौच्यात्मक होनेसे द्रव्य स्वयं मत्स्वरूप है।
टोकार्थ---वास्तवमें द्रव्यसे पृथग्भूत गुण या पर्याय ऐसा कुछ भी नही होता; जैसेसुवासे पृथग्भूत उसका पीलापन आदि या उसका कुण्डलल्वादि नहीं होना । अब उस द्रव्य का स्वरूपका वृत्तिभूत अस्तित्व नामसे कहा जाने वाला जो द्रव्यत्य है वह वास्तव में तद्भाव नामसे कहा जाने वाला गुण ही होता हुप्रा क्या उस द्रव्यसे पृथकरूपसे रहता है ? नहीं रहला । तब फिर द्रव्य सत्ता होमो स्वयं ही ।
प्रसङ्गविवरण-अनन्तरपूर्व माथामें सत्ता और द्रव्य में गुणगुणिभावको सिद्ध किया गया था। अब इस गाथामें गुणगुणी भेदको नष्ट किया गया है।
तथ्यप्रकाश-(१) द्रव्यसे अलग कुछ भी गुण नहीं होता । (२) द्रव्य से अलग कहीं भी कुछ भी पर्याय नहीं होता। (३) द्रव्यका स्वरूप वृत्तिभूत जो अस्तित्वसे प्रसिद्ध द्रव्यत्व है वह इन्सका भावरूप गुण है । (४) द्रव्यका भावरूप गुण द्रव्यले पृश्यक नहीं रहता । (५)
ElwwwwIRROR -1000000000OTENT
www
Chawww
AIIIIIIIIII
-
Evasna
MOutwwwwww
livni
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
SEE688
२१०
राहजानन्द शास्त्रमालायां अथ द्रव्यस्य सदुत्पादासदुत्पादयोरविरोधं साधयति-----
एवं विहं सहावे दव्वं दव्वस्थपजयस्थेहिं । सदसम्भावणिबद्ध पादुन्भायं सदा लभदि ॥१११॥ द्रव्य स्वभावमें रहकर, द्रव्याथिक पर्यायाथिक नयसे ।
सदसद्भावबिगुम्फित, अपने द्रव्यत्वको पाता ॥१११॥ एवं विध स्वभा द्रब्य द्रव्यार्थपर्यायार्थाभ्याम् । सदसद्भावनिवरं प्रादुर्भावं सदा लभते ।। ११६
एवमेतधयोदितप्रकारसाकल्याकलङ्कलाञ्छन मनादिनिधन सत्स्वभाचे प्रादुर्भावमास्क ग्दति द्रव्यम् । स तु प्रादुर्भावो द्रव्यस्य द्रव्याभिधेयतायां सद्भाव निबद्ध एव स्यात् । पर्यायाभिधेयतायो त्व सद्भावनिबद्ध एव । तथाहि----यदा द्रव्य मेवाभिधीयते न पर्यायास्तदा प्रभवावसान जिलाभियोगपद्यप्रवृत्ताभिव्यनिष्पादिकाभिरन्य यशक्तिभिः प्रभवायसानलाञ्छनाः क्रम : प्रवृत्ताः पर्यायनिष्पादिका व्यतिरेकव्यक्तीस्तास्ताः संक्रामतो द्रव्यस्य सद्भाव लिबद्ध एव प्रादुभावः हेमवत् । तथाहि----यदा हेमवाभिधीयते नाङ्गदादयः पयायास्तदा हेमसमानजीविताभियौं गपञ्चषवृत्ताभिहेंमनिष्पादिकाभिरन्वयशक्तिभिरङ्गदादिपर्याय समानजीविताः क्रमप्रवृत्ता अङ्ग__ मामसंज्ञ--एवंविहं सहाय वन्य दवत्थपज्जयत्थ सदसम्माणिबद्ध पादुभाव सदा । धातुसंज्ञ-लभ प्राप्तौ । प्रातिपदिक--..एवं विधं स्वभाव द्रव्य द्रव्यार्थ पर्यायार्थ सदसदावनिबद्ध प्रादुर्भाव सदा । मूलधातु-- द्रव्य ही सत् स्वयमेव है । (६) सत्ता और द्रव्य में नानापन नहीं है । (७) गुण और गुणीमें . नानापन नहीं है।
सिद्धान्त...-- (१) द्रव्य अभेद स्वभावमात्र है। दृष्टि-१- अखण्ड परमशुद्धनिश्चयनय (४४) ।
प्रयोग----तीर्थप्रवृत्तिनिमित्त किये गये गुणगुरिणच्यपदेशसे परे होकर अपनेको स्वभावमात्र निरखना ॥ ११० ।।
अब द्रव्य के सत्-उत्पाद और असत् उत्पादमें अविरोधको सिद्ध करते हैं----[एवंविध] इस प्रकार [स्वभावे] स्वभावमें अवस्थित [द्रध्यं] द्रव्य द्रव्यार्थपर्यायार्थाभ्यां] द्रव्याथिक और पर्यायाथिक नयोंके द्वारा [सदसद्भावनिबद्ध प्रादुर्भावं] सद्भावनिबद्ध और असद्भावनिबद्ध उत्पादको [सदा लमते सदा प्राप्त करता है ।
तात्पर्य-द्रव्यके द्रव्याथिकनयसे सदुत्पाद है व पर्यायाथिकनयसे असदुत्पाद है ।
टीकार्थ---इस प्रकार पूर्वकथित सर्वप्रकारसे निर्दोष लक्षण वाला अनादिनिधन द्रव्य सत्स्वभावमें उत्पादको प्राप्त होता है । द्रव्यका वह उत्पाद द्रव्यको कथनी के समय सद्भावनि
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-राप्तदशाङ्गी टीका
२११ दाविपर्यायनिष्पादिका व्यतिरेकव्यक्तीस्तास्ताः संक्रामतो हेम्नः सद्भावनिबद्ध एव प्रादुर्भावः । यदा तु पर्याया एवाभिवीयन्ते न द्रव्यं तदा प्रभवावसानलाञ्छनाभिः क्रमप्रवृत्ताभिः पर्यायनिपादिकाभिव्यतिरेकव्यक्तिभिस्ताभिस्ताभिः प्रभवावसानजिता योगपद्यप्रवृत्ता द्रध्यनिष्पादिका अन्वयशक्तीः संक्रामतो द्रव्यस्यास द्धावनिबद्ध एव प्रादुर्भावः हेभवदेव । तथाहि .....यदाङ्गदादिपाया एवाभिधीयन्ते न हेम तदाङ्गदादिपर्यायसमानजीविताभिः क्रमप्रबृत्ताभिरङ्गदादिपर्याघनिष्पादिकाभिर्व्यतिरेकच्यक्तिभिस्ताभिस्ताभिहेमसमानजीविता योगपद्यप्रवृत्ता हेमनिष्पादिका अन्वयशक्ती संकामतो हेम्नोऽसद्धावनिबद्ध एव प्रादुर्भावः । अथ पर्यायाभिधेयतायामप्यसत्प. उलभष प्राप्ती । उभयपदविवरण--एवंविहं एवंविधं सदा-अव्यय । सहावे स्वभावे-शातमी एक० । दध्वं द्रष्य-प्रथमा एक । दव्वस्थपज्जयहि-तृतीया बह० । द्रव्यार्थपर्यावार्थाभ्यां-तृतीयो हिवचन । सदबद्ध है और पर्यायोंकी कथनोंके समय असद्भावनिबद्ध है। स्पष्टीकरण ---- जब द्रव्य ही कहा जाता हैपर्याय नहीं, तब उत्पत्ति विनाशसे रहित, युगपत् प्रवर्तमान, दम्पनियादक अन्वय शक्तियोंके द्वारा, उत्पत्तिविनाशलक्षण वाली, क्रमशः प्रवर्तमान, पर्यायोंकी निष्पादिका उन-उन व्यतिरेकव्यक्तियों को प्राप्त होते जाने वाले द्रव्यके सद्भावनिबद्ध ही उत्पाद है; सुवाकी तरह । जमे जब सुवर्ण ही कहा जाता है, बाजूबंध आदि पर्याय नहीं, तब रावणं जितनी स्थायी. युगपत् प्रवर्तमान, सुवर्णनिष्पादक अन्वयशक्तियों के द्वारा, बाजूबंध इत्यादि पर्याय जितनी टिकने वाली क्रमशः प्रवर्तमान, बाजूबंध इत्यादि पर्यायोंकी निष्पादिका उन उन व्यतिरेकव्यक्तियों को प्राप्त होने वाले सुवर्णका सद्भावनिबद्ध ही उत्पाद है । और जब पर्यायें हो कहो जाती हैं द्रव्य नहीं, तब उत्पत्ति विनाश जिनका लक्षण है ऐसी, क्रमशः प्रवर्तमान, पर्यायनिष्पादिका उन उन व्यतिरेकव्यक्तियों के द्वारा, उत्पत्ति-विनाश रहित, युगपत् प्रवर्तमान द्रव्यनिष्पादक अन्वयप्रक्तियोंको प्राप्त होने वाले द्रव्य के असद्भावनिबद्ध ही उत्पाद है: सुवर्णकी ही तरह । जैसे . जब बाजूबंधादि पर्यायें ही कही जाती हैं--सुवर्ण नहीं, तब बाजूबंध इत्यादि पर्याय जितनी टिकने वाली, क्रमशः प्रवर्तमान, बाजूबंध इत्यादि पर्यायोंकी निष्पादिका उन उन व्यतिरेकव्यक्तियोंक द्वारा, सुवर्ण जितनी टिकने वाली, युगपत् प्रवर्तमान, सुवर्णनिष्पादक अन्वयशक्तियोंको प्राप्त सुवर्णके असद्भावनिबद्ध ही उत्पाद है।
सब पर्यायोंकी कथनीके समय भी प्रसत्-उत्पादमें पर्यायों को उत्पन्न करने वाली वे वे " व्यक्तिरेफव्यक्तियाँ युगपत् प्रवृत्ति प्राप्त करके अन्वय शक्तित्वको प्राप्त होती हुई पर्यायोंको द्रव्य भारता है। जैसे कि बाजूबंध अादि पर्यायोंको उत्तपन्न करने वाली वे वे व्यतिरेकव्यक्तियां युगपत् प्रवृत्ति प्राप्त करके अन्वयशक्तित्वको प्राप्त करती हुई बाजूध इत्यादि पर्यायोंको सुवर्ण
HE
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१२
सहजानन्दशास्यमालायां त्ती पर्वाय निष्पादिकास्तास्ता गतिरेकम्यक्तयो योगपद्यप्रवृत्तिमासाधान्य यशक्तित्वमापन्नाः पर्या याच द्रवीकुयु:, यथाङ्गदादिपर्यायनिष्पादिकाभिस्वाभिस्ताभिगतिरेक व्यक्तिभियोगपद्यप्रवृत्तिमा साधावयशक्तित्व मापन्नाभिरङ्गदादिपीया अघि हे मीनिये रन् । द्रव्याभिधेयतायामपि सदुत्पत्ती
नित्यादि का मन्त्रयशक्तयः क्रमप्रवृत्तिमासाद्य तसर्यात रेकव्यक्तित्वमापन्ना द्रव्यं पर्यायी कु: । यथा हेमनिष्पादिकाभिरन्वयशक्तिभिः क्रमप्रवृत्तिमासाद्य तत्तद्वयतिरेकमापन्नाभिहेमाङ्गदादिपएमात्री क्रियेत । ततो द्रव्यार्थादेशात्सदुत्पादः, पयपादिशादसत् इत्यनवद्यम् ।।१११॥ सम्भाणिवद्धं सदसद्भावनिबद्धं पानुभावं प्रादुर्भाव-द्वितीया एकवचन । लभदि लभते-वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन किया। निरुक्ति.....प्रादुर्भवन प्रादुर्भावः । समास...व्यं अर्थः प्रयोजनं यस्य सः द्रव्या पर्यायः अर्थः प्रयोजनं यस्य सः पर्यायाः, द्रध्यार्थश्च पर्यायार्थश्च द्रव्याध यार्थी ताभ्यां द्र०, सच्च अगच्च सदसती तयोः भावः सदसद्धावः तेन निवद्ध सदसहायनिन ।। १११ ।। करता है । द्रव्यको अभिधेयताके समय भी सत्-उत्पाद द्रव्यको उत्पादक अन्वयशक्तियां कमप्रवृत्तिको प्राप्त करके उस उस व्यतिरेकव्यक्तित्वको प्राप्त होती हुई द्रव्यको पर्यायरूप करती है; जैसे कि सुवर्णकी उत्पादक अन्वयशक्तियाँ क्रमप्रवृत्ति प्राप्त करके उस उस व्यतिरेक व्यक्ति स्वको प्राप्त होती हुई सुवर्णको बाजूबंधादि पर्यायमात्ररूप करती है। इस कारण द्रव्यायिकनयके प्रदेशसे सत्का उत्पाद है, पर्यायायिकनयके सादेशले असत्का उत्पाद है, यह तथ्य बाध्य है।
प्रसङ्गविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें गुणगुणीके दानापनको मिटाया गया था। अब इस काम द्रब्धपरिणामको सिद्धि के लिये द्रव्यके सदुत्सदमें व उसीके असदुत्पादमें अविरोध सिद्ध बारहे हैं।
तथ्यप्रकाश--(१) द्रव्याथिक दृष्टिसे द्रव्यका सदुस्पाद है । (२) पर्यायाधिक दृष्टि से द्रव्यका असदुत्पाद है । (३) द्रव्यके ही निरूपणमें अन्वयशक्तियों द्वारा क्रमभावी व्यतिरेकव्यक्तियों ओझल होनेसे द्रव्यका सद्भावनिबद्ध हो प्रादुर्भाव अर्थात् विद्यमानका ही उत्पाद ज्ञात होता है। (४) पर्यायोंके ही निरूपणमें उत्पादविनाशविन बाली व्यतिरेकन्यक्तियों द्वारा आन्ध एशक्तियाँ ओझल हो जाने से द्रव्यका असद्भावनिबद्ध हो प्रादुर्भात्र अर्थात् अविद्यमानका ही उत्पाद ज्ञात होता है। (५) पर्यायाथिकप्रधानतामें असदुत्पाद ज्ञात होने पर भी वे व्यतिरेकव्यक्तियां द्रव्यरूप ही हैं । (६) द्रव्याथिकप्रधानतामें सदुत्पाद ज्ञात होनेपर भी जो द्रव्य है वह पर्यायरूपमें ही है ! (७) द्रव्याथिकदृष्टि से सदुत्पाद है । (८) पर्यायाधिकदृष्टिले असदुत्पाद है ।
सिद्धान्त-(१) सामान्य दृष्टि में कालिक उत्पाद व्ययोंका आधार वही एक सत् है। (२) विशेषति में असत्का उत्पाद है ।
माया
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका अब सबुत्पादमनन्यत्वेन निश्चिनोति ---
जीवो भवं भविस्सदि गारोऽमरो वा परो भवीय पुग्यो । किं दबत्तं पजहदि ए जहं अण्णणो कह होदि ॥११२॥
जीद परिणाम घश, नृगुरादिक हो व अन्य पदमें हो। KAASHध्यत्वको सजता, तब फिर वह अन्य कैसे हो ॥ ११२ ॥ जीवो भवन भविष्यति नरोऽमरों वा परो भूत्वा पुनः । कि द्रव्यत्वं प्रजहाति न जहदन्यः कथं भवति ।।११।।
द्रयं हि तावद्व्यत्व भूतामन्त्रयशक्ति नित्यमयपरित्यजद्भवसि सदेव । यस्तु द्र पर्याय भूताया व्यतिरेक व्यक्तेः प्रादुर्भावः तस्मिन्नपि द्रव्यत्वभूताया अन्नय शक्ते रावनात् व्यमनत्यदेव । ततोऽनन्यत्वेन निश्चीयते द्रध्यस्य सदुत्पादः । तथाहि--जोत्रो द्रव्यं भवतार
नामसंजीव भक्त णर अमर वा पर पुणो कि दव्यत्त ण जहं अण्ण कहं । धातुसंज्ञ----भाव मलायां, जहा त्यागे, हो सत्तायां । प्रातिपदिक .. जीव भवत् नर अगर बा पर पुनर कि इत्यत्व न जहत अन्य का। मूलधातु- ओहाक त्यागे, भू सताया । उभयपदविवरण---जीवो जीव: णरो नरः अमरो अमरः परो पर: अपणो अन्यः-प्रथमा एकवचन । भवं भवन्-प्रथमा एक कृदन्त । भविस्सदि भविष्यति-भविष्य
हष्टि-१-- सर्वसामान्यनय (११)। २-- ऊर्वविशेषन य (२००)।
प्रयोग--जिस मुझने पहिले अज्ञानचेष्टा की वह मैं आज ज्ञानस्वरूपको निहार रहा ई पोर प्रागामी कालमें योग्य नरभव पाकर जिनदीक्षा ग्रहण कर निश्चयरलत्रय जाताजन्ता"नन्दमें तृप्त होऊँगा वह मैं एक प्रात्मद्रव्य हूँ अत्य नहीं, हो अज्ञान पर्याय अज्य है व रत्न. त्रयात्मक पर्याय अन्य है ऐसा जानकर सर्व पर्याय में गुजरने वाले एक चैतन्यस्वरूप अन्तस्तत्व की उपासना करना ।। १११ ॥
अब सत् उत्पादको सब पर्यायों में द्रव्यके अनन्यत्वके द्वारा निश्चित करते है-[जीवः] जीव भिवत् ] परिणमता हा निरः] मनुष्य, [अमरः] देव [वा] अथवा [परः] अन्य कुछ भिविष्यति] होगा, [पुनः] परन्तु [भूत्या] मनुष्य देवादि होकर [f] क्या वह [द्रष्यत्वं अजहाति द्रव्यत्वको छोड़ देता है ? [न जहत्] सो द्रव्यत्वको नहीं छोड़ता हुआ ब अत्यः कय भवति । अन्य कैसे हो सकता है ? RAM तात्पर्य--अपने अनेक पर्यायों में परिणमता हुआ दम द्रव्यत्वको न छोड़ने के कारण वह यही रहता है, अन्य नहीं हो जाता ।
टीकार्थ--द्रव्य तो द्रव्यत्वभूत सन्दय शक्तिको कभी भी न छोड़ता हा सत् हो है। पौर जो द्रव्य के पर्यायभूत व्यतिरेकव्यक्तिका उत्पाद है उसमें भी द्रव्धत्वभुत अन्वयशक्तिका मध्यतपना होनेसे द्रव्य अनन्य ही है, इसलिये अनन्यत्वके द्वारा द्रव्यका सलाद निश्चित
NIR
ॐ
दि
.
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१४
...
..
..
.
..
.......
MMEN
सहजानंदशास्त्रमालायां कतिर्यग्मनुष्यदेवसिद्धत्वानामन्यतमेन पर्यायेण द्रव्यस्य पर्यायदुर्ललितवृत्तित्वादवश्यमेव भवि. ध्यति । स हि भूत्वा च तेन किं द्रव्यत्वभूतामन्त्रयशक्तिमुज्झति, नोज्झति । यदि नोजमति कथमन्यो नाम स्यात्, येन प्रकटितत्रिकोटिसत्ताकः स एव न स्यात् ।। ११२ ।। अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । भयीय भूत्वा--असमाप्तिकी क्रिया । वा पुणो पुनः किण बाहं कथं-अव्यय । दव्वत्तं द्रव्यत्वं-द्वितीया एका । पजहदि प्रजाति-वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । जहं जह-प्रथमा एक० कृदन्त । होदि भवति-वर्त अन्य एक भिन्या । निरुक्ति-G मरतीति अगर आयुषः पूर्व न. मति), द्रव्यस्य भावः द्रव्यत्वम् ।। ११२ ।। होता है । स्पष्टीकरण---जीव द्रव्य परिणमता हुआ नारकत्व, तिर्यंचत्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्वमें से किसी एक पर्याय में अवश्य ही होगा, क्योंकि द्रव्यका पर्याय में होना अनिवार्य है। परंतु वह जीव उस पर्यायरूप होकर वया द्रव्यत्वभूत अन्वयशक्तिको छोड़ता है ? नहीं छोड़ता यदि नहीं छोड़ता तो वह अन्य कैसे हो सकता है कि जिससे कालिक अस्तित्व प्रगट है . जिसके ऐसा वह जीव वही न हो ?
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें द्रव्यके सदुत्पाद व असदुत्पादमें अविरोध सिद्ध किया गया था । अब इस गाथामें सदुत्पादका द्रव्यके अनन्यपनेसे निश्चित किया गया है ।
तथ्यप्रकाश--(१) वास्तवमें द्रव्य सदैव सत् है, क्योंकि वह द्रव्यत्वभूत अन्न यशक्ति को कभी भी नहीं छोड़ता । (२) द्रव्यको अवस्थाके उत्पादमें भी द्रव्यत्वभूत अन्वयशक्ति कभी नहीं हटतो, अतः प्रत्येक पर्याय में द्रव्य वहीका वही अनन्य है । (३) द्रव्यका सदुत्पाद अनन्यपनेसे ही है । (४) कुछ भी पर्याय हो क्या द्रव्य वह न रहा ? क्या अन्य हो गया ? नहीं, द्रव्य प्रतिपर्यायमें वही है। (५) द्रव्यान्वयशक्तिरूपसे जो हो सद्भावनिबद्ध उत्पाद द्रव्यसे अभिन्न है।
सिद्धान्त-(१) जो भी पर्याय होती है वह अन्वित द्रव्यका विशेष है सो वह पर्याय द्रव्यसे अन्य नहीं है। __दृष्टि-१- अन्वय द्रव्याथिकनय (२७)।
प्रयोग---संसार अवस्था व मुक्तिप्रवस्थामें मैं ही होता हूं वह कोई अन्य नहीं, अतः संसारावस्थासे हटकर केवल ही रहूं एतदर्थ अपनेमें केवल चतन्यस्वरूपकी उपासना करना।११२॥
अब असत्के उत्पादको अन्यत्व के द्वारा निश्चित करते हैं.-.--[ मनुजः] मनुष्य [देवः न भवति] देव नहीं है, [वा] अथवा [देवः] देव [मानुषः वा सिद्धः वा] मनुष्य या सिद्ध नहीं है; [एवं अभवन् ] सो ऐसा न होता हुआ वह [अनन्यभावं कथं लभते.] अन्यभावको कैसे प्राप्त हो सकता है ?
wwwww
Me
: Kulkwww
SANTwww
wwwww
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१५
मा
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका भयासत्पादमन्यत्वेन निश्चिनोति-----
मणुवो रण होदि देवो देवो वा माणुसो व सिद्धो वा। एवं ग्रहोजमाणो अणण्णा भावं कधं लहदि ॥ ११३ ॥ नर नहि सुर सिद्धादिक, सुर नहिं नर सिद्ध प्रादि परिणतिमें।
इक अन्यमय न होता, तब उनमें एकता कसे ॥ ११३ ॥ मतुजो न भवति देवो देवो वा भानुपो वा सिद्धो बा। एवमभवन्ननन्यभायं कथं लभते ॥ ११३ ।। म पीया हि पर्यायभूताया आत्मव्यतिरेकव्यक्तेः काल एव सत्त्वात्ततोऽन्य कालेषु भवत्यसन्त एव । यश्च पर्यायारणों द्रव्यत्वभूयान्वयशक्त्यानुस्यूतः क्रमानुपाती स्वकाले प्रादुर्भावः तस्मित्पर्यायभूताया आत्मव्यतिरेकमक्तेः पूर्वमसत्त्वात्पर्याया अन्य एव । ततः पर्यायामामन्य. स्वेन निश्चीयते पर्यायस्वरूपकर्तृ करणाधिकरणभूतत्वेन पर्यायेभ्योऽपूयम्भूतस्य द्रव्यस्यासदुत्पादः।
सामसंज्ञ---मशुव ण देव वा मास व गिद्ध एवं अहोज्जमाण अणण्णाभाव वधं । धातुसंज...हो । सत्ताया, लभ प्राप्तौ । प्रातिपदिक- मनुज देव न मानुष वा सिंद्य एवं अभवत् अनन्यभाव कथं । मूलधातु
तात्पर्य----पर्याय एक दूसरे रूप नहीं हैं, प्रतः पर्याय अन्य अन्य ही हैं, अनन्य नहीं।
टोकार्थ--पर्याय पर्यायभूत स्वव्यतिरेकव्यक्ति कालमें ही विद्यमान होनेसे, उससे प्रत्य कालोंमें विद्यमान ही हैं । और जो पर्यायोंका द्रव्यत्वभुत अन्वयशक्ति के साथ गुथा या समानुपाती स्वकाल में उत्पाद है उसमें पर्यायभूत स्वव्यतिरेक व्यक्तिका गहले असत्त्व होनेसे पर्याय अन्य हैं । इस कारण पर्यायोंकी अन्यताके द्वारा निश्चित किया जाता है कि पर्यायोंके स्वरूपका कर्ता, करण और अधिकरण होनेसे पर्यायोंसे अपृथग्भूत द्रव्य असदुत्पाद है। स्पष्टीकरण-मनुष्य, देव या सिद्ध नहीं है, और देव, मनुष्य या सिद्ध नहीं है। ऐसा न होता इसा अनन्य अर्थात् वहोका वही कैसे हो सकता है कि जिससे अन्य हो न हो और जिससे मनुष्यादि पर्याय उत्पन्न होती है जिसके ऐसा जीव द्रव्य भी कंकणादि पर्याय उत्पन्न होती है जिसके ऐसे सुवर्णकी तरह प्रति पर्यायपर अन्य न हो ?
प्रसंपविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें सदुत्पादको द्रव्यसे अनन्य निश्चित किया गया या। अब इस गाथामें असदुत्पादको अन्यपनेरूपसे निश्चित किया गया है।
तथ्यप्रकाश-(१) पर्याय अपने परिणमनकालमें ही होती है, पूर्व या पश्चात् अन्य कालमें नहीं, अतः पर्यायका उत्पाद पर्यायदृष्टिमें असत् का उत्पाद कहा जाता है । (२) एक द्रव्यमें होने वाले पर्याय भी एक दूसरेसे अन्य अन्य ही हैं। (३) पर्यायदृष्टिसे अन्य अन्य पायोंका उत्पाद पर्यायसे अपृथग्भूत भी द्रव्यका असदुत्पाद कहा जाता है । (४) चंकि पर्याय
।
WAYAKA
RESSarters
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां
तथाहि न हि मनुजस्त्रिदशो वा सिद्धो वा स्यात् न हि त्रिदशो मनुजो वा सिद्धो वा स्यात् । एवमसन कथमनन्यो नाम स्यात् यनान्य एव न स्यात् । येन च निष्पद्यमान मनुजादिपर्याय जायमानवलयादिविकारं काञ्चनमिव जीवद्रव्यमपि प्रतिपदमन्यन्न स्यात् ॥ ११३ ॥ भू सताया, डुलभ प्राप्ती । उभयपद विवरण-मणु वो मनुजः देवो देव: मारसो मानुषः सिद्धो सिद्धःप्रथमा एक० । अहोज्जमाणो अभवन्-प्रथमा एकवचन कृदन्त । अण्णणभाव अनन्यभाव-द्वितीया एक० ।। ण न बा व काचं कथं-अव्यय । होदि भवति लहदि लभते वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । निरुक्तिमनो जातः मनुजः, दिव्यतीति देवः, सिद्धयतिस्म इति सिद्धः । समास---'न अभ्यः अनन्यः अनन्यस्य भावः अनन्यभावः ल ।। ११३ ।। भिन्न वस्तु नहीं वह उसरूप परिणत द्रव्य ही है, अतः असत्के उत्पादकी दृष्टिमें वह द्रव्य भी अन्य अन्य हुमा समझा जाता है । (५) यह एक परमात्मद्रव्य परमार्थतः मनुष्य व देवादि पाँबसे विलक्षण है सो सब पर्यायों में यह परमात्मद्रव्य एक है, तो भी मनुष्य देवादिक नहीं। (६) किसी एक पर्याय दुसरा पर्याय नहीं पाया जाता । (७) पर्यायें सब भिन्न-भिन्न अपने अपने कालमें होते हैं । (८) कोई भी पर्याय दूसरे पर्यायके कालमें न होनेसे सब पायें अन्य अन्य ही हैं । (६) द्रव्यका हुना प्रसदुत्पाद पूर्व पर्यायसे भिन्न है।
सिद्धान्त---(१) प्रत्येक पर्याय विनाशीक है व अन्य पर्यायोंसे भिन्न है। दृष्टि---१ - सत्तागौरपोत्यादव्यय ग्राहनित्य अशुद्ध पर्यायाथिकनय (३७)।
प्रयोग---विभावपर्यायको हेय जानकर व स्वाभाविक पर्यायको उपादेव जानकर स्था. भाविक पर्यायके स्रोतभूत चैतन्यस्वभावको उपासना करना ।। ११३ ॥
अब एक ही द्रज्यके अन्यत्य और अनन्यत्वके विरोधको दूर करते हैं-द्रव्याथिकेला द्रव्याथिक नयसे [तत् सावं] वह सब [द्रव्यं] द्रव्य [अनन्यत् ] अनन्य है; [पुनः च और [पर्यायाथिकेन] पर्यायाथिक नबसे [लत्] वह (सब द्रव्य) [अन्यत्] अन्य-अन्य है, काले तन्मयत्वात् ] क्योंकि उस समय द्रव्यको पर्यायसे तन्मयता है ।
तात्पर्य--प्रत्येक एक ही द्रव्य अपने नाना पर्यायों को क्रमशः करता रहता है, अतः द्रव्यदृष्टिसे वह वही एक है, पर्यायष्टिसे वह अन्य अन्य है।
टीकार्थ-वास्तवमें सभी वस्तुओंकी सामान्य विशेषात्मकता होनेसे वस्तुका स्वरूप देखने वालोंके क्रमशः सामान्य और विशेषको जानने वाली दो परिवे--(१) द्रध्याथिक और (२) पर्यायाथिक ये हैं । इनमें पर्यायाथिक चक्षुको सर्वथा बन्द करके जब मात्र तुली हुई द्रव्याथिक चक्षुके द्वारा देखा जाता है तब नारकत्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्व-पर्यायस्वरूप विशेषों में रहने वाले एक जीवसामान्यको देखने वाले और विशेषोंको न देखने वाले जीवोंकों
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रचचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
अर्धकद्रव्यस्यान्यत्वानन्यत्वविप्रतिषेधनोति
दव्वणि सव्वं दव्वं त पज्जयडिएण पुणे | दम तकाले तम्मयत्तादो ॥ ११४ ॥
२१७
द्रव्य द्रव्यार्थनयसे, सब हैं अन्य अन्यान्य पर्ययो नयसे ।
क्योंकि उन उन विशेषों के क्षण में द्रव्य तन्मय है ॥ ११४ ॥ द्रव्यार्थिकेन सर्वं द्रव्यं तत्पर्यायार्थिकेन पुनः । भवति चान्यदनन्यत्तत्ला तन्मयत्वात् ॥ ११४ ॥ सर्वस्य हि वस्तुनः सामान्यविशेषात्मकत्वात्तत्स्वरूपमुपश्यतां यथाक्रमं सामान्य विशेष परिच्छिन्दतीद्वे किल चक्षुषी, द्रव्याथिक पर्यायार्थिक चेति । तत्र पर्यायार्थिकमेकान्तनिमीलित
नामसंज्ञ - दव्वयि सब दब्व त पज्जयट्टिय गुणो न अभ्भ अणण तक्काल मत धातुसंज्ञ-हव सत्तायां । प्रातिपदिक द्रव्याधिक सर्व द्रव्य तत् पर्यायार्थिक व अन्य अनन्य तत्काल तन्मयत्व | सलधातु में सत्तायां । उभयपदविवरण- दव्वट्ठिएण द्रव्याधिकेन पज्जयद्विण पर्यायार्थिकेन-तृतीया एक । सव्वं सर्व दव्वं द्रव्यं तं तत् अन्यत् अनन्यत् प्रथमा एकवचन | हवदि भवति वर्तमान अन्य पुरुष
'वह सब जीव द्रव्य है' ऐसा भावित होता है । और जब द्रव्याथिक चक्षुको सर्वथा बंद करके मात्र खुली हुई पर्यायायिक चक्षुके द्वारा देखा जाता है तब जोवद्रव्यमें रहने वाले नारकत्व, तिर्यक्त्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्व पर्याय स्वरूप अनेक विशेषों को देखने वाले और सामान्य को न देखने वाले जीवोंको वह जीवद्रव्य अन्य अन्य भासित होता है, क्योंकि द्रव्य उन-उन विशेषोंके समय तन्मय होने से उन उन विशेषोंसे अनन्य है-कंडे, घास, पत्ते और कामय की तरह । और जब उन द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों आंखों को एक ही साथ खोलकर इनसे अर्थात् द्रव्यार्थिक तथा पर्यायाधिक वक्षुयोंसे देखा जाता है तब नारक स्व तिर्यक्त्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्व पर्यायोंमें रहने वाला जनसामान्य तथा जीवसामान्य में रहने वाले नारकत्व, तिर्यक्त्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्व पर्यायस्वरूप विशेष एक ही साथ दिखाई देते हैं। वहाँ एक खिसे देखा जाना एकदेश प्रवलोकन है और दोनों खोंसे देखना संपूर्ण अवलोकन है । इस कारण सर्वावलोकनमें द्रव्य के अन्यत्व और अनन्यत्व विशेषको प्राप्त नहीं होते ।
प्रसंगविवरण - श्रनन्तरपूर्व गाथा में द्रव्यके प्रसदुत्पादको अन्यरूपसे निश्चित किया गया था । अब इस गाथामें एक ही द्रव्यके अन्यत्व व अनन्यत्वके विरोधका परिहार किया गया है ।।
तथ्यप्रकाश - ( १ ) प्रत्येक पदार्थ सामान्यविशेषात्मक है । (२) पदार्थका सामान्य
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१८
सहजानन्दशास्त्रमालायां
विधाय केवलोन्मीलितेन द्रव्यार्थिकेन यदावलोक्यते तदा नारकतिर्यङ्मनुष्यदेव सिद्धत्व पर्यायात्मकेषु विशेषेषु व्यवस्थितं जीवसामान्य से कमवलोकयतामनचलो किलविशेषाणां तत्सर्वजीवद्रव्यमिति प्रतिभाति । यदा तु द्रव्यार्थिकमेकान्तनिमोलितं केलोन्मीलितेन पर्यायार्थिकेनावलोक्यते तदा जीवद्रव्ये व्यस्थितान्नारक तिर्यग्मनुष्य देव सिद्धत्व पर्यायात्मकान् विशेषानने कावलोकयतामनबलोकितसामान्यानामन्यदन्यत्प्रतिभाति । द्रव्यस्य तत्तद्विशेषकाले तत्तद्विशेषेभ्यस्तन्मयत्वेनानन्यत्वात् गणतृणपर्णंदारुमयहव्यवाहवत् । यदा तु ते उभे ग्रपि द्रव्याधिकपर्यायार्थिक तुल्यका लोन्मीलिते विधायत इतश्चावलोक्यते तदा नारक तिर्यङ्गमनुष्यदेव सिद्धत्व पर्यायेषु व्यवस्थितं जीवसामान्य जीवसामान्ये च व्यवस्थिता नारकतिर्यग्मनुष्य देव सिद्धत्व पर्यायात्मका विशेषाश्च तुल्यकालमेवावलोक्यन्ते । तत्रैकचक्षुरवलोकनमेक देशावलोकनं द्विचक्षुरयलोकनं सर्वावलोकनं । ततः सर्वावलोकने द्रव्यस्यान्यत्वानन्यत्वं च न विप्रतिषिध्यते ॥ ११४ ॥
एकवचन किया। तक्काले तत्काल सप्तमी एकवचन | सम्मयतादो तन्मयत्वात् पचमी एकवचन । निरु वित-- द्रवतीति द्रव्यं तेन निर्वृत्तं तन्मयं तस्य भावः तन्मयत्वं तस्मात् । समास- द्रव्यं अर्थः प्रयोजन यस्य स द्रव्यार्थिकः तेन द्रः पर्यायः अर्थः प्रयोजनं यस्य सः पर्यायार्थिकः तेन प० ॥ ११४ ॥
स्वरूप त्रैकालिक है । (३) पदार्थका विशेषस्वरूप क्षण क्षण में नया नया है । ( ४ ) सामान्य स्वरूपको जानने वाला नेत्र द्रव्यार्थिकनय है । (५) विशेषस्वरूपको जानने वाला नेत्र पर्याया थिंक नय है । (६) पर्यायार्थिक नेत्रको बंद कर केवल द्रव्यामिक नेत्रसे दिखनेपर नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य, देव सिद्ध पर्यायविशेषों में एक जीवद्रव्य ही प्रतिभान होता है, क्योंकि यहाँ विशेष देखे नहीं गये । ( ७ ) द्रव्याधिक नेत्रको बंद कर केवल पर्यायार्थिक नेत्रसे जीवद्रव्य में व्यवस्थित नारकादि पर्यायोंको देखनेपर वे सब विशेष अन्य ग्रन्थ हो ज्ञात होते हैं, क्योंकि यहाँ जीवसामान्य देखा नहीं गया । (८) जब द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक दोनों नेत्रों को एक साथ खोलकर देखा जाय तब नारकादि पर्यायोंमें व्यवस्थित जीवद्रव्य व जीवद्रव्य में व्यवस्थित नारकादि पर्यायें एक साथ देखे जाते हैं । (६) एक नय नेत्र से देखनेपर एकदेश दिखाई देता है । (१०) दोनों नय नेत्रोंसे देखनेपर सब दिखाई देता है । (११) सबके अवलोकन में द्रव्यका अन्यत्व व अनन्यत्व अविरोध सुविदित होता है । ( १२ ) द्रव्याथिक नयसे पर्यायसन्तान रूप में द्रव्य एक ही विदित होता । (१३) पर्यायार्थिकनयसे द्रव्य पर्यायरूप में भिन्न-भिन्न विदित होता । (१४) सापेक्षतया दोनों नयोंसे एक साथ निरखनेपर द्रव्यका एकत्व व अनेकत्व एक साथ विदित होता ।
सिद्धान्त - ( १ ) एक ही द्रव्य प्रतिसमय अनिवारित विशेषमय निरखा जाता है ।
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
--
825
-
सहजानन्दशास्त्र मालायां
२१६ अथ सर्वविप्रतिषेधनिषेधिकां सप्तभङ्गोमवतारयति----
अत्थि त्ति य णस्थि त्ति य हवदि अवत्तव्यमिदि. पुणो दव्यं । पजायेण दु केण वि तदुभयमादिठ्ठमण्यां वा ॥ ११५ ॥
द्रव्य कई दृष्टियोंसे, अस्ति नास्ति श्रवक्तव्य होता है।
उभय तीन व यात्मक, यो सब मिल सप्त भंग हुए ॥ ५१५ ॥ AIL अस्तीति च नास्तीति व भवत्यवक्तव्यमिति पुनद्रव्यम् । पर्यायेण तु बेनचित् तदुभयमादिष्टमन्याहा॥११५।।
स्थादस्त्येव १ स्यान्नास्त्येव २ स्यादवक्तव्यमेव ३ स्थादस्तिनास्तव ४ स्यावस्त्यवक्त1 व्यमेव ५ स्यान्नास्त्यवक्तव्यमेव ६ स्यादस्तिनास्त्यवक्तव्यमेव ७ । स्वरूपेमा १ पररूपेण २ स्वपररूपयोगपद्येन ३ स्वपररूपक्र मेण ४ स्वरूपस्वपररूपयोगपधायां ५ परपस्थपररूपयोग
नामसंज-त्ति ण य पुणो दु वि या अकराव्य दम्य पज्जाय का सदुमन अदिदुः अ०। धातसंज्ञ--- अस सत्तायो, हव सत्वायां । प्रातिपदिक.... इति न च पुनर् तु अपि वा अवक्तव्य द्रव्य गाय कि तदुभय
दृष्टि----१- अन्वयद्रव्यायिक प्रतिपादक व्यवहार (८३), सत्तासापेक्ष नित्य अशुद्ध पर्यायाधिक प्रतिपादक व्यवहार (१४) ।
प्रयोग----जो ही मैं यहाँ संसारावस्थामें आकुल रहता हूंबही मैं मुक्तावस्था में शाश्वत अताकुल रहूंगा ऐसे निर्णयपूर्वक मुक्तिके लिये अविकार बैतन्यस्वभावमय बादल अन्तस्तत्त्वकी । भावना करना ॥११४॥
अब समस्त विरोधोंको दूर करने वाली सप्तभंगीको उतारते हैं--- [द्रव्ये द्रव्य किनचित पर्याधेस तु] क्रिसी पर्यायसे तो [अस्ति इति च अस्ति' [वास्ति इति च और किसी पर्यायसे 'नास्ति' [पुनः] और [प्रवक्तव्यम् इति भवति] किसी पर्याय से 'अबक्तव्य' है, [तदुभय] और किसी पर्यायसे 'अस्ति नास्ति, (दोनों) [वा] अश्वका अन्यत् आदिष्टम्] किसी पर्याय से अन्य तीन भंगरूप कहा गया है।
टोकार्थ---- द्रव्य (१) स्यात् अर्थात् स्वरूपसे अस्ति; (२) 'स्पात् अर्थात् पररूपसे नास्ति (३) 'स्यात् अर्थात स्वरूप पररूपके योगपद्यसे प्रवक्तव्य'; (३) 'स्थात् स्वपररूपक्रमसे मस्तिनास्ति'; (५) 'स्यात् स्वरूपसे व स्वपररूपयोगपद्यसे अस्ति-प्रवक्तव्य'; (६) 'स्यात् प्रति पररूपसे व स्वपररूपयोगपद्यसे नास्ति प्रवक्तव्य'; और (७) 'स्यात् स्वरूपसे, पररूप से व स्वपररूपयोगपद्यसे अस्ति-नास्ति-प्रवक्तव्य' है।
स्वरूपसे, पररूपसे, स्वपररूपके योगपद्यसे स्वरूप और पररूप के क्रमशः स्वरूप और EMAI स्वरूप-पररूपके योगपद्यसे पररूपसे और स्वरूपपरहाके योगपद्य से, स्वरूपसे, पररूपसे
मात
matalawwmoniuwww
S
3SUPER
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां
पद्याभ्यो ६ स्वरूपपररूपस्वपररूपयोगपोरादिश्यमानस्य स्वरूपेरण सप्तः, पररूपेण सतः, स्वपररूपाभ्यां युगपदक्तुमशक्यस्य, स्वपररूपाभ्यां क्रमेण सतोऽसतश्च, स्वरूपस्दप१रूपयौपद्याभ्यां सतो वक्तुमशक्यस्य च, पररूपस्वपररूपयोगपद्याभ्यामसतो अक्तुमशक्यस्य च, स्वरूपपररूपस्वपररूपयोगपः सतोऽसतो वक्तुमशक्यस्य चानन्तधर्मशो द्रव्यस्यवेक धर्माभिस्य विवक्षिताविवक्षितविधिप्रतिषेधाभ्यामवत्तरन्ती सप्तभङ्गिकैवकारविश्रान्तमश्रान्ससमुच्चार्यमाहास्याकारामोधमन्त्रपदेन समस्तमपि विप्रतिषेधविधमोहमुदस्यति ॥ ११५ ॥ आदिष्ट अन्य । मूलधातु-- भू सत्तायां, अस् भुवि । उभयपदविवरण—त्ति इति ण न गुणो पुनः तु दुवि अपि बा-अव्यय । अवत्तवं अवतन्य पज्जायेण पर्यायेन-तृतीया एकावन्धन । के केन-तृ० ए० । तदुभयं आदिट्ट आदिष्ट अण्णं अन्य-प्र० एक० । अस्थि अस्ति हवदि भवति-वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन लिया। निरुक्तिवक्तुं योग्यं वक्तव्यं न बक्तव्य इति अवक्तव्यं, परि अयन पर्यायः ! समास - यो: उभयं तदुभयम् ।। १५५ ।। पौर स्वरूपपररूपके योगपचसे कहे जा रहे स्वरूपसे सत्, पररूपसे असत्. स्वाररूपस युगपत् कहा जानेके लिये अशक्य, स्वपररूपोंके द्वारा क्रमसे सत् व असत, स्वरूप और स्वपररूपयोगपद्य द्वारा सत् प्रवक्तव्य, पररूप व स्वपररूपयोगपद्यके द्वारा असत् प्रवक्तव्य, स्वरूप व पररूप व स्वपररूपयोगपद्यस सत्-असत् प्रवक्तव्य---ऐसे अनन्त धर्मों वाले द्रव्य के एक एक धर्म का प्राश्रय लेकर विवक्षित-अविविक्षितके विधिनिषेधके द्वारा प्रगट होने वाली सप्तभंगो सतत सम्यक्तया उच्चारण किये जा रहे स्यात्कार रूपी अमोघ मंत्र पदके द्वारा पचकार में रहने वाले समस्त विरोध-विषके मोहको दूर करती है ।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें एक द्रव्यके सदुत्पाद व असदुत्पाद का विरोध बताया गया था। अब इस गाथामें सर्वविरोधको दूर करने वाली सप्तभंगोका अवतार किया
गया है।
तथ्यप्रकाश--(१) वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक है अतः किसी भी धर्मी वस्तु में किसी विवक्षासे जो धर्म कहना हो उसमें उसका प्रतिपक्षभूत धर्म भी अन्य दृष्टि से साधा जाता है । (२) द्रव्याथिक दृष्टि से व पर्यायाथिक दृष्टिसे जब दो धर्म स्वतंत्र परखे गये तब एक साथ उन्हें न कह सकनेके कारण एक प्रवक्तव्य धर्म भी हो जाता है। (३) जहाँ ३ धर्म हों उनके द्विसंयोगी धर्म तीन हो जाते हैं । (४) जहाँ ३ धर्म हों उनका त्रिसंयोगी धर्म एक हो जाता है । (५) एक एक धर्म ३, द्विसंयोगी धर्म ३ व निसंयोगी धर्म १, इस प्रकार सप्त भंगोंका समूह सप्तभंगी कहलाता है । (६) जीव द्रव्यदृष्टि से नित्य ही है, पर्यायष्टिसे अनित्य ही है, युगपदुभय दृष्टिसे प्रवक्तव्य ही है, क्रमशः द्रव्य पर्यायष्टि नित्य और अनित्य ही है क्रमशः
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
अथ निर्धार्यमाणत्वेनोदाहराणीकृतस्य जीवस्य मनुष्यादिपर्यायारणां क्रियाफलत्वेनान्यत्वं
द्योतयति
२२१
एसो तिथि कोई मा गात्थि किरिया सहावणिव्वत्ता । किरिया feat फला धम्मो जदि फिलो परमो ॥ ११६ ॥
यी नहीं कि संसारी, जीवोंको किया प्राकृतिक न बने
fter भवफलरहित नौह, धन्य परम धर्म यौं निष्फल ॥ ११६ ॥
एष इति नास्ति कश्चिन्न नास्ति क्रिया स्वभावनिर्वृता । क्रिया हि नास्त्यफला धर्मो यदि निःफलः परमः ॥1 हि संसारt strस्थानादिकर्मबुद्गलोपाधिसन्निविप्रत्ययप्रवर्तमानप्रतिक्षणविव नस्य क्रिया किल स्वभावनिर्वृ चैवास्ति । ततस्तस्य मनुष्यादिपर्यायेषु न कश्चनाप्येष एवेति
नामसंज्ञ - एतत्ति ण कोई किरिया सहावणिवत्ता अफला धम्म जदि पिफ्फल परम । धातुसंज्ञअस सत्तायां, कर करो। प्रातिपदिक- एतत् इति न कश्चित् क्रिया स्वभावनिर्वृत्ता क्रिया हि अफला द्रव्य युगपदुभय दृष्टिसे नित्य प्रवक्तब्य हो है, क्रमशः पर्याय युगपदुभयदृष्टिसे ग्रनित्य प्रवक्तव्य ही हैं, क्रमशः द्रव्य पर्याय व युगपदुभयद्दष्टिसे नित्य श्रनित्य प्रवक्तव्य ही है । ( ७ ) सप्तभगी प्रत्येक मंगोंमें अपेक्षा और निश्चय दोनों होने से उनका द्रव्यमें कुछ भी विरोध नहीं है और नर संदेह है ।
सिद्धान्त - (१) वस्तुको ज्ञप्ति सात भंगोंमें होती है ।
दृष्टि- १-३- अस्तित्वनय, नास्तित्वनय, वक्तव्यनय, अस्तित्वनास्तित्वनय, अस्तित्वा वक्तव्यनय, नास्तित्वावक्तव्यनय, ग्रस्तित्वनास्तित्वावक्तव्यनय ( १५४ - १६० ) ।
प्रयोग - विविध नयोंसे अपना परिचय प्राप्त करके सर्वे नयोंसे अतीत सहज अन्ततत्व तुभवका पौरुष होने देना ॥ ११५ ॥
निर्णय किये जानेके रूपसे उदाहरणरूप किये गये जीवके मनुष्यादि पर्यायोंका क्रियाफलपने के रूपसे उनका श्रन्यत्व प्रकाशित करते हैं [ एषः इति कश्चित् नास्ति ] सदा यही है ऐसी संसार में कोई पर्याय नहीं है, [स्वभाव निर्वृता किया नास्ति न ] और विभाव पर्याय स्वभाव से निष्पन्न अर्थात् प्रकृतिनिष्ठान्न क्रिया नहीं हो सो भी बात नहीं है, [ क्रिया हि प्रफला नास्ति ] विकारक्रिया नरनारकादि पर्यायरूप फल देनेसे रहित नहीं है, [ यदि हि परमः धर्मः निष्फलः ] जब कि निर्विकार परमात्मकी उपलब्धिरूप धर्म मनुष्यादिपर्यायरूप फल देने वाला नहीं है ।
तात्पर्य- विकार क्रियायें नाना सांसारिक पर्यायरूप फलोंको देती हैं और वे पर्यायें
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
AS
२२२
सहजानन्दशास्त्रमालायां
ReONGER
WASNORING
टोत्कोरोऽस्ति, तेषां पूर्वपूर्वोपमर्दप्रवृत्तक्रियाफलत्वेनोत्तरोत्तरोपमर्धमानत्वात् । फलमभिलख्येत वा मोहसंबलनाविलयनात् क्रियायाः । क्रिया हि तावच्चेतनस्य पूर्वोत्तरदशा विशिष्टचतन्यपरिणामात्मिका ! सा पुनरणोरण्वन्तरसंगतस्य परिणतिरिवात्मनो मोहसंबलितस्य द्वयणुककार्यस्येव मनुष्यादिकार्थस्य निष्पादकत्वात्सप्फलंब । सैव मोहसंबलनविलयने पुन रणोच्छिन्नाण्वन्तरसंगमस्य परिणतिरिव द्वचाककार्यस्येव मनुष्यादिकार्यस्यानिष्पादकत्वात् परमद्रव्यस्वभावभूततया परमधर्माच्या भवत्यफलैत्र ।। ११६ ।। धर्म यदि परम । मूलघात.....अस' भुवि, कुकृत्र करणे । उभयपदविवरण--एसो एषः-- ० एका० । त्ति इति ण न हि जदि यदि-नव्यय । कोई कश्चित् अन्यय अन्तः प्रयभा एक० । अस्थि अस्ति...वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । किरिया विधा राहाणिवत्ता स्वभानिवृता अफला-प्रथमा एकवचन । धम्मो धर्मः णिप्फलो निाफल परमो परम:-प्रथमा एकवचन। निरुक्ति-करणं क्रिया, भवनं भायः, धरणं धर्मः । समास.-.-स्वभावेन नित्ता स्वभावनिर्वृता, च फलं विद्यते यस्याः सा अफला, निर्गतं फलं यस्मात् स निष्फल: परा मा विद्यते यत्र स: परमः ।। ११६ ॥ नानाविध अन्य ग्रन्य है।
टीकार्थ-इस विश्व में अनादिकर्मपुद्गलकी उपाधिके सद्भावके कारणसे जिसके प्रति क्षण विपरियामान होता रहता है। ऐसे संसारी जीनको किया वास्तव में प्रकृति निष्पन्न ही है। इसलिये उसके मनुष्यादि पायों में से कोई भी पर्याय 'यही है ऐसी टंकोत्कीर्ण नहीं है; क्योंकि वे पर्याय पूर्व पूर्व पर्यायोंके नाश में प्रवृत्त क्रियाफलरूप होनेसे उत्तर-उत्तर पर्यायोंके द्वारा नष्ट होती हैं अथवा मोहके साथ मिलनका नाश न होने से क्रियाका फल तो मानना ही चाहिये । वास्तवमें क्रिया चेतनकी पूर्वोत्तर दशासे विशिष्ट चैतन्यपरिणामस्वरूप है । और, वह क्रिया दूसरे अगुके साथ युक्त अगुको परिणति द्वथरगुक कार्यको निष्पादक होने की तरह मोहके साथ मिलित आत्माकी परिणति में, मनुष्यादि कार्यक्री निष्पादक होनेसे सफल ही है; और जैसे दूसरे अरगुके साथ का सम्बन्ध जिसका नष्ट हो गया है, ऐसे अणुकी परिणति द्वयणुक कार्यको निष्पादक नहीं है, उसी प्रकार मोहके साथ मिलनका नाश होनेपर द्रव्यको परमस्वभावभूत होनेसे 'परमधर्म' नामसे कहीं जाने वाली वही क्रिया मनुष्यादि कार्यकी निष्पादक न होनेसे अफल ही है ।
प्रसंगविवरण-----अनंतरपूर्व गाथामें सर्वविरोधपरिहारिणी सप्तभंगीका अवतार किया गया था। अब इस गाथामें यह बताया गया है कि जीवकी मनुष्यादि पर्यायें कर्माधीन होनेके कारण विनश्वर होनेसे शुद्धनिश्चयसे जीवस्वरूप नहीं है और क्रिया फलपनेके कारण उनका प्रत्यपना है।
।
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
ae agoयादिपर्यायाणां जीवस्य क्रियाफलत्वं व्यनक्तिकम्मं णामसमक्खं सभावमध अप्पणी सहावे । अभिभूय परं तिरियं गोरइयं वा सुरं कुदि ॥११७॥ arrant प्रकृती, शुद्धात्मस्वभावको दवा करके ।
२२३
age तिर्यञ्च नारक व देव पर्यायमय करता ॥११७॥
कर्म नामसमाख्यं स्वभावमवात्मनः स्वभावेन । अभिभूय नरं तिचं नैरयिकं वासुरं करोति ॥ ११७ ॥ क्रिया खल्वात्मना प्राप्यत्वात्कर्म, तन्निमित्तप्राप्तपरिणाम: पुद्गलोऽपि कर्म, तत्कार्यभूता मनुष्यादिपर्याया जीवस्य क्रियाया मूलकारणभूतायाः प्रवृत्तत्वात् क्रियाफलमेव स्युः । क्रियामावे पुद्गलानां कर्मलाभावात्सत्कायंभूतानां तेषामभावात् । अथ कथं ते कर्मणः कार्य
नामसंज्ञ-- कम्म णामसमक्स राहावे जब अम्म सहाय पर तिरिय इव वा सुर । धातुसंज्ञ-अभिभवः सत्तायां, कुण करणे । प्रातिपदिक कर्मच नामसमास्य स्वभाव अथ आत्मन् स्वभाव नर तिरतथ्यप्रकाश - ( १ ) संसारी जीवकी पर्याय क्रिया कर्मोपाधिसन्निधिका निमित्त पाकर होनेसे प्रकृतिरचित ही हैं । (२) संसारी जोत्रके मनुष्यादि पर्यायों में कुछ भी पर्याय परिणमन स्थिर नहीं है, विनश्वर ही है । ( ३ ) संसारी जीवोंके उत्तर उत्तर पर्यायोंसे पूर्व पूर्व पर्याय नष्ट होते जाते हैं, क्योंकि पूर्व पूर्व पर्यायोंका क्रियाफल हो इस प्रकार है । ( ४ ) संसारी जीवोंकी पर्यायोंकी क्रियाका फल संसारभ्रमण है, क्योंकि वहाँ मोहका मिलन नष्ट नहीं हुप्रा । (५) संसारी जीवोंकी क्रियायें सफल हैं याने संसारभ्रमणरूप फल देने वाली हैं । (६) निर्महि रत्नत्रयपरिगत अन्तरात्माका परम धर्म निष्फल है याने संसराफल देने वाला नहीं
सिद्धान्त - ( १ ) शुद्धनयसे जीव द्रव्य रागादिविभावरूप नहीं परिणमता है । (२) शुद्ध निश्चयनयसे जीव मिथ्यात्व रागादिरूप परिणमता है ।
दृष्टि-१ - शुद्धनय, प्रतिषेधक शुद्धनय (४६, ४६ ब ) । २ - प्रशुद्ध निश्चयनय (४७) । प्रयोग-दुःखहेतुभूत, नैमित्तिक, स्वभावभूत मनुष्यादिपर्यायों को अनात्मा जानकर केवल चैतन्यस्वरूपमात्र ग्रन्तस्तस्व में आत्मत्व अनुभवनेका पौरुष होने देना ॥ ११६ ॥ अब मनुष्यादि पर्यायें जीवको क्रियाके फल हैं, यह व्यक्त करते हैं [ श्रथ ] वहां [नामसमाख्यं कर्म] 'नाम' संज्ञा वाला कर्म [ स्वभावेन ] अपने कर्मस्वभावसे [ श्रात्मनः स्वमावं अभिभूय ] श्रात्मा के स्वभावको ढककर [नरं तिर्यञ्चं नैरयिकं वा सुरं] मनुष्य, तिर्यंच, नारक अथवा देवरूप [ करोति ] कर देता है ।
A
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२४
सहजानन्दशास्त्रमालायां
भावमायान्ति, कर्मस्वभावेन जीवस्वभावमभिभूय क्रियमाणत्वात् प्रदीपवत् । तथाहि पथा खलु ज्योतिःस्वभावेन तैलस्वभावमभिभूय क्रियमाणःप्रदीपो ज्योतिः कायें तथा कर्मस्वभावेन tataraafia क्रयमाणा मनुष्यादिपर्यायाः कर्मकार्यम् ॥ ११७ ॥
नैरयिकदा सुर । मूलधातु-अभिभू सत्तायां, डुकृञ करणे । उभयपद विवरण- - कम्मं कर्म णामसमक्खं नामसभास्त्र-प्रथम एकवचन | सहावं स्वभावं द्वि० एक० । अव अर्थ वा अन्य अपणो आत्मनः पृष्टी एक सहावेण स्वभावेन तृतीया एक० । अभिभूय असमतिको किया । परं नरं तिरियं तिचं गोरइयं किं सुर- द्वितीया एकवचन । कुदि करोति - वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन किया | निरुक्ति-त्र यत् कर्म नृणाति इति नरः तं लिया अंचातीति तिर्यक् सं सुरति इति सुरतं । समासस्वस्य भावः स्वभावः तं स्वभाव ॥ ११७
तात्पर्य - नामकर्मके उदयसे जीव नर नारकादि पर्यायोंरूप बन जाता है ।
टोकार्थ - क्रिया वास्तव में आत्म के द्वारा प्राप्य होने से कर्म है, उसके निमित्त से प्राप्त किया है द्रव्यकर्मरूप परिशामन जिसने ऐसा पुद्गल भी कर्म है । उस पुद्गलकर्मकी कार्यभूत मनुष्यादि मूलकाराभूत जीवकी क्रिया प्रवर्तमान होनेसे क्रियाफल ही हैं; क्योंकि क्रिया भावपुद्गलोंको कर्मत्वका प्रभाव होनेसे उस पुद्गल कर्मकी कार्यभूत मनुष्यादि: पर्याय का प्रभाव होता है । प्रश्न – वहां वे मनुष्यादि पर्यायें कर्मके कार्य कैसे हैं ? उत्तर-वे कर्मस्वभावके द्वारा जीवके स्वभावका पराभव करके की जाती हैं, दीपककी तरह । जैसे कि ज्योति स्वभावके द्वारा तेलके स्वभावको अभिभूत करके किया जाने वाला दोपक ज्योतिका कार्य है, उसी प्रकार कर्मस्वभाव के द्वारा जीवके स्वभावको अभिभूत करके की जाने वालो मनुष्यादि पर्यायें कर्मके कार्य हैं ।
-
प्रसङ्गविवरण- ग्रनन्तरपूर्व गाथा में बताया गया था कि मनुष्यादि पर्यायें जीवका स्वरूप नहीं है और ये संसारफल देने वालो हैं । अब इस गाथा में स्पष्ट किया है कि अतु व्यादि पर्यायें जीवकी क्रियाके फल हैं ।
तथ्यप्रकाश - ( १ ) आत्माके द्वारा जो प्राप्य हो सो कर्म है, यह कर्म जोनको क्रिया है, भावपरिवति है । ( २ ) जोवके विकार क्रियाका निमित्त पाकर कार्माणवाद कर्मत्व. परिणमन होता है सो पुद्गल भी कर्म है । (३) कर्मके कार्यभूत मनुष्यादि पर्यायें हैं सो वे मूलकारणभूत जीवविभावक्रियासे प्रवृत्त हुए हैं अतः ये पर्यायें क्रियाफल हैं । ( ४ ) जीवकी विभावक्रियाका अभाव होनेपर कामणवर्गणावों में वत्वका प्रभाव हो जाता है । ( ५ ) पुद्गल कार्भाणवर्गणावों में कर्मत्वका प्रभाव होनेसे पुद्गलकर्मके कार्यभूत मनुष्यादि पर्यायें नहीं। होतीं । ( ६ ) जैसे ज्योतिस्वभावसे तेलस्वभावका श्रभिभव करके वार्ता के आधार से दीपशिखा
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
।
।
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका अथ कुतो मनुष्यादिपर्याधेषु जीवस्य स्वभावाभिभवो भवतीति निर्धारयति----
गारणारयतिरियसुरा जीवा खलु णामकम्मणिवत्ता। A गा हि ते लद्धसहावा परिणममाणा सकम्माणि ॥११८॥
तर नारक तिर्यक सुर, प्राणी है नामकर्मसे निवृत ।
इससे कर्मविपरिणत, आत्मा न स्वभावको पाता ।।११।। नजारकतिर्यक सुरा जीवाः खलु नामकर्मनिताः । न हि ते लब्धस्वभावा: परिणममानाः स्वकर्माणि ।।
अमी मनुष्यादयः पर्यापा नामकर्मनिवृत्ताः सन्ति तावत् । न पून रेतावतापि तत्र जीवस्य स्वभावाभिभवोऽस्ति । यथा कनकवद्ध माणिक पकङ्कगोषु माणिक्यस्य 1 यतत्र नव जीवः Famme नामसंज्ञ-रणारयतिरिबसुर जोय खलु णाम कम्मणिन्वन ण हित लद्धसहाय परिणामभाश
सम्म । धातुसंज्ञ-जीव प्राणधारणे, लभ प्राप्ती । प्रातिपदिक- नरनारातिर्यकसुर जीव खलु कामकर्मरूपसे परिणमाता है, अतः बना हुअा प्रदीप ज्योतिका कार्य कहलाता है इसी प्रकार कर्म कामस्वभावसे 'जीवस्वभावका अभिभव करके शरीरके आधारसे मनुष्यादि रूपसे परिणमता है
प्रतः उने मनुष्यादि पर्याय कर्म के कार्य कहलाते हैं । (७) कर्म और कर्मकार्य सहज परमात्मEA सबसे विपरीत हैं।
| सिद्धान्त - (१) मनुष्यादि पर्यायें कर्मजनित हैं।
दृष्टि-१- अशुद्धनिश्चयनय, विवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयनय, निमित्तदृष्टि, उपादान दृष्टि (४७, ४८, ५३ अ, ४६ ब) 1
। प्रयोग-कर्मजनित पर्यायोंको कष्टरूप जानकर उनसे उपेक्षा करके चैतन्यस्वरूप सहजपरमात्मतत्वमें उपयुक्त होना ।।११७॥
M अब मनुष्यादि पर्यायोंमें जीवके स्वभावका अभिभव किस कारणसे होता है ? यह निर्धारित करते हैं.--[ नरनारकतिर्यकसुराः जीवाः] मनुष्य, नारक, तिर्यच और देवरूप जीव खिल वास्तबमें नामकर्म निर्वृत्ताः] नामकर्मसे निष्पन्न हैं । [हि] वास्तवमें [स्वकर्मारिण]
अपने कर्मरूप [परिणममानाः ते] परिणम रहे वे लब्धस्वभावाः न] लन्धस्वभाव नहीं Jatin अर्थात उनको स्वभावकी उपलब्धि नहीं है।
तात्पर्य- नरनारकादि मतियोंमें जीवके स्वभावका अभिभव तो है, किन्तु जीवका प्रभाव नहीं है।
टीकार्थ----ये मनुष्यादि पर्याय तो नामकर्मसे निष्पन्न हैं, किन्तु इतनेसे भी वहाँ जीव स्वभावका अभिभव नहीं है; जैसे कि सुवर्ण में जड़े हुये माणिकबाले कंकरणों में माणिकके
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२६
सहजानन्दशास्त्रमालायां
स्वभावमुपलभते तत् स्वकर्मपरिणमनात् पयःपूरवत् । यथा खलु पयःपूरः प्रदेशस्वादाम्यां पिचु. मन्दचन्दनादिवनराजी परिणमन्न द्रव्यत्वस्वादुत्व स्वभावमुपलभते, तयात्मापि प्रदेशभावाभ्यां कर्मपरिणमनान्नामूर्तत्वनिरुपरागविशुद्धिमत्वस्वभावमुपलभते ।। ११८ ।। निवृत्त न हि तत् लब्धस्वभाव परिणममान स्त्रकर्मन् । मूलधातु-जीव प्राणधारणे, अलभप प्राप्तौ । उभयपदविवरण----णरणारयतिरियतुरा मरनारकति यंत्रासुराः जीवा जीवा; गामकम्मणिवत्ता नामक्रमः निर्वृत्ताःते लद्धसहावा लब्धस्वभावाः परिणममाणा परिणममाना:-प्रथमा ववचन । सकरमाणि कांग्य-द्वितीया बहवचन । निरुक्ति-...जीवन्तीति जीवः । समास-नरश्च नारकरच लियंक सुरश्च नर नारकतिर्यसुराः, नामकर्मणानिवृत्ताः इति नामकर्मनिर्वृत्ताः, लब्धः स्वभावः यरत लब्धस्वभावाः ॥११॥ स्वभावका अभिभव नहीं है । जो वहाँ जीव स्वभावको उपलब्ध नहीं करता, अनुभव नहीं करता सो स्वकर्मरूप परिणामन होनेसे है, पानीके पूरको तरह । जैसे---पानीका पूर प्रदेशसे पौर स्वादसे निम्ब-चन्दनादि वन पंक्तिरूप परिणामता हुआ अपने दैवत्व और स्वादुत्वरूप स्वभावको उपलब्ध नहीं करता, उसी प्रकार आत्मा भी प्रदेशसे और भावसे स्वकर्मरूप परि. णमन होनेसे अपने अमूर्तत्व और निरूपराग-विशुद्धि मत्वरूप स्वभावको उपलब्ध नहीं करता।
प्रसंग विवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें मनुष्यादि पर्यायोंको जीवकी विभावक्रियाको फल बताया गया था। अब इस गाथामें बताया गया है कि मनुष्यादि पर्यायों) जीवके स्वभाव का अभिभव किस कारण होता है।
तथ्यप्रकाश---(१) ये मनुष्यादि पर्याय नामकर्मके द्वारा रचे गये हैं। (२) मनुष्यदेह में प्रातमा ठहर रहा है इतने मासे जीवके स्वभावका अभिभव नहीं होता जैसे कि अंगठी में हीरा जड़ा है इतने मात्रसे होराको ज्योतिका अभिभव नहीं है। (३) जीव वहाँ अपनी विभा. यक्रियासे परिणाम रहा है इस कारण जीवके स्वभावका अभिभव है जैसे कि जलका पुर नीमा व चन्दनके पेड़के संगमें पेडरूप परिणम कर अपने द्रवत्त व स्वादको खो बैठता है। (४) जीव पौद्गलकर्मविपाक प्रतिफलनके प्रसंगमें विभावक्रियारूप परिणमनेसे अधिकार स्वच्छ प्रतिभास स्वभावको तिरस्कृत कर देता है । (५) स्वपरभावभेदविज्ञानी जीव पौदगलकर्मवि पाकप्रतिफलतके समय ज्ञानदृष्टिके बल द्वारा बुद्धिपूर्वक विभावक्रियारूप न परिणमनेसे अवि कार स्वच्छ प्रतिभास स्वभावका दर्शक होता है जिसकी दृढ़ताके बलसे स्वभावका आविर्भाव होता है।
सिद्धान्त-(१) कर्मोदयविपाकके सान्निध्यमें जीव स्वभावका अभिभव कर विकार । रूप परिणामता है।
दृष्टि-१- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४) ।
Stop
नाम
।
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
AMANISHTRARASHREE"
MRENDRANI
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका अथ जीवस्य द्रव्यत्वेनावस्थितत्वेऽपि पर्यावरनस्थितत्वं द्योतयति ---
जायदि ग्रेव ण णास्मदि खणभंगसमुभवे जगा कोई । जो हि भवो सो दिलश्रो संभवविलय तिते पाणा ॥११६।। उपजे नहीं न चिनशे, तथापि क्षरण हि क्षरण सर्ग लब होते।
जो भव वह लय श्यया संभव लय अन्य अन्य हुए ॥११॥ जायते नंदन नश्यति क्षणभङ्गसमुनवे जो कश्चित् । यो हि भवः स विलयः संभवविक्षयाविति तो नाना ।।
इह तावन्न कश्चिज्जायते न भ्रियते च । अथ च मनुष्यदेवतिर्यनारकात्मको जोय. लोकः प्रतिक्षणपरिणामित्वादुत्संगितक्षगभगोत्लादः न च विप्रतिचिद्धमेतत्, संभवधिलयमारक स्वनानात्वाभ्याम् । यदा खलु भङ्गोमादयोरे कत्वं तदा पूर्वपक्षः, यदा तु नानात्वं तदोत्तरः । A नामसं-- एव क्षणभंगरामुभव जण कोई ज हि भव त विलय संभवविलय त्ति त पाणा ।
बासुसज---जा प्रादुर्भावे, नस्स नाशे । प्रातिपदिक ---न एव क्षणभङ्गसमृद्भव जन कश्चित् यत् हि अब त EMAINE प्रयोग--स्वभावधातसे बचने के लिये स्वभाव विभादका भेदविज्ञान कर स्वभावका
दर्शक होने का अन्तः पौरुष होने देना ॥ ११८ ॥ FORIES अब जीवकी द्रव्यरूपसे स्थिरता होनेपर भी पर्यायोंसे अस्थिरताको प्रकाशते हैं----
क्षम असमुद्धवे जने] प्रतिक्षण विनाश और उत्पाद वाले जोवलोकमें [कश्चित् ] कोई [न ख नायते न तो उत्पन्न होता, और [न नश्पति] न नष्ट होता है; [हि] क्योंकि य: भवः सः विलयः] जो जीव उत्पादरूप है वही विनाशरूप है: [संमविलयौ इति तो नाना फिर भी उत्पाद उत्पाद है, विनाश विनाश ही है। इस प्रकार में उत्पाद और व्यय नाना है
प्रर्धात भिन्न-भिन्न हैं। E तात्पर्य-द्रव्यदृष्टिसे जीव वही एक अवस्थित है, पर्यायष्टिसे अनवस्थित है ।
टीकार्य--वास्तवमें यहाँ न कोई जन्म लेता है और न मरता है, और ऐसा अब स्थित होने पर भी मनुष्य-देव-तिर्यंच-नारकात्मक जीवलोक प्रतिक्षण परिणामी हानेसे क्षण-क्षण में होने वाले विनाश और उत्पादके साथ जुड़ा हुआ है । और यह विरोबको प्राप्त नहीं होता; क्योकि उत्पाद और विलयका एकत्व और अनेकत्व है जब उतसाद और विलयका एमाम है तब पूर्वपक्ष है, और जब अनेकदव हैं तब उत्तरपक्ष है । इसीका स्पष्टीकरण- जैसे:पड़ा है वहीं कुण्ड है' ऐसा कहा जानेपर, घड़े और कुण्डके स्वरूपका एकत्व असम्भव होनेस
उन दोनोको माधारभूत मिट्टी प्रगट होती है, उसी प्रकार 'जो उत्पाद है वही विनाश है' ऐसा FARहा जानेपर उत्पाद और विनाशके स्वरूपका एकत्व असम्भव होनेसे उन दोनोंका आधारभूत
B800VOI
थ
OM10/5AREL
-
N
hi
Music
mmm
BarwwwwORE
MAKER
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२८
सहजानंदशास्त्रमाला तथाहि----यथा य एव घटस्तदेव धुण्ड मित्युक्ते घटकुण्डस्वरूपयोरेकलासंभवात्तदुभयाधारभूता । मृत्तिका संभवति, तथा य एव संभवः स एव विलय इत्युक्ते संभव विलयस्वरूपयो र कत्थासंभवातदुभयाधारभूतं ध्रौव्यं संभवति । ततो देवादिपर्याय संभवति मनुष्यादिपर्याय बिलीयमाने च 4 एव संभवः स एव विलय इति कृत्वा तदुभयाधारभूतं प्रोध्यवज्जीवद्रव्यं संभाव्यत एव । ततः सर्वदा द्रव्यत्वेन जीवनोत्कीयोऽवतिष्ठते । अपि च नथाऽन्यो घटोऽन्यत्कुण्डभित्युक्ते तदुमयाधारभूताया मृत्तिकाया अन्यत्वासं भवात् घटकुण्डस्वरूपे संभवतः, तथान्यः संभवोऽन्यो विलय इत्युक्ते तदुभयाधारभूतस्य ध्रौव्यस्यान्यत्वासंभवात्संभव विलयस्वरूपे संभवतः । ततो देवादिपर्याये संभवति मनुष्यादिपर्याय विलीयमाने चान्य; संभयोऽन्यो विलय इति कृल्या संभ वबिलयवन्ती देवादिमनुष्यादिपर्यायौ संभाव्यते । ततः प्रतिक्षर यिनीयोऽनवस्थितः ॥११६॥ विलय संभवविलय इति तत् नाना । मूलधातु--जनी प्रादुर्भाव, पर प्रदर्शन दिवादि । उभयपदविवरणजायदि आयते णस्सदि नश्यति-वर्तमान अन्य पुरुष एलायचन किया । न च हिम इलि-अव्यय । खणार भंगगमुभवे क्षणभङ्ग समुद्भवे जरणे जने-सप्तमी एकवचन । बोई कश्चित-अव्यय अन्तः प्र० एक० को यः गोस: बिलओ विलयः-प्रथमा एक० । संभवविल्या--प्रा बहु ० नंभवबिलयो..प्र. द्विवचन । ते-प्रा० बहु । तो-प्रथमा द्विवचन । णाणा नाना-अव्यय । निक्ति-गज्जन भङ्गः, उद्भवनं उद्भवः । समासक्षों मङ्गः समुद्भवः यस्य सः तस्मिन, संभवश्च बिल यश्च संभवक्लियो ।। ११६ ।। ध्रौव्य प्रगट होता है; इसी रोतिसे देवादि पर्यायके उत्पन्न होने और मनुष्यादि पर्यायवे नष्ट होनेपर, 'जो उत्पाद है वहीं विलय है। ऐसा जान कर उन दोनोंका आधारभूत नोव्यवान जीवद्रव्य लक्ष में प्राता है; इसलिय सर्वदा द्रव्यरूपसे जीव टंकोत्कीर्ण रहता है । और फिर, जैसे:-- 'अन्य घड़ा है और अन्य कुण्ड है' ऐसा कहा जानेपर उन दोनोंकी आधारभूत मिट्टोका अन्यत्व अर्थात् भिन्न-भिन्नपना असंभव होनेसे घड़ेका और कुण्डका दोनों का भिन्न-भिन्न स्वरूप प्रगट होता है, उसी प्रकार अन्य उत्पाद हैं और अन्य व्यय है। ऐसा कहा जानेपर उन दोनोंके प्राधारभूत ध्रौव्यका अन्यत्व असंभव होनेसे उत्पाद और व्ययका स्वरूप प्रगट होता है; इसी। रीतिसे देवादि पर्यायके उत्पन्न होनेपर और मनुष्यादि पर्यायके नष्ट होनेपर, 'अन्य उत्पाद है। और अन्य व्यय है ऐसा जानकर उत्पाद और व्यय वाली देवादि पर्याय और मनुष्यादि पर्याय लक्ष में आती है। इसलिये प्रतिक्षण पर्यायोंसे जीव अनवस्थित रहता है।
प्रसंगविवरण -...अनन्तरपूर्व गाथामें यह निर्धारित किया गया था कि मनुष्यादि । पर्यायोंमें अपनी विभाव क्रियाके परिणमनसे जीवके स्वभावका अभिभव होता है। अब इस गाथामें बताया गया है कि जीव द्रव्यपनेसे अवस्थित होकर भी पर्यायों द्वारा अनवस्थित है।
तथ्यप्रकाश ---- (१) जीवद्रव्य न जन्म लेता है, न नष्ट होता है, जीवद्रव्य तो वही
माया
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
T
REETITICE
RASHAN
प्रयागार-माजलाशी टीका अप जीवस्यातवस्थितत्वहेतुमुद्योतयति.....
'तम्हा दु गात्थि कोई महावसमवहिदो ति संसारे । संसारो पुरा किरिया संसारमागास्स दव्यस्म ॥१२०॥ इस कारणसे कोई, संसारमें न स्वभावसमवस्थित ।
संसरण क्रिया होती, संसरमाण हि द्रव्यको है ॥१२०१६ सम्मान नारित कश्चित् स्वभावसमस्थित इति रांसारे । संसार: पुन: निया संसरतो द्रव्यमा ।। १२० ।
यतः खलु जीवो द्रव्यत्वेनावस्थितोऽपि पर्याय रनवस्थिानः, तत: प्रतीयते न कश्चिम नामसज-त दुण कोई सहावसामट्टिद ति संसार गुण किरिया संसरमाग दध्व । धातुसंज्ञ--अन सनाया, अब ट्रा गतिनिवृत्तौ । प्रातिपदिक---- तत् तु न बाचित् स्वभावसमवस्थित इति संसार पुनर् मान्य एक शाश्वत रहता है, अतः जीव द्रव्याने से अवस्थित है । (२) जहाँ मनुष्यपर्याय विलीन
ना और पर्याय उत्पन्न झुप्रा तो यहाँ जो उत्पाद है वही दिलब है लो दोनोंका आधारभूत धोव्यवान जीवनध्य अवस्थित रहा । (३) पर्यावदृष्टिसे देखे जानेपर जहाँ देवपर्याय उतान
पा मनुष्यपर्याय विलीन हुआ तो उत्पाद अन्य है, विलय अन्य है सो देव जीव अन्य रहा, मनुष्यजीव प्रत्य रहा यों जीव प योसे अननस्थित रहा । (४) जैसे जीवद्रव्य पर्यायोंसे प्रति "क्षा मानवस्थित है ऐसे ही सभी द्रव्य एर्शयोंसे अनबस्थित हैं । (५) जब जीव पुदाल स्वमावश्याय में होते हैं व धर्मादिक शेष द्रय सदैव स्वभान पर्यायमें होते हैं तो वहाँ समपरिधान
होलेसे पर्यायोसे द्रव्यकी अनवस्थितत्त्र ज्ञान नहीं होती है । (६) द्रध्याथिकन यसे जीव नित्य DAE पर्यायाथिकन यसे जीव अनित्य है । (७) जहाँ मोक्षपर्यायका उत्पाद है और संसारपर्याय
का विनाश है वहाँ उत्पाद विनाया ही भिन्न है, किन्तु उन दोनों का आधारभूत सहज परमास्मादप वहींका वहीं एक है।
"सिद्धान्त -- (१) जीव पर्यायोंके रूपसे अनवस्थित है। दृष्टि१- सत्तागौणोत्पादव्ययग्राहक नित्य अशुद्ध पर्यायाथिकन य (३७) ।
प्रयोग-पर्यायोंसे अन्य अन्य होकर भी पर्यायोंके अाधारभूत एक प्रात्मद्रका की दृष्टि द्वारा पायोंको सहज स्वभावानुरूप होने देने का ज्ञानानुभूतिरूप पौरुष होने देना ॥ १५६ }}
अब जीवके अनवस्थितपनाका हेतु प्रगट करते हैं---तस्मात् तु] इसी कारण [संसारे] संसारमे [ स्वभावसमवस्थितः इति ] स्वभावसे अवस्थित ऐसा [कश्चित् नास्ति] कोई नहीं
[पुनः] और [संसरतः] संसरण अर्थात् गतियोंमें भ्रमण करते हुये [द्रध्यस्य] जीव द्रव्य की क्रिया] किया हो तो संसारः] संसार है।
mod
।
--
SAINAR
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां
525
संसारे स्वभावेनावस्थित इति । यच्चानानवस्थितत्वं तत्र संसार एव हेतुः । तस्य मनुष्यादि.
यसापकत्वात् स्वरूपेशीव तथाविधत्वात् । अथ यस्तु परिणममानस्य द्रव्यस्य पूर्वोत्तरदशापरित्यागोपादानात्मक: क्रियास्यः परिणामस्तत्संसारस्य स्वरूपम् ।। १२० ।। संवारत् द्रव्य । मूलधा--अस भुधि । उभयपदविवरण-लम्हा लस्मात्-पंचमी एका 1 दु तु ण नति हति पण पुनः अव्यय । अस्थि अस्ति- वर्तमान अन्य पुरुटा एकवचन त्रिया। कोई कश्चित्-अव्यय अन्तः प्रबमा एकवचन । सहावसमवदिदो स्वभावरामवस्थितः-प्र० एक० । संसारे-सप्तमी एकः। संसारो संसार:-प्र० एक० । किरिया विया-प्र० एक० । संसरमाणरस संसरत:-षष्ठी एक० । दध्वस्स द्रव्यस्थ
io | निमक्ति ----संशरणं रासारः। समास-स्वभावे समवस्थितः इति स्वभावसमवस्थितः ।।१२। तात्पर्य-सांसारिक पर्यायों में भ्रमण करने वाला जीव स्थिर एकरूप नहीं रह पाता।
टोकार्थ- वास्तव में जीव द्रव्यत्वसे अवस्थित होता मा भी पर्यायोंसे अनवस्थित है, इससे यह प्रतीत होता है कि संसारमें कोई भी स्वभावसे अबस्थित नहीं है और यहाँ जो अन. वस्थितपन्ना है उसमें संसार ही हेतु है; क्योंकि वह संसार मनुष्यादि पर्यायात्मक होनेके कारण स्वरूपसे ही वैसा है । और जो परिणमन करते हुये द्रध्यका पूर्वोत्तर दशाका त्याग ग्रहणात्मक किया नामक परिणाम है सो वह संसारका स्वरूप है।
प्रसंगविवरण-----अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि जीव द्रव्यरूपसे अवस्थित होनेपर भी पर्याय झापसे अनवस्थित है। अब इस गाथामें जीवके अनवस्थितपनेका कारण बताया गया हैं।
तथ्यप्रकाश--- (१) संसारमें कोई भी जीव स्वभावसे अवस्थित नहीं है । (२) जीव को अनस्थिततामें कारसा संसारभाव ही है। (३) परिणमते हुए जीवद्रव्यका पूर्व विभाव दशाका परित्याग व उत्तरविभावदशाका ग्रहणारूप क्रिया नामक जो परिणाम वही संसारका स्वरूप है। (४) मनुष्यादिविभावपर्यायपरिणतिरूप किया निष्क्रिय निविकल्प शुद्धात्मपरिः पातिसे विपरीत है । (५) नरनारकादिपर्यायरूप संसार स्वभावविघातका कारण है।
सिद्धान्त – (१) कर्मवियाकज संसारभावोंसे जीनस्वभाव विघातक भाव होते हैं । दृष्टि-१- उपाधिसापेक्ष नित्याशुद्ध पर्यायाधिकानय (६१)।
प्रयोग---अनवस्थित विभावोंसे उपयोग हटाकर सदा अवस्थित चैतन्यस्वरूप अन्तः स्तत्वका उपयोग करना ।।१२०।
अब परिणामात्मक संसारमें किस कारशासे पुगलका संबंध होता है कि जिससे वह संसार मनुष्यादि पर्यायात्मका होता है ? इसका यहां समाधान अपने में निरखते हैं— [मात्मा कमसलीमस:] यात्मा कर्मसे मलिन होता हुआ कर्मसंयुक्त परिणाम] कर्मसंयुक्त परिणामको
MAHARASHAN
mmonsolemale
C
ANCE
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
।
22
प्रवचनसार--सप्तदशाङ्गी टीका अथ परिणामात्मके संसारे कुतः पुद्गलश्लेषो येन तस्य मनुष्यादिपर्यायात्मकत्वमिस्वत्र समाधानमुपवर्णयति----
आदा कम्मलिमसो परिणाम लहदि कम्मसंजुत्तं । तत्तो सिलसदि कम्मं तम्हा कम्मं तु परिणामो ॥१२१॥
कर्मलीमस आत्मा, कर्मनिबद्ध परिणाम पाता है।
उससे कर्म सिलिसते, इससे परिणाम कर्म हुआ ॥१२१३॥ मात्मा कसमलीमसः परिणामं लभते कर्मसंयुक्तम् । ततः दिलष्यति कर्म तम्मान कम तु परिणामः ।।१२१॥
यो हि नाम संसारनाभायमात्मनस्तथाविधः परिणामः स एवं द्रव्य कर्मश्लेषहेतुः । अथ समाविषपरिणामस्थापि को हेतुः, द्रव्यकर्म हेतुः तस्य, द्रव्यकर्मसंयुक्तत्वेनेवोपलम्मान् । एवं
नामराज्ञः अत्त कम्ममलीमस परिणाम कम्मराजुत्त तत्तो कम्म त कम्म तु परिणाम | धातुसंजलभ प्राप्ती, सिलीस आलिंगने । प्रातिपदिक----आत्मन् कर्ममलीमस परिणाम कर्मसंयुक्त ततः क मैन तत् अमन न परिणाम 1 मूलधातु- डुलभा प्राप्ती, हिला आलिङ्गने दिवादि । उभयपदविवरण-आदा आत्मा लिभते । प्राप्त करता है, [ततः] उस कर्मसंयुक्त परिणाम के निमित्तसे कर्म श्लिश्यति] कर्म लिपक जाता है। [तस्मात्] इस कारण [परिणामः तु पार्म] अशुद्ध पारणाम ही कर्म है अर्यात द्रव्यकर्मके बन्धका निमित्त होनेसे मूलरूप तो नशुद्ध परिणाम हो कर्म है।
। तात्पर्य---भवधारणके कारणभूत द्रव्यकमके बन्धका कारण जीवका अशुद्ध परिणाम
www
STATE
M
e टोकार्थ-जो यह 'संसार' नामक प्रात्माका उस प्रकारका परिणाम है यही द्रव्यकर्म के विपकने का हेतु है । अब उस प्रकारके परिरमामका भी हेतु कौन है ? द्रव्यकर्म उसका हेतु है क्योकि द्रव्यकर्मकी संयुक्ततासे हो उस प्रकारका परिणाम देखा जाता है। प्रश्न—ऐसा होनेसे इतरेतराश्रय दोष प्रा जायगा। उत्तर----नहीं पायगा; क्योंकि अनादिसिद्ध द्रव्यकर्मके साथ संबद्ध प्रात्माका जो पूर्वका द्रव्यकर्म है उसको वहाँ हेतुरूपसे स्वीकार किया गया है । इस प्रकार नवीन द्रव्यकर्म जिसका कार्यभूत है और पुराना द्रव्यकर्म जिसका कारणभूत है,
सा प्रारमाका तथाविधपरिणाम उपचारसे द्रव्यकर्म ही है, और आत्मा भी अपने परिणामका का होने से द्रव्यकर्मका कर्ता भी उपचारसे है।
हा प्रसंगविवरण- अनन्तरपूर्व गाथामें जीवकी अनवस्थितताका कारण बताया गया बा। अब इस गाथामें यह बताया गया है कि परिणामात्मक संसारमें कर्ममलिन यह जीव विकारपरिणाम करता है इससे पुद्गलसम्बंध होता है और इससे मनुष्यादिक पर्याय होते हैं ।
-S
3
SAR
WomMES
AURCHARIW
O ORNSRCISCAREE
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
:
i
२३२
सहजानन्दशास्त्रमालायां
सतीतरेतराश्रयदोषः न हि । अनादिप्रसिद्धद्रव्यकर्माभिसंबद्धस्यात्मनःप्राक्तनद्रव्यकर्मणस्तत्र हेतु त्वेनोपादानात् । एवं कार्य कारणभूतन व पुराणद्रव्य कर्मत्वादात्मनस्तथाविधपरिणामो द्रव्यकमेव. तथात्मा चात्मपरिणामकर्तृत्वाद्द्रव्यकर्म कर्तायुपचारात् ॥१२१॥
कम्ममलिमको कर्ममलीमसः - प्रथमा एक परिणाम कम्मसंजुत्तं कर्मसंयुक्तं द्वितीया एक । ततो त अव्यय पंचम्यर्थे । लहदि लभते सिलिसवि क्लिष्यति वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन किया। कम्म कर्म परिणामी परिणामः प्रथमा एक० | तम्हा तस्मात् पंचमी एकः । निरुक्ति-अति सततं गच्छति जानाति इति आत्मा । समास-+ स- (कर्मणा मलीमसः कर्ममलीमस/कर्मिणा संयुक्तः कर्मसंयुक्तः) कर्मयुक्तम् ॥ १२१ ॥
तथ्यप्रकाश - ( १ ) जीवका विकार परिणाम द्रव्यकर्मबन्धका निर्मित है। (२) कर्मका विपाक जीवके विकारपरिणामका निमित्त है । ( ३ ) अनादिपरम्परासे जीवविकार व कर्मदशा में निमित्तनैमित्तिक प्रसंग चला आ रहा है । (४) जीवविकारका कार्य (नैमित्तिक) कर्मणा है, जीवविकारका कारण (निमित्त ) कर्मदशा है, इस कारणा जीवविकार उपचार में द्रव्यकर्म ही है । (५) जीवविकारके निमित्तसे द्रव्यकर्मका ग्रास बन्ध होता है यतः जीव विकार उपचारसे द्रव्यकर्मका कर्ता है । ( ६ ) द्रव्यकर्मविपाकके निमिससे जीवविकार होता है, अतः द्रव्यकर्म उपचारसे जीवविकारका कर्ता है | ( ७ ) द्रव्यकर्म विपाकके होनेपर हो जोवन विकार होता है, अतः जीवविकार उपचारसे द्रव्यकर्मका कार्य है । ( = ) जीवविकार के होनेपर द्रव्यकर्मका प्रबन्ध होता है, ग्रतः द्रव्यकर्म उपचारसे जीवका कार्य है ।
सिद्धान्त - - (१) जीवविकार व द्रव्यकर्मदशा में परस्पर निमित्तनैमित्तिक योग है । (२) जीव विभावरूप संसारका कर्ता है । (३) जीव द्रव्यकर्मका कर्ता है । ( ४ ) जीवविकार व्यकर्मका कार्य है । ( ५ ) द्रव्यकर्म जीवविकारका कर्ता है । (६) द्रव्यकर्म जीवका कार्य है। दृष्टि - १ - निमित्त दृष्टि ( ५३८ ) । २- अशुद्धनिश्चयनय (४७) । ३- परकर्तृत्व अनुपचरित प्रसद्भूत व्यवहार ( १२६) । ४- परकर्मत्व प्रसद्भुत व्यवहार (१३०) |५परकर्तृत्व अनुपचारित ग्रसद्भूत व्यवहार (१२६ ) । ६ - परकर्मत्व श्रसद्भूत व्यवहार (१३० ) । प्रयोग-- मंश्लेषसे मुक्ति पानेके लिये स्वभावविभावका भेदविज्ञान करके श्रात्मस्वभाव में ही ग्रामत्वको अनुभवना ॥ १२१ ॥
श्रव परमार्थ से ग्रात्मा द्रव्यकर्मका कर्ता है यह प्रकाशित करते हैं [ परिणामः ] परिणाम [ स्वयम् ] स्वयं [ श्रात्मा ] आत्मा है, [ पुनः सा ] और वह [क्रिया जीवमयी इति भवति ] क्रिया जीवके द्वारा रची हुई होनेसे "जीवमयो" ऐसी है: [ किया ] और क्रियाको [ कर्म इति मता ] कर्म माना गया है; [तस्मात् ] इस कारण [ कर्मरण: कर्ता तु न ] द्रव्यकर्म का कर्ता तो नहीं है ।
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
Ramnimim
wesomenesdesk
प्रवचनसार--सन्देशांगी टीका प्रय परमार्थादात्मनो द्रव्यकर्माकर्तृत्वमुद्योतयति.....
परिणामो सयमादा सा पुण किरिय त्ति होदि जीवमया । किरिया कम्म त्ति मदा तम्हा कम्मरस यादकत्ता ॥१२२॥
परिणाम स्वयं प्रात्मा, परिणाम जीवमयो क्रिया ही है ।
क्रिया कर्म सो प्रात्मा, नहीं द्रध्यकर्मका कर्ता ॥ १२ ॥ परिणामः स्वयमात्मा' मा पुनः क्रियेति भयनि जीक्मयो । जिया कमें नि गता तम्मात्कर्मणो न तु का।
प्रात्मपरिणामो हि तावत्स्वयमात्मन, परिणामिनः परिणामस्वरूपकर्तृत्वेन परिणामाइनन्यत्वात् । यश्च तस्य लथाविधः परिणामः सा जोमय्येव क्रिया, सर्वद्रव्यारा परिणामलक्षणक्रियाया प्रात्ममयत्वा नगमात् । या च क्रिया वा पुनरात्मना स्वतन्त्रणा प्राप्यत्वात्कर्म । ततस्तस्यः परमार्थादात्मा प्रात्मपरिणामात्मकस्य भावकर्मा एवं कर्ता, न तु पुद्गलपरिणामात्मका मामसंज्ञ-परिणाम सयं अन्त ता पुण किरिया त्ति जीवमया किरिया कम्म त्ति मदा त कम्म ण तु कालार । धातुसंज्ञ-हो सत्तायां, मन्न अवबोधने । प्रातिपदिक ....परिणाम स्वयं आत्मन् तत् पुनर क्रिया
तात्पर्य----जीवके द्वारा जो किया जाय वह कर्म है, जीव के द्वारा भाव ही किया जाता है, अतः जीवका कर्म द्रव्य कर्म नहीं अर्थात द्रव्यकर्मका मार्ता जीन नहीं ।
टीकार्थ-निश्चयतः प्रात्माका परिणाम वास्तव में स्वयं प्रात्मा ही है, क्योंकि परिE पामी परिणामके स्वरूपका का होनेसे परिणामसे अनन्य है; और जो उस प्रात्माका तथा
विष परिणाम है वह जीवामयी हो क्रिया है, क्योंकि सर्व द्रव्योंको परिणामलक्षणक्रियाके Eanie प्रात्ममयपना स्वीकार किया गया है । और फिर, जो जीवमयी क्रिया है वह प्रात्माके द्वारा
स्वतंत्रतया प्राप्य होनेसे कर्म है । इस कारण परमार्थतः प्रात्मा अपने परिणामस्वरूप भावकर्म का ही कर्ता है; किन्तु पुद्गलपरिणामस्वरूप द्रव्यकर्मका नहीं । प्रश्न-तब फिर द्रव्यकर्मका कता कौन है ? उत्तर ----निश्च यतः पुद्गलका परिणाम वास्तवमें स्वयं पुद्गल ही है, क्योंकि परिणामी परिणामके स्वरूपका कर्ता होनेसे परिणामसे अनन्य है; और जो उस पुद्गलका तथाविध परिणाम है वह पुद्गलमयी ही क्रिया है, क्योंकि सर्व द्रव्योंको परिणामस्वरूप किया के निजमयपना स्वीकार किया गया है; और फिर, जो पुद्गलयी क्रिया है वह पुद्गलके द्वारा स्वतंत्रतया प्राप्य होनेसे कर्म है। इस कारण परमार्थतः पुद्गल अपने परिणामस्वरूप उस
मध्यकर्मका ही कर्ता है, किन्तु प्रात्माके परिणामस्वरूप भाषकर्मका नहीं। इससे यह जानना WA चाहिये कि प्रात्मा प्रात्मस्वरूपसे परिणमता है, पुद्गलस्वरूपसे नहीं परिणामता है ।
प्रसङ्गविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि विकारभावके कारया द्रव्य
Yaminitiini
NamOKOY7CHAR
POSSESASHEE
म
SAT
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
HORASRANAMA
सहजानन्दशास्त्रमालायां
कस्य द्रव्यकर्मणः । अथ द्रव्धकर्मणः कः कति चेत् । पुद्गलपरिणामो हि तावत्स्वयं पुद्गल एव, परिणामिनः परिणामस्वरूपकर्तृत्वेन परिणामादनन्यत्वात् । यश्च तस्य तथाविधः परि. गायः सा पुद्गलमय्येव क्रिया, सर्वद्रव्याणई परिणामलक्षण क्रियाया प्रात्ममयत्वा ग्रुपगमात् । था च क्रिया सा पुनः पुद्गलेन स्वतन्त्रेण प्राप्यत्वात्कर्म । ततस्तस्य परमार्थात् पुद्गलात्मा आत्मपरिणामात्मकस्य द्रव्य कर्मग एव कर्ता, न त्वात्मपरिणामात्मकल्य भाव कर्मणः । तत मात्मात्मस्वरूपेण परिणामति न मुद्गलस्वरूपेगा परिणामति ।। १२२ ।। इति जीवमयी त्रिया वर्मन् इति मता तत् कर्मन् न तु कर्तृ । मूलधातु -- भु सत्तायां, मनु अयोधने । उनपर विवरण–परिणामो परिणाम: आदा आत्मा-प्र० एक० । सयं स्वयं पुण पुन: त्ति इति ण न दु तु- अध्याय | सा किरिया क्रिया जीवमया जीवमयी--प्रथमा एका । होदि भवति-वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन किया । कृम्म कर्म-प्र० एक मदा मता-प्र. एक ! तुम्हा तस्मात्-पंचमी एक० । कम्मस्स
मण:--पष्टी एकल । कत्ता कर्ता-प्र० एका० । निक्लि-परिणमन परियामः, जीवेन विर्तुत्ता जीवमयी, करोतीति कर्ता ।। १२ ।। कर्मबन्धन है और इससे नरनारकादिपर्यायात्मक संसार चलता रहता है । अब इस गाथामें जीवको परमार्थतः द्रव्यकर्गका अकर्ता प्रकट किया गया है।
तथ्यप्रकाश--(१) जीवका परिणाम स्वयं जीब ही है, क्योंकि परिणामी (जीव) अपने परिणामस्वरूपका कर्ता होता है और परिणामी परिणामसे अनन्य होता है । (२) जीवका परिणाम जीवमधी ही क्रिया है, क्योंकि प्रत्येक द्रव्यको परिणामरूप क्रिया उसी द्रव्यमय हमा करती हैं । (३) जीवको परिणामक्रिया मात्र जीवके द्वारा ही प्राप्य होनेसे जीवका कम है। (४) निश्चयतः जीव अपने भावकमका कर्ता है । (५) जीव पुद्गलपरिणामात्क द्रध्यकर्मका कर्ता नहीं है, क्योंकि किसी भी द्रव्यका अन्य द्रव्यमें अत्यन्ताभाव होनेसे कर्तृकर्मभाव नहीं होता । (६) पुद्गल (कर्म) का परिणाम स्वयं पुद्गल ही है, क्योंकि परिणामी (पुद्गल) अपने परिणामस्वरूपका कर्ता होता है और परिणामी परिणामसे अनन्य होता है । (७) पुद्गलका परिणाम पुद्गल पयो हो क्रिया है, क्योंकि प्रत्येक द्रव्यकी परिणामस्वरूप किया उसी द्रश्यमय हुमा करती है। (८) पुद्गल की कर्मपरिणाम रूप क्रिया मात्र पुद्गल के द्वारा ही प्राप्य होनेसे पुद्गलका कर्म है । (९) निश्चयतः पुद्गलात्मक कार्माणवर्गगास्कंध अपने कर्मव परिणामका कर्ता है। (१०) पुद्गल कारिणस्कंध जीवविकारका कर्ता नहीं है, क्योंकि किसी भी अन्यका अन्य द्रव्यमें अत्यन्ताभाव होनेसे कारी कर्मभाव नहीं होता। (१०) निश्चय से जीव जीवस्वरूपसे ही परिणमता है पुद्गलस्वरूपसे नहीं परिणामता, अतः परमार्थसे जोव ट्रध्यकर्मका अकर्ता है।
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
Maitreetu
प्रवचनसार-सप्तशाली टीका
२३५
।
OURSSRO
प्रय कि तत्स्वरूप घेनामा परिणमतीति तदावेदयति
परिशामदि चेदग्णाए आदा पुगण चेदणा तिधाभिमदा। सा पुण या कम्मे फलम्मि वा कम्मणो भगिदा ।। १२३ ॥
परिण चेतनासे, अामा अरु चेतना विधा होती।
ज्ञान कर्म विष्फलमें, होलेसे स्वत्वसंचेतन ॥१२३॥ FD परिणति चेलनया आत्मा पुनः चेतना विभाभिमाता । सा पुनः ज्ञाने आणि फल या कमणों भगिता ।।१२३।। । Prima यतो हि नाम चैतन्यमात्मनः स्वधर्मव्यापक त्वं, ततश्चतनवात्मनः स्वरूप तया खल्बा
मा परिणामति । य: कश्चनाप्यात्मनः परिणामः रा सोऽपि चेतना नातिवर्तत इति तात्पर्यश् ।
नामसंज-चंदणा अत्त पुण निधा अभिमदा व पुण गाण कम्म फल या कम्म भनिदा । धातुEii मनपरि गम प्रत्ये, भण काथने । प्रातिपदिक-..चेतना आत्मन् पूनर चेतना विधा अभिमता तत् ज्ञान कमन फल वा कर्मन् भणिता। मूलधातु... परि णम प्रहाचे, निती संज्ञाने, अभि मनु अवोधने, मण
सिद्धान्त --...(१) जीव जीवायकारका कता है। (२) जीव द्रव्यकर्मका अकर्ता है। अ ष्टि --... -- अशुद्धनिश्चयनय (४७) । २- प्रतिषेधक शुद्धनय (४६)।
प्रयोग--मैं अपने परिणामका ही कर्ता हूं अन्य कादिकका नही ऐमा जानकर १२. विषयक विकल्प छोड़कर अपने अपना ही स्वरूप निरखना ।।१२२॥
अब वह कौनसा स्वरूप है जि रूपसे यात्मा परिणमता है इसके उत्तर में उस स्व. रूपको अपनी ओर भांकते हैं.— [मात्मा] प्रात्मा [चेतनया] चेतनारूपसे [परिणमति] परिणामता है । [पुनः] और चेतना] चेतना [विधा अभिपता] तीन प्रकारसे मानी गई है। पुनः] प्रति [सा] बह चेतना [शाने] ज्ञान में, [कर्मणि कर्म में हवा] अथवा [कर्मणः फले] कर्मफल में [भरिगता] कही गई है।
तात्पर्य ----शात्मा ज्ञान नेतना, कर्मचेतना व कर्मफलचेतनाके रूपसे परिणामता है।
टोका-..-चूंकि निश्चयतः चैतन्य प्रात्माका स्वधर्मव्यापकत्व है, इस कारण चेतना हो प्रात्माका स्वरूप है; उसरूपसे वास्तव में आत्मा परि.!मता है । प्रात्माका जो कुछ भी परिणाम हो वह सब ही चेतनाका उल्लंघन नहीं करता, यह तात्पर्य है । और चेतना ज्ञानरूप, कर्मरूप और कर्मफलरूपसे तीन प्रकारको है। उनमें ज्ञानपरिणति तो ज्ञानचेतना है, कमपरिणति कर्मचेतना है और कर्मफलपरिणति कर्मफलचेतना है।
प्रसंगविवरण.-...-अनन्तरपूर्व गाथा परमार्थसे जोबको द्रव्यकर्मका अकर्ता प्रकट किया गया था। अब इस गाथामें आत्माका वह स्वरूप बताया गया है जिस स्वरूपसे प्रात्मा परि
HERESTHA
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
E
२३६
चेतना पुनर्ज्ञानकर्मकर्मफलत्वेन वा । तत्र ज्ञानपरिणतिज्ञनचेतना, कर्मपरिणतिः कर्मचेतना, कर्मफल परिणतिः कर्मफलचेतना ॥ १२३ ॥
सहजानन्दशास्त्रमालायां
शब्दार्थः । उभयपदविवरण परिणमंद परिणमति वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन किया। चदणाए चेतनया तृतीया एक आदा आत्मा वेदणा चेतना-प्रथमा एक । तित्रा विधा पुण पुनः वा अध्यय 1 अभिमा अभिमता-प्रथमा एक कृदन्त किया। सा-प्र० ए० गाये जाने कम्मे कर्मेण फलम् फलेसप्तमी एकवचन | कम्मणो कर्मण:- पृष्टी एक भणिदा भणिता-प्र० एक० कृदन्त किया । निरुक्ति... (चेत्यते अनया इति चेतना ॥ ११३ ॥
क्षमता है ।
तथ्यप्रकाश -- ( १ ) श्रात्माका स्वरूप चेतना ही है, क्योंकि चेतना हो आत्मा के सब परिणामों में व्यापक है । ( २ ) ग्रात्मा चेतनासे हो परिणमता रहता है । (३) चेतना ज्ञानचेतना कर्मचेतना व कर्मफलचेतनाके रूपसे तीन प्रकारकी है । ( ४ ) यहाँ चेतनाके उक्त सोन प्रकार निश्चयदृष्टिसे कहे गये हैं अतः आत्माकी शुद्ध अशुद्ध सभी स्थितियों में घटिल होंगे । (५) ज्ञानकी परिणति ज्ञानचेतना है । ( ६ ) ज्ञानके कार्यकी परिणति कर्मचेतना है । ( ७ ) ज्ञानके कार्यके फलको परिणति कर्मफलचेलना है । 5 ) अशुद्ध स्थिति में ज्ञानातिरिक्त अन्य भाव में यह मैं हूं ऐसी चेतनाको अशुद्ध ज्ञानचेतना अथवा अज्ञानचेतना कहते हैं । ( ६ ) शुद्ध स्थिति में ज्ञानातिरिक्त अन्य भावमें इसे मैं करता हूं ऐसी चेतनाको शुद्ध कर्मचेतना कहते हैं । (१०) अशुद्ध स्थिति में ज्ञानातिरिक्त अन्य भावमें इसे मैं भोगता हूं ऐसी चेतनाको कर्मफलचेतना कहते हैं ।
(
प्रशुद्ध
सिद्धान्त - ( १ ) ग्रात्मा निश्चयतः अपने ज्ञानको व ज्ञानवृत्ति व ज्ञानवृत्तिफलको चेतता है ।
दृष्टि - १ - कारककार किभेदक सद्भूतव्यवहार (७३) । प्रयोग मैं अपने हो स्वरूपको अपनी न्दादिको अनुभवता हूं ऐसा वस्तुस्वरूप जानकर भावना व परम विश्राम पाना ॥ १२३ ॥
परिणतिको अपनी ही परिणतिके फल ग्रानअन्यविषयक विकल्प छोड़कर अपनेको अनु
अव ज्ञान, कर्म और कर्मफलका स्वरूप अपने समीप निरखते हैं-- [ श्रर्थविकल्प: ] स्व-पर पदार्थों का प्रभासन [ ज्ञानं ] ज्ञान है; [ जीवेन] जीवके द्वारा [ यत् समारब्धं ] जो किया जा रहा हो [ तत् कर्म ] वह कर्म है, [ अनेकविध ] और अनेक प्रकारका [ सौख्यं वा दुःखं वा ] सुख अथवा दुःख [ फलं इति भणितम् ] कर्मफल कहा गया है ।
तात्पर्य - प्रर्थप्रतिभास ज्ञान है। शुद्ध, शुभ व अशुभ भावकर्म हैं, निराकुलता या
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
MINS
stictantanusalcommonymsMAMAMANANMalphan......
R-55
सासमाslesham
प्रवचन सार-सप्तदशाङ्गी टीका अथ ज्ञानकर्मकर्मफलस्वरूपमुपवर्णयति--
(णाणं अवियप्पो)कम्म जीवेण जं समारद्ध। तमोगविध भणिदं फलं ति सोकवं व दुक्खं वा ।।१२४॥ ज्ञान अर्थावभासन, कर्म हुआ जीवभावका होना ।
उसका फल है नाना, सुख अथवा दुःखका होना ॥१२४॥ ज्ञानमर्थविकल्पः कर्म जीवेन वत्समारब्धम् । तदननावि भगि मिति सोम वा दुःखं वा ।। १२४ ॥
अर्थविकल्पस्तावत् ज्ञानम् । तत्र कः खल्धर्थः, स्वपरविभागनाव स्थितं विश्व (विकल्प. स्तदाकारावभासनम् यस्तु मुरुन्दहुदयाभोग इव युगपदवभासमानस्वपराकारोर्थविकल्पस्तद् ज्ञानम् । क्रियमाणमात्मना कर्म, क्रियमाणः खल्वात्मा प्रतिक्षण तेन सेन भावेन भवता यः
नामसंज्ञ-णाण अन्बियार कम्भ जीब ज समारद र अगबिध णिद फल निमोक्ख व दुख का | घातसंज्ञ-रंभ आरंभ, भण कथ ले । प्रातिपदिक- शान अर्थविकल्प कर्मन जीन यत् समारब्ध तत् अनेकविध भणित फल इति सौख्य वा दुःख वा । मूलधातु .. २म रामस्ये, भण शब्दार्थ: । उभयपदधिवसुख व दुःख कर्मफल है। को टीकार्थ-वास्तवमें अर्थविकल्प ज्ञान है। वहाँ अर्थ क्या है ? स्व-परके विभागसे प्रवस्थित विश्व अर्थ है । उसके प्राकारोंका अवभासन विकल्प है । सो जो दर्पशाके निजवि. स्तारकी तरह जिसमें एक ही साथ स्व. पराकार अवभासित होते हैं, ऐसा अर्थविकल्प ज्ञान है। जो प्रात्माके द्वारा किया जाता है वह कर्म है । प्रतिक्षण उस उस भाव से होता हुमा मात्माके द्वारा वास्तवमें किया जाने वाला जो उसका भाव है वहीं, आत्माके द्वारा प्राप्य होने से कम है। और वह कर्म एक प्रकारका होनेपर भी, द्रव्यकर्मरूप उपाधिके सान्निध्यके सद्भाव
और असद्भावके कारण अनेक प्रकारका है 1 उस कर्मसे निष्पाद्य सुख-दुःख कर्मफल है । यहाँ दिव्यकर्मरूप उपाधिके सान्निध्य के असद्भावके कारण जो कर्म होता है, उसका फल अनाकुलत्व लक्षण बाला स्वाभाविक सुख है; और द्रव्यकर्मरूप उपाधिके सान्निध्यक सद्भावके कारण जो कर्म होता है, उसका फल सौख्यका लक्षण अनाकुलता न होनेसे विकृतिभूत दुःख है। इस प्रकार ज्ञान, कर्म और कर्मफलके स्वरूपका निर्णय है ।
प्रसंगविवरण ----अनंतरपूर्व गाथा में प्रात्मा जिस स्वरूपसे परिणामता है उस स्वरूपको प्रकट किया गया था। अब इस गाथामें ज्ञान, कर्म व कर्मफलका स्वरूप वणित किया गया है।
तथ्यप्रकाश--(१) अर्थविकल्पको ज्ञान कहते हैं। (२) एक स्व और अनन्त पर । समस्त सत पदार्थोको अर्थ कहते हैं । (३) पदार्थोके प्राचारके अवभासनको अर्थात् पदार्थोके
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां
तद्भाव: स एव कर्मात्मना प्राप्यत्वात् । तत्त्वेकविधमपि द्रव्यकोपाधिस्तनिधिसद्धावासद्भावाभ्यामनेकविधम् । तस्य कर्मशो यन्निपाद्य सुखदुःखें तत्कर्मफलम् । तत्र द्रव्यकोषाधिसान्निध्यासद्धानात्कर्म तस्य फलमनाकुलत्वलक्षण प्रकृति भूतं सौख्यं यत्तु द्रव्यकर्मोपाधिसान्निध्यसद्भावात्कम तस्य फलं सौख्यलक्षण भावाद्विकृतिभूतं दुःखम् । एवं ज्ञानकर्मकर्मफलस्वरूपनिएचयः ॥ १२४ ।। रण--गाणं लानं अत्रियाणो अष्टविकल्पः कम्म कर्म तं तत् अयोगविधं अनेकविध फला सोबत सौख्यं सुक्खरखं-प्रथमा एबावचन । जीवेण जीवेन-तृतीया एकवचन । समारद्धं समारब्ध-प्रथमा एकवचन दम क्रिया । भणिदं भणित-प्रथमा एक कृदन्त किया । निरुक्ति-ज्ञप्ति: ज्ञान, विकल्प विकल्पः क्रियते इति कर्म । समास-अर्थस्य विकल्पः अर्थबिकल्पः।। १२४ ।। जानने को विकल्प कहते हैं । (४) शुद्ध स्थिति में प्रात्माके द्वारा किया जाने वाला कानन है वह कर्म है, क्योंकि वहो प्रात्माके द्वारा प्राप्य है। (५) शुद्ध स्थिति में शुद्ध जाननरूप कर्मका जो ग्रनाकुलतास्वरूप सहजानन्दानुभनन है वह कर्मफल है । (६) कोपाधिसहित स्थिति में जीवका ज्ञानविकल्प है वह अज्ञानपरिणत ज्ञान है । ( 3 ) सोपाधि स्थितिमें प्रात्माके द्वारा किया जाने वाला विकृत कल्पनामय ज्ञानविकल्प है यह कम है। (4) सोपाधि स्थिति में उस उपरक्त ज्ञानविकल्पसे निष्पाद्य विकाररूप सुख दुःखानुभवन है वह कर्मफल है।
सिद्धान्त-(१) शुद्ध निश्चयसे कर्ता, कर्म व कर्मफल शुद्ध प्रात्मा में घटित होते हैं । (२) अशुद्ध निश्चयसे कर्ता, कर्म व कर्मफल सोपाधि (अशुद्ध) आत्मामें घटित होते हैं।
दृष्टि-१- कारककारकिभेदक सद्भूत व्यवहार (७३)। २- कारककारकिभेदक प्रशुद्ध सद्भुत व्यवहार (७३)।
प्रयोगकर्ता, कर्म व कर्मफल निश्चयतः एक आत्मवस्तुमें ही हैं ऐसा जानकर अन्य पदार्थका विकल्प छोड़कर अपने में अपनी सहज वृत्ति और सहज आनंदानुभव होने देना ॥१४॥
__ अब ज्ञान, कर्म और कर्मफलको प्रात्मरूपसे निश्चित करते हैं-- [प्रात्मा परिणामा. स्मा] आत्मा परिणामस्वभावी है । [परिणामः] परिणाम [ज्ञानकर्मफल मादी] ज्ञानरूप, कर्मरूप और कर्मफलरूप होने वाला है; [तस्मात् ] इस कारण [ज्ञानं, कर्म फलं च] ज्ञान, कर्म और कर्मफल [आत्मा ज्ञातव्यः] अात्मस्वरूप जानना चाहिये।
तात्पर्य—अात्मा परिणामस्वभावी है । परिणाम ज्ञानरूप, कर्मरूप और कर्मफलरूप होने वाला है । प्रात्माको ज्ञान, कर्म व कर्मफलरूप जानना चाहिए।
टोकार्थ----नियमतः आत्मा बास्तवमें परिणामस्वरूप ही हैं, क्योंकि 'परिणाम स्वयं श्रात्मा है' ऐसा ११२वीं गाथामें श्री कुन्दकुन्दाचार्य देवने स्वयं कहा है; और परिणाम चेतना. स्वरूप होनेसे ज्ञान, कर्म और कर्मफलरूप होनेके स्वभाव वाला है, क्योंकि चेतना तन्मय
.....
.
.....
:.:.........
--
--
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
SUICIES
MUSA
सहजानन्दशास्त्रमालायां अथ ज्ञानकर्मकर्मफलान्यात्मत्वेन निश्चिनोति----
अप्पा परिणामप्पा परिणामो गाणाकम्मफलभावी । तम्हा गणाम कम्म फलं च श्रादा मुगेदब्बो ॥१२५॥ श्रात्मा परिणामात्मक, परिणाम नि ज्ञानकर्मफलभायी।
इससे ज्ञान कर्म फल, तीनोंको हि आत्मा मानो ॥१२॥ आत्मा परिणामात्मा परिणामो ज्ञानकर्मल भाबी । तरभात ज्ञानं काम पलं चात्मा ज्ञाशयः ।। ५२५ ।।
मात्मा हि सावत्परिणामात्मैव, परिणामः स्वयमात्मेति स्वयमुक्तस्वात् । परिणामस्तु चेतनात्मकत्वेन ज्ञानं कर्म कर्मफलं वा भवितुं शोलः, तन्मयत्याच्चेतनाया: । ततो जानं कर्म कर्मफल चात्मैव । एवं हि शुद्ध द्रव्यनिरूपयायां परद्रयसंपर्कासंधवात्पर्यायाणां द्रव्यान्तःप्रलया. नेच शुद्धद्रव्य एवात्मावतिष्ठते ।। १.५ ।।
. नामसंज-अप्प परिणामप्प परिणाम णाण कम्मल भावि त णाण कम्म फल च न रोदय 1 ame ातुसशः मुण ज्ञाने। प्रातिपदिक-आत्मन् परिणामात्मन् परिणाम ज्ञान कर्मफलभाविन तत् भान
कर्मन फल आत्मन ज्ञातव्य । मूलधातु-शा अवयोबने । उभयपदविवरण...अप्पा जात्मा परिणाममा
एरिणामात्मा कम्मफलभावी ज्ञानकर्गकलमावी-प्रथमा एक० । तम्हा तस्मात-पंचमी एe rat MAN ज्ञान कम्म कर्म फलं आदा आत्मा-पथमा एकवचन । मुगदम्वों ज्ञातव्य:--प्रथमा एक वचन कृदंत किया।
नियक्ति- अंततीति आत्मा, क्रियते यत्तत् कमें, अप्तिः शान, फलनं फल, परिणगनं परिणामः । समास
परिणाम एवं आत्मा यस्य सः परिणामात्मा, ज्ञानं च कर्म च फल जति ज्ञानकर्ममा लान ते भवितं Joi शील. ज्ञानकर्मफलभावो || १२५ ।।
MAIL.III.IMo-
P
Kam शानमय, कर्ममय अथवा कर्मफलमय होती है। इसलिये ज्ञान, कर्म और कर्मफल प्रात्मा ही Any है । इस प्रकार वास्तव में शुद्ध द्रव्यके निरूपणमें परद्रव्यका सम्पर्क असंभव होनेसे और पयांपों का द्रवयुके भीतर प्रलय हो जाने से प्रारमा शुद्ध द्रव्य हो रहता है।
प्रसङ्गविवरण----अनन्तरपूर्व गाथामें ज्ञान, कर्म व कर्मफलका स्वरूप बताया गया या। अब इस गाथामें ज्ञान, कर्म व कर्मफलको प्रात्मरूपसे निश्चित किया गया है।
तथ्यप्रकाश--(१) द्रव्य होने के कारण प्रात्मा परिणामस्वरूप हैं । (२) प्रात्माका परिणाम चेतनात्मक है । (३) चेतनात्मक होनेके कारण परिणाम ज्ञान, कर्म व कर्मफलरूप है, क्योंकि चेतना चेतनाकर्म व चेतनाकर्मफलसे तन्मय है । (४) चेतनात्मक होनेसे ज्ञान कर्म व कर्मफल प्रात्मा हो है । (५) एक द्रव्यके निरूपण में परद्रव्य से सम्पर्कका अभाव होनेसे व पर्यायोंका द्रव्यमें अन्तः प्रलय होनेसे प्रात्मा शुद्ध द्रव्य ही ठहरता है।
सिद्धान्त---(१) ज्ञान, कर्म व कर्मफल प्रात्मरूप ही हैं।
MIRMIRAawwammAAmytviteowwHTRAI
REV:29555
mun
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४०
Ess
सहजानन्दशास्त्रमालायां अर्थवमात्मनो ज्ञेयतामापन्नस्यशुद्धत्वनिश्च्यात् ज्ञानतत्त्वसिद्धौ शुद्धात्मतत्त्वोपलम्भो भवतीति तमभिनन्दन द्रव्यसामान्यवर्णनामुपसंहरति -
कता करणं कम्म फलं च अप ति णिच्छिदो समणो । परिणमदि गोव अण्णं जदि अप्पाणं लहदि सुद्ध ॥१२६॥ कर्ता करण कर्म फल, चारों ही जीवको सुनिश्चित कर ।
परमें न परिणमे जो, वह पाता शुद्ध आत्माको ॥१२६॥ का करणं कर्म कर्मफलं चात्मेति निश्चितवान श्रमणः । परिणमति नैवान्यद्यदि आत्मानं लभते मुद्धम् ।।।
यो हि नामवं कर्तारं करणं कर्म कर्मफलं चात्मानमेव निश्चित्य न खलु परद्रव्यं परि. गमति स एव विश्रान्तपरद्रध्यसंपर्क द्रव्यातःप्रलीनपर्यायं च शुद्धमात्मानमुपलभते, न पुन रन्यः ।
मामसंज्ञ- कत्तार करण काम्म फल च प जि णिच्छिद समण ण एक अप्ण जांद अप युद्ध । धातु संज्ञ----परि नम नम्रीभावे, लग प्राप्तौ । प्रातिपदिक...बात करण कर्मन् फल चमात्मन् इति निश्चित
दृष्टि१- उपादान दृष्टि (४६ ब) ।
प्रयोग-परको न मैं करता हूं, परको न मैं भीगता हूं, जो कुछ मेरस होता है यह मुझमें ही मुझसे होता है, यह जानकर नि विकल्प होकर जो अपने में सहज हो उसे होने देना ॥ १२५ ॥
अब इस प्रकार ज्ञेयत्वको प्राप्त प्रात्माकी शुद्धताके निश्चयसे ज्ञानतत्त्व की सिद्धि होने पर शुद्ध आत्मतत्त्वकी प्राप्ति होती है। इस प्रकार उसका अभिनन्दन करते हुये द्रव्यसामान्यके वर्णनका उपसंहार करते हैं ---यदि यदि [कर्ता, करणं, फर्म, कर्मफलं च श्रात्मा] 'कर्ता, करण, कर्म और कर्मफल प्रात्मा है' [इति निश्चितः] ऐसा निश्चय कर चुका [श्रमरणः श्रमण [अन्यत् अन्यरूप [न एव परिणमति नहीं परिण मता है तो वह [शुद्ध आत्मानं] शुद्ध पात्माको [लभते] प्राप्त करता है ।
तात्पर्य----प्रात्मा ही सर्वस्व है, अन्य कुछ नहीं, ऐसा मानने वाला शुद्ध प्रात्माको प्राप्त करता है।
टीकार्थ-जो प्रात्मा इस प्रकार कर्ता, करण, कर्म और कर्मफल आत्माको निश्चय पूर्वक मानकर ही वास्तवमें परद्रव्यरूप नहीं परिणमता वही प्रात्मा जिसका पर द्रव्यके साथ संपर्क बंद हो गया है, और जिसको पर्याय द्रव्यके भीतर प्रलीन हो गई हैं ऐसे शुक्षात्माको उपलब्ध करता है; परन्तु अन्य कोई नहीं। इसका स्पष्टीकरण-जब अनादिसिद्ध पौद्गलिक कर्मकी बंधनरूप उपाधिकी संनिधिसे उत्पन्न हुये विकारके द्वारा जिसकी स्वपरिणति रंजित थी ऐसा
e nger-Seement
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
REAS
..........
www
प्रवचनसार-सप्तदशगो टोरा सपाहियदा सामानादिप्रसिद्धपोलिक बन्धनोपाधिसंनिधिप्रचावितोपरामरजितात्मवृतिबंगापुष्पसनिषिप्रधादिलोपरागरंजितात्मवृत्तिः स्फटिकमणिरिव परारोपितविकारोऽहमासं समारो सदापि न नाम मम कोऽप्यासोत, तदाप्यहमेक एदोपरक्तचित्स्वभावेन स्वतन्त्र: कर्तासम्, अह. मक एकोपरक्तचित्स्वभावेन साधकतमः कारणमासम्, अहमक दोपरक्तचित्परिणमनस्वभावे. मात्मना प्रायः कर्मासम्, अहमेक एव चोपरक्तचित्परिणामनस्वभावस्य निष्पाद्यं सौम्यविषय.
लक्षणं दुःखाख्यं कर्मफलमासम् । इदानीं पूनरनादिप्रसिद्धपौद्गलिककर्मबन्धनोपाधिसन्निधिअमण न एकः अन्यत् यदि आत्मन् शुद्ध । मूलधातु-परिनम नम्रीभावे, डुलभप प्राली । उभयपदविव
कत्ता कुर्ता कम्मं काम फलं करणं अप्पा आत्मा-प्रथमा शकवचन । णिच्छिदो निश्चिनवान-प्रथमा * जपा कुसुमकी निकटतासे उत्पन्न हुई लालिमासे रंजिन स्फटिक मणिको भांति-दर के द्वारा
रोपित विकार वाला होनेसे संसारी था, तब भी (प्रज्ञान दशामें भी) बास्तवमें मेरा कोई भी नहीं था। तब भी मैं अकेला ही कर्ता था, क्योंकि मैं अकेला ही विकृत चैतन्यरूप स्वभाव में स्वतन्त्र का था, मैं अकेला ही करण था, मैं अकेला ही उपरक्त चैतन्यरूप स्वभावके द्वारा साधकतम कारा था; मैं अकेला ही उपरक्त चित्परिणमन स्वभावके कारण अपने द्वारा प्राण कर्म था और मैं अकेला ही उपरक्त चित्परिणामन स्वभावका निष्पाद्य उत्पन्न सोख्यसे विपरीत लक्षणा वाला दुःख नामक कर्मफल था। और अब प्रतादिसिद्ध पौद्गलिक कर्मको वंधन म्य सपाधिको सन्निधिके नाशसे जिसकी सुत्रिशुद्ध सहज स्वपरिगति प्रगट हुई है ऐसा मैं जपा. कसमको निकटताके नाशसे जिसकी सूविशुद्ध सहज स्वपरिणति प्रगट हुई हो ऐसे स्फटिकमणि की भांति जिसका एरके द्वारा पारोपित विकार बंद हो गया है, ऐसा केवल मोक्षार्थी है। इस ममक्ष दशा में भी वास्तवमें मेरा कोई भी नहीं है। अभी भी मैं अकेला हो सूविशुद्ध चैतन्यरूप स्वभाव से स्वतन्त्र का हूं, मैं अकेला ही मुविशुद्ध नित्स्वभाव से सोधकतम करगा हूँ मैं अकेला हो मुविशुद्ध चित्परिणमन स्वभावसे प्रात्माके द्वारा प्राप्य कर्म हूं: और मैं अकेला ही मुदिशुद्ध चित्परिणामन स्वभावका निष्पाद्य अनाकुलता लक्षा वाला सीख्य नामक कर्मफल हूं। इस प्रकार बंधमार्ग तथा मोक्षमार्ग में अकेले प्रात्माको ही भाने वाले, एकत्वपरिणामनके उन्मुख परमाणुको तरह किसो समय परद्रव्यरूप परिम् ति नहीं होती । और एकत्वभाबसे परिणत परमाणुको तरह एकत्वको भाने वाला प्रात्मा परके साथ संबद्ध नहीं होता; तदनन्तर ५रद्रव्य के साथ असंबद्धताके कारण वह विशुद्ध होता है । और कती, करण कम तथा कर्मफलको मात्मरूपसे माता हा वह प्रात्मा पर्यायोंसे संकीर्ण नहीं होता; और इस कारण पर्यायों के द्वारा संकोगा न होनेसे सुविशुद्ध होता है ।
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४२
सहजानन्दशास्त्रमालायां
सविस्फुरित मुविशुद्ध सहजात्मवृत्तिर्जपापुष्पसंनिधिध्वं सविस्फुरितसु विशुद्धसहजात्मवृत्तिः स्फः टिकमणिरिव विश्रान्तपरारोपित विकारोऽहमेकान्तेनास्मि मुमुक्षुः इदानीमपि न नाम ममः कोऽप्यस्ति इदानीमप्यहमेक एव सुविशुद्धचित्स्वभावेन स्वतन्त्रः कर्तास्मि श्रहमेक एव च सुविशुद्ध चित्स्वभावेन साधकतमः करणमस्मि, अहमेक एव च सुविशुद्धचित्परिणमनस्वभावे : नात्मा प्रायः कर्मारिम, श्रम एव च सुविशुद्ध चित्परिणामनस्वभावस्य निष्पाद्यमनाकुलत्व
सौख्याख्यं कर्मफलमस्मि । एवमस्य बन्धपद्धती मोक्षपद्धती चात्मानमेकमेव भावयत
एक कृदन्त क्रिया । समणी श्रमण:- प्र० एक० । परिणमंद परिणमति लदि लभते वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । अण्णं अन्यत् क्रि० एक० अप्पा आत्मानं सुद्धं शुद्ध द्वितीया एक० निरुक्ति--करो
इस आशयको व्यक्त करनेके लिये काव्य कहते हैं- द्रव्यान्तर इत्यादि । श्रर्थ--- अन्य द्रव्य से भिन्नताके द्वारा हटा लिया है आत्माको जिसने तथा समस्त विशेषोंके समूहको सामान्य लोन किया है जिसने ऐसा जो यह, उद्धत मोहको लक्ष्मीको लूट लेने वाला शुद्धनय है, उसने उत्कट विवेकके द्वारा श्रात्मस्वरूपको विविक्त किया हैं ।
अब शुद्ध द्वारा शुद्ध आत्मस्वरूपको प्राप्त करने वाले ग्रात्माको महिमा बताने के लिये काव्य कहते हैं इत्युच्छेदात् इत्यादि । श्रर्थ--- इस प्रकार परपरिणतिके उच्छेद से तथा कर्ता कर्म इत्यादि भेदोंकी भ्रांतिके नाशसे भी सुचिरकालसे जिसने शुद्ध श्रात्मतस्वको उपलब्ध: किया है, ऐसा विकासमान सहज महिमा वाला यह ग्रात्मा, चैतन्यमात्ररूप निर्मल तेजमें लोन होता हुआ सर्वदा मुक्त हो रहेगा ।
ग्रत्र द्रव्यविशेषके वर्णनकी सूचना के लिये श्लोक कहते है, द्रव्य इत्यादि । अर्थ--- इस प्रकार द्रव्यसामान्यका विज्ञान मूलमें है जिसके ऐसा मनोभाव करके, अब द्रव्यविशेष के परिज्ञानका विस्तार किया जाता है ।
प्रसंग विवरण ... प्रनन्तरपूर्व गाथामें ज्ञान, कर्म व कर्मफलको आत्मरूप से निश्चित किया गया था । अब इस गाथामें बताया गया है कि सर्व स्थितियोंमें व सर्व कारकोंपें शुद्ध (केवल ) ग्रात्मतत्वकी ही उपलब्धि होती है ।
तथ्यप्रकाश--- ( १ ) वस्तुतः कोई भी
द्रव्य किसी अन्य द्रव्यको परिणमाने में असमर्थ है । ( २ ) जो कर्ता करम कर्म व कर्मफल सब आत्मा ही है यह निश्चित कर लेता है वह परद्रव्यको परिणामानेका विकल्प ही नहीं करता । (३) जो अपने सब कारकोंमें स्वको हीं निरखता है और विकल्पमें भी परद्रव्यरूप नहीं परिणमता वहीं परसंपर्करहित विलीन पर्याय
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका
परमाणविकत्वभावनोन्मुखस्य परद्रव्यपरिशतिने जातु जायते । परमाणुरिवभाविकत्वश्च परेण तो संपुच्यते । ततः परद्रव्यासंपृक्तत्वात्सुविशुद्धो भवति । कर्तृकररणकर्म कर्म फलानि चासत्वेन भावयन् पर्यायैर्न संकीर्यते, ततः पर्यायासंकीर्णत्वान्च सुविशुद्धो भवतीति ॥ द्रव्यान्तरव्यतिकरादपसारितात्मा सामान्यमञ्जितसमस्त विशेषजातः । इत्येष शुद्ध नय उद्धतमोहलक्ष्मीलू"टाक उत्कट विवेकविविक्ततत्त्वः ॥७॥ इत्युच्छेदात्वरपरिणतेः कर्तुं कर्मादिभेदस्रान्तिध्वंसादपि सुविराल्लब्धशुद्धात्मतत्त्वः । सञ्चि मात्रे महसि विशदे मूच्छितश्चेतनोऽयं स्थास्यत्युवाह महिमा सर्वदा मुक्त एव ||८|| द्रव्यसामान्यविज्ञाननिम्नं कृत्वेति मानसम् । तद्विशेषपरिज्ञान॥ इति द्रव्यसामान्यप्रज्ञापनम् ।। १२६ ।।
तीति कर्ता क्रियते अनेनेति करणं क्रियते यतु कर्म ॥। १२६ ।।
२४३
शुद्धात्माको हो प्राप्त होता है । (४) ज्ञानीके चिन्तनमें केवल ग्रात्मा ही सब काररूप है । ( ५ ) जब मैं कर्मविपाकसे आरोपित विकार वाला था तब भी मैं ही अकेला उपरक विभावसे परिणमता हुआ स्वतंत्र कर्ता था । (६) विकारपरिगमन के समय मैं ही केला
रक्त पित्स्वभावसे साधकतम कारण था । (७) विकारपरिगमन के समय मैं ही विकारपररूप हुआ अकेला अपने द्वारा प्राप्य कर्म था । (८) विकारपरिणमन के समय में ही मला उपरक्तचित्परिणमन स्वभावका निष्पाद्य क्लेशरूप कर्मफल था । ( ६ ) अब मैं उपाधिविध्वंस से प्रकट सहजात्मवृत्ति वाला परारोपित विकार से अनाक्रान्त मोक्षाभिलाषी हुआ हूं सो इस समय भी मैं अकेला ही विशुद्ध चित्स्वभावसे स्वतंत्र कर्ता हूं । (१०) विकारप्रशमन समय में ही अकेला विशुद्धचित्स्वभावसे साधकतम करण हूँ। ( ११ ) विकारप्रशमन के समय मैं ही केला विशुद्ध चित्स्वभावरूप परिणमने वाला श्रात्मा द्वारा प्राप्य कर्म हूं । ( १२ ) frerrarach समय में हो अकेला विशुद्ध वित्स्वभावका निष्पाद्य अनाकुल स्वरूप सहज मानन्दरूप कर्मफल हूं । (१३) बन्धपद्धति व मोक्षपद्धति में कारकभूत यह मैं एक ही आत्मा "हूँ। (१४) बन्धपद्धति व मोक्षपद्धतिमें एक ग्रात्माको ही निरखने वाले भव्यात्माके परद्रव्य परिणति नहीं होती है । (१५) एकत्वनिश्चयगत जीवके परद्रव्यसंपर्क नहीं होता । (१६) मामा परद्रव्यसंपर्क रहित हो जानेसे शुद्ध हो जाता है । ( १७ ) कर्ता, करण, कर्म व कर्मफल को प्रात्मरूपसे भाने वाला पर्यायोंसे संकीर्ण नहीं होता । ( १८ ) पर्यायोंसे संकीर्ण न होने वाला जीव सुविशुद्ध होता है ।
सिद्धान्त - - ( १ ) सोपाधि स्थिति में कर्ता करण कर्म कर्मफल परारोपित विकार वाला यह जीव है । (२) निरुपाषि स्थिति में कर्ता करण कर्म कर्मफल यह निर्विकार जीव है ।
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां अथ द्रव्य विशेषप्रज्ञापनं तत्र द्रव्यस्थ जीवाजीवत्वविशेष निश्चिनोति---
दव्वं जीवमजीवं जीवो पुण चेदणोवोगमयो । पोग्गलदव्बप्पमुहं अचेदणं हवदि य अजीवं ॥१२७।। द्रव्य सु जीब अजीव हि, जीव सदा चेतनोपयोगमयो :
पुद्गलद्रव्यादि प्र-तन द्रव्य अजीव कहलाते ॥१२७।। द्रव्यं जावोऽजीबो जीव: पुनश्चेतनोपयोगमय: । पुद्गलद्रव्यप्रमुखोऽचेतनो भवति चाजीवः ॥ १२७ ।।
इह हि द्रव्यमेकत्व निबन्धनभूतं द्रव्यत्वसामान्य मनुज्झदेव तदधिरूढविशेष लक्षणसद्धाः वादन्योन्यव्यवच्छेदेन जीवा जीवत्वविशेषमुप ढोकत । तत्र जीवस्यात्मद्रव्यमेवैका व्यक्तिः ।। अजीवस्य पुनः पुद्गलद्रव्यं धर्मद्रव्यमधर्मद्रव्यं कालद्रव्यमाकाशद्रव्यं चेति पश्च व्यक्तयः । विशेष लक्षणं जीवस्य चेतनोपयोगमयत्वं, अजीवस्य पुनरचेतनत्वम् । तत्र यत्र स्वधर्मव्यापकत्वात्स्वः ।।
नामसंज्ञ.....दध्व जीब अजीव जीव पुण चेदणोधओगम पोग्गलदन्नप्पमुह अचेदण य अजीव ।। धातुसंज्ञ व सत्तायो । प्रातिपदिक-द्रव्य जीव अजीव जीव पुनर् चेतनोपयोगमय पुद्गलद्रव्यप्रमुख अचेतन च अजीव । मूलधातु---सु सत्तायां । उभयपदविबरण---दव्यं द्रव्यं जीवं जीवअजीवं अजीवः
दृष्टि------ अशुद्ध निश्चयनय (४७) । २- शुद्ध निश्चयनय (४६) । प्रयोग-सर्वत्र अपना एकत्व निरखकर सहज एकत्वमें रमनेका पौरुष होने देना ।।१२६॥
अब द्रव्यविशेषका प्रज्ञापन होता है-उसमें पहिले द्रव्य के जीवाजीवस्वरूप विशेष को निश्चित करते हैं-----[द्रव्यं] द्रव्य जीवः अजीवः] जीव और अजीव है । [पुनः] उनमें [चेतनोपयोगमयः] चेतनास्वरूप ज्ञान दर्शन उपयोग वाला तो [जीवः] जीव है, [च] और, [पुद्गलद्रव्यप्रमुखः प्रचेतनः पुद्गलद्रव्यादिक चेतनारहित द्रव्य [अजीवः भवति] अजीब है।
तात्पर्य-द्रव्यके दो प्रकार हैं----जीव और अजीब, उनमें चेतन तो जीव है और अचेतन पुद्गल धर्म अधर्म अाकाश व काल अजीव है ।
टीकार्थ-----यहाँ (इस विश्वमें) द्रव्य, एकत्वके कारणभूत द्रव्यत्वसामान्य को न छोड़ता। हुआ ही उसमें रहने वाले विशेष लक्षणोंके सभावके कारण एक-दूसरेसे पृथक् किये जाने से जीवत्वरूप और अजीवत्वरूप भेदको प्राप्त होता है । उसमें, जीवका आत्मद्रव्य हो एक प्रकार है; और अजीवके पुद्गलद्रव्य, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, कालद्रव्य तथा प्राकाशद्रव्य-ये पाँच प्रकार हैं । जीवका विशेष लक्षण चेतनोपयोगमयत्व है; और अजीवका अचेतनत्व है । उनमें से जिसमें स्वधर्मों में व्याप्त होनेसे स्वरूपत्वसे प्रकाशित होती हुई, अविनाशिनी, भगवती, संवेदनरूप चेतनाक द्वारा, तथा चेतनापरिणामलक्षण, द्रव्यपरिणतिरूप उपयोगके द्वारा निष्पन्नत्व अव.
RRB
NOKIAS
H
ARASHeasowlMAHAMASALMAN
RAMMAR
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका
VLEERE
रूपत्वेन गौतमानयानपायिन्या भगवत्या संवित्तिरूपया चेतनया तत्परिणामलक्षणेन द्रव्यवृत्तिरूपेणोपयोगेन च निवृत्तत्वमवतीर्ण प्रतिभाति म जीवः । यत्र पुन रुपयोगसहचरिताया ययोदिनुलक्षणायाश्चेतनाया प्रभावाबहिरन्तश्चाचेतनत्वमवतारगं प्रतिभाति सोऽजीवः ।।१२७॥ जीवो जीव दणोबओगमओ चेतनोपयोगमयः पोग्गल दवाप्पमुहं पूगलद्रव्यप्रमुखः अचेदणं अचेतनः "अभीचे अजीव:--प्रथमा एकवचन । हदि भवति-वर्तमान अन्य पुरशाद एकवचन क्रिया । निरुक्ति-न्द्रबति दोपति अदुद्रुवत् यदिति द्रव्य, जीवति जीविष्यति अजीवत् योसो जीवः । समास----पुद्गलद्रभ्यं प्रमुखं या मः पुदगलद्रव्यप्रमुखः ।। १२७ ।। तरित प्रतिभासता है वह जीव है । और जिसमें उपयोगके साथ रहने वाली, यथोक्त लक्षण माली चेतनाका प्रभाव होनेसे बाहर तथा भीतर अचेतनत्व अवत्तरित प्रतिभासता है, वह
S:09
. प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें मात्र जान स्वरूपको प्राप्ति होनेपर शुद्धात्माकी अपलविध होना बताया गया था। अब इस गाथासे द्रव्यविशेषका प्रज्ञापन किया जायगा जिसमें इस गाथामें द्रव्यके जीव व अजीव ये दो प्रकार बताये गये हैं।
तथ्यप्रकाश.---१- द्रव्य द्रव्य सब द्रव्य हैं इस दृष्टिसे द्रव्य में द्रव्यत्व सामान्य है। - द्रव्यमें विशेषलक्षणका सद्भाव अवश्य है जिसके कारण एकद्रव्य दूसरे द्रव्य से अन्य है यह जाना जाता है। ३- द्रव्यमें अन्योन्यव्यवच्छेद होनेसे द्रदयके मूलमें जीव व अजीव ये दो प्रकार है। ४- जीव तो सब प्रात्मद्रव्य है । ५-- अजीवके ५ प्रकार हैं--पुद्गलद्रव्य, बर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, भाकाशद्रव्य व कालद्रव्य । ६- जीवका विशेष लक्षण चेतना एवं उपयोग है क्योंकि जोवद्ध भगवती चेतनाके द्वारा व चेतनाके परिणामस्वरूप उपयोग द्वारा रचित है। - अजीवका विशेष लक्षरण अचेतनपना है, क्योंकि उसमें चेतनाका अभाव होनेसे शक्ति व व्यक्ति दोनों में अचेतनपना है।
सिद्धान्त--१- लक्षणभेदसे जीव व अजीवमें विलक्षणता ज्ञात होती है।
दृष्टि-- लक्षण्यनय (२०३) । - प्रयोग--अपना लक्षण निरखकर अपनेको पहचानकर अलक्षण अन्य तत्त्वोंसे विविक्त स्वलक्षणमात्र प्रत्तस्तत्त्वको उपासना करना ॥१२७॥
- अब लोकालोकपनेके विशेषको निश्चित करते हैं [पाकाशे] अाकाशमें [यः] जो भाग पगलजीवनिबद्धः पुद्गल और जीवसे निबद्ध है, तथा [धर्माधर्मास्तिकायकालाढ्यः वर्तते] प्रमास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और कालद्रव्यसे युक्त है, [सः] वह [सर्वकाले तु] सदा ही
१३३१HIP
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
000000000000999
हजारहामाया
NESAMAYA4ARAdelkedww
प्रथ लोकालोकत्वविशेष निश्चिनोति----
पोग्गलजीवगिाबद्धो धम्माधम्मयिकायकालढो । वदि अागासे जो लोगों मा मब्बकाले दु ।।१२।। जितने नभ में रहते, धर्म अधर्म काल जोष व पुद्गल !
लोकाकाश हि उतनी, अवशिष्ट तथा अलोक मदा ।। १२८ ।। प्रदान जीवनिवरहे धर्मशालकायकानाचः । बनने आने में मकान ।। १२८॥
अस्ति हि द्रव्य लोकालोकत्वेन विशेविशिष्टय मन लामावात् । स्थानमा हि लोकस्य पढ्द्र यसमवात्मकत्वं, अलोवस्था पुन: कैवलाकामयम् । तत्र सर्वत्रन्ययागिनि घरममहत्याकाशे यत्र यावति जीवपुद्गलो गतिस्थितिमा गरिस्थिती अम्मन्दानम्सदगतिस्थितिनिधन भूतो च धमविभिन्यायायिनी, मद्रव्य वर्ननानिमितभुनाव कालो नित्यः
नामसंज्ञ ...पानी धम्मायमसनकायकाला अमान जल लव काम धानुसंशा बध बंधने, वन बनेन । प्रातिपदिक ... सगनलीयन बांधनकायवालामाकार
w
wwwwwwwne
wwwwwwwwwwww
तात्पर्य --- अाकाशके जितने क्षेत्र में जीद पुदगल में प्राधम व नामद्रका है, वह लोष है।
टोकार्य-वास्तव में द्रव्य लोकत्व और अलोकस्य के दो विशवदान है, क्योंकि अपने अपने लक्षणों का सद्भाव है। लोकका स्वलक्षण] पद्रव्य समवयात्मकत्व (लह द्रव्यों, को समुदायस्वरूपता) है, और प्रलोकका कंवल प्राकाशात्मवाय (मात्रामस्वरूपत्व) है । वहाँ सर्वद्रव्यों में व्याप्त होने वाले परम महान प्रकाश में, जहां जितने में गति-स्थिति धर्म वाले जीव तथा पुद्गल गतिस्थितिको प्रा होते हैं, (जहाँ जितने में उन्हें गतिधिनिमें निमितभूत धर्म तथा अधर्म व्याप्त होकर रहते हैं और (जहाँ जितने में) सर्व द्रव्योंके वर्तनाम निमित्त मृत काल सदा वतता है, वह उतना अाकाश सथा शेष समस्त द्रव्य उनका समुदाय जिसका स्वरूपतास स्वलक्षण है, वह लोक है: और जहां जितने प्रकाशमैं जीव तथा पुद्गल को गति स्थिति नहीं होती, धर्म तथा अधर्म नहीं रहते, और काल नहीं पाया जाना, उतना केवल आकाश जिसका स्वरूपतासे स्वलक्षणा है, वह प्रलोक है।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें द्रव्य के जीवत्व व आजोबत्य विशेष बताये गये। थे । अब इस गाथा लोक और अलोक भेदका निश्न य किया गया है ।
तथ्यप्रकाश-१- छह द्रव्योंका समूह लोक है। २- केवल आकाशात्मक अलोक
KHAIRAVAwesomeneve
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशांगो टीका
२४७
दुर्ललितस्तत्तावदाकाशं शेषाण्यशेषाणि द्रव्याणि चेत्यमीषां समवाय आत्मत्वेन स्वलक्षणं यस्य म लोकः यत्र यावति पुनराकाशे जीवपुद्गलयोर्गतिस्थिती न संभवतो धर्माधर्मौनावस्थित कालो दुर्ललितस्तावत्केवलमाकाशमात्मत्वेन स्वलक्षणं यस्य सोऽलोकः ।।१२।।
"यद लोक तत् सर्वकाल तु । मूलधातु-- निबन्ध बन्धने, वृतु श्रर्त । उपपद विवरण- पोग्गल जीवणबढी पुद्गलजीवनिबद्धः धम्मात्रम्मात्थिकामकालड्दो धर्माधर्मास्तिकायकालादधः- प्रथमा एकवचन | आगासे आकाशे सप्तमी एकवचन । जो धः लोगो लोकः सो सः प्रथमा एकवचन । सव्वकाले सर्वकाले
एकवचन | दु तु अव्यय । बट्टदि वर्तते वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन किया। निरुक्ति पूर्वते गलयते इति पुद्गलः, जीवतीति जीवः, धरति गती जीवपुद्गलान् इति धर्मः (द्रव्यम्) कलयति सर्वा नीति कालः आकाशन्ते सर्वाणि द्रव्याणि यत्र स आकाश: लोकान्ते सर्वाणि क्रव्याणि यत्र स लोक, सरतीति सर्वः । सम्पास --- पुद्गलाः जीवाश्चेति पुद्गलजीवाः तैः निवद्धः पुद्गलजीवनिबद्धः वदन as an aर्माधम तौ अस्तिकाय चेति धर्माधर्मास्तिवाय धर्माधर्मास्तिकाय च कालदचेति धर्माधर्मास्तिकालाः तैः आढ्यः इति धर्माधर्मास्तिकाय कालाढयः ।। १२० ।।
है । ३-चेतनालक्षण जीव है । ४- प्रचेतनालक्षरण अजीव है । ५- गतिस्थिति धर्मात्मक जीव मुद्गलको गति में निमित्तभूत द्रव्य धर्मद्रव्य है । ६- गतिस्थितिधर्मात्मक जीव पुगलकी स्थिति में निमित्तभूत द्रव्य अधर्मद्रव्य है । 3- सर्वद्रव्यों के परिणमन में निमित्तभूत पदार्थ काल ग्रन्थ है । ६- जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल ये द्रव्य जितने शाकाशमें अवस्थित हों वह लोक है । ६- जितने आकाशमें जीव पुद्गलको गतिस्थिति संभव नहीं, धर्म, अधर्म, कालद्रव्य प्रवस्थित नहीं उतना केवल आकाश अलोक है ।
सिद्धान्त - १ - परके संयोग वियोगसे एक ही द्रव्य दो रूप विदित होता है । दृष्टि - १ - पर संपर्क सापेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय (२६) ।
प्रयोग -- ग्राकाशके असोम परिमाण व लोकके विशाल परिमाणको जानकर बिन्दुमात्र मतुपात से भी कम परिचित क्षेत्रका व्यामोह न कर आत्मप्रदेशों में आत्मस्वरूपका भवमनुभवना ।। १२८ ॥
अब 'क्रिया' रूप और 'भाव' रूप द्रव्यके भावोंका भेद निश्चित करते हैं--- [पुद्गलजोवात्मकस्य लोकस्r] पुद्गल जीवात्मक लोकके [ परिणामात्] परिणमनसे, गौर [ संघा आता वा मेदात्] मिलने और पृथक् होनेसे [उत्पाद स्थितिभंगा: उत्पाद, ध्रौव्य और व्यय
[जायन्ते ] होते हैं ।
तात्पर्य - पुद्गल व जीव ये दो प्रकारके द्रव्य क्रियावान व भाववान है, शेष के द्रव्य
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४८
अथ क्रियाभावतद्भावविशेषं निश्चिनोति---
सहजानन्दशास्यमालायां
उप्पादडिदिभंगा पोग्गलजीवप्पगस्स लोगस्स | परिणामादो जायंते संघादादो च भेदादो ॥ १२६॥
युद्गलजीवात्मक इस लोक हि के परिणामप्रकृति से वा ।
मिलने व बिछुड़नेसे, होले उत्पाद प्रौव्य विलय ॥ १२६ ॥
उत्पाद स्थितिभङ्गाः पुद्गलजीवात्मकस्य लोकस्य । परिणामाज्जायन्ते संधाताद्वा भेदात् ॥ १२६ ॥ क्रियाभाववत्वेन केवलभाववत्त्वेन च द्रव्यस्यास्ति विशेषः । तत्र भाववन्तो क्रियावन्ती च पुद्गलजीवी परिणामाभेदसंधाताभ्यां चोत्पद्यमानावतिष्ठमानभज्यमानत्वात् । शेषद्रव्याणि तु भाववन्त्येव परिणामादेवोत्पद्यमानावतिष्ठमान भज्यमानत्वादिति निश्चयः । तत्र परिणाममात्र लक्षणो भावः परिस्पन्दनलक्षणाक्रिया । तत्र सर्वाण्यपि द्रव्याणि परिणामस्वभाव
t
नामसंज्ञ --- उप्पादट्ठदिभंग मोग्गलजीवम्पग लोग परिणाम संघाद व भेद । धातुसंज्ञ –जा प्रादुर्भाव । प्रातिपदिक उत्पादस्थितिभङ्ग पुद्गलजीवात्मक लोक परिणाम संघात वा भेद । मूलधातु-जनी प्रादु र्भावे । उभयपदविवरण- उप्पादट्ठिदिभंगा उत्पादस्थितिभङ्गाः प्रथमा बहुवचन | पोग्गलजीवप्पगस्स पुगल जीवात्मकस्य लोगस्स लोकस्य षष्ठी एकवचन । परिणामादो परिणामात् संघादादी संघातात् भेदादो सब भाववान ही है क्रियावान नहीं ।
टोकार्थ - क्रियाभावपनेसे व केवल भाववानपनेसे द्रव्य के भेद होते हैं । उसमें पुद्गल तथा जीव भाव वाले तथा क्रिया वाले हैं, क्योंकि परिणाम द्वारा, तथा संघात और भेदके द्वारा वे उत्पन्न होते हैं, टिकते हैं और नष्ट होते हैं । परन्तु शेष द्रव्य भाव वाले ही हैं, क्योंकि वे परिणामके द्वारा ही उत्पन्न होते हैं, टिकते हैं और नष्ट होते हैं; ऐसा निश्चय है । उनमें भावका लक्षण परिणाममात्र है; और क्रियाका लक्षण परिस्पंद है । इनमें समस्त ही द्रव्य भाव वाले हैं, क्योंकि परिणामस्वभाव वाले होनेसे परिणामके द्वारा अन्वय और व्यतिकोंको प्राप्त होते हुये वे उत्पन्न होते हैं, टिकते हैं और नष्ट होते हैं । परन्तु पुद्गल भाव वाले तो हैं हो क्रिया वाले भी होते हैं, क्योंकि परिस्पंदस्वभाव वाले होनेसे परिस्पंदके द्वारा पृथक हुए, संघातके द्वारा एकत्रित होते हुए और एकत्रित पुद्गल पुनः पृथक् होते हुए उत्पन्न होते हैं, टिकते हैं और नष्ट होते हैं । तथा जीव भी भाववान तो हैं ही, क्रिया वाले भी होते हैं, क्योंकि परिस्पन्द स्वभाव वाले होनेसे परिस्पंदके द्वारा नवीन कर्म - नोकर्मरूप पुद्गलोंसे .. भिन्न जोव उनके साथ एकत्रित हुए कर्म- नोकर्मरूप पुद्गलोके साथ एकत्रित हुये जीव बादमें
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
irattimes ProtremfimthimYARTHWAY
प्रवचन सार-सप्तदशांगी टीका
२४६ स्वात परिणामेनोपात्तान्वयव्यतिरेकाण्यवतिष्ठमानोत्पद्यमानभज्यमानानि भाववन्ति भवन्ति । पुद्गलास्तु परिस्पन्दस्वभावत्वात्परिस्पन्देन भिन्नाः संघातेन संहताः पुनर्भेदेनोत्पद्यमानावतिष्ठमानभज्यमानाः क्रियावन्तश्च भवन्ति । तथा जीवा अपि परिस्पन्दस्वभावत्वात्परिस्पन्देन नूततकमनोकर्मपुद्गलेभ्यो भिन्नास्तैः सह संघातेन संहताः पुनर्भेदेनोत्पद्यमानावतिष्ठमानभज्यमानाः क्रियावन्तश्च भवन्ति ।। १२६ ।। भेदान-पचमी एकवचन । जायते जायन्ते-वर्तमान अन्य पुरुष बहुवचन क्रिया। निरुक्ति-उत्पादनं उत्पादः, बात स्थितिः, भज्जनं भङ्गः, संहननं संधातः, भेदनं भेदः । समास---उत्पादश्च स्थितिरन्न भङ्गश्च उत्पादस्थितिमङ्गाः ।। १२६ ॥ पूयक हए, वे उत्पन्न होते हैं, टिकते हैं और नष्ट होते हैं।
प्रसंगाविवरण----अनन्तरपूर्व गाथामें द्रव्यका लोक अलोकपनेका विशेष निश्चित किया या। अब इस गाथामें द्रव्यके भावोंका क्रियारूप व भावरूप भेद निश्चित किया है ।
तथ्यप्रकाश --- (१) सर्व द्रव्योंमें कुछ द्रव्य तो क्रियावान व भाववान हैं और कुछ द्रव्य क्रियावान नहीं, किन्तु केवल भाववान हैं । (२) जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य क्रिया: वान भी हैं व भाववान भी हैं, क्योंकि इन द्रव्योंमें परिस्पन्द भी है और परिणाम भी है । 113) धर्मः अधर्म, आकाश, काल ये चार द्रव्य केवल भाववान है, क्योंकि इनमें परिस्पन्द नहीं है केवल परिणमन ही है।
सिद्धान्त--(१) पदार्थों को क्रियाका अाधार क्रियावती शक्ति है। (२) भावरूप परिणमनका आधार भाववती शक्ति है ।
दृष्टि-१- क्रियावती शक्ति दर्शक प्रशुद्ध द्रव्यायिकनय (२७ अ) । २- भाववती गक्ति दर्शक अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२७ ब)। का प्रयोग---निर्विकल्प प्रानन्दकी प्राप्तिके लिये भाववती शक्तिका प्राश्रय कर अपनेको भावमात्र निरखना ॥ १२६ 11
अब यह बतलाते हैं कि गुणोंके भेदसे द्रव्योंका भेद होता है— [यः लिगः] जिन लिगोंसे [द्रव्यं] द्रव्य जोवः अजीवः च] जीव और अजीवके रूपमें [विज्ञातं भवति] ज्ञात होता है, [ते] वे [तद्भावविशिष्टाः] तद्भाव विशिष्ट उस उस स्वरूपसे युक्त [मूर्तामूर्ताः] मूर्त-प्रमूर्त [गुणाः] गुण [ज्ञेयाः] जानने चाहिये।
का तात्पर्य-जिन जिन लक्षणोंसे जीवादिक पदार्थ ज्ञात होते हैं उन लक्षणोंरूप वे गुण . कहलाते हैं।
टीकार्थ---द्रव्यका प्राश्रय लेकर और परके आश्रयके बिना प्रवर्तमान जिनके द्वारा
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५०
सहजानन्दशास्त्रमालायां अथ द्रव्यविशेषो गुणविशेषादिति प्रज्ञापयति----
लिंगेहिं जेहिं दव्वं जीवमजीवं च हवदि विण्णादं । ते तब्भावविसिट्टा मुत्तामुत्ता गुणा णेया ॥ १३० ॥ जिन चिह्नोंसे जाना, जाता जीव य अजीव द्रव्योंको ।
वे तद्भावविशेषित, मूर्त प्रमूर्त गुरण वहां जानो ॥१३॥ लिगेय द्रव्यं जीवो जीवश्च भवति विज्ञातम् । ते तद्भावविशिष्टा मूर्तागर्ता गुणा याः ।। १३०॥
द्रव्यमाश्रित्य परानाश्रयत्वेन वर्तमानलिङ्गयले गम्यते द्रव्यमेतैरिति लिङ्गानि मुरगाः । ते च यद्रव्यं भवति न तद्गुणा भवन्ति, ये गुणा भवन्ति ते न द्रव्यं भवतीति द्रव्यादत दावेन
नामसंज्ञ---लिंग ज दब्ब जीव अजीव च विष्णाद त तब्भावविसिद्ध मुत्तामुत्त गुण गोय । धातुसंज-- हर सत्तावां, ना अवबोधने । प्रातिपदिक--लिङ्ग यत् द्रव्य जीव अजीव में विज्ञात तत् तद्भावविशिष्ट । मुर्तामूर्त गुण ज्ञेय ! मूलधातु-भू सत्तायां, जा अवबोधने । उभयपदविवरण--- लिगेहि लिङ्ग: जेहि यःद्रव्य पहचाना जा सकता है, ऐसे लिंग गुण हैं । ये {गुण), 'जो द्रव्य हैं वे गुण नहीं हैं और जो गुण हैं ये द्रव्य नहीं हैं। इस अपेक्षासे द्रव्यसे प्रतद्भाबके द्वारा भिन्न रहते हये, लिंग और लिंगीके रूपमें परिचयके समय द्रव्य के लिंगत्वको प्राप्त होते हैं । अब वे द्रव्यका 'यह जीव है, यह अजीव है। ऐसा भेद उत्पन्न करते हैं, क्योंकि स्वयं भी तद्धावके द्वारा विशिष्ट होनेसे विशेषको प्राप्त हैं । जिस जिस द्रव्यका जो जो स्वभाव हो उस उसका उस उसके द्वारा विशिष्टत्व होनेसे उनके भेद हैं; और इसीलिये मूर्त तथा अमूर्त द्रव्योंका मूर्तत्व-अमूर्तत्वरूप तद्धावसे विशिष्टता होनेसे उनमें 'यह मूर्त गुण हैं और यह अमूर्त गुण हैं' इस प्रकार उनका भेद निश्चित करना चाहिये।
प्रसंगविवरण ---- अनंतरपूर्व गाथामें क्रियावान व भाववान पदार्थोंका विशेषपना ज्ञात कराया गया था । अब इस गाथामें जीव अजीव द्रव्योंके अपनी-अपनी विशेषताके कारण मूर्त व अमूर्त गुण ज्ञात कराये गये हैं।
तथ्यप्रकाश--(१) परका प्राश्चय किये बिना विवक्षित द्रव्यमें ही रहने वाला विवक्षित द्रव्यका परिचायक चिन्हको लिङ्ग अथवा लक्षण कहते हैं । (२) द्रव्य और गुण भिन्न न होनेपर भी उनमें भावभेदसे प्रतद्भाव है । उसोसे यह समझा जाता है कि जो द्रव्य है। वह गुण नहीं है, जो गुण है वह द्रव्य नहीं है । (३) प्रतद्भावविशिष्ट गुण द्रव्यके लिङ्ग अर्थात् लक्षण हो जाते हैं । (४) जिस जिस द्रव्यका जो जो स्वभाव है उस उस द्रव्यको उस उस भावसे विशिष्टता है। (५) भाव विशिष्टतासे ही द्रव्योंमें विशेष जाना जाता है। (६) मूर्त
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका
विशिष्ट सन्चो लिङ्ग लिङ्गिप्रसिद्ध तल्लिङ्गत्वमुपढक ते । अथ ते द्रव्यस्य जीवोऽयमजीवोऽयमित्यादिविशेषमुत्पादयन्ति स्वयमपि तद्भावविशिष्टत्येनोपात्तविशेषत्वात् । यतो हि यस्य यस्य द्रव्यस्य यो यः स्वभावस्तस्य तस्य तेन तेन विशिष्टत्वात्तेषामस्ति विशेषः । अत एव च सुर्तानाममृतीनां च द्रव्याणां मूर्तत्वेनामूर्तत्वेन च तद्भावेन विशिष्टत्वादिमे मूर्ता गुणा हमे अमूर्ता इति तेषां विशेषो निश्वेयः ॥ १३० ॥
F
२५१
तृतीया बहुत | दव्वं द्रव्य जीव जीवः अजीव अजीवः प्रथमा एक० । हृवदि भवति वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन किया। विष्णाद विज्ञान प्रथमा एक दन्त । ते तब्भावविसिद्धा तद्भाव विशिष्ठाः मुत्तामुत्ता मूर्तमर्ताः गुणा गुणा:-प्रथमा बहुवचन या ज्ञेयाः प्रथमा बहुवचन कुदन् क्रिया रूपे । निरुक्तिलिङ्गन लिङ्गः । समास-तस्य भावः तद्भावः तेन विशिष्टाः तद्भावविशिष्टाः (तश्चि अमृतरिक मूर्तीमूतः ॥१४३० ।।
व्योम मूर्तस्वसे विशिष्टता है अतः ये मूर्त गुण हैं ऐसा जाता जाता है । ( ७ ) प्रमृतं द्रव्यों में अमूर्तत्वसे विशिष्टता है, अतः मे अमूर्त गुण हैं ऐसा जाना जाता है । सिद्धान्त - ( १ ) मूर्ख पर्यायोंका आधार धार अमूर्तत्व गुण है ।
मूर्तत्व गुण है । ( २ ) प्रभूर्त पर्यायोंका
दृष्टि--१- मूर्तत्व शक्तिदर्शक अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय ( २३ ) | २- अमूर्तत्वशक्तिदर्शक अशुद्ध द्रव्याधिकनय ( २३ ब ) ।
प्रयोग - मूर्त द्रव्योंसे व प्रभूर्त परद्रव्योंसे उपयोग हटाकर निज अमूर्त चैतन्यस्वरूप में उपयोग लगाना ॥ १३०॥
मूर्त और अमूर्त गुणों का लक्षण तथा संबंध कहते हैं: - [इन्द्रियग्राह्याः ] इन्द्रि यग्राह्य [ पुद्गलद्रव्यात्मकाः ] पुद्गल द्रव्यात्मक [ श्रनेक विधाः ] अनेक प्रकारके [ गुणा मुला सुपवा] गुरण मूर्त जानना चाहिये और [ अमूर्तानां द्रव्याणां] अमूर्त द्रव्योंके [गुणाः] [: ज्ञातव्याः ] अमूर्त जानना चाहिये |
तात्पर्य ---- पुद्गल द्रव्यों के गुण मूर्त श्रीर शेष सभी द्रव्योंके गुण श्रमूर्त जानना चाहिये । टीकार्थ --- मूर्त गुणोंका लक्षण इन्द्रियग्राह्यत्व हैं; और अमूर्त गुणोंका लक्षण उससे दिपरीत है और वे मूर्त गुण पुद्गलद्रव्य के हैं, क्योंकि पुद्गल ही एक मूर्त है, और अमूर्त गुभ शेष द्रव्यों हैं, क्योंकि पुद्गल के अतिरिक्त शेष सभी द्रव्य अमूर्त हैं ।
प्रसंगविवरण- अनन्तरपूर्व गाथा में गुणविशेषसे द्रव्यविशेषका ज्ञापन कराया गया | सब इस गाथा में मूर्त अमूर्त गुरणोंका लक्षण तथा सम्बन्ध बताया गया है ।
तथ्यप्रकाश - ( १ ) जिनकी पर्याय इन्द्रियों द्वारा ग्रहण में आ सकने योग्य हों वे गुण
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
श सापक
.
.
....
Kamisatisemi
सहजानन्दशास्त्रमालायां * अथ मू मूर्तगुणानी लक्षणसंबन्धमाख्याति-- ५. ? चिन्त्य प्रज्ञा ता इंदियगेज्मा पोग्गलदव्वापमा प्रयोगविधा।
मुद्धा मुनि १० दवाणममत्ता गुणा यमुत्ता मुगोदना ॥१३१॥ सुबिध सारजी महारामत ग्राह्य इन्द्रियसे, वे हैं पुद्गल पदार्थ नानाविध ।
द्रव्य अमूतोंके गुण, अमूर्त इन्द्रियाग्राह्य कहे ॥१३१॥ मा इन्द्रियग्राह्याः गुद्गलद्रव्यात्मका अनेकविधाः । द्रक्ष्याणाममूतानां गुणा अमृता ज्ञातव्याः ।। १३१ ।।
भूर्तानां मुणानामिन्द्रियग्राह्यत्वं लक्षणम् । अमूर्तानां तदेव विपर्यस्तम् । ते च मूर्ताः पुद्गलद्रव्यस्य, तस्यवेकस्य मूर्तत्वात् । प्रमूर्ता: शेषद्रध्यामा, पुद्गलादन्येषां सर्वेषामप्यमूर्तस्वात् ॥१३१॥
नामसंज---मुत्त इंदियगेज्म पोग्गलदव्वलग अोगविध दव्य अमुल गुण अमुत्त मुरगदव्व । धातुसंज्ञ--- मुण ज्ञाने। प्रातिपदिक----भूत इन्द्रियग्राह्य पुद्गलद्रव्यात्मक अनेकविध द्रव्य अमूर्त गुण अमूर्त ज्ञातव्य । मूलधातु----ज्ञा अवबोधने। उभयपदविवरण---मृत्ता मुताः इदियगेज्मा इन्द्रियग्राह्याः पोग्गलदथ्वप्पामा पुद्गलद्रव्यात्मकाः अरोगविधा अनेकविधाः गुणा गुणाः अभुत्ता अमृता:- प्रथमा बहुवचन । दवाणं द्रव्यागाँ अभुत्ताणं अमुर्ताना-ठी बहुवचन । भुपेन्द्रा ज्ञातव्या:-प्रथमा बहुवचन कृदन्त त्रिया। निरुक्ति--- (इन्दनं इन्द्रः इन्द्रस्येदं लिंग इन्द्रिय) समास-इन्द्रियेण ग्राह्या: इन्द्रियग्राह्याः) पुद्गलं द्रव्यं एव आत्मा येषां ते पुद्गलद्रव्यात्मकाः ।। १३१ ।। मूर्त हैं । (२) जिनकी पर्याय कभी भी इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य न हो सके वे गुण अमूर्त हैं । (३) मूर्त गुण पुद्गलद्रव्यके हैं । (४) अमूर्त गुण पुद्गलको छोड़कर शेष पांच प्रकारके द्रव्योंके हैं।
सिद्धान्त-१- पुद्गलद्रव्यके मूर्त गुण हैं । २- जीव, धर्म, अधर्म, आकाश व कालद्रव्यके अमूर्त गुण हैं।
दृष्टि-१, २- भेदकल्पनासापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकन य (५०)।
प्रयोग-शाश्वत शान्तिके लिये इन्द्रियग्राह्य अर्थों का उपयोग हटाकर अमूर्त शुद्ध चिद्ब्रह्ममें उपयुक्त होना ।। १३१ ॥
__ अब मूर्त पुद्गल द्रव्यके गुणोंको कहते हैं:-[सूक्ष्मात्] सूक्ष्मसे लेकर पृथिवीपर्यंतस्य] पृथ्वी पर्यन्तके [पुद्गलस्य] सई. पुद्गलके [वर्णरसगंधस्पर्शाः] वर्ण, रस, गंब और स्पर्श गुण [विद्यन्ते] होते हैं; [च चित्रः शब्दः] और जो विविध प्रकारका शब्द है [सः] वह [पौद्गलः] पौद्गलिक पर्याय है ।
तात्पर्य-पुद्गलके वर्ण गन्ध रस स्पर्श तो गुण हैं और शब्द पुद्गलकी द्रन्यव्यंजन पर्याय है।
madamit
a SwamiovalMAAMINiromodwaJAAAADMIAL IN
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
ॐ
प्रथइनसा.... सप्तदशाङ्गो टोका अथ मुतस्य पुद्गलद्रव्यस्य गुणान् गृणाति--
वण्णारसगंधफासा विज्जते पुग्गलस्स सुहुमादो । पुढवीपरियंतस्स य सहो सो पोग्गलो चित्तो॥१३२॥
सूक्ष्म व वादर पुद्गल के वर्ग स्पर्श गंध रस होते ।
क्षित्यादिक सब ही के, शब्द विविध पुद्गलदशायें ॥१३२॥ कर्णरसगंधस्पशा विद्यन्ते पुद्गलस्य सुक्ष्मात् । पृथिवीपर्यन्तस्य च शब्दः स पौद्गलश्चित्रः ॥ १३२ ॥
इन्द्रियग्राह्याः विल स्पर्शरसगन्धवरस्तिद्विषयत्वात्, ते चेन्द्रियग्राह्यत्वब्यक्तिशक्तिवशाल गृह्यमाणा प्रगृह्यमाणाश्च या एक द्रव्यात्मकसूक्ष्मपर्यायात्परमारणोः या अनेकद्रव्यात्मकस्थूल
नामसंज-वण्णरसगंधफास पुग्गल सुहुम पुढवोपरियंत य स त पोग्गल चित ! धातुसंज--विज्ज सलार्या । प्रातिपदिक-वर्ण रसगंधस्पर्श पुदाल सूक्ष्म पुथ्वीपर्यन्त च शब्द तत् पौदगल चित्र । मूलधातु-- विद सत्तायां । उभयपदविवरण---
वरमगंधफासा वर्णरसगन्धस्पर्शा:--प्रथमा बहुवचन । विज्जते टोकार्थ...स्पर्श, रस, गंध और रर्ण इन्द्रियग्राह्य हैं क्योंकि वे इन्द्रियोंके विषय हैं और इन्द्रियग्राह्यताको व्यक्ति और शक्तिके वशसे इन्द्रियोंके द्वारा गृह्यमाण या प्रगृह्यमाण वे गुण एक द्रव्यात्मक सूक्ष्मपर्याय वाले परमारगुसे लेकर अनेकद्रव्यात्मक स्थूल पर्यायरूप पृथ्वी स्कंध तकके समस्त पुद्गलके, अविशेषतया विशेष गुणोंके रूप में होते हैं; और मूर्तपना होने के ॥ कारण ही पुद्गलके अतिरिक्त शेष द्रव्योंके न होनेसे वे गुण पुद्गलका परिचय कराते हैं ।
यही ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये कि इन्द्रियग्राह्यपना होनेसे शब्द गुरण होगा; क्योंकि प्रसिद्ध किया है विविधताके द्वारा अपना नानापन जिसने ऐसे शब्दको भी अनेकद्रव्यात्मक पुदगलपर्यायके रूपमें स्वीकार किया जाता है। प्रश्न- यदि शब्दको गुण माना जाय, तो वह क्यों योग्य नहीं है ? उत्तर- (१) शब्द अमूर्त द्रव्य का गुण नहीं है, क्योंकि गुण गुणी में
भिन्न प्रदेशपना होनेसे, वे गुण-गुणी एकवेदनसे वेद्य होनेसे अमूर्त द्रव्य भी श्रवणेन्द्रियका विषयभूत बन बैठेमा । (२) र्यायके लक्षणसे गुणका लक्षण उखड़ जानेसे शब्द मूर्त द्रव्यका गुण भी नहीं है । पर्यायका लक्षण अनित्यत्व है, और गुणका लक्षण नित्यत्व है; इस कारण अनित्यत्वसे नित्यत्वके उखड़ जानेसे शब्द गुण नहीं है । और जो वहाँ नित्यत्व है वह (शब्द को उत्पन्न करने बाले पुद्गलोंका और उनके स्पर्शादिक गुणों का ही है, शब्द पर्या का नहीं, इस प्रकार प्रति दृढ़तापूर्वक ग्रहण करना चाहिये। "यदि शब्द पुद्गलको पर्याय हो तो वह प्रध्वीस्कंधकी तरह स्पर्शनादिक इन्द्रियोंका विषय होना चाहिये" ऐसा भी नहीं है; क्योंकि पालकी पर्याय होनेपर भी जल घ्राणेन्द्रियका विषय नहीं है; अग्नि घ्राणेन्द्रिय तथा रस
लामामाdिimepi
मा
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
......... .
.::.
.:
::
.:.:
PRAKASHMA
::::::
...
.......
રજ
सहजानन्दशास्त्रमालाया पर्यायात्पृथिवीस्कन्धाच्च सकलस्यापि पुद्गलस्याविशेषण विशेष मुरत्वेन विद्यन्ते । ते च मूर्तस्वादेव शेषद्रव्यारणामसंभवन्तः पुद्गलमधिगमयन्ति । शब्दस्यापोन्द्रियग्राह्यत्माद्गुणत्वं न खल्वाशनीय, तस्य वैचित्र्यप्रपञ्चित बैशवरूपस्याध्यनेकद्रव्यात्मकपुद्गलपर्यायत्त्वेनाभ्युपगम्यमानत्वात् । गुगत्ये वा न तावदमूर्तद्रव्यगणः शब्दः गुणगुणिनोरविभक्तप्रदेशस्वेनं कवे दनवेद्यत्वादमूर्तद्रव्यस्थापि श्रवणेन्द्रियविषयत्वापत्तेः । पर्यायलक्षणेनोत्खातगुणलक्षणत्वान्मूर्तद्रव्यगुणोऽपि न भवति । पर्यायलक्षणं हि कादाचिकत्वं गणलक्षणं तु नित्यत्वम् । ततः कादाचित्कत्वोत्खा सनित्यत्वस्य न शब्दस्यास्ति गुरगत्वम् । यत्तु तत्र नित्यत्वं तत्तदारम्भकपद्गलानां तद्गुणानां च स्पर्शादीनामेव न शब्दपर्यायस्येति दृढतरं नाह्यम् । न च पुद्गलपर्यायत्वे शब्दस्य पृथिवीस्कन्धस्येव स्पर्शनादीन्द्रियविषयत्वम् । अपो प्रारणेन्द्रियाविषयत्वात, ज्योतिषो घ्राणरमनेन्द्रियाविषयत्वात्, मझलो प्राणरमनचक्षुरिन्द्रियाविषयत्वाच्च । न चागन्धागन्धरसागन्धरसबर्गाः, एवमपज्योतिरुितः, सर्वपुद्गलानां स्पर्शादिचतुष्कोपेतत्वाभ्युपगमात् । व्यक्तस्पादिचतुपकानां च चन्द्रकान्तारणियवानामारम्भकैरेव पुद्गलैरन्यक्तगन्धान्यक्तगन्धरसाव्यक्तगन्धरसवर्णाविद्यन्ते-वर्तमान अन्य पुरुष बहुवचन किया । युगलस्स पुद्गलस्य-षष्ठी एकवचन । सुहमादो सुश्मात्पंचमी एक० । पुदवीपरियंतरस पृथ्वीयर्यन्तस्य-षष्ठी एक । सदो शब्दः सो सः पोग्गलो पागल: चित्तों चित्र:-प्रथमा एकवदन । निरुक्ति--- वर्ण्यते वर्णनं वा वर्ग:, रस्यते रसनं बा रस:, गन्ध्यते गन्धन वा नेन्द्रियका विषय नहीं है और वायु, घ्राण, रसना तथा चक्षइन्द्रिय का विषय नहीं है। और ऐसा भी नहीं है कि-पानी गंधरहित है अग्नि मंध तथा रस रहित है और वायु गंध, रस तथा वर्ण रहित है, क्योंकि सभी पुद्गल स्पर्शादिचतुष्कयुक्त स्वीकार किये गये हैं। क्योंकि जिनके स्पर्शादिचतुष्क व्यक्त हैं ऐसे चन्द्रकान्तमणि, अररिण और जनाके प्रारंभक पुद्गलोंके द्वारा जिसकी गंध अव्यक्त है ऐसे पानीकी, जिसको गंध तथा रस अव्यक्त है ऐसी अग्निकी, और जिसकी गंध, रस तथा वर्ण अव्यक्त है ऐसी उदरवायुको उत्पत्ति होती देखी जाती है। और कहीं किसी गुणका कादाचित्क परिणामकी विचित्रताके कारण होने वाला व्यक्सपना या अव्यक्तपना नित्यद्रव्यस्वभावका प्रतिघात नहीं करता । इस कारण शब्द पुद्गलपर्याय ही है ।
प्रसंगविवरण---...अनन्तरपूर्व माथामें मूर्त व अमूर्त गुणोंका लक्षण व सम्बन्ध बताया गया था। अब इस गाथामें मूतं पुद्गलद्रव्यके गुणोंको बताया गया है ।
तथ्यप्रकाश--१- इन्द्रियोंके विषयभूत होनेसे स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण इन्द्रियग्राह्य कहलाते हैं । २-स्पर्श रस गंध वर्ण ये गुण पुद्गलोंके होते हैं । ३-किन्हीं पुद्गलोंके स्पादि गुणोंमें इन्द्रियग्राह्यत्वकी व्यक्ति भी हो गई है अतः वे गृह्यमाण है ! ४-- किन्हीं पुग़लोंके स्पर्शादि गुणोंमें इन्द्रियग्राह्यत्वको शक्ति मात्र है, अतः वे अगृह्यमाणा हैं । ५- स्पर्शादिक गुण
.............
.
...
h.lation.mmieritamwaalinima...
ma...
--mang-
DoramaRTA
HalogenBHAIRMIRROTATOMAChummaNYANESHAYARYANAPAYARI
mm.....--------
MainamainamAHAR
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका
२५५
नामपूज्योतिरुदरमरुतामारम्भदर्शनात् । न च क्वचित्वस्यचित् गुणस्थ व्यक्ताव्यक्तत्वं कादाचित्कपरिणामवैचित्र्यप्रत्ययं नित्यद्रव्यस्वभावप्रतिघाताय । ततोऽस्तु शब्द: पुद्गलपर्याय एवेति ॥१३२॥
, स्पुरते स्पर्शन वा स्पर्शः पुचवतीति पृथ्वी, पुद्गलस्स अयं पौद्गल । समास-वर्णश्च सश्च व स्पर्शश्वेत वर्णरसगन्धस्पर्शाः ।। १३२ ॥
गृह्यमाण हो चाहे गृह्यमाण होते हैं एक द्रव्यात्मक परमार से लेकर बड़ेसे बड़े पुदगलस्कंध तकमें । ६-स्पर्शादिक गुण पुद्गलातिरिक्त अन्य द्रव्योंमें नहीं होते, ये गुणरूप लक्षप लक्ष्यरूप पुद्गलका परिचय कराते हैं । ७- शब्द इन्द्रियग्राहय तो है, किन्तु गुण नहीं है, शब्द त्मक पुद्गपर्याय है । ८-कोई शब्दको गुण माननेकी जबर्दस्ती भी करे तो भी
शब्द प्रद्रव्यका गुण तो सिद्ध हो हो नहीं सकता, क्योंकि शब्दको श्रमूर्त द्रव्यका गुण माना जाय तो वह अमूर्त द्रव्य कइन्द्रियका विषय हो बैठेगा, किन्तु ऐसा है ही नहीं । --शब्द तो पर्याय है, अन व है अनेकद्रव्यात्मक द्रव्यव्यञ्जनपर्याय है, अतः शब्द मूर्तद्रव्यका भी गुरण नहीं है। १० - शब्द भाषावगंगा नामक पौद्गलिक स्कंदकी पर्याय है । २१ शब्दोंके उपादान में जो नित्यपना है सो वह नित्यपना पुद्गलद्रव्यका व स्पर्शादि गुणोंका है । १२- शब्द पुद्गलकी होनेपर भी इन्द्रियका ही विषयभूत हैं, क्योंकि अन्य इन्द्रियका विषय अन्य इन्द्रिय द्वारा गम्य नहीं होता। १३- काला पीला आदि रूप पुद्गल के पर्याय होनेपर भी इन्द्रिय काही विषयभूत | १४- सुगंध दुर्गन्ध पुद्गलकी पर्याय होनेपर भी प्राणेन्द्रियका विषयभूत हैं । १५- खट्टा मीठा प्रादि रस पुदगलका पर्याय होनेपर भी रसनाइन्द्रियका विषयभूत है । १६- शीत, उष्ण आदि पुद्गलका पर्याय होनेपर भी स्पर्शनइन्द्रियका विषयभूत है । १०- जलमें गन्ध, प्रग्निमें गंव रस, बायुमें गंध रस वर्ण व्यक्त न होनेपर उन सबमें स्पर्श
गंध व चारों ही सदा है, क्योंकि अव्यक्त भाव पर्यायान्तरमें व्यक्त हो जाते हैं । १८पर्यायें व्यक्त व्यक्त हों इससे पुद्गलद्रव्यको नित्यतावर कोई चोट नहीं प्राती । १९ - जैसे ज्ञानादि चतुष्टय यथासंभव विकासयुक्त सर्व जीवों में साधारण हैं, इसी प्रकार स्पर्शादि चतुष्टय यथासंभव पर्यायरूपसे सर्व पुद्गलोंमें साधारण हैं अर्थात् सब पुद्गलोंमें होते ही हैं । २०जैसे मुक्त जीव में अनन्त ज्ञानादिचतुष्टय प्रतीन्द्रिय ज्ञानगम्य श्रनुमानगम्य व आगमगभ्य हैं, इसी प्रकार शुद्ध परमाणु द्रव्यमें स्पर्शादिचतुष्टय अतीन्द्रियज्ञानगम्य, अनुमानगम्य व आगमगम्य हैं । २१ - जैसे संसारी जीव में रागादिस्नेहनिमित्तक कर्मबन्धन के वशसे अनंतज्ञानादिचतुकी अशुद्धता है, इसी प्रकार स्निग्धरूक्षगुणनिमित्त स्कंध अवस्था में स्पर्शादिचतुष्टयकी
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५६
सहजानन्दशास्त्रमालायां अथामूर्तानां शेषद्रश्यारणां गुरगान गृणाति
थागासरस्वगाहो धम्मद्दव्वस्स गमणहेदुत्तं । धम्मेदरदब्वस्त दु गुणो पुणो ठाणकारणदा ॥१३३॥ कालस्स बट्टणा से गुणोवोगो त्ति अप्पणो भणिदो। णेया संखेवादो गुणा हि मुत्तिप्पहीणाणं ॥१३४॥ जुगलं। नभका गुरग अवगाहन, धर्मद्रव्यका गमनहेतुपना । अधर्मद्रव्यका थानक-हेतुपना गुण कहे इनके ॥१३३॥ कालका वर्तना गुण, उपयोग गुरण कहा है आत्माका ।
जानो संक्षेप तथा, गुण उक्त अमूर्त द्रव्योंके ।।१३४॥ आकाशस्यानगाही धर्मद्रव्यस्य गमनहेतुत्वम् । धर्मेंतरद्रव्यस्य तु गुणः पुनः स्थानकारग्यता ।। १३३ ।। कालस्य वर्तना स्यात् गुण उपयोग इति आत्मनो भणितः । ज्ञेयाः संक्षेपाद्गुणा हि मूर्तिपहीणानाम् ।।१३४॥
....... ... ... युगलम् ।। अशुद्धता है । २२-जैसे रागादि स्नेहरहित चैतन्यस्वरूपमात्र शुद्धात्मत्वके ध्यानसे ज्ञानादिचतुष्टयकी शुद्धता होती है, इसी प्रकार स्निग्वगुणके अभावमें बन्धनके न होनेपर परमारगपुद्गलावस्था स्पर्शादिचतुष्टयको शुद्धता होती है । २३-जैसे जीव को नर नारक आदि पर्याय विभाव पर्यायें हैं, इसी प्रकार शब्द पुद्गलद्रव्योंको विभावपर्याय है । २४- शब्द भाषात्मक व प्रभा षात्मक तथा उनके अनेक भेदोंसे नाना प्रकारके होते हैं ।
सिद्धान्त ---(१) भाषावर्गणात्मबद्ध अनेक पुद्गलोंकी पीय होनेसे शब्द समानजातीय विभाव द्रव्यव्यञ्जन पर्याय है।
दृष्टि-१-- समान जातीयविभावद्रव्यध्यानपर्याय (२१५) ।
प्रयोग--स्थिर शान्तिमय उपयोग रखनेके लिये दृश्य अदृश्य समस्त पुद्गलों व पु । गलपर्यायोंसे उपयोग हटाकर ध्र व चिद्ब्रह्ममें उपयोग लगाना ॥ ५३२ ।।
अब शेष अमूर्त द्रव्योंके गुणोंको कहते हैं-[प्राकाशस्याधगाहः] आकाशका अव.. गाह, [धर्मद्रव्यस्य गमनहेतुत्वं धर्मद्रध्यका गगनहेतुत्व [धर्मेतरद्रव्यस्य] अधर्मद्रव्यका [स्था. नकारणता] स्थितिहेतुत्व [कालस्य ] कालका [वर्तना स्यात्] वर्तना [गुणः] गुण है । [तु. पुनः] और [आत्मनः गुरणः] प्रात्माका गुण [उपयोगः भरिणतः] उपयोग कहा है। [इति मूर्तिप्रहोणानां गुणाः हि] इस प्रकार अमूर्त द्रव्योंके गुण [संक्षेपात्] संक्षेपसे [ज्ञेयाः] जानना चाहिये।
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवननसार-राप्तवाशांनी टीका
२५७
विशेषगुणों हि युगपत्सर्थ द्रव्याणां साधारणावगाहहेतुत्वमाकाशस्य, सकृत्सर्वेषां गमनपरिणामिनो जीवपदालानां गमन तत्वं धर्मस्य, सकृत्सर्वेषां स्थानपरिणामिना जीवपुद्गलानां स्थातहतुत्वमधर्मग्य, अशेषशेषद्रव्याणां प्रतिपर्यायं समयवृत्तिहेतृत्व कालस्य, चैतन्यपरिणामो जीवस्य । एवममूर्तानां विशेष गृगासंक्षेपाधिगमे लिङ्गम् । तत्रैककालमेव सकलद्व्यसाधारसाबगाइसंपादनमसर्वमतत्वादेव शेषद्रव्याणामसंभवदाकाशमधिगमयति । तथैकवारमेव गतिपरिणउसमस्तजीवपुद्गलानामालोकाद्गमनहेतृत्व मप्रदेशत्वाकालपुद्गलयोः समुद्धातादन्यत्र लोकासध्ययभागमात्रत्वाञ्जीवस्य लोकालोकसीम्नोऽचलितत्वादाकाशस्य विरुद्धकार्य हेतृत्वादधर्भस्यामभवद्धर्ममधिगमयति । तथैकवार मेत्र स्थिति रिमात समस्तजोवपुद्गलानामालोकात्स्थान हेतु. त्व प्रदेशात्वाकालपुद्गलयोः, समुद्घा तादन्यत्र लोकासंख्येय भागमात्रत्वामीवस्य, लोकालोक
नामसंझ आगास अवगाह धम्मदव्य गमणहेट्टत्त धम्मेदरदन्च दु गुण पुणो ठाणकारणदा काल घट्टणा पुणो उवओगों त्ति अप भणिद गणेय सम्वेव गुण हि मुत्तिप्पहीण । धातुसंज्ञ--भण कथने, ना अवोधरे 1 प्रातिपदिक--आकाश अवगाह धर्मद्रध्य गमनहेतुत्व धर्मेतरद्रव्य तु गुण पुनर् स्थानकारणता काल वर्तना सुपा उपयोग इति आत्मन् भणित ज्ञेय संक्षेप गणहि मूर्तिपहीण । मूलधातु-मण शब्दार्थः, ज्ञा अवरोध उभयपदविवरण---आगासस्स आकाशस्य धम्मदश्वस्य धर्मद्रव्यस्य धम्मेदरदश्वस्स धर्मतरद्रव्यस्य कालग
तात्पर्य-प्रमूर्त द्रव्योंमें प्राकाशका अवगाह, धर्मद्रव्यका गतिहेतुत्व, अधर्मद्रव्धका स्थिति हेतुत्व, कालद्रव्यका परिवर्तना ।।
टीकाथ.---युगपत् सर्वद्रव्योंके साधारण अवगाहका हेतृत्व प्राकाशका विशेष गुरण है । एक ही साथ सर्व गतिरूप परिणमन करने वाले जीव-पुद्गलोंके गमनका हेतुत्व वर्मका विशेष गरण है । एक ही साथ सर्व स्थितिरूप परिणमन करने वाले जीव पुद्गलोंके स्थिर होतका हेतुत्व अधर्मका विशेष गुण है। शेष समस्त द्रव्यों की प्रति-पर्याय में समय-समयकी परिणतिका निमित्तत्व कालका विशेष गुण है । चैतन्यपरिणाम जीवका विशेष गुण है । इस प्रकार प्रमूर्त द्रव्योंके विशेष गुणों का संक्षिप्त ज्ञान होने में चिन्ह, प्राप्त होते हैं; वहाँ एक ही कालमें समस्त द्रव्योंको साधारण अवगाहका संपादन अाकाशको बतलाता है; क्योंकि शेष ट्रव्यों के सर्वगत न होनेसे उनके वह संभव नहीं है । इसी प्रकार एक ही कालमें गतिपरिणत समस्त जीव पुद्गलोंके लोक तक गमनन] हेतुत्व धर्मद्रव्यको बतलाता है; क्योंकि काल और पगल अप्रदेशो हैं इसलिये उनके गमनहेतुत्व संभव नहीं है; जीव समुद्घातको छोड़कर लोक के प्रसंख्यातवें भाग मात्र है, इसलिये उसके वह संभव नहीं है, लोक अलोककी सोमा प्रच. लित होनेसे अाकाशके वह संभव नहीं है और विरुद्ध कार्यका हेतु होनेसे अधर्मके वह संभव नही है। इसी प्रकार एक हो कालमें स्थितिपरिणत समस्त जीव-पुद्गलोंके लोक तक स्थिति
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५०
सहजानन्यशास्त्रमालाया
सोम्नोऽचलितत्वादाकाशस्य, विरुद्ध कार्यहेतुत्वाद्धर्मस्य चासंभवदधर्ममधिगमयति । तथा श्रशेष शेषद्रव्याणां प्रतिपर्यायसमयवृत्तिहेतुत्वं कारणान्तरसाध्यत्वात्समय विशिष्टाया वृत्तेः स्वतस्तेषान संभवत्कालमधिगमयति । तथा चैतन्यपरिणामश्चेतनत्वादेव शेषद्रव्याणामसंभवन् जीवमधिगमयति । एवं गुणविशेषाद्द्रव्यविशेषोऽधिगन्तव्यः ।। १३३-१३४।।
कालस्य-पृष्ठी एकवचन । अवगाहो अवगाहः गमहेश गमनहेतुत्वं गुणो गुणः ठाणकारणदा स्थानकार ता बना बर्तना गुण गुणः उवओोगों उपयोगः दु तु पुरे पुनः ति इति हि-अव्यय पण आत्माएकवचन | भगिदो भणितः प्रथमा एकवचन कृदन्त क्रिया । पेमा शेयाः प्रथमा बहुवचन कृदन्त क्रिया | संवाद संक्षेपात्-पंचमी एकवचन । गुणा गुणाः- प्रथमा बहुवचन मुत्तिप्पहीणाणं मूर्तिहीनाना-ठी बहुवचन । निरुक्ति - आकाशन्ते सर्वाणि द्रव्याणि यत्र स आकाशः अवगाहनं अवगाह, हिमोतीति हेतु: संक्षेपनं संक्षेपः । समास - - गमनस्य हेतुः गमनहेतुः तस्य भावः गमनहेतुत्वम् स्थानस्य कारणं
स्थानकारणं तस्य भावः स्थानकारणता ।। १३३- १३४ ।।
1
का हेतुत्व अधर्मद्रव्यको बतलाता है; क्योंकि काल और पुद्गल अप्रदेशी हैं, इसलिये उनके वह संभव नहीं है; जो समुद्घातको छोड़कर लोकके प्रसंख्यातवें भाग मात्र है, इसलिये उसके वह संभव नहीं है, लोक और अलोककी सीमा अचलित होनेसे प्रकाशके वह संभव नहीं है, और विरुद्ध कार्यका हेतु होनेसे धर्मके वह संभव नहीं है । इसी प्रकार शेष समस्त द्रव्योंके। प्रत्येक पर्याय में समयवृत्तिका हेतुत्व कालको बतलाता है, क्योंकि उनके समयविशिष्टवृत्ति कारणान्तरसे साध्य होनेसे स्वतः उनके समयवृत्तिहेतुत्व संभावित नहीं है । इसी प्रकार चैतन्य परिणाम जीवको बतलाता है, क्योंकि वह चेतन है, इसलिये शेष द्रव्योंके वह संभव नहीं है । इस प्रकार गुण विशेषसे द्रव्यविशेष जानना चाहिये । प्रसंगविवरण - प्रनन्तरपूर्व गाथा में पुद्गलद्रव्य के गुणों आदिका कथन किया था । इन दो गाथावों में अमूर्त द्रव्योंके गुणोंको (लक्षणोंको) बताया गया है ।
तथ्य प्रकाश--. १- सर्वद्रव्योंके साधारण अवगाहका हेतुपना होना आकाश द्रव्यका ! असाधारण लिङ्ग है । २- गतिक्रियापरिणत सर्व जीव पुद्गलोंके गमन में निमित्तपना होना: धर्मद्रव्यका असाधारण लिङ्ग है । ३-स्थितिरूप परिणमन करने वाले जीव पुद्गलोके ठहरने में निमित्तपना होना अधर्मद्रव्यका असाधारण लिङ्ग है । ४ - सर्व द्रव्योंकी प्रतिपर्याय में समय समयको परिषतिका निमित्तपना होना कालद्रव्यका असाधारण लिङ्ग है । ५ चैतन्यका परि नाम अर्थात् उपयोग जीवद्रव्यका असाधारण लिङ्ग है । ६ - साधारण लिङ्गसे ही द्रव्यविशेष का परिचय होता है ।
सिद्धान्त - पदार्थ अपने अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे ही सत् हैं ।
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
KA5064
प्रवचनमार-सप्तदशाङ्गो टीका प्रय प्रयाणां प्रदेशवत्त्वाप्रदेशवत्वविशेष प्रज्ञापयति---
जीवा पोग्गलकाया धम्माऽधम्मा पुणो य आगासं । सपदेसेहिं असंखादा गास्थि पदेस त्ति कालस्स ॥ १३५ ॥
जीव व पुद्गल धर्म व, अधर्म अाकाश है बहुप्रदेशो।
किस ही कालाणा के एकाधिक भो प्रदेश नहीं ॥ १३५ ।। जीयाः पुगलकाया अधिौं पुनश्चाकाशम् । स्वप्रदेगरसंध्याता न सन्ति प्रदेशा इति कालस्य ।।१३५।।
प्रदेशवन्ति हि जीवपुद्गलधर्माधर्भाकाशानि अनेक प्रदेश वत्त्वात् । अप्रदेशः कालारपुः प्रदेशमात्रत्वात् । अस्ति च संवर्तविस्तारपोरपि लोकाकाशतुल्यासंख्येयप्रदेशापरित्यागाज्जीवस्य दव्य प्रदेशमात्रत्वादप्रदेशत्वेऽपि द्विपदेशादिसंख्येयासंख्ययानन्तप्रदेशपर्यायेशानवधारितप्रदेशसहादुगलस्य, सकललोकन्यायसंख्येयप्रदेशप्रस्ताररूपत्वात् धर्मस्य, सकललोकव्याप्यसंख्येय.
नामसंश-जीव पोग्गलकाय धमाधम्म पुणो र आगास सरदेस असंखाद ण पदेस सि काल । धातुसंज--असं सत्तायां । प्रातिपदिक ....जीव पुद्गलकाय धर्माधर्म पुनः च आकाश स्वप्रदेश असंख्या न प्रदेश इति काल । मूलधातु-- अस् भुवि । उभयपदविवरण ---जीवा जीवाः पोग्गलकाया पुद्गल काया:-- प्रथमा बहुवचन । धम्माधम्मा-प्र० बहु० । धर्माधौ-प्र० वि० १ पुणो पुनः य च ण म ति इति-अव्यय ।
दृष्टि---स्व द्रव्यादि ग्राहक द्रव्याथिकनय (२८)।
प्रयोग-प्रसाधारण लक्षणोंसे स्व द्रव्य परद्रव्यका भेद जान कर पर द्रव्योंसे उपयोग हटा कर स्वसहजतत्त्व में ही उपयुक्त रहना ।। १३३-१३४।। EMANY अब द्रव्योंके प्रदेशवत्व और अप्रदेशवस्वरूप विशेषको बतलाते हैं -- [जीवाः जीव
पतालकाया:] पुद्गलकाय धर्माधर्मा] धर्म, अधर्म पुनः च] और [आकाशं प्रकाश Eins स्यप्रदेशः] स्वप्रदेशों की अपेक्षासे [असंख्याताः] असंख्यात अर्थात् अनेक हैं; [कालस्य] काल के [प्रदेशाः इति] प्रदेश [न सन्ति] नहीं हैं।
तात्पर्य-जोध, पुद्गल, धर्म, अधर्म व अाकाश, ये पांच द्रव्य अस्तिकाय है, कालदिव्य प्रस्तिकाय नहीं।
टीकार्थ-- जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और प्रकाश अनेक प्रदेश वाले होनेसे प्रदेशवान हैं। कालाणु एकप्रदेशी होनेसे ग्रप्रदेशी है । संकोच-विस्तारके होनेपर भी जीव लोकाकाशतुल्य असंख्य प्रदेशोंको नहीं छोड़ता, इसलिये वह प्रदेशवान है । पुद्गल, यद्यपि दिव्य अपेक्षासे एकप्रदेशी होनेसे अप्रदेशी है, तथापि दो प्रदेशोंसे लेकर संख्यात, असंख्यात और अतत प्रदेशोंवालो पर्यायों की अपेक्षासे अनिश्चित प्रदेश वाला होनेसे प्रदेशवान है; सकल
SAREES
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्य शास्त्रमालाया
A ARA
HARIHARIHSHRE
प्रदेशप्रस्ताररूपत्वादधर्म स्य, सर्वधावनन्तप्रदेशप्रस्ताररूपत्वादाकास्य च प्रदेशवत्वम् । काला । गोस्तु द्रषण प्रदेशमात्रत्वात्पर्यायेण तु परस्परसंपकासंभवादप्रदेशत्वमेवास्ति । ततः कालद्रव्यमप्रदेश शेषद्रव्यारिण प्रदेशवन्ति ॥ १३५ ।। आगासं आकाशं-प्र० एक० । सपदेसेहि स्वप्रदेश:--तृतीया बहु । असंखादा असभ्याता: प्रथमा बहु । पत्थि संति-वर्तमान अन्य पुरुष बहुवचन क्रिया । पदेसा प्रदेशा...प्रथमा बहु । कालम्स कालस्य-षष्ठी एकः । निक्ति-चीयते हति कायः । समास....धर्मश्च अधश्च धमाधमों, स्वस्थ प्रदेशा: स्वदेशात: स्वप्रदेशै: 11 १३५ ।।
...
a
Maminimitedindianraminatin
:linandanhdindi मा
......................
................................
.....
लोकव्याको असंख्य प्रदेशोंके विस्ताररूप होनेसे धर्मद्रव्य प्रदेशवान हैं; सकल लोकन्यापी असंख्य प्रदेशों के विस्ताररूप होनेसे अधर्मद्रव्य प्रदेशवान है; और सर्वव्यापो अनन्त प्रदेशोंके विस्तार रूप होनेसे आकाशद्रव्य प्रदेशवान है। काला तो द्रव्यतः प्रदेशमात्र होने से और पर्यायत्तः परस्पर संपर्क न होनेसे अप्रदेशी ही है । इस कारण कालद्रव्य अप्रदेशी है और शेष द्रव्य प्रदेश वान हैं।
प्रसंगविकरण --अनन्तरपूर्व गाथाद्वयमें अमूर्तद्रव्योंके असाधारण गुण बताये गये थे। अब इस गाथामें द्रव्योंका एकप्रदेशोपने ब प्रदशीपनेकी विशेषता बताई गई है।
तथ्यप्रकाश-१-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश ये अस्तिकाय हैं, क्योंकि ये अनेक प्रदेश वाले हैं । २- सभी प्रत्येक कालद्रव्य अस्तिकाय नहीं है, क्योंकि काल द्रव्य (कालागु) एकप्रदेशी मात्र है। ३-जीवके प्रदेशों में संकोच विस्तार होने पर भी जीव लोकाकाशप्रदेश प्रमाण असंख्याल प्रदेश वाला सतत है। ४- पुद्गल (परमाणु ) स्वद्रव्यत: मात्र एकप्रदेशी होनेसे अप्रदेशी है (अस्तिकाय नहीं), फिर भी दो प्रादि अनन्त परमगुवोंके स्कन्धपर्यायकी दृष्टिसे दो
आदि अनन्त अरगु वाला तक होनेसे बहुप्रदेशी होने से प्रस्तिकाय है । ५-धर्मद्रव्य समस्त लोक में व्यापक प्रसंख्यातप्रदेशी होने से अस्तिकाम है । ६. अधर्म द्रव्य समस्त लोकमें व्यापक असंख्यातप्रदेशी होनेसे अस्तिकाय है । ७- असीम व्यापक अनन्तप्रदेशी होनेसे आकाश अस्ति.. काय है । -- कालद्रव्य परस्पर कभी संयुक्त हो ही नहीं सकता सो वह उपचारसे भी अस्तिकाय नहीं है । E-जीव, धर्म, अधर्म व आकाशद्रव्य वस्तुतया अस्तिकाय हैं । १०--पुद्गल द्रव्य व्यवहार से अस्तिकाय है । ११-कालद्रव्य किसी भी प्रकारसे, उपचारसे भी अस्तिकाय नहीं है।
सिद्धान्त---१-पुद्गलपरमारगु योग्यताके कारण अस्तिकाय है । २-पुद्गलस्कन्ध उपचारसे द्रव्य व अस्तिकाय है ।
दृष्टि------ स्वजात्यसद्भूत व्यवहार (६७) । २-- स्वजातिपर्याये स्वजातिद्रव्योपचारक असद्भूत व्यवहार (१२०) ।
HERemedy
m
com
i
TITTERme.man.mmmmmm.. "
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
CARROT
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका अथ स्वामी प्रदेशिनोऽप्रवेशाचावस्थिता इति प्रलापयति--
लोगालोगेसु गाभो धमाधम्मेहि श्राददो लोगो। सेसे पडुन कालो जीवा पुण पोग्गला सेसा ॥१३६॥ ___ लोक अलोकमें गमन, लोकमें धर्म अधर्म सर्वत्र ।
काल लोकमें नाना, नानाकृत जोव पुद्गल भी ।।१३६॥ लोकालोकायोनंभो धर्माधर्माभ्यामातसो बोकः । शेष| प्रतीत्य कालो जोत्राः पुन: पुद्गलाः शेपो ।।१३।।
। आकाशं हि तावत् लोकालोकयोरपि षड्द्र व्यसमवायासमवाययोरविभागेन वृत्तत्वात् । वधिमी सर्वत्र लोके तन्निमित्तगमतस्यानानां जोवपुद्गलानां लोकाबहिस्तदेकदेशे च म पन
यातासंभवात् 1 कालोऽपि लोक जीवपुद्गलपरिणाम व्यज्यमानममयादिपर्यायत्वात, स तु लोन. कप्रदेश एवाप्रदेशत्वात् । जोयपुद्गली तु युक्ति। एत्र लोके घद्यसमवायात्मकत्वाल्लोकस्य । नामसज...-लोगालोग गभ धमाधम आदद लोग सेस काल' जीव पुण पोग्गल सेस । धातुसंज्ञ--पडि गतो, आतण विस्तारे। प्रातिपदिक ----लोकालोक नभस् धर्माधर्म आतत लोक शेष काल जोक मुनर पदाल शैष । मूलधातु-प्रति इण् गता, आ तत् विस्तार । उभयपदविवरण- लोगालोगेमु लोकालोकेषु
प्रयोग--एकप्रदेशी बहुप्रदशी समस्त परस्वरूपसनसे उपयोग हटाकर निजस्वरूपसत् चिदब्रह्ममें उपयुक्त होना ।।१३।।
अब प्रदेशी और अप्रदेशो द्रब्य कहाँ रहते हैं यह ज्ञान कराते हैं.--[नमः आकाशसवय लोकालोकयोः) लोकालोक में है, [लोकः] लोक [धर्माधर्माभ्याम् पाततः] धर्म और मधर्मद्रव्यसे व्याप्त है, [शेषो प्रतीत्य] शेष जोव, पुद्गल इन दो द्रव्योंका आश्रय लेकर कालः] काल है, [पुनः] और [शेषो] वे शेप दो द्रव्य [जीवाः पुद्गलाः] जीव और पुद्गल
M
SMARTEE
SESS
तात्पर्य--अस्तिकाय और अकाय सभी द्रव्य लोकमें ही रहते हैं।
टीकार्थ- अाकाश तो लोक तथा अलोकमें है, क्योकि वह छह द्रव्यों के समवाय और समवायमें बिना विभागके रहता है । धर्म और अधर्म द्रव्य सर्वत्र लोकमें है, क्योंकि अके निमित्तसे जिनकी गति और स्थिति होती है ऐसे जीव और पुद्गलोंकी गति या स्थिति लोक से बाहर नहीं होती, और न लोक के एक-देश में होती है। काल भी लोक में है, क्योंकि जीव और पुद्गलोंके परिणाम के द्वारा कालकी समयादि पर्याय व्यक्त होतो हैं; और वह काल नोकके एकप्रदेश में ही है, क्योंकि वह अप्रदेशी है। जीव और पुद्गल तो अवशेष न्यायसे ही लोकमें हैं, क्योंकि लोक छह द्रव्योंका समवायस्वरूप है । और क्या कि जोवका प्रदेशसंकोच
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
COMKARANG
DAANANIME
सहजानन्दशास्त्रमालायां
YURGAAIKA
Sara
..... २६२ . . . . :
· · किंतु जोवस्य प्रदेशसंवर्तविस्तारधर्मत्वात् पुद्गलस्य बन्धहेतुभूतस्निग्धरूक्षगुणधर्मत्वाच्च संदेश . .: देशंसर्वलोकनियमोनास्ति कालजीवपुद्गलानामित्येकद्रव्यापेक्षया एकदेश अनेकद्रव्यापेक्षया पुन
रजनचूर्णपूर्णसमुद्गकन्यायेन सर्वलोक एवेति ॥ १३६ ।। सप्तमी बहु० । णभो नभः-प्र० एकः । धम्माधम्महि-तृतीया बहु० ५ बर्माधर्माभ्यां-तृतीया हिवचन ।। आददो आततः लोगो लोक: कालो कालः-प्रथमा एक० । पाच प्रतीत्य-असमाप्तिकी क्रिया । जीव जीवाः पोग्ग ला पुदगला:-प्रथमा बहुः । संसा- बहु० । शेष-प्रथमा द्विवचन । निरुक्ति---'लोक्यन्त सर्वाणि द्रव्याणि यत्र स लोकः, नयन्ति पदाथोः अत्र तत् नभः । समास-लोकश्च अलोकरच लोकालोको तयोः, धर्मश्च अधर्मश्च धर्माधमौ ताभ्याम् ।। १३६ ।। विस्तार धर्म होनेसे और पुद्गलका बंधहेतुभूत स्निग्ध रूक्ष गुरण धर्म होनेसे जीव और पुपान का समस्त लोकमें या उसके एकदेश में रहनेका नियम नहीं है। पौर, काल, जीव तथा पुनः ।। गलोंका एक द्रव्यको अपेक्षासे लोकके एकदेश में और अनेक द्रव्योंकी अपेक्षासे काजलसे भरी हुई डिबियाके न्यायानुसार समस्त लोकमें ही अवस्थान है ।
प्रसंगविवरण - अनन्तरपूर्व गाथामें द्रव्योंकी एकप्रदेशित्व व बहुप्रदेशत्व विषयक विशेषता बताई गई थी। पब इस गाया में यह बताया गया है कि ये एकप्रदेशी व बहुप्रदेशो द्रश्य कहाँ अवस्थित हैं।
तथ्यप्रकाश----- १- प्राकाश द्रव्य लोक व अलोकमें है । २-- प्राकाशश तो असीम एक अखण्ड द्रव्य है । ३- प्राकाशके जितने भागमें पुद्गल धर्म अधर्म व कालद्रव्य अवस्थित है। उतने भागको लोक कहते हैं, शेष समस्त ब्रहों ओरका असीम अाकाशको प्रलोक कहते हैं। ४- धर्म व अधर्म द्रव्य एक एक ही हैं और वे समस्त लोकमें व्यापक हैं। ५-- जीव और पुद्गल द्रव्य लोकमें ही हैं और उनकी गति व स्थितिके निमित्तभूत धर्म व अधर्म द्रव्य हैं, सो धर्म अधर्मद्रव्य भी लोकमें ही हैं। ६- कालद्रव्य लोकमें ही हैं और उनको समय घड़ी श्रादि पर्याय जीव व पुद्गलोंकी नई पुरानी परिणतियोंसे प्रकट विदित होती हैं । ७- सभी पदार्थ निश्चयसे अपने अपने स्वरूप में ही रहते हैं जैसे कि सिद्ध भगवान केवलज्ञानादिके प्राधारभूत लोकाकाश प्रमाण निज प्रदेशों में ही रहते हैं । ८- व्यवहारसे समस्त पदार्थ लोक में रहते हैं जैसे कि सिद्ध भगवान व्यवहारसे सिद्ध क्षेत्रमें रहते हैं । ६-- यद्यपि जीव अनन्ता नन्त हैं व पुद्गल जीवोंसे भी अनन्तगरणे हैं तो भी विशिष्ट अवगाह शक्ति होनेसे सब लोकमें ही समाये रहते हैं । १०- जीवमें प्रदेशोंका संकोच विस्तार होने की शक्ति है, उसके कारण प्रदेशसंकोचको स्थितिमें लोकके यथायोग्य एकदेशमें जीव रहता है, लोकपूरण समुद्घातमें प्रदेशविस्तारकी स्थितिसे समम्र लोकमें रहता है । ११-- पुद्गल द्रव्य एकप्रदेशी होनेसे लोक
MANANclaimeline
Se
emagesed
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६३
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
प. शिस्य प्रजाति PAथ प्रदेशवत्त्वाप्रदेशवत्वसंभवप्रकारमासूत्रयति--
UT यः सुयो नि १०८ श्री जध ते णभप्पदेसा तधप्पदेसा हवंति सेसाणं सविधि सागर जी महारा अपदेसो परमाग तेण पदेसुब्भवो भणिदो ॥१३७॥ नभमें प्रदेश जैसे, प्रदेश त्यों हैं समस्त द्रक्ष्योंके ।
परमाणु अप्रदेशी, भी प्रोद्भवसे सकाय कहा ॥१३७।। गया ते नभःप्रदेशास्तथा प्रदेशा भवन्ति शेषाणाम् । अप्रदेशः परमाणुस्तेन प्रदेशोद्भवो भणितः।। १३७ ।।
सूयिष्यते हि स्वयमाकाशस्य प्रदेशलक्षणमेकागुयायत्वमिति । इह तु यथाकाशस्य प्रदेशास्तयाशेषद्रव्यागामिति प्रदेशलक्षरणप्रकारकत्वमासूथ्यते। ततो यथैकाव्याप्येनांशेन गण्य मातस्याकाशस्यानन्तांशत्वादनन्त प्रदेशत्वं तथै कागुब्धाप्यनाशन गण्यमानानां धर्माधमैकजोवानामसरूप्रेयांशत्वात् प्रत्येक मसंख्येयप्रदेशत्वम् । यथा चावस्थितप्रभारण्योर्धर्माधर्मयोस्तथा
नामसंज्ञ--जध त णभप्पदेस तबपदेस सस अरदेस परमाणु त पदेसुम्भव भणिय । धातुसंज्ञ---हृव सत्ताया, भय कथने । प्रातिपदिक--- यथा तत् नभःप्रदेश तथा प्रदेश शेष अप्रदेश परमाणु तत् प्रदेशोभन मणित । मूलधातु-भू सत्तायां, भण शब्दार्थः । उभयपदविवरण---जध यथा तब तथा अध्यय । णभप्पदेसा नभःप्रदेशाः पदेसा प्रदेशाः-प्रथमा यहु । हति भवन्ति-वर्तमान अन्य पुरुष बहुवचन क्रिया । सेवाण के एक प्रदेश में रहता है, किन्तु स्निग्धत्व रूक्षत्वके कारण बन्ध हो जाने व बद्धोंके घनिष्ट सम्बन्ध हो जानेसे स्कन्धरूपमें लाकर वह स्कन्ध लोकके बहुत प्रदेशों में रहता है।
सिद्धान्त-- १-- प्रत्येक पदार्थ अपने अपने प्रदेशों में रहते हैं । २-- सर्व पदार्थ लोकाकाशमें रहते हैं। Sो दृष्टि-- १- कारक कारकिभेदक सद्भूत व्यवहार (७३) । २- पराधिकरण असद्भूत व्यवहार (१३४) ।
प्रयोग-अन्य समस्त पदार्थों को व उनके प्रवधारको न देखकर अपने प्रात्मप्रदेशों में अपने सहज स्वरूपको निरखकर इस स्वयंमें ही प्रात्मत्व अनुभवना ॥ १३६ ॥
अब प्रदेशवत्व और अप्रदेशवत्त्वको संभवताका प्रकार प्रासूत्रित करते हैं---[यथा] से ति नभः प्रदेशा] वे आकाशप्रदेश हैं [ तथा ] उसी प्रकार [ शेषाणां ] शेष द्रव्योंके प्रदेशाः भवन्ति] प्रदेश हैं। [परमाणुः] परमाणु [अप्रदेशः] अप्रदेशी है; [तेन] उसके
पारा | प्रदेशोद्धयः भरिणतः] प्रदेशोद्भव कहा गया है। in तात्पर्य----सभी द्रव्यों में प्रदेश होते हैं, काल द्रव्य एकप्रदेशी है, परमाणु भी एक.
प्रदेशी है, किन्तु उनके मिलनेसे पिण्ड अनेकप्रदेशो हो जाते हैं ।
distiablictimese
।
।
w indindinsio
SaR8
बगलाममा
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
SAKCHAR
CARE
सहजानन्दगास्त्रमालामा
MSTAR
संवर्तविस्ताराभ्यामनवस्थितप्रमागास्यापि शुष्कार्द्रत्वाभ्यां चर्मण इव जीवस्य स्वांशाल्पबहत्या भावादसंख्येयप्रदेशत्वमेव । प्रमूर्तसंदर्तविस्तारसिद्धिश्च स्थूलकृशशि कुमारशरीरव्यापित्वादस्ति स्वसंवेदनसाध्यन्त्र । पुद्गलस्य तु द्रव्यगोकप्रदेशभात्रत्वादप्रदेशत्वे यथादिते सत्यपि विप्रदेशाधु
द्भवहेतुभूततथाविधस्निग्धरूक्षगुगपरिणामशक्तिस्वभावोत्प्रदेशाद्भवत्वमस्ति । ततः पर्यायगाने • कप्रदेशत्वस्यापि संभवात् द्वयादिसंख्यया संख्ययानन्तप्रदेशत्वमपि म्पाय्यं पुद्गलस्य ।।१३७।। शेषाणाम् षष्ठी बहु० । आईसो अप्रवेश: परमाण परमाणु:-प्रथमा एक । तेण तेन-तृतीया एक० । पद.. सुब्भवो प्रदेशोद्भवः-प्रथमा एक । णि दो णित:-प्रथमा एकवचन कृदन्त किया। निरूक्ति-शेषयने । शेषः, अण्यते इति अणुः । समास-नमस: प्रदेशा. इति नभत्रिदेशाः, (प्रदेशानां उदभवः इति प्रदेशोती दभवः ११३७।।
टीकार्थ-ग्रन्थकार स्वयं ही १४० वी गाथा द्वारा कहेंगे कि ग्राकाशके प्रदेशका लक्षण एक परमारण से व्याप्त होना है, और इस माथामें 'जिस प्रकार आकाशके प्रदेश है। उसी प्रकार शेष द्रव्योंकि प्रदेश है' इस प्रकार प्रदेश के लक्षणकी एक प्रकारता कही जाती है । इसलिये, जैसे एक परमाणुसे व्याप्य हो ऐसे अंशके द्वारा पिने जाने पर प्रकाशके अनन्त अंश होने से प्राकाश अनन्तप्रदेशी है, उसी प्रकार एकारगुव्याप्य अंशके द्वारा गिने जानेपर धर्म प्रधर्म और एक जीवके असंख्यात अंश होनेसे वे प्रत्येक असंख्यातप्रदेशी है और जैसे अव स्थित प्रमाण वाले धर्म तथा अधर्म असंख्यातप्रदेशी हैं, उसी प्रकार संकोच-विस्तारके कारण अनवस्थित प्रमाण वाले जीवके-सूखे गीले चमड़े की तरह निज अंशोंका अल्पबहत्व नहीं होनेसे असंख्यातप्रदेशितव ही है। अमूर्तके संकोच-विस्तार की सिद्धि तो चंकि जीन स्थूल तथा कृशः शरीर तथा बालक और कुमारके शरीर में व्याप्त होता है, अतः अपने अनुभवसे ही साध्या है। परंतु पुद्गल द्रव्यत: एक प्रदेशमात्र होने से यथोक्त (पूर्व कथित) प्रकारसे अप्रदेशी हैं, तथापि दो प्रदेशादिके उद्भवके हेतुभूत उस प्रकारके स्निग्ध-रुक्ष गुणरूप परिणमने की शक्तिरूप स्वभावके कारण उसके प्रदेशोंका उद्भव है। इस कारण पर्यायतः अनेकप्रदेशित्व भी संभव होनेसे पुद्गलको द्विप्रदेशित्वसे लेकर संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशित्व भी न्याय युक्त है।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें यह बताया गया था कि एक प्रदेशी द वह प्रदेशी द्रव्य कहाँ रहते हैं । अब इस गाथामें प्रदेशवानपना व अप्रदेशवानपनाकी संभावनाका । प्रकार सूचित किया गया है।
तथ्यप्रकाश--१-प्रदेशका माप मुख्यतया अाकाशके अविभागी अंशसे किया जाता है । २- एक परमाणु आकाशकी जितनी जगहको रोकता है, व्यापता है उतने क्षेत्रांशको एक
HARITRI
MARWeklinmenARAMM
DILDARIHARA
Mondayan
a xong
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
देश
वाम तामसम--समअटू
वत्त
प्रवचनसार--सप्तदशाङ्गी टीका
२६५ प्रय कालाणोरप्रदेशत्वमेवेति नियमति---
सुमो द अप्पदेसो पदेसमेत्तस्स दबजादस्स । वदिवददो सो वदि पदेसमागासदव्वस्स ॥१३॥
काल है प्रप्रदेशी, उसका पर्याय समय यो जानो।
जिलने में आ नभका, प्रदेश इक लांघ जाता है ।।१३८॥ समयस्त्वप्नदेशः प्रदेशमा त्रस्य राजालन्य । व्यतिपततः स वर्तते प्रदेशमाकाशद्रव्यस्य ।। १३८ ।। प्रदेश एवं समयो द्रव्ये प्रदेश मात्र त्यात् न च तस्य गुद्गलस्येव पर्या येणाप्यनेकप्रदे.
सपदेसमल दव्यजाद वदिवदन्त त पदेस आगरा दन्छ । वतने । प्रातिपदिक-समय तु प्रदेश प्रदेशमात्र द्रव्यजात व्यतिपतत् वः प्रदेश आकाशद्रव्य । मुलधातुतु वर्तन । उभयपदविवरण.... समो समयः अपदसो अप्रदन: प्रथमा एकवचन । पदं समेत्तस्स प्रदेशप्रदेश कहते हैं । ३-जैसे विस्तृत प्रकाशके अविभागी अंशको प्रदेश कहते हैं, ऐसे ही विस्तृत अन्य द्रव्योंके अविभागो अंशको भी प्रदेश कहते हैं । ४-प्राकाश द्रव्य के प्रदेश एकारांच्याप्यांश से गणना करने पर अनन्त हैं, इस कारण अाकाश बहुप्रदेशी (अनन्तप्रदेशी) है । ५-धर्मद्रध्य अधर्मद्रव्य, एक जीव द्रव्य के प्रदेश एकारगुप्याप्यांशसे गणना करनेपर असंख्याल प्रदेश हैं, अतः ये भी बहुप्रदेशी असंख्यात प्रदेश) हैं । ६-जीवद्रव्य के प्रदेश धर्म व अधर्मद्रव्यको तरह अवस्थित नहीं हैं, जीव प्रदेशों में संकोच विस्तार होता है, तथापि प्रत्येक जीव द्रव्य असंख्या. तप्रदेशी ही है उसके प्रदेश कम या अधिक नहीं होते । ७- पुद्गल द्रव्य वस्तुत: द्रव्यसे एक प्रदेशी है, किन्तु स्कन्धपर्यायकी दृष्टि से बहुप्रदेशी अर्थात संख्यातप्रदेशी, प्रसंस्थान प्रदेशी व मनन्तप्रदेशी हैं, क्योंकि परमाणुवोंमें द्विप्रदेशी आदि स्कंध होनेके कारणभूत उस प्रकार के स्जिव रूक्ष गणके परिणमनेको शक्ति होती है !
सिद्धान्त-- १-परमाणु स्कंधपर्याय की दृष्टि से बहुप्रदेशी है । २-धर्म, अधर्म, अाकाशा व प्रत्येक जीवद्रव्य बहुप्रदेशी हैं । ३-परमाणु व कालद्रव्य एक प्रदेशी हैं ।
दृष्टि-१-स्वजात्यसद्भूतव्यवहार (६७) । २-प्रदेशविस्तार दृष्टि । (२१७)।
प्रयोग-~~-सर्वद्रव्योंका परिचय पाकर निज परमात्मद्रव्यसे अतिरिक्त सर्व पदार्थोसे उपयोग हटा कर निजपरमात्मद्रव्यमें उपयोग लगाना ॥१३७।।
अब 'कालाण प्रप्रदेशी ही है' यह नियम कहते हैं--[समयः तु] काल तो [प्र. - देशः] प्रप्रदेशी है, [प्रदेशमात्रस्य द्रव्यजातस्य] प्रदेशमात्र पुद्गल परमाणु [आकाशद्रव्यस्य
प्रवेशं | आकाश द्रव्यके प्रदेशको [भ्यतिपततः] मंदगतिसे उल्लंघन कर रहा हो तब [सः
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालाया
SWAMAHASRAMANARURAMPARANORAMAMISHRedmi
Wha
CHAR
शत्वं यतस्तस्य निरन्तरं प्रस्ताविस्तृतपदेशमात्रासंख्येयद्रव्यत्वेऽपि परस्परसंपकासंभवादेकैकमाकाशप्रदेशमभिव्याप्य तस्थुष:प्रदेशमात्रस्य परमाणोस्तबभिव्याप्त मेकमाकाशप्रदेश मन्दगत्या । व्यतिपततएव वृत्तिः ॥१३८18 मात्रस्य दब्बजादस्स द्रव्य जातस्य-पाठी एकवचन । यदिबददो पतिपतत:-पाठी एक० । सो स-प्र० ए०॥ पदेस प्रदेश-वि० ए० । आगास दबस्स आकाबादध्यस्य-वष्ठी एक० । बट्टादि वर्तते वर्तमान अन्य पुरुषः एकवचन क्रिया । निरुक्ति-सम पति इति समय:, आकाशन्ले सर्वाणि द्रव्याणि यत्र स आकाश: 1 समासन प्रदेश: विद्यते यस्य सः अप्रदेश: महिना एकप्रदेशाः, आकाश में तल द्रव्यं चेति आकाशद्रव्यं तस्य आकाशद्रव्यस्य ||१३८|| वर्तते] वह वर्तता है, अर्थात् निमित्तभूततया परिगमित होता है।
तात्पर्थ---काल द्रव्य एकप्रदेशी है, उसके समय नामक परिणमन होता है, वह समय इतना है जितना कि पाकाशके एक प्रदेश से दूसरे प्रदेशपर परमारण के गमनमें लगता है।
टोकार्थ-द्रव्यतः प्रदेश मात्र होनेसे अप्रदेशी ही है । और कालद्रव्यक पुद्गलको तरह पर्यायतः भी अनेक प्रदेशीपना नहीं है, क्योंकि परस्पर अन्तरके बिना प्रस्ताररूप विस्तृत प्रदेशमात्र असंख्यात कालद्रव्य होने पर भी परस्पर संपर्क न होनेसे एक एक प्राकाश. प्रदेशको न्याप करके रहने वाले कालद्रव्यको वृति कालारण से व्याप्त एक प्राकाशप्रदेशको मन्दगतिसे उल्लंघन करते हुए प्रदेशमात्र परमाणु की घटनासे प्रकट होती है ।
प्रसंगविवरण---अनन्तरपूर्व माधामें द्रव्योंके बहुप्रदेशित्व व एकप्रदेशित्वका कथन किया था । अब इस माथामें "कालद्रव्य (कालारगृ) के एक ही प्रदेश होता है" यह बताया
पारमा m marsineHIRAMMAR
मन R
mertikhetite:558230shaiमा
.....
emen
.....................................
..
तथ्यप्रकाश---(१) कालद्रव्य (कालागु) एकप्रदेशी ही होता है । ( २ ) कालद्रव्य अनेक मिलकर स्कंधको तरह बहुप्रदेशी कभी नहीं हो सकता, क्योंकि कालद्रव्य लोकाकाशके एक एक प्रदेशपर एक एक ही निष्क्रिय नित्य अवस्थित रहते हैं । (३) कालद्रव्यको पर्याय एक एक समयमात्र परिशमनरूप है । (४) कालद्रव्यको समयमात्र परिणमन वृत्ति परमाणु की उस घटनासे प्रकट होती है कि परमाणु मंदगतिसे एक प्राकाशप्रदेशसे अनन्तरके आकाशप्रदेशपर ममन करे । (५) प्रत्येक कालद्रव्यका पर्याय अविभागी एक समय है, तभी समयों के चिन्तित समूहका नाम सेकण्ड, मिनट, घंटा, दिन, माह, वर्ष, पूर्व, पल्य, सागर आदि समझ में आता है।
सिद्धान्त-(१) कालद्रव्य एकप्रदेशो है। दृष्टि----१-- प्रदेशविस्तारदृष्टि (२१७) ।
..............
g ..
...
.....
gunoffer
.
..
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
Food
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
प्रय कालपदार्थस्य द्रव्यपर्यायौ प्रज्ञपयति
२६७
वविददो तं देमं तस्सम समय तदो परो पुच्ची । जो त्यो सो कालो समय उप्पण्णापद्ध सी ॥१३६॥
नमका प्रदेश लंघने के समय सम कहा समय पर्याय ।
काल द्रव्य कालिक, समय समुत्पप्रध्वंसी ॥ १३६ ॥ व्यतिततस्तं देशं तत्समः समयस्वतः परः पूर्वी । योऽर्थः स कालः समय उत्पन्नप्रध्वंसी ॥ १३६ ॥ यो हि येन प्रदेशमात्रेण कालपदार्थेनाकाशस्य प्रदेशोऽभिव्याप्तस्तं प्रदेश मन्दगत्यातिकमतः परमाणोस्तत्प्रदेशमात्रातिक्रमणपरिमाणेन तेन समो यः कालपदार्थ सूक्ष्मवृत्तिरूपसमयः
नामसंज्ञविदन्तत देस तस्सम समय तदों पर पुत्र त अत्थ त काल सम उप्पगपद्धसि । धातुसंज्ञ - उब पज्ज गलौ, १ स नाशने। प्रातिपदिक व्यतिपतत् तत् देवा तत्सम समय सदों पर पूर्व ': प्रयोग - समस्त प्रश्रयभूत कारणोंसे उपयोग हटाकर साधारण निमित्तभूत कालद्रव्य वृतिका निमित्त पाकर जो स्वयंमें सहज परिणमन बने सो होने ऐसे खुद के प्रत्यन्त उदात्त रहनेका पौरुष होने देना ।। १३८५||
काल पदार्थ द्रव्य और पर्यायका ज्ञान कराते हैं - [तं देशं व्यतिपततः ] परमारके एक श्राकाशप्रदेशको उलंघन करते हुए [ तत्सम: ] कालके बराबर जो काल है वह [समयः] 'समय' है; [ततः पूर्वः परः ] उस समय से पूर्वं तथा पश्चात् रहने वाला [यः अर्थः ] जो पदार्थ है [सः कालः ] वह कालद्रव्य है [ समय: उत्पन्नप्रध्वंशी ] 'समय' उत्पन्न और प्रध्वंस वाला है ।
तात्पर्य - एक समय उतना समय है जितना समय परमाणुको एक आकाशप्रदेश उल्लंघन करनेमें लगता है, कालद्रव्य नित्य है समय अनित्य है ।
टीकार्थ-प्रदेशमात्र जिस काल पदार्थके द्वारा आकाशका जो प्रदेश व्याप्त हो उस प्रदेशको मन्दगति से उल्लंघन करते हुए परमाणुके उस प्रदेशमात्र प्रतिक्रमण के परिमाणके बरावर जो काल पदार्थकी सूक्ष्मवृत्तिरूप 'समय' है, वह उस काल पदार्थको पर्याय है । और ऐसी उस पर्यायसे पूर्वको तथा बादकी वृत्तिरूपसे वर्तित होनेसे जिसका नित्यत्व प्रगट होता है, ऐसा पदार्थ द्रव्य है । इस प्रकार द्रव्यसमय अर्थात् कालद्रव्य अनुत्पन्न अविनष्ट है और पर्यायसमय उत्पत्ति-विनाश वाली है । यह समय निरंश है, क्योंकि यदि ऐसा न हो तो माकाशके प्रदेशका निरंशत्व न बनेगा । और एक समय में परमाणुका लोकपर्यन्त गमन होने पर भी समय के अंश नहीं होते; क्योंकि परमाणुके विशेष प्रकारका अवगाह परिणाम होने की
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६८
सहजानन्द्रशास्त्रमालायां
स तस्य कालपदार्थस्य पर्यायस्ततः एवंविधालयात वृत्तिवृत्तत्वेन व्यक्तिनित्यत्वे यो र्थः तत्तु द्रव्यम् । एवमनुत्पन्नाविध्वस्तो व्यसमयः उत्पन्नप्रध्वंसी पर्यायनः । श्रशः समयोऽयमाकाशप्रदेयाख्यानंशत्वान्ययानुपपतेः । न चैक्रममयेन परमाणोरालोकान्तगमनेऽपि सम यस्य साशत्वं विशिष्ट गतिपरिणामाद्विशिष्टात्रगाहपरिणामत्रत् । सत्राहि-यथा विशिष्टावगाह परिणामादेकपरमास्तुपरिमाणोऽनन्तपरमाणुस्कन्धः परमाशोरनंशत्वात् पुनरप्यनन्तांशत्वं न साधयति तथा विशिष्ट गतिपरिणामादिककालाच्या तिका काशप्रदेशातिक्रमणपरिमाणावच्छि तकसमये नै कस्माल्लोकान्ताद्वितीयं लोकान्तमाक्रामतः परमाप्रसंख्ययाः काला रणवः समयस्थानंशत्वादसंख्येयांशत्वं न साधयन्ति ।। १३६ ।
,
यत् अर्थ तत्काल समय उत्पन्नप्रध्वंसिन् । मूलधातु उत् पद पक्षी प्रध्वंसु अवससने । उभयपदविक रण-यदिवददो व्यतिपततः पष्ठी एक० । व देस देश- हि एक तस्सम तत्समः समय समयः श्र० एक । तदो ततः अभ्यय पंचस्वर्थे परों पर पुग्न पूर्वः जो यः अल्थो अर्थ सो सः अत्यो अर्थ: कालो कालः समय समयः उपपसी उत्पन्न प्रथमा एकवचन । निरुक्ति-अयंते इति अर्थः । समास
(तस्य समः तत्समः । १३६ ॥
तरह विशिष्ट गतिपरिणाम होता है। स्पष्टीकरण जैसे विशिष्ट श्रवगाहपरिणामके कारण एक परमाणु के परिमाणके बराबर अनन्त परमाम्मुग्रोंका स्कंध परमाणुको भ्रंशरहितता होने से परमाणुके फिर और ग्रनन्तु अंशोंको सिद्ध नहीं करता, उसी प्रकार एक काला से व्याप्त एक श्राकाशप्रदेश के प्रतिक्रमणके मायके बराबर एक 'समय' में परमाणु विशिष्ट गतिपरिणाम के कारण लोकके एक छोरसे दूसरे छोर तक जाता है तब उस परमाणुके द्वारा उलंघित होते. वाले असंख्य काला 'समय' के प्रसंख्य अंशोंको सिद्ध नहीं करते, क्योंकि 'समय' निरंश हैं। प्रसंग विवरण ---- अनन्तरपूर्व गाथामें कालद्रव्यको एकप्रदेशी बताया गया था। अब इस गाथामें काल पदार्थके द्रव्य और पर्यायका ज्ञान कराया गया है ।
तथ्य प्रकाश - ( १ ) एक एक समयरूप परिणमन जिस द्रव्यसे निकलता है वह काल द्रव्य है और वह अनादि अनन्त है । ( २ ) कालद्रव्य असंख्यात हैं । (३) कालद्रव्यकी प्रतिसमयकी समय नामक पर्याय उत्पन्न होती है और नष्ट हो जाती है । ( ४ ) ग्राकाशका एक एक प्रदेश नंश है, उनपर स्थित प्रत्येक कालद्रव्य अनंश हैं, प्रत्येक काल पदार्थों की समय समय : हो समय नामक पर्याय भो अनंश है। (५) अनेक परमाणु एक प्रदेशपर ठहर जांय तो इससे प्रदेशकी अनंशता समाप्त नहीं होती, क्योंकि अनेक परमाणुवोंका कभी एक प्रकाशप्रदेशपर रहना बने तो वह विशिष्ट श्रवग्राह शक्तिका प्रताप है । (६) परमाणु एक समय में लोकपर्यन्त गमन कर जाय अर्थात् ७ राजू या १४ राजू गमन कर जाय तो इससे समय पर्यायकोनं
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनमार-सरतदक्षा ही टीका
शस्य प्रवेश लक्षणं सूत्रयति-
यागासमणिविद्य यागासपदेसणाया भणिदं । सव्वेसिं च गां सक्कदि तं देदुमवगा ||१४|| जितना नभ अणु रोके, उतना नमका प्रदेश इक होता ।
२६६
उस प्रदेशमें शक्ती, सब अणु अवगाहनेकी है ॥ १४० ॥ निविष्टाशप्रदेश संज्ञया भणितम् । सर्वेषां चाणतां शांति तदातुमवकाशम् ।। १४० ।। प्राकाशस्यैकारगुव्याप्योऽशः विलाकाशपदेशः, स खल्वेकोऽपि शेषपञ्चद्रव्यपदेशानां परमसदस्य परिगतानन्त परमास्कन्धानां चावकाशदानसमर्थः । प्रस्ति चाविभागद्रपऽप्यं
नाम
आगास अगुणिविक आगारामा भणिद सव्य व अशुत अवगास । धातुसंज्ञ - सक सामर्थ्य । प्रातिपदिक आकाश अनिविष्ट आकाशप्रदेशसंज्ञा भणित सर्वच असु तत् अवकाश । सता समाप्त नहीं होती, क्योंकि परमाणुका कभी एक समय में ७ या १४ राजू गमन बने तो वह परमाणुको विशिष्ट गतिका प्रताप है ।
सिद्धान्त -- ( १ ) कालद्रव्य नित्य है । ( २ ) समय नामक पर्याय उत्पन्न प्रध्वंसी है । दृष्टि - १- उत्पादव्यय गौणसत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिकनय (२२) । २नयनामक पर्यायार्थिकन (३४) ।
शुद्ध सूक्ष्म
प्रयोग-कालद्रव्यके अंविभागी समय पर्यायकी तरह अपने विभागी परिणमनका fern कर गुप्त होकर अपने विभागी चित्स्वरूपमात्र स्वद्रव्यको निहारना ॥१३६॥
अब प्रकाशके प्रदेशका लक्षरण सूचित करते हैं - [ अणुनिविष्टं श्राक्राशं] एक पर. माके द्वारा घेरा गया श्राकाश [ श्राकाशप्रदेशसंज्ञया ] 'श्राकाशप्रदेश' के नामसे [भणितम् ] कहा गया है। [च] और [ तत् ] वह [सर्वेषां अस्सूनां ] समस्त परमारोंको [ अवकाशं " शक्नोति ] अवकाश देने के लिये समर्थ है।
तात्पर्य - एक परमाणु जितने श्राकाशपर ठहरता है वह एक प्रदेश है, यह प्रदेश स्थान नमें समर्थ है ।
टीकार्थ -- आकाशका एक परमाणुसे व्याप्य ग्रंश आकाशप्रदेश है; और वह एक देश भी शेष पाँच द्रथ्योंके प्रदेशोंको तथा परम सूक्ष्मतारूपसे परिण प्रनन्त परमाyeh hain अवकाश देने में समर्थ है। अखंड एक द्रव्यपना होनेपर भी उसमें प्रदेशरूप अकल्पना है, क्योंकि यदि ऐसा न हो तो सर्व परमारोंको अवकाश देना नहीं बन सकेगा । यदि 'प्रकाशके अंश नहीं होवे ऐसी किसीको मान्यता हो तो श्राकाशमें दो उंगलियां फैलाकर
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३०
गजानन्दास्त्रमालायां
!
शकल्पनमाकाशस्थ, सर्वेषामशूनामवकाशदानस्थान्यथानुपपत्तेः । यदि पुनराकाशयांशा न स्यु रिति मतिस्तदाङ्गुलीयुगलं नभसि प्रसायं निरूप्यतां किमेकं क्षेत्रं किमनेकम् । एकः चेटिकमभिन्नांशा विभागक द्रव्यत्येन किं वा भिन्नांशाविभागकद्रव्यत्वेन प्रभिन्नांशाविभागकद्रव्यत्वेन सेत् येननिकस्था बगुले क्षेत्र तेनांशेनेतरस्या इत्यन्यतरांशाभात्रः । एवं द्रथ वंशानामभावादाकाशस्य परमाणोरिव प्रवेशवित्वम् । भिन्नांशाविभागकद्रव्यत्वेन चेत् प्रविभागकद्रव्यस्यांश कल्पनमायतम । श्रनेकं चेत् किं सविभागानेकद्रव्यत्वेन किं वाऽविभागद्रव्यत्वेन । सविभागा नेकद्रव्यत्वेन चेत् एकद्रव्यस्याकाशस्यानन्तद्रव्यत्वं प्रविभागक द्रव्यत्वेन देतु प्रविभागक द्रव्य स्यांशकल्पनमायातम || १४० ॥
***************
J
मूलधातु-शक्लू शक्तौ । उभयपदविवरण आगास आकाशं अगुणिविट्ट अणुनिविष्टं प्रथमा एक आगासपदेसणया आकाशप्रदेशसंशय-तृ० एक० भणिदं मणितं प्रथमा एक कृदन्त क्रिया । सन्वेसि सर्वेषां अपूर्ण अणूनष्ठ बहु० तं तत्प्र० एक० । अवगास अवकाश-द्वि० एक० । सक्कदि शक्नोति वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया देदुं बातुं - अव्यय हेत्वर्थ कृदंत | निरुक्ति-संज्ञायते अनया इति संज्ञा, अवकाश अवकाशः । समास-अणुना निविष्टं अणुनिविष्टम् आकाशस्य प्रदेश: आकाशप्रदेश तस्य संज्ञा तथा ।। १४० ।।
बताइये कि दो 'उंगलियोंका एक क्षेत्र हे या अनेक ? यदि एक है तो अभिन्न अंशों वाला विभाग एक द्रव्यपता होनेसे दो अंगुलियोका एक क्षेत्र है या भिन्न श्रंशों वाला श्रविभाग एकद्रव्यपता होनेसे यदि 'अभिन्न अंश वाला अविभाग एकद्रव्यपता होनेसे दो अंगुलियोंका एक क्षेत्र है' ऐसा कहा जाय तो जो अंश एक अंगुलिका क्षेत्र है वही अंश दूसरी अंगुलिका भी है, इसलिये दो में से एक श्रंशका प्रभाव हो गया । इस प्रकार एक से अधिक अंशोंका अभाव होनेसे प्रकाश परमाणुकी तरह प्रदेशमात्र सिद्ध होगा । यदि यह कहा जाय कि 'ग्राकाश भिन्न अंशों वाला विभाग एक द्रव्य है' इसलिये दो अंगुलियों का एक क्षेत्र है तो ठीक ही है, प्रविभाग एक द्रव्यमें अंश कल्पना बन ही गई । यदि यह कहा जाय कि दो अंगुलियोंके 'अनेक क्षेत्र है' अर्थात् एकसे अधिक क्षेत्र हैं, एक नहीं तो बतायें कि 'आकाश खंडरूप अनेक द्रव्य है' इस कारण दो अंगुलियोंके प्रनेक क्षेत्र हैं या आकाशके प्रविभाग एकद्रव्यपना होनेपर भी दो अंगुलियोंके अनेक क्षेत्र हैं ? यदि सविभाग श्रतेक द्रव्य होनेसे माना जाय तो आकाश के अनन्तपना प्रसक्त हो जायगा । यदि अविभाग एक द्रव्य होनेसे माना जाय तो भाग एकद्रव्यमें अंशकल्पना या ही गई ।
प्रसङ्गविवरण --- प्रनन्तरपूर्व गाथामें काल पदार्थके द्रव्य व पर्यायका ज्ञान कराया गया था । अब इस गाथामें कालद्रव्य के बाह्य आधारभूत प्रकाशप्रदेशका लक्षण बताया गया
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
WHAT
प्रवचनगार...सनदशाहो टीका
२७१ प्रय तिर्य गर्ध्वप्रचयावावेदयति
एक्को व दुगे बहुगा संखातीदा तदो अशांता य । दब्वाणं च पदेमा संति हि समय त्ति कालस्म ॥१४१॥
एक दो बहु असंखे, तथा अनन्ते प्रदेशद्रयोंके ।
काल है इकप्रदेशी, समयप्रचय मात्र इसके ॥१४५।। Kएको वा द्वौ बहवः संख्यातीलाम्तनो ऽनन्तान । व्याणां च प्रदं शान्ति हि समया इति कालम्य । ४ १३ RAI प्रदेशप्रच्यो हि तिर्यप्रनयः समयविमित्रवृत्तित्रच मस्त प्रचयः । तत्राकास्यावस्थि
सानन्तप्रदेशत्वाद्धर्माधर्मयोरवस्थितासंख्येयप्रदेशत्वातील त्यानवस्थितासंख्येयप्रदेशत्वात्पुद्गलस्य PAK नामसंक–एक्क व दुग बहुग संखातीद तदो अणत य दव्य व पदस हि समय ति काल । धातुसंज्ञ-- अस सत्तायां । प्रातिपदिक.....एक बानि बहु संन्यातीन लतः अनन्त च द्रव्य न प्रदेश हि समय इति
तथ्यप्रकाश---(१) एक परमाणु जितनी जगहमें स्थित हो उसे प्राकाशका एक प्रदेश कहते हैं। (२) माकाशके एक प्रदेशसे अधिक में परमाणु अवस्थित नहीं हो सकता, किन्तु पाकाशके उस प्रदेशमें अनन्तपरमाणु व अन्य अनेक द्रव्य रह सकते हैं, क्योंकि आकाशप्रदेश में सबको अवकाश देनेका सामर्थ्य है । (३) श्राकाश द्रव्य यद्यपि प्रखण्ड एकद्रव्य है, तथापि प्रकाशका प्रसीम विस्तार होनेसे उसमें अंशकल्पना हो जाती है । (४) अाकाशके अंश हैं ही, तभी दो अंगुलियाँ भिन्न स्थानों में पाई जाती है, दृश्यमान सभी पदार्थ भिन्न-भिन्न स्थानों में पाये जा रहे हैं।
सिद्धान्त -- (१) आकाश एक अखण्ड द्रव्य है । (२) विस्तृत अाकाशमें अंशकल्पना से प्रदेशका परिचय होता है।
ष्टि-१- अखण्ड परमशनिश्चयनय (४४) ३ २- भेदकल्पनासापेक्ष अशुद्ध द्रव्या. अधिकप्रतिपादक व्यवहार (८२) ।
प्रयोग-प्राकाशको भौति अपनेको अमूर्त प्रखण्ड, किन्तु ज्ञानाधिक अनुभवनेका पौरुष करना ॥१४॥
। अब तिर्यकप्रचय तथा ऊर्ध्वप्रचयका परिचय कराते हैं--- [द्रक्ष्याणां च] द्रव्योंके एक एक, [ौ] दो, [बहवः] बहुत, [संख्यातीताः] असंख्य, [वा] अथवा [ततः अनन्ताः च] अनन्त [प्रदेशाः] प्रदेश [सन्ति] है। [हि कालस्य] किन्तु बालके [समयाः इति समय ही हैं, अनेक प्रदेश नहीं ।
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
واب
सहजानन्दशास्त्रमालाया
द्रव्येरनेकप्रदेशत्वशक्तियुक्त प्रदेशत्वापसा द्विबहुपदेशत्वाच्चास्ति तिर्यक्प्रचयः । न पुन, कालस्य शक्त्या व्यक्त्या चैक प्रदेशत्वात् । ऊर्ध्व प्रचयस्तु त्रिकोटिस्पशित्वेन सांशत्त्राद्रव्यवृत्तेः सर्वद्रव्याणामनिवारित एव । अयं तु विशेषः समय विशिष्टवृत्तिप्रचयः शेषद्रव्याणामूर्ध्वप्रचयः समयप्रचयः एव कालस्योर्ध्वप्रचयः । शेषद्रव्याणां वृत्तेहि समयादर्थान्तरभूतत्वादस्ति समयवि शिष्टत्वम् । कालवृत्तेस्तु स्वतः समयभूतत्वात्तन्नास्ति ॥ १४१ ॥
1
काल | मूलधातु - अस भुवि । उभयपदविवरण एक्को एकः प्र० एक० व वाय च च हि त्ति इतिअव्यय । दुगे - प्र० बहु० । द्वौ प्र० द्विवचन बहुगा बहुतः संखातीदा संख्यातीताः अयंता अनन्ताः पदेसा प्रदेशाः - प्रथमा बहुवचन । दव्वाणं द्रव्याणां षष्ठी बहु० समओ समय :-प्र० एक० । कालरस कालस्यपष्ठी एक० । संति-वर्तमान अन्य पुरुष बहुवचन । निरुक्तिति इति एक बहन बहुः । समास (संख्यां श्रतीताः संख्यातोता ने अन्तः येषा ते अनन्ताः ॥२४१।।
तात्पर्य -- कालद्रव्य के अनेक प्रदेश न होनेसे तिर्यत्रप्रचय नहीं है, समय होनेसे ऊर्ध्व प्रचय ही है ।
टोकार्थ - प्रदेशोंका समूह तिर्यक्प्रचय और समयविशिष्ट वृत्तियों का समूह ऊर्ध्वप्रचय कहलाता है । वहाँ प्रकाशके ग्रवस्थित अनन्तप्रदेश होनेसे धर्म तथा सबके अवस्थित असंख्य प्रदेश होनेसे जीवके अनवस्थित असंख्य प्रदेश होनेसे श्रोर पुद्गलके द्रव्यतः अनेक प्रदेशिवकी शक्ति से युक्त एकप्रदेश वाला होनेसे तथा पर्यायतः दो अथवा बहुत प्रदेश वोला होनेसे उन सबके तिर्यक्प्रचय है; परन्तु कालके तिर्यक्प्रचय नहीं है, क्योंकि वह शक्ति तथा व्यक्तिको अपेक्षासे एक प्रदेश वाला है। ऊर्ध्वप्रचय तो सर्वद्रव्योंके अनिवार्य हो है, क्योंकि द्रव्यकी वृत्ति भूत, वर्तमान और भविष्य ऐसे तीनों कालोंको स्पर्श करती है, इसलिये अंशोंसे युक्त है । परन्तु इतना अन्तर है कि समयविशिष्ट वृत्तियोंका प्रचय कालको छोड़कर शेष द्रव्योंका ऊर्ध्वप्रचय है, और समयका प्रचय कालद्रव्यका ऊर्ध्वप्रचय है क्योंकि शेष द्रव्योंकी वृत्ति समयसे अन्य है, इस कारण शेष द्रव्योंकी वृत्ति समयविशिष्ट है, परन्तु कालद्रव्यकी वृत्ति तो स्वतः समयभूत होनेसे समय विशिष्ट नहीं है ।
1
प्रसंगविवरण --- प्रनन्तरपूर्व गाथामें कालद्रव्य के बाह्य आधारभूत प्राकाशप्रदेशका लक्षण कहा गया था। अब इस गाथा में तिर्यक्प्रचय व ऊर्ध्वप्रचयका दिग्दर्शन कराते हुए बताया गया है कि कालद्रव्य के तिर्यक्प्रचय नहीं होता, क्योंकि कालद्रव्य एकप्रदेशी ही है । तथ्यप्रकाश - ( १ ) प्रदेशोंका समूह तिर्यक्प्रचय कहलाता है । ( २ ) समय समय में
होने वाली पर्यायोंका समूह ऊर्ध्वप्रलय कहलाता है । ( ३ ) आकाशद्रव्य के अवस्थित अन्त प्रदेश होनेसे तिर्यक्प्रचय है । ( ४ ) धर्मद्रव्य व द्रव्य श्रसंख्यातप्रदेश होनेसे तिर्यक्प्रचय
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
movesmar
२७३
S
HERE
M
कार
AUR
प्रवचनसार--सप्तदशांगी टीका अप कालपदार्थोर्ध्वप्रञ्चयनिरन्वयत्वमुपहन्ति-- .
उत्पादो पद्धसो विजदि जदि जस्स एकसमयम्हि । समयस्स सो वि समयो सभावसमवहिदो हवदि ॥१४२॥
संभव विनाश होता, यदि कालका एक समय में तो वह।।
द्रव्य समयवृत्तिग ध्रुव, स्वभावसमवस्थ है शाश्वत ॥१४२॥ उत्पाद प्रध्वसो विद्यते यदि यस्यवसमये । समयस्य सोजपि समयः स्वभावसमवस्थितो भवति । १४२ ।।
न समयो हि समयपदार्थस्य वृत्त्यंशः तस्मिन् कस्याप्यवश्य मुत्पादप्रध्वंसी संभवतः, परमाणाव्यतिपातोत्पद्यमानत्वेन कारणापूर्वत्वात् । ती यदि वृत्त्यंशस्यैव कि योगपद्येन कि क्रमेण, बोगपद्येन चेत् नास्ति योगपर्व समभेकस्य विरुद्धधर्मयोरनवतारात् । क्रमेण चेत् नास्ति क्रमः, वस्यंगस्य सूक्ष्मत्वेन विभागाभावात् । ततो वृत्तिमान कोऽप्यवश्यमनुसतव्यः, स च समयपदार्थ
मामसंज-उप्पाद पद्धस दि ज एक समय समय त वि समअ सभावसमवद्विद । धातुसंज्ञ-विज्ज सताया हन सत्तायां । प्रातिपदिक उत्पाद प्रवरा यदि मत् एकसमय समय तत् अपि समय स्वभावसमरस्थित । मूलधातु - विद सत्तायां, भू सत्तायो । उभयपदविवरण-- उप्पादो उत्पादः पद्धसो प्रध्वंसः--प्रथमा है। (५) जीव चाहे अनस्थित हैं, परंतु असंख्यातप्रदेश होनेसे जीवके भी तिर्यकरचय है। का पदालके द्रव्यसे प्रनेकप्रदेश शक्ति शक्तियुक्त एक प्रदेशपना होनेसे, किन्तु पर्यायसे बहुप्रदेशी होने से तिर्यक प्रचय है । (७) कालद्रव्य के शक्तिरूपसे भी एकप्रदेशपना होनेसे व व्यक्तरूपसे भी एकप्रदेशपता होनेसे तिर्यप्रचय नहीं है। (८) ऊर्ध्वप्रचय समस्त द्रव्यों में होता ही है, क्योंकि समय समयमें पर्यायोंका होना निरन्तर न रहे तो द्रव्य की सत्ता ही नहीं। (६) जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाशद्रव्यके समय-समयपर होने वाले परिणमनोंके समूहरूप अर्ध्वप्रचय है । १०) कालद्रव्यके समय नामक परिणमनोंके समूहरूप ऊर्वप्रचय है ।
सिद्धान्त--(१) अनेकप्रदेशी द्रव्यके तिर्यक्प्रचय होता है।
दृधि---१- प्रदेशविस्तारदृष्टि (२१७)। 26 प्रयोग-तिर्यक्प्रचय व कर्वप्रचयसे अपने प्रात्मद्रव्यको पहिचानकर प्रचयके विकल्पों को छोड़कर प्रखण्ड शुद्ध चिन्मात्र अन्तस्तत्त्वको अनुभवना ।।१४१।।
अव कालपदार्थका ऊर्ध्वप्रचय निरन्वय है, इस शंकाको दूर करते हैं----[यस्य समयस्या जिस कालका [एक समये] एक समयमें [उत्पादः प्रध्वंशः] उत्पाद और विनाश [यदि] ददि [विद्यते] पाया जाता है, सिः अपि समयः] तो वह भी कालाणु [स्वभावसमवस्थितः] स्वभावमें अवस्थित अर्थात् ध्र व [भवति] होता है।
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
द
२७४
सहजानन्दशास्त्रमालायां एन । तस्य खल्वेकस्मिन्नपि वृत्त्येशे समुत्पादप्रध्वं सौ संभवत: । यो हि यम्य वृत्तिमतो यस्मिन् । वृत्यंशे तद्वृत्त्यंश विशिष्टत्वेनोत्पादः । स एव तस्यैव वृत्तिमतस्तस्मिन्नेव वृत्त्यंशे पूर्ववृत्त्यशविशिः। ष्टत्वेन प्रध्वंसः । यद्येवमुत्पादव्ययावेकस्मिन्नपि वृत्त्यंशे संभवतः समयपदार्थस्य कथं नाम नि। एक० । जदि यदि वि अपि-अव्यय । जरस यस्य-पष्ठी एक । एकसमयम्हि एकसमये-सप्तमी एक समयस्स समयस्य-पष्ठी एक० । सो सः समओ समय: सहावसमवदिदो स्वभावसमस्थित:--प्रथमा एक
GिA
तात्पर्य-काल द्रव्य भी उत्पादव्ययधोव्यात्मक है।
टीकार्थ-समय कालपदार्थका वृत्यंश है; उस वृत्यंगामें किसीके भी अवश्य उत्पादः। तथा विनाश संभवित हैं; क्योंकि परमाणुके अतिक्रमणके द्वारा उत्पन्न होनेसे वह समयरूपो । वृत्यंश कारणपूर्वक है। यदि उत्पाद और विनाश वृत्त्यशके ही माने जायें तो, वे युगपद है या क्रमश: ? यदि 'युगपत्' कहा जाय तो युगपतपना घटित नहीं होता, क्योंकि एक ही समय एकके दो विरोधी धर्म नहीं होते । यदि 'क्रमशः' कहा जाय तो क्रम नहीं बनता, क्योंकि वृत्त्यंशके सूक्ष्म होनेसे उसमें विभागका अभाव है । इस कारण कोई वृत्तिमान अवश्य ढूंढना चाहिये । और वह वृत्तिमान काल पदार्थ ही है। उसके वास्तव में एक वृत्त्यंशमें भी उत्पादक और विनाश संभव है; क्योंकि जिस वृत्तिमानके जिस वृत्त्यं शमें उस वृत्त्यंशकी अपेक्षासे जो उत्पाद है, वही, उसी वृत्तिमानके उसी वृत्त्य॑शमें पूर्व वृत्त्यंशको अपेक्षासे विनाश है। यदि इस प्रकार उत्पाद और विनाश एक वृत्त्यंशमें भी संभवते हैं तो काल पदार्थ निरन्वय कसे हो सकता है जिससे कि पूर्व और पश्चात् वृत्यंशकी अपेक्षासे युगपत् विनाश और उत्पादको प्राप्त होता हया भी स्वभावसे अविनष्ट और अनुत्पन्न होनेसे वह काल पदार्थ अवस्थित न हो। इस प्रकार एक वृत्त्यं शमें काल पदार्थ के उत्पादव्ययध्रौव्यवानप ना सिद्ध हुमा ।
प्रसङ्गविबरण-अनन्तरपूर्व गाथामें तिर्यक्प्रचय व ऊर्ध्वप्रचयका दिग्दर्शन कराते हुए कालद्रव्यके ऊध्वंप्रचयका विधान व तिर्यकप्रचयका निषेध किया गया था। अब इस माथा में यह बताया गया है कि कालद्रव्यका ऊर्ध्वप्रचय निरन्वय नहीं है।
तथ्यप्रकाश-(१) कालद्रव्यका अविभागी परिणमन समय है। (२) प्रत्येक समय परिणमन एक एक समय ही रहता है, अतः समय परिणमन तो उत्पन्न और नष्ट होता रहता । है, किंतु समय पर्यायका अपादानभूत कालद्रव्य ध्र ब ही रहता । (३) समय परिणमन तो वृत्त्यंश है और कालद्रव्य वृत्तिमान है, तभी एक कालद्रव्यमें समय नामक वृत्त्यंशोका उत्पाद व्यय संभव है । (४) एक ही समय में कालद्रव्यके वर्तमान समय परिणामनकी अपेक्षा उत्पाद । है व पूर्वसमयपरिणमनकी अपेक्षा विनाश है । (५) यदि कालद्रव्य न माना जाय, मात्र समय
RA
SE
S
area sinationshianmiame
wayamantriesses
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका
स्वयत्वं यतः पूर्वोत्तरवृत्त्यंशविशिष्टत्वाभ्यां युगपदुपासप्रध्वंसोत्पादस्यापि स्वभावेनाप्रध्वस्तामुन्नत्वादवस्थितत्वमेव न भवेत् । एवमेकस्मिन् वृत्त्यंशे समयपदार्थस्योत्पादव्ययव्यवस्वं सिक्ष्म ॥ १४२ ॥
२७५
| विज्जद विद्यते हवद भवति-वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । निरुक्ति-उत् पादनं उत्पादः, प्रश्वमनं प्रध्वंसः । समास-स्वस्य भावः स्वभावः स्वभावे समवस्थितः इति स्वभावसमवस्थितः || १४२ म
परिणमत माना जाय तो किसी भी एक समयका उत्पाद व्यय एक समय में संभव नहीं, क्योकि उत्पाद व व्यय परस्पर विरुद्ध धर्म हैं, किसी भी एक समयका उत्पाद व्यय कमसे भी भव नहीं, क्योंकि विभागी एक वृत्त्यंश क्रम नहीं बन सकता । ( ६ ) जब कालद्रव्य के वर्तमान समयपरिगमनका उत्पाद है पूर्व समयपरिणमनका व्यय है तब दोनोंका आधारभूत काव्य निरन्वय कैसे कहा जा सकता, कालद्रव्य ध्रुव है और उसके समय नामक परिण तो संतति चलती रहती है । (७) कालद्रव्य वृत्तिमान है और समय नामक परिणमन वृत्य है, तथा वृत्त्यंश वृत्तिमान से भिन्नप्रदेशो नहीं हैं, यतः कालद्रव्य भी सर्व द्रव्योंकी भाँति constances है ।
सिद्धान्त - ( १ ) कालद्रव्य उत्पादव्ययीव्यात्मक सत् है ।
दृष्टि - १ - सत्तासापेक्ष नित्यशुद्धपर्यायार्थिकनय ( ६० ) ।
प्रयोग - समय नामक परिणमनोंके उपादानभूत कालद्रव्यके परिचयको तरह अपने यो अपादानभूत स्वात्मद्रव्यका परिचय करके पर्यायोंका विकल्प छोड़कर उनके पादानभूत कारणसमयसारस्वरूप निज परमात्मद्रव्यकी प्राराधना करना ॥ १४२ ॥
अब सर्व वृत्यंशों में कालपदार्थका उत्पादव्ययप्रोव्यवानपना सिद्ध करते हैं- [ एकस्मिन् समये] एक एक समय में [ संभवस्थितिनाशसंज्ञिताः श्रर्थाः ] उत्पाद, श्रीव्य और व्यय से संज्ञित धर्म [समयस्य ] कालके [ संति] होते हैं । [ एषः हि ] यही [ सच्य कालं ] सदा [कालास सावः ] कालाणुको सद्भाव है; अर्थात् यही काला के अस्तित्वकी सिद्धि है । तात्पर्य -- कालद्रव्य प्रतिसमय उत्पादव्ययश्रीध्यात्मक है, यों इसका सदा अस्तित्व
टीकार्य — काल पदार्थ के सभी नृत्यंशों में उत्पाद, व्यय, श्रीव्य होते हैं, क्योंकि एक tara earnestव्य देखे जाते हैं । और यह युक्त ही है, क्योंकि विशेष प्रस्तित्व सामान्य प्रस्तित्व के बिना नहीं हो सकता । यही कालपदार्थके सद्भावको सिद्धि है । (क्योंकि) यदि विशेष और सामान्य अस्तित्व सिद्ध होते हैं तो वे अस्तित्वके बिना किसी भी प्रकार से
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
R
A
N AFRAMM
२७६
सहजानन्दशास्त्रमालायां पथ सर्ववृत्त्यशेषु समयपदार्थस्योत्पादच्ययध्रौव्यवत्वं साधयति-..
एगम्हि संति समये संभवठिदिणासमण्णिदा अट्टा। समयस्स सव्वकालं एस हि कालाणुसब्भावो ॥१४३॥
एक समयमें होते, संभव व्यय ध्रौव्य सर्वद्रव्योंके ।
कालाणुमें भी ऐसा. स्वभाव है सर्वदा निश्चित ।।१४३॥ एकस्मिन् सन्ति समये संभवस्थितिनाशसंहिता अर्थाः । समयस्य सर्वकालं एप हि कालाणुसद्भावः ॥१४॥
अस्ति हि समस्तेष्वपि वृत्त्यंशेषु समयपदार्थस्योत्पादत्र्ययध्रीव्यत्वमेकस्मिन वृत्त्यशे तस्य दर्शनात्, उपपत्तिमच्चैतत् विशेषास्तित्वस्य सामान्यास्तित्व मन्तरेणानुपपत्तेः । अयमेव र समय यपदार्थस्य सिद्धयति सद्भावः । यदि विशेष सामान्यास्तित्वे सिद्धयतस्तदा त अस्तित्वमन्तरेगा। न सिद्धयतः क िवदपि ॥ १४३ ।।
नामसंज्ञ---एग समय संभवठिदिणाससणिद अष्टु समय सख्यकाल एत हि कालाणुसब्भाव । धात संज्ञ - अस सत्तायां । प्रातिपदिक-एक समय संभवस्थितिनाशसंज्ञित अर्थ समय सर्वकाल एतक कि कालाशुसद्भाव । मूलधातु-अस् भुवि । उभयपदविवरण--एगम्हि एकस्मिन् समये-सप्तमी एका संभवठिदिणाससणिदा संभवस्थितिनारासज्ञिता; अट्ठा अर्थाः-प्रथमा बहु० । समयस्स समय स्य-पानी एक० । सव्वकाल-अव्यय विशेषण, एस एष; कालागुसब्भावो कालाणुसद्धाव:-प्रथमा एकवचन । निक क्ति-सं भवन संभवः, स्थानं स्थितिः, नशनं नाशः । समास-संभवश्च स्थितिश्च नाशश्च संभवस्थिति नाशा: तैः संज्ञिता: इति सं० ।। १४३ ।। सिद्ध नहीं होते।
प्रसंगविवरण-अनंतरपूर्व गाथामें कालद्रव्यके ऊर्धप्रचयकी निरन्वयताका निराकरण किया था । अब इस गाथामें कालपदार्थका उत्पादव्ययध्रोव्यपना सिद्ध किया गया है ।
तथ्यप्रकाश--(१) समयनामक परिणमन विशेष अस्तित्व है । (२) विशेष अस्तिल सामान्य अस्तित्वके बिना नहीं होता। (३) समय नामक परिणमनविशेषका अपादानभूत सामान्य कालद्रव्य है । (४) कालद्रव्य समस्त समयोंमें उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त है।
सिद्धान्त-(१) समयपरिणमन विनश्वर है । (२) समस्त वृत्त्यशोंमें कालवा । उत्पादव्ययध्रौव्यपना है।
दृष्टि-१- सत्तागोणोत्पादव्ययग्राहक नित्य प्रशुद्ध पर्यायाथिकानय (३७) । - सत्तासापेक्ष नित्य अशुद्ध पर्यायाधिकनय (३८) ।
प्रयोग---समय नामक परिणमनविशेषसे अविनाभावो कालद्रव्यका परिचय पानेको । भांति भावरूप परिणमन विशेषसे अविनाभावी निज प्रात्मद्रव्यका परिचय पाकर परिणमनः
vidminimilitarinkinitionindiainik
anim
-
-
-
-
-
-
-
FASARAMAILS
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका
२४७
S
...............
..
MERESTHETAH
अयं कालपवार्थस्यास्तित्वान्यथानुपपत्त्या प्रदेशमात्रत्वं साधयति----
जस्म गण संति पदेसा पदेसमेतं व तचदो णादु। सुण्णं जाण तमत्थं अत्यंतरभूदमत्थीदोः ॥१४४॥ जिसका प्रदेश नहिं हो, वह शून्य हुअा पदार्थ कैसे हो ।
क्योंकि प्रदेशरहित तो, सत्तासे भिन्न कुछ न रहा ।। १४४ ॥ यस्य । सन्ति प्रदेशाः प्रदेशमात्र या तत्त्वतो ज्ञातुम् । शून्यं जानीहि तमर्थमर्थान्तरभूतमस्तित्वात् ।।१४४।। PC अस्तित्वं हि तावदुत्सादव्ययध्रौव्यै क्यात्मिका वृत्तिः । न खलु सा प्रदेशमन्तरेया सुम्यमाशा कालस्य संभवति, यतः प्रदेशाभावे वृत्तिमदभावः । स तु शून्य एव, अस्तित्वसंज्ञाया
नामसजजण पदेस पदे समेत व तच्चदो सुण्ण त अत्थ अत्यंतरभूद अस्थि । धातुसंज्ञ-अस सत्तायां, वाण अवबोधने । प्रातिपदिक-यत् न प्रदेश प्रदेशमात्र वा तत्त्वत: शून्य तत् अर्थ अर्थान्तरभूत अस्तित्व । मलयाल - अस् भुवि, ज्ञा अवबोधने । उभयपदविवरण-जस्स यस्थ-पष्ठी एक० । नव वा-अव्यय । पदसरा प्रदेशाः-प्रथमा बहु० । पद शमत्तं प्रदेशमात्र-प्रा एक । तच्चदो तत्वत:--अध्यय पंचम्यर्थे । विशेषोका विकल्प छोड़कर निज परमात्मद्रव्यमें उपयोगको लगान। व रमाना ॥१४३।।
अब कालपदार्थके अस्तित्वको अन्यथा अनुपपत्तिके द्वारा कालपदार्थका प्रदेशमात्रत्व "सिट करते हैं-[यस्थ] जिस पदार्थ के [प्रदेशाः] प्रदेश [प्रदेशमात्रं वा] अथवा एकप्रदेश
ओ तस्वतः] परमार्थतः [ज्ञातुम् न संति जाननेके लिये नहीं हैं, [तं अर्थ] उस पदार्थको शिन्य जानीहि शन्य जानो [अस्तित्वात् अर्थान्तरभूतम्] क्योंकि वह अस्तित्वसे अर्थान्तरभूत मति प्रन्य है।
तात्पर्य--जिसके प्रदेश नहीं वह पदार्थ ही नहीं है । ME टोकार्थ-अस्तित्व तो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यको ऐक्यरूपवत्ति है । वह प्रदेशके बिना हो कालके होती है यह कथन संभवता नहीं है, क्योंकि प्रदेशके अभाव में वृत्तिमानका प्रभाव होता है । सो अस्तित्व नामक वृत्तिसे अर्थान्तरभूत होनेसे बह तो शून्य हो है और मान वृत्ति ही काल हो नहीं सकती, क्योंकि वृत्तिमानके बिना वृत्ति नहीं हो सकती । यदि "यह कहा जाय कि वृत्तिमानके बिना भो वृत्ति हो सकती है तो, अकेली वृत्ति उत्पाद व्यय मोध्यको एकतारूप कैसे हो सकती है ? यदि यह कहा जाय कि ---'अनादि अनन्त निरन्तर पनेरू प्रशोंके कारण एकात्मकता होती है इसलिये, पूर्ण पूर्व प्रेशका नाश होता है, और उत्तर उत्तरके अंशोंका उत्पाद होता है तथा एकात्मकतारूप ध्रौव्य रहता है, इस प्रकार मात्र अकेली वत्ति भी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यकी एकतास्वरूप हो सकती है। तो ऐसा नहीं है । क्योंकि
E
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७८
Peakerso
n
alisa
सहजानन्दशास्त्रमालायां वृत्तेरन्तरभूतत्वात् । न च वृत्तिरेव केवला कालो भवितुमर्हति, वृत्तेहि वृत्तिमन्तमन्तरेणानुपपत्तेः । उपपत्तो वा कथमुत्पादव्य यध्रौव्यक्यात्मकत्वम् । अनाद्यन्तनिरन्तरानेकांशवशीकृतका. त्मकत्वेन पूर्वपूर्वाशप्रध्वंसादुत्तरोत्तरांशोत्पादादेकात्मध्रौव्यादिति चेत् । नैवम् । यस्मिन्नशे प्रध्वंसो यस्मिश्चोत्पादस्तयो. सहप्रवृत्त्यभावोत् कुतस्त्यमैक्यम् । तथा प्रध्वस्तांशस्य सर्वथास्तमितत्वादुत्पद्यमानांशस्य वासंभवितात्मलाभत्वात्प्रध्वंसोत्पादैक्यवतिध्रौव्यमेव कुतस्त्यम् । एवं सति नश्यति बेलक्षण्यं, उल्लसति क्षणभङ्गः, प्रस्तमुपैति नित्यं द्रव्यं, उदीयन्ते क्षणक्षयिणो भावा: । ततस्तत्त्वविप्लवभयात्कश्चिदवश्यमाश्रयभूतो वृत्तेर्वृत्तिमाननुसर्तव्यः । स तु प्रदेश णादुज्ञातुं-अव्यय हेत्वर्थे कृदन्त । सुण्णं शून्य-द्वितीया एक० । जाण जानीहि-आज्ञार्थे मध्यम पुरुष एकवचन क्रिया । संति-वर्तमान अन्य पुरुष बहु० क्रिया । तं अत्थं अर्थम्-द्वितीया एक० । अत्यंतरभूद जिस अंशमें नाश है और जिस अंशमें उत्पाद है वे दो अंश एक साथ प्रवृत्त नहीं होते, इसलिये उत्पाद और व्ययका ऐक्य कहाँसे हो सकता है ? तथा नष्ट अंशके सर्वथा अस्त होनेसे
और उत्पन्न होने वाला अंश अपने स्वरूपको प्राप्त न होनेसे नाश और उत्पादकी एकतामें प्रवर्तमान ध्रौव्य कहाँसे हो सकता है ? ऐसा होनेपर त्रिलक्षणता अर्थात् उत्पादव्ययध्रौव्यता नष्ट हो जाती है, क्षणभंग उल्लसित हो उठता है, नित्य द्रव्य अस्त हो जाता है, और क्षणविध्वंसी भाव उत्पन्न होते हैं । इस कारण तत्त्वविप्लवके भयसे अवश्य ही वृत्तिका प्रश्रियभूत कोई वृत्तिमान स्वीकार करना योग्य है । वह तो प्रदेश ही है अर्थात् वह वृत्तिमान सप्रदेश ही होता है, क्योंकि अप्रदेशके अन्वय तथा व्यतिरेकका अनुविधायित्व प्रसिद्ध है । प्रश्न-जब कि इस प्रकार काल सप्रदेश है तो उसके एकद्रव्य के कारणभूत लोकाकाश तुल्य असंख्यप्रदेश क्यों न । मानने चाहिये ? उत्तर-पर्यायसमयकी असिद्धि होनेसे कालद्रव्यके असंख्य प्रदेश मानना योग्य नहीं है । परमाणुके द्वारा प्रदेशमात्र द्रव्य समयका उल्लंघन करनेपर पर्यायसमय प्रसिद्ध होता है । यदि द्रव्यसमय लोकाकाशतुल्य असंख्यप्रदेशी हो तो पर्यायसमयको सिद्धि कहाँसे होगी ? प्रश्न- लोकाकाश जितने असंख्य प्रदेश वाला एकद्रव्य होनेपर भी परमाणके द्वारा उसका एकप्रदेश उलंधित होनेपर पर्यायसमयकी सिद्धि हो जायगी ? उत्तर-ऐसा नहीं है । एकप्रदेश की वृत्तिको सम्पूर्ण द्रव्यकी वृत्ति मानने में विरोध होनेसे । सम्पूर्ण काल पदार्थका जो सूक्ष्म वृत्यंश है वह समय है, परन्तु उसके एकदेशका वृत्यंश समय नहीं । दूसरी बात यह है कि तिर्यक्प्रचयको ऊर्ध्वप्रचयत्वका प्रसंग पाता है । स्पष्टीकरण-पहिले कालद्रव्य एकप्रदेशसे वर्ते, फिर दूसरे प्रदेशसे वर्ते और फिर अन्यप्रदेशसे वर्ते ऐसा प्रसंग पानेसे तिर्यक्प्रचय ऊर्ध्वप्रचय बनकर द्रव्यको प्रदेशमात्र स्थापित करता है । अर्थात् तिर्यप्रचयका ही ऊर्ध्वप्रचय बन बैठने
AN
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
રષ્ઠ स्वादेशस्यान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वासिद्धेः । एवं सप्रदेशत्वे हि कालस्य कुत एकद्रव्यनिबन्धनं लोकाकाशातल्यासंख्येयप्रदेशत्वं नाभ्युपगम्येत । पर्यायसमयाप्रसिद्धः । प्रदेशमात्रं हि द्रव्य समयमक्षिकामतः परमाणोः पर्यायसमयः प्रसिद्धयति । लोकाकाशतुल्यासंख्येयप्रदेशत्वे तु द्रव्यसमयस्य क्लस्त्या तत्सिद्धिः । लोकाकाशतुल्यासंख्येयप्रदेश कद्रव्यत्वेऽपि तस्येक प्रदेशमतिकामतः परमागोस्लसिद्धिरति चेन्नैवं । एकदेशवृत्तेः सर्गवृत्तित्वविरोधात् । सर्वस्यापि हि कालपदार्थस्य यः सहयो वृत्यशः स समयो न तु तदेकदेशस्य । तिर्यप्र चयस्योर्ध्वप्रख्यत्वप्रसंगाच्च । तथाहि--- प्रथममेकेन प्रदेशेन वर्तते ततोऽन्येन ततोऽप्यन्यतरेरणेति तिर्यक्प्रचयोऽप्यूर्वप्रचयीभूय प्रदेशमात्र दव्यमवस्थापयति । ततस्तियंकप्रचयस्योर्ध्वप्रचयत्वमनिच्छता प्रथममेव प्रदेशमात्र कालद्रव्यं व्यवस्थापयितव्यम् ।। १४४ ।। धान्तरभूत-द्वितीया एक० । अत्थीदो अस्तित्वात्-पंचमी एकवचन । निरुक्ति - तत्त्वात् इति तत्त्वतः सहित तमाल ।। १४४ ।।
3BRARER
का प्रसाः प्राता है, इसलिये कालद्रव्य प्रदेशमात्र ही सिद्ध होता है । अतः तिर्यक्प्रचयको ऊर्ध्वअवयव न चाहने वालेको पहिले ही कालद्रव्यको प्रदेशमात्र निश्चय करना चाहिये ।
प्रसंगविवरण---अनन्तरपूर्व गाथामें कालद्रव्यको उत्पादव्ययध्रोव्यात्मकता बताई गई थी। अब इस गाथामें कालद्रव्यका एकप्रदेशित्व सिद्ध किया गया है ।
तथ्यप्रकाश-(१) उत्पादव्ययध्रौव्यको ऐक्यरूप वृत्ति ही अस्तित्व है । (२) यदि कालव्य के प्रदेश न हो तो अस्तित्व ही संभव नहीं। (३) प्रदेशके अभाव में वृत्तिमानका ही अभाव है, फिर वृत्ति तो सम्भव ही नहीं । (४) केवल वर्तनाको ही काल नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वृत्तिमानके बिना वृत्ति हो ही नहीं सकती। (५) केवल एक एक समय परिणामतको ही काल पदार्थ नहीं माना जा सकता, क्योंकि एक एक समय परिण मन में उत्पाद व्यय प्रौव्यको एकता नहीं है । (६) किसी प्रकारका परिणमन हो उसका अपादान ब आधार ध्र व द्रव्य ही होता । (७) समय भी विनश्वर एक परिणमन है उसका अपादान व प्राधार कोई द्रव्य है उसका नाम यहां रखा गया है कालद्रव्य । (5) किसी भी परिणमनका प्राधार प्रदेशवान ही होता है सो कालद्रव्य भी प्रदेशवान है। (6) कालद्रव्य प्रदेशवान तो है, किन्त वह एक प्रदेश वाला ही है । (१०) कालको अनेकप्रदेशी कल्लित करनेपर उससे समय परिणमन निष्पन्न नहीं हो सकता । (११) एकप्रदेशमात्र कालद्रव्यको उल्लंघ कर निकटके द्वितीय कालद्रव्यपर पहुंचे हुए परमाणु से समय पर्यायको प्रसिद्धि होती है । (१२) समग्र
MOS
या
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालाय
अर्थवं ज्ञेयतत्त्वमुक्त्वा ज्ञानज्ञेयविभागेनात्मानं निश्चिन्वन्नात्मनोऽत्यन्तविभक्तत्वाय यवहारजीवत्व हेतुमालोचयति -
सपदेसेहिं समग्गो लोगो अहिं गिट्टिदो मित्रो । जो तं जागदि जीवो पादुकाभिसंबद्धो ॥१४५॥ प्रदेश प्रर्थोंसे, समग्र यह लोक नित्य निति है ।
२५०
उसका ज्ञाता जीव हि वह जगमें प्रारणसंयोगी ।। १४५ ॥
प्रदेश: समग्र ग्लोकोऽर्थे निष्ठितो नित्यः । यस्तं जानाति जीवः प्राणचतुष्काभिसंबद्धः ॥ १४५ ॥ एवमाकाशपदार्थादाकालपदार्थाच्त्र समस्तैरेव संभावितप्रदेशसद्भावैः पदार्थः समग्र एव यः समाप्ति नीतो लोकस्तं खलु तदन्तः पातित्वेऽप्यचिन्त्यस्वपरपरिच्छेदशक्तिसंपदा जीव एव जानीते नश्वितरः । एवं शेषद्रव्याणि ज्ञेयमेव, जीवद्रव्यं तु ज्ञेयं ज्ञानं चेति ज्ञानज्ञेयविभागः । अथास्य जीवस्य सहजविजृम्भितानन्तज्ञानशक्तिहेतुके त्रिसमयावस्थायित्वलक्षणे वस्तुस्वरूप भूत
नामसंज्ञ-सपदेस समग्ग लोग अट्ठ णिट्टिद णिच्च ज त जीव पाणचटुक्का हिसंबद्ध | धातुसंज्ञजाण अवबोधने, अण प्राणने । प्रातिपदिक-सप्रदेश समग्र लोक अर्थ निष्ठित नित्य यत् तत् जीव प्राणकालद्रव्यका एक परिणमन समय है, कालद्रव्यका एकदेश में परिणमन समय नहीं है, अतः काल एकप्रदेशी है । (१३) कालद्रव्य में तिर्यक्प्रचय नहीं होता, क्योंकि कालद्रव्य बहुप्रदेशी नहीं । (१४) यदि कोई कालद्रव्यको लोकाकाश बराबर प्रसंख्यातप्रदेशी माने तो वहीं कालrous एक प्रदेश से दूसरे प्रदेशपर दूसरेसे तीसरेपर यों परमाणुकी गति से समय संतति मानी जायगी सो यह तिर्यक्प्रचय भी ऊर्ध्वप्रचय बन गया तिर्यक्प्रचय न रहा । ( १५ ) जहाँ तिर्यक्प्रचय नहीं वहाँ बहुत प्रदेश नहीं होते, सो कालद्रव्य एकप्रदेशी ही है । सिद्धान्त - ( १ ) उत्पादव्ययत्रीव्यात्मक होनेसे कालद्रव्य सत् है । परिणमन होता रहनेसे कालद्रव्य एकप्रदेशी हैं ।
( २ ) समयमात्र
दृष्टि - १ - उत्पादव्ययसापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय (५४) । २ - उपादानदृष्टि (४६) । प्रयोग... समयपरिणमनसे उसके आधारका परिचय पाने की तरह अपने आत्मपरिण मनसे उसके श्राधारका याने निजपरमात्मद्रव्यका परिचय पाकर सर्व विकल्पोंको छोड़कर चैतन्यस्वरूप निज परमात्मपदार्थ में ही मग्न होनेका पौरुष होने देना ॥ १४४॥
श्रम इस प्रकार ज्ञेयतत्वको कहकर, ज्ञान और ज्ञेयके विभाग द्वारा आत्माको निश्चित करते हुये, प्रात्मा की प्रत्यन्त विभक्तता करनेके लिये व्यहारजीवत्वके हेतुका विचार करते हैं - [ सप्रदेश: श्रर्थे:] सप्रदेश पदार्थोंक द्वारा [निष्ठितः] भरा हुआ [ समग्रः लोकः ] सम्पूर्ण
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
तथा सर्वदानपायिनि निश्चयजीवत्वे सत्यपि संसारावस्यायामनादिप्रवाहप्रवृत्तपुद्गल संश्लेषदूषितात्मतया प्राणचतुष्काभिसंबद्धत्वं व्यवहारजीयत्वहेतु विभक्तव्योऽस्ति ॥ १४५ ।।
तुकाभिसंबद्ध | मूलधातु-ज्ञा अवबोधने, अन प्राणने । उभयपदविवरण- सपदेहि प्रदेोः अहि अर्थ- तृतीया बहुवचन । समग्गो समग्रः लोगो लोकः णिच्चो नित्यः जो यः जीयो जीवः पाणचक्काभि
प्राणचतुष्काभिसंबद्ध: - प्रथमा एकवचन । तं द्वितीया एक० । जाणदि जानाति वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन किया। rिट्टिदो निष्टितः प्रथमा एक० कृदन्त क्रिया । निरुक्ति--समं सकलं यथा स्यात्तथा गृह्यते इति समग्र, नियमेन भवः नित्यः प्राणिति जीवति अनेन इति प्राणं समास -- प्रदेशेन सहिताः सप्रयातः प्राणानां चतुष्कं प्राणचतुष्कं तेन अभिसंबद्धः प्रा
||२४५॥३
२८१
लोक [निव्यः ] नित्य है, [तं] उसे [यः जानाति ] जो जानता है [ जीव: ] वह जीव है, [प्राणचतुष्काभिसंबद्धः ] जो कि संसार दशामें चार प्राणोंसे संयुक्त है ।
तात्पर्य - जो जाने यह जीव हैं और संसारी जीव इन्द्रिय, बल, आयु, श्वासोच्छ्वास इन चार प्राणोंसे संयुक्त है ।
टीकार्थ - इस प्रकार प्रदेशका सद्भाव है जिनके ऐसे प्राकाशपदार्थसे लेकर काल पदार्थ तक के सभी पदार्थोंसे संपूर्णतको प्राप्त जो समस्त लोक है उसको वास्तव में, उसमें अन्तर्भूत होनेपर भी, स्वपरको जाननेकी अचिन्त्य शक्तिरूप सम्पत्तिके द्वारा जीव हो जाता है, दूसरा कोई नहीं । इस प्रकार शेष द्रव्य ज्ञेय ही हैं, परन्तु जीवद्रव्य ज्ञेय तथा ज्ञान है; इस प्रकार ज्ञान और ज्ञेयका विभाग है । अब इस जीवके सहजरूपसे ( स्वभावसे (ही) प्रमंद अनन्तज्ञानशक्ति हेतु है जिसका और तीनों कालमें अवस्थायित्व लक्षण है जिसका ऐसा, वस्तुका स्वरूपभूत होनेसे सर्वदा श्रविनाशी निश्चयजीवत्व होनेपर भी, संसारावस्था में पत्तादिप्रवाहरूपसे प्रवर्तमान पुद्गलसंश्लेषके द्वारा स्वयं दूषित होनेसे उसके चार प्राणोंसे संयुक्ता व्यवहारजीवत्वका हेतु है, और विभक्त करने योग्य है ।
प्रसंगविवरण - श्रनन्तरपूर्व गाया में कालद्रव्यविषयक वर्गान कर चुक्नेपर शेयतत्त्व का वर्णन समाप्त कर दिया गया । अब ज्ञानज्ञेयविभाग द्वारा अपने विविक्त सहज स्वरूपका • निश्चय करनेके लिये व्यवहार जीवत्वके कारणका इस गाथामें विचार किया गया है।
तथ्य प्रकाश----- -- ( १ ) समग्र द्रव्यों में केवल जीव ही जाननहार पदार्थ है, क्योंकि जीवमें स्वपरका परिच्छेदन ( विभाग जानन) को शक्ति है । ( २ ) जीवद्रव्य ज्ञान है व ज्ञेय भी (३) पुद्गल, धर्म, प्रधर्म, श्राकाश व काल ये ५ प्रकारके द्रव्य ज्ञेय ही हैं । (४) जीव स्वरूपतः अनन्तज्ञानशक्तिका हेतुभूत सहजज्ञानस्वभावमय है । (५) जीव में संसारावस्था में मनादिप्रवाहसे चले आये पुद्गलोंसे संश्लिष्ट होनेसे चार प्राणोंसे संयुक्त है । (६) यही प्राण
"
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८२
सहजानन्दशास्त्रमालाया
S
e arliestatuswwwdnnarxxcww
प्रथ के प्रारणा । इत्यावेदपति--
इंदियपाणो य तथा बलपाणो तह य ग्राउपाणो य । प्राणप्पाणष्पाणो जीवाणं होति पागा ते ॥ १४६ ॥ इन्द्रिय बल आयु तथा, श्वासोच्छवास युत प्रारण चारों ये ।।
संसारी जीवोंके, होते हैं जीवते जिनसे ॥ १४६ ।। इन्द्रियप्राणश्च तथा बलप्राणस्तथा चायुःप्राणश्च । आनपानप्राणो जीवानां भवन्ति प्राणातौ ।। १४६ ॥
स्पर्शनरसनवारगचक्षुः श्रोत्रपञ्चकमिन्द्रियप्राणाः, कायवालमनस्त्रयं बलप्राणाः, भवधा
नामसंज-इंदिययाण य तधा बलपाण तह य आउपाण य आणप्पाणपण जीव पाण ते। धातु संज्ञ-हो सत्तायां । प्रातिपदिक- इन्द्रियप्राण च तथा बलप्राण तथा च आयुःप्राण च आनपानप्राण जीव प्राण तत् । मूलधातु भू सत्तायां । उभयपदविवरण-इंदिया तो इन्द्रियप्राण: बलपाणो व लप्राणः आउपाणो आयुःप्राण: आणप्पाणापाणो आनपानप्राण:-प्रथमा एकवचन । य च तथा तथा तह तथा--अव्यय । चतुष्काभिसंबद्धता व्यवहारजीवत्वका हेतु है । (७) व्यवहार जीवत्वके हेतुवोंका व व्यवहार. जीवत्वका अभाव होनेसे प्रकट निश्चयजीवत्व हो प्रभुता है ।
सिद्धान्त-(१) कर्मोपाधि विपाकवश जीव सविकार हो रहा है । (२) स्वरूपदृष्टिसे निविकार शुद्ध परिगमन होता है ।
दृष्टि-१- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४)। २- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय, उपाध्यभावापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४ब, २४अ)।
प्रयोग-व्यवहारजोवत्वहेतुवोंसे व व्यवहारजीवत्वसे सदाके लिये विविक्त होनेके लिये. परसंयोग व परभावको न निरखकर केवल सहज परमात्मतत्त्वकी उपासना करना ॥१४५।।
प्रब प्राण कौनसे है, यह बतलाते हैं--- [इन्द्रियप्रारण: च] इन्द्रियप्राण [तथा बल. प्रारणः] तथा बलप्राण, [तथा च प्रायुःप्रारणः] तथा प्रायप्राण [च] और [आनपानप्राणः] श्वासोच्छ्वास प्राण; [ते] ये [जीवानां ] जीवोंके [प्राणाः] प्राण [भवन्ति] हैं।
तात्पर्य-संसारी जीवोंके इन्द्रियबल प्राय व श्वासोच्छ्वास ये चार प्राण होते हैं।
टोकार्थ----स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु और श्रोत्र-----ये पाँच इन्द्रिय प्राण हैं | काय, वचन, भौर मन-ये तीन बलप्राण हैं । भव धारणका निमित्त पायप्राण है । नीचे और ऊपर जाना जिसका स्वरूप है ऐसी वायु (श्वास) श्वासोच्छ्वास प्रारा है।
प्रसंगविवरण – अनन्तरपूर्व माथामें चार प्रकारोंके प्राणों की अभिसम्बद्धताको व्यवहारजीवत्वका हेतु बताया गया था। अब इस गाथामें उन प्राणोंका निर्देश किया गया है ।
AALMAME
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका
२५३
रगनिमित्तमायाप्राणः । उदञ्चनन्यचनात्मको मरुदानपानप्राणः ।। १४६ ।। जीवाणं जीवानां-षष्ठी बहुवचन । हाति भवन्ति-वर्तमान अन्य पुरुप बहुबचन क्रिया : पाणा प्राणाः तेप्रथमा बहुवचन । निरुक्ति-...इन्द्रस्य लिग इन्द्रिय, बलगं बलं, एति भवं इति अायु:, अणनं आन: । समास-कृष्ट: आन: प्राय: ।।१४६।।
तभ्यप्रकाश-(१) प्राण चार हैं----इन्द्रियप्राण, बलप्राण, प्राय प्राण व श्वासोच्छवास प्राणः । (२) उक्त चार प्रारा संसारो जीवोंके पाये जाते हैं, किन्तु अपर्याप्त अवस्या श्वासोनिवास प्राण बिना ३ प्राण पाये जाते हैं । (३) प्राणों के प्रभेद होनेसे प्रारण १० होते हैं-५ इन्द्रिय प्राण, ३ बलप्रारण, १ अायप्राण, १ श्वासोच्छनास प्राण । (४) इन प्राणों में ५ भावेन्द्रियोंको इन्द्रि यप्राण। कहा गया है । (५) मन, वचन, कायके अवलम्बन से प्रकट हुई जोवभक्तिको बलप्राण कहा गया है । (६) श्रायु कर्म के उदयको प्रायुप्राण कहा गया है । (७) श्वास के प्राने निकलनेको श्वासोच्छ्वास प्राण कहा गया है । (८) उक्त प्राणों में से किसीका वियोग होनेपर इन सभी प्राणोंका वियोग हो जाता है, किन्तु अनन्तर समयमें हो अन्य प्राणोंका
संयोग मिल जाता है । (६) रत्नत्रयके तेजसे इन प्राणोंका वियोग होनेपर फिर ये कभी नहीं - मिलते, एक शुद्ध चैतन्यप्रारणसे ही सदाके लिये अनन्त ज्ञानानन्दमय अवस्था रहती है ।
सिद्धान्त - (१) जीवका व्यवहार प्राणमय होना अशुद्धावस्था है। (२) निरुपाधि शुद्ध चतन्यप्राणविकासरूप होना जीवको शुद्धावस्था है । (३) जीन स्वयं सहज शुद्ध चैतन्य. प्राणमय है।
दृष्टि-- १- अशुद्ध निश्चयनय (४७) । २- शुद्ध निश्चय नय (४६) । ३- अखण्ड परमशुद्धनिश्चयनय (४४) ।
का प्रयोग-व्यवहारप्राणीकी दशाको आकुलता दूर करनेके लिये सहज चैतन्यप्राणमात्र अन्तस्तत्त्वका अनुभव करना ॥१४६।। ।
अब निरुक्ति द्वारा प्रारणोंको जीवत्वका हेतुत्व और उनका पोद्गलिकत्व सूत्रित करते है यः हि] जो चतुभिः प्राणः] चार प्राणोंसे [जीवति | जीता है, [जीविष्यति] जियेगा, [ पूर्व जीवितः ] और पहले जोता था, [ सः जीवः ] वह जीव है । [पुनः] और प्रारणाः] बे प्राण [पुद्गलद्रव्यैः निर्वृताः] पुद्गल द्रव्योंसे रचित हैं।
तात्पर्य-संसारमें जीव पौद्गलिक प्राणोंके सम्बन्धसे उस उस भव में जीता है, किन्तु । यह जीवका स्वभाव नहीं।
टीका-.-.-जो प्रारणसामान्यसे जीता है, जियेगा, और पहले जीता था वह जीव है ।
।
E
.....
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८४
सहजानंदशास्त्रमालायां अथ प्रारणानां निरुक्त्या जीवत्वहेतुत्वं पौद्गलिकत्वं च सूत्रयति----
पागोहिं चदहि जीवदि जीवस्सदि जो हि जीविदो पुवं । सो जीवो पाणा पुण पोग्गलदव्वेहिं शिव्वत्ता ॥१४७॥
जीवित थे जीवेंगे, जीवते हैं जो चार प्रारगोंसे । .
बे जीव किन्तु प्रारण हि, निवृत्त पौद्गलिक द्रव्योंसे ॥१४७॥ प्राणश्चतुभिर्जीवति जीविष्यति यो हि जीवित: पूर्वम् । स जीवः प्राणा: पुन: पुद्गलद्रव्यनिर्वताः ॥१४॥
प्राणसामान्येन जीवति जीविष्यति जीवितवांश्च पूर्वमिति जोवः । एवमनादिसंतान. प्रवर्तमानतया त्रिसमयावस्थत्वात्प्राणसामान्यं जीवस्य जीवत्वहेतुरस्त्येव तथापि तन्न जीवस्य स्वभावत्व मवाप्नोति पुद्गलद्रव्यानिवृत्तत्वात् ॥१४७॥
नामसंज्ञ-पाण चतु ज हि जीविद पुब्ब त जीव पाण पुण पुग्गनदन्व णिवत्त । धातुसंज्ञ---जीव प्राणधारणे । प्रातिपदिक..... प्राण चतुर् यत् हि जीवित पूर्वम् तत् जीव प्राण पुनर् पुद्गलद्रव्य, निर्वत । मुलधातु-जीव प्राणधारणे । उभयपदविवरण-पागेहि प्रायः चहि चभिः पुमालदवेहि पुद्गलद्रव्यःतृतीया बहुवचन । जीबदि जीवति-वर्त० अन्य० एक० किया। जीविस्सदि जीविष्यति-भविष्यत् अन्य एक० क्रिया। जीविदो जीवित:-प्रथमा एक कृदन्त क्रिया । जो यः सो स; जोवो जीव: प्रथमा एक । हि पुच्वं पूर्व पुण पुन:-अव्यय । पाणा प्राणा:--प्रथमा बहु । णिवत्ता नियंत्ता:-प्रथमा बहुवचन । निर क्ति-पूर्वणं पूरयणं वा पूर्वम्, पुरति गलति इति पुद्गलः । समास-पुद्गलाश्च तानि द्रव्याणि चेति पुदगलानि च तानि द्रव्याणि चेति वा पुद्गलद्रव्याणि तः ॥१४॥ इस प्रकार अनादि संतानरूपसे प्रवर्तमान होनेसे संसार दशा त्रिकाल स्थायी होनेसे प्राण सामान्य जीवके जीवत्वका हेतु है ही, तथापि वह जीवका स्वभाव नहीं है, क्योंकि प्राण पू. गलद्रव्यसे रचित हैं।
प्रसंगविवरण-ग्रनन्तरपूर्व गाथामें व्यवहारजीवत्वके हेतुभूत प्राणोंका निर्देश किया गया था। अब इस गाथामें उन प्रारणोंको निरुक्ति करके उन्हें पुद्गलद्रव्योंसे रचा गया बतलाया गया है।
तथ्यप्रकाश----(१) जो प्रारणसे जीता है, जीवेगा व जीवता था वह जीव है । (२) अनादिसंतानसे प्रवर्तमान रूपसे तीन समयोंमें रहनेसे प्रारणसामान्य जीवके जीवत्वका हेतु हैं हो । ( ३ ) यद्यपि प्रारण थे व हैं व होंगे, या प्राण ये व हैं, या प्राण थे, यह सब जीवके जीवत्वका लिङ्ग है तो भी प्राण जीवका स्वभाव नहीं है । (४) चूंकि प्राण पुद्गलद्रव्यसे रचा गया है, अतः प्राण जीवका स्वभाव नहीं है । (५) निश्चयतः जीवका अनादि अनन्त अहेतुक एक चैतन्यस्वरूप ही परमार्थ प्राण है ।
812
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
पय प्राणानां पौद्गलिकत्वं साधयति -.
२६५
जीव पाव बद्धो मोहादिएहिं कम्मे हिं । उवभुज कम्मफलं वज्झदि गोहिं कम्मेहिं ॥ १४८ ॥ प्रानिवद्ध जीव यह, मोहादिक कर्मसे बँधा होकर ।
भोगता कर्मफलको, बँध जाता द्रव्यकमोंसे ॥ १४८ ॥
जीवः प्राणनिबद्धो बढो मोहादिकः कर्मभिः । उपभुजानः कर्मफल बध्यतेऽन्यैः कर्मभिः ॥ १४८ ॥ यतो मोहादिभिः पौद्गलिक कर्मभिद्धत्वाज्जीवः प्राणनिबद्धो भवति । यतश्च प्राणनामसंज्ञ जीव पाणवद्ध बद्ध मोहादि कम्म अवतार कम्मफल अण्ण कम्म । धातुसंज्ञ बंध बघते । प्रातिपदिक-जीव प्राणनिबद्ध वह मोहादिक कर्मन् उपभुंजान कर्मफल अन्य कर्मन् । मूलधातु
सिद्धान्त - 1१) पुद्गलकर्म उपाधिके सान्निध्य में जीव चार प्राणोंसे जीता है । दृष्टि - १ - उपाचिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याधिकनय (५३) ।
प्रयोग- इन्द्रिय, बल, ग्रायु, ग्रानपान प्राणोंको पौद्गलिक जानकर इनसे भिन्न अपने शाश्वत चैतन्यप्राणमय अपनी आराधना करना ।।१४७।।
ve प्राणोंका पौगलिकपना सिद्ध करते हैं -- [ मोहादिकैः कर्मभिः ] मोहनीय श्रादिक mite [ra: ] बँधा हुआ [ जीव: ] जीव [प्राणनिबद्धः ] प्राणोंसे संयुक्त होता हुआ [ कर्मफलं उपभुजानः ] कर्मफलको भोगता हुआ [ श्रन्यः कर्मभिः ] नवीन कर्मोस [ बध्यते ] बँधता है । तात्पर्य -- यह संसारी जीव मोहनीयादि कर्मसे बंधा हुआ प्राणसंयुक्त होकर कर्मफल को भोगता हुआ नवीन कर्मोसे बँधता रहता है।
टोकार्थ - चूंकि मोहादिक पौद्गलिक कर्मोसे बँधा हुम्रा होनेसे जीव प्राणोंसे संयुक्त होता है, और चूंकि प्रारणोंसे संयुक्त होनेके कारण मौद्गलिक कर्मफलको भोगता हुआ फिर भी अन्य पौद्गलिक कर्मोसे बँधता है, इस कारण पौद्गलिक कर्मका कार्यवना होनेसे और पौगलिक कर्मका कारणपना होनेसे प्रारण पौद्गलिक ही निश्चित होते हैं ।
प्रसंगविवरण प्रनन्तरपूर्व गाथामें जीवके जीवत्वव्यवहारका हेतु चार प्रारणोंको बताया गया था । अब इस गाथामें प्राणोंकी पौगलिकता सिद्ध की गई है ।
तथ्यप्रकाश - ( १ ) मोहादिक पौद्गलिक कर्मोसे बद्ध होनेके कारण जीव चार प्राणों से संयुक्त होता है । ( २ ) प्राणसंयुक्त होने से पौद्गलिक कर्मफलोंको भोगता हुमा यह जीव ग्रन्य पौगलिक कर्मोसे बँध जाता है । ( ३ ) इन्द्रिय बल आदि प्राण पौगलिक कर्मके कार्य है व पौगलिक कर्मके कारण हैं, अतः प्राण पौगलिक हैं । (४) मोहादिकर्मबन्धनबद्ध
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८६
सहजानन्दशास्त्रमालायां निबद्धत्वापोद्गलिककर्मफलमुपभुनानः पुनरप्यन्यः पौद्गलिककर्मभिबंध्यते । ततः पोद्गलिक कर्मकार्यत्वात्पौद्गलिककर्मकारणत्वाच्च पौद्गलिका एवं प्रागा निश्चीयन्ते ।।१४८।। बन्ध बन्धने । उभयपद विवरण- जीवो जीवः पाणणिबद्धो प्राणानिवद्धः बद्धी बद्धः-थमा एकवचन ।। मोहादिरहिं माहादिकः कम्मेहि कर्मभिः अपोहि अन्य:-तृतीया बहु० । उवभुज उप जान:--प्रथमा एक कदन्त । कम्मफलं कर्मफलं-द्वितीया एकवचन । बज्मदि बध्यते वर्तमान अन्य पार एकवचन भावकम प्रक्रियायां । निरुक्ति--फलनं फल्यते इति वा फलम् । समास- प्राणः निवद्धः प्राथनिवद्भः, कर्मणः फले इति कर्मफलम् ।। १४८ ॥ ही जीव प्राणसंयुक्त होता है, कर्मबन्धरहित जीव प्राणसंयुक्त नहीं होता। (५) प्राणी चित्स्वभावावलम्बन समुत्पन्न विशुद्ध प्रानन्दको न पाता हुआ कर्मफलको भोगता है ।
सिद्धान्त-..-- (१) प्राण पौद्गलिक हैं । दृष्टि-१- विक्षितकदेश शुद्ध निश्चयनय (४८) ।
प्रयोग--पौद्गलिक प्रारणोंका लगाव न रखकर सहज चित्स्वभावमय प्रात्मसत्त्वहेतु भूत चैतन्यप्राणमय अपनेको अनुभवना ।।१४८।।
अब प्राणोंके पौद्गलिक कर्मका कारणपना प्रगट करते हैं--- [यदि] यदि जीव जीव [मोहद्वेषाभ्यां] मोह और द्वेषसे [जीवयोः] स्व तथा पर जीवोंके [प्रारणाबाधं करोति] प्राणोंका घात करता है [हि] तो अवश्य ही [ज्ञानावरगादिकर्मभिः सः बंधः] ज्ञानावरणा दिक काँसे प्रकृति स्थिति आदि रूप बँध [भवति ] होता है।
तात्पर्य–मोह रागद्वेषवश स्व पर प्रारणोंका घात करने वाला जीव अवश्य ही कमोसे बँधता है।
टोकार्थ----प्राणोंसे तो जीव कर्मफलको भोगता है; उसे भोगता हुआ मोह तथा द्वेष को प्राप्त होता है; और उनसे स्वजीव तथा परजोव के प्राणोंका घात करता है । तर कदाचित् दूसरेके द्रव्य प्राणोंको बाधा पहुंचाकर और कदाचित् बाधा न पहुंचाकर, अपने भावप्राणोंको तो मलिनतासे अवश्य ही बाधा पहुंचाता हुमा जीव ज्ञानावरणादि कर्मोंको बांधता है । इस प्रकार प्राण पौद्गलिक कर्मों के कारणपनेको प्राप्त होते हैं ।
प्रसंगविवरण-----अनन्तरपूर्व गाथामें इन्द्रियादि प्रारणोंकी पौद्गलिकता सिद्ध की गई थी। अब इस गाथामें प्राणोंका पौद्गलिक कर्मकारणपना प्रकट किया गया है ।
तथ्यप्रकाश--(१) जीब प्राणोंके द्वारा कर्मफलोंको भोगता है । (२) कर्मफलोंको भोगता हुअा जीव मोह रागद्वेषको प्राप्त होता है । (३) मोह रागद्वेष से यह प्राणी अपने व परजीवके प्राणोंका घात करता है । (४) कभी दूसरेके प्राणोंको बाधा पहुंचे अथवा न पहुंचे,. अपने प्राणोंका घात करता हुघा यह प्राणी ज्ञानादरणादिक कर्मोंसे बँध जाता है । (५) उक्त
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानाAyaywrsaryan
--11-maujwapsuDD
२८७
geone
प्रवचनसार---सप्तदशाङ्गी टीका प्रथ प्राणानां पौद्गलिककर्मकारणत्वमुन्मीलयति
पाणावाधं जीवो मोहपदेसेहिं कुणदि जीवाणं । जदि सो हदि हि बंधो गाणावरणादिकम्मेहिं ॥१४६॥ मोह राग द्वेषों वश, जीव स्वपरप्रारपघात करता यदि ।
तो ज्ञातावरणादिक, कमोसे बन्ध हो जाता ॥ १४६ ।। आणावा, जीवो मोहप्रद्वेषाभ्यां करोति जीवयोः । यदि स भवति हि अन्धो ज्ञानाबरगादिकर्मभिः ।।१४।।
प्राहि तावज्जीवः वर्मफलमुपभुक्ते, तदुपभुजानो मोहप्रद्वेषावाप्नोति ताभ्यां स्व. जोवपरजीवयोः प्राणाबाधं विदधाति । तदा कदाचित्परस्य द्रव्यप्रारणानाबाध्य कदाचिदनाबाध्य स्वस्य भावप्राणानुपरक्तत्वेन बाधमानो ज्ञानावरणादीनि कर्माणि बध्नाति । एवं प्राणाः पोद्गलिकमकारणतामुपयान्ति ।। १४६ ।।
नामसंज-पाणाबाध जीव मोहपदेस जीव जदि त हि बंध गाणावरणादिकम्म । धातुसंज-कुण करणे, हव सत्तायां । प्रातिपदिक-प्राणायाध जीव मोहद्वेष जीव यदि तत् हि बन्ध ज्ञानावरणादिकर्मन् । मलयात-उकुत्र करणे, भू सत्तायां। उभयपदविवरण-पाणाबाधं प्राणाबाधं-द्वितीया एक० । जीवो मीच सो सः बंधो बन्धः-प्रथमा एक । मोहपदोसेहि-तृतीया बहु० । मोहद्वेषाभ्यां-तृतीया द्विवचन । पुदि करोति हवदि भवति-वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन विया । जीवाणं-षष्ठी बहु० । जीवयो:-षष्ठी द्विवचन । जदि यदि हि-अव्यय । पाणावरणादिकम्मेहि ज्ञानावरणादिकर्मभि:-तृतीया बहुवचन । निरुवित मुद्यते अनेन भावेन इति मोहः । समास-प्राणानां आबाधः प्राणाबाधा तं, मोहश्च प्रद्वेषश्च मोहमला ताभ्यां ।। १४६ ।। प्रकारसे प्राम पौद्गलिक कर्मों के कारणभूत होते हैं।
सिद्धान्त-.१- प्राणपोद्गलिककर्मबन्धके कारणभूत होते हैं । दृष्टि-- १- निमित्तदृष्टि, निमित्त परम्परादृष्टि (५३अ, ५३ब) ।
प्रयोग-प्रात्मरक्षाके लिये सहजात्मस्वरूपके ज्ञानबल द्वारा प्राणप्रेरित भावोंसे अप्र. भावित होते हुए अपनेको शाश्वत सहज चैतन्यप्राणमय अनुभवना ॥१४६।। MAR अब पोद्गलिक प्रारणोंकी परम्पराकी प्रवृत्तिका अन्तरंगहेतु सूचित करते हैं--[कर्ममलीमसः प्रात्मा] कर्मसे मलीन प्रात्मा [पुनः पुनः] तब तक पुनः पुन: [अन्यान् प्राणान] प्रत्य नवीन प्रारणोंको [धारयति] धारण करता है । यावत् जब तक [देहप्रधानेषु विषयेषु] देहप्रधान विषयोंमें [ममत्वं] ममत्वको [न त्यजति] नहीं छोड़ता।
तात्पर्य---- मंसे मलिन जीव विषयों में ममत्व करके अन्य अन्य प्राणोंको धारण करता है अर्थात् जन्म लेता रहता है ।
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां
२६८
अथ पुद्गलप्राणसन्ततिप्रवृत्तिहेतुमन्तरङ्गमासूश्रयति---
यदा कम्ममलिमसो घरेदि पाणे पुणो पुणो ण्यो । गण चयदि जाव ममत्तं देहपधागोसु विसयेसु ॥ १५०॥ कर्म लोभस आत्मा, पुनः पुनः अन्य प्रारण धरता है ।
देह विषय भोगोंमें, जब तक न ममत्व यह तजता ॥ १५० ॥
आत्मा कर्ममलीमसो धारयति प्राणाद पुनः पुनरन्यान् । न त्यजति पावन्ममत्वं देहधानेसु विषयेषु । १५० | येयमात्मनः पीद्गलिकप्राणानां संतानेन प्रवृत्तिः तस्या श्रनादिपोद्गलकर्ममूल, शरीरादिममस्वरूपमुपरक्तत्वमन्तरङ्गो हेतुः ।। १५० ।।
नामसंज्ञ--अत्त कम्ममलीमस पाण पुणो अष्ण ण जाव ममत्त देहपधाण विसय । धातुसंज्ञ - घर धारणे, च्चय त्यागे । प्रातिपदिक-आत्मन् कर्ममलीमस प्राण पुनर् अन्य न यावत् ममत्व देहप्रधान विषय । मूलधातु धर् धारणे, त्यज त्यागे । उभयपदविवरण- आदा आत्मा कम्ममलिमसो कर्ममलीमसः -- प्रथमा एकवचन । धरेदि धारयति चयदि त्यजति वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । पाये प्राणान असे अन्यान् द्वितीया बहुवचन । पुणो पुनः ण न जाव यावत् अव्यय । ममत्तं ममत्वं द्वि० एक । देहाचासु देप्रधानेषु विसयेसु विषयेषु सप्तमी बहुवचन । निरुक्ति- मलले धारयते दुर्दशां इति मलम् मलेन युक्त: मलीमसः । समास- कर्मणा मलीमसः कर्ममलीमसः देहः प्रधानं येषु ते देहप्रधानाः तेषु देहभानेसु ॥ १५० ॥
टीकार्य - प्रात्माकी पौगलिक प्राणोंकी संतानरूप जो यह प्रवृत्ति है, उसका प्रन्तरंगहेतु शरीरादिका ममत्वरूप उपरक्तपना है, जिसका मूल निमित्त अनादि पौगलिक कर्म हैं । प्रसंगविवरण - प्रनन्तरपूर्व गाथा में प्राणोंका पौगलिककर्मकार पना बताया गया था। अब इस गाथा में यह बताया गया है कि पोद्गलिक प्रारणोंकी परम्पराकी प्रवृत्ति क्यों होती भाई है उसका अन्तरङ्ग कारण क्या है ? सथ्यप्रकाश - १ - यह भ्रातमा स्वभावतः कर्ममलसे विविक्त होनेसे अत्यन्त निर्मल. स्वरूप वाला है । २- यह जीव पर्यायतः प्रनादि कर्मबन्धनवश होनेसे मलिन है । रागद्वेषमोहविकार मलिन यह जीव बार बार अन्य अन्य पोद्गलिक प्राणोंको धारण करता रहता है । ४- इन पौद्गलिकप्राणोंकी संतानसे जो प्रवृति चली आ रही है उसको मूल निमित्त कारण प्रनादिप्रवृत्त पौगलिक कर्म है, किन्तु शरीरादिसे ममत्वरूप उपराग अन्तरङ्ग कारण है। ५- जब तक देहादिक विषयोंमें ममत्वरूप उपराग नहीं छूटेगा तब तक पौग fe प्राणोंकी संतति बनी रहेगी । ६- सर्व क्लेशोंका मूल यह पौद्गलिक प्राणसंयोग है । सिद्धान्त - १ इन्द्रियप्राण व बलकारण पुद्गलका निमित पाकर होनेसे पौगलिक
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
FR
-SECTE
ॐ
प्रवचनसार--सप्तदशांगी टीका
२८६ म पुद्गलप्रारणसंततिनिवृत्तिहेतुमन्तरङ्ग ग्राहयति----
। जो इंदियादिविजई भवीय उवयोगमप्पगं झादि । कम्मेहिं सो रण रंजदि किह तं पाणा अणुचरंति ॥१५१॥ जो इन्द्रियादि विजयो, हो निज उपयोगमात्रको ध्याता ।
नहि कमरक्त होता, उसको फिर प्रारण नहिं लगते ।।१५१॥ य इन्द्रियादिविजयी भूत्वोपयोगमात्मवं ध्यायति । कर्मभिः स न रज्यते कथं तं प्राणा अनुचरन्ति ।।१५१३॥ - पुद्गल प्रासंततिनि वृत्तेरन्तरको हेहि पौद्गलिककर्ममूलस्योपरक्तत्वस्थाभावः । स तु समस्लेन्द्रियादिपर पानुवत्तिविजयिनो भूत्वा समस्तीपाश्रयानुवृत्तिव्यावृत्तस्यस्फटिकमरणेरि
नामसंज--- इंदियादिविजय उवओग अपग कम्म त ण किह त पाण | धातुसंज-उमा ध्याने, रज राग, जय जये । प्रातिपदिक ... यत् इन्द्रियादिविजयिन् उपयोग आत्मक कर्मन् तत् न कथं तत् प्राण । । सधातु ध्य ध्याने, रंज रागे, जि जये, इदि परमश्व। उभयपदविवरण-जो यः इंदियादिविजयी र लियादिविजयी सो स:--प्रथमा एवावचन । भवीय भूत्वा-असमाप्तिकी क्रिया । उवओगं उपयोग अप्पगं है। २- प्रायुप्राण व श्वासोच्छ्वासप्राण योग्य जीवके सान्निध्यमें कर्मवर्गणा व आहारवर्गणा का परिणमन होनेसे पौद्गलिक हैं । wi दृष्टिः-१- निमित्त दृष्टि (५३)। २-- उपादानदृष्टि (४६ ब) ।
। प्रयोग---समस्त पौद्गलिक प्राणोंको भिन्न दुःखहेतु जानकर उनसे ममत्व हटाना व सहमसिद्ध चैतन्य प्राण में अपना उपयोग लगाना ।।१५०।।
सब पोद्गलिक प्रारणोंको संनतिकी निवृत्तिका अन्तरङ्ग हेतु ग्रहण कराते हैं- [यः] को इन्द्रियादिविजयीभूत्वा] इन्द्रियादिको जीतने वाला होकर [उपयोगं आत्मकं] उपयोग मान पातमाको ध्यायति ध्याता है. सिः वह कर्मभिः] कर्मों के द्वारा [न रज्यते] रंजित नहीं होता ति] उसे [प्रारणा: प्राण [कथं] कैसे [अनुचरति] लग सकते हैं ?
- तात्पर्य-जो विषयोंको जीतकर ज्ञान दर्शनस्वरूप स्वका ध्यान करता है, प्राण उसका पोछा न करेंगे।
टीकार्थ---बास्तवमें पौगलिक प्राणोंकी संततिको निवृत्तिका अंतरङ्ग हेतु पोद्गलिक म है कारण जिसका ऐसे उपरक्तपने का प्रभाव है और उस उपरक्तताका कारण (निमित्त) मिलिक कर्म है । और वह अभाव, समस्त इन्द्रियादिक परद्रव्योंकी अनुवृत्तिका विजयी कार, प्राश्रयानुसार सारी परिचालिसे पृथक हुये स्फटिक मणिकी तरह अत्यन्त विशुद्ध उपजोगमात्र पकेले अात्मामें सुनिश्चलतया रहने वाले जीवके होता है । यहां यह तात्पर्य है कि
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६०
हजानन्दशास्त्रमालायां वात्यन्त विशुद्ध मुपयोगमात्रमात्मानं सुनिश्चलं केवलमधिवसतः स्यात् । इदमत्र तात्पर्य आत्मनोऽत्यन्तविभक्तसिद्धये व्यवहारजीवत्वहेतवः पुद्गलप्राणा एवमुच्छेत्तव्याः ।। १५१ ॥ आत्मकं तं-द्वितीया एकवचन । झादि ध्यायति रंजदि रज्यते-वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । कम्मे. हिं कर्मभि:-तृतीया बहुवचन । ण न किह कथं-अव्यय । पाणा प्राणा:-प्रथमा बहुवचन । अणुचरंति अनु. चरन्ति-वर्तमान अन्य० बहुवचन क्रिया । निरुक्ति-इन्द्रस्य संसारिण: आत्मनः लिङ्ग इन्द्रियम् । समासइन्द्रियादीनां विजयी इन्द्रियविजयी ।।१५१।। प्रात्माकी अत्यन्त विभक्तताकी सिद्धि करनेके लिये व्यवहारजीवत्वके हेतुभूत पौद्गलिक प्राण इस प्रकार हटाने योग्य हैं।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें पौद्गलिक प्राणोंकी संततिको प्रवृत्ति का अन्तरङ्ग कारण बताया गया था। अब इस गाथामें पौद्गलिक प्राणोंकी संतति हटे उसका उपाय. भूत अन्तरङ्ग कारण ग्रहण कराया गया है।
— तथ्यप्रकाश-(१) पुद्गलप्राणसंततिकी प्रवृत्तिका अन्तरङ्ग कारण देहादिविषयक ममत्व है । (२) पुद्गलप्राणसंततिको निवृत्ति का अन्तरङ्ग कारण मोह राग द्वेषरूप उपराग का बिल्कुल हट जाना है। (३) देहादिविषयक उपरागका अभाव इन्द्रियविजयी आत्माके हो सकता है । (४) इन्द्रियविजय कषायविजय होनेपर ही संभव है। (५) कषायविजय प्रकषाय प्रात्मस्वभावके अवलम्बनसे होता है । (६) इन्द्रियविजय व कषायविजयकी प्रक्रियाका प्रारम्भ अतीन्द्रिय प्रात्मीय आनन्दातसे संतोष पानेके बलपर होता है । (७) सर्वक्लेशके कारणभूत पौद्गलप्राणोंके विनाशका उपाय कषायविजय व इन्द्रियविजय है ।
सिद्धान्त-१- विषयकषायविजयरूप चारित्रसे पौद्गलिकप्राणशून्य आत्माकी सहज परिणति प्रकट होती है । २- ज्ञानमात्र प्रात्मामें आत्मसर्वस्वताके मननसे इन्द्रियकषायविजय पूर्वक प्राणोपाधिरहित स्थिति होती है।
- दृष्टि-१- क्रियानय (१९३) । २- ज्ञाननय (१६४) ।
प्रयोग-प्राणसंयोगमूलक सर्व क्लेशोंसे छुटकारा पाने के लिये प्रविकार सहजानन्दमय सहजज्ञानस्वरूपकी आराधना करना ॥१५१।।
अब फिर भी, प्रात्माकी अत्यन्त विभक्तताकी सिद्धि के लिये, व्यवहारजीवत्वको हेतुभूत देव-मनुष्यादि गतिविशिष्ट पर्यायोंका स्वरूप अपने समीप जांचते हैं-[अस्तित्वनिश्चितस्य अर्थस्य हि] सहजस्वरूपके अस्तित्वसे निश्चित परमात्म पदार्थका [अर्थान्तरे संभूतः] पुद्गल के संयोगमें उत्पन्न हुआ [अर्थः] भाव [पर्यायः] पर्याय है [सः] वह [संस्थानादिन
"BAR
New
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका
२६१ प्रय पुनरध्यात्मनोऽत्यन्तविभक्तत्वसिद्धये गतिविशिष्टव्यवहारजीवत्वहेतुपर्यायस्वरूपमुदवसायति -
अस्थित्तहिच्छिदस्स हि अत्थस्सत्यंतरम्मि संभूदो। अत्यो पजाबो सो संठाणादिप्प भेदेहिं ॥ १५२ ॥
स्वास्तित्वसे सुनिश्चित, द्रव्यका अन्य द्रव्यमें बँधना ।
है संस्थानादि सहित पर्याय अनेकद्रयात्मक ॥१५२।। स्तित्व निश्चितस्य ह्यर्थस्यार्थान्तरे. संभूतः । अर्थ: पर्यायः स संस्थानादिप्रभेदैः ।। १५२ ।।
स्वलक्षणभूतस्वरूपास्तित्वनिश्चितस्यैकस्यार्थस्य स्वलक्षणभुतस्वरूपस्तित्व निश्चित वारयस्मिन्नर्थे विशिष्टरूपतया संभावितात्मलाभोऽर्थोऽनेकद्रव्यात्मकः पर्यायः । स खल पुद्गलस्य पुद्गलान्तर इव जीवस्य पुद्गले संस्थानादिविशिष्टतया समुपजायमानः संभाव्यत एव ।
नामसज अस्थित्तणिजिलद हि अस्थ अस्थलर संभूद अस्थ पज्जाअत संहाणादिप्पभेद । धातुसंज्ञ----
स सत्तायां भव सत्तायां । प्रातिपदिक-अस्तित्वनिश्चित हि अर्थ अर्थान्तर संभूत अर्थ पर्याय तत् Simाना दिप्रभेद । मूलधातु- अस् अधि, भू सत्तायां । उभयपद विवरण-अस्थित्तणिच्छिदस्स अस्तित्वनि
आस्थस्स अर्थस्य-षष्ठी एकवचन | अत्यंतरास्म अर्थान्तरेसप्तमी एकवचन । संभूलो संभूतः अत्था मदः] संस्थानादि भेदोंसे बनी है ।
तात्पर्य---नर नारकादिक असमानजातोय विभावद्रव्य व्यञ्जन पर्याय है । meटीका...... स्वलक्षणभूत स्वरूप अस्तित्वसे निश्चित एक द्रव्यका, स्वलक्षणभूत स्वरूप. मस्तित्व से ही निश्चित अन्य अर्थमें विशिष्ट रूपसे उत्पन्न होता हुप्रा अर्थ (भाव) अनेकद्रव्यामक पर्याय है । वह वास्तवमें, पुद्गलकी अन्य पुद्गलमें उत्पन्न होने की तरह जीवकी, पुद्गल में संस्थानादिसे विशिष्टतया उत्पन्न होती हुई परिचयमें पाती ही है । और ऐसी पर्याय योग्य घटित है क्योंकि केवल जीव की व्यतिरेकमात्र अस्खलिल एक द्रव्य पर्याय ही अनेक द्रव्योंकी संयोगात्मकतासे बुद्धिमें प्रतिभासित होती है।
प्रसंगविवरण --अनन्तर पूर्व गाथामें पौद्गलिक प्राणसंततिको निवृत्तिका उपाय बताया गया था। अब इस गाथा में प्रात्माको अत्यन्त विविक्त सिद्ध करने के लिये व्यवहारजीवस्वकी कारणभूत देव मनुष्यादि गतियुक्त पर्यायोंका स्वरूप कहा गया है।
तथ्यप्रकाश----१- प्रत्येक द्रव्य का स्वरूपास्तित्व अपने अपने द्रव्यके ही प्रदेशों में स्व
में है अन्य सब द्रव्योंसे भिन्न है । २.- अपने अपने स्वरूपसे सत् होनेपर भी निमित्तनमिFतियोगवश पुद्गल पुद्गलोंका वान्धरूप विभावद्रव्यव्यञ्जनपर्याय हो जाता है। ३- अपने
अपने स्वरूपसे सत् होने पर भी निमित्तनैमित्तिक योगवश जीव पुद्गलोंका देवादिक भावरूप
।
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६२
सहजानन्दशास्त्रमालायां
उपपन्नश्चैवंविध: पर्याय:, अनेक द्रव्यसंयोगात्मत्वेन केवलजीयव्यतिरेकमात्रस्यकद्रव्यपर्यायस्याः । स्खलितस्यान्तरवासनात् ॥ १५२ ॥ अर्थः पज्जाओ पर्यायः सो स;-प्रथमा एकवचन । संठाणादिपमेदेहि संस्थानादिप्रभेदै -तृतीया बहुवचत निरुक्ति-अयंत निश्चीयते य: स अर्थः । समास--अस्तित्वेन निश्चितः अ० लस्य, संस्थानादीनां प्रभेदा संस्थानादिप्रभेदाः तः संस्थानादिप्रभेदैः ।।१५२।। विभावद्रव्यव्यञ्जन पर्याय हो जाता है । ४--पुद्गल पुद्गलोंके बन्धनसे समान जातीय विभाव। द्रव्यव्यञ्जन पर्याय होता है । ५- जीव पुद्गलोंके बन्धनसे असमानजातीय विभावद्रव्यन्यजन पर्याय होता है । ६- अनेक द्रव्योंका संयोग होनेपर जीव कहीं पुद्गलोंके साथ एकरूप पर्याय नहीं करता । ७--- विभावद्रव्यव्यञ्जन पर्यायके समय भी एक द्रध्यकी दृष्टि से देखनेपर पुद्गल पर्यायसे भिन्न जीवकी अपनी एक द्रव्यपर्याय सदैव प्रवर्तमान रहती है । -पुद्गलकर्मोपाधिसे रहित होनेपर जीवका स्वभाव द्राव्यञ्जन पर्याय प्रकट होता है । --- जीवका स्वरूपास्तित्व। चिदानन्दैकरूप है।
सिद्धान्त..... (१) जीव व कर्म नोकर्मरूप पुद्गलोंके बन्धन से नर नारकादि पर्याय प्रकट होता है ।
दृष्टि .... १.- असमानजातीय विभावद्रव्यव्यञ्जनपर्यायदृष्टि (२१६) ।
प्रयोग -... क्लेशमूल व्यवहारजीवपनासे छुटकारा पानेके लिये सहजचिदानन्दमय सहज स्वरूप में प्रात्मत्वका मनन करना ।।१५।।
अब पर्यायके भेदोंको दिखाते हैं - [नामकर्मणः उदयादिभिः] नामकर्मके उदयादिक के कारण [नरनारकतिर्यकसुराः] मनुष्य, नारक, तियंत्र और देव [जीवानां पर्यायाः] जीवों की पर्यायें हैं, [संस्थानादिभिः] जो कि संस्थानादिके द्वारा [अन्यथा जाताः] अन्य अन्य प्रकारको ही हुई हैं।
तात्पर्य - नारक, तिथंच, मनुष्य, देव ये असमान जातीय द्रव्यव्यञ्जन पर्याय हैं।
टीकार्थ--- नारक, तियंच, मनुष्य और देव जीवोंकी पर्यायें हैं । वे नामकर्मरूप पुर । गलके विपाकके कारण अनेक द्रव्यसंयोगात्मक होने से तुषको अग्नि और अंगार इत्यादि अग्नि को पर्याय चूरा और डली इत्यादि प्राकारोंसे अन्य अन्य प्रकारको होनेकी तरह संस्थानादिक द्वारा अन्यान्य प्रकारको ही हुई हैं।
प्रसङ्गविवरण-.-.-अनन्तरपूर्व गाथामें व्यवहारजीवत्व के हेतुभूत पर्यायोंको बताया गया था। अब इस गाथामें उन पर्यायोंके प्रकार बताये गये हैं ।
RROPSHAR112900000RRRRRRR
RRAMIRSINHA
ARARIANIM
A
..... III
..
...
...
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
RECEMBER
ENAB
प्रवचनसार--सप्तदशाङ्गी टीका
२६३ पर पर्यायव्यक्तीर्दर्शयति
णरणारयतिरियसुरा संठाणादीहिं अण्णहा जादा । पजाया जीवाणं उदयादिहि णामकम्मस्स ॥१५३।।
तर नारक तिर्यक् सुर, नाना संस्थान आदि रूपोंमें ।
हई जीव पर्यायें, नामकर्मोदयादिसे ये ॥ १५३ ।। मलारकतिर्यक सुराः संस्थानादिभिरन्यथा जाताः । पर्याया जीवानाभुदयादिभिनामकर्मण: ।। १५३ ।।
नारकस्तियङमनुष्यो देव इति किल पर्याया जीवानाम् 1 ते खलु नाम कर्मपुद्गलविषाककारणत्वेनानेकद्रव्य संयोगात्मकत्वात् कुकूलाङ्गारादिपर्याया जातवेदसः क्षोदखिल्व संस्थानादिभिरिव संस्थानादिभिरन्यथैव भूता भवन्ति ।।१५३।। MAL नामसंज-गरणारयतिरियसूर सठाणादि अणहा जाद पज्जाय जीव उदयादि शामत्रम्म । घातसमजा प्रादुर्भावे। प्रातिपदिक--नरनारकतिर्यक्सुर संस्थानादि अन्यथा जात पर्याय जीव उदयादि नामकर्मन । भलधातु-जनी प्रादुर्भावे । उभयपदविवरण—ण रणारयतिरियसुरा नरनारकतियारा: पजाया पर्याया:--प्रथमा बहुवचन । संठाणादीहि संस्थानादिभिः उदयादिहि उदयादिभिःसृतीया बहबावन । अण्णहा अन्यथा अव्यय । जादा जाता:-प्रथमा बहु० कृदन्त क्रिया । जीवाणं जीवानां-बष्ठी बहवचन। णामकम्मस्स नामकर्मण:-षष्टी एकवचन । निरुक्ति–नराम् कान्ति इति नारकाः के शब्दे वादि, तिर अंचतीति तिर्यक, सुरति इति सुरः पुर ऐश्वर्यदीप्त्योः , उद् अयन उदया: इण गती । समाससरन नारवाश्च तिर्यक् च सुरश्चेति नरनारकतिर्यक् सुराः । १५.३।।
। तथ्यप्रकाश–१- नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य व देव ये ४ जीवकी असमान जातीय विभावद्रव्यव्यञ्जनपर्याय हैं । २-- जीव व अनेक पुद्गलोंके बन्धसे नारकादि पर्याय होनेपर भी वे जीव की अशुद्ध पर्याय कहलाती हैं, क्योंकि इस संयोगके होने में जीवविभाव मुख्यतया कारण हैं । ३- विभिन्न पौद्गलिक नामकर्मके उदयविपाकके अनुसार इन जीव भवोंमें भिन्नभिन्न प्रकारके संस्थान हो जाते हैं जैसे कि लकड़ी कोयला आदि भिन्न भिन्न ईवनोंके संयोग से अग्निका प्राकार भिन्न भिन्न हो जाता है । ४- भिन्न भिन्न संस्थान होनेपर भी यह भगवान प्रात्मद्रव्य अपने सहजज्ञानानन्दस्वरूपको नहीं छोड़ता जैसे कि भिन्न प्राकार होनेपर प्रति अपने प्रोष्ण्यस्वरूपको नहीं छोड़ती। ५- नरनारकादि पर्याय कर्मोदयके निमित्तसे होती हैं, इस कारण ये पर्यायें प्रात्माका स्वभाव नहीं हैं।
सिद्धान्त-(१) नर नारक आदि व्यवहारसे जीव कहे जाते है।
ष्टि-१- विकल्पनय, स्थापनानय, विशेषनय, अनियतिनय, एकजातिपर्याय अन्यजातिद्रव्योपचारक असदभूत व्यवहार, एकजातिद्रव्ये अन्यजाति द्रव्योपचारक असद्भुत व्यव.
SHERE
Page #308
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां प्रथात्मनोऽन्यद्रव्यसंकीर्णत्वेऽप्यर्थनिश्चायकमस्तित्वं स्वपरविभागहेतुत्वेनोद्योतयति----
तं सब्भावणिबद्ध दव्वसहावं तिहा समक्खादं । जाणदि जो सवियप्पं ण मुहदि सो अण्णादवियम्हि ॥१५॥ निजस शावकनिबन्धक, त्रिधा द्रव्यका स्वभाव बतलाया।
सविशेष जानता जो, वह परमें मुग्ध नहि होता ॥१५४।। तं सद्भावनिबद्धं द्रव्यस्वभावं विधा समाख्यातम् । जानाति यः सविकल्प न मुह्यति सोऽयन्द्र दये ||
यत्खलु स्वलक्षणभूतं स्वरूपास्तित्वमर्थ निश्चायकमाख्यातं स खलु द्रव्यस्य स्खमा एच, सद्भावनिबद्धत्वाद्रव्यस्वभावस्य । यथासी द्रव्यस्वभादो द्रव्यगुणापर्यायत्वेन स्थित्युत्पादः ।
नामसंज्ञ-त सम्भावणिवद्ध दम्चसहाय तिहा समक्खाद ज सविधप्प ण त अ०७ दकिय । धातसब क्खा प्रकथने, जाण अवबोधने, कप्प सामध्ये, मुक मोहे । प्रातिपदिक-तत् सद्भावनिबद्ध द्रव्यस्वभाव। विधा समाख्यात यत् सविकल्प म तत् अन्यद्रव्य । मूलधातु...स्या आख्याने, कलपू सामथ्य, मुह वैचित्य ।
प्रयोग--पुद्गलकर्मोदयजनित नर नारकादि पर्यायोंको आत्मस्वभावसे भिन्न जानकर उनसे उपेक्षा करके सहज ज्ञानानन्दमय प्रात्मतत्वमें उपयुक्त होना ।।१५३।।
___ अब आत्माके अन्य द्रव्य के साथ संयुक्तपना होनेपर भी अर्थनिश्चायक अस्तित्वको स्व-पर विभागके हेतुके रूपमें समझाते हैं-[यः] जो जी [तं] उस पूर्वकथित सिद्धाय निबद्ध] स्वरूपास्तित्वसे निष्पन्न [विधा समाख्यातं] तीन प्रकारसे कथित, [सविकल्प] मेवों वाले [द्रध्यस्वभावं] द्रव्यस्वभावको [जानाति] जानता है, [सः] वह [अन्य द्रव्ये] अन्यो द्रव्यमें [न मुह्यति] मोहको प्राप्त नहीं होता ।
___तात्पर्य----जो अपने स्वरूपास्तित्वको यथार्थ जानता है वह परपदार्थों में मोह नहीं करता ।
टीकार्थ-द्रव्यको निश्चित करने वाला, स्वलक्षणभूत जो स्वरूपास्तित्व कहा गया है वह वास्तव में द्रव्यका स्वभाव ही है; क्योंकि द्रव्यका स्वभाव अस्तित्वनिष्पन्न है । यः गुण-पर्याय रूपसे तथा धौव्य उत्पाद व्ययरूपसे प्रयात्मक भेदभूमिकामें प्रारूढ़ द्रव्यस्वभाव ज्ञात होता हुआ चूंकि परद्रव्यके प्रतिके मोहको दूर करके स्व-परके विभागका हेतु होता है। इस कारण स्वरूपास्तित्व ही स्व-परके विभागकी सिद्धि के लिये पद पदपर लक्ष्य में लेना चाहिये । स्पष्टीकरण-चेतनत्वका अन्वय जिसका लक्षण है ऐसा जो द्रव्य, चेतनाविशेषतः जिसका लक्षण है ऐसा जो गुण, और चेतनत्वका व्यतिरेक जिसका लक्षण है ऐसी जो पर्याय ।।
Page #309
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका अयत्वेन च त्रितयों विकल्पभूमिकामधिरूढ़ः परिज्ञायमानः परद्रव्ये मोहमपोह्य स्वपर विभागसमवति ततः स्वरूपास्तित्वमेव स्वपरविभागसिद्धये प्रतिपदमवधार्थम् । तथाहि---- यचदाननस्वान्दवलक्षण द्रव्यं यश्चेतनाविशेषत्वलक्षणो गुणो यश्चेतनत्वव्यतिरेकलक्षणः पर्यायस्तत्त्रयामक, या पूर्वोत्तरव्यतिरेकस्पशिना चेतनत्वेन स्थितियोवुत्तरपूर्वव्यतिरेकत्वेन चेतनस्योत्पादध्ययौ तलयात्मक च स्वरूपास्तित्वं यस्य नु स्वभावोऽहं स खल्वमन्यः । यच्चाचेतनत्वान्वयलक्षणं
व्य योऽचेतनाविशेषत्वलक्षणो गुणो योऽचेतनत्वयनि रेकलक्षणः पर्यायस्तत्रयात्मकं, या पूर्वी सध्यतिरेकस्पशिनाचेतनत्वेन स्थितिर्यावुत्तरपूर्वव्यतिरेकत्वेनाचेतनस्योत्पादब्ययाँ तत्त्रयात्मक म स्वरूपास्तित्वम् यस्य तु स्वभावः पुद्गलस्य स खल्वयमन्यः । नास्ति में मोहोऽस्ति स्वपर. विभागः ॥ १५४॥ "साविवरण-तं सब्भावणिबद्धं सद्भावनिबद्धं दवसहावं द्रव्यस्वभावं समवखादं समास्यातं सवियाः सविकल्य-द्वितीया एकवचन । जो यः सो स:-प्रथमा एक० । अगणदविम्हि अन्यद्रव्ये, तिहा विधा ण न अव्यय । अपणदवियम्हि अन्यद्रव्ये-सप्तमी एकवचन । निरुक्तिविशेषेण काल्पनं विकल्पः । समास---- सदभावन निबद्धः सद्भावनिबद्धः से, द्रव्यस्य स्वभावः द्रव्यस्वभावः तं द्रक्ष्यस्वभावम् ॥१:४।। वह त्रयात्मक स्वरूप-अस्तित्व तथा पूर्व और उत्तर व्यतिरेकको स्पर्श करने वाले चेतनस्वरूप से जो धोव्य और चेतनके उत्तर तथा पूर्व व्यतिरेकरूपसे जो उत्पाद और व्यय, वह त्रयासाक स्वरूप अस्तित्व जिसका स्वभाव है ऐसा मैं वास्तव में यह अन्य हूं। और, अचेतनत्वका अवय जिसका लक्षण है ऐसा जो द्रव्य, अचेतना विशेषत्व जिसका लक्षण है ऐसा जो गुरण, और अचेतनत्वका व्यतिरेक जिसका लक्षधा है ऐसी जो पर्याय, वह यात्मक स्वरूपास्तित्व सया पूर्व और उत्तर व्यतिरेकको स्पर्श करने वाले अचेतनत्वरूपसे जो नौवय और अनेतनके उत्तर तथा पूर्व व्यतिरेकरूपसे जो उत्पाद और व्यय, वह श्यात्मक स्वरूपास्तित्व जिस पुद्गलका स्वभाव है वह वास्तव में अन्य है । मुझे मोह नहीं है और सही स्वपरका विभाग है ।
प्रसंगविवरण---अनन्तरपूर्व गाथामें जीवको गतिविशिष्ट पर्यायोंके प्रकार बताये गये में। अब इस गाथामें बताया गया है कि अन्य द्रव्योंके साथ संयुक्तपना होनेपर भी स्वरूपाअस्तित्व स्वपरविभागका हेतु होता है ।
तथ्यप्रकाश---१-- स्वलक्षणभूत स्वरूपास्तित्व उस लक्ष्य पदार्थका निश्चायक होता २- स्वरूप द्रव्यका स्वभाव हो है। ३- द्रव्यस्वभाव सब द्रव्योंका अपना अपना जुदा जुदा है। ४- सर्वद्रव्य स्वद्रव्य गुणपर्यायात्मक हैं, उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक हैं । ५.-- विसी द्रध्य के द्रव्य गुण पर्यायका अन्य द्रव्यसे कुछ सम्बन्ध नहीं है । ६- सब दव्योंका स्वरूपास्तित्व स्वपर विभागका कारण होता है । ७- जिसमें स्वचेतनत्वका अन्वय है विशेष है परिणमन
Page #310
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमाल प्रयां प्रथात्मनोऽत्यन्तविभक्तत्वाय परद्रव्यसंयोगकारणस्वरूपमालोच यति----
अप्पा उत योगप्पा उपयोगोशागदसणं भशिदो। सो वि सुहो असुहो वा उवयोगो अपणो हबदि ॥१५॥
प्रात्मा उपयोगात्मक, उपयोग कहा सादर्शनात्मयः ।
शुद्ध प्रशुद्ध द्विविध यह, होता उपर हेग यात्माका ।।१५५॥ भारमा उपयोगात्मा उपयोगो ज्ञानदर्शनं भणितः । सोऽवि शुभो भाभा बा उपयोग आत्मनो भवति । १५५
पात्मनो हि परद्रव्यसंयोगकारणमुपयोगविशेषः उपयोगी हि तावदात्मनः स्वभावाचे तन्यानुविधायिपरिणामस्वात् । स तु ज्ञानं दर्शनं च साकारनिराकारत्वेनोभयरूपत्वाच्चतन्यस्य
नामसंज्ञ-अप्प उवओगप्प उवओग णाणदंसण भगिद त वि सुह अशुह वा स्यओंग अप्प 1 धात संज्ञ-हव सत्तायां, मण काथने । प्रातिपदिक--आत्मन् उपयोगात्मन उपयोग ज्ञान दर्शन भणित तत् अपि शुभ अशुभ वा उपयोग आत्मन् । मूलधातु-भण शब्दार्थः, भू सत्तायां । उभयपदविवरण----अप्पा आत्मा है बह मैं हैं। ८- जिसमें परचेतनत्वका या अचेतनत्वका अन्वय है विशेष है परिणमन है वह अत्य है। - अन्य मेरा कुछ नहीं है इस परिज्ञान में मोह नहीं रहता, क्योंकि स्व व परका स्पष्ट विभाग हो गया है । १०--स्वपरभेदविज्ञानी प्रात्मा अन्य द्रव्य में मुग्ध नहीं हो सकता।
सिद्धान्त----१-- लक्षणभेदसे द्रव्योंमें परस्पर विलक्षणता विदित होती है। दृष्टि---१- बैलक्षण्यन य (२०३) ।
प्रयोग -सर्वं परद्रव्य व परभावोंसे विविक्त निज चैतन्यस्वभाव में स्वत्व अनुभव कर सहज प्रानन्दमय रहना ।।१५४।।
__ अब आत्माको अत्यन्त विभक्त करनेके लिये परद्रष्य के संयोगके कारणके स्वरूपको आलोचना करते है.---[प्रात्मा उपयोगात्मा] प्रात्मा उपयोगस्वरूप है; [उपयोगः] उपयोग [ज्ञानदर्शनं भरिणतः] ज्ञान-दर्शन कहा गया है; [अपि] और [आत्मनः) अात्माका [सः उपयोगः] वह उपयोग शुिभः अशुभः वा] शुभ अथवा अशुभ [भवति] होता है। .
तात्पर्य---परद्रव्यके सेयोगका कारण जीवका शुभ अथवा अशुभ उपयोग है।
टोकार्थ-वास्तव में परद्रव्यके संयोगका कारण प्रात्माका उपयोगविशेष है। उपयोग तो वास्तवमें प्रात्माका स्वभाव है, क्योंकि वह चैतन्यका अनुसरण करके होने वाला परिणाम है। और वह ज्ञान तथा दर्शन है, क्योंकि चैतन्य साकार और निराकार रूप होनेसे उभयरूप । है । अब यह उपयोग दो प्रकारसे विशेषित होता है शुद्ध और अशुद्ध । उसमेंसे शुद्ध उपयोग निर्विकार है; और अशुद्ध उपयोग सविकार है । वह अशुद्धोपयोग शुभ और प्रशुभ-दो प्रकार,
MADHUBANSARADARSH
A NKARANEANI
PASHAMARWADI
Page #311
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६७
88888888
S:
EEEEEEE
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका अथायमुए योगो द्वेधा विशिष्यते शुद्धाशुद्धत्वेन । तत्र शुद्धो निरुपरागः, अशुद्धः सोपरागः । स विशुद्धिसंबले शारूपत्वेन लैविध्यादुपरागस्य द्विविधः शुभोऽशुभश्च ।। ५५५।।
गप्पा उपयोगात्मा उवओगो उपयोग: णाणदंसणं ज्ञानदर्शनं सोस: राहो शुभः असुही अशुभः उबWatगो उपयोग:-प्रथमा एकवचन । अपणो आत्मन:-बाठी एकवचन । चि अपि बा-अव्यय । हदि भवति वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन किया । भाणदो भगितः-प्रथमा एकवचन क्रिया कृदन्न । निरुक्तिउपयोजन उपयोग: युभिर योगे युज संयमने यूज समाधी। समास-उपयोगः आत्मा यस्य स - माशानं च दर्शनं चेति ज्ञानदर्शनं तयोः समाहारः ज्ञानदर्शनम् ।। १५ । । का है, क्योंकि आराम विशुद्धि रूप और सक्लेशरूप दो प्रकारका है ।।
प्रसंगविवरण- अनन्त र पूर्व गाथामें स्वपरविभागके कारणभूत स्वम्पास्तित्व का संकेत किया गया था। अब इस गाथामें प्रात्माको अत्यंत विभक्त करने के लिये पर द्रव्यसंयोगके कारणका स्वरूप विचारा गया है ।
। तथ्यप्रकाश - १- प्रात्माके साथ कर्म नोकमरूप पर द्रव्यके संयोगका कारण प्रात्मा का शुभाशुभ उपयोग है । २- उपयोग तो आत्माका स्वभाव है, क्योंकि वह चैतन्यका अनुसऔरणा करने वाला परिणाम है । ३--उपयोग निराकार व साकार दो रूप होता है । ४-साकार सुयोग ज्ञान है । ५.-- निराकार उपयोग दर्शन है । ६. इस आत्माके साथ उपाधि अनादिकालसे चलो पा रही है, जिससे प्रात्मापर उपराग लदा है। ७. उपराग शुभ व अशुभ दो प्रकारका है। -- शुभ उपरागके सम्बन्धसे उपयोग शुभोपयोग होता है । ६- अशुभ उपराग के सम्बंधसे उपयोग अशुभोपयोग होता है । १०-जब उपराग नहीं रहता तब उपयोग शुद्धोपयोग होता है। ११- मात्र शुद्ध ज्ञाता द्रष्टा रहना शुद्धोपयोग है। १२-- धर्मानुरागरूप उपयोग शुभोपयोग है । १३- विषयानुरागरूप व द्वेष मोहरूप उपयोग अशुभोपयोग है।
सिद्धान्त---(१) शुद्धोपयोग स्वाभाविक अवस्था है । २- शुभोपयोग व अशुभोपयोग भाविक अवस्था है।
दृष्टि--- १- उपाध्यभावापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय, स्वभाव गुणव्यञ्जनपर्याय (२४, २६२) । २-- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय, विभावगुणव्यञ्जनपर्याय (२४, २१३) ।
प्रयोग-शाश्वत पवित्र व निराकुल रहने के लिये सोपरागोपयोग न करके मात्र ज्ञाता द्रष्टा रहनेका पौरुष करना ।।१५५॥
स अब कौनसा उपयोग परद्रव्यके संयोगका कारण है यह बताते हैं-- उपयोगः] उपयोग यिदि हि] यदि [शुभः] शुभ हो तो [जीवस्य] जीवका पुण्यं ] पुण्य [संचयं याति] संचयको प्राप्त होता है, [तथा वा अशुभः] और यदि अशुभ हो सो [पापं] पाप संत्रयको
S
22083STAGS
TAINMARATH
R
S
B8
Sto.m.....-brand....sunetter-RRIE
Page #312
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६८
सहजानन्दशास्त्रमालायां
BAKAMARIKidioustepENDAAPAS
DhumidinamsutrAmaint-RArranmintinent-Am
अथात्र के उपयोगः परद्रध्यसंयोगकारणमित्यावेदयति
उवनोगो जदि हि सुहो पुण्ण जीवस्स संचयं जादि । असुहो वा तध पावं तेसिमभावे ण चयमस्थि ॥१५६॥
उपयोग यदि अशुभ हो, तो हो जीवके पापका संचय ।
शुभसे हि पुण्यसंचय, नहि बन्ध उभय प्रभावोंमें ॥१५६॥ उपयोगो यदि हि शुभः पुण्यं जीवस्य संचयं याति । अशुभो वा तथा पापं तयोरभावे न चयोऽस्ति ।।१५६॥
उपयोगो हि जीवस्य परद्रव्यसंयोगकारणमशुद्ध: । स तु विशुद्धिसंक्लेशरूपोपरायवशात् । शुभाशुभत्वेनोपात्तद्वैविध्यः पुण्यपापत्वेनोपात्तद्वैविध्यस्य परद्रव्यस्य संगकारणस्थेन निवर्तयति । यदा तु द्विविधस्याप्यस्याशुद्धस्याभावः क्रियते तदा खलुपयोगः शुद्ध एवावतिष्ठते । स पुनर. कारणमेव परद्रव्यसंयोगस्य ॥१५६॥
नामसंज्ञ---उवओग जदि हि मुह गुण्ण जीव संजय असुह वा तध पावत अभाव ण नय | धातुसंजजा गतौ, अस सत्तायां । प्रातिपदिक-उपयोग यदि हि शुभ पुण्य जीव संचय अशुभ वा तथा पाप से अभाव ण चय । मूलधातु-पूत्र पवने क्र यादि, चि चयने, या प्रापणे, अस् भुवि । उभयपदविवरण उदओगो उपयोगः सुहो शुभः पुण्णं पुण्यं असहो अशुभः पावं पापं त्रयं चयः-प्रथमा एकवचन । जदि यदि हि वा तध तथा ण न-अव्यय । जीवस्स जीवस्य-पष्ठी एक० । संचयं-द्वितीया एक । जादि याति अस्थि अस्ति-वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन किया। तेरि-षष्ठी बह01 तयोः षष्ठी द्विवचन । अभावे-सप्तमी एकवचन । निरुक्ति- पुनाति आत्मानं इति पुण्यं, पाति रक्षति आत्मानं शुभात् इति पापं । चयनं चयः शोभनं शुभः ।।१५६॥ प्राप्त होता है। [तयो: प्रभावे] उन दोनोंके अभाव में [चयः नास्ति संचय नहीं होता ।
तात्पर्य-शुभोपयोगसे पुण्य, अशुभोपयोगसे पाप संचित होता है, किन्तु शुभ अशुभ दोनोंके प्रभाव में पुण्य पाप दोनोंका संचय नहीं ।
टोकार्थ—परद्रव्यके संयोगका कारण जीवका अशुद्ध उपयोग है । और वह विशुद्धि तथा संक्लेशरूप उपरागके कारण शुभ और अशुभरूपसे द्विविधताको प्राप्त होता हुप्रा, पुण्य
और पापरूपसे द्विविधताको प्राप्त होते हुए परद्रव्यके संयोगके कारणरूपसे काम करता है। किन्तु जब दोनों प्रकारके अशुद्धोपयोगका प्रभाव किया जाता है तब वास्तवमें उपयोग शुद्ध । ही रहता है; और वह परद्रव्यके संयोगका अकारण हो है ।।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व माथामें परद्रव्यसंयोगके कारणका विचार किया गया था । अब इस गाथामें बताया गया है कि कौनसा उपयोग परद्रव्य संयोगका कारण है।
तथ्यप्रकाश-(१) जीवका अशुद्ध उपयोग परद्रव्यके संयोगका कारण है 1 (२)
ar
SONAKSHILKAXMMAR
Asminar
hindimadhureenshots
SHARE
mantagonis.
Page #313
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका
शुभपयोगस्वरूपं प्ररूपयति-
जो जागादि जिगिंदे पेच्छदि सिद्ध तव गंगारे | जीवे साकंपो वोगो सो सुहो तस्स ॥ १५७॥ परमेश्वर अहंतों, सिद्धों व साधुवोंकी भक्तीमें ।
FREE
म
जीवदया में तत्पर है शुभ उपयोग वह उसका ॥ १५७॥
यो जानाति जिनेन्द्रान पयति सिद्धांस्तथैवानागाराद् । जीवेषु सानुकम्प उपयोगः स शुभस्तस्य ॥ १५७ ॥ विशिष्टक्षयोपशमदशा विश्रान्तदर्शनवारित्रमोहनीयपुद्गलानुवृत्तिपरत्वेन परिग्रहोतशोभ
नामसंज्ञ --ज जिणिद सिद्ध तह एवं अणगार जीव सानुकंप उवओोग त सुहृ त । धातुसंज्ञ जाण अवबोधते, दरिस दर्शनाय । प्रातिपदिकयत् जिनेन्द्र सिद्ध तथा एवं अनगार जीव सानुकम्प उपयोग तत् शुभः तत् । मूलधातु-ज्ञा अवबोधने, हरि प्रेक्षणे। उभयपदविवरण -- जो यः सानुकंपो सानुकम्पः ushyati दो प्रकारका है- शुभोपयोग व अशुभोपयोग । (३) शुभोपयोग में विशुद्धि भाव रूप उपरांग है, अतः शुभोपयोग पुण्यकर्मके बन्धनका कारण है । ( ४ ) अशुभोपयोग में सक्लेश भावरूप उपराग है, अतः शुभोपयोग पापकर्मके बन्धनका कारण है । ( ५ ) शुद्धोपयोग में विशुद्धिरूप व संक्लेशरूप दोनों ही अशुद्ध उपरागका प्रभाव है, अतः शुद्धोपयोग परद्रव्यके संयोगका याने बन्धका कारण नहीं है । ( ६ ) अविकार निजपरमात्मद्रव्यको भावनासे शुभा - शुभ उपयोगका प्रभाव होकर शुद्धोपयोग प्रकट होता है ।
सिद्धान्त - ( १ ) पुण्यबन्धका निमित्तकारण विशुद्धोपरागयुक्त उपयोग है । (२) पापअन्यका निमित्त कारण संक्लेशोपरागयुक्त उपयोग है ।
दृष्टि - १, २- निमित्तदृष्टि, निमित्तपरम्परादृष्टि ( ५३, ५३ )
प्रयोग-संसारविपदा के निमित्तभूत कर्मविपाकसे छुटकारा पानेके लिये मूल उपायभूत निज सहज परमात्मतत्त्वको प्रभेदोपासनाका पुरुषार्थ होने देना ।। १५६॥
• शुभपयोग स्वरूपका प्ररूपण करते हैं - [ यः ] जो [जिनेन्द्रान् ] जिनेन्द्रोंको [जानाति ] जानता है, [ सिद्धान् तथैव अनागारान् ] सिद्धों तथा अनगारोंको [ पश्यति ] देखता है, [जीवेषु सानुकम्पः ] और जीवोंके प्रति अनुकम्पायुक्त है, [तस्य ] उसके [स: ] वह [ शुभः उपयोगः] शुभ उपयोग है ।
तात्पर्य -- पूज्य आत्मावोंकी भक्ति तथा जीवदयाका भाव होना शुभोपयोग है । टीकार्थ - विशिष्ट क्षयोपशमदशा में रहने वाले दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय परमभट्टारक रूप पुद्गलोंके अनुसार परिरगति में लगा होनेसे शुभ उपरागका ग्रहण करनेसे,
Page #314
--------------------------------------------------------------------------
________________
per me kan kally, makin
३००
सहजानन्दशास्त्रमालायां
नोपरागत्वात् परमभट्टारक महादेवाधिदेवपरमेश्वरात्सिद्ध साधुश्रद्धाने समस्त भूतग्रामानुकम्पाव रणे च प्रवृत्तः शुभ उपयोगः ।। १५७ ।।
ओगो उपयोगः यो सः सुहो शुभः- प्रथमा एकवचन | जाणादि जानाति पेन्छदि पश्यति-वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । जिणिदे जिनेन्द्रान् सिद्धे सिद्धान् अणगारे अनगारान- द्वितीया बहुवचन । जीवेम् जीवेषु सप्तमी बहुवचन । तस्स तस्य षष्ठी एकवचन । निरुक्ति में घतिस्म इति सिद्धः पिव गती गतौ भ्वादि | समास -- जिनानां इन्द्रा जिनेन्द्राः तान् नि अगारः येषां ते अनगाराः ज्ञान, अनुकम्पया सहितः इति सानुकः ॥१५७।।
महादेवाधिदेव, परमेश्वर महंत, सिद्धको और साधुको श्रद्धा करने में तथा समस्त जीवसमूहकी अनुकम्पाका आचरण करनेमें प्रवृत्त हुआ उपयोग शुभोपयोग है ।
प्रसङ्गविवरण- ग्रनन्तरपूर्व गाथा में परद्रव्यके संयोगका कारणभूत उपयोगविशेषका निर्देश किया गया था | अब इस गाथामें उन उपयोगविशेषों में से शुभोपयोगके स्वरूपका प्र पण किया गया है।
तथ्यप्रकाश -- ( १ ) ग्ररहंत, सिद्ध, साधुकी श्रद्धा में प्रवृत्त तथा समस्त जीवों के प्रति श्रनुकम्पा के आचरण में प्रवृत्त हुआ उपयोग शुभोपयोग कहलाता है । ( २ ) शुभोपयोग में शुभ उपरागका प्रवर्तन है । ( ३ ) शुभ उपरागका निमित्त कारण मोहनीय कर्मको क्षयोपशमदशा है । ( ४ ) श्रनन्तज्ञानादिचतुष्टयसहित सकलपरमात्मा के गुणों में विनय शास्था अनुराग भक्ति होना श्रद्भक्ति है । (५) ज्ञानावरणादि ग्रष्ट कर्मसे रहित, सम्यक्त्वादिक ऋष्ट गुण में अन्तर्भूत अनन्त गुणोंसे सहित ग्रात्मज्योतिके प्रति भक्ति होना सिद्धभक्ति है । ( ६ ) निष्परिग्रह, ज्ञानार चारादि पांच श्राचारोंके धारणहार साधुजनोंके गुणों में भक्ति होना साधुभक्ति है । ( ७ ) स स्थावर जीवोंके प्रति दयाभाव होना अनुकम्पा है ।
सिद्धान्त - ( १ ) शुभोपयोग श्रात्माका विभाव परिणमन है । ( २ ) शुभोपयोगका निमित्त विशिष्ट क्षयोपशमदशा में रहने वाला मोहनीयकर्म है । ( ३ ) शुभोपयोगका श्राश्रयभूत कारण देव शास्त्र गुरु आदि होनेसे उनमें भक्ति होनेको शुभोपयोग कहा जाता है ।
दृष्टि-१- अशुद्धनिश्चयनय (४७) | २ - उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय, निर्मि दृष्टि (२४, ५३८ ) । ३- पराधिकरणत्व असद्भूत व्यवहार (१३४) ।
प्रयोग-- विशुद्ध निराकुल होनेके लिये अशुभोपयोग से हटकर शुभोपयोग के भावोंसे गुजरकर शुद्धोपयोगी होनेका पौरुष होने देना ।। १५७ ॥
शुभयोगका स्वरूप कहते हैं [ यस्य उपयोगः ] जिसका उपयोग [विषयeuterone: ] far कषायमें मग्न है, [दुःश्रुतिदुश्चित्तदुष्टगोष्टितः ] कुश्रुति, कुविचार और
Page #315
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका
शुभयोगस्वरूपं रूपयति-
विसयकसाथोगाढो दुस्सुदिदुचित्तदुट्टगोठिजुदो । उग्गो उम्मग्गपरो उपयोगो जस्त सो महो ॥ १५८ ॥ विषयकषायविरंजित, चिन्तन सेवन श्रवरण मलीमस हो ।
३०१
उग्र उन्मार्गगामी उपयोग अशुभ जीवका है ॥ १५८ ॥
गाढो दुःश्रुतिदृषिदुष्टगोष्टियुतः । उग्र उन्मार्गपर उपयोगो यस्य सोऽशुभः ॥ १५८ ॥ .. विशिष्टोदयदा विश्रान्तदर्णन चारित्रमोहनीयपुद्गलानुवृत्तिपरत्वेन परिग्रहीताशोभनोपरागत्वात्परमभट्टारक महादेवाचि देवपरमेश्वरार्हत्सिद्धसाधुभ्योऽन्य त्रोन्यागंश्रद्धाने विषयकषायदुःश्र दुराशयदुष्ट से वनोग्रताचरणे च प्रवृत्तोऽशुभोपयोगः ।। १५८ ।।
Sataissancer भोगाढ हुस्सुदिदुच्चित्त दुट्टगोङिजुद उग्ग उम्मग्गपर उओग ज त असुह | धातुसंज्ञ- कस तन् करणे । प्रातिपदिक विषयकसायावगाढ दुःश्रुतिदुश्चित्तदुष्टगोष्टियुक्त उम्र उन्मार्गपर यत् तत् अशुभ | मूलधातु विसित्र बन्धने, कष सन् करणे । उभयपदविवरण -- बिसयकसाओविषयकषायावगाढः दुस्सुदिदुश्चित्तदृगोजुद दु:श्रुतिदृश्चित्तदुष्ठगोष्ठियुतः उग्गो उग्र: उम्मग्गपरी जन्मापरः उवओ उपयोगः सो सः असुहो अशुभः प्रथमा एकवचन । जस्स यस्य-षष्ठी एकवचन ।
- विषिण्वन्ति संबध्नन्ति स्वात्मकतया विषयिण इति विषयाः कषन्ति आत्मानं ये इति कषायाः, गोष्ठः स्त्रियां ङीप गोष्ठ समुहे भ्वादि, ओचनं उग्रः उन् प्रचण्डे दिवादि उच्+र गादेशः 1 समास-विषयाश्च कपायाश्व इति विषयकषायाः तेषु अवगाढः इति विषयकषायावगाढ़ || १५५ ।।
कुसंगति में लगा हुआ है. [ उग्रः ] उग्र है तथा [ उन्मार्गपरः ] उन्मार्ग में लगा हुआ है, [स: भः] वह उपयोग अशुभोपयोग है ।
तात्पर्य - विषयकषाय में लोन उपयोग प्रशुभोपयोग है ।
टीकार्थ -- विशिष्ट उदयदशा में रहने वाले दर्शन मोहनीय और चारित्रमोहनीयरूप पु धनुसार परिणतिमें लगा होनेसे अशुभरागको ग्रहण करनेसे परम भट्टारक, महादेवाविदेव परमेश्वर त सिद्ध और साधुको छोडकर श्रन्य-उन्मार्गको श्रद्धा करने में तथा विषय, कुश्रवण, कुविचार और कुसंग और उग्रताका प्राचरण करने में प्रवृत्त हुया उपयोग भोपयोग है ।
-प्रसंगविवरण- घनन्तरपूर्व गाथामें शभोपयोगका स्वरूप बताया गया था। अब इसमें योग के स्वरूपका प्ररूपण किया गया है।
तथ्यप्रकाश - ( १ ) विपरीत मार्गके श्रद्धानमें प्रवृत्त हुआ उपयोग अशुभोपयोग है । (२) विषय, कषाय, कुशास्त्रश्रवण- खोटा श्रवण, अपध्यानादिक खोटा श्राशय, कुसंग व
Page #316
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०२
SERIESwimms
n
o
Hornemo
admin
सहजानन्दशास्त्रमालायां अथ परद्रव्यसंयोगकारणविनाशमभ्यस्यति----
अनुहोवोगरहिदो सुहोवजुत्तो रण अण्णदवियम्हि । होज मज्झत्थोऽहं गाणप्पगमप्पगं झाए ॥ १५६ ॥
अशुभोपयोगविरहित, शुभोपयोगी न हो परार्थोंमें ।
मैं मध्यस्थ रहूं अरु, ज्ञानात्मक प्रापको घ्याऊँ ॥१५॥ अशुभोपयोगरहित: शुभोपयुक्तो न अन्यद्रव्ये । भवन्मध्यस्थोऽहं ज्ञानात्मकामात्मकं ध्यायामि ।। १५६ ।।
यो हि नामायं परद्रव्यसंयोगकारणत्वेनोपयस्तोऽशुद्ध उपयोगः स खलु मन्दतीद्रोदय. दशाविश्रान्तपरद्रव्यानुवृत्तितन्त्रत्मादेव प्रवर्तते न पुनरन्यस्मात् । ततोऽहमेषसर्वस्मिन्नेव परद्रव्ये
नामसंज--- असुहोवओगरहिद सुहोवजुत्त ण अण्णदविय मज्भत्य णाणपग अप्पय । धातुसंज-हो सत्तायां, झा प्रातिपदिक-अशुभोपबोगरहित शुभोपयुक्त न अन्यद्रव्य मध्यस्थ ज्ञानात्मक आत्मक । मूलधातु... भू सत्तायां, व्य ध्याने' रह त्यागे भ्वादि। उभयपदविवरण- अाहोवओगरहिओ अशुभोपयोगउग्रताके प्राचरणमें प्रवृत्त हुग्रा उपयोग अशुभोपयोग है । ( ३ ) सहजात्मस्वरूप व उसके साधनों साधकों व सिद्धोंके अतिरिक्त अन्य जीवोंमें देवत्व ब गुरुत्वका श्रद्धान विपरीत मार्ग है। ( ४ ) अशुभोपयोगमें अशुभ उपरागका ग्रहण हैं। (५) अशुभ उपराम होनेका निमित्त कारण मोहनीयकर्मका उदयविशेष है । (६) प्रात्मस्वभाव विषयकषाय आदि विभावोंसे रहित शुद्ध चित्प्रकाश है उसके विरुद्ध है उक्त सर्वचेष्टायें, अत: ये सब विपरीत मार्ग हैं ।
सिद्धान्त-(१) अशुभोपयोगके परिणाम प्रोषाधिक व विकृत भाव हैं।
दृष्टि-१-- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रध्याथिकनय, उपचरित अशुद्ध असद्भुत व्यवहार (२४, ७५)।
प्रयोग—अात्मरक्षाके लिये अत्यंत हेय अशुभोपयोगसे पूर्णतया हटकर शुभोपयोगमें रहबार शुद्धोपयोगके लाभके लिये पौरुष करना ।।१५।।
अब परद्रव्य के संयोगके कारणके विनाशका अभ्यास करते हैं—[अन्य द्रव्ये अन्य द्रव्यमें [मध्यस्थः] मध्यस्थ [भवन्] होता हुअा [अहम्] मैं [अशुभोपयोगरहितः] अशुभोपपयोगसे रहित हुअा, तथा [शुभोपयुक्तः न] शुभोपयुक्त न होता हुअा [ज्ञानात्मकम्] ज्ञानस्वरूप [आत्मकं] प्रात्माको [ध्यायामि ध्याता हूं ।
तात्पर्य----प्रशुद्धोपयोगसे रहित होकर ज्ञानस्वरूप प्रात्माको आराधनासे परद्रव्यसंयोग
munANHAIMondnternatantanseminamomdanculinitionmamminedeminine
m
M RAKARoomwwimwww
हटता है।
टोकार्थ---- जो यह १५६वीं मायामें परद्रव्यके संयोगके कारणरूप में कहा गया अशुद्धो.
Page #317
--------------------------------------------------------------------------
________________
ॐ
प्रवचनसार-सप्तदनांगी टोका मध्यस्थों भवामि ! एवं भवंश्चाहं परद्रव्यानुवृतितन्त्रत्वाभावात् शुभेनाशुभेन वाशुद्धोपयोगेन निम्तो भूत्वा के बलम्नद्रव्यानुवृत्ति परिग्रहात प्रसिद्धगद्धोपयोग उपयोगात्मनात्मन्येव नित्यं निचलमुपयुक्तस्तिष्ठामि । एपं मे परद्रव्यसंयोगका विनाशा यासः ॥१५६।। रहितः सहोवत भभोपयुक्तः ममत्यो मध्यस्थः अ-प्रथमा एकवचन । एन- अध्याय अभादवियाम्हि अन्यद्रव्ये-मरतमी एकचन । होज्ज भूत्वा-असमानिकी किया कृदन्त । णाणपगं ज्ञानात्मक अवगं . जाक द्वितीया एक वचन : माये व्यायामि-वनमान उन्लम चुप कवचन क्रिया । निरुक्ति- गोमन अभः, इति द्रोरति अदुव पर्यायान् इति द्रव्यं । समास-मभचामो उपयोगः अशुभोपनोगः तेन रहितः ॥ मध्ये तिष्ठति इति माथः, शुभे उपयुक्त नभोपयुक्त१५६।। प्रयोग है यह वास्तवमें मन्द तीव्र उदयदशामें रहने वाले परद्रव्यानुसार परिणसिके प्राचीन होनेसे ही प्रवर्तता है, अन्य कारण नही । इसलिये यह मैं समस्त परद्रव्य में मध्यस्य होऊ और इस प्रकार मध्यस्थ होता हुआ मैं परद्रश्यानुसार परिणतिके प्राधीन न होने से शुभ अथवा प्रणभ-अशुद्धोपयोगसे मुक्त होकर, मात्र स्वद्रभ्यानुसार परिणतिको ग्रहण करने में प्रसिद्ध हुना है शुभोपयोग जिसको ऐसा यह मैं उपयोगस्वरूप निजस्वरूपके द्वारा प्रात्मामें हो सदा निश्चततया उपयुक्त रहता हूं। यह मेरा परद्रव्य के संयोगके कारणके विनाशका अभ्यास है।
प्रसंगविवरण-अनन्तर पूर्व गाया में अमोपयोग के स्वरूपका प्ररूपण किया गया था। अब इस गाधामें परसंयोगके कारगाके विनाशका अभ्यास कराया गया है ।
तथ्यप्रकाश-(१) अशुभोपयोग व शुभोपयोग दोनोंको अशुद्धोपयोग कहते हैं । (२) मसुद्धोपयोग कर्मोदय के निमित्तसे एवं परद्रव्योंके अवलम्बनसे प्रकट होता है, अतः समस्त परद्रव्योंमें मध्यस्थ होनेपर अशुद्धोपयोगसे छुटकारा मिलेगा । (३) जब किसी परपरिणतिके साधीन यह प्रात्मा न होगा तो अशुद्धोपयोगसे मुक्त होकर केवल स्वद्रव्यमें मग्न रहेगा । MY) मात्र स्वद्रव्यमें मग्न होने को शुद्धोपयोग कहते हैं । (५) अशुद्धोपयोगसे छूटकर निज सहज
तन्यस्वरूपमें आत्मत्वको अनुभव ना, यह पर द्रव्य के संयोगके कारणका विनाश करने का प्रमोघ तात्र है। (६) परविषयक समस्त विकल्प छोड़कर स्वरसत: ज्ञानसे रचे ज्ञानात्मक निज परमात्मद्रव्यको ज्ञान ष्टि से निरखना शुद्ध उपयोग है।
सिद्धान्त--(१) उपाधिका अभाव होने पर शुहोपयोग प्रकट होता है ।
दृष्टि----- उपाध्यभावापेक्ष शुद्ध द्रव्यायिकनय (२४अ)। EMA प्रयोग---शरीर प्रादि सब पदार्थोंमें राग द्वेष न कर, सहजानन्दमय ज्ञान स्वरूप निज
परमात्मद्रव्यमें उपयुक्त होना ।।१५६।।
।
मान
www
300mARA
Page #318
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०४
सहजानन्दशास्त्रमालायां
अथ शरीरादावपि परद्रव्ये माध्यस्थं प्रकटयति-
गाहं देहो ण मणो ण चैव वाणी ण कारणं तेसि | कत्ता कारयिदा मंता गोव कत्तीणं ॥ १६०॥
देह न मन नहि वाणी, उनका कारण भि हूं नहीं मैं यह ।
कर्ता न कारयिता, कर्ताका हूँ न अनुमोदक ।। १६० ।।
नाहं देहो न मनो न चैव वाणी न कारणं तेषाम् । केही न न कारयिता अनुमन्ता नंद कतु णाम् ।। १६० ।। शरीरं च वाचं च मनश्च परद्रव्यत्वेनाहं प्रपद्ये ततो न तेषु कश्चिदपि मम पक्षपातो. ऽस्ति । सर्वाप्यहमत्यन्तं मध्यस्थोऽस्मि । तथाहि(---न खल्वहं शरोरवाङ्मनसां स्वरूपाघार भूतमचेतनद्रव्यमस्मि तानि खलु मां स्वरूपाधारमन्तरेणाप्यात्मनः स्वरूपं धारयन्ति । ततोऽहं शरीरवाड़ मनःपक्षपानमपास्यात्यन्तं मध्यस्थोऽस्मि । न च मे शरीरवाङ्मनः कारणा वेतनद्रव्य स्वमस्ति लानि खलु मां कारणमन्तरेणापि कारणवति भवन्ति । ततोऽहं तत्कारणत्वातम
नामसंज्ञ- अहं देह ण मग ण न एक वाणी छ कारण त कत्तार ण ण कारविहार अणुमंतार
अब शरीरादि परद्रव्यमें भी माध्यस्य भाव प्रगट करते हैं-- [ अहं न देहः ] मैं न देह हूँ. [न] मनः ] न मन हूं, [च] और [न एवं वारणी ] न वाणी ही हैं; [तेषां कारण न] उनका कारण नहीं हूं [कर्ता न] कर्ता नहीं हूँ. [ कारयिता न] कराने वाला नहीं है; [कां प्रतुमन्ता न एवं ] और कर्ताका अनुमोदक भी नहीं हूं ।
तात्पर्य -- मैं परद्रव्यसे अत्यंत निराला हूँ ।
टोकार्थ -- मैं शरीर, वाणी और मनको परद्रव्यके रूपसे समझता हूं, इसलिये मुभ उनके प्रति कुछ भी पक्षपात नहीं है। मैं उन सबके प्रति अत्यंत मध्यस्य हूं | स्पष्टीकरण-वास्तव में मैं शरोर, वाणी और मनके स्वरूपका ग्राधारभूत श्रवेतन द्रव्य नहीं हूं, वे वास्तव में मु स्वरूपाधारके बिना ही अपने स्वरूपको धारण करते हैं। इसलिये मैं शरीर, वाणी और मनका पक्षापत छोड़कर अत्यन्त मध्यस्थ हूं। और मेरे शरीर वाणी तथा मनका कारण भूत वेतनद्रव्यपता नहीं है । ये निश्वयतः मुझके कारण हुए बिना ही कारणवान हैं। इस कारण उनके कारणत्वका पक्षपात छोड़कर यह में अत्यन्त मध्यस्थ हूं। और मेरे स्वतंत्र शरीर, वाणी तथा मनका कर्ताभूत असेननद्रव्यपना नहीं है। वे निश्चयतः मुमके कारण हुए बिना ही किये जाते हैं। इस कारण उनके कर्तृस्वका पक्षपात छोड़कर यह मैं प्रत्यन्त मध्यस्थ हूं। और मेरे स्वतन्त्र शरीर, वाणी तथा मनका कारकभूत प्रचेतन द्रव्यका प्रयोजकपना नहीं है । वे निश्चयतः मुझ कारक प्रयोजकके बिना ही अर्थात् मैं उनके कर्ताका प्रयोजक हुये बिना
1
Page #319
--------------------------------------------------------------------------
________________
SARASirisisesianRail
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका पास्यास्म्ययमत्यन्तं मध्यस्थः । न च मे स्वतन्त्रशरीरवाङ्मन:कारकाचेतनद्रव्यत्वमस्ति, तानि खलु मो कर्तारमन्तरेणाभि क्रियमाणानि । ततोऽहं तत्कर्तृत्वपक्षपातमपास्यास्म्ययमत्यन्तं मध्य. स्थः । न च मे स्वतन्त्र शरीरवाइमन कारकाचेतन द्रव्यप्रयोजकत्वमस्ति, तानि खलु मां कारकप्रयोजकमन्तरेणापि क्रिपमाणानि । ततोऽहं तत्कारकप्रयोजकत्वपक्षपातमपास्यास्म्ययमत्यन्त मध्यस्थः । न च मे स्वतन्त्रशरीरवाङ्मनःकारकाचेतन द्रव्यानुज्ञातृत्वमस्ति, तानि खलु मां कारकानुज्ञातारमन्तरेणापि क्रियमाणानि ततोऽहं तत्कारकानुज्ञातृत्वपक्षपातमपास्यास्म्ययमत्यत मध्यस्थ।। १६० ॥ ण एवं कत्तार । धातुसंज-कर करो. मन्न अवबोधने। प्रातिपदिक...न अस्मत देह न मनस् न च एव वाणी न कारण तत् कर्तृ न न कारयित अनुमंतृन एवं कर्तृ । मलधातु- डुकृत्र करो. मनु अवबोधने । उभयपदविवरण...ा न एच-अव्यय 1 अहं देहो देहः मणो मनः वाणी कारण कत्ता कर्ता कारयिदा कारयिता अणुमंता अनुमंता-प्रथमा एकवचन । तेसिं तेषां कत्तीर्ण कर्तृणाम्-पष्ठी बहुवचन । निरुक्तिदिह्यते यः स देहः दिह उपचये, मन्यते बुध्यते अनेन इति मन:, वणनं वाणी वण शब्दे ।। १६० ॥ हो वे बास्तवमें किये जाते हैं। इस कारण यह मैं उनके कर्ताके प्रयोजकत्वका पक्षपात छोड़कर अत्यन्त मध्यस्थ हूं 1 और मेरे स्वतन्त्र शरीर, वाणी तथा मन का कोरकभूत अचेल नद्रव्य का अनुमोदकपना नहीं है। निश्चयत: वे मुझ कारक-अनुमोदकके बिना ही अर्थात् उनके कर्ताका अनुमोदक हुये बिना ही किये जाते हैं। इस कारण उनके कर्ताके अनुमोदक होनेका पक्षपात छोड़कर यह मैं अत्यन्त मध्यस्थ हूं।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें परद्रव्यके संयोगके कारणभूत प्रशद्धोपयोगके विनाशका अभ्यास कराया गया था। अब इस गाथामें शरीरादिक परद्रव्यके विषय में माध्यEx स्थ्य भाव प्रकट किया गया है।
तथ्यप्रकाश-(१) मेरा शरीर प्रादि सर्व परद्रव्यों में माध्यस्थ्य भाव है। (२) शरीर, बचनमनको मैं परद्रव्यरूपसे जानता हूं। (३) परद्रव्यरूप शरीर वचन मन आदि समस्त पदार्थोंमें किसी में भी मेरा कुछ भी पक्षपात नहीं है । (४) मैं शरीर वचन मन के स्वरूपका साधारभूत नहीं हूं, वे सब मुझसे भिन्न हो अपने स्वरूपको धारण करते हैं । (५) मैं शरीर वचन मनका कारणभूत नहीं हूं, वे मुझ उपादानसे भिन्न ही अपने कारण वाले हैं । (६) मैं शारीर वचन मनका कर्ता नहीं हूं, वे मुझ कर्ताके बिना ही अपने उपादान मत अचेतन द्रव्य के द्वारा ही किये जाने वाले हैं। (७) मैं शरीर वचन मनका प्रयोजक नहीं हूं, वे मेरे प्रयोजनके बिना ही अपने उपादानभूत अचेतन द्रव्यके सत्त्वके प्रयोजनसे क्रियमारा हैं । (८) मैं शरीर वचन मनका अनुमोदक भी नहीं हूं, वे मुझ अनुमोदकके बिना ही क्रियमाण हैं । (६)
SESS
m
www
WITTE
ES8E
www
Page #320
--------------------------------------------------------------------------
________________
Em
सहजानन्दशास्त्रमालायां अथ शरीरवाइमनसा परद्रव्यत्वं मिश्चिनोति
देहो य मगो वाणी पोग्गलदव्यप्पग ति णिदिया । पोग्गलदव्वं हि पुणो पिंडो परमाणुदवाणं ॥१६१॥
देह लथा मरन वाणी, ये पुद्गलद्रव्यमय हैं बताये।
पुद्गलदाय अचेतन, प्रादों का पिण्ड यह सब है ॥१६१॥ देहश्च मनो काणी युद्गलद्रव्यात्मना इति निर्दिष्टाः । पुद्गलद्रव्यमपि पुनः पिण्डः परमाणद्रव्याणाम् ।१६॥
शरीरं च वाक घ मान एच त्रीपयपि पर द्रव्यं पुद्गलद्रव्यात्मकत्वात् । पुद्गलद्रव्यत्व न तेषी पुद्गलद्रव्यस्व लक्षशाभूलस्वरूपारितत्वनिश्चितत्वात् । तथाविधपुद्गलद्रव्यं त्वनेकपरमाणु
नामसंज्ञ-देह य मण वाणी पोग्गल्डर व्यपग ति णिट्टि पोग्गलदव्य' हि पुणो पिड परमारपुदम्य ।। धातुसंजनिर् दिस पेक्षो दाने च । प्रातिपदिक-देह च मनस् वाणी पुद्गलद्रव्यात्मक इति निदिष्ट पुद्गलद्रव्य हि पुनर् पिण्ड परमाणु द्रव्य । मूलधातु-निर दिर अतिसर्जने । उभयपदविवरण देहो देह मणो मन: वाणी पोग्गलदव्वं पुद्गलद्रव्यं पिद्धो पिण्ड:-प्रथमा एकवचन । पुग्गलदब्धप्पगे-प्रथमा बहु०।मैं शरीर वचन मनका न कता हूं, न कराने वाला हूं, न करने वालेको अनुमोदने वाला है, अत: शरीरादि समस्त परद्रव्यके प्रति मैं अत्यन्त सध्यस्थ हूं।
सिद्धान्त--प्रात्मा शरीरादिका कर्ता प्रादि नहीं है। दृष्टि----१- प्रतिषेधक शुभनय (४६) ।
प्रयोग--किसी भी परद्रव्यसे अात्माका किसी भी कारकरूप सम्बन्ध नहीं, अतः । समस्त परद्रव्योंको अप्रयोजक मान कर किसी भी परद्रव्यमें रागद्वेष न करना, मध्यस्थ रहना ॥१६० ॥
अब शरीर, वाणी और मन का परद्रध्याना निश्चित करते हैं- [देहः मनः च पाणी देह, मन और वाणी [पुद्गल द्रख्यात्मका:] पुद्गल द्रव्यात्मक [इति निर्दिष्टाः] हैं, ऐसा सर्वज्ञ देवने कहा है [अपि पुनः] और [पुद्गल द्रव्यं] थे पुद्गल द्रव्य [परमाणुद्रव्यारणां पिण्ड परमाणुद्रव्योंका पिण्ड है।
तात्पर्य-शरीर वचन व मन गुद्गलद्रव्यात्मक हैं और आत्मासे अत्यन्त भिन्न हैं।
टोकार्थ-शरीर वालो और मन सोनों ही परद्रय हैं, क्योंकि ये पुद्गल द्रव्यात्मक हैं। उनके पुद्गलद्रव्यपना है, क्योंकि वे पुद्गलद्रव्य के स्वलक्षणभूत स्वरूपास्तित्व में निश्चित हैं । और उस प्रकारका पुद्गलद्रव्य अनेक परमाणु द्रव्यों का एक पिण्ड पर्यायरूपसे परिणाम है, क्योंकि अनेक परमाणुद्रच्योंके स्वलक्षण भूत स्वरूपास्तित्व अनेक होनेपर भी कथंचित् अति । स्निग्धत्व-रूक्षत्वकृत बन्च परिणामको अपेक्षासे एकत्वरूप अवभासित होते हैं।
लाकार
ददनालडक
PRIKONMIndikinnasamunismARKARRA
Page #321
--------------------------------------------------------------------------
________________
BASSETTE
प्रवचनसार....सप्तदशाङ्गी टीका
३०७ द्रियाणामेकपिष्टपर्याय हा परिणामः । अनेकपरमारगुद्रव्यत्वलक्षणभूतस्वरूपास्तित्वातामनेकत्वेअपि कथंचिदेकत्वेनाव भासनात् ।।१६१॥ य च त्ति इति हि-अव्यय । निर्दिष्टा:-प्रथमा बहुबचन कृदन्त क्रिया : परमाणुयाम परमाणुद्रव्याणपष्टी बहु० । निरुक्ति ---लिण्डन पिण्ड: पिडि संघात स्वादि। समास-गुगलद्रव्यं आत्मकं येषां ते पुद् लद्रव्यात्मकाः ।! १६१ ।।
प्रसंगविवरण- अनन्तरपूर्व गाथा में शरीरादिके प्रति अत्यन्त माध्यस्थ भाव प्रकट किया गया था । अब इस गाथामें शरीरादिका परापना सुदृढ़ निश्चित किया गया है ।
म तथ्यप्रकाशा--(१) शरीर, वचन और मन नीनों ही पुद्गलद्रव्याप होनेसे परद्रव्य है। (२) यद्यघि ध्यदहारसे जीवके साथ शरीर वचन मनका एकत्व है, किन्तु निश्चयतः परम
तत्यप्रकाशवृत्तिलक्षण वाले जोबसे शरीरादि अत्यन्त भिन्न हैं। (३) शरीर, वचन, मन पुद्गलद्रव्य के स्वरूपास्तित्वसे निश्चित हैं, अतः पुद्गल द्रव्यरूप हैं। (४) शरीर वचन मनको
ऐसो पिण्डरूप रचना अनेक परमाणुद्रव्यों के एक पिण्डरूप पर्यायसे बनी है । (५) शरीरादि anकी इस पिण्डरूप एक स्कन्धकी दशामें भी अपने अपने स्वरूपास्तित्वसे अनेक परमाणुबोका अपना-अपना सत्त्व है । (६) ये शरीरादि मुझसे अत्यन्त पृथक् हैं ।।
सिद्धान्त --- (१) प्रात्मा अपने चैतन्यमय स्वरूपास्तित्व से ही है । (२) प्रात्मा अचेतनद्रव्यके स्वरूपसे नहीं है । (३) प्रात्माका स्वरूप प्रखण्टु चैतन्यप्रकाश है।
* दृष्टि--१- स्व द्रव्यादिग्राहक द्रव्यायिकनय (२८) । २- परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यायिक नयः (२६) 1 :- परमभावग्राहक द्रव्याथिकानय (३०) ।
प्रयोग-समस्त परद्रव्योंसे उपयोग हटाकर अपने स्वरूपमें ही उपयुक्त होना ।।१६१।।
अब प्रात्माके परद्रव्यपनेका प्रभाव और परद्रव्यके कपिनको अभाव सिद्ध करते --अहं पुदगलमयः न] मैं पुद्गलमय नहीं हूं, और ते पुद्गला:] वे पुद्गल [मया मेरे मारा [विण्डं न कृताः] पिण्डरूप नहीं किये गये हैं। तस्मात् हि] इस कारण निश्चयतः प्रहं न वेहः] मैं देह नहीं हूं, [वा] तथा [तस्य देहस्य कर्ता] उस देहका की नहीं हैं।
तात्पर्य- मैं देह नहीं हूँ और न देहका कता हूं, क्योंकि देह पुद्गलमय है ।।
टोकार्थ-..-जिसके भीतर वाणी और मनका समावेश हो जाता है ऐला जो यह प्रक. समें निर्धारित पुद्गलात्मक शरीर नामक परद्रव्य है. वह मैं नहीं हूं; क्योंकि मुझ अपुद्गला. मकका पुद्गलात्मक शरीररूप होनेमें विरोध है । और इसी प्रकार उस शरीरके कारण द्वारा, कर्ता द्वारा, कर्ताके प्रयोजक द्वारा या कर्ता के अनुमोदक द्वारा शरीरका कर्ता में नहीं हूं, क्योंकि
।
C....
25 Emaka
im
Page #322
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०८
सहजानन्दशास्त्रमालायां प्रथात्मनः परद्रव्यत्वाभावं परद्रव्यकर्तृत्वाभावं च साधयति-.
णाहं पोग्गलमयो ण ते मया पोग्गला क्या पिंडं । तम्हा हि गा देहोऽहं कत्ता वा तस्स देहस्स ॥१६२॥ मैं पुद्गलमय नहि हुँ, न वे किये पिण्ड पौद्गलिक मैंने ।
इससे मैं देह नहीं, नहिं हूँ उस देहका कर्ता ।। १६२ ॥ नाहं पुद्गलमयो न से भया पुद्गलाः कृता: पिण्डम् । तस्माद्धि न बेहोऽहं कर्ता बा तस्य देहस्य ।। १६२.।।
यदेतत्प्रकरणनिर्धारितं पुद्गलात्मकमन्तीतवाङ्मनोद्वैतं शरीरं नाम परद्रव्यं न तावः । दहमस्मि, ममापुद्गलमयस्य पुद्गलात्मकशरीरत्वविरोधात् । न चापि तस्य कारणद्वारा की द्वारे कर्तृप्रयोजकद्वारेण कर्बनुमन्तृद्वारेण वा शरीरस्य कहिमस्मि, ममानेकपरमारशुद्रव्यक पिण्डपर्यायपरिणामस्याकतु रनेकपरमारगुद्रच्य कपिण्डपर्यायपरिणामात्मक शरीरकर्तृत्वस्य सर्वथा विरोधात् ॥१६२॥
नामसंज्ञ—ण अम्ह पोग्गलमइअ ण त अम्ह पोम्गल कय पिड त हि ण देह अह कत्तार व त देश। धातुसंश-कर करणे । प्रातिपदिक- न अस्मत् पुद्गलमय न तत् अस्मत् पुदगल कृत पिण्ड तत् हिम देह अस्मत् कर्तृ वा तत् देह । मूलधातु- डुकृत करो । उभयपदविवरण---ण न हि वा-अव्यय । अहं पोमा.. लमइओ पुदगलमयः देहो देहः अहं कत्ता कर्ता-प्रथमा एकवचन । ते पोग्गला युद्गला:-प्रथमा बह। मया-तृतीया एक० । कृता:-प्रथमा बहु० कृदन्त क्रिया । पिंडं पिण्डं-त्रियाविशेषण पिण्डं यथा स्यात्तथा । तम्हा तस्मात-पंचमी एक० । तस्स तस्य देहस्स देहस्थ-पाली एकवचन । निरुक्ति-पूरयन्ति गलन्ति इति पुद्गला: पूरी आप्यायने गल सको, दिह्यते उपञ्चीयते असौ इति देहः दिह उपचये, पुद्गलेन निवृत्त इति पुद्गलमयः ॥१६२॥ . अनेक परमाणु द्रव्योंके एकपिण्ड पर्यायरूप परिणामका न करने वाले मेरे के अनेक परमाणु । द्रव्योंके एकपिण्ड पर्यायरूप परिणामात्मक शरीरका कर्ता होने में सर्वथा विरोध है ।।
प्रसङ्गविवरण----अनन्तरपूर्व गाथा शरीर वचन मनका परद्रव्यत्व निश्चित किया। गया था। अब इस गाथामें बताया गया है कि प्रात्मामें न तो परद्रव्यपना है और न परद्रव्य का कर्तापना है !
तथ्यप्रकाश--(१) मैं प्रात्मा हूं, चैतन्यस्वरूप हूँ। (२) मैं पुद्गलात्मक शरीररूप नहीं हूं 1 (३) जब मैं शरीररूप नहीं तो वचन व मनरूप तो हो ही कैसे सकता हूं, वचन व मनका तो शरीरमें ही समावेश हो जाता है । (४) पुद्गल और में परस्पर अत्यन्त भिन्न भिन्न है । (५) मैं पुद्गलात्मक शरीरका न कर्ता हूं, न कारण हूं, न कराने वाला हूं, न शरीरके कर्ताका अनुमोदक हूं। (६) मैं अमुर्त चैतन्यमात्र अनेकपरमामुद्रव्येक पिण्डपर्यायरूप देहका
mirmire wwmmsमाम
Page #323
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार--सप्तदशांगी टीका अथ कथं परमाणुद्रव्याणां पिण्डपर्यायपरिणतिरिति संदेहमपनुदति----
अपदेसो परमाणु पदेसमेत्तो य सयमसदो जो । णिद्धो वा लुक्खो वा दुपदेमादित्तमाणुहदि ॥१६३॥ परमाणु अप्रदेशी, एकप्रदेशी ,स्वयं अशब्द कहा।
स्निग्धत्य रूक्षतावश, द्विप्रदेशादित्व अनुभवता ॥१६३॥ प्रदेशा, परमाणुः प्रदेशयात्रश्च स्वयमशब्दो यः । स्निग्धो बा रूक्षो वा द्विप्रदेशादित्वमनुभवति ॥१६॥ amisa... परमाणुहि द्वयादिप्रदेशानामभावादप्रदेशः, एकप्रदेशसद्भावात्प्रदेशमात्रः, स्थयमनेक
परमाणद्रव्यात्म कशाब्दपर्यायव्यक्त्यसंभवाद शब्दश्च । यतश्चतुःस्पर्श पञ्चरसद्विगन्धपञ्चवर्णनामme नामसंज-अपदेस परमाणु पदेसमेत य सयं असद्द ज णि वा लुक्ल बा दुपदेसादित्त । धातुसंज्ञअसा हक सत्तायो, सट्ट आहाने । प्रातिपदिक-अप्रदेश परमाणु प्रदेशमात्र च स्वयं अशब्द यत् स्निग्ध वा उस दिप्रदेशादित्व । मूलधातु-- अनु भू सत्तायां, शप शब्दे । उभयपदविवरण-अपदेसो अप्रदेशः परमाणू परमाणुः पदेसमेत्तो प्रदेशमात्रः असदो अशब्द: जो यः गिद्धो स्निग्धः लुक्खो रूक्ष:--प्रथमा एकवचन । य बिबाल भी कर्ता नहीं हो सकता । (७) पुद्गलपिण्ड परिणामात्मक शरीरके का निश्चयत: पुदगलद्रव्य ही हैं।
सिद्धान्त– (१) आत्मा शरीरका कर्ता कारयिता कारण प्रादि कुछ भी नहीं है। T) जीवको शरीरका कर्ता आदि कहना उपचार है।
ष्टि-१- प्रतिषेधक शुद्धनय (४६अ) । २- परकर्तृत्व उपचरित असद्भूत व्यवहार
MI प्रयोग-परद्रव्यस अत्यन्त विविक्त आत्माको मात्र अपने परिणमनका कर्ता निरमना ॥१६२१॥ ४. अब "परमाणुद्रव्योंकी पिण्डपर्यायरूप परिणति कैसे होती है" इस संदेहको दूर करते
परमाणुः] परमाणु [यः अप्रदेशः] जो कि अप्रदेश है, [प्रदेशमात्रः] एक प्रदेशमात्र है, | और स्वयं अशब्दः] स्वयं शब्दरहित है, [स्निग्धः वा रुक्षः वा] वह स्निग्ध अथवा स्म होता हुआ [द्विप्रदेशादित्वम् अनुभवति] द्विप्रदेशादित्वका अनुभव करता है ।
तात्पर्य - एकप्रदेशी परमाणु संघातयोग्य स्निग्धता व रूक्षताके कारण द्वयक प्रादि स्कन्ध हो जाता है।
टोकार्थ-वास्तव में परमाणु दो-तीन प्रादि प्रदेशोंका प्रभाव होनेसे अप्रदेश है, एक प्रदेशका सद्भाव होनेसे प्रदेशमात्र है, और स्वयं अनेक परमाणु द्रव्यात्मकशब्दपर्यायको प्रगटता
Page #324
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां
विरोधेन सद्भावात् स्निग्धो वा रूक्षो वा स्यात् । तत एव तस्य पिण्डपर्यायपरिणतिरूपा विप्रदेशादित्वानुभूतिः । अधव स्निग्धरूक्षत्वं पिण्डत्वसाधनम् ॥१६३॥ च सयं स्वयं बा-अव्यय । दुपदेशादितं द्विवदेशादित्वं-द्वितीया एकवचन । अादि अनुभवति-वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन विया । निरुक्ति-- शपन शब्दः, यो यः स शन्दः, प्रदेशमात्रभाविस्पर्शादिपर्याय । प्रसपसामर्थेन अण्यते शब्यते इति अगु: अण सध्दे। समास–ने प्रदेशः (एकेनाधिकः प्रदेश:) यस्य । अप्रदेशः, न शब्द: इति अशब्दः ।।१६६।६।। का असंभव होने अशब्द है। चूंकि वह परमाणु चार स्पर्श, पाँच रस, दो गंध और पाँच वोंके अविरोधपूर्वक सद्भाबके कारण स्निग्ध अथवा रूक्ष होता है, इस कारण उसके पिण्डः पर्याय परिणतिरूप द्धिप्रदेशादित्वको अनुभूति होती है। अब इस प्रकार स्निग्धरूक्षत्व पिण्ड, पनेका कारण हुआ।
प्रसंग विवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें आत्मामें परद्रव्यपनेका प्रभाव व परद्रव्य के कत स्वका अभाव बनाया गया था। अब इस माथामें यह बतलाया गया है कि परमाणुद्रव्योंकी पिण्डपर्यायपरिणति कसे होती है।
तथ्यप्रकाश----(१) परमाणु एकप्रदेशी होता है । (२) परमाणु शब्दरहित है, क्योंकि । शब्दकी व्यक्ति स्कन्धमें ही हो सकती है, परमाणु में नहीं । (३) परमाणुवोंमें चार स्पर्श, पाँच रस, दो गन्ध व पान रूप अविरोधरूपसे रहते हैं, सो स्निग्धत्व व रूक्षत्व तो परमाणुमें होता ही है । (४) परमारगुमें होने वाले स्निग्धत्त्व व रूक्षत्व गुणके ही कारण परमाणुवोंको पिण्ड पर्यायरूप परिणति होती है, जैसे कि अशुद्ध जीवके राग द्वेष के कारण कर्मबन्ध होकर नरना रकादिक पर्याय होतो है । (५) परमारसुवोंकी पिण्डपर्याय रूप परिगति होनेसे द्विप्रदेशीसे लेकर अनन्तप्रदेशी तकके स्कन्ध हो जाते हैं। (६) परमाणुवोंके पिण्डपना होनेका कारण परमाणुवों का स्निग्धपना व रूक्षपना है । (७) पिण्ड परिणमनविधिसे हो इन शरीर वचन मन आदि स्कन्धोंकी रचना बनी हैं, इनका मैं कर्ता आदि नहीं हूं।
सिद्धान्त ---- (५) शरीर, वचन, मन पौद्गलिक हैं । (२) पोद्गलिक स्कन्धोंका कर्ता कर्म करण आदि कारकपना पुद्गलोंमें ही है ।
दृष्टि–१ उपादान दृष्टि (४६ब)। २- कारककारकिभेदक शुद्ध सद्भूत व्यवहार
aaisa
- प्रयोग--पौद्गलिक पिण्डोंका कर्तृत्व प्रादि पुगलोंमें ही है ऐसा निरखकर उनका ।। प्रकर्तृत्व अपनेमें निश्चित कर उनका विकल्प छोड़ना और अपनेमें अपने को ज्ञानमात्र निहार कर परम विश्राम पाना ॥१६३॥
stomised
Page #325
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका
ae ater afterधरूक्षत्वं परमारगोतित्यावेदयति
एगुत्तरमेगादी गुस्स सिद्धत्तणं च लुक्खत्तं । परिणामादो भणिदं जाव तत्तमभवदि ॥ १६४ ॥
एकादिक एकोत्तर, अणुके स्निग्धत्व रूक्षता होतो । परिगतिस्वभाववशसे, जब तक भि अनन्यता होती ॥ १६४ ॥
३११
एकतरमेकाद्यणोः स्निग्धत्वं वा रुक्षत्वम् । परिणामाद्भूणितं यावदन्तत्वमनुभवति ॥ १६४ ॥ परमाणहि तावदस्ति परिणामः तस्य वस्तुस्वभावत्वेनानतिक्रमात् । ततस्तु परिणामादुपात कादाचित्कवैचित्र्यं चित्रगुणयोगित्वावर माणोरे कार्य कोत्तरानन्तावसाना विभागपरिच्छेदव्यापि स्निग्धस्वं वा रूक्षत्वं वा भवति ॥१६४॥
नामसंज्ञ- -- एगुत्तर एगादि अशुद्धित्त च वखत परिणाम भागद जाव अणतत्त । धातुसंज्ञ-अणु भव सत्तायां । प्रातिपदिक- एकोत्तर एकादि अणु स्निग्धत्व वा रूक्षत्व परिणाम भणित यावत् अनंतत्व । मूलघातु-अनु भू सत्तायां । उभयपदविवरण --एगादि एकादि एमुत्तरं एकोत्तरं मिद्धत्तण स्निग्धत्वं वखत रूक्षत्वं - प्रथमा एकवचन । अगुस्स अणोः पष्ठी एक परिणामादो परिणामातृ-पंचमी एक० । भणिदं भणितं प्र० एक० कृदन्त क्रिया । च जाय यावत् अभ्यय । अणतत्तं अनन्तत्वं - द्वितीया एकवचन | अशुभवदि अनुभवति - वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन किया । निरुक्ति स्निह्यति स्म यः सः ferre: fore stat दिवादि ष्णिह स्नेहते चुरादि || १६४||
अब परमाणुके वह स्निग्ध रूक्षत्व किस प्रकारका होता है, यह बतलाते हैं[रपोः] परमाणु [ परिणामात्] परिणमनके कारण [ एकादि] एक अविभाग प्रतिच्छेद से लेकर [ एकोतरं ] एक-एक बढ़ता हुआ [ स्निग्धत्वं वा रूक्षत्वं ] स्निग्धत्व अथवा रूक्षत्व [[भरितम् ] कहा गया है। [यावत् ] जब तक कि [ श्रनन्तत्वं अनुभवति ] अनन्त विभागप्रतिच्छेदपनेको प्राप्त होता है ।
तात्पर्य -- परमाणु एक डिग्रीसे प्रनन्त डिग्री तक्के स्निग्ध रूक्ष होते हैं ।
टीकार्थ- वास्तव में परमो के परिणमन होता है, क्योंकि वस्तुस्वभावपनेसे उसका उलंघन नहीं होता । इस कारण अनेक प्रकारके गुणों वाले परमार के परिणमनके कारण प्राप्त किया है क्षणिक वैचित्र्य जिसने ऐसा, एकसे लेकर एक-एक बढ़ते हुये अनन्त श्रविभागोप्रतिच्छेदों तक व्याप्त होने वाला स्निग्धत्व प्रथवा रूक्षत्व होता है ।
प्रसंगविवरण --- अनंतरपूर्व गाथा में परमाणुवोंका पिण्डरूप होनेका कारण परमाणुमें होने वाला स्निग्वत्व व रूक्षत्वको बताया गया था । अब इस गाथामें बताया गया है कि पर hariat a ferrera रूक्षत्व पिण्डरूप होनेका अर्थात् परस्पर बस्थ होनेका कारण कैसे
Page #326
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१२
सहजानन्दशास्त्रमालायां
अयात्र कीदृशास्निग्धरूक्षत्वापिण्डत्वमित्यावेदयति---
णिद्धा वा लुक्खा वा अणुपरिणामा समा व विसमा वा । समदो दुराधिगा जदि बज्झति हि अादिपरिहीणा ॥१६५॥ रूक्ष हो स्निग्ध हो अणु-के वे परिणाम सम व विषम हो।
समसे द्वधधिक हो यदि, बंधते हैं किन्तु आदि रहित ॥१६५।। स्निग्धा वा रूक्षा या अशुपरिणामाः सभा वा विषमा वा । समतो द्वयधिका यदि बध्यन्ते हि आदिपरिः
हीना: ।।१६५ समतो द्वयधिकगुणाद्धि स्निग्धरूक्षत्वाबन्ध इत्युत्सर्गः, स्निग्धरूक्षयधिक गुणात्वन्य हि परिणामकान बन्धसाधनत्वात् । न खल्वेकगुणात् स्निग्धरूक्षत्वाद्वन्ध इत्यपवादः एकगुणः
नामसंज..... गिद्ध वा लुक्ख अगुपरिणाम सम विसय सभदों दुराधिग जदि हि आदिपरिहीण। धातुसंज्ञ - बंध बन्धने । प्रातिपदिक--स्निग्ध वा रूक्ष वा अशुपरिणाम सम वा विषम बा समतः द्वयधिक होता है ?
तथ्यप्रकाश---(१) परमाणुके परिणामन तो होता ही रहता है, क्योंकि परिणमन (पर्याय) होते रहना प्रत्येक वस्तुका स्वभाव है । (२) परमाणुवोंमें स्निग्धत्व, रूक्षत्व, शोत, उष्ण ये चार प्रकारके पर्याय होते हैं । (३) परमाणुके वे चार गुष्पपर्यायके एकसे लेकर अनंत तक अविभागप्रतिच्छेदों में होते है । (४) पुद्गलके उन चार पर्यायोंमें स्निग्धत्व व रूक्षत्व ये दो ही परिणमन परमाणुवोंके परस्पर बन्धके कारणभूत हैं। .
सिद्धान्त--(१) परमाणु परस्पर बँध बंधकर शरीरादि पिण्डरूप में बहुप्रदेशी स्कन्ध हो जाते हैं।
दृष्टि-१- स्वजात्यसद्भुत व्यवहार, अशुद्ध स्थूल ऋजुसूत्र (३१) ।
प्रयोग- शरीरादि पिण्डोंका कर्तृत्व पुद्गलोंमें ही देखकर अपनेको अकर्ता जानकर समस्त पिण्ड श्रादि परपदार्थोसे ममत्व पूर्णतया दूर करना और उनकी किसी भी परिणति में रागद्वेष न कर मध्यस्थ रहना ।।१६४॥
अब यहाँ किस प्रकारके स्निग्धत्व रूक्षत्वसे पिण्डपना होता है, यह बतलाते हैं। [अणुपरिणामाः] परमाणुके परिणाम अर्थात् पर्याय [स्निग्धाः वा स्क्षाः वा] स्निग्ध हो या रुक्ष हों [समाः वा विषमाः वा] सम अंश वाले हों या विषम अंश वाले हों [यदि आदि. परिहीनः समतः द्वयधिकाः] यदि जघन्य अंशसे रहित व समानतासे दो अधिक अंश वाले हों। तो [बध्यन्ते हि] बंधते हैं।
Page #327
--------------------------------------------------------------------------
________________
wal
asonine
३१३
।
MIRRORE
KHERI
B
ASE
.mmrtmnt
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका स्निग्धरूक्षत्वस्य हि परिणभ्यपरिणामकत्वाभावेन बन्धस्यासाधनत्वात् ॥१६५।। "यदि हि आदिपरिहीन । मूलधातु-बन्ध बन्धने । उभयपदविवरण---णिहा स्निग्धाः लुक्खा रूक्षा: अणुपरिणामा अशुपरिणामाः समा समा: विसमा विषमा: दुराधिगा द्वधधिका: आदिपरिहीणा आदिपरिहोगा:-प्रथमा बहुवचन । बज्झलि बध्यन्ते-वर्तमान अन्य पुरुष बहुवचन भावकर्मप्रक्रिया । निरुक्ति--- रुक्ष पारुष्ये, परिणमनं परिणामः । समास-- अणोः परिणामाः अशुपरिणामाः ।।१६५||
- तात्पर्य---दो व अधिक डिग्रोके स्निग्ध या रूक्ष परमाणु अपने से दो अधिक डिग्रीके स्निग्ध या रूक्ष परमाणु के साथ बंध जाते हैं।
टीकार्थ---समानसे दो अंश अधिक स्निग्धत्व या रूक्षत्व होनेसे बंध होता है, यह उत्सर्ग है; क्योंकि स्निग्धत्व था रूक्षत्वको द्विगुणाधिकता निश्च यसे परिणामक होनेसे बंधका कारण है । निश्चयतः एक गुण स्निग्धत्व या रूक्षत्व होनेसे बंध नहीं होता, यह अपवाद है; क्योंकि एक गुण स्निग्यत्व या रूक्षत्वके परिणम्य परिणामकताका अभाव होनेसे बंधके कारण पनका अभाव है। व प्रसङ्गविवरण---अनन्तरपूर्व गाथामें परमाणुवोंके पिण्डत्वके साधनभूत स्निग्धत्व व रुक्षत्वके अनेक अविभाग प्रतिच्छेदोंके रूपमें परिणमन बताया गया था। अब इस गाथामें बताया गया है कि किस प्रकारके अविभागी प्रतिच्छेदोंमें परिणत परमारगुवोंका स्निग्धत्व हक्षत्व परस्पर बन्धका कारण होता है।
तथ्यप्रकाश--(१) एक अविभागप्रतिच्छेदमें परिगात स्निग्धत्व व रूक्षत्व बन्धका कारण नहीं होता, जैसे कि जघन्य गुण बाला स्लेह मोह परिणाम मोहनीय प्रकृतिके बन्धका कारण नहीं होता । (२) दो ग्रादि प्रविभाग प्रतिच्छेदों में परिणत स्निग्धत्व व रूक्षत्व बन्ध का कारण हो सकता है। (३) जिन परमाणुवोंमें स्निग्धस्व व रूक्षत्व एकसे दूसरे में दो अधिक अविभागप्रतिच्छेद वाला हो, उन परमाणुवोंका परस्पर बन्ध होता है, वे परमाणु परपर चाहे स्निग्ध स्निग्ध हों या रूक्ष रूक्ष हों या स्निग्ध रूक्ष हों या रूक्ष स्निग्ध हो ।
सिद्धान्त---(१) परमाणुवोंका पिण्डरूप पर्यायमें पानेका कारण विशिष्ट स्निग्धत्व रुक्षय युक्त परमाणु ही हैं।
दृष्टि----१- उपादानदृष्टि (४६ब)। पति: । प्रयोग-प्रात्मा शरीरादि पिण्डरूप बनानेका की प्रादि रंच मात्र भी नहीं है, अतः इन समस्त परपदार्थों को अपनेसे अत्यन्त भिन्न जानकर उनसे उपयोग हटाना और अपने स्वरूपमें उपयोग लगाना ॥१६॥ - अब परमाणुओंके पिण्डपनेका यथोक्त हेतु दृढ़तासे निश्चित करते हैं---[स्निग्धत्वेन
-
.........RANESEAmem-TREATMmtaimlatandeiwww
-
कर
Page #328
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१४
सहजानन्दशास्त्रमालायो अथ परमाणुना पिण्डत्वस्य यथोदितहेतुत्वमवधारयति
गिद्वत्तोण दुगुणो चदुगुणणिद्धगा बंधमणुभवदि । लुक्खेण वा तिगुणिदो अगु बज्झदि पंचगुण जुत्तो ॥१६६॥ स्निग्ध द्विगुरण परमाणु, बद्ध चतुगुणी स्निग्धसे होता।
त्रिगुरण रूक्षसे बँधता, पञ्चगुरपणी अन्य परमाणू ॥१६६।। स्निग्धत्वेन द्विगुणश्चतुर्गुणस्निग्धेन बन्धभनुभवति । रूक्षेण वा विगुणितोऽशुबध्यते पंचगुणयुक्तः ॥१६॥
___ यथोदितहेतुकमेव परमाणनां पिण्डत्वमबधार्य द्विचतुगुणयोस्त्रिपञ्च गुणयोश्च द्वयोः स्निग्धयोः द्वयो रूक्षयोर्द्वयोः स्निग्धरूक्ष योर्दा परमाण्वोर्बन्धस्य प्रसिद्धेः । उक्तं च "णिद्धा ___नामसंज्ञ-णिद्धत्तण दुगुण चदुगुणणिद्ध बंध लुबख वा तिगुणिद अणु पंचगुण जुत्त । धातुसंज.. अणुः ह्व सत्तायां, बंध बंधने । प्रातिपदिक-~-स्निग्धत्व द्विगुण चतुर्गुणस्निग्धत्व बन्ध बा रूक्ष वा त्रिगुणित अशु पंचगुणयुक्त । मूलधातु-अनु भू सत्तायां, बन्ध वन्यने । उभयपदविवरण... णित्तरोण स्निग्धत्वेन चदुमुणणिद्धण चतुगुणस्निग्धेन लुक्खेण रूक्षेण-तृतीया एकवचन । दुगुणी द्विगुणः तिगुणिदो त्रिगुणित द्विगुणः] स्निग्धरूपसे दो अंश वाला परमारण चतुर्युगस्निग्धेन] चार अंश वाले स्निग्ध [वा रूक्षेरण] अथवा रूक्ष [बंध अनुभवति] बंधको प्राप्त होता है। [त्रिगुरिंगतः अणुः] तथा तीन अंश वाला परमारण [पंचगुणयुक्तः] पाँच अंश वाले के साथ युक्त होता हुआ [बध्यते] बंधता है।
तात्पर्य---परमारण अपनेसे दो अंश अधिक स्निग्ध रूक्ष परमार से बंध जाता हैं। किन्तु एक अंशके स्निग्ध रूक्ष अणुका बंध नहीं होता।
टोकार्थ-यत्रोक्त हेतुसे ही परमाणुओंके पिण्डत्व होता है, यह करना चाहिये; क्योंकि दो और चार गुण वाले तथा तीन और पाँच गुण वाले दो स्निग्ध परमारगोंके अथवा दो रूक्ष परमारणोंके अथवा दो स्निग्ध-रूक्ष परमाणोंके बंधकी प्रसिद्धि है। कहा भी है। "णिभा गिद्धेण बज्झति लुक्खा लुक्खा य पोग्गला । गिद्धलुक्खा य बज्झति रूवारूबी थ पोग्गला ॥" "णिद्धस्स रिपद्धेण दुराहिएण लुक्खस्स लुक्खेरा दुराहिएण । गिद्धस्स लुक्खेण, हवेदि बंधो जहण्णवज्जे विसमे समे वा ।।"
प्रसंगविवरण-अनंतरपूर्व गाथामें बताया गया था कि कैसे स्निग्ध रूक्षपनेसे पिण्डी पना होता है। अब इस गाथामें परमारणवोंके पिण्ड पनेका पूर्व गाथाकथित हेतुपनेका सोदाहः रण दृढ़तासे निश्चय किया गया है:
तण्यप्रकाश-(१) परमाणु वोंके पिण्डपना होनेका कारण जघन्यगुण रहित व एक
2400
ASTANARIES
Sxesiलिजन
Page #329
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका
३१५
विद्वेण बभूति लुक्खा लुक्खा य पोम्गला । निखलुक्खा य बज्भति रूवारूवी य पोग्गला ।।" गितस्स गिद्धेण दुराहिएण लुक्खस्स लुक्खेण दुराहिए । सिद्धस्स लुक्खेण हवेदि बंघो जहहज्जे विसमे समे वा ।। १६६।।
अणु: पंचगुणजुतो पंचगुणयुक्तः प्रथमा एकवचन | अहवदि अनुभवति-वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया | बज्झदि बध्यते - वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन भावकर्मप्रक्रिया । निरुक्ति-- गुणग्रनं गुणः आमन्त्रणे चुरादि । समास-द्वे गुझे यस्मिन् स द्विगुणः चत्वारः गुणाः यस्मिन् स चतुर्गुणः चतुगुं - मनासी स्निग्धश्चेति चतुर्गु णस्निग्धः तेन च०, पंचभिः गुणैः युक्तः इति पंच० | १६६ ||
से दूसरेका दो अधिक अविभाग प्रतिच्छेद वाला स्निग्धपना व रूक्षपना है । ( २ ) जैसे दो गुण वाले व चार गुण वाले स्निग्ध स्निग्ध या रूक्ष रूक्ष या स्निग्धरूक्ष या रूक्षस्निग्ध परमाant बन्ध हो जाता है । ( ३ ) यहां गुरण शब्दका वाक्य अविभागप्रतिच्छेद है । ( ४ ) यहाँ परमाणु बोके बन्धके प्रसंग में २ श्रविभागप्रतिच्छेद वाले स्निग्ध रूक्षसे लेकर अनन्त श्रविभागप्रतिच्छेद वाले स्निग्ध रूक्ष तक घटित करना । (५) दो से अधिक कितने ही विभागप्रति छे हों, परस्पर एकसे दूसरेके दो प्रविभाग प्रतिच्छेद होनेपर ही बन्ध होता है ।
सिद्धान्त - ( १ ) पुद्गलपरमाणुवोंका परस्पर बन्ध होनेपर एक पिण्डरूपता हो जाती
दृष्टि - १० समानजातीयविभावद्रव्यव्यञ्जन पर्यायदृष्टि (२१५) ।
प्रयोग- शरीर आदि पोद्गलिक पिण्डोंसे विविक्त निज आत्माको किन्हीं भी व्यक्त न निरखकर पर्यायको दृष्टिसे अन्तः निहारकर उससे भी परे परमशुद्ध चित्स्वरूप
* उपयोग करना ॥१६६॥
अब आत्मा, पुद्गलपिण्डकतृत्वका प्रभाव निश्चित करते हैं - [सूक्ष्मा वा वादराः ] सूक्ष्म अथवा बादर और [ संसंस्थाना: ] आकारों सहित [ द्विप्रदेशादय: स्कंधाः] दो से लेकर अनन्तप्रदेश तक के स्कन्ध [पृथिवी जलतेजोवायवः ] पृथ्वी, जल, तेज और वायुरूप [ स्वकपरिणामः जायन्ते ] अपने परिणामोंसे उत्पन्न होते हैं ।
तात्पर्य - पुद्गल पिण्डों के कर्ता पुद्गल हो हैं, प्रात्मा उनका कर्ता नहीं ।
टोकार्थ -- पूर्वोक्त प्रकार से ये उत्पन्न होने वाले द्विप्रदेशादिक स्कंध - जिनने कि विशिष्ट अवगाहनकी शक्तिके वश सूक्ष्मता श्रीर स्थूलतारूप भेद ग्रहण किये हैं, और विशिष्ट श्राकार धारण करने की शक्तिके वश होकर विचित्र संस्थान ग्रहण किये हैं वे अपनी योग्यतानुसार रस गंध के आविर्भाव और तिरोभावकी (स्वशक्तिके वश होकर पृथ्वी, जल, श्रग्नि और वायुरूप अपने परिणामोंसे ही होते हैं। इससे निश्चित होता है कि द्वयरगुकसे लेकर
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
________________
Mara
सहजानन्दशास्त्रमालायां अथात्मनः पुद्गलपिण्डकर्तृत्वाभावमवधारयति-----
दुपदेसादी खंधा सुहुमा वा बादरा ससंठाणा । पुढविजलतेउवाऊ सगपरिणामेहि जायते ॥१६७॥ दुप्रदेशी प्रादि स्कन्ध, सूक्ष्म व वादर विचित्रसंस्थानी ।
क्षिति सलिल अग्नि वामु, निज परिणामोंसे उपजे सब ॥१६०॥ द्विप्रदेशादयः स्कन्धाः सूक्षमा वा बादरा: ससंस्थानाः । पृथिवीजलतेजोवायबः स्वकपरिणामैजायन्ते ।।१६७।।
एवममी समुपजायमाना द्विप्रदेशादयः स्कन्धा विशिष्टावगाहन शक्तिवशादुपात्तसोक्षम्यस्थौल्यविशेषा विशिष्टाकारधारणशक्तिवशा द्गृहीतविचित्रसंस्थानाः सन्तो यथास्त्रं स्पर्शादिचतु. एकस्याविर्भावतिरोभावस्वशक्तिवशमासाद्य पृथिव्यप्तेजोवायवः स्वपरिणामरेव जायन्ते । अतो. ऽवधार्यते द्वयण काद्यनन्तानन्तपुद्गलानां न पिण्ड कर्ता पुरुषोऽस्ति ॥१६७।।
नामसंज्ञ-दुपदेसादि खंध सुहम वा वादर ससंठाण पुढविजलतेउवाज संगपरिणाम । धातुसंज्ञ--- प्रादुर्भावे । प्रातिपदिक-द्विप्रदेशादि स्कन्ध सूक्ष्म वा वादर ससंस्थान पुथिवीजलतेजोवायु स्वकपरिणाम । मूलधातु-जनी प्रादुर्भावे । उभयपदविवरण-...दुपदेसादी द्विप्रदेशादयः खंधा स्कन्धाः सुहमा सूक्ष्माः बादरा वादराः ससंठाणा ससंस्थानाः पुढविजलतेउवाऊ पृथिवीजलतेजोवायवः-प्रथमा बहुवचन । सगपरिणामेहि स्वकपरिणाम:-तृतीया बहुवचन । जायते जायन्ते-वर्तमान पुरुष बहुवचन भावकर्मप्रक्रिया । निरुक्ति-स्कन्यते यः स: स्कन्धः, लिनेन आत्मानं सूचयति सूच्यते असेन सूचनमात्र वा सूक्ष्मः । समासपृथिवी च जल च तेजश्च वायुश्चेतिपूथिवीजलतेजोवायक:--प्रथमा बहुवचन । द्विप्रदेश: आदिः येषां ते द्विप्रदेशादयः, संस्थानेन सहिताः इति ससंस्थानाः ।।१६७।। अनन्तानन्त पुद्गलों तकके पिण्डका कर्ता आत्मा नहीं है।
प्रसङ्गविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें परमाणुवोंके बन्धकी प्रक्रियाका सोदाहरण दृढ़ निश्चय किया था । अब इस गाथा यह अवधारण किया गया है कि प्रात्मा पुद्गलपिण्डका कर्ता नहीं है।
तथ्यप्रकाश----(१) दो परमारण वाले पिण्डसे लेकर अनन्तानन्त परमार तक पिण्डों का कर्ता प्रात्मा नहीं है । (२) ये पुद्गलपरमाणु पिण्ड ही अपने परिणमनसे पृथ्वी, जल, अग्नि वायुरूप परिणम जाते हैं । (३) यहां अन्य दार्शनिकोंके मन्तव्यके अनुसार पृथ्वी कहने से बनस्पति प्रादि सब कुछ दृश्य पिण्डका ग्रहण कर लेना है । (४) पुथ्वीमें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण चारों ध्यक्त हैं, जलमें स्पर्श रस वर्ण व्यक्त हैं, अग्निमें स्पर्श व वर्ण व्यक्त है, वायुमें मात्र स्पर्श व्यक्त है सो यह भिन्नता परमाणु पिण्डको प्राविर्भाव तिरोभावकी अपनी शक्तिके कारण है । (५) पृथ्वी आदिका जो विभिन्न प्रकार है वह भी परमाणु पिण्डको विशिष्टाकार
mmmmmmms
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________
B
प्रवचनसार--सप्तदशाङ्गी टीका
३१७ प्रयात्मनः पुद्गलपिण्डानेतृत्वाभावमवधारयति--
योगाढगाढणिचिदो पुग्गलकायेहिं सब्बदो लोगो। सुहुमेहिं बादरेहि य अप्पा प्रोग्गेहिं जोग्गेहिं ॥१६८॥
अवगाढ गाढ संभृत. पुद्गल कायोंसे लोक संपूरण ।
सूक्ष्म व चादरोंसे, योग्य अथवा अयोग्योंसे ॥१६॥ अवगाहगाहनिचितः पुद्गलकार्यः सर्वतो लोकः। यूक्ष्मदरश्चाप्रायोग्योन्यः ॥ १६८ ।।
यतो हि सूक्ष्मत्वपरिणतर्वादरपरिणतश्चानति सूक्ष्मत्वस्थूलत्वात् कर्मत्वपरिणमनशक्तिः
नामसंज्ञ-ओगाहगाढनिचिद पुग्गलकाय सव्वदो लोग सुहुम वाद र अप्पाओग्ग' जोग्ग । धातुसंज्ञमाह स्थापनाग्रहणप्रवेशेषु । प्रातिपदिक...अब गाढ़गाढनिचित पुद्गलकाय सर्वत: लोक: सूक्ष्म वादर अप्राका बोय योग्य । भूलधातु--गुह प्रबेशने। उभयपदविवरण....ओगाढ़गाढणिविदो अवगादगाढनिन्चितः लोगो
कोष -प्रथमा एकवचन । पुग्गलकायेहि पुद्गलकार्यः सुहुमेहिं सूक्ष्मैः चादरेहि वादरैः अप्पाओग्गेहि अप्रा"चारणशक्तिके कारण हैं । (६) पृथ्वी ग्रादिमें जो पतलापन मोटापनको विशेषता है बह उन परमाणु पिण्डोंकी विशिष्ट अवगाहन शक्तिके कारण है । (७) निश्चयत: टोत्कीर्णज्ञायककपसे शुद्ध बुद्ध एकस्वभाव अात्मा है। (८) व्यवहारसे अनादिकर्मबन्धनवश शुद्धात्मस्वभाव को न पाते हुए जीव पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु कायिकों में उत्पन्न होते हैं । (६) पृथ्वी आदि कायिकोंमें उत्पन्न होकर भी जीव अपने सुख दुःख ज्ञान विकल्प प्रादि परिणतियोंका ही उपादान कारण है, पृथ्वी प्रादि कायाकार परिणतिका नहीं 1 (१०) पृथ्वी कायाकार परिणति का उपादान कारण तो पुद्गलस्कन्ध ही है। (११) शरीर प्रादि किसी भी पुद्गलपिण्डका इती जीव नहीं है।
सिद्धान्त----जीव शरीर आदि पोद्गलिक पिण्डोंका कर्ता नहीं है। दृष्टि-प्रतिषेधक शुद्धनय (४६)।
प्रयोग---प्रात्मा शरीरादि पुद्गलपिण्डका व अन्य भी किसी द्रव्यका कर्ता हो ही जा नहीं सकता, अत: कर्तृत्वका विकल्प छोड़कर अपने स्वद्रव्यमें उपयुक्त होकर सत्य विश्राम करना ॥ १.६७॥
अब प्रात्मा पुद्गलपिण्डका लाने वाला नहीं है, यह निश्चित करते हैं-- [लोकः लोक [सर्वतः] सर्वतः [सूक्ष्मः च वादरः] सूक्ष्म तथा वादर [अप्रायोग्यः योग्यः] एवं कर्मत्व के अयोग्य तथा योग्य [पुद्गलकार्यः] पुद्गल स्कंधोंके द्वारा [अत्रगाढमाढनिचितः] प्रवाहित होकर गाढ़ भरा हुअा है।
Page #332
--------------------------------------------------------------------------
________________
..
......Sanctioni....
m.nitine
m a
emamvirai nine
३१८
सहजानंदशास्त्रमालायां योगिभिरतिसूक्ष्मस्थूलतया तदयोगिभिश्चावगाहविशिष्टत्वेन परस्परमबाधमानः स्वयमेव सर्वत एव पुद्गलकायैर्गाढं निचितो लोकः । ततोऽवधार्यते न पुद्गलपिण्डानामानेता पुरुषोऽस्ति ।१६८।
।
योग्यः जोग्गेहि योग्यैः-तृतीया बहवचन । निरुक्ति-अवगाहतेस्म असौ इति अवगाढः, चीयते यः सः कायः चित्र चयने, योगाय प्रभवति यः स योग्यः । समास-गाढं निचितः इति अवगाढनिचितः अवगाढश्चासौ गाढनिचितश्चेति अवगाढगाढनिचितः ।।१६८॥
RDSo
C
SHARE Emaatimes
ERITStandinamaAPIL MAHARIHANIAsmihindimehteningOOOMARAranManandgaonmamkasminantleman
FASTmumentarimmimidisa a ureuyURANCETrumerpareeMATICE
FASSESEA
Pos
ni
तात्पर्य-लोक विविध पुद्गलस्कंधोंसे सारा भरा हुया है, उनका लाने वाला प्रात्मा नहीं।
टोकार्थ----सूक्ष्मरूप परिणत तथा वादररूप परिणत, अति सूक्ष्म अथवा प्रतिस्थूल न होनेसे कर्मरूप परिणत होनेकी शक्ति वाले, तथा अति सूक्ष्म अथवा अति स्थूल होनेसे कर्मरूप परिणत होनेकी शक्तिसे रहित अवगाहकी विशिष्टताके कारण परस्पर बाधा न करने वाले सूक्ष्मरूप परिणत व वादररूप परिणत पुद्गल स्कन्धोंके द्वारा स्वयमेव यह लोक सर्वतः गाढ़ भरा हुआ है । इसमें निश्चित होता है कि पुद्गलपिण्डोंका लाने वाला आत्मा नहीं है ।।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि प्रात्मा पुद्गलपिण्डका कर्ता नहीं है । अब इस गाथामें बताया गया है कि प्रात्मा पुद्गलपिण्डका लाने वाला भी नहीं है।
तथ्यप्रकाश--(१) यह लोक सब ओरसे स्वयं ही सूक्ष्मरूप परिणत व वादररूप परि. णत पुद्गल कायोंसे भरा हुआ है । (२) उन पुद्गलकायोंमें ऐसा हो परस्पर अवगाह विशेष है जिस कारण उनके एकत्र रहने में परस्पर कोई बाधा नहीं पाती। (३) इन सब पौद्गलिक कायोंमें (पिण्डोंमें) अनेक तो कर्मत्वपरिणमनशक्ति वाले हैं जो कि न अतिसूक्ष्म हैं और न प्रतिस्थूल हैं । (४) उन सब पुद्गलकायों (पिण्डों) में अनेक ऐसे हैं जो कर्मरूप परिणमन शक्तिसे रहित है जो कि अतिसूक्ष्म हैं व अतिस्थूल हैं । (५) इस लोकमें सभी जगह जीव हैं और कर्मबन्धके योग्य कार्माणवर्गणा नामक पुद्गलपिण्ड भी सभी जगह हैं। (६) प्रत्येक संसारी जीवके साथ भी एक क्षेत्रावगाही विस्रसोपचय वाली कार्माणवर्गणायें भी स्वयं हैं । (७) जब जीव पूर्वबद्ध पुद्गलकर्मविपाकोदयका निमित्त पाकर शुभ अशुभ भावसे परिणत होता है तब तत्काल ही ये कार्मारणवर्गणायें स्वयं कर्मरूप परिणत हो जाती हैं । (८) इन कार्माणवर्गणारूप या कर्मरूप पुद्गलपिण्डोंको किसी बाहरके स्थानसे जीव नही लाता । (६) ऐसा भी नहीं है कि जीव किसी बाहरके स्थानसे कर्मयोग्य पुद्गल लाकर उनका बन्ध करता हो । (१०) सो जैसे प्रात्मा पुद्गलपिण्डोंका कर्ता नहीं है, इसी प्रकार प्रात्मा किन्हीं भी पुद्गलपिण्डोंका आनेता अर्थात् लाने वाला भी नहीं है । (११) हाथ आदिके संयोगका निमित्त
Sh
T
H
HERE
o RESTEREST
norasainabina
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
।
- प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
३१६ अथात्मनः पुद्गलपिण्डानां कर्मत्वकर्तृत्वाभावमवधारयति---
कम्मत्तणपाश्रोग्गा खंधा जीवस्स परिणइं पप्पा । गच्छंति कम्मभावं ण हि ते जीवेण परिणमिदा ॥१६॥
कर्मत्वयोग्य पुद्गल, जीवपरिणामका निमित्त पाकर ।
कर्मरूप परिणमते, जीव उन्हें परिरणमाता नहीं ॥१६६॥ कर्मत्वप्रायोग्याः स्कन्धा जीवस्य परिणति प्राप्य । गच्छन्ति कर्मभावं न हि ते जीवेन परिणमिताः ॥१६६।।
। यतो हि तुल्यक्षेत्रावगाढ जीवपरिणाममात्र बहिरङ्गसाधनमाश्रित्य जीवं परिण मयितार.
नामसंज्ञ-कम्मत्तणपाओग्ग खंध जीव परिणइ कम्मभाव ण हि त जीव परिणमिद । धातुसंज्ञ-प अप्प अर्पणे, गच्छ गतौ । प्रातिपदिक--कर्मत्वप्रायोग्य स्कन्ध जीव परिणति कर्मभाव न हि तत् जीव पाकर कुछ पद्गलोंका क्षेत्रसे क्षेत्रान्तरमें अवस्थान देखकर निमित्तपरम्परामें प्रात्माके योग उपयोगका स्वातन्त्र्य न देखकर उन स्कन्धोंका जीवको लाने वाला कहना कोरा उपचार है।
सिद्धान्त--(१) अात्मा पुद्गलपिण्डोंका लाने वाला नहीं है ।
दृष्टि-१- प्रतिषेधक शुद्धनय (४६)। र प्रयोग-आत्मा द्वारा पुद्गलपिण्डोंके लानेका प्रश्न तो दूर ही रहो, यह आत्मा समस्त पुद्गलोंसे अत्यन्त भिन्न मात्र अपने चैतन्यस्वरूपास्तित्व वाला है ऐसा जानकर समस्त परपदार्थविषयक विकल्पको तजकर अपने विशुद्ध स्वरूप में उपयुक्त होकर परम विश्राम पाना ॥१६॥
अब आत्मा पुद्गलपिण्डोंको कर्मरूप नहीं करता, यह निश्चित करने हैं--[कर्मत्व. प्रायोग्याः स्कंधाः] कर्मत्वके योग्य स्कंध [जीवस्य परिरगति प्राप्य] जीवकी परिणतिको प्राप्त करके [कर्मभावं गच्छन्ति] कर्मभावको प्राप्त होते हैं; [न हि ते जीवेन परिणमिताः] निश्चयतः वे जीवके द्वारा परिणमाये गये नहीं हैं ।
तात्पर्य-जीवपरिणामका निमित्तमात्र पाकर कार्माणवर्गणा स्वयं कर्मरूप परिणमते
minisiaclichirwanelavitaveenaksinessRADModelineKOSHIANDAHARI
टीकार्थ-कर्मरूप परिणमित होने की शक्ति वाले पुद्गल स्कंध, तुल्य क्षेत्रावगाहो जीवके परिणाममात्र बहिरंग साधनका प्राश्रय लेकर, जीवके परिणमयिता हुए बिना ही स्वयमेव कर्मभावसे परिणमित होते है । इससे निश्चित होता है कि पुद्गल पिण्डोंको कर्मरूप करने वाला प्रात्मा नहीं है।
। प्रसंगविवरण--अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि आत्मा पुद्गलपिण्डोंका लाने वाला भी नहीं है । अब इस गाथामें बता । गया है कि प्रात्मा पुद्गलपिण्डोंके कर्मपनेका भी
immisiriptionaries
Page #334
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां
मन्तरेणापि कर्मत्वपरिणमन शक्तियोगिनः पुद्गलस्कन्धाः स्वयमेव कर्मभावेन परिणमन्ति ततोऽवधार्यते न पुद्गलपिण्डानां कर्मत्वकर्ता पुरुषोऽस्ति ॥ १६६ ॥
३२०
परिणमित । मूलधातु-- प्र आप्लू व्याप्तौ गम्लृ गतौ । उभयपद विवरण- कम्मत्तणपाओग्गा कर्मत्वप्रायोग्याः खंधा स्कन्धा: - प्रथमा बहुवचन । जीवस्स जीवस्य षष्ठी एक० । परिणइं परिणति द्वि० एक० । पप्पा प्राप्य - असमाप्तिकी क्रिया कृदन्त । गच्छति गच्छन्ति-वर्तमान अन्य पुरुष बहुवचन क्रिया । कम्मभावं कर्मभाव - द्वितीया एकवचन । ण न हि-अव्यय । ते प्र० बहु० । जीवेण जीवेन-तृतीया एक० । परिणमिदा परिणमिता:- प्रथमा बहुवचन कृदंत क्रिया । निरुक्ति--क्रियते यत्तत्कर्म । समास - कर्मत्वस्य प्रायोग्याः कर्मत्वप्रायोग्याः, विग्रहः - कर्मणः भावः कर्मत्वं, कर्मणः भावः कर्मभावः तं कर्मभावं ||१६||
करने वाला नहीं है ।
तथ्य प्रकाश
( १ ) समान क्षेत्र में अवगाही जीवके विभाव परिणामको निमित्तमात्र पाकर कार्माणवर्गरणायें स्वयं ही कर्मरूप परिणम जाते हैं । ( २ ) वे कार्मारणवर्गरणायें अपनी परिणति से ही कर्मरूप परिणमती हैं वहाँ उसरूप जीव रंच भी परिणममान नहीं है । (३) जीव कार्माण पिण्डों को कर्मरूप नहीं परिणमाता और न कामणपिण्डोके परिलमन में साथ जुटता है । ( ४ ) आत्मा पुद्गलपिण्डोंके कर्मपनेका कर्ता नहीं है । (५) प्रत्येक पदार्थोंका परिणमन अपने अपने प्रदेशों में अपनी अपनी परिणति से होता है ।
सिद्धान्त - ( १ ) कार्मारण परद्रव्यकी कर्मत्व परिणतिका कर्ता श्रात्मा नहीं है । दृष्टि - १ - परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय, प्रतिषेधक शुद्धनय (२६, ४६ प्र ) । प्रयोग - कर्म आदि समस्त परद्रव्यसे निराले अपने प्रापके श्रात्मामें ज्ञानवृत्तिका ही सहज कर्तृत्व निरखना ॥ १६६ ॥
अब आत्मा कर्मरूप परिणत पुद्गलद्रव्यात्मक शरीरका भी कर्ता नहीं यह निश्चित करते हैं - [ कर्मत्वगताः ] कर्मरूप परिणत [ते ते] वे वे [पुद्गलकायाः] पुद्गल पिंड [ देहान्तरसंक्रमं प्राप्य ] देहान्तररूप परिवर्तनको प्राप्त करके [ पुनः श्रपि ] पुनः पुनः [ जीवस्य ] जीव के [ देहाः ] शरीर [संजायन्ते ] बनते हैं ।
तात्पर्य - शरीरोंका कर्ता भी पुद्गल ही है, जीव नहीं ।
टोकार्थ -- जिस जोवके परिणामको निमित्तमात्र करके जो जो ये पुद्गल पिंड स्वयमेव कर्मरूप परिणत होते हैं, वे वे पुद्गलपिण्ड जीवके अनादिसंततिसे प्रवर्तमान देहान्तररूप परि वर्तनका आश्रय लेकर स्वयमेव शरीर बनते है । इससे निश्चित होता है कि कर्मरूप परिणत पुद्गलद्रव्यात्मक शरीरका कर्ता आत्मा नहीं है ।
प्रसंगविवरण - श्रनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि श्रात्मा पुद्गल पिण्डों का कर्ता
Page #335
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशांगो टीका
३२१ अयात्मनः कर्मत्वपरिणतपदगलद्रव्यात्मकशरीरकर्तृत्वामावमवधारयति----
ते ते कम्मत्तगदा पोग्गलकाया पुणो वि जीवस्स । संजायते देहा देहतरसंकमं पप्पा ॥ १७० ॥
वे वे कर्मविपरिणत, पुद्गलपिण्ड देहान्यसंक्रम पा।
बार नार परिवर्तित, जीवोंके देह बनते हैं ॥१७०॥ ने से कर्मत्वगता! पुद्गलकायाः पुनरपि जीवस्य । संजायन्ते देहा देहान्तरसंक्रां प्राप्य ।। १७० ।।
ये ये नामामी यस्य जीवस्य परिणाम निमित्तमात्रीकृत्य पुद्गलकायाः स्वयमेव कर्म. स्वेन परिणमन्ति, अथ ते ते तस्य जीवस्यानादिसंतानप्रवृत्तिशरीरान्तरसंक्रान्तिमाश्रित्य स्वयमेव च शरीराणि जायन्ते । अलोऽवधार्यते न कर्मत्वपरिणतपुद्गलद्रव्यात्मकशरीरकर्ता पुरुषो
..
Hinduism. santonki...
नामसंज्ञ--त त कम्मत्तगद पोग्गलकाय पुणो वि जीव देह देहांतरसंवाम 1 धातुसंज-सजा प्रादुभुवि प अप्प अर्थरणे । प्रातिपदिक.....तत् तत् कर्मत्वगत पुदगलकाय पुनर् अपि जीव देह दहान्तरसंक्रम। मानधातु-सं जनी प्रादुर्भाव, प्र आल व्याप्ती । उभयपदविवरण-ते ते कम्मत्तगदा कर्मत्वगता: पोमगलमाया पुद्गलकाबा: दहा देहः-प्रथमा बहुवचन । पुणो पुनः वि अपि-अव्यय । जीवस्य जीवस्य-षष्ठी एकयवनः । संजायते संजायन्ते-वर्तमान अन्य पुरुष बहुवचन क्रिया । पप्पा प्राप्य सम्बंधार्थप्रक्रिया कृदन्त । । देहतरसंकम देहान्तरसंक्रम-द्वितीया एकवचन । निरुक्ति--संक्रमणं संश्रमः ऋमु पादविक्षेपे। समास
हान्तरस्य संक्रमः देहान्तरसंक्रमः से देहान्तरसंकम् ।।१७०।। नहीं है । अब इस गाथामें बताया गया है कि प्रात्मा कर्मरूपपरिणत पुद्गलद्रव्यात्मक शरीर का भी कर्ता नहीं है।
तथ्यप्रकाश--- (१) जीवके परिणामको निमित्तमात्र करके पुद्गलकाय स्वयं ही कर्म रूपसे परिणमते हैं । (२) अब वे पुद्गलकाय उस जीवके शरीरान्तरके संक्रमणका प्राश्रय करके स्वयं ही शरीर हो जाते हैं, शरीरके बननेमें निमित्तरूप हो जाते हैं। (३) शरीररूप की पुद्गलपिण्ड है, कि वे ही शरीररूप होते हैं, अतः शरीरका कर्मा पुद्गलपिण्ड हो है । N) प्रात्मा पुद्गल कर्मके उदयसे होने वाले पुद्गलद्रव्यात्मक शरीरका कर्ता नहीं है । (५) मात्मा अपने ही परिणमनका का है, अन्यका नहीं ।
सिद्धान्त---(१) पुद्गलपिण्ड ही शरीरका कर्ता है । (२) आत्मा परद्रव्यात्मक मरीरका कर्ता नहीं है।
दृष्टि---१ - उपादानदृष्टि (४९ब) १२- प्रतिषेधक शुद्धनय (४६अ। प्रयोग—शरीरका कर्ता पुद्गल पिण्ड को ही निश्चित कर शरीरसे अत्यन्त विविक्त
मममwhi
v inee
ti.
...........
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां
३२२
अथात्मनः शरीरत्वाभावमवधारयति
रालियो य देहो देहो वेउव्वियो य तेजइयो । याहारय कम्म पुग्गलदव्वापगा सव्वे ॥ १७१ ॥
श्रदारिक वैयिक, आहारक तैजस कार्माण तथा । ये सब शरीर पांचों हैं पुद्गलद्रव्यरूपी जड़ ॥ १७१ ॥ औदारिकश्च देहो देहो वैक्रियिकश्च तैजसः । आहारकः कार्मणः पुद्गलद्रव्यात्मकाः सर्वे ।। १७१ ॥ तो ह्यौदारिकवैयिकाहोर कतैजसकार्मणानि शरीराणि सर्वाण्यपि पुद्गलद्रव्यात्म कानि । ततोऽवधार्यते न शरीरं पुरुषोऽस्ति ।। १७१ ।।
नामसंज्ञ - ओरालिअ य देह देह वेगुव्बिअ य तेजइअ आहारय कम्मइअ पुग्गलदब्बप्पग सब्ब ।। धातुसंज्ञ - आ हर हरणे । प्रातिपदिक औदारिक च देह देह वैक्रियक च तैजस आहारक कार्मण पुगलद्रव्यात्मक सर्व । मूलधातु-आ हृञ हरणे । उभयपदविवरण - ओरालिओ औदारिकः देहो दह aforn वैयिकः तेजइओ तैजसः आहारय आहारक: कम्मइओ कार्मण:- प्रथमा एकवचन । पुग्गलदव्वपापुद्गलद्रव्यात्मकाः सव्वे सर्वे प्रथमा बहुवचन । निरुक्ति - उदारे भवं औदारिक, विविधकरणं . विक्रिया विक्रिया प्रयोजनं यस्य तत् वैक्रियकं आह्रियते निर्वर्त्यते यत्तत् आहारकं, तेजसि भवं तैजस, कर्मणामिद कार्मणम् । समास - पुद्गलद्रव्यं आत्मकं येषां ते पुद्गलद्रव्यात्मकाः ॥ १७१ ॥
"ज्ञानस्वरूप अन्तस्तत्त्व में रमकर संतुष्ट रहना ॥ १७० ॥
आत्मा शरीरपनेका प्रभाव निश्चित करते हैं - [ औदारिकः देहः च ] प्रौदा: fre शरीर और [क्रियिकः देहः ] वैक्रियिक शरीर, [ तैजसः ] तैजस शरीर [ श्राहारकः] | आहारक शरीर [च] और [ कार्मरणः ] कार्मारण शरीर [ सर्वे ] सब [ पुद्गलद्रव्यात्मकाः ] पुद्गलद्रव्यात्मक हैं ।
तात्पर्य - श्रीदारिकादि सभी शरीर पुद्गलद्रव्यात्मक हैं जीवरूप नहीं ।
टोकार्थ - प्रौदारिक, वैक्रियिक, ग्राहारक, तैजस और कार्मण सभी शरीर पुद्गलद्रव्यात्मक हैं । इससे निश्चित होता है कि आत्मा शरीररूप नहीं है ।
प्रसंगविवरण - अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि आत्मा शरीरका कर्ता भी नहीं है । ब इस गाथामें बताया गया है कि आत्माके तो ऊपर ही नहीं है ।
तथ्य प्रकाश - ( १ ) शरीर पाँच प्रकारके हैं- प्रौदारिक, वैक्रियिक, ग्राहारक, तैजस व कार्मण । (२) पांचों ही शरीर पुद्गलद्रव्यात्मक हैं, अतः शरीर पृथक् रहा. श्रात्मा पृथक् रहा । (३) प्रौदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर व प्राहारकशरीर प्राहारवर्गणा नामक पुद्गलस्कन्धों से बनता है । ( ४ ) तेजस शरीर तैजस वर्गणा नामक पुद्गलस्कन्धोंसे बनता है । (५)
Page #337
--------------------------------------------------------------------------
________________
S
३२३
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका । अथ कि तहि जीवस्य शरीरादिसर्वपरद्रव्यविभागसाधनमसाधारण स्थलक्षणमित्यावेदयति
वारसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागणामसह। जाण अलिंगरगहणं जीवमणिदिवसंठाणं ॥१७२।। अरस प्ररूप अगंधी अव्यक्त अशब्द चेतनागुरगमय ।।
चिहाग्रहण अरु स्वयं असंस्थान जीवको जानो ॥१७२॥ अरसमरूपमगन्धमध्यक्तं चेतनागुणमान्दम् । जानी ह्यलिङ्गग्रहणं जीबमनिर्दिष्टसंस्थानम् ।। १७२।।
यात्मनो हि रसरूपगन्धगुणाभावस्वभावत्वात्स्पर्शगुणव्यक्त्यभावस्वभावत्वात् शब्दप। यिाभावस्वभावत्वात्तथा सन्मूलादलिङ्गमाह्यत्वात्सर्वसंस्थानाभावस्वभावत्वावपुद्गलद्रव्यविभागसाधन मरसत्व मरूपत्वमगन्धत्वमव्यक्तत्वमशब्दत्वमलिङ्गग्राह्यत्वमसंस्थानत्वं वास्ति । सकसपुद्गलापुद्गलाजीवद्रव्यविभागसाधनं तु चेतनागुरगत्वमस्ति । तदेव च तस्य स्त्रजीवद्रव्यमा
नामसंज-अरस अरू व अगंध अब्बत्त चेदणागुण असह अलिंगरगहण जीव' अणिविट्ठसंठवण । धातुसंक्ष-आण अवबोधने, लिंग आलिंगने चित्रीकरणे । प्रातिपदिक-अरस अरूप अगन्ध अव्यक्त चेतनागुण कामणिशरीर कार्मागावर्गणात्मक पुद्गलस्कन्धोंसे बनता है । (६) अात्मा अमूर्त चैतन्यस्वरूप है। (७) प्रात्मा शरीर नहीं है, प्रात्माके शरोरपना नहीं है । (८) आत्माका सत्त्व शरीरसे प्रत्यन्त भिन्न है, अतः निश्चयतः आत्माके शरीरकर्तृत्वकी चर्चा बेतुकी है।
सिद्धान्त ---- १- शरीरको देखकर उसे जीव कहना उपचार है। २. जीवको शरीर का कर्ता कहना लोकोपचार है।
दृष्टि-.-- १- एकजातिपर्याय अन्यजातिद्रव्योपचारक असद्भूतव्यवहार (१२१)।२परकर्तृत्व उपचारत असद्भूतव्यवहार (१२६ब) ।
प्रयोग.... पवित्र शुद्ध प्रानन्दमय होनेके लिये शरीरसे विविक्त सहजानन्दमय प्रात्मतत्वरूप अपने को निरखना ११७१।।
सब फिर जीवका, शरीरादि सर्वपरद्रव्योंसे विभागका साधनभूत असाधारण स्वलक्षण । क्या है ? यह कहते हैं. जोवम्] जीवको [अरसम्] रसरहित, [अरूपम्] रूपरहित, [अगं.
धम्] गन्धरहित, [अव्यक्तम् ] अध्यक्त, [चेतनागुणम्] चेतनागुणमय, [अशब्दम्] शब्दरहित, प्रिलिंगग्रहणम् ] लिंग द्वारा ग्रहण न होने योग्य, और [अनिदिष्टिसंस्थानम्] जिसका कोई संस्थान नहीं कहा गया ऐसा [जानीहि] जानो।।
तात्पर्य-जीन स्पर्शरसगंज वर्णरहित अमूर्त चैतन्यस्वभावमय है। टोकार्थ.... अात्मा रस, रूप व गंधगुणके अभावरूप स्वभाव वाला होनेसे, स्पर्शगुण रूप
RANA
JAIN
Page #338
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२४
हजानन्दशास्त्रमालायां
त्राश्रितत्वेन स्वलक्षणतां विभ्राणं शेषद्रव्यान्तरविभागं सावयति । श्रलिङ्गग्राह्य इति वक्तव्ये यदलिङ्गग्रहणमित्युक्तं तद्बहुतरार्थप्रतिपत्तये । तथाहि-न लिगैरिन्द्रियग्राहकतामापनस्य ग्रहणं यस्येत्यतीन्द्रियज्ञानमयत्वस्य प्रतिपत्तिः । न लिगैरिन्द्रियग्रतामापन्नस्य ग्रहणं यस्ये सोन्द्रियप्रत्यक्षाविषयत्वस्य । न लिंगादिन्द्रियगम्यादधूमादग्नेरिव ग्रहणं यस्येतीन्द्रिय प्रत्यक्ष पूर्वकानुमानाविषयत्वस्य । न लिंगादेव परः ग्रहणां यस्येत्यनुमेयमानत्वाभावस्य । न लिंगादेव परेषां ग्रहणं यस्येत्यनुमात्तृमात्रत्वाभावस्य । न लिंगात्स्वभावेन ग्रहरणं यस्येति प्रत्यक्षज्ञातृत्वस्य । न लिंगेनोपयोगाख्यलक्षणेन ग्रहणं ज्ञेयार्थालम्बनं यस्येति बहिरर्थालम्बनज्ञानाभावस्य । न लिंग स्योपयोगाख्यलक्षणस्य ग्रहणं स्वयमाहरणं यस्येत्यनाहार्यज्ञानत्वस्य । न लिंगस्योपयोगाख्यल क्षणस्य ग्रहणं परेण हरणं यस्येत्यहार्यज्ञानत्वस्य । न लिंगे उपयोगाख्यलक्षणे ग्रहणं सूर्य इवो परागो यस्येति शुद्धोपयोगस्वभावस्य । न लिंगादुपयोगाख्यलक्षणादग्रहणं पौगलिककर्मादान अशब्द लिङ्गग्रहण जीव अनिदिष्टसंस्थान । मूलधातु--ज़ा अवबोधने, लिंगि चित्रोंकरणे, रस आस्वाद, रूप प्रेक्षरणे, प्रा गंधोपादाने, त्रि अजि शब्दार्थः । उभयपदविवरण- अरसं अरू अरूपं अगंधं जगन्ध व्यक्तता प्रभावरूप स्वभाववाला होनेसे, शब्दपर्यायके प्रभावरूप स्वभाव वाला होनेसे तथा इन सबके कारण लिंगके द्वारा अग्राह्य होनेसे, और सर्व संस्थानोंके प्रभावरूप स्वभाव वालों होनेसे, श्रात्माके, पुद्गलद्रव्यसे विभागका साधनभूत परसत्व, प्ररूपत्व, अगंधत्व, अव्यक्तत्व; अशब्दत्व, अलिंगग्राह्यत्व और संस्थानत्व है । पुद्गल तथा प्रमुद्गल समस्त ग्रजीव द्रव्योंसे विभागका साधन तो चेतनागुणमयपना है; और वही, मात्र स्वजीवद्रव्याश्रित होनेसे स्वलक्षण पकी धारण करता हुआ, श्रात्माका शेष द्रव्योंसे भेद सिद्ध करता है ।
से
यहाँ 'लिंगा' ऐसा कहना योग्य होनेपर भी जो 'ग्रलिंगग्रहरण' कहा है, वह बहुत प्रतिपत्ति करनेके लिये है । वह इस प्रकार है -- ( १ ) लिंगोंके द्वारा अर्थात् इन्द्रियों के द्वारा ग्राहकपनेको प्राप्त हो इस रूपका ग्रहण जिसका नहीं होता वह ग्रलिंग ग्रहण है; इस प्रकार ग्रात्मा अतीन्द्रियज्ञानमयपनेकी जानकारी होती है । (२) लिंगोंके द्वारा अर्थात् इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य हो इस रूपका ग्रहण जिसका नहीं होता वह प्रलिंग ग्रहरण है। इस प्रकार 'आत्मा इन्द्रियप्रत्यक्षका विषय नहीं है' इस प्रर्थकी जानकारी होती है । ( ३ ) जैसे घुसे श्रमिका ग्रहण (ज्ञान) होता है, उसी प्रकार लिंगसे अर्थात् इन्द्रियगस्य चिह्नसे जिसका ग्रहण नहीं होता वह ग्रलिंगग्रहण है । इस प्रकार आत्मा इन्द्रियप्रत्यक्षपूर्वक अनुमानका त्रिषय नहीं है' इस अर्थ की जानकारी होती है । (४) मात्र लिंगसे हो दूसरोंके द्वारा जिसका ग्रहण नहीं होता वह श्रलिंगग्रहण है, इस प्रकार 'आत्मा अनुमेय मात्र नहीं है' इस अर्थको जानकारी होती है । ( ५ ) जिसका लिंगसे ही ग्रहण नहीं होता वह अलिंगग्रहण है।
-
Page #339
--------------------------------------------------------------------------
________________
mussiasanmmminkaariमा
याजाITMRIMixmadambarama
uvaMausamaanwoman
2688
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका
३२५ यस्येति द्रव्य कर्मासंपूक्तत्वस्य । न लिंगेस्य इन्द्रियेभ्यो ग्रहरणं विषयाणामपभोगो यस्येति विषयोंपभोवतृत्वाभावस्य । न लिंगात्मनो वेन्द्रियादिलक्षणाद्ग्रहणं जीवस्य धारणं यस्येति शुक्रातवानुविधायित्वाभावस्य । न लिंगस्य मेहनाकारस्य ग्रहणं यस्यति लौकिकसाधनमात्रत्वाभावस्य । न लिगेनामेहनाकारण्य ग्रहणं लोकव्याप्तिर्यस्थति कुक प्रसिद्धसाधनाकारलोकव्याप्तित्वाभावस्य । न लिंगानां स्त्रोपुन्नपुंसकवेदानां ग्रहणं यस्येति स्त्रीपुन्नपुसकद्रव्यभावाभावस्य । न लिंगाना अव्वत अव्यक्तं चेदणामुणं चेतनागुणं असद अशब्दं अलिंगहा अलिङ्गनहण जीव अणिसिंठाण अमिदिष्टसंस्थान-द्वितीया एकवचन । जाण जानीहि आज्ञार्थे मध्यम पुरुष एकवचन क्रिया। निरुक्तिइस प्रकार 'आत्मा अनुमाता मात्र नहीं है, इस अर्थको जानकारी होती है। जिसका लिंगसे नही किन्तु स्वभावके द्वारा ग्रहण होता है वह अलिंगग्रहा है; इस प्रकार 'श्रात्मा प्रत्यक्ष जाता है। इस अर्थको जानकारी होती है। (७) लिंग द्वारा अर्थात् उपयोगनामक लक्षण द्वारा जिसका ग्रहण नहीं है अर्थात् ज्ञेय पदार्थोंका पालम्बन नहीं है, वह अलिंगग्रहण है, इस प्रकार
प्रात्माके बाह्य पदार्थों का पालम्बन वाला ज्ञान नहीं है', इस अर्थको जानकारी होती है । YEL लिंगका अर्थात् उपयोग नामक लक्षणका ग्रहण अर्थात् स्वयं कहीं बाहरसे लाया जाना
नहीं है जिसका सो अलिंगग्रहरण है; इस प्रकार 'प्रात्माके अनाहार्य ज्ञानपनेकी जानकारी होती ME | (e) लिंगका अर्थात् उपयोग नामक लक्षणका ग्रहण अर्थात् परसे हरण नहीं हो सकता जिसका सो अलिंगग्रहण है। इस प्रकार 'प्रात्माका ज्ञान हरण नहीं किया जा सकता', ऐसे
की जानकारी होती है। (१०) लिंगमें अर्थात् उपयोग नामक लक्षण में ग्रहण अर्थात सूर्य को भांति उपराग नहीं है जिसके वह अलिंगग्रहण है। इस प्रकार 'आत्मा शुद्धोपयोगस्वभावी
इस अर्थकी जानकारी होती है। (११) लिंगसे अर्थात् उपयोग नामक लक्षणसे ग्रहण प्रति पौद्गलिक कर्मका ग्रहण जिसके नहीं है, वह अलिंगनहरण है; इस प्रकार 'प्रात्मा द्रव्यकसे असंपृक्त है। इस अर्थ की जानकारी होती है । (१२) लिंगोंके द्वारा अर्थात् इन्द्रियोंके भारा ग्रहमा अर्थात् विषयोंका उपभोग नहीं है जिसके सो अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'श्रात्मा विषयोंका उपभोक्ता नहीं है' इस अर्थको जानकारी होती है । (१३) लिङ्गात्मक इन्द्रियादि सके द्वारा ग्रहण अर्थात् जीवत्वको धारण कर रखना जिसके नहीं है वह अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'मात्मा शुक्र और रजके अनुसार होने वाला नहीं है' इस अर्थको जानकारी होती ||१४) लिंगका अर्थात् मेहनाकारका ग्रहग जिसके नहीं है सो अलिगग्रहण है; इस प्रकार मात्मा लौकिकसाधनमात्र नहीं है, इस अर्थकी जानकारी होती है । (१५) लिंगके द्वारा अर्थात अमेहनाकारके द्वारा जिसका ग्रहण अर्थात् लोकमें व्यापकत्व नहीं है सो अलिंगग्रहण
FO
Page #340
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२६
सहजानन्दशास्त्रमालायां धर्मध्वजानां ग्रहणंयस्येति बरिहङ्गायतिलिंगाभावस्य । म लिंग गुणो ग्रहणमर्थावबोधो यस्येति । गुणविशेषानालीदह द्रव्यत्वस्य । न लिंगं पर्यायो ग्रहणमर्थावबोधविशेषो यस्येति प्रयिविशेरस्यते यः स रसः, व्यंजतेस्म असी व्यक्तः, लिङ्गन लिङ्गः । समास- देशना गुण: यस्मिन् सः चे० त०, है। इस प्रकार 'ग्रात्मा पाखण्डियों के प्रसिद्ध साधनरूप प्राकार वाला लोकव्यापिना नहीं है। इस अर्थकी जानकारी होती है । (१६) लिंगोंका, अर्थात् स्त्री, पुरुष और नपुंसक वेदोंका ग्रहण नहीं है जिसके बह अलिगग्रहा है। इस प्रकार 'स्मा द्रव्य से तथा भावस स्त्री, पुरुष तथा नपुसक नहीं है, इस अर्थको जानकारी होती है । (१७) लिगों का अर्थात् धर्मचिह्नोंका ग्रहण जिसके नहीं है वह अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'प्रात्मा के बहिरंग यतिलिंगोंका अभाव है' इस अर्थकी जानकारी होती है । (१५) लिंग अर्थात् गुणग्रहण अर्थात् अर्थावबोध जिसके नहीं है सो अलिगग्रहण है; इस प्रकार प्रात्मा गुमा विशेषसे आलिगिल न होने वाला शुद्ध द्रव्य है' इस अर्थकी जानकारी होती है । (१६) लिग अर्थात् पर्यायग्रहण अर्थात् अर्थावबोधन विशेष जिसके नहीं है सो अलिंगग्रहण है। इस प्रकार 'आत्मा पर्याय विशेषसे प्रालिगित न । होने वाला शुद्ध द्रव्य है' इस अर्थकी जानकारी होती है । (२०) लिंग अर्थात् प्रत्यभिज्ञानका कारगारूप ग्रहण अर्थात् अर्थावबोध सामान्य जिसके नही है वह अलिगग्रहण है; इस प्रकार मात्माके द्रव्यसे अनालिङ्गित शुद्ध पर्यायपनेकी जानकारी होती है।
प्रसंगविवरण-----अनन्तरपूर्व गाथामें प्रात्माके शरीरत्वका अभाव बताया गया था। तब इस पर यह जिज्ञासा हो सकती है। फिर जीवका ग्यसाधारण स्वरूप क्या है जिससे जीवको सर्वपर द्रव्योंसे विविक्त जाना जा सके, इसी जिज्ञासाका समाधान इस गाथामें किया गया है।
तथ्यप्रकाश----१- ग्रात्मा अरस है, क्योंकि प्रात्मामें रसगुण का अभाव है। २प्रात्मा अरूप है, क्योंकि आत्मामें रूप गुणका अभाव है। ३.मात्मा अगंव है, क्योंकि प्रात्मा । में गंध गुणका अभाव है। ४- प्रात्मा अध्यक्त है अर्थात् अस्पर्श है, क्योंकि प्रात्मामें स्पर्श गुण नहीं है और न पिण्ड रूप होकर कठोरादि स्पर्श व्यक्तियां संभव हैं । ५- प्रात्मा अशब्दः है, क्योंकि आत्मामें शब्दपर्यायको असंभवता है । ६- इन्द्रियों (लिङ्गों द्वारा ग्राहकरूपमें भी प्रात्माका ग्रहण न होनेसे आत्माका अतीन्द्रियज्ञानमयपना ज्ञात होता है । ७- इन्द्रियोंके (लिङ्गोंक) द्वारा ग्राह्यरूपमें भी आत्माका ग्रहण न होनेसे प्रात्माका इन्द्रियप्रत्यक्षका विषयभूत नहीं है यह ज्ञात होता है । ८-- इन्द्रियगम्य लिङ्गसे (साधनसे) अात्माका ग्रहण न होने से ''यह आत्मा इन्द्रिय प्रत्यक्षपूर्वक अनुमानका विषयभूत नहीं है" यह ज्ञात होता है । ६
Page #341
--------------------------------------------------------------------------
________________
855
R
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका
३२७ पातालीढशुद्धद्रव्यत्वस्य । न लिगं प्रत्यभिज्ञान हेतुर्ग्रहण मावबोधसामान्यं यस्येति द्रव्यानालीढगुदपयित्वस्य ।।१७॥ निदिष्टं संस्थानं यस्य सः ठीक तं, (अलिङ्गग्रहणकी निक्ति आत्मभ्याति टीका) ||१७२।। मलिङ्गसे अर्थात् स्वभाव से प्रात्माका ग्रहण होनेसे ग्रामा प्रत्यज्ञाता होता है" यह ज्ञात होता है। १०-- दूसरों के द्वारा लिङ्गसे (साधनसे) ही प्रात्माका ग्रहण नहीं है, अतः "प्रात्मा अनु. मसमान हो ऐसा नहीं है मह विदित होता है । ११-- लिङ्ग (सावन) से ही किसीके ग्रहणमें. प्रात्मा प्रायें ऐसा नहीं है अतः "अात्मा अनुमाता मात्र ही नहीं है। यह विदित होता है । १२- उपयोगरूप सिङ्गसे ज्ञेय अर्थक! पालम्ब नरूप महाग पास्या नहीं है, अतः बाह्य पर्थ के पालम्बन वाला ज्ञान होने के प्रभावको जानकारी होती है । १३- उपयोगरूप लिङ्ग कहीं . चौहर से नहीं हरा जोता, अत: "आत्माका अनाहार्य ज्ञान माना ज्ञात होता है । १४-उपयोगरूप तिङया दुसरेके द्वारा हरण नहीं होता अतः प्रात्माका अहाथ ज्ञानपना ज्ञात होता है । १५अमोगरूप लिङ्ग में ग्रहण (सूर्यग्रहणकी तरह) अर्थात् उपराग नहीं होता, अत: प्रात्माके गद्ध उपयोग स्वभावको जानकारी होती है। १६- उपयोगरूप लिङ्गके द्वारा ग्रहण अर्थात् मौदगलिक कोका ग्रहण नहीं होता, अतः "मात्मा द्रव्यकर्मसे विविक्त है" यह जाना जाता है। १७-- इन्द्रियरूप लिङ्गोंके द्वारा ग्रहग अर्थात् विषयोंका उपभोग नहीं होता, अतः प्रात्मा विषयोंका उपभोक्ता नहीं है" यह ज्ञात होता हैं । १८ - अात्मामें स्त्री पुरुष नपुंसक इन लिङ्गोंका ग्रहण नहीं है, अतः "प्रात्माके स्त्रोपना पुरुषपना व नपुसकपना नहीं है" यह जात होता है । १६- अात्मामें धर्ममुद्रारूप लिङ्गोंका ग्रहण नहीं है, अत: प्रात्माके बाह्य मुख्य मुनिलिङ्गका अभाव है यह जाना जाता है । २० - लिङ्ग अर्थात् गुणका ग्रहण याने अव बीय आत्माके नहीं है, अतः प्रात्मा गुणविशेषसे अनालिङ्गित है" यह ज्ञात होता है । - लिङ्ग अर्थात् पर्यायका ग्रहण ग्रात्माके नहीं है, अतः आत्मा पर्यायविशेषसे अनालिङ्गित यह शात होता है । २२- लिङ्ग अर्थात् प्रत्यभिजान कारणाभुत ग्रहण प्रात्माके नहीं है, प्रतः द्रव्य से अनालिङ्गि शुद्ध (केवल) पर्यायपनेका ज्ञान होता है । २३-- प्रात्मा स्वतःसिद्ध नादि अनंत अहेतुक चेतनागुणमय है ।
सिद्धान्त-~-(१) आत्मा स्वभावसे सत् है । (२) प्रात्म। परभावसे असत् है 1
दृष्टि-१- स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्याथिकनय (२८) । २- परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिक नय (२६) ।
प्रयोग--- अात्मसिद्धिके लिये परसे विविक्त स्वभावमय अपनेको ज्ञानमें लेना ।।१७२॥
=
S
R
-
Re
Page #342
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां
B8EEEEssesNEESMSSSSSSBE
RASTRACCIAS
RAVE
मन
अथ कथममूर्तस्यात्मनः स्निग्धरूक्षत्वाभावाबन्धो भवतीति पूर्वपक्षयति
मुत्तो रूवादिगुणो बज्झदि फासेहि अण्णामण्णा हिं। तविवरीदो अप्पा बज्झदि किंध पोग्गलं कम्म ॥१७३॥
रूपादिगुरपी मुतिक, अन्योन्यस्पशोंसे बँध जाले ।
___ कैसे अमूर्त प्रात्मा, बांधे पौद्गलिक कर्मोको ।।१७३१ मूतों रूपादिगुणो बध्यते स्पर्शेरन्योन्यैः । तद्विपरीत आत्मा बध्नाति कथं गौद्गलं काम ।। १७३ ।।
मूर्तयोहि तावत्पुद्गलयो रूपादिगुणयुक्तत्वेन यथोदितस्निग्धरूक्षस्पर्शविशेषादन्योन्यवः न्धोऽवधार्यते एव । प्रात्मकर्मपुद्गलयोस्तु स कथमवधार्यते । मूर्तस्य कर्मपालस्यरूपादिगुण
नामसंज--मुत्त रूवादिगुण फास अग्णमण्ण तग्विबरीद अप्प किंध पोग्गल कम्म । धातुसंज्ञ..-बंध बन्धने । प्रातिपदिक--मूर्त रूपादिगुण स्पर्श अन्योन्य तद्विपरील आत्मन् काश्य पौदगल्द कर्मन् । मूलधातुबन्ध बन्धने । उभयपदविवरण-मुत्तो मूर्तः स्वादिगुणो रूपादिगुणः तचिवरीदो तद्विपरीत: अप्पा आत्मा
अब अमूर्त आत्माके, स्निग्धरूक्षत्वका प्रभाव होनेसे बंध कैसे होता है ? इस प्रकार पूर्व पक्ष उपस्थित करते हैं- [रूपादिगुणः] रूपादिगुणयुक्त [मूर्तः] मूर्त पुद्गल [अन्योन्यः स्पर्शः] परस्पर स्निग्ध रूक्ष स्पोंसे [बध्यते] बंधता है; लेकिन [तद्विपरीतः आत्मा]. उससे विपरीत अमूर्त प्रात्मा [पौलिक कर्म] पोद्गलिक कर्मको कथं] कैसे [बध्नाति] बांधता है।
तात्पर्य----अमूर्त प्रात्मा मूर्त पुगलकर्मोको कैसे बाँध लेता है ? यह यहाँ प्रश्न हुना।।
टीकार्थ-मूर्त पुद्गलोंका तो रूपादि मुणयुक्तपना होसे यथोक्त स्निग्ध रूक्षत्वरूप स्पर्शविशेषके कारण उनका पारस्परिक बंध अवश्य निश्चित किया जा सकता है, किन्तु मारमा और कर्मपद्गलका बंध कैसे समझा जा सकता है ? क्योंकि मूर्त कर्मपुद्गलके रूपादिगुणयुक्त पना होनेसे यथोक्त स्निग्ध रूक्षत्वरूप स्पर्शविशेष संभव होनेपर भी अमूर्त आत्माके रूपादि: गुणयुक्तताका प्रभाव होनेसे यथोक्त स्निग्धरूक्षत्वरूप स्पर्शविशेष प्रसंभव होनेसे वहाँ एक अंग की विकलता है।
प्रसङ्गविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें जीवका स्वलक्षण बताया गया था। अब इस माथामें प्रश्न किया गया है कि स्निग्धपने व रूक्षपनेका प्रभाव होनेसे अमूर्त प्रात्माके बन्ध कैसे हो सकता है ?
तथ्यप्रकाश---(१) मूर्त पुद्गल पुद्गलोंमें सो स्निग्धपना रूक्षपनाके कारण परस्पर बन्ध होना असंदिग्ध है । (२) प्रश्न--अमूर्त प्रात्मामें मूर्तकर्मपुद्गलका बन्ध कैसे हो सकता
980882008-
comsasara
Sou
r
erence
m
edegeneration
Mitoconseniwage
SERRAO
Page #343
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार—सप्तदशाङ्गी टीका
३२६ युक्तत्वेन यथोदितस्निग्धरूक्षत्वस्पर्शविशेषसंभवेऽप्यमूर्तस्यात्मनो रूपादिगुणयुक्तत्वाभाबेन यथो. दितस्निग्धाक्षत्वस्पर्श विशेषासंभावनया चैकाङ्गविकलत्वात् ।।१७३।। प्रथमा एकवचन 1 अदि बध्यते-वर्त० अन्य० एक० भावकर्मप्रकिया। फारहि स्पर्शः अण्णमोहि अन्योन्यः तृतीया बहु० । बज्झदि वनाति-वर्त अन्य एक० क्रिम । किध कथं अव्यय । पोग्गलं पोदगलं काम कर्म-द्वितीया एकवचन । निरुक्ति-स्पर्शनं स्पर्शः स्पृश्यते य: स: स्पर्शः, विपर्ययतेसम्म यः स विपरीत: वि परि इणू गतौ । समास-तिस्माद् विपरीतः तविपरीत: १३। है, क्योंकि कर्ममें स्निग्धरूक्षपना रहा प्रायो, किन्तु प्रात्मामें तो स्निग्धरूक्षपना असंभव हो है । (३) प्रश्न....दोनों मूर्तों में तो बन्ध हो सकता है, किन्तु एक अमूर्त हो व दुसरा मूर्त हो उत्तका परस्पर बन्ध कैसे हो सकता है ?
सिद्धान्त -- १-- अमूर्त आत्मामें मूर्त कर्मों का बंध कहना मात्र उपचार काथन है । दृष्टि१एक जात्याधारे अन्य जात्याधेयोपचारक व्यवहार (१४२) ।
प्रयोग--आत्मा व कर्ममें निमित्तनैमित्तिक बन्ध होनेपर भी आत्मसत्त्वकी दृष्टि करके मात्माको समस्त परतत्वोंसे पृथक् देखना ।। १७३।।
अब यह अमूर्त होनेपर भी प्रात्माके इस प्रकार बंध होता है यह सिद्धान्त निर्धारित करते हैं- [रूपादिकः रहितः] रूपादिकसे रहित प्रात्मा यथा] जैसे [रूपादोनि] रूपादि को [ध्याणि च गुणान] रूपी द्रव्योंको और उनके गुणोंको [पश्यति जानाति देखता है और जानता है [तथा] उसी प्रकार [तेन] रूपोके साथ [बंधः जानीहि] बंध होता है ऐसा
जानो।
-
-
..M
मा तात्पर्य----ग्ररूपी अात्मा जैसे रूपी द्रव्यको जानता है वैसे जोध रूपी पुद्गलकर्मको बांधता है।
टीकार्थ—जिस प्रकारसे रूपादिरहित जीवरूपी द्रव्योंको तथा उनके गुणोंको देखता है तथा जानता है, उसी प्रकार रूपादिरहित जीव रूपी कर्मपुद्गलोंके साथ बंधता है; क्योंकि यदि ऐसा न हो तो अमूर्त मूर्तको कैसे देखता-जानता है ? इस प्रकार यहाँ भी प्रश्न अनिवार्य है। और ऐसा भी नहीं है कि अरूपीका रूपीके साथ बंध होने की बात अत्यन्त दुर्घट होनेसे उसे दान्तिरूप बनाया है, परन्तु दृष्टान्त द्वारा आबालगोपाल सभीको स्पष्ट समझाया गया है। स्पष्टीकरण----जैसे बाल-गोपालका पृथक रहने वाले मिट्टीके बलको अथवा सच्चे बलको देखने और जाननेपर बैलके साथ संबंध नहीं है तो भी विषयरूपसे रहने वाला बैल जिनका निमित्त है ऐसे उपयोगमें भासित वृषभाकार दर्शन ज्ञान के साथ का संबंध बैलके साथके संबंध. रुपयवहारका साधक अवश्य है; इसी प्रकार प्रात्माका अरूपी होनेके कारण स्पशं शून्यपना होनेसे कर्मपुद्गलोके साथ संबंध नहीं है तो भी एकादगाहरूपसे रहने वाले कर्म पुद्गल जिनके
inima....
.
.........
सम्मम्मम्म म्
Page #344
--------------------------------------------------------------------------
________________
H
सहजानन्दशास्त्रमालायां अथैवममूर्तस्याप्यात्मनो बन्धो भवतीति सिद्धान्तयति--
रूवादिएहिं रहिदो पेच्छदि जाणादि रूवमादीणि । दव्वाणि गगो य जधा तह बंधो तेण जागीहि ॥१७॥
रूपादिरहित प्रात्मा, रूपी मूर्तीक द्रव्य व गुणोंको।
देखता जानता ज्यौं, बन्धनको विधि भी क्यों जानो ॥१७४॥ रूपादिकै रहितः पश्यति जानाति रूपादीनि । द्रव्याणि गुणांश्च यथा तथा वन्धस्तन जानीहि ।।१४।।
येन प्रकारेण रूपादिरहितो रूपीणि द्रव्याणि तद्गुणश्च पश्यति जानीति च, तनंव प्रकारे रूपादिरहितो रूपिभि: कर्मपुद्गलः किल बध्यते । अन्यथा कथममुर्तो मूर्तं पश्यति जानाति चेत्यत्रापि पर्यनुयोगस्यानिवार्यत्वात् । न चैतदत्यातदुर्घटत्वाहाष्टान्तिकीकृतं, किंतु दृष्टान्तद्वारेरणा बालगोपालप्रकटितम् । तथाहि--यथा बालसाय गोपालकस्य वा पृथगवस्थित मृदुबलीव बलीवदं था पश्यतो जानतश्च न बली बर्देन सहास्ति संबन्धः, विषयभावास्थित. बलीवर्दनिमित्तोपयोगाधिरूढबलीवकारदर्शन ज्ञानसंबंधो बलीवर्दसंबधव्यवहारसाधकस्त्वस्त्येव, तथा किलात्मनो नोरूपत्वेन स्पर्शशून्यत्वान्न कर्मपुद्गलः सहास्ति संबन्धः, एकावयाहभावाव. स्थितकर्मपुद्गलनिमित्तोपयोगाधिरूढरागद्वेषादिभाव संबन्धः कर्मपुद्गलबन्धव्यवहारसाधकस्त्व. स्त्येव ॥१७४।।
नामसंज्ञ--स्वादिअ रहिद रूबमादि दव्य गुण य अधः तह बंध त । धातुसंज्ञ~-4 इक्ख दर्शने व्यक्तायां वाचि तृतीयगणी, जाण अवबोधने । प्रातिपदिक-संपादिक रहित रूपादि दब ग ण जधा नह बंध त । मूलधात...शिर दर्शने, ज्ञा अवबोधने । उभयपदविवरण--रूवादिएहि रूपादिक:-तृतीया बहु० । रहिदो रहित:-प्रथमा एक०। पेच्छृदि पश्यति जाणादि जानाति-वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन किया। रुवमादीणि रूपादीनि-द्वि० बह० । दब्वाणि द्रध्याणि-द्वि० व० । गण गणान-द्वि००। य च जघा यथा तह तथा-अव्यय । बंधो बन्ध:--प्र० एक० । तेण तेन-तृतीया एक० । जाणीहि जानीहिआज्ञार्थ मध्यम पुरुष एकवचन किया । निरुक्ति---रूप्यते यः स रूपः ॥१७१।। निमित्त है ऐसे उपयोगमें भासित रागद्वेषादिभावोंके साथका संबंध कांपुद्गलोंके साथ के बंध रूप व्यवहारका साधक अवश्य है ।
प्रसंगविवरर---अनन्तरपूर्व गाथामें प्रश्न किया गया था कि स्निग्धपना व रूक्षपना होनेसे अमूर्त प्रात्माके बंध कैसे हो सकता है ? अब इस गाथामें उक्त प्रश्न का समाधान दिया गया है।
तथ्यप्रकाश--- (१) जैसे अरूपी प्रात्मा रूपी द्रव्यों और गुणोंको जान देख लेता है ऐसे ही अरूपी प्रात्मा रूपी कर्मपुद्गलोंसे बंध जाता है। (२) जैसे वास्तवमें बालक पृथक्
AMADHANAMANCHAHMEDABARRIA
म
Page #345
--------------------------------------------------------------------------
________________
V
BOOR
३३१
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका प्रय भावबन्धस्वरूपं ज्ञापयति----
उवयोगमयो जीवो मुझदि रज्जेदि वा पदुस्सेदि । पप्पा विविध तिसये जो हि पुणो तेहिं संबंधो॥१७॥
उपयोगमयो आत्माका नाना विषयभावको पाकर ।
मोही रागो द्वेषी, होना हो भावबन्धन है ॥ १७५ ।। उपयोगभयो जीवों मुह्यति रज्यति वा प्रéष्टि । प्राप्य विविधान् विग्यान यो हि पुनस्तः संबन्धः ॥१७॥
. अयमात्मा सर्व एव तावत्सविकल्पनिर्विकल्पपरिच्छेदात्मकत्वादुपयोगभयः । तत्र यो Mहि नाम नानाकारान् परिच्छेद्यानर्थानासाद्य मोहं वा राग वा द्वेषं वा समुपैति स नाम तैः ।
नामसंज-उवओगम जीव विविध विसय जहि पुणो त संबंध । धातुसंज्ञ---मुज्झ मोहे, रज्ज लसे, म दुस वकृत्ये अप्रीतौ च, प अप्प अशो। प्रातिपदिक-उपयोगमय जीव विविध विषय यत् हि "मुत्ता वाले खिलाने के घोड़े को देखता हुआ कहता है मेरा घोड़ा, तो बालकका उस घोड़ेसे कुछ सम्बन्ध नहीं तथापि विषयविषयोभावसे वह सम्बन्ध बना है । (३) ऐसे हो सकपो आत्माका समर्श शुन्यपना होनेसे कर्मपुद्गलोंके साथ कोई सम्बन्ध नहीं तथापि कर्मविपाकनिमित्तक उपयोगगत रागद्वेषादि भावका सम्बन्ध कर्मपुद्गलबंधका व्यबहार सिद्ध करता है। (४) तादास्य सम्बन्ध न होनेपर भी परमात्मा ग्राह्यग्राहक सम्बन्धसे रूपी पदार्थको जानता है। (५) तादात्म्यसम्बन्ध न होनेपर भी श्रावकका परमात्माराधनामें अाराध्यनाराधक सम्बन्ध है।
१) तादात्ययसम्बन्ध न होनेपर भी सोपाधि जोव के साथ कम पुद्गलोंका एकत्रावगाह "निमित्तनमित्तिक बन्धनका सम्बन्ध है ।
सिद्धारत-(१) एक नेत्रावगाह निमित्तनैमित्तिक सम्बन्धसे आगे बढ़कर जीन कर्मका परस्पर बन्धन होना मानना उपचार है।
दृष्टि-.--१- संश्लिष्ट विजात्युपचरित प्रसद्भुत व्यवहार (१२५) ।
प्रयोग -प्रात्मीय शाश्वत सहज प्रानन्द पाने के लिये अन्यसत्ताक उपाधिसे भिन्न अपनेको अविकार ज्ञानस्वभावमात्र निरखना व अनुभवना ॥१७४।।
अब भावबंधके स्वरूपका ज्ञापन करते हैं ----[यः] जो [उपयोगमयः जीवः] उपयोगम्य जीव [विविधान विषयान] विविध विषयोंको [प्राप्य ] प्राप्त करके [मुह्यति] मोह करता है; [रज्यति] राप करता है, [वा] अग्रवा [प्रद्वेष्टि] द्वेष करता है, हि पुनः] नि. स्वयसे वह जीव [तैः] उन मोह-राग-द्वेषके द्वारा संबंद्धः] बंधा हुमा है।
तात्पर्य-राग द्वेष मोह करता हुआ यह जीव निश्चयतः राग द्वेष मोहसे बंधा हुआ है। टीकार्थ---यह प्रात्मा सब ही सविकल्प और निर्विकल्प प्रतिभासस्वरूप होनेसे उप
......
GHAR
प्रा
।
Page #346
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहलानन्दशास्त्रमालायां परप्रत्ययैरपि मोहरागद्वेष स्परक्तात्मस्वभावत्वान्नीलपीतरत्तोपाश्रयप्रत्ययनीलपोतरक्तस्वरुपरक्त. स्वभावः स्फटिकमणिरिव स्वयमेक एव तद्भावद्वितीयत्वाबन्धो भवति ।।१७।। पुनर् तत् सम्बन्ध । मूलधातु-...मुह बचिरये, रंजु रागे प्र विध् अप्रीती। उभयपदविवरण--उवओगमओ उपयोगमय: जीवो जीव:-प्रथमा एक० । मुज्झदि मुह्यति रज्जेदि रज्यति पदुस्सेदि प्रद्वेष्टिा-वर्तमान अन्य। पुरुष एकवचन क्रिया । 'पप्पा प्राप्य-सम्बन्धार्थप्रक्रिया कृदन्त अव्यय । विविधे विविधान् विसये विषयानद्वि बहन । जो यः संबंधो सम्बन्ध:प्रथमा एक ति:-तुतीया बट | हिवा-अव्यय । निरुक्तिविशेषेण धानं विधा विविधा विधा येषां ते विविधाः तान डुधाञ वारणपोषणयोः उपयोगेन निर्वृत्त: उपयोगमयः ।।१७।। योगमय है उसमें जो प्रात्मा विविधाकार प्रतिभासित होने वाले पदार्थीको प्राप्त करके मोह, राग अथवा द्वेष करता है, वह काला, पीला और लाल आश्रय जिनका निमित्त है ऐसे कालेपन, पीलेपन और ललाईके द्वारा उपरक्त स्वभाववाले स्फटिक मणि की तरह-..-पर जिनका निमिस है ऐसे मोह, राग और द्वेषके द्वारा उपरक्त आत्मस्वभाववाला होने से स्वयं एक ही है, तो भी मोह-राग-द्वेषादि भावकी द्वितीयता होनेसे बंधरूप होता है ।
प्रसंगविवरण--अनन्तरपूर्व माथामें नमूर्त होनेपर भी प्रात्माका बन्ध किस प्रकार होता है वह सिद्धान्त स्थापित किया था। अब इस गाथामें भावबन्धका स्वरूप बताया गया
तथ्यप्रकाश - (१) यह अात्मा सामान्यविशेषप्रतिभासात्मक होनेसे उपयोगमय है।। (२) उपयोगमय होनेसे यह अनादिकर्मबन्धनबद्ध आत्मा नाना शेय विषयोंको पाकर मोह साग द्वेषसे परिणत हो जाता है । (३) मोह राग द्वेषसे उपरक्त होनेसे स्वयं एक होनेपर भी स्वभावविरुद्ध भावका इस प्रातमा बन्ध होना भावबन्ध है। (४) हरित पीत आदि उपाधि के संयोगसे स्फटिक मणि भी स्वयं एक है तो भी छायाविभावका वहाँ बन्ध है ।
सिद्धान्त-(१) अपने विकारपरिणमनका बन्धन भावबन्ध है। दृष्टि-१- अशुद्धनिश्चयनय (४७)
प्रयोग----भावबन्धकी विपत्तिसे हटनेके लिये अविकार चित्स्वभावमें आपा अनुभवना ॥१७५
अब भावबंधकी युक्ति और द्रव्यबंधका स्वरूप बतलाते हैं- [जीवः जीव [येत भावेन] जिस भावसे [विषये प्रागतं] इन्द्रियविषयमें आये हुए पदार्थको [पश्यति जानाति] देखता है, जानता है, [तेन एवं] उसीसे [रज्यति] उपस्त होता है; [पुनः] और उसीके निमित्तसे [कर्म बध्यते] कर्म बंधता है; [इति] ऐसा [उपदेशः] उपदेश है ।
Page #347
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३३
प्रवचनसार--सप्तदशांगी टीका अप भावबन्धयुक्ति द्रव्यचन्दस्वरूप प्रज्ञापयति--
भावेण जेण जीवो पेच्छदि जाणादि आगदं विसये । रजदि तेणेव पुणो बज्झदि कम्म त्ति उवदेसो ॥१७६॥ जिस रामादि भावसे, विषयागत वस्तु जानता लखता ।
उससे हो रक्त होता, बँध जाता कर्मसे वह फिर ।।१७६।। भाषेत येन जीवः पश्यति जानात्यागतं विषये। रज्यति तेनैव पुनर्वध्यते कमत्युपदेश: ।। १७६ 11 ante अयमात्मा साकारनिराकारपरिच्छेदात्मकत्वात्परिच्छेद्यतामापद्यमानमर्थ जातं येनैव मोहपेरण रागरूपेण द्वेष रूपेरण वा भावेन पश्यति जानाति च तेनंवोपरज्यत एव । मोऽयमुपसा: स खलु स्निग्धरूक्षत्वस्थानीयो भावबन्धः । अथ पुनस्तेनैव पोद्गलिक कर्म बध्यत एव, त्यष भावबन्धप्रत्ययो द्रव्यबन्धः ।।१७६॥
नामसंज-भाव ज जीव आगद विसय त एव पुणो कम्म त्ति उवदेस । धातुसंज्ञ-...प इक्ख दर्शने, म अवयोधने, रज्ज रागे, बंध बंधने' । प्रातिपदिक-भाव यत् जीव आगत विषय तत् एव पुनर् कर्मन् पति उपदेश । मुलधातु-दृशिर प्रेक्षणे. ज्ञा अवबोधने, रंज समे, बन्ध बन्धने । उभयपदविवरण-भावेण भावेन डेग येन तेण तेन-तृतीया एकवचन । जीवो जीव: कम्म कर्म उवदेसो उपदेशः-प्रथमा एक यदि पश्यति जाणदि जानाति रज्जदि रज्यति-वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । आगदं आमत
एक । विसये विषये-सप्तमी एक० । एव पुणो पुनः नि इति-अध्धय । बज्मदि बध्यते-वर्त अन्य ० र भावकर्मप्रक्रिया । निरुक्ति- उपदेशन उपदेशः ।।१७६।।
टीकार्थ----यह आत्मा साकार और निराकार प्रतिभासस्वरूप होनेसे प्रतिभास्य पदार्थ समहको जिस मोहरूप, रागरूप या द्वेषरूप भावसे देखता है और जानता है, उसीसे उपरक्त माता है । जो यह उपराग (विकार) है वह वास्तवमें स्निग्धरूक्षत्वस्थानीय भावबंध है ! और एसोसे अवश्य पौगिलक कर्म बंधता है । इस प्रकार वह द्रव्यबंधका निमित्त भावबंध है ।
- प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें भावबन्धका स्वरूप बताया गया था । अब इस माया भावबन्धको युक्ति और द्रव्य बन्धके स्वरूपको बताया गया है ।
तिथ्यप्रकाश---(१) यह जोव जिस ही मोहरूप, रागरूप या द्वेषरूप भावसे पदार्थोंको खता जानता है उस ही भावसे उपरक्त (गलिन) हो जाता है । (२) जो भी यह उपराग है
म ही द्वारा पौद्गलिक कर्म बंध जाता है 1 (३) यह उपराग हो भावबंध है जो कि पुद= पनकर्म के साथ जीवको बद्ध कर देने में कारण है । (४) जैसे पुद्गलका स्निग्ध रूक्षपना बन्ध
कारण है ऐसे ही जीवका यह उपराग बन्धका कारण है । (५) पौद्गलिककर्मबन्ध भाव. निमित्तक है।
Page #348
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां अथ पुद्गलजीवतदुभरवन्धस्वरूपं ज्ञापयति
फासेहिं पुग्गलाणं बंधो जीवस्स रागमादीहिं । अण्णहोण्णामवगाहो पुग्गलजीवप्पगो भणिदो ॥१७७॥ स्पर्शसे पुद्गलोंका, प्रात्माका बन्ध राग आदिकसे ।
पारस्पर प्रावगाहन, पुद्गलजीवात्मबन्ध कहा ॥१७७।। स्पशः पुद्गलानां बन्धो जोवस्य रागादिभिः। अन्योन्यमवगाहः पुद्गलजीवात्मनो भणितः ॥ १७ ॥
___ यस्तावदत्र कर्मणां स्निग्धरूक्षत्वस्पर्शविशेषरेकत्व परिणामः स केवलपुद्गलबन्धः । यस्तु जीवस्यौपाधिकमोहरागद्वेषपर्यायरेकत्वपरिणामः स केवलजीवबन्धः । यः पुनः जीवकर्मा
नामसंज्ञ---- फास पुग्मल बंध जीव रागमादि अण्णोण अवगाह पुग्गलजीवायण भणिद । धातुसंह
सिद्धान्त-~-(१) भावबन्धकी योजना अशुद्धोपयोगसे होती है । (२) नवीन द्रव्यकर्म का बन्ध भावबन्ध निमिसक है । (३) भावबन्ध द्रव्यप्रत्ययनिमित्तक है।
दृष्टि----१- उपादानदृष्टि (४६ ब) । २-- उपाविसापेक्ष अशुद्ध द्रव्यायिकनय, निमित्त त्वनिमित्तदृष्टि निमित्तदृष्टि (५३, ५३स, ५६ब)। ३- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनया निमित्तदृष्टि (५३. ५३अ)।
प्रयोग ... भावबन्ध द द्रव्यबंधसे छुटकारा पानेके लिये अविकार चित्स्वभाव में प्रामा त्वका अनुभव करना ॥१७६॥
अब पुद्गलबंध, जीवबंध और उन दोनोंके बंधस्वरूपको बतलाते हैं-स्पते।। स्पोंके द्वारा [पुद्गलानां बंधः] पुद्गलोंका बंध, [रागादिभिः जीवस्य] रागादिकोंके द्वारा जीवका बंध, और [अन्योन्यम् अवगाहः] अन्योन्य अवगाहरूप [पुद्गलजीवात्मकः मरिणतः ।। पुद्गलजीवात्मक बंध कहा गया है।
तात्पर्य-कर्मवर्गणाके परस्पर बंधको द्रव्यबंध, उपयोगमें रामादिक पानेको जीववव व जीव एवं कर्मपुद्गल के परस्पर अवगाह होनेको उभयबंध कहते हैं।
टीकार्थ....- प्रथम तो यहाँ, कर्मोका जो स्निग्धतारूक्षतारूप स्पर्शविशेषों के साथ एक त्वपरिणाम है यह केवल पुद्गलबंध है; और जीवका प्रोपाधिक मोह-राम द्वेषरूप पर्यायो । साथ जो एकत्व परिणाम है वह केवल जीवबंध है; और जीव तथा कर्मपुद्गलके परस्पा । परिणामके निमित्तमानपनेसे जो विशिष्टतर परस्पर अवगाह है वह उभयबंध है।
प्रसंगविवरण--अनन्तरपूर्व गाथामें भावबन्धकी युक्ति एवं द्रव्यबन्धका स्वरूप बताया। गया था। अब इस गाथामें द्रव्यबंध, भावबंध व उभयबंधका स्वरूप बताया गया है।
Page #349
--------------------------------------------------------------------------
________________
THAN
रुमा
प्रवचनसार-सप्तदशांगी रीवा
पदमलयोः परस्पर परिणाम मित्तमात्रत्वेन विशिष्टतरः परस्परमवगाहः स तद यन्त्रः ११७७) राम कयने माह स्थापना ग्रामप्रवेशेषु । प्रातिपदिक-पही पाल बन्ध जीय रागादि अन्योन्द्र अवगाह
मामलजीवात्मक भणन । मुला--मण शब्दार्थः माह त्रिलोड़ने । उभयपदविवरण-फासहि स्पर्स: रागसादीहि रामादिभिः-नृनीमा बह। पोई पुन दाना-पाठी यह ० । बंधों बन्धः अवगारे अवगाह: सारजीवश्यगो पृदयामजीवात्मका:-'प्रथमा एक मशिदो भणित:-प्रथमा किवचन बृदन्त क्रिया। पारोपण अन्योन्य क्रियाविशेषण अन्योन्य मया यातया अथवा वम द्वि० एक० (अवगाहः) । निरुक्ति--- पवन बन्यः, अवगाहमें अवगाः ।।१७ : है।
तथ्यप्रकाश... १- कर्मोका मिन्धयने व क्षय के विशेषोंके द्वारा जो पूर्ववद्ध कार्माण हालसे नद घुगन्न बत्दापरिणाम है वह पृद् हुन्नबन्ध है । २-- कारिणतर्गयों में कर्मत्व. गरिमामात हो होकर तत्क्षण कार्मा शरीर से बैंध जाना द्रव्यबन्ध है। ३- निरुपग चैतन्य स्वरुप पन्तस्तत्त्वको भावना रहित जोत्रका प्रोवाधिक मोह राग द्वेष पर्याय के साथ एकस्व. परिणाम हो जाना जीवन्ध है। ४- त्रिकामाबों द्वारा जीवस्वभाव तिरोहित हो जाना नादवन्ध है । ५- जीवस्वभाव पर विचार भावोका लद जाना भावबन्ध है ! ६- निविकार. स्ववेदतज्ञानरहितपना होने से रामटेष परिणत जीव का और बंधयोग्य स्निग्ध रूक्ष परिणत कर्म
पालको परस्पर परिणमननिमित्त मात्रसे अति विशिष्ट परस्पर अन गाह हो जाना उभयचंध है । का सिद्धान्त ..... () श्रावबन्ध केवल जीवन्ध है । (6) द्रव्यबन्ध केवलपुद्गलबन्ध है । E) उभयवन्य जीद व पुद्गल का परस्पर बंध हैं।
दृष्टि-५- अशुद्धनिश्चयनय (४७) । २- शुद्धनिश्चय नय, निमित्तदृष्टि (४७, र २५ । ३- निमितधि (५३) ।
- प्रयोग.. अन्तर्बाह्य उपाधिस हटने के लिये निरुपाधि चैतन्य भाव में अात्मत्व अनुभबना ॥५.७७ Me अव द्रव्यबंधको भावबंधोतकताको उज्जीवित करते हैं- [सः प्रात्मा] वह प्रात्मा
प्रदेशः सप्रदेश हैं: [तेषु प्रदेशेषु उन प्रदेशमें युद्गलाः कायाः] पुद्गलसमूह [प्रविशति] प्रवेश करते हैं. [१] और [बध्यन्ते बंधते हैं [यथायोग्यं तिति] यथायोग्य रहते हैं, कर यान्ति] जाते हैं।
तात्पर्य-प्रदेश प्रात्मामें कर्मरकंध माते हैं, बंधते हैं, ठहरते हैं, फिर निकलते हैं । _टोकार्थ-- बह आत्मा लोका काशके बराबर असंख्यप्रदेश बाला होनेसे सप्रदेश है । को उसके इन प्रदेशों में कायवर्गरणा, वचनवगंगा और मनोवर्गणाका पालम्बन वाला परिस्पन्द बस प्रकारसे होता है उस प्रकार से कर्मपुद्गल के समूह स्वयमेव परिस्पन्द वाले होते हुये प्रवेश
Page #350
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां अथ द्रव्यबन्धस्य भावबन्धहेतुकत्यभुज्जीवति----
सपदेसो सो अप्पा तेसु पदेसेसु पुग्गला काया। पविसंति जहाजोग्गं चिट्ठति य जंति बन्झति ॥१७॥ सप्रदेश वह प्रात्मा, पुद्गल विधि काय जन प्रदेशोंमें ।
प्रविशते ठहरते वे, आते हैं और बँधते वे ॥ १७८ ॥ सप्रदेश: स आत्मह तेषु प्रदेशेषु पुद्गला: काया: । प्रविशन्ति यथायोग्यं तिष्टन्ति न यान्ति बध्यन्ते ।।१७८|
___ अयमात्मा लोकाकाशतुल्यासंख्येयप्रदेशत्वात्सप्रदेशः अथ तेषु तस्य प्रदेशेषु कायनाङ्मनोवर्गरणालम्बनः परिस्पन्दो यथा भवति तथा कर्मपुद्गलकायाः स्वयमेव परिस्पन्दवन्तः प्रवि. शन्त्यपि तिष्ठन्त्यपि गच्छन्त्यपि च । अस्ति चेज्जीवस्य मोहरागद्वेषरूपो भावो बध्यतेऽपि च । ततोऽवधार्यते द्रव्यबन्धस्य भावबन्धो हेतुः ॥१७॥
नामसंज्ञ-सपदेस त बम्पन पदेस पुग्गल काय जहाजोगं य । धातुसंज–प विस प्रवेशने, चिट्ठ गतिनिवृत्तौ तृतीयगणी, जा गती, बंध बन्धने । प्रातिपदिक-सप्रदेश सत् आत्मन् तत् प्रदेश पुद्गल काय यथायोग्य च । मूलधातु- प्रविश प्रवेशे, ष्ठा गतिनिवृत्तौ, या प्रापणे, बन्ध बन्धने' । उभयपदविवरण--- सपदेसो सप्रदेशः सो सः अप्पा आत्मा--प्रथमा एक । तेसु तेषु पदेसेसु प्रदेशेषु-सप्तमी बहु । पुमाला पुद्गलाः काया कायाः-प्रथमा बहुवचन ! पविसंति प्रविशन्ति चिट्ठति तिष्ठति जति यान्ति-वर्तमान अन्य बहु० क्रिया । बझति बध्यन्ते-वर्तमान अन्य बहु० भावकर्मप्रक्रिया । जहाजोग्ग यथायोग्यं-क्रियाविशे. पण अव्यय । निक्ति -~-प्रकृष्टेल देशनं प्रदेशः, येन प्रकारेण इति यथा (यत् +थाल सद्धित), अतति सततं. गच्छति जानाति इति आत्मा । समास-प्रदेशेन सहितः सप्रदेशः ।।१७।। भी करते हैं, रहते भी हैं, और जाते भी हैं। और यदि जीवके मोह राग-द्वेषरूप भाव हों तो बंधते भी हैं । इसलिये निश्चित होता है कि द्रव्यबंधका हेतु भावबंध है।
प्रसंगविवरण ----- अनन्तरपूर्व गाथामें भावबंध, द्रव्यबंध व उभयबंधका स्वरूप बताया गया था । अब इस गाथामें द्रव्यबन्धकी भावबन्धहेतुकता प्रकट की गई है।
तथ्यप्रकाश-१- प्रत्येक जीव लोकाकाशप्रदेशप्रमाणा गणनामें असंख्यातप्रदेशी है। २- जीवप्रदेशों में मन वचन कायकी वर्गरणाके अवलम्बन वाला जैसे ही योगपरित्यक्त होता है वैसे ही पुद्गलकर्मवर्गणायें स्वयं ही प्रवेश करती हैं, बंधती हैं, ठहरती हैं और जाती भी.
हैं । ३- योगके समय यदि मोह राग द्वेषरूप भाव होता है तो पुद्गलकर्मबर्गणायें स्वयं ही * बंध जाती हैं । ४- उत्तप्रक्रिया द्रव्यबंधका निमित्त भावबन्ध सूचित किया गया है । ५-- .. कार्माणवर्गणावों में कर्मत्वका प्रवेश होना प्रदेशबंध है। ६- कर्मप्रदेशोंमें प्रकृतित्वका बँधना
प्रकृतिबन्ध है । ७- कर्मवर्गणावोंका ठहरना स्थितिबन्ध है । - फल देकर जाना नियंत
utum".
militmendmHRIMARY
Page #351
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३७
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका नव्यबन्धहेतुत्वेन रागपरिणाममात्रस्य भावबन्धस्य निश्चयबन्धत्वं साधयति--
रत्तो बंधदि कम्मं मुञ्चदि कम्मेहि रागरहिदप्पा ।
एसो बंधसमामो जीवाणं जाण णिच्छयदो ॥१७६।। |
रागी हि कर्म बांधे, व छूटता रागरहित कर्मोसे । -
संक्षिप्त बन्धविचरण, जीवोंका जान निश्चयसे ।।१७६॥ को बधनाति कर्म मुच्यते कर्मभी रागरहितात्मा । एप बन्धसमासो जीवानां जानीहि निश्चयतः ॥१५६।।
- यतो रामपरिणत एवाभिनवेन द्रव्यकर्मणा बध्यते न वैराग्यपरिणतः, अभिनवेन द्रक्ष्यमा रागपरिणतो न मुच्यते वैराग्यपरिणत एव, बध्यत एव संस्शुशतवाभिनवेन द्रव्यकर्मणा सरचितेन पुराणेन च न मुच्यते रागपरिणतः, मुच्यत एवं संस्पृशतवाभिनथेन द्रव्यकर्मणा
नामसंज्ञ-रत्त कम्म कम्म रागरहिदप्प एत बंधसमास जीव शिच्छयदो। धातुसंज्ञ-बंध बन्धने । व त्यागे जाण अवबोधने । प्रातिपदिकः ----रक्त कर्मन् कर्मन रागरहितात्मन एतत् बन्धसमास जीव निस्यमा । मूलपातु----बन्ध बन्धने, मृच्न मोचने, ज्ञा अवधोधने । उभयपदविवरण- रत्तो रक्तः रागरहिदमा रामरहितात्मा एसो एषः बंधसभासो बन्धसमासः-प्रथमा एकवचन । बंधदि बध्नाति-वर्तमान अन्य ना मनुभागबन्ध है।
सिद्धान्त-१- द्रव्यबन्धका मूल निमित्त भावबन्ध है । दृष्टि------- निमित्तत्वनिमित्तदृष्टि (५३ब)।
प्रयोग-द्रव्य बन्धके निमित्तभूत भावबत्यसे छुटकारा पानेके लिये प्रबन्ध आत्मस्वभाव की प्रभेद उपासना करना ॥१७८।।
सब रागपरिणाममात्र भावबन्ध के द्रव्यबन्धका हेतुपना होनेसे निश्चयबंधपना सिद्ध करते हैं - [रक्तः] रागो प्रात्मा [कर्म बध्नाति] कर्म बांधता है, [रागरहितात्मा रागरहित । पारमा [कर्मभिः मुच्यते] कर्मोसे मुक्त होता है;-- [एषः] यह [जीवानां] जीवोंके [बंधसमासः] बंधका संक्षेप है, ऐसा [निश्चयतः] निश्चयसे [जानीहि] जानो। - तात्पर्य-रागी जोध कर्मसे बंधता है और रागरहित जीव कर्मोंसे छूटता है।
टोकार्थ--चुकि रागपरिणत जीव ही नवीन द्रव्यकर्मसे बंधता है, वैराग्यपरिणत नहीं, परिणत जीव नवीन द्रव्यकर्मसे मुक्त नहीं होता वैराग्यपरिणत ही मुक्त होता है, रामपरि. स जीव संस्पर्श करने वाले नवीन द्रव्यकर्मसे और चिरसंचित पुराने द्रव्यकर्मसे बंधता ही है मुक्त नहीं होता, वैराग्यपरिणत जीव संस्पर्श करने वाले नवीन द्रव्यकर्मसे और चिरसंचित पुरासे दव्यकर्मसे मुक्त ही होता है, बंधता नहीं है, इस कारण निश्चित होता है कि द्रव्यबंध
OBER
Page #352
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३८
सहजानंदशास्त्रमालायां चिरसंचितेन पुराणेन च वैराग्यपरिगतो न बध्यते । ततोऽवधार्यते द्रध्यबन्धस्य साधकतमत्वाद्रागपरिणाम एव निश्चयेन बन्धः ।।१७६।। पुरुष एकवचन क्रिया । कम्मं कर्म-द्वितीया एक० । मुच्चदि मुच्यते-वर्त० अन्य० एक० भावकर्मप्रक्रिया । कम्मेहि कर्मभिः-तृतीया बहु० । जीवाणं जीवानां-षष्ठी बहु० ॥ जाण जानीहि-आज्ञार्थे मध्यम पुरुष एकवचन त्रिया । णिच्छवदो निश्चयत:-पंचम्यर्थे अव्यय । निरुक्ति-से असनं समासः अस' गति दीप्त्यादा ने भ्वादि । समास-- रागेन रहितः राग रहित: रागरहितश्चासौ आत्मा चेति रागरहितात्मा, बन्यस्य समास: बन्धसमासः ॥ १७६ ।।
ABHRStrimmissiMUSTIRESTHA
का साधकतम होनेसे सगपरिणाम ही निश्चयसे बंध है।
प्रसंग विवरण-----अनन्तरपूर्व गाथामें द्रव्य बन्धका निमित्त भावबन्धको बताया गया। था। अब इस गाथामें बन्ध व मोक्षके पात्र जीवका विश्लेषण किया गया है ।
तथ्यप्रकाश----(१) रागपरिणत ही प्रात्मा नवीन द्रव्यकर्मसे बंधता है । (२) वैराग्यपरिगत आत्मा नवीन द्रव्यकर्मसे नहीं बँधता । (३) वैराग्यपरिणत ही प्रात्मा बद्ध कोसे छूटता है । (४) रागपरिणत अात्मा बद्ध कर्मोंसे नहीं छूटता। (५) द्रष्यबन्धका साधकतम रागपरिणाम हो हैं। (६) रागपरिणामके होनेको भावबन्ध कहते हैं। (७) भावबन्ध ही। निश्चयसे बन्ध है, क्योंकि भावबन्ध ही द्रव्यबंधका हेतु है । (८) रागपरिणाम कहने से यहाँ सभी विकारोंका ग्रहण करना।
सिद्धान्त--(१) रागरहित शुद्ध भाव होनेपर कर्मबन्ध दूर हो जाता है । (२) राम गादिपरिणाम ही निश्चयसे बन्ध है।
दृष्टि-१-शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४ब) । २--अशुद्धनिश्चयनय (४७)।
प्रयोग-कर्म से छुटकारा पानेके लिये अविकार ज्ञानमात्र अन्तस्तत्त्वके प्राश्रयसे वरा ग्यपरिणत होना ॥१७६।।
अब परिणामका द्रव्य बंधके साधकतम रागसे विशिष्टत्व भेदसहित प्रगट करते हैं[परिणामात् बंधः] परिणामसे बंध होता है, [परिणामः रागद्वेषमोहयुतः] वह परिणाम राग-द्वेष मोहसे युक्त है। मोहप्रषौ अशुभौ] उनमें मोह और द्वेष तो अशुभ है, किन्तु [रागः] राग [शुभा वा अशुभः] शुभ अथवा अशुभ भिवति] होता है।
तात्पर्य-राग द्वेष मोह भावके निमित्तसे कर्म बंधता है । उनमें मोह द्वेष तो अशुभ ही होते, राग कोई शुभ होता, कोई अशुभ होता।
टोकार्थ-द्रव्यबंध तो विशिष्ट परिणामसे होता है । परिणामको विशिष्टता राग-द्वेषमोहमयताके कारण है । वह शुभत्व और अशुभत्वके कारण द्वैतका अनुसरण करता है अर्थात्
Page #353
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सर
ROOTRAMERIERRORAN
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका . प्रय परिणामस्य द्रव्यबन्धसाधकतमरागविशिष्टत्वं सविशेष प्रकटयति
परिणामादो बंधो परिणामो रागदोंसमोहजुदो। असुहो मोहपदोसो सुहो व असुहो हदि रागो ॥१८०॥ बन्ध परिणामसे है, परिणाम भि रागदपमोहसहित ।।
द्वष मोह अशुभ हि है, शुभ व अशुभ राग दोधिध है ॥१८॥ परिणामाद्वन्धः परिणामो रागद्वेषमोहयुतः । अशुभौ मोहाद्वेषो शुभो वायुभो भवति रागः ।। १८० ।।
द्रव्य बन्धोऽस्ति तावद्विशिष्टपरिणामात् । विशिष्टत्वं तु परिणामस्य रामद्वेषमोहमयत्वेन । तत्र शुभाशुभत्वेन ट्रैतानुवति । तत्र मोहद्वेषमयत्वेनाशुभत्वं, रागमयत्वेन तु शुभत्वं चाशुभत्वं च विशुद्धिसंक्लेशाङ्गत्वेन रागस्य द्वैविध्यात् भवति ।।१८०॥
नामसंज्ञ----परिणाम बंध परिणाम रागदोसमोहजुद अशुह मोहपदोस सुह व असुह राग । धातुसंज्ञ--- हव सत्तायां । प्रातिपदिक-परिणाम बन्ध परिणाम रागद्वेषमोहात अशुभ मोहद्वेष शुभ वा अशुभ संग। मूलधातु-भू सत्तायां । उभयपदविवरण- परिणामादो परिणामात-पंचमी एक० ! बंधो बन्धः परिणामो परिणामः रागदोस मोहजुदो रागद्वेषमोहयुत:-प्रथमा एक० । असुहो मोहोपदोसो-प्र० एक० । अशुभौ मोहह्मद्वेषौ-प्रथमा द्विवचन । सुहो शुभः असुहो अशुभ: रागो राग:--प्रथमा एक०। व-अव्यय । हवदि भवति-वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । निरुक्ति-योतिस्म इति युतः यु मिश्रणे । समासरागश्च द्वेषश्च मोहश्चेति रागद्वेषमोहाः तै: युतः रागद्वेषमोहयुतः ।।१८।। दो प्रकारका है, उनमें से मोह-द्वेषमयपनेसे तो अशुभत्व होता है, और रागमयपनेसे शुभत्व तथा अशुभत्व होता है, क्योंकि विशुद्धि तथा संक्लेशयुक्त होनेसे राम दो प्रकारका होता है ।
प्रसङ्गविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें भावबन्धको ही निश्चयतः बंध कहा गया था। अब इस गाथामें बताया गया है कि द्रव्यबन्धका हेतुभूत परिणाम शुभ व अशुभ ऐसे दो प्रकार
तथ्यप्रकाश--(१) द्रव्यबन्धका कारण विशिष्ट परिणाम है, अविशिष्ट परिणाम नहीं । (२) परिणामको विशिष्टता रागद्वेषमोहमयपना होनेसे होती है । (३) मोहमय व द्वेषमय परिणाम अशुभ भाव है। (४) रागमय परिणाम शुभभाव भी हो सकता है व अशुभ
भाव भी हो सकता है । (५) विशुद्धिका अङ्गभूत रागपरिणाम शुभभाव है । (६) संश्लेशका FA प्रजभूत रागपरिणाम अशुभ भाव है।
सिद्धान्त-(१) विशुद्धि और संक्लेशका अङ्ग होनेसे रागपरिणाम शुभ व अशुभ दो प्रकारका है। (२) शुभ राग व अशुभराग दोनों ही भावबन्धरूप है ।
दृष्टि-- १- वैलक्षण्यनय (२०३)। २- सादृश्यनय (२०२) ।
Page #354
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४०
सहजानन्दशास्त्रमालायां
अथ विशिष्टपरिणामविशेषमविशिष्टपरिणामं च कारणे कार्यमुपचर्य कार्यत्वेन निर्दिशति-
सुपरिणामो पुणं हो पाव त्ति भणियमोसु । परिणामो गणगदो दुक्खक्खयकारणं समये ॥१८२॥
शुभ परिणाम पुण्य है, व प्रशुभ परिणाम पाप कहलाता । परिणाम स्वोपयोगी, दुखोंके नाशका कारण ।। १८१ ।।
शुभ परिणामः पुण्यमशुभः पापमिति भणितमन्येषु । परिणामोऽनन्यगतो दुःखक्षयकारणं समये ॥ १५१ ॥ द्विविधस्तावत्परिणामः परद्रव्यप्रवृत्तः स्वद्रव्यप्रवृत्तश्च । तत्र परद्रव्यप्रवृत्तः परोपरक्तविशिष्ट परिणामः स्वद्रव्यप्रवृत्तस्तु परानुपरकत्वादविशिष्ट परिणामः । तत्रोक्त विशिष्टपरिटपरिणामस्य विशेष, शुभ परिणामोऽशुभपरिणामश्च 1 तत्र पुण्यपुद् गलबन्धकारण
नामसंज्ञ - सुपरिणामो गुण्णं असुहो पाव इति भणिय अण्ण परिणामो परिणामो गणगदो दुक्खवख्यकारण समय | धातुसंज्ञ भण कथने । प्रातिपदिक- शुभपरिणाम पुण्य अशुभ पाप इति भणित अन्य परिणाम अनन्यगत दुःखक्षयकारण समय । मूलधातु भण शब्दार्थः । उभयपदविवरण सुहपरिणामो शुभ परिणामः पुण्णं पुष्यं असुहो अशुभः पात्र पापं परिणामो परिणामः गणगदो अनन्यगतः दुक्ख
प्रयोग ----बन्ध से निवृत्त होनेके लिये शुभाशुभभावरहित सहज चैतन्यस्वरूपमें आत्मत्व • स्वीकारना व अनुभवना ॥१८०॥
श्रम विशिष्ट परिणामके भेदको और श्रवशिष्ट परिणामको कारण कार्यको उपच रित करके कार्यरूप से बतलाते हैं - [प्रन्येषु ] दूसरोंमें अर्थात् परपदार्थका आश्रय कर होने वाला [शुभ परिणाम] शुभ परिणाम [ पुण्यम् ] पुण्य है, [ श्रशुभः ] प्रशुभ परिणाम [ पापम् ] पाप है [ अनन्यगतः परिणामः ] तथा अन्यमें न गया हुआ परिणाम [ दुःखक्षयकारणम् ] दुःखक्षयका कारण है [ इति समये भणितं ] ऐसा आगममें कहा गया है ।
तात्पर्य -- शुभ परिणाम पुण्य है, अशुभ परिणाम पाप है और शुद्ध परिणाम धर्म है जो कर्मक्षयका कारण है ।
टीकार्थ- मूल में तो परिणाम दो प्रकारका है--परद्रव्यप्रवृत्त और स्वद्रव्यप्रवृत्त । इनमें से परद्रव्यप्रवृत्तपरिणाम परके निमित्तसे विकारी होनेसे विशिष्ट परिणाम है, और स्वद्रव्य प्रवृत्त परिणाम परके द्वारा उपरक्त न होनेसे प्रविशिष्ट परिणाम है । उसमें विशिष्ट परिणाम के पूर्वोक्त दो भेद हैं- शुभपरिणाम और अशुभपरिणाम | उनमें पुण्यरूप पुद्गलके बंधका कारणपना होनेसे शुभ परिणाम पुण्य है और पापरूप पुद्गलके बंधका कारण होनेसे अशुभ परिणाम पाप है । अविशिष्ट परिणामका तो शुद्धपना होनेसे एकत्व होनेके कारण कोई
Page #355
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
स्वात् शुभपरिणामः पुण्यं पापपुद्गलबन्धकारस्त्वादशुभ परिणामः पापम् | अविशिष्टपरिणामतू शुद्धत्वेकत्वान्नास्ति विशेषः । स काले संसारदुःखहेतुकर्म पुद्गलक्षयकारणत्वात्संसारदुःखहेतुकर्म पुद्गलक्षयात्मको मोक्ष एव ||१८||
वयकारणं दुःखक्षयकारणं - प्रथमा एकवचन । अष्णोसु अन्येषु सप्तमी बहु० । समये - सप्तमीएकवचन । निरुक्ति-सम् अयनं समयः । समास-शुभश्चासौ परिणामश्चेति शुभपरिणाम:, दुःखानां क्षयः दुःखक्षयः, तस्य कारणं दुःखक्षयकारणं ॥ १८ ॥
३४१
भेद नहीं है । वह विशिष्ट परिणाम समयपर संसार दुःखके हेतुभूत कर्मपुद्गल के क्षयका कारण होनेंस संसारदुःखका हेतुभूत कर्मपुद्गलक्षयात्मक मोक्ष हो है ।
प्रसङ्गविवरण - प्रनन्तरपूर्व गाथा में द्रव्यबन्धके कारणभूत विकारपरिणामको शुभ व अशुभ दो प्रकारका बताया गया था। अब इस गाथामें बताया गया है कि अविशिष्ट परि ग्राम दुःखरहित होने का कारण है ।
तथ्यप्रकाश - ( २ ) परिणाम दो प्रकारका होता है कोई परद्रव्यप्रवृत्त है. कोई स्वद्रव्यप्रवृत्त है । ( २ ) परद्रव्यमें लगा हुआ परिणाम विशिष्ट परिणाम कहलाता है । (३) विशिष्ट परिणाम के दो प्रकार हैं- शुभ परिणाम व अशुभपरिणाम । ( ४ ) शुभ परिणाम पुण्यसाव है, क्योंकि वह पुण्यपुद्गलोंके बन्धका कारण है । ( ५ ) अशुभ परिणाम पापभाव है, क्योंकि वह पागलों के बन्धका कारण है । (६) शुभाशुभ भावरहित शुद्ध भावको वि शिष्ट परिणाम कहते हैं । ( ७ ) अविशिष्ट परिणाम एकरूप है, उसके विशेष अर्थात् भेद नहीं है । (८) विशिष्ट परिणाम संसारदुःखके कारणभूत कर्मपुद्गलोंके क्षयका कारणभूत है | (e) समस्त कर्मपुद्गलोंके क्षय होनेका नाम मोक्ष है ।
सिद्धान्त - १- शुभपरिणाम पुण्य है व अशुभपरिणाम पाप है ।
दृष्टि - १ - एकजातिकारणे अन्यजातिकार्योपचारक व्यवहार (१३७ ) |
प्रयोग - बन्धहेतुभूत शुभाशुभ परिणामोंसे रहित होनेके लिये प्रविशिष्ट सहज चैतत्यस्वरूप में श्रात्मत्वको अनुभवना ॥ १५१ ॥
अब जो की स्वद्रव्य में प्रवृत्ति और परद्रव्यसे निवृत्तिकी सिद्धिके लिये स्व-परका विभाग दिखलाते है - [ अथ ] अब जो [पृथिवीप्रमुखाः] पृथ्वी प्रादि [ जीव निकायाः ] जीवनिकाय [स्थावराः च त्रसाः] स्थावर और त्रस वा अन्ये ] जीवसे अन्य हैं, [च] और [जीवः अपि
भरिणताः ] कहे गये हैं, [ते] वें [जी
]
जीव भो [तेभ्यः श्रन्यः ] उनसे प्रत्य
'तात्पर्य - परमार्थतः पृथिवी आदि ६ काय जीवसे अन्य है, जीव उनसे अन्य है । 2
[
Page #356
--------------------------------------------------------------------------
________________
।
२४२
सहजानन्दशास्त्रमालाया अथ जीवस्य स्वपरद्रध्यप्रवृत्तिनिवृत्तिसिद्धये स्वपरविभागं दर्शयति
भणिदा पुढविप्पमुहा जीवणिकायाध थावरा य तसा । अण्णा ते जीवादो जीवो वि य तेहिंदो अण्णो ॥१८२॥ क्षित्यादि जीवकायें, बस थावर रूप जो कहे षड्विध ।
अन्य वे जीवसे हैं, उन सबसे अन्य है आत्मा ॥ १८२ ॥ भणिताः पुथिवीपमुखा जीवनिकाया अथ स्थाबरारन वसाः । अन्ये ते जीवाज्जीवोऽपि च तेभ्योऽन्यः ११८२1
___ य एते पृथिवीप्रभृतयः षड्जीवनिकायास्त्रसस्थावरभेदेनाभ्युपगम्यन्ते ते खल्बचेतनत्वा. दन्ये जीवात्. जीवोऽपि च चेतनत्वादन्यस्तेभ्यः । अत्र षड़जीवनिकाया प्रात्मनः परद्रव्यमेक एवात्मा स्वद्रव्यम् ॥१८२।।
नामसंज-णिद पुष्पिमुह जीवणिकाय अध थावर य तस अपण त जीव वि य त अष्ण । धातुसंझ--भण कथने । प्रातिपदिक-णित पूथिवीप्रमुख जीवनिकाय अथ स्थावर च स अन्य सत् जीव अपि तत् अन्य । मूलधातु--भण शब्दार्थः । उसयपदविवरण--भणिदा भणिता:-प्रथमा बहुवचन कृदन्त क्रिया । बिप्पमुहा पुथिवीप्रमुखाः जीवणिकाया जीवनिकायाः थावरा स्थावराः तसा असा: अपपहा अन्ये ते-प्रथमा बहुवचन । जीवादो जीवात्-पंचमी एक० । जीवो जीयः-प्रथमा एक 1 वि अपि अघ अथ य
-अव्यय । तेहिदो तेभ्यः-पंचमी बहुवचन । अण्णो अन्यः प्र० एक०। निरुक्ति-पृथयति इति प्रथिवा. स्थानशीला: इति स्थावरा: रूढी, अस्यन्ति इति त्रसा: रूढी । समास-पूथिवी प्रमुखा येषां ते पृथिवी. • प्रमुखाः जीवानां निकायाः इति जीवनिकाया:१६१८२।।।
टोकार्थ—जो ये पृथ्वी इत्यादि छह जीवनिकाय प्रसस्थावर भेदके साथ माने जाते हैं, वे वास्तव में अचेतनपना होनेके कारण जोबसे अन्य हैं, और जीव भी चेतनपना होनेके कारण उनसे अन्य है । यहाँ षट् जीवनिकाय प्रात्मासे भिन्न द्रव्य है, अात्मा एक ही स्वद्रव्य है, यह निश्चित हुआ।
प्रसंगविवरण----अनन्तरपूर्व गाथामें स्वद्रव्यप्रवृत्त परिणामको दुःखक्षयका कारणरूप व परद्रव्यप्रवृत्तपरिणामको संसारदुःखका कारणभूत बताया गया था । अब इस गाथामें स्वद्रव्यनिवृत्ति व परद्रव्य निवृत्तिकी सिद्धिके लिये स्व व परका विभाग दिखाया गया है।
तथ्यप्रकाश-१- जीव तो परमार्थसे प्रखण्ड चित्स्वल्पमात्र है । २- अस स्थावरके भेदरूप पृथ्वी, जल, अग्नि आदि छह जीवनिकाय इनमें अचेतनपना होनेके कारण परमार्थ जीवसे अन्य हैं । ३- जीव भी चेतनपना होनेके कारण उन छह कायोंसे अन्य है । ४. यह जीवनिकाय प्रात्मासे भिन्न हैं, परद्रव्य हैं । ५- एक यह स्वकीय प्रात्मा ही स्वद्रव्य है। ६-स स्थावर नामकर्मके उदयसे उत्पन्न होनेके कारण ये छह काय अचेतन हैं ! ४-प्रखण्ड
TEST
Page #357
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४३
प्रवचनसार--सप्तदशाङ्गी टीका अथ जीवस्य स्वपरद्रव्यप्रवृत्तिनिमित्तत्वेन स्वपरविभागज्ञानाशाने अवधारयति
जो णवि जाणदि एवं परमप्पाणं सहावमासेज्ज। कीरदि अज्झवसाणं यहं ममेमं ति मोहादो ॥१८३॥ जो स्वभाव आश्रय कर, नहिं जाने स्वपरद्रव्यको ऐसे ।
वह मोही यह मेरा, ऐसा भ्रम मोहसे करता ॥१३॥ यो नैव जानात्येवं परमात्मानं स्वभावमासाद्य । कुरुतेऽध्यवसातमहं मभेदमिति मोहार ।। १८३ ॥
यो हि नाम नैवं प्रतिनियतचेतनाचेतनत्वस्वभावेन बीदपुद्गलयो: स्वपरविभागंपश्यति
नामसंज्ञ.....ज ण वि एवं परमप्प सहाव अज्झवसाण अम्ह अम्ह इम ति मोह । धातुसंज- आ सद गमनविशरणयोः, कर कारणे । प्रातिपदिक-बत् न एवं अपि परमात्मन् स्वभाव अध्यवसान अस्मत् अस्मत् इदम् इति मोह । मूलधातु---आ शद् ल गती, बुकृत्र करो । उभयपदविवरण- जो य:-प्रथमा एक गान वि अगि एवं ति इति-अव्यय । परमप्पाणं परमात्मानं सहानं स्वभावं-द्वितीया एक० । आसेज्ज एक ज्ञायकस्वरूप परमात्मतत्त्वको भावना न होनेसे कर्मोदयज रागादिविकारको निमित्तमान करके कार्मागणवर्गणावों नामर्मत्व बँध गया था।
सिद्धान्त-१- छह कायोंको जीव कहना उपचार है। दृष्टि---१- एकजातिद्रव्ये अन्यजालिद्रव्योपचारक असद्भून व्यवहार (१०६)।
प्रयोग-संसारसंकटोंसे शरीरोंसे मुक्ति पानेके अभिलाषियों को भेदविज्ञान करके पर. द्रव्यसे उपयोगको हटाकर स्वद्रव्यमें उपयुक्त होना चाहिये ॥१८२॥
अब जीवको स्वपरविभागज्ञानको स्वद्रव्यप्रवृत्तिके निमित्तरूपसे व स्वपरविभागके प्रज्ञानको परद्रव्यप्रवृत्तिके निमित्तरूपसे अवधारित करते हैं-या जो एवं] इस प्रकार [स्वभावम् प्रासाद्य] जीव-पुद्गलके स्वभावको निश्चित करके [परम् आत्मानं] परको और स्वको [न एव जानाति] नहीं जानता, [मोहात्] वह मोहसे अहम् इदं। मैं यह हं, मिम दं] मेरा यह है,' [इति] इस प्रकार [अध्यवसानं] अध्यवसान [कुरुते] करता है ।
तात्पर्य--स्व परके भेदज्ञानसे रहित जीव मिथ्या भाव कर कष्ट पाते हैं।
टीकार्थ----जो आत्मा इस प्रकार जीव और पुद्गलके अपने-अपने निश्चित चेतनत्व और अचेतनत्वरूप स्वभावके द्वारा स्व-परके विभागको नहीं देखता, वही प्रात्मा 'मैं यह ई, मेरा यह है' इस प्रकार मोहसे परद्रव्यको अपने रूपसे मानता है, दूसरा नहीं । इससे यह निश्चित हा कि जीवको परद्रव्यमें प्रवृत्तिका निमित्त स्वपरके ज्ञानका अभावमात्र ही है, और सामर्थ्यसे निश्चित हुआ कि स्वद्रव्य में प्रवृत्तिका निमित्त उसका अभाव है ।
S
E
AIYAAREERESH
Page #358
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४४
सहजानन्दशास्त्रमालायां
स एवाहमिदं ममेदमित्यात्मात्मीयत्वेन परद्रव्यमध्यवस्यति मोहान्नान्यः । अतो जीवस्य परद्रव्यप्रवृत्तिनिमित्तं स्वपरपरिच्छेदाभावमात्रमेव सामध्यत्रिवद्रव्य प्रवृत्तिनिमित्तं तदभावः ॥१८३॥ । आसाद्य-सम्बन्धार्थप्रक्रिया कृदन्त । कीरइ कुरुते-वर्तमान अन्य एका किया । अज्भवसाणं अध्ययसानं-- द्वितीया एका० । अहं-प्र० एक० । मग-षष्ठी एक० 1 इमं .इद-प्रथमा एक० । मोहादो मोहात-पंचमी एकवचन । निरुक्ति- अध्यवसनं अध्यवसानं अधि अव षोन्त कर्मणि उपसगदिर्थपरिवर्तन । समास-परा मा लक्ष्मीः विशते यत्र स: परम: परमश्वासी आत्मा चेति परमात्मा)तं परमात्मानं ॥१८॥
प्रसंगविवरणअनन्तरपूर्व गाथामे पर द्रव्यानिवृत्ति के लिय व स्वद्रव्यप्रवृत्ति के लिये स्वपरविभाग दिखाया गया था। अब इस गाथामें यह अवधारित कराया गया है कि स्वपरविभागका ज्ञान स्वद्रव्यप्रवृत्तिका निमित्त है और स्वपर विभागका अज्ञान परद्रव्यप्रवृत्तिका निमित्त है ।
तथ्यप्रकाश-(१) अज्ञानी प्राणी मोहसे ही परद्रव्य को प्रात्मीयरूपमे मानता है। (२) परद्रव्यको यह मैं हूं या यह मेरा है इस प्रकारकी आस्था होना आत्मीयरूपसे मानना कहलाता है । (३) परद्रव्यको प्रात्मीय वही जीव समझता है जो जीव व पुद्गलोंका प्रतिनियत चेतन अचेतन स्वभावरूपसे स्व व परका विभाग नहीं देखता है । (४) स्वपरका भेदा. विज्ञान होनेपर परद्रव्यसे निवृत्ति व स्वद्रक्ष्य में प्रवृत्ति होती है। (५) स्व परका भेदविज्ञान न होनेपर स्वद्रव्यकी बेसुधी व परद्रव्यमें प्रवृत्ति होती है । (६) अहंकारममकाररहित अविकारस्वभाव अन्तस्तत्वको सुध न होनेसे अज्ञ जन्तु रागादिक विकारोको व परद्रव्योंको यह मैं हूं व ये मेरे हैं ऐसी प्रतीति करता है।
सिद्धान्त-(१) स्त्री पुत्र पशु मित्र आदिको ये मेरे हैं यह कथन मात्र उपचार है । (२) धन मकान आदिको ये मेरे हैं यह कथन भी मात्र उपचार है। (३) आभूषणसज्जित पुत्री पुत्र प्रादिको ये मेरे हैं यह कथन उपचार है । (४) ग्राम नगर मेरे हैं यह कथन भी उपचार है । (५) रागादिक भावको प्रात्मा मानना उपचार है । (६) शरीर प्रादिको प्रातमा मानना उपचार है।
दृष्टि---१- असंश्लिष्ट स्थजात्युपचरित असद्भुत व्यवहार (१२४) । २- असंश्लिष्ट विजात्युपचरित असद्भुत व्यवहार (१२६) । ३- संश्लिष्ट स्वजातिविजात्युपचरित असद्भुत व्यवहार (१२७)। ४- असंश्लिष्ट स्वजातिविजात्युपचारित असद्भुत व्यवहार (१२८)। ५- उपाधिज उपचरित प्रतिफलन व्यवहार (१०४)।- एकजातिद्रव्ये अन्यद्रव्योपचारक व्यवहार ।
प्रयोग—स्वद्रव्यप्रवृत्तिको ही शाश्वत शुद्ध प्रानन्दका उपाय जानकर उसके लिये.
5280
Page #359
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका अथात्मनः किं कर्मेति निरूपयति-----
कुव्वं सभावमादा हवदि हि कत्ता सगस्स भावस्स । पोग्गलदवमयाणं ण द् कत्ता सव्व भावाणं ॥१८४॥ करता स्वभावको यह, आत्मा निजभावका हि कर्ता है ।
किन्तु नहीं कर्ता यह, पुद्गलमय सर्व भाबोंका ॥१६॥ कुर्वन् स्वभावमात्मा भवति हि कर्ता स्वकस्य भावस्य । पुद्गलद्रव्यमयानां न तु कर्ता सर्वभावानाम् । १८४।
प्रात्मा हि तावत्स्वं भावं करोति तस्य स्वधर्मत्वादात्मनस्तथाभवन शक्तिसंभवेनावश्य. मेव कार्यत्वात् । स तं च स्वतन्त्र: कुणिस्तस्य कर्तावश्यं स्यात्, क्रियमाणश्चात्मना स्वो
नामसंज्ञ---कुन्वंत सभाव अत्त हि कत्तार सग भाव पोग्गलदव्त्रमय ण दु कत्तार सव्वभाव । धातुसंज-कुब्ब करणे, हब सत्तायां । प्रातिपदिक---कुर्वत् स्वभाव आत्मन् हि कर्तृ स्वक भाब पुद्गलद्रव्यमय न तु कर्तृ सर्वभाव । मूलधातु---डुकृञ् करणे। उभयपदविवरण..... कुवं कुर्वन-प्रथमा एक० कृदंत 1 प्रतिनियत लक्षणोंसे स्वपरभेदविज्ञान करना ॥१३॥
अब यह निरूपण करते हैं कि आत्माका कर्म क्या है--[स्वभावं कुर्वन्] अपने भाव को करता हुआ आत्मा] ग्रात्मा [हि] निश्चयसे स्विकस्य भावस्य] अपने भावका [कर्ता भवति] कर्ता है; [तु] किन्तु [पुद्गलद्रव्यमयानां सर्वभावानां] पुद्गलद्रव्यमय सर्व भावोंका [कर्ता न] कर्ता नहीं है।
___ तात्पर्य आत्मा परचतुष्टयसे नहीं है, अतः प्रात्मा पुद्गलमय सभी भावोंका कर्ता नहीं, मात्र अपने भावका कर्ता है।
टोकार्थ---प्रथम तो आत्मा वास्तवमें अपने भावको करता है, क्योंकि वह भाव उसका स्व धर्म है, इसलिये प्रात्माको उसरूप होनेको शक्तिको संभव है, अता वह भाव अवश्यमेव मात्माका कार्य है । और वह प्रात्मा अपने भावको स्वतंत्रतया करता हुआ उसका कर्ता अवश्य है, और स्वभाव अात्माके द्वारा किया जाता हुआ अात्माके द्वारा प्राप्य होनेसे अवश्य ही प्रात्माका कर्म है । इस प्रकार स्वपरिणाम प्रात्माका कर्म है । परन्तु, प्रात्मा पुद्गलके भावों को नहीं करता, क्योंकि वे परके धर्म हैं, इसलिये आत्माके उत्तरूप होनेकी शक्तिका असंभव होनेसे वे अात्माका कार्य नहीं है । इस कारण वह आत्मा उन्हें न करता हुअा उनका कर्ता नहीं होता, और वे प्रातमाके द्वार। न किये जाते हुये उसके कर्म नहीं हैं । इस प्रकार पुद्गलपरिणाम प्रात्माका कर्म नहीं है।
प्रसंगविवरण – अनन्तरपूर्व गाथामें स्वपरविभागके ज्ञान व अज्ञानको स्वपरद्रच्यकी
।
330-
-
-
-
Page #360
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४६
सहजानन्दशास्त्रमालायां
भावस्तेनाप्यत्वात्तस्य कमवश्यं स्यात् । एवमात्मनः स्वपरिणामः कर्म न त्वात्मा पुद्गलस्य भावान् करोति तेषां परधर्मत्वादात्मनस्तथाभवन शक्त्यसंभवेनाकार्यत्वात् स तानकुर्वाणो न तेषां कर्ता स्यात् सक्रियमाणाश्चात्मना ते न तस्य कर्म स्युः । एवमात्मन: पुद्गलपरिणामो नं. कर्म ॥ १८४॥
सभावं स्वभावं द्वि० एक० । आदा आत्मा-प्रथमा एक । सगस्स स्वकस्य भावरस भावस्य पष्ठी एक० । पोम्गलदव्यमाणं पुद्गलद्रव्यमयानां सव्वभावाणं सर्वभावानां पण्ठी बहु० । कत्ता कर्ता-प्रथमा एक० । ह्रिण न दुतु अव्यय । निरुक्ति - सरति सर्वत्र गच्छति इति सर्वः । समास - सर्वे च ते भावाश्चेति सर्व भावाः तेषां सर्वभावानाम् ॥ १८४ ॥ ॥
प्रवृत्तिका निमित्त बताया गया था। अब इस गाथामें "आत्माका कर्म क्या है" यह बताया गया है ।
अपने स्वके होने की
तथ्यप्रकाश - ( १ ) ग्रात्मा अपने भावको ही करता है । ( २ ) हीं शक्ति रखने से आत्माका अपना भाव ही कार्य है । ( ३ ) ग्रात्मा अपने लिये बिना स्वतंत्र होकर करता है । ( ४ ) आत्माके द्वारा किया जाने आत्माका कर्म है | ( 2 ) श्रात्मा पुद्गल के भावोंको नहीं कर सकता, हैं । ( ६ ) आत्मामें परके धर्मरूपसे होनेकी शक्ति नहीं है । (७) नहीं कर पाता तब आत्मा परका कर्ता कैसे हो सकता ? (८) जब पुद्गल परिणमन आत्मा के द्वारा क्रियमाण नहीं है तत्र पुद्गलपरिणाम ग्रात्माका कर्म कैसे हो सकता है ? ( C ) परम• शुद्धनिश्चयनयसे ग्रात्माका स्वभाव अनादि अनंत श्रहेतुक है वह क्रियमाण न होनेसे आत्मा
भावको परका कुछ वाला निज भाव ही क्योंकि वे परके धर्म जब आत्मा परद्रव्यका कार्य
।
११ )
शुद्ध
भावकर्म है ।
कर्ता है । (१०) शुद्धनिश्चयनयसे मात्मा केवल ज्ञानादि स्वभावका कर्ता है निश्चयनयसे जीव रागादिपरिणमनरूप स्व भावका कर्ता हैं, यह परस्वभाव ( १२ ) शुद्ध दशा में भावकर्म श्रात्माके द्वारा प्राप्य है व व्याप्य है, अतः भावकर्म जीवकाः कर्म है । (१३) आत्मा चिद्रूप आत्मासे विलक्षण पुद्गलमय ज्ञानावरणादि कमका कर्ता नहीं. है । (१४) अशुद्ध निश्वयनयसे जोवका रागादि स्वपरिणाम हो कर्म है और इस भावकर्मका: कर्ता जीव है ।
(
सिद्धान्त - - ( १ ) जीव प्रकर्ता है । ( २ ) जीव केवलज्ञानादि स्वभावपरिणमनका कर्ता है । ( ३ ) जीव रागादिभाव कर्मका कर्ता है । ( ४ ) पुद्गलकमं रागादिभावकर्मका कर्ता है. (५) जीव मुद्गलकर्मका कर्ता नहीं है ।
दृष्टि - १ - परमशुद्ध निश्चयमय (४४) । २ - शुद्धनिश्चयनय (४६) । ३- शुद्ध निश्चयनय (४७) | ४ - विवक्षितैकदेशशुद्ध निश्चयनय (४८) । ५ - प्रतिषेधक शुद्धनय (४९) |
Page #361
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४७
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका अथ कथमात्मनः पुद्गलपरिणामो न कर्म स्यादिति संदेहमपनुदति---
गेण्हदि गणेव ण मुचदि करेदि ण हि पोग्गलाणि कम्माणि । जीवो पुग्गलमज्मे वट्टण्ण वि सव्वकालेसु ॥ १८५ ॥
पुद्गलके मध्य सदा, रहता भी जीव रंच करता नहि।
गहता नहिं नहिं तजता, पुद्गलमय कर्मभावोंको ॥१८५।। गृह्णाति नैव न मुंचति करोति न हि पौद्गलानि कर्माणि 1 जीवः पुद्गलमध्ये वर्तमानोऽपि सवकालेषु ।१८५३
न खल्वात्मनः पुद्गलपरिणामः कर्म परद्रव्योपादानहानशून्यत्वात्, यो हि यस्य परि
नामसंज----ण एव ण ण हि पोग्गल कम्म जीव पुग्गलमग्झ वट्टत वि सव्वकाल । धातुसंज्ञ -- गिण्ह ग्रहणे, मुंच त्यागे, कर करणे, बत्त वर्तने । प्रातिपदिक-न एव न न हि पौद्गल वर्मन् जीव पुद्गलमध्य
प्रयोग-~-प्रत्येक द्रव्य अपने परिण मनसे हो परिणमता है अन्यके परिणामनसे नहीं परिणमता, इस न्यायसे अपने को प्राथयभूत विषयभूत निमित्त भूत परपदार्थों का अकर्ता जानकर परविषयकविकल्पसे निवृत्त होना ३१८४॥
अब पुद्गल परिणाम प्रात्माका कर्म क्यों नहीं है ? इस संदेहको दूर करते हैं[जीवः] जीव [सर्वकालेषु] सदा काल [पुद्गलमध्ये वर्तमानः अपि] पुद्गलके मध्यमें रहता हुना भो [पुद्गलानि कर्मारिण] पौद्गलिक कर्मोको [हि] वास्तवमें न एवं गृह्णाति न तो ग्रहण करता है, [न मुचति] न छोड़ता है, और [न करोति] न करता है।
तात्पर्य---जीव पुद्गलके बीच रहता हुअा भी निश्चयसे न तो पुद्गलोंको ग्रहण करता है और न छोड़ता है।
टोकार्थ- वास्तव में पुद्गलपरिणाम प्रात्माका कर्म नहीं है, क्योंकि वह परद्रव्यके ग्रहण-त्यागसे रहित है 1 जो जिसका परिणमन कराने वाला देखा जाता है वह लोहपिण्डका अग्नि की तरह उसके ग्रहण-त्यागसे रहित नहीं देखा जाता; आत्मा तो तुल्य क्षेत्र में वर्तता हुमा भी परद्रव्यके ग्रहण त्यागसे रहित ही है। इसलिये वह पुद्गलोंको कर्मभावसे परिमाने वाला नहीं है।
प्रसंगविवरण- अनंतरपूर्व गाथामें बताया गया था कि प्रात्माका कर्म (कार्य) अपने स्वका भवन (परिणमन) है, किन्तु पुद्गलका परिणमन आत्माका कार्य नहीं है । अब इस गाथामें 'पुद्गलपरिणाम प्रात्माका कर्म कैसे नहीं है" इस संदेहको दूर किया गया है।
तथ्यप्रकाश--१- प्रात्मा परद्रव्यको न ग्रहण करता, न त्यागता है, इस कारण पुद्गलपरिणाम प्रात्माका कर्म नहीं है । २- प्रात्मा किसी भी भिन्न सत्ता वाले पदार्थको
.STRICT
Page #362
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां ५. ५... चिन्मय प्रमा णमयिता दृष्टः से न तपादानहामशून्धी दृष्टः, यथाग्निरयःपिण्डस्य । प्रात्मा तु तुल्य क्षेत्रवति. त्वेऽपि पर द्रव्योपादानहायेशून्य एव ततो न स पुद्गलानां कर्मभावेन परिणमयिता स्यात् ॥१८५॥ वाध सागर जी महारा वर्तमान अपि सर्वकाल । मूलधातु-- ग्रह नहरणे, मुच्ल मोक्षणे, डुकुम करो, तृतु वर्तने । उभयपदविवरण-गिण्हदि गृह्णाति मुंचदि मुंचति करोदि करोति-वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । ण न हि वि अगि-अव्यय । पोग्गलाण पौद्गलानि कम्माणि कर्माणि-द्वितीया बहुवचन । जीवो जीव:-प्रथमा एकः । पुग्गलमज्झे पुद्गलमध्ये-सप्तमी एकवचन । वट्ट वर्तमान:-प्रथमा एकवचन कृदन्त । सव्वकालेसु सर्वकालेषु-सप्तमी बहुवचन । निरुक्ति कलयति आयुः इति कालः ।।१८५। नहीं परिणमाता, परपदार्थके परिणमनरूप नहीं परिणमाता, इस कारण पुद्गलपरिणाम प्रात्माका कर्म नहीं है । ३- जो जिसका परिणामाने वाला होता है वह उसके ग्रहण-त्यागसे रहित नहीं होता, उत्तरपर्यायका ग्रहण व पूर्वपर्यायका त्याग रूप कर्म होता है । ४-कार्माण वर्गरणायें तथा शरीरस्कंध प्रात्माके एकक्षेत्रावगाही हैं तो भी उन रद्रव्योंके ग्रहण-त्यागसे रहित हैं । ५- प्रात्मा पुद्गलोंका कर्मभावसे परिणमाने वाला नहीं है । ६-- जैसे सिद्ध भगवान पुद्गल द्रव्योंके बीच रहते हुए भी परद्रव्यके ग्रहण त्याग व करणसे रहित हैं, इसी प्रकार शुद्धनयसे सभी जीव परद्रव्यके ग्रहण त्याग व करणसे रहित हैं ।
सिद्धान्त--(१) शक्तिरूपसे सभी जीव सिद्ध समान शुद्धात्मा हैं । (२) प्रात्मा अपने ही परिणमनरूपसे हो सकता है, परके परिणमनरूपसे नहीं। (३) प्रात्माका गुरण, धर्म, परिणमन प्रात्मामें ही प्रात्माके द्वारा होता है ।
दृष्टि–१- उपाधिनिरपेक्ष शुद्ध द्रध्याथिकनय (२१) । २-- स्वद्रव्यादिनाहक द्रव्याथिकनय, परद्रव्यादिग्राहक द्रव्याथिकनय (२८, २६) । ३-- उपादानदृष्टि (४६ ब) ।
प्रयोग---सदाकाल प्रात्माका सजातीय विजातीय समस्त परद्रव्योंमें अत्यन्ताभाव है यह निरखते हुए परद्रव्योंका प्रकर्तृत्व अवघारित कर समस्त विकल्पोंसे निवृत्त होकर अपने में सहज विश्राम करना ॥१८५।।
तब फिर आत्माका किस प्रकार पुद्गल कोंके द्वारा ग्रहरण और त्याग होता है ? इसका निरूपण करते हैं ---- [सः] वह [इदानीं] संसारावस्थामें [द्रव्यजातस्य] प्रात्मद्रव्यसे उत्पन्न हुए स्विकपरिणामस्य] अशुद्ध स्वपरिणामका [कर्ता सन्] कर्ता होता हा [कर्मलिभिः] कर्मधूलिसे [श्रादीयते] ग्रहण किया जाता है, और [कदाचित् विमुच्यते] कदाचित् छोड़ा जाता है।
तात्पर्य--अात्माके अशुद्ध परिणामका होना व न होना कर्मके बंध व छुटकारेका
S
Page #363
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टोका
प्रथात्मनः कुतस्तहि पुद्गलकर्मभिरुपादानंहानं चेति निरूपयति-स इदाणिं कत्ता संसगपरिणामस्स दव्वजादस्स । यादीयदे कदाई विमुच्चदे कम्मधूलीहिं ॥ १८६॥
सवशुद्ध भी आत्मा, सम्प्रति हो स्वपरिणामका कर्ता । कर्मधूलिसे होता, बद्ध कभी छूट भी जाता ॥ १८६ ॥ स इदानों कर्ता सह स्वकपरिणामस्य द्रव्यजातस्य । "आदीयते कदाचिद्विमुच्यते कर्मधूलिभिः ॥ १८६ ॥ सोऽयमात्मा परद्रव्योपादानहानशून्योऽपि सांप्रतं संसारावस्यायां निमित्तमात्र कृत परद्रव्यपरिणामस्य स्वपरिणाममात्रस्य द्रव्यत्वभूतत्वात्केवलस्य कलयन कर्तृत्वं तदेव तस्य स्वपरिणामनिमित्तमात्रीकृत्योपात्त कर्मपरिणामाभिः पुद्गलधूलोभिविशिष्टावगाहरूपेणोपादीयते " • कदाचिन्मुच्यते च ॥ १८६॥
३४६
नामसंश-त इदाणि कत्तार संत सगपरिणाम दव्वजाद कदाई कम्मधूलि । धातुसंज्ञ - आदा दाने, वि मंत्र त्यागे । प्रातिपदिक तत् इदानीं कर्तृ सत् स्वकपरिणाम द्रव्यजात कदाचित् कर्मधूलि | तधातु- दादाने मुल्लू मोक्षणे । उभयपदविवरण स सः कत्ता कर्ता से सन् प्रथमा एकवचन । इवाणि इदानीं कदाई कदाचित् अव्यय । सगपरिणामस्स स्वकपरिणामस्य दव्वजादस्य द्रव्यजातस्य पष्ठी एक० । आदीयदे आदीयते विमुच्चदे विमुच्यते वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन भावकर्मप्रक्रिया | कम्मलिहि कर्मधूलिभिः तृतीया बहुवचन । निरुक्ति- श्रूयते या सा धुलिः ञ कम्पने || १८६||
टीकार्थ-वह यह ग्रात्मा परद्रव्यके ग्रहण त्यागसे रहित होता हुआ भी ग्रभो संसाराSatara निमित्तमात्र किया गया है परद्रव्यपरिणाम जिसके द्वारा ऐसे केवल स्वपरिणाममात्र का द्रव्यत्वभूत होनेसे कर्तृत्वका अनुभव करता हुआ, उसके इसी स्वपरिणामको निमित्तमात्र करके कर्मपरिणामको प्राप्त होती हुई पुद्गलरजके द्वारा विशिष्ट अवगाहरूपसे ग्रहण किया जाता है श्रीर कदाचित् छोड़ा जाता है ।
प्रसंग विवरण -- अनन्तरपूर्व गाथामें युक्तिपूर्वक प्रात्माको पुद्गलपरिणामका कर्ता प्रसिद्ध किया था । अब इस गायामें बताया गया है कि फिर पुद्गलकर्मों द्वारा आत्माका ग्रहण व त्याग कैसे हो जाता है अर्थात् बन्ध मोक्ष कैसे हो जाता है ?
तथ्यप्रकाश - ( १ ) श्रात्मा वस्तुतः परद्रव्यके ग्रहण व त्यागसे परे है अर्थात् बन्ध व मोक्षसे परे है । ( २ ) आत्मा परमशुद्ध निश्चयनयसे ग्रविकार सहजानन्दमय चिद्रूप शोध कार समयसाररूप है । (३) श्रात्मा अनादिबन्धनोपाधिका निमित्त पाकर स्वभावसे विलक्षण रागादिविकाररूप परिणम जाता है । (४) रागादिविकारका निमित्त पाकर कार्मारण वर्गगायें कर्मरूप परिणम जाते हैं । ( ५ ) रागादि विकार आत्माके अपने ही पर्याययोग्य उपादान से प्रकट हुए हैं । ( ६ ) ग्रात्मा, ग्रपने ही प्रशुद्ध उपादान उत्पन्न रागादिविभाव के निमि
Page #364
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५०
सहजानन्दशास्त्रमालायां अथ किंकृतं पुद्गलकर्मणां वैचित्र्यमिति निरूपयति---
परिणमदि जदा अप्पा सुहम्हि असुहाम्हि रागदोसजुदो। तं पविसदि कम्मरयं णाणावरणादि भावहिं॥ १८७॥
परिणमता जब श्रात्मा, रागद्वेषयुत हो शुभाशुभमें ।
तब ज्ञानावरणादिक भावोंसे कर्मरज बँधता ॥१८७।। परिणमति यदात्मा शुभेऽशुभे रागद्वेषयुतः । तं प्रविशति कमरजो ज्ञानावरणादिभावैः ।। १८७ ||
अस्ति खल्वात्मनः शुभाशुभपरिणामकाले स्वयमेव समुपात्तवैचित्र्यकर्मपुद्गलपरिणामः नवघनाम्बुनो भूमिसंयोगपरिणामकाले समुपात्तवैचित्र्यान्यपुद्गलपरिणामवत् । तथाहि-----यथा ।
नामसंज्ञ- जदा अप्प सुह असुह रागदोसजुद त कम्मरय णाणावरणादिभाव । धातसंज्ञ-परिणम प्रह्वत्वे, प विस प्रवेशने । प्रातिपदिक-यदा आत्मन शुभ अशुभ रागद्वेषयुत तत् कर्मरजस ज्ञानावरणादि त्तसान्निध्यमें कर्मलिसे बँध जाता है। (७) जब कभी प्रात्मा सोधकारण समयसारके अनुरूप दृष्टि बनाता है और परिणमन करता है तब कर्मधूलिसे मुक्त होने लगता है और अन्तमें पूर्ण तया मुक्त हो जाता है । (८) जीव अशुद्ध परिणामोंसे बंधता है और शुद्ध परिणामोंसे मुक्त । हो जाता है।
सिद्धान्त---(१) सहजात्मस्वरूपके, पालम्बनरूप शुद्धभावके निमिससे कर्म दूर हो जाते हैं। (२) विकारभावके प्राश्रयरूप प्रशुद्ध भावके निमित्तसे जीव कर्मधूलिसे बंध जाता
...........
दृष्टि-१- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४ब) । २-- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४अ)।
प्रयोग-निज सहज चित्स्वभावके भूलनेके कारण उत्पन्न हुए विकार ही कर्मबन्धके । कारण है सो कर्मविपाकसे छूटने के लिये निज सहजचित्स्वभावमें प्रात्मत्व अनुभवना ॥१६॥
अब पुद्गल कर्मोंकी विचित्रता किसके द्वारा की गई है ? इसका निरूपण करते हैं[यदा] जब [मात्मा] प्रात्मा [रागद्वेषयुतः] रागद्वेषयुक्त होता हुआ [शुभे अशुभे] शुभ और अशुभ भावमें [परिमपति] परिणामता है, तब [कर्मरजः] कर्मधुलि [ज्ञानावरणावि भावः ज्ञानावरणादिरूपसे [तं] उसमें [प्रविशति] प्रवेश करती है ।
तात्पर्य-जीवके शुभ अशुभ विकारका निमित्त पाकर कर्म ज्ञानावरणादिरूपसे प्रवेश करता है।
टोकार्थ----जैसे नवमेधजलके भूमिसंयोगरूप परिणामके समय अन्य पुद्गलपरिणाम
Page #365
--------------------------------------------------------------------------
________________
Ramnianwesomindwivintric
प्रवचनसार-सप्तदझांगी टीका यदा नवधनाम्बु भूमिसंयोगेन परिण मसि तदान्ये पुद्गलाः स्वयमेव समुपात्तवैचित्र्यः शाद्वलशिलोन्ध्रश गोपादिभाद परिणमन्ते, तथा सदायमात्मा रागद्वेषवशोकृतः शुभाशुभभावेन परिणमति तदा अन्ये योगद्वारा प्रविशन्तः कमपुद्गलाः स्वयमेव समुपात्तवैचित्र्यानावरणादिभावैः परिणमन्ते । अतः स्वभावकृतं कर्मणां वैचित्र्यं न युनरात्मकृतम् ॥१८७॥ भाव । मूलधातु-परिणम प्रहरवे, प्रविश प्रदेशने । उभयपदविवरण-~-जदा यदा-अव्यय । अप्पा आत्मा रागदोस जुदो रहगद्वेषयुत....प्रथमा एकवचन ! सुहम्म भे असुहम्मि अशुभे-सप्तमी एक ० 1 तं-द्वि० एकर | परिगदि परिणति पनि सदि प्रविशति-वर्तमान अन्यक० किया। कम्मरयं कर्मर ज.--प्रथमा एक० । माणावणादिभाबेहि ज्ञानावरणादिभाव:-तृतीया बहुवचन । निरुक्ति--- रज्यते अनेन इति रज: समासरागश्च पाच रागद्वेषौ ताभ्यां युत: राग षयुतः ।।१८७।। स्वयमेव वैचित्र्य को प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार प्रात्माके शुभाशुभ परिणाम के समय कर्मपुद्गल. परिणाम वास्तव में स्वयमेव विचित्रताको प्राप्त होते हैं । इसका स्पष्टीकरण--जैसे जब नया मेघजल भूमिसंयोगरूपसे परिणमता है तब अन्य पुद्गल स्वयमेव विचित्रताको प्राप्त हरियालो, कुकुरमुत्ता और इन्द्रगोप ग्रादि रूप परिणमित होता है, इसी प्रकार जब यह प्रात्मा राग द्वेषके वशीभूत होता हुग्रा शुभाशुभ भावरूप परिणमता है तब अन्य, योगद्वारोंले प्रविष्ट होते हुये कर्मपुद्गल स्वयमेव विचित्रताको प्राप्त ज्ञानावरकादि भावरूप परिणामते हैं । इससे यह निर्णीत हुआ कि कर्मोकी विचित्रता होना स्वभावकृत है, किन्तु प्रात्मकृत नहीं ।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व माथामें प्रात्माका पुद्गलकर्मसे बन्ध व मोक्ष कैसे होता है इसका संकेत किया गया था। अब इस गाथामें बताया गया है कि बद्ध पुद्गल कमों में पुण्य पाप प्रादि विविधता किस कारणसे होती है ?
तथ्यप्रकाश-(१) प्रात्माके शुभपरिणामके समय बद्ध कर्मपुद्गलपरिणाममें विवि. पता स्वयं ही हो जाती है । (२) जैसे नवीन मेघजलका भूमिसंयोगरूपसे परिणमनेपर अन्य पुद्गल स्वयं ही हरी घास आदि व लाल पीले विविध कीट कायरूपसे परिणाम जाते हैं । (३) वैसे ही आत्मा जब रागद्वेषवश शुभ अशुभभावसे परिषमता है तब योगद्वारसे प्रवेश करने वाले कर्मपुद्गल स्वयं ही ज्ञानावरणादि व पुण्यपापादि नानारूपोंसे परिणाम जाते हैं। (४) निश्चयतः ज्ञानावरणादि कर्मोंकी उत्पत्ति उन्हों पुद्गलोंके द्वारा होती है और मूलप्रकृति, उत्तरप्रकृति व पुण्यपापकी विचित्रता भी उन्हों पुद्गलोंके द्वारा होती है । (५) अात्माके द्वारा पुद्गलका कोई भी परिणमन नहीं होता । (६) कर्मबन्ध के लिये जीवविकार निमित्त. मात्र है। (७) जीवविकारके लिये कर्मविपाक निमित्तमात्र है। (4) धर्मानुरागरूप विशुद्ध परिणामका निमित्त पाकर शुभ प्रकृतियों में अमृत समान प्रकृष्ट अनुभाग होता है । (8) मोहा
l
S
arls
MAXSSS
MANTRANSMILAAPAaning
Page #366
--------------------------------------------------------------------------
________________
tatited
*
n
HEMA
HEATREARRARINAKSHEPARMANARRRRRRRRARRRRRRRRRRRRRRRRRRRRWeio
AMERIAN
३५२
राहजानन्दशास्त्रमालायां अर्थक एवं आत्मा बन्ध इति विभावयति
सपदेसो सो अप्पा कसायिदो मोहरागदोसे हिं। कन्मरजेहिं सिलिट्ठो बंधो त्ति परूविदो समये ॥१८॥
सप्रदेश वह प्रात्मा, कषाययुत मोह राग द्वषोंसे ।
कर्मरज लिप्त होता, इसको ही बन्ध बतलाया ।।१८८॥ सप्रदेश: स आत्मा कषायितो मोहरामहर्षः । कर्मरजोभिः श्लिष्टो बन्ध इति प्ररूपित : रामये ।। १८८ ।।
यथाश्र सप्रदेशत्वे सलि लोध्रादिभिः कषायितत्वात् मनिष्ठरङ्गादिभिरुपश्लिष्टमेक रक्त नामसंज्ञ-सपदेश त अप्प कसायिद मोहागदोस कम्मरज सिलिट्ठ बंध त्ति परविद समय । धातुसंजकस तन् करो, सिलीस आलिंगने । प्रातिपदिक-सप्रदेश तत् आत्मन् कषायित मोहरागहष कर्मरजसः दितीबसंक्लेशभावका निमित्त पाकर अशुभप्रकृतियोंमें हालाहल समान नोब अनुभाग बघता है । {१०) जीवकी जघन्यविशुद्धिका निमित्त पाकर शुभप्रकृतियों में गुड़ समान जघन्य अनुभाग बंधता है । (११) जीवके जवन्यसंक्लेशका निमित्त पाकर अशुभप्रकृतियोंमें निम्बसमान जघन्य अनुभाग होता है । (१२) मध्यमविशुद्धिका निमित्त पाकर शुभ कर्मप्रकृतियोंमें खंड शक्कर समान मध्यम अनुभाग होता है । (१३) मध्यमसंक्लेशभावका निमित्त पाकर अशुभप्रकृतियों में काओर विष समान मध्यम अनुभाग बॅबता है । (१४) ये विविध कर्मपुद्गल हेतुभूत हैं और कर्मप्रकृतिरहित सहजानन्दस्वभाव परमात्मद्रव्यसे भिन्न हैं। (१५) निश्चयतः कर्मपुद्गलों को समस्त विचित्रतायें पुद्गलकृत हैं जोवकृत नहीं है ।
सिद्धान्त--१- पुण्य, पाप, तीव्रानुभाग, मन्दानुभाग आदि सभी प्रकारके कर्म कर्मः स्वदृष्टिसे सदृश हैं । २- प्रकृति, अनुभाग आदिको विचिषतासे पुण्य पाप आदि कर्मों में पर. स्पर विलक्षणता, विचित्रता व विविधता है।
दृष्टि---१-- सादृश्यनय (२०२) । २.- वैलक्षण्यनय (२०३) ।
प्रयोग....बन्धनमुक्त होने के लिये पुण्य पापकर्म व उसके निमित्तभूत शुभ अशुभ भाव समस्त परभावोंसे उपेक्षा कर निज सहज चित्स्वभावको उपासना करना ॥१८७॥
अब अकेला ही आत्मा बंध है यह प्रकट करते हैं -- [सप्रदेशः] प्रदेशयुक्त [सः आ स्मा] वह प्रात्मा [मोहरागद्वषैः] मोह-राग-द्धषके द्वारा [कषायितः] कषायित होता हुआ
कर्मरजोभिः श्लिष्टः] कर्मरजसे लिप्त होता है [बंधः इति समये प्ररूपितः] यही अभेदनायसे बंध है ऐसा आगममें कहा गया है।
तात्पर्य----सोपाधि विकारी जीव स्वयं बन्धरूप हो रहा है।
m arawinlesiantetwasawww
WEBSCRIWAKARANIMURARAMATIHARHARAHARARE
Page #367
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका
३५३ दृस्टं वासः, तथात्मापि सप्रदेशत्वे सति काले मोहरागद्वेषः कषायितत्वात् कर्मरजोभिरुपश्लिष्ट एको बन्धो द्रष्टव्यः शुद्वद्रव्यविषयत्वान्निश्चयस्य ।।१८८॥ श्लिष्ट बन्ध इति प्ररूपित समय । मूलधातु - कष तन करणे, श्लिष् आलिङ्गने । उभयपदविवरण सपदेसो सप्रदेशः सो स: अप्पा आत्मा कसायिदो कषायित:-प्रथमा एक । मोहरागदोसेहिं मोहरागद्वषै-- तृतीया बहु० । कम्मरजेहि कर्मरजोभिः-तृ० बहु०। सिलिट्ठो श्लिष्ट:-प्र० ए० कृदन्त । बंधो बन्धः परूः विदो प्ररूपित:-प्रथमा एक० । समये-सप्तमी एक० । निरुक्ति-कषनं कषायः कषायः संजातः अस्य स कषायितः । समास-मोहश्च रागश्च द्वेषश्च मोहरागद्वषा: तैः मोहरागद्वषैः, कर्माणि च तानि रजांसि चेति कर्मरजांति तैः कर्मरजोभिः ।।१८८।।
टीकार्थ-जैसे जगत में प्रदेशवानपना होनेपर लोध-फिटकरी आदिसे कसैलापन होने से मंजीठादिके रंगसे संबद्ध होता हुअा वस्त्र अकेला ही रंगा हुआ देखा जाता है, इसी प्रकार आत्मा भी प्रदेशवान होनेसे यथाकाल मोह-राग द्वेषके द्वारा कषायित (मलिन–रंगा हुआ) होनेसे कर्मधूलि द्वारा श्लिष्ट होता हुआ अकेला ही बंध है; ऐसा मानना चाहिये, क्योंकि निश्चय शुद्ध द्रव्यको विषय करता है। . प्रसंगविवरण – अनन्तरपूर्व गाथामें पुद्गलक र्मोकी विचित्रताका कारण बताया गया था। अब इस गाथामें निश्चयतः एक इस जीवको बन्ध कहा गया है ।
तथ्यप्रकाश-(१) प्रात्मा लोकाकाश प्रदेश प्रमाण असंख्यात प्रदेश वाला होनेसे सप्रदेश है । (२) सप्रदेश यह प्रात्मा यथासमय मोह रागद्वेषसे कषायित होनेसे कर्मधूलिसे बद्ध होता हुअा यही अभेदनयसे बन्ध कहलाता है । (३) लोध फिटकरी आदि द्रव्योंसे कसैला किया गया वस्त्र भी तो मंजीठ आदि रङ्गोंसे रञ्जित होता हुआ अभेदसे रक्त (लाल) ही कहा जाता है । (४) केवल एक द्रव्य को देखकर परप्रसंगसे उसपर हुए प्रभावको वह द्रव्य ही वैसा बताना असद्भूत व्यवहार है। (५) असद्भूतव्यवहार प्रशुद्ध द्रव्यके निरूपणका प्रयोजक है । (६) अशुद्धनिश्चयनय से भावबन्ध जीव है, क्योंकि निश्चयनयका विषय शुद्ध (एक) द्रव्य होता है । (७) शुद्ध अर्थ यहाँ अन्य द्रव्यसे पृथक् एक द्रव्य है ।।
सिद्धान्त--(१) निश्चयसे भावबन्ध जीव है। (२) मोहरागद्वेषसे कषायित प्रोत्मा के कर्मरजसे हुए बन्धको जीव कहना उपचार है।
दृष्टि-१- अशुद्धनिश्चयनय (४७)। २- एकजातिकार्ये अन्यजातिकारणोपचारक व्यवहार (१३३)।
प्रयोग–बन्धविपदासे बचनेके लिये प्रबन्ध अविकार सहज चित्स्वरूप में आत्मत्व अनुभवना ।।१८।।
Page #368
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५४
सहजानन्दशास्त्रमालाया अथ निश्चयव्यवहाराविरोधं दर्शयति
एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छयेण णिहिट्टो । अरहतेहिं जदीणं ववहारो अण्णहा भणिदो ॥१८६॥ यह सब बन्धनिरूपण, प्रभुने यतिको कहा विनिश्चयसे ।
व्यवहारवचन इससे, अन्यान्य प्रकार बतलाया ॥१८॥ एष बन्धसमासो जीवानां निश्चयेन निर्दिष्ट: । अर्हद्भिर्यतीनां व्यवहारोऽन्यथा भणितः ॥ १८६॥
रागपरिणाम एवात्मनः कर्म, स एव पुण्यपापद्वतम् । रागपरिणामस्यैवात्मा कर्ता तस्यैवोपादाता हाता चेत्येष शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मको निश्चयनयः यस्तु पुद्गलपरिणाम प्रात्मनः कर्म स एव पुण्यपापढतं पद्गलपरिणामस्यात्मा कर्ता तस्योपादाता हाता चेति सोऽशुद्धद्रव्यनि
नामसंज्ञ- एत बंधसमास जीव णिच्छय णिढि अरहंत जदि ववहार अण्णहा भणिद। धातुसंज्ञ-भण कथने । प्रातिपदिक—एतत् बन्धसमास जीव निश्चय निर्दिष्ट अर्हत् यति ववहार अन्यथा भणित । मूलधातु-भण शब्दार्थः । उभयपदविवरण-एसो एषः बंधसमासो बन्धसमासः-प्रथमा एक०। जीवाणं जोवानां जदीणं यतीनां-षष्ठी बहु० । णिच्छयेण निश्चयेन-तृतीया एक० । णिद्दिट्ठो निदिष्ट: भणिदो
___ अब निश्चय और व्यवहारका अविरोध दिखाते हैं - [एषः] यह (पूर्वोक्त प्रकारसे), [जीवानां] जीवोंके [बंधसमासः] बन्धका संक्षेप [अर्हद्भिः] अर्हन्त भगवानने [यतीनां यतियोंसे [निश्चयेन] निश्चयसे [निर्दिष्टः] कहा गया है; [व्यवहारः] और द्रव्यकर्मरूप व्यवहारबन्ध [अन्यथा] व्यवहारसे [भरिणतः] कहा गया है।
तात्पर्य ---उपयोगमें रागादिका आना निश्चयसे बन्ध है व जीवके साथ कर्मोंका लिप्त होना व्यवहारसे बन्ध है।
टोकार्थ-रागपरिणाम ही प्रात्माका कर्म है, वही पुण्य-पापरूप द्वैत है; रागपरिणाम का ही प्रात्मा कर्ता है, उसीका ग्रहण करने वाला है और उसोका त्याग करने वाला है;इसी प्रकार यह, शुद्धद्रव्यका निरूपण निश्चयनय है । और जो पुद्गलपरिणाम प्रात्माका कर्म है, वही पुण्य पापरूप द्वत है; पुद्गल परिणामका प्रात्मा कर्ता है, उसका ग्रहण करने वाला पौर छोड़ने वाला है, यह अशुद्ध द्रव्यका निरूपरणस्वरूप व्यवहारनय है । ये दोनों नय हैं; क्योंकि शुद्धता और अशुद्धता दोनों प्रकारसे द्रव्य जाना जा रहा है । किन्तु यहाँ निश्चयनय साधकतम अर्थात् उत्कृष्टसाधक होनेसे ग्रहण किया गया है; (क्योंकि) साध्यके ही शुद्धपना होनेसे द्रव्य के शुद्धपनेका प्रकाशक होनेसे निश्चयनय ही साधकतम है, किन्तु अशुद्धत्वका द्योतक व्यवहारनय साधकतम नहीं।
Page #369
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार - सप्तदशांगी टीका
३५५
,
रूपणात्मको व्यवहारयः । उभावप्येतौ स्तः शुद्धाशुद्धत्वेनोभयथा द्रव्यस्य प्रतीयमानत्वात् । ftihread forests: साधकतमत्वादुपासः साध्यस्य हि शुद्धत्वेन द्रव्यस्य शुद्धत्वद्योतत्वान्नि श्वपनय एव साधकतमो न पुनरशुद्धत्वद्योतको व्यवहारनयः ॥१८६॥
1
भणित: प्र० ए० कृदन्त क्रिया । अरहंतेहि अद्भिः तृतीया बहु० । ववहारो व्यवहारः-प्र० एक० । अण्णहा अन्यथा अव्यय । भणिदो भणितः प्रथमा एक कृदन्त किया । निरुक्ति यतते यः स यतिः यती प्रयत्न स्वादि । समास- बन्धानां समासः इति बन्धसमासः ||१८||
प्रसंगविवरण --- प्रनन्तरपूर्व गाथामें "एक जीव ही को निश्चय से बन्ध कहा गया या । अब इस गाथामें तद्विषयक निश्चय व्यवहारका विरोध मिटाया गया है ।
तथ्यप्रकाश -- ( १ ) निश्वयसे रागपरिणाम ही अशुद्ध आत्माका कर्म (कार्य) है । (२) वह रागपरिणामरूप भावकर्म पुण्यरूप व पापरूप है । ( ३ ) रागपरिणामका ही यह प्रशुद्ध प्रा मा कर्ता है । ( ४ ) यह शुद्धात्मा राजपरिणामका ही ग्रहण करने वाला | ( ५ ) यह श्रात्मा सहजात्मस्वरूपको अपनाता हुमा राजपरिणामका त्याच करने वाला है । ( ६ ) पुद्गल के परि Sangat माका कर्म बताना उपचार है । ( ७ ) पुद्गलकर्म पुण्यकर्म व पापकर्म यों दो प्रकारका है । (८) पुद्गलपरिणमनका कर्ता, ग्राहक व त्याग करने वाला आत्माको कहना उपचार है । (६) निश्चयनय एक द्रव्यका निरूपक है । (१०) व्यवहारनव परोपाधियुक्तताका तिरूपक है | ( ११ ) उपचार एकद्रव्यके परिणामको अन्य द्रव्यमें आरोपित करता है । (१२) जीवद्रव्य स्वतन्त्र सत् है अतः शुद्ध है याने समस्त परसे विविक्त है विकारपरिणमनरूप भी यहीं परिणमता है । (१३) जीवका विकार परिणमन सहजस्वभावसे नहीं होता है, किन्तु पर उपाधिका सान्निध्य निमित्त पाकर ही होता प्रसः प्रशुद्ध है याने सोपाधि है । (१४) निश्चयजय केवल जीवद्रव्यको निरखता हुआ तद्विषयक ज्ञान कराता है । (१५) उपचारनामक व्यव हास्य निमित्तनैमित्तिक भावको प्रकट करने के लिये उसकी सीमासे बढ़कर जीवको पुद्गल का कर्ता, ग्रहणकर्ता व त्यागकर्ता बताता है । (१६) स्वयंको साध्य केवल स्वयं जीवद्रव्य अतः उसका ही निरखने वाला निश्वयनय सोधकतम है ।
सिद्धान्त - १ - संसारी जीव अपने ही प्रशूद्ध परिणामका करने वाला है । २-जीव मुद्गलादि किमी भी परद्रव्यका करने वाला नहीं हो सकता ।
दृष्टि - १ - शुद्ध निश्चयनय (४७) । २- प्रतिषेधक शुद्धनय (४६) ।
प्रयोग — अपने श्रात्माको शुद्ध स्थिति में रखनेके लिये कर्मोपाविसे विविक्त केवल
Page #370
--------------------------------------------------------------------------
________________
infoman
358
wchoolinesathasonilesanilyhma
सहजानन्दशास्त्रमालायां प्रथाशुद्वनयादशुद्धात्मलाभ एवेत्यावेदयति
ण चयदि जो दु ममत्तिं अहं ममेमंति देहदविणेसु । सो सामण्णां चत्ता पडिवण्णो होदि उम्मग्गं ॥१६॥
देह धनोंमें मेरा, यह है यों जो ममत्व नहिं तजता ।
सो श्रामण्य छोड़कर, कुमार्गको प्राप्त होता है ॥१६॥ न त्यजति यस्तु ममतामहं ममेदमिति देहद्रविणेषु । स श्रामण्यं त्यक्त्वा प्रतिपन्नो भवत्युन्मार्गम् ।। १६० ।।।
यो हि नाम शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकनिश्चयनयनिरपेक्षोऽशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकव्यवहारनयोपजनितमोहः सन् अहमिदं ममेदमित्यात्मात्मीयत्वेन देहद्रविणादौ परद्रव्ये ममत्वं न जहाति
नामसंज्ञ-ण ज दु ममत्ति अम्ह अम्ह इम ति देहदविण त सामण्ण पडिवण्ण उम्मग्ग । धातुसंज्ञचय त्यागे, हो सत्तायां । प्रातिपदिक-न यत् तु ममता अस्मद् अस्मद् इदम् इति देहद्रविण तत् श्रामण्य चित्प्रतिभासमात्र अनुभवना ।।१८६।।
अब अशुद्धनयसे अशुद्ध प्रात्माका ही लाभ होता है यह कहते हैं--- [यः तु] जो [देहद्रविणेषु] देह-धनादिकमें [अहं इदं मम इदम् ] 'मैं यह हूं और मेरा यह है' [इति ममतां] ऐसी ममताको [न त्यजति ] नहीं छोड़ता, [सः] वह [श्रामण्यं त्यक्त्वा] श्रमणपने । को छोड़कर [उन्मार्ग प्रतिपन्नः भवति] उन्मार्गको प्राप्त होता है।
तात्पर्य-जो देह धन प्रादिमें अहंभाव व ममत्व नहीं छोड़ता वह मुनिपदसे च्युत हो जाता है।
टोकार्थ-जो आत्मा शुद्ध द्रव्यके निरूपणस्वरूप निश्चयन यसे निरपेक्ष रहता हा व अशुद्धद्रव्यके निरूपणस्वरूप व्यवहार नयसे उत्पन्न हुआ है मोह जिसके ऐसा वर्तता हा 'मैं यह हूँ और यह मेरा है' इस प्रकार आत्मीयतासे देह धनादिक परद्रव्य में ममत्व नहीं छोड़ता वह अात्मा वास्तव में शुद्धात्मपरिणतिरूप श्रामण्यनामक मार्गको दूरसे छोड़कर अशुद्धात्मपरिणतिरूप उन्मार्गको ही प्राप्त होता है । इससे निश्चित होता है कि अशुद्ध नयसे अशुद्धात्माका ही लाभ होता है।
प्रसंगविवरण-अनन्तर पूर्व गाथामें बन्धसमास बताकर जीवको अशुद्धता बताई और साथ ही स्वभाव दृष्टि से, स्वसत्तापेक्षासे जीवकी शुद्धताका संकेत किया गया। अब इस गाथामें बताया गया है कि अशुद्ध प्ररूपक नयके अवलम्बनसे अशुद्धात्मत्वका ही लाभ होता है ।
तथ्यप्रकाश-(१) निश्चयनय शुद्ध (केवल एक) द्रव्यका निरूपण करने वाला है । (२) व्यवहारनय अशुद्ध (सम्बद्ध अन्य द्रव्यसहित) द्रव्यका निरूपण करने वाला है।
N PHIRGARH
PEGO
R
Page #371
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशांगो टीका
स खलु शुद्धात्मपरिणतिरूपं श्रामण्याख्यं मार्ग दूरादपहायाशुद्धात्मपरिणतिरूपमुन्मार्गमेव प्रतिपद्यते । अतोऽवधार्यते प्रशुद्धनयादशुद्धात्मलाभ एव ।।१०।। प्रतिपन्न उन्मार्ग । मूलधातु-त्यज त्यागे, भू सत्तायां । उभयपदविवरण--ण न दु तु ति इति-अव्यय । चयदि त्यजति होदि भवति-वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । जो यः सो सः पडिवण्णो प्रतिपन्न:प्रथमा एकवचन । मत्ति ममतां सामण्णं श्रामण्यं उम्मग्गं उन्मार्ग-द्वि० एक० । अहं-प्र० एक० । ममषष्ठी एक० । इमं इदं-प्रथमा एक० । देहदुविणेसु देहद्रविणेषु-सप्तमी बहु० । चत्ता त्यक्त्वा-सम्बन्धार्थप्रक्रिया । निरुक्ति-श्रमणस्य भावः श्रामण्यं द्रूयते यत्र तत्र इति द्रविणं द्रु गतौ भ्वादि । समास--देहाश्च द्रविणानि चेति देहद्रविणानि तेषु ।।१६०॥ (३) निश्चयनयकी अपेक्षा न रखकर एकान्ततः व्यवहारनयका पालम्बन करनेसे मोह उत्पन्न होता है । (४) जिसके परद्रव्य में व्यामोह उत्पन्न हुआ है वह देहमें यह मैं हूं ऐसा अनुभव करता है । (५) देह व्यामुग्ध जीव देहसुखसाधनभूत परद्रव्योमें यह मेरा है इस ममत्वको नहीं छोड़ता । (६) जो अहंकार, ममकारको नहीं छोड़ता वह शुद्धोत्मपरिणतिरूप श्रामण्य मार्गको दूर से ही छोड़ देता है। (७) जो शुद्धात्मदृष्टिरूप श्रामण्यमार्गसे दूर रहता है वह प्रशुद्धात्मपरिणतिरूप उन्मार्ग में रमता है। (८) अशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मक अशुद्धनयसे अशुद्धा. स्मत्वका ही लाभ होता है।
सिद्धान्त-(१) प्रशुद्ध न यसे अशुद्धात्माका लाभ होता है ।
दृष्टि-१- एकजातिद्रव्ये अन्य जातिद्रव्योपचारक असद्भूत व्यवहार, स्वजात्यसद्भुत व्यवहार, विजात्यसद्भूत व्यवहार आदि (१०६, ६७, ६८)।
प्रयोग-पराधित सकलबाधावोंसे दूर होने के लिये परद्रव्य व परभावसे दृष्टि हटा ना ॥१६॥
अब शुद्ध नयसे शुद्धात्माका ही लाभ होता है यह अवधारित करते हैं--[अहं परेषां न भवामि] 'मैं परको नहीं हूं, [परे मे न सन्ति] पर मेरे नहीं हैं, [अहम् एकः ज्ञानम् ] मैं एक ज्ञान हूं' [इति यः ध्याने ध्यायति] इस प्रकार जो ध्यान में रहता हुमा ध्यान करता है, [सः आत्मा] वह आत्माको [ध्याता भवति] ध्याने वाला होता है ।
तात्पर्य---अपनेको ज्ञानमात्र ध्याने वाला आत्मा आत्मध्याता कहलाता है ।
टोकार्थ-~-जो आत्मा मात्र अपने विषयमें प्रवर्तमान अशुद्ध द्रव्यके निरूपणस्वरूप व्यवहारनयके अविरोधसे मध्यस्थ होता हुग्रा शुद्ध द्रव्यके निरूपणस्वरूप निश्चयनयके द्वारा मोह को दूर किया है जिसने ऐसा होता हुआ, 'मैं परका नहीं हूं, पर मेरे नहीं हैं। इस प्रकार स्व. परके परस्पर स्वस्वामिसंबंधको छोड़ कर, 'शुद्ध ज्ञान ही एक मैं हूं' इस प्रकार अनात्माको
।
Page #372
--------------------------------------------------------------------------
________________
ॐ
TimsimeMMEREMIERE
सहजानन्दशास्त्रमालायां अथ शुद्धनयात शुद्धात्मलाभ एवेत्यवधारयति
गाई होमि परेसिं ण, मे परे संति गाणमहमेको । इदि जो झायदि झाणे सो अप्पाणं हवाद झादा ॥१६१॥ मैं परका नहि हूं पर मेरा नहि ज्ञानभाव इक हूँ मैं ।
यों निजको जो ध्याता, शुद्ध वही ध्यानमें ध्याता ॥१६१॥ नाहं भवामि परेषां म मे परे सन्ति ज्ञानमहलंक: । इति यो ध्यायति ध्याने स आत्मा भवति ध्याता ||
यो हि नाम स्वविषयमात्रप्रवृत्ताशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मक व्यवहारन याविरोधमध्यस्थः शुद्ध द्रव्यनिरूपणात्मक निश्चयनयापहस्तितमोहः सन् नाहं परेषामस्मि न परे मे सन्तीति स्वपरयो। परस्परस्व स्वामिसंबन्धमुख़्य शुद्ध ज्ञानमेवैकमहमित्यनात्मानमुत्सृज्यात्मानमेवात्मत्वेनोपादाय ।
नामसंज-ण अम्ह पर ण अम्ह पर णाण अह एक्क इदि ज झत्रण त अप्प झादार । धातसंज्ञ-हो। सत्तायां, अस सत्तायां, जमा ध्याने, हब सत्तायां । प्रातिपदिक---- अस्मद् पर न अस्मद पर ज्ञान अस्मद । छोड़कर, प्रात्माको ही प्रात्मरूपसे ग्रहण करके, परद्रव्य से जुदा हो जानेके कारण आत्मरूप ही एक अग्र में चिन्तनको रोकता है, वह एकाग्नचिन्तानिरोधक उस एकाग्रचिन्तानिरोधक समय वास्तवमें शुद्धात्मा होता है । इससे निश्चित होता है कि शुद्धनयसे ही शुद्धात्माका लाभ होता है।
प्रसंगविधररण---अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि अशुद्धनयसे अशुद्धात्मत्वका लाभ होता है । अब इस गाथामें बताया गया है कि शुद्धनय से शुद्धात्मलाभ ही होता है।
तथ्यप्रकाश----(१) व्यवहारनय अशुद्ध (सोपाधि) द्रव्यका निरूपण करता है। (२) निश्चयनय शुद्ध (केवल एक) द्रव्यका निरूपक है । (३) ज्ञानी व्यवहारनयको यो निरखकर कि यह अपने विषयमात्रमें प्रवृत्त हो रहा है, व्यवहारनयका विरोध न करके मध्यस्थ रहता है । (४) ज्ञानी व्यवहारनयके अबिरोधसे मध्यस्थ होता हुमो निश्चयनय के द्वारा भोहको दूर कर देता है । (५) ज्ञानी निर्मोह होता हुआ स्व व परमें परस्पर स्वस्वामिसम्बन्धको खतम कर देता है । (६) निर्मोह होनेसे ज्ञानीका यह अबाधित निर्णय रहता है कि न मैं किसी पर द्रव्यका हूं और न कोई परद्रव्य मेरा है । (७) ज्ञानी स्वपरमें परस्परस्वस्वामिसम्बन्धको खतम करके अपनेको मैं शुद्ध ज्ञानमात्र हूं ऐसा मानता है, प्रतीत करता है । (८) ज्ञानी अपने को शुद्ध ज्ञानमात्र मानता हुमा समस्त अनात्मक पदार्थोको त्याग देता है । (६) ज्ञानी अनाने स्मक पदार्थों को त्यागकर व प्रात्माको प्रात्मरूपसे ग्रहण कर परद्रव्योंसे जुदा हो जानेके कारण एक स्वात्मामें ही ध्यान रखता है। (१०) जो ज्ञानी ज्ञानद्वारा ज्ञानमें ज्ञानस्वरूपको शुद्धात्मा
SAR
30-5408
w wine TARRERamaidamcines AMRAHANAMAHArtw 8.
Page #373
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५६
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका परद्रव्यध्यावृत्तत्वादात्मन्येवैकस्मिन्नने चिन्तां निरुणद्धि स खल्वेकाग्रचिन्तानिरोधकस्तस्मिन्नेकाग्रचिन्तानिरोधसमये शुद्धात्या स्यात् । अतोऽवधार्यते शुद्ध नयादेव शुद्धात्मलाभ: ॥१६१|| एक इति यत् ध्यान बत् आत्मन् व्यातृ । मूलधातु-भू सत्तायां, अस् भुवि ध्यै ध्याने। उभयपदविवरणन अव्यय । अहं णाणं ज्ञानं एकको एक: जो यः सो सः झादा ध्याता-प्रथमा एकवचन । परेरित परेषाषष्ठी बहु । भे-पष्टी एक० 1 परे-प्र० ब० झारणे ध्याने-सप्तमी एक० । अप्पाणं आरमान-द्वि० एक० । होमि भवामि-वर्त० उत्तम एक० । संति सन्ति--वर्त० अन्य० बहु० त्रिया । झायदि ध्यायति हददि भवति-वर्तमान अन्य एक क्रिया । निरुक्ति- ध्यायति असौ इति ध्याता, ज्ञप्तिमात्र इति ज्ञानं ।। १६१ : को ही जानता है वह उस काल में शुद्धात्माका उपयोगी है । (५१) शुद्धनयसे हो शुद्धात्माका उपयोग बना, अतः शुद्धनयसे ही शुद्वात्मलाभ होता है, यह निश्चित हुया । (१२) शुद्धात्मलाभ के समय ज्ञानी भाववर्म द्रव्यकर्म व नोकर्मसे विविक्त एक ज्ञान मात्र ही अनुभवता है । (१३) शुद्धात्मध्यान में स्थित हुअा ज्ञानी चिदानन्द एकस्वभाव सहजपरमात्माका ध्याता हैं। (१४) सहज परमात्माका ध्याता सहजपरमात्माको प्राप्त करता है।
सिद्धान्त-१-- शुद्धनयसे शुद्धात्मलाभ होता है। २-- शुद्धस्वरूपको भावनामें जीव निरुपाधि अात्मस्वरूपका ध्याता है ।
दृष्टि-१- शुद्धनय (४६) । २-- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४८) ।
प्रयोग- शुद्धात्मलाभके लिये "मैं दूसरेका नहीं, दूसरे मेरे नहीं, मैं तो एक ज्ञानमात्र हूँ' इस प्रकार एकत्वविभक्त आत्मतत्त्वको ध्यान में लेना ॥१६.१।।
अब ध्र वत्वके कारण शुद्धात्मा ही पाने योग्य है यह उपदेश करते हैं.---[अहम] मैं [एवं] इस प्रकार [श्रात्मक] आत्माको [ज्ञानात्मानं] ज्ञानात्मक, [दर्शनभूतम्] दर्शनभूत,
अतीन्द्रियमहाथं] अतीन्द्रिय महापदार्थ, [ध्र वम्] ध्र ब, [अचलम्] अचल, [अनालम्ब] निरालम्ब और [शुद्धम्] शुद्ध [मन्ये] मानता हूं।
तात्पर्य---मैं अपनेको ज्ञानदर्शनमय अतीन्द्रिय भ्र व अचल निरपेक्ष शुद्ध सहज पर. मात्मतत्त्व मानता है।
टीकार्थ- सत् अहेतुक होनेके कारण अनादि-अनन्त और स्वतः सिद्ध होनेसे प्रात्मा का शुद्धात्मा ही ध्रुव है, उसके दुसरा कुछ भी ध्रव नहीं है। और परद्रव्यसे भिन्नत्व और स्वधर्मसे अभिन्नत्य होनेके कारण एकत्व होनेसे प्रात्मा प्रशुद्ध है । वह एकत्व प्रात्माके ज्ञानात्मकत्वके कारणा, दर्शनभूतत्वके कारण, अतीन्द्रिय महापदार्थत्वके कारण, अचलताके कारण मोर निरालम्बत्वके कारण है। उनमेंसे ज्ञानको ही अपनेमें धारण करने वाले, स्वयं दर्शनभूत प्रात्माका अतन्मय परद्रव्यसे भिन्नत्व होनेके कारण और स्वधर्मसे अभिन्नत्व होनेके
।
--
-
-
Page #374
--------------------------------------------------------------------------
________________
:
00
86000mm
DEEEEEEE
३६०
सहजानन्दशास्त्रमालायां अथ ध्रुवत्वात् शुद्ध आत्मैवोपलम्भनीय इत्युपदिशति---
एवं णाणप्पाणं दंसणभूदं अदिदियमहत्थं । धुवमचलमणालंबं मण्णोऽहं अप्पगं सुद्ध ॥१६॥ यौं जानात्मक दर्शन-भूत अतीन्द्रिय महार्थ अविनाशी ।
ध्रुव अचत निरालम्बी, निजको मैं शुद्ध माता हूँ॥१६२॥ एवं ज्ञानात्मानं दर्शनभूतमतीन्द्रियमहार्थम् । ध्रुवमचलमनालम्बं मन्येऽहमात्मकं शुद्धम् ।। १६२ ।।
___ आत्मनो हि शुद्ध प्रात्मैव सदहेतुकत्वेनानाद्यनन्तत्वात् स्वतःसिद्धत्वाच्च ध्रुवो न किचनाप्यन्यत् । शुद्धत्वं चात्मनः परद्रव्यविभागेन स्वधर्माविभागेन चैकत्वात् । तच्च ज्ञानात्मक त्वाद्दर्शनभूततवादतीन्द्रिय महार्थत्वादचलत्वादनालम्बत्वाच्च । तम्म ज्ञानमेवात्मनि विभ्रतः स्वयं दर्शन भूतस्य चातन्मयपरद्रव्यविभागेन स्वधर्माविभागेन चास्त्येकत्वम् । तथा प्रतिनियतस्पर्श. __ नामसंज-एवं जाणाप दसणभूद अदिदियमहत्थ धुव अचल अणालब अम्ह अप्पग सुद्ध । घातुसंज्ञ--- मन्न अवबोधने। प्रातिपदिकः ...एवं ज्ञानात्मन् दर्शनभूत अतीन्द्रियमहार्थ ध्रुब अचल अनालम्ब अस्मद भात्मक शुद्ध। मूलधातु- मन ज्ञाने। उभयपद विवरण-एवं-अव्यय । णाणप्पाणं ज्ञानात्मानं दसणभूद दर्शनमूतं अदिदियमहत्थं अतीन्द्रियमहाथ धुवं ध्रुर्व अचल अणालय अनालम्ब अप्पगं आत्मकं सुद्धं शुद्धंकारण एकत्व है । और, जो प्रतिनियत स्पर्श-रस गंध-वर्णरूप गुण तथा शब्दरूपपर्यायको ग्रहण करने वाली अनेक इन्द्रियोंका उलंघन करके समस्त स्पर्श-रस-गंध-वर्णरूप गुणों और शब्दरूप पर्यायको ग्रहण करने वाले एक सत् महापदार्थका (प्रात्माका) इन्द्रियात्मक परद्रव्यसे भिन्नत्व होनेके कारण और स्पादिके ग्रहण स्वरूप (ज्ञानस्वरूप) स्वधर्मसे अभिन्नत्व होने के कारण एकत्व है । और, क्षण विनाशरूपसे प्रवर्तमान ज्ञेय पर्यायोंको ग्रहण करने और छोड़ने का प्रभाव होनेसे प्रचल श्रात्माका शेषपर्यायस्वरूप परद्रव्यसे भिन्नत्व होनेके कारण और तन्निमित्तक ज्ञानस्वरूप स्वधर्मसे अभिन्नत्य होने के कारण एकत्व है । और, नित्य रूपसे प्रव. र्तमान ज्ञेयद्रव्योंके पालम्बनका प्रभाव होनेसे निरालम्ब प्रात्माका ज्ञेय-परद्रव्योंसे भिन्नत्व होने के कारण और तन्निमित्तक ज्ञानस्वरूप स्वधर्मसे अभिन्नत्व होने के कारण एकत्व है। इस प्रकार चिन्मात्र शुद्धनयका उतना ही मात्र निरूपणस्वरूपपना होनेसे यही एक शुद्धात्मा ही ध्र बनके कारण उपलब्ध करने योग्य है। पथिकके शरीरके अंगोंके साथ संसर्गमें प्राने वाली मार्गके वृक्षोंकी अनेक छायाके तुल्य अन्य अध्रव पदार्थोसे क्या प्रयोजन है ?
प्रसंगविवरण----अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि शुद्धनयसे शुद्धात्मलाभ होता है। अब इस गापामें बताया गया है कि ध्रुवपना होनेसे शुद्ध प्रात्मा ही उपलम्भनीय
Page #375
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका रसगन्धवर्णगुणशब्दपर्यायग्राहोण्यनेकानोन्द्रियाण्यतिक्रम्य सर्वस्पर्शरसगन्धवरणगुणशब्दपर्यायग्रा. हकस्यैकस्य सतो महतोऽर्थस्येन्द्रियात्मकपरद्रब्यधिभागेन स्पर्शादिग्रहणात्मकस्वधर्भाविभागेन चास्त्येकत्वम् । तथा क्षरणक्षयप्रवृत्तपरिच्छेद्यपर्यायग्न हणमोक्षणाभावेनाचलस्य परिच्छेद्यपर्यायात्मकपरद्रव्यविभागेन तत्प्रत्ययपरिच्छेदात्मकस्वधर्माविभागेन चास्त्येकत्वम् । तथा नित्यप्रवृत्तपरिच्छेद्यद्रव्यालम्बनाभावेनानालम्बस्य परिच्छेद्यपरद्रव्यविभागेन तत्प्रत्ययपरिच्छेदात्मकस्वध
विभागेन चासत्येकत्वम् । एवं शुद्ध आत्मा चिन्मात्रशुद्धनयस्य तावन्मात्रतिरूपणात्मकत्वात प्रयमेक एव च ध्र वत्वादुपलब्धव्यः किमन्यरध्वनीनाङ्गसंगच्छमानानेकमार्गपादपच्छायास्थानीयैरध्र वः ॥ १६२।।
SoSORRESO
द्वितीया एकवचन । अहं-प्रथमा एकवचन । मरणे मन्ये-वलेमान उत्तम पुरुष एकवचन क्रिया 1 निरुक्तिआलंबनं आलम्बः तेन रहित: अनालम्ब: तं लबि अवलम्बने 1 समास--ज्ञान आत्मा स्वरूप यस्य स ज्ञामात्मा सं ॥१९॥
(प्राप्त ) है।
तथ्यप्रकाश-(१) प्रात्माका ध्र व सर्वस्व शुद्ध (केवल) प्रात्मा ही है, अन्य कुछ नही । (२) प्रात्मा स्वयं सत् अहेतुक होनेसे अनादि अनन्त है और स्वतः सिद्ध है, इसी कारण शाश्वत ध्रुव है । (३) आत्मा समस्त परद्रव्योंसे जुदा है और अपने स्व धर्मोमें तन्मय है, यही एकत्व है, यही प्रात्माकी यहाँ अभिप्रेत शुद्धता है। (४) अपने प्रापमें ज्ञानमय होने से प्रखण्ड ज्ञानात्मक यह आत्मा अतन्मय परद्रव्यसे जुदा व निचित्स्वभावमें तन्मय होनेसे एकत्वगत शुद्ध है । (५) स्वयं प्रतिभासमात्र होनेसे दर्शनभूत यह प्रात्मा अतन्मय परद्रच्यसे जुदा व स्वचित्स्वभाव में तन्मय होनेसे एकत्वगत शुद्ध है । (६) प्रतिनियत स्पर्शादिको ग्रहण करने वाली मूर्त विनयबर इन्द्रियोंसे परे और सर्वस्पर्शादिका जाता अमूर्त अविनश्वर यह प्रतीन्द्रियस्वभाव आत्मा इन्द्रियात्मक परद्रव्योंसे जुदा व ज्ञायकस्वरूप स्वधर्ममें तन्मय होनेसे एकत्वगत शुद्ध है । (७) क्षणिक परिच्छेच पर्यायोंका ग्रहण मोक्षण न होनेसे चञ्चल त्रियोग. व्यापाररहित स्वरूपतः प्रचल यह प्रातमा परिच्छेद्यपर्यायात्मक परद्रव्यसे जुदा व परिच्छेदा. मकस्वधर्ममें तन्मय होनेसे एकत्वगत शुद्ध है। (८) परिच्छेद्य द्रव्यका आलम्बन न होनेसे मनालम्ब यह स्वाधीन प्रात्मा परिच्छेद्य परद्रव्यसे जुदा व परिच्छेदात्मकस्वधर्ममें तन्मय होने से एकत्वगत शुद्ध है । (६) विकारमयत्रिवर्गसाधनकी स्वाभाविक्ता न होनेसे मोक्षमहापुरुषार्थ का साधक यह आत्मा परवृत्तियोंसे जुदा व स्वसहजवृत्तियोंमें तन्मय होनेसे एकत्वगत शुद्ध है । (१०) उक्त प्रकार सुनिश्चित चिन्मात्र यह एक आत्मा ही ध्रव है और उपलब्धव्य है।
कार
Page #376
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६२
F
सहजानन्दशास्त्रमालाया अथाध्र यत्वादात्मनोऽन्यन्नोपलभनीयमित्युपदिशतिः
देहा वा दविणा वा सुहदुक्खा वाध सत्तुमित्तजणा । जीवस्स गण संति धुवा धुवोवोगप्पगो अप्पा ॥१६३।। देह द्रधिरण सुख दुख या, शत्रू मित्र परिवार प्रादि सभी ।
जीवके न ध्रुब ये कुछ, ध्र व है उपयोगमय प्रात्मा ॥ १६३॥ देहा वा द्रविणानि वा सुखदुःखे बाथ शत्रुमित्रजनाः । जीवस्य न सन्ति ध्रुवा ध्रुव उपयोगात्मक आत्मा ॥
प्रात्मनो हि पर द्रव्याविभागेन परद्रव्योपरज्यमानस्वधर्मविभागेन चाशुद्धत्वनिबन्धनं न
नामसंज्ञ-देह वा दविण वा सुहदुख वा अध सत्तुभित्तजण जीव ण धुव धुवोवोगापग' अप्प । भात अस सत्तायां । प्रातिपदिक-देह वा द्रविण वा सखदःख वा अथ शत्रमित्रजन जीवन धव ध्र वोपयोगात्मक आत्मन् । मूलधातु---अस भुवि । उभयपदविवरण--देहा देहाः दविणा द्रविणानि सत्तुमित्तजणा शत्रुमित्रजनाः धुवा ध्रुवा:-प्रथमा बहु0 1 सुह दुक्खा-प्रथमा बहु० । सुख दुःखे-प० द्विः । जी. बस्स जीवस्य-षष्ठी एकवचन । धुवोवओगप्पगो ध्र वोपयोगात्मक: अप्पा आत्मा-प्रथमा एवावचन । संति
सिद्धान्त-१- अखण्ड सहज चैतन्यस्वभावमय एकत्वगत शुद्ध पात्मा ध्रुव है। दृष्टि-१- अखण्ड परमशुद्धनिश्चयनय [४३] ।
प्रयोग ---शाश्वत सहज प्रानन्दमय होने के लिये अध्र व पदार्थोंसे व प्रात्मवृत्तियोंसे हटकर ध्र व सहज चैतन्यस्वभावकी प्राराधना करना ।। १६२।।
अब अन वपनाके कारण प्रात्माके अतिरिक्त दूसरा कुछ भी उपलब्ध करने योग्य नहीं है यह उपदेश करते हैं.---[देहाः वा शरीर, [द्रविणानि वा] धन, सुखदुःखे) सुख दुःख [अथ वा] अथवा [शत्रुमित्रजनाः] शत्रुमित्रजन ये सब [जीवस्य] जीवके [ध्र वा: न सन्ति ध्रन नहीं हैं; [ध्र वः] ध्र व तो उपयोगात्मकः आत्मा] उपयोगात्मक प्रात्मा है।
तात्पर्य—अपना ध्र व तो ज्ञानदर्शनमय प्रात्मतत्त्व है अन्य कुछ नहीं।
टोकार्थ---परद्रव्यसे अभिन्न होनेके कारण और परद्रव्य के द्वारा उपरक्त होने वाले स्वधर्मसे भिन्न होनेके कारण आत्माकी अशुद्धि का कार सा भूत ऐसा कुछ भी अन्य कोई भी मुझ आत्माका ध्र ब नहीं है, क्योंकि वह असत् और हेतुमान होनेसे आदि-अन्तवाला और परतः सिद्ध है; ध्रुव तो उपयोगात्मक शुद्ध प्रात्मा ही है इस कारण मैं उपलभ्यमान प्रधब शरीरादिको उपलब्ध नहीं करता, और ध्र व शुद्धात्माको उपलब्ध करता हूँ।
प्रसंगविवरण-~-अनन्तरपूर्व गाथामें यह बताया गया था कि ध्रवपना होनेसे अपना शुद्ध आत्मा ही प्राप्त करने योग्य है । अब इस गाथामें बताया गया है कि अन वपना होनेसे
Page #377
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका
विचनाप्यन्यदसद्धेतमत्त्वेनाद्यन्तवत्त्वात्परत: सिद्धत्वाच्च ध्रुवमस्ति । ध्रुव उपयोगात्मा शुद्ध प्रात्मैव । अतोऽन व शरीरादिकमुपलभ्यमानमपि नोपलभे शुन्द्वात्मानमुपलभे ध्रुवम् ।।१६।। सान्ति-वर्तमान अन्य पुरुष बहुवचन किया। वा अध-अध्यय । मिरुक्ति सीदति इति शत्रुः पद्ल विशरणगत्यवसीदनेषु, मद्यति स्नि ह्यति यत्तमित्रं मिदास्नेहन स्वादि जिमिदा स्नेहने दियादि । समास- सुख च दुःखं च सुखदुःम्ये ३१६३॥ प्रात्मातिरिक्त अन्य कुछ भी पदार्थ प्राप्त करनेके योग्य नहीं है।
तथ्यप्रकाश-----(१) परद्रब्यसे मैं अत्यन्त भिन्न हूं अत: कोई भी परद्रव्य मुझ पात्मा का ध्र व नहीं है, क्योंकि समस्त परद्रव्य मुझमें असत् हैं । (२) पर पौद्गलिक कर्मविपाकका निमित्त पाकर उत्पन्न हुए जीदगत विकारसे मैं अत्यंत भिन्न हूं, अत: नैमित्तिक परभाव भी मुझ प्रात्माका ध्रुव नहीं है, क्योंकि वे सहेतुक होनेसे आद्यन्तवान् हैं न परत्तः सिद्ध हैं। (३) उपयोगात्मक शुद्ध (केवल) प्रात्मा ही मेरा ध्रव है । (४) अध्र व शरीरादिक भले ही जब तक बद्ध हैं रहो, मैं तो उपलभ्यमान उस शरीरादिकको भी नहीं प्राप्त कर शुद्ध ध्र व प्रात्माको ही प्राप्त करता हूं। (५) देह देहरहित मुभ, सहजपरमात्मतत्त्व से भिन्न है। (६) इन्द्रिय भोगोपभोगके साधन भूत धन मुझसे अत्यन्त भिन्न है । (७) अविकार स्वात्मासे प्राविभूत सहजानन्दामृषसे विपरीत सुख दुःखरूप विकारभाव मुझ सहजपरमात्मतस्वसे भिन्न हैं । (८) शत्रु मित्रादि भावरहित चिन्मात्र सहज स्वतत्त्वसे विलक्षण शत्रु मित्रादिजन मुझसे अत्यन्त भिन्न हैं।
सिद्धान्त---१- प्रात्मा समस्त परद्रव्य व परभावोंसे भिन्न केवल स्वभावमात्र है। दृष्टि---१- परद्रव्यादिग्राहक शुद्ध द्रव्याथिकनय (२६) ।
प्रयोग.--- समस्त परपदार्थ व परभावोंको अध्रुव जानकर ध्र व चित्स्वभावमात्र स्वास्मामें प्रात्मत्वकी भावना करना ॥१६३!!
___इस प्रकार शुद्धात्माकी उपलब्धिसे क्या होता है अब यह निरूपण करते हैं- [य] जो [सागार अनागारः] श्रावक व मुनि [एवं ज्ञात्वा] ऐसा जानकर [विशुद्धात्मा] विशुद्धा. त्मा होता हुआ [परमात्मानं] परम प्रात्माको [ध्यायति] ध्याता है, [सः] वह [मोहदुथि] मोहदुग्रंथिको [क्षपयति ] नष्ट करता है।
टीकार्थ-इस यथोक्त विधिके द्वारा शुद्धात्माको ध्र व जानने वाले आत्माके उसीमें प्रवृत्ति होनेसे शुद्धात्मत्व होता है। इस कारण अनन्तशक्ति बाले चिन्मात्र परम आत्माका एकानसंचेतनलक्षण ध्यान होता है; और इस कारण सविकल्प उपयोग वालेकी या निर्विकल्प
Imuhimmimitali
Page #378
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६४
सहजानन्दशास्त्रमालायां
अथवं शुद्धात्मोपलम्मास्कि स्यादिति निरूपति
जो एवं जाणित्ता झादि परं अप्पगं विसुद्धप्पा । सागारोऽणागारो खवेदि सो मोहदुग्गंठिं॥१६४।। यो जानि विशुद्धात्मा, जो ध्याता परमात्मशक्तीको ।
गेही या निर्गही, मोह ग्रन्थिका क्षपण करता ॥१६४॥ य एवं ज्ञात्वा ध्यायति परमात्मानं विशुद्धात्मा । सामारोऽनागारः क्षपयति स मोहदुर्गन्थिम् ॥ १६४ ॥
अमुना यथोदितेन विधिना शुद्धात्मानं प्रवमधिगच्छतस्तस्मिन्नेव प्रवृत्तेः शुद्धात्मत्वं स्यात् । ततोऽनन्त शक्तिचिन्मात्रस्य परमस्यात्मन एकाप्रसंचेतनलक्षणं ध्यान स्यात्, ततः साकारोपयुक्त स्थानाकारोपयुक्तस्य वाविशेषेण काग्रचेतन प्रसिद्धरासंसारबद्धढतरमोहदान्थेरुद्ग्रथन । स्यात् । अतः शुद्धात्मोपलम्भस्य मोहाग्रन्थि भेदः फलम् ।।१६४॥
नामसंज्ञ---ज एवं पर अप्पग विसुद्धष्प सागार अणागार त मोहदुग्गठि । वातुसंज्ञ....जाण अवबोधने ज्झा ध्याने, खदाये। प्रातिपदिकन्यत् एवं पर अत्मक विशुद्धात्मन साकार अनाकार तत मोहदूग्रंथि। मूलधातु----ज्ञा अबदोघने, ध्यं चिन्तायां, क्षि क्षये क्षयादेशो विकल्पात क्षप् क्षये वा । उभयपदविवरण-- जो य: विसुद्धप्पा विशुद्वात्मा सागारो साकार: अणगारो अनाकारः सो स:-प्रथमा एकवचत । एवंअन्यय 1 जापिता ज्ञात्वा-सम्बंधार्थप्रक्रिया अव्यय । झादि ध्यायति खवेदि क्षपयति-वर्तमान अन्य एकवचन क्रिया । परं अप्पमं आत्मान-
द्वि० ए० । मोहदुन्गांद मोहदुर्गन्थि-द्वितीया एकवचन निरुक्तिअगं ऋन्छति इति अगारः, थिकौटिल्ये, ग्रन्य बन्धन चुरादि ग्रन्थयति बध्नाति इति प्रतियः । समास--- विमुद्धश्चानो आत्मा चेति विशुद्धात्मा (दुष्टा ग्रन्थिः दुर्गन्धिः मोह एव दुर्गन्थिः मोहदुर्गन्थिः तां मोहदुर्ग:
उपयोग वालेकी-दोनोंको अविशेषरूपसे एकाग्रसंचेतन की प्रसिद्धि होनेसे अनादि संसारसे बंधी हुई अतिदृढ़ मोहदुग्रंथि छूट जाती है ।
इससे (यह कहा गया है कि) मोहाथि भेद (दर्शनमोहरूपी गांठका टूटना) शुद्धात्मा की उपलब्धिका फल है।
प्रसंगविवरण-----अनन्तरपूर्व माथामें बताया गया था कि अघ्र वता होनेसे देह धन प्रादिक पदार्थ उपलब्धव्य नहीं हैं । अब इस माथामें बताया गया है कि अभवको छोड़कर ध्रव शुद्ध आत्माकी उपलब्धिसे क्या जाता है ?
तथ्यप्रकाश-(१) अध्र वको छोड़कर अव शुद्ध स्वात्माको उपलब्धि करने वाले मात्माको शुद्धामस्वरूप में प्रवृत्ति होती है जिससे शुद्धात्मत्व होता है । (२) शुद्धात्मामें उप.. योगवृत्ति होने से परमात्मत्वका उत्तम ध्यान होता है । (३) सहजपरमात्मत्व के उच्चम ध्यानमें
ancakew
Page #379
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
३६५ अथ मोहग्रन्थिभेदारिक स्यादिति निरूपयति
जो णिहदमोहगंठी रागपदोसे खवीय सामगो । होजौंसमसुहदुक्खो सो सोक्खं अस्वयं लहदि ॥१६॥ जो निहतमोहनन्थी, क्षत करके रागद्वष मुनिपनमें ।
हो सुख दुखमें सम वह, अविनाशी सौख्य पाता है ॥१५॥ यो निहतमोहग्रन्थो रामप्रद्वेषौ पयित्वा श्रामण्ये 1 भत्रे समसुखदुःख म सौख्यमक्षय लभते ।। १६५॥
मोहप्रन्थिक्षपणाद्धि तन्मूलरागद्वेषक्षपरणं ततः समभुखदुःखस्य परममाध्यस्थलक्षणे श्रा.
नामसंज्ञ- ज णिहदमोहगंठि रागापदोस सामण्ण समसुहवाल त सोक्न अक्खय । धातुसंज्ञ---खव क्षयकरो, हो सत्तायां, लह लामे । प्रातिपदिक--यत्त निहतमोहदुर्गन्धि रागद्वेप थामण्य समसुखदुःख तत् सौख्य अक्षय । मूलधातु--क्षि क्षये, भू सत्तायां, इलभ प्राप्तौ। उभयपदविवरण---जो यः णिहदमोहगंठी समसुहदुक्खो समसुखदुःख सो स:-प्रथमा एकवचन । राग दोसे-द्वि० बहु० । शगप्रद्वेषौ-द्वि० उपयुक्त प्रात्माके प्रासंसारबद्ध भोहको खोटो गांठ छूट जाती है । (४) शुद्धात्मोपलब्धिका यह महान् फल त्वरित प्राप्त होता है कि मोहको मठका भेदन हो जाता है अर्थात् प्रात्मा मोहविकाररहित हो जाता है । (५) सहज परमात्मस्वसंवेदन जान ही स्वात्मोपलभ है । (६) शुद्धात्मरुचिका प्रतिबन्धक दर्शनमोह ही खोटी गांठ है जिसके कारण भव भवमें जन्म मरण का व जीवनमें अनेक कष्टोंको भोगले रहना पड़ता है।
सिद्धान्त- (१) प्रात्माका सर्वस्व ध्र व शुद्ध सहज परमात्मतत्त्व है। दृष्टि-१- उपाधिनिरपेक्ष शुद्ध द्रव्याथि कनय (२१) 1
प्रयोग-समस्त संसारसंकटोंके मूल मोह दुर्ग्रन्थिसे छुटकारा पानेके लिये सहजसिद्ध अविकार ज्ञायकस्वभावी सहज परमात्मत्वको अभेद अाराधना करना ॥१६४॥
अब मोहग्रंथिके टूटने से क्या होता है यह निरूपण करते हैं..--- [ निहतमोहग्रंथिः] नष्ट किया है मोहको गांठको जिसने ऐसा [यः] जो ग्रात्मा [रागद्वेषौ क्षपयित्वा] रागद्वेषको नष्ट करके, [समसुख दुःख] सुख-दुःख में समान होता हुप्रा श्रामण्ये भवेत् ] श्रमणपने में परिणमता है, [सः] वह [अक्षयं सौख्यं] अक्षय सौख्यको [लभते] प्राप्त करना है।
____टोकार्थ- मोहग्रंथिका क्षय होनेसे मोहग्रंथि जिसका मूल है ऐसे रागद्वेष का क्षय होता है; उससे सुख दुःख में समान रहने वाले जीवका परम माध्यस्थ्यस्वरूप श्रमणपने में परिणमन होता है; और उससे अनाकुलता जिसका लक्षण है ऐसे अक्षय सुख का लाभ प्राप्त होता है ।
इससे यह कहा है कि मोहरूपो ग्रंथि के छेदनेसे प्रक्षय सौख्यरूप फल होता है।
Page #380
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां
मण्ये भवनं ततोऽनाकुलत्वलक्षणाक्षयसौख्यलाभः । अतो मोहग्रन्थिभेदादक्षयसोख्यं फलम् । १६५॥ द्विवचन । खवीय क्षपयित्वा-सम्बन्धार्थप्रत्रिया कृदन्त अव्यय । सामण्यो श्रामण्ये-सप्तमी एक० । होज्ज भवेत्-विधौ अन्य पुरुष एक क्रिया । गोरखं सौख्यं अक्खयं अक्षय-द्वितीया एक०। लहदि लभते-वर्तमान अन्य एक नियनिरुक्ति-शाम्यति इति धमणः तस्य भावः श्रामप्यं धमतपसि दे च दिवादि। समास- निहता मोहदुर्ग्रन्धिः येन सः नि०, रागश्च प्रदुषश्च रागद्वेषौ ॥ १६५ ।।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाया बताया गया था कि शुद्धात्मोपलब्धिसे मोहदीन्थि का विनाश होज्ञा है। अब इस गाथामें बताया गया है कि मोप्रन्थि के भेदसे (विनाशसे) आत्मा राग द्वेष भावको नष्ट कर सुख दुःख में समान होता हुअा अक्षय सुखको प्राप्त करता है।
तथ्यप्रकाश--- (१) शुद्धात्मोपलब्धिके प्रसादसे मोहग्रन्थि नष्ट हो जाती है । (२) मोहनस्थिसे रहित अन्तरात्मा निश्चलानुभूतिरूप वीतराग चारित्रके प्रतिबन्धक राग द्वेष नामक नारित्रमोहको नष्ट कर देता है। (३) राग द्वेषके दूर होनेसे सुख दुःख आदि भावों में समता या जाती है । (४) सुख दुःखमें समान रहने वाले अन्तरात्माके परममाध्यस्थ्यरूप स्वभाववृत्तिरूप श्रामण्य होता है । (५) जिन के परममाध्यस्थ्य भाव हुआ है उनको निजशुद्धात्मसंवेदनसे उत्पन्न परमानंद तृप्ति होनेसे अनाकुलतारूप अक्षय सौख्यका लाभ होता है।
सिद्धान्त.... ( १ ) शुद्धात्मतत्वको भान नासे रागद्वेष दूर होकर सहजात्मविकास होता
SEE
दृष्टि - १- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रध्याथिकान य (२४ब)।
प्रयोग- अविनश्वर सहज प्रानन्दके लाभके लिये अविकारस्वभावी सहजचित्प्रति. भासमात्र अन्तस्तत्व में आत्मत्वका अनुभव करनेका पौरुष करना ।।१६५।।
अब एकाग्रसचेतन जिसका लक्षण है, ऐसा ध्यान प्रात्मामें अशुलता नहीं लाता, यह निश्चित करते हैं---[क्षपितमोहकलुषः] नष्ट किया हैं मोहमल जिसने ऐसा [:] जो प्रात्मा [विषयविरक्तः] विषयसे विरक्त होता हुग्रा [मनः निरुध्य] मनका निरोध करके, [स्वभावे समवस्थितः] स्वभाव में समवस्थित है, [सः] वह [आत्मानं] अात्माको [ध्याता भवति] ध्याने वाला है।
तात्पर्य -निर्मोह जीव स्वभाव में स्थित होता हुअा अात्मध्याता होता है।
टीकार्थ-जिसने मोहमलका क्षय किया है ऐसे आत्माके, मोहमल जिसका मूल है ऐसी पर द्रव्यप्रवृत्तिका प्रभाव होनेसे विषयविरक्तता होती है; उससे, समुद्रके मध्यमत जहाज के पक्षीकी भांति, अधिकरणभूत द्रध्यान्तरोंका अभाव होनेसे जिसे अन्य कोई शरण नहीं रहा है ऐसे मन का निरोध होता है। और मन जिसका मूल है ऐसी चंचलताका विलय होनेके
SHES
A
Page #381
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार--सप्तदशांगी टीका
३६७ अर्थकाग्रयसंचेतनलक्षरणं ध्यानमशुद्धत्वमात्मनो नावहतीति निश्चिनोति
जो खविदमोहकलुसो विसयविरत्तो मणो णिरु भित्ता । समवहिदो सहावे सो अप्पाणं हवाद झादा ॥१६६॥
जो मोहनाशकर्ता, विषयविरक्त मनका निरोधन कर ।
___ सुस्थित स्वभाव में है, वह प्रातम तत्त्वका ध्याता ॥१६६॥ यः क्षपितमोहकलुषो विषयविरक्तो मनो निरुध्य । समबस्थितस्वभावे स आत्मानं भवति ध्याता ।।१६६।।
पात्मनो हि परिक्षपितमोहपालुषस्य तन्मूलपरद्रव्यप्रवृत्य भावाद्विषयविरक्तत्वं स्यात्, सतोऽधिकरगाभूतद्रव्यान्तराभावाबुदधिमध्य प्रवृत्तपोतपतत्रिण इव अनन्य शरणस्य मनसो निरोधः स्यात् । ततस्तन्मूलचञ्चलत्वविलयादनन्तसहजचैतन्यात्मनि स्वभावे समवस्थानं स्यात् ।
SainamainawwalMAHAMARHAwar
नामसंज–ज खविदमोहकलुस विसयवि रत्त मण रामवदिद सहाय त अप्प भादार। धातुसंज्ञ-हव सत्तायां । प्रातिपदिक-यत् क्षपितमोहकलुष विषयविरक्त मनस् समट्टिद महाब तत् आत्मन् ध्यातृ 1 मूलघातु-भू सत्तायां । उभयपदविवरण......जो यः खविदमोहकलुसो क्षपितमोहकलुषः विमयविरत्तो विषयविरक्त सो स:-प्रथमा एकवचन । मणो मनः अप्पाणं आत्मा-हितीया एकवचन । णिभित्ता निध्यकारण अनन्त-सहज चैतन्यात्मक स्वभावमें दृढ़तासे रहना होता है । और वह स्वभावसमव. स्थान स्वरूप प्रवर्तमान, ग्रनाकुल, एकाग्रसंचेतन होनेसे ध्यान कहा जाता है। इससे यह निश्चित हा कि ध्यान, स्वभावसमवस्थानरूप होने के कारण प्रात्मासे अनन्यपना होनेसे अशुद्धताके लिये नहीं होता ।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें "मोहनन्यिके भेदसे क्या होता है" यह कहा गया था। अब इस गाथामें यह बताया गया है कि स्वभाव में उपयुक्त भव्यात्मा शुद्धात्माका ध्याता होता है।
तथ्यप्रकाश----(१) परद्रव्यमें विषयों में प्रवृत्तिका मूल कारा मोह है । (२) जिसने मोहकालुष्यका क्षय कर दिया है उसकी पर द्रव्योंमें प्रवृत्ति नहीं होती। (३) निमोह प्रात्माके विषयप्रवृत्तिका प्रभाव हो जानेसे वास्तविक विषयविरक्ति होती है । (४) निर्मोह भव्यात्मा को अविकारस्वात्मसंवेदनसे उत्पन्न सहजानन्दका अनुभव हो चुका है, अतः उसके विषयसुख की आकांक्षा असंभव होनेसे प्रचलित विषयविरक्ति होती है। (५) विषयविरक्ति एवं सहआत्मभक्ति होनेपर प्रशरण होकर मन निरुद्ध हो जाता है । (६) मनका निरोध होनेपर योग और उपयोगको चञ्चलताका विलय हो जाता है 1 (७) योग और उपयोगको चञ्चलताका विलय होनेसे अनन्तसहजचैतन्यात्मक स्वभावमें दृढ़तासे अवस्थान हो जाता है । (८) स्वरूप
eneswwwi
m
mywareem
Page #382
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां
FORos-dan
Ba
a p
सत्तु स्वरूपप्रवृत्तानाकुलकाप्रसंचेतनत्वात् ध्यानमित्युपगीयते । प्रतः स्वभावावस्थानरूपत्वेन ध्यानमात्मनोऽनन्यत्वात् नाशुद्धत्वायेति ॥१६६॥ सम्बन्धार्थप्रक्रिया अव्यय कृदन्न । समद्विदो समवस्थितः भादा ध्याता--प्र० एक० कृदन्त सहावे स्वभाचे-सप्तमी एक० । हदि भवति-वर्तमान अन्य एकत्रिया। निरुक्ति- मन्यते अनेन इति मनः । समास-- क्ष पितः मोहकलुमः येन सः क्षपितमोहक लुषः, (विषयाद् विरक्तः विषयविरक्त: ।२९६ ॥ समव स्थान ही अनाकुलशुद्धात्मसंचेतन होनेसे परमध्यान कहलाता है । (8) स्वभावसमवस्थान रूप परमध्यान प्रात्मासे अनन्य है वह प्रात्माकी अशुद्धताके लिये नहीं है, किन्तु परमशुद्धता के लिये है।
सिद्धान्त--(१) सहज स्वभाव में उपयोग होनेके पौरुषसे स्वतंत्र सहन विलासका अनुभव होता है।
दृष्टि--- १- पुरुषकारनय, अनीश्वरनय, शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (१८३, १८६, २४ब)।
प्रयोग --- वीतराग सर्वज्ञ सहजानन्दमय होनेके लिये अविकार ज्ञान मात्र सहजात्मस्वरूपका ध्यान करना ।।१६६॥
____ अब जिनने शुद्वात्माको उपलब्ध किया है ऐसे सर्वज्ञ क्या ध्याते हैं ? यह प्रश्न प्रा. सुत्रित करते हैं निहितघमघातिकमा] नष्ट किया है धनधातिकर्मको जिसने ऐसा [प्रत्यक्ष सर्वभावतत्वज्ञः] प्रत्यक्षरूपसे सर्व पदार्थोके स्वरूपको जानने वाले तथा [ज्ञेयान्तगतः ज्ञेयों के पारको प्राप्त [असंदेहः श्रमरण:] संदेहहित श्रमण [कम् अर्थ] किस पदार्थको [ध्यायति] ध्याते हैं ?
तात्पर्य--घातियाकर्मरहित सर्वज्ञदेव किस पदार्थको ध्याते हैं, यहाँ यह एक प्रश्न
M RANIRAMANAKAMAAMAAXAMMANISM
हुप्रा ।
टीकार्थ— मोहका सद्भाव होनेपर तथा ज्ञान शक्तिके प्रतिबंधक का सद्भाव होनेपर तृष्णा सहित होने के कारण पदार्थ प्रत्यक्ष नहीं होनेसे और विषयको अवच्छेद पूर्वक जानना नहीं होनेसे लोक अभिलषित, जिज्ञासित और संदिग्ध पदार्थका ध्यान करता हुआ दिखाई देता है। परन्तु धनघातिकर्मका नाश किया जानेसे मोहका अभाव होनेके कारण तथा ज्ञानशक्तिके प्रति बंधकका अभाव होनेसे तृष्णा नष्ट की गई होनेसे तथा समस्त पदार्थो का स्वरूप प्रत्यक्ष है। तथा ज्ञेयोंका पार पा लिया है, इस कारण भगवान सर्वज्ञदेव अभिलाषा नहीं करते, जिज्ञासा नहीं करते, और संदेह नही करते; तब फिर (उनके) अभिलषित, जिज्ञासित और संदिग्ध पदार्थ कहाँसे हो सकता है ? जब कि ऐसा है तब फिर वे क्या ध्याते हैं ?
Page #383
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६६
प्रवचनसार----सप्तदशाङ्गी टोका प्रथोपलन्धशुद्धात्मा सकलज्ञानी कि ध्यायतोति प्रश्नमासूत्रयति---
णिहदघणघादिकम्मो पञ्चक्खं सब्वभावतच्चाह । गोयंतगदो समणो झादि कम असंदेहो ॥१६७॥ निहतघनघातिकर्मा, प्रत्यक्षहि सर्व तत्वका ज्ञाता।
ज्ञेयान्तगत प्रसंशय, प्रभुवर क्या अर्थ ध्यान करे ॥१७॥ निहतघनघातिकर्मा प्रत्यक्षं सर्वभावतत्त्वज्ञ: 1 ज्ञेयान्तगतः श्रमणो ध्यायति कमर्थमसंदेहः ।। १६७ ।।
लोको हि मोहसद्भावे ज्ञानशक्तिप्रतिबन्ध कसद्भावे च सतृष्णत्वादप्रत्यक्षार्थतवानवच्छिनविषयत्वाभ्यां चाभिलषितं जिज्ञासितं संदिग्धं चार्थं ध्यायन् दृष्टः, भगवान सर्वज्ञस्तु निहतधनधातिकमंतया मोहाभावे ज्ञानशक्तिप्रतिबन्ध काभावे च निरस्ततृष्णत्वात्प्रत्यक्षमर्वभावतत्त्व
नामसंज्ञ--णिहृदयणघादिकम्म पच्चक्ख सब भावतरचण्हु रण्यंतगद समण के अट्ट असंदेह ! धातुसंज्ञझा ध्याने । प्रातिपदिक.....
निधनधातिकमन् प्रत्यक्षं सर्वभावतस्वज्ञ ज्ञेयान्सगत श्रमण किम् अर्थ असंदेह । मूलधातु--ध्ये चिन्तायो । उभयपदविवरण-णिदधन घादिकम्मा मिहतधनधातिकर्मा सवभावतवह सर्वभावतत्त्वज्ञः रयंदगदो ज्ञेयान्तगत: समणो श्रमणः असदेहो असन्देहः-प्रथमा एक वचन । पच्चख प्रत्यक्ष-अन्तर्गतक्रियाविशेषण प्रत्यक्षं यथा स्यात्तथा अव्यय पश्चात् । कं अट्ट अर्थ-द्वितीया एक० । झादि ध्यायति-वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । निरुक्ति- अन्तनं अन्त: अति बन्धने भ्वादि, ज्ञातुं
प्रसङ्गविवरण..- अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि निमेहि विषयविरक्त भध्यास्मा स्वभावमें समवस्थित होता हुअा शुद्धात्माका ध्याता है। अब इस गाथामें प्रश्न अथवा प्राक्षेप किया गया है कि घातिकमरहित सर्वज्ञाता श्रमण किस पदार्थको ध्याते हैं ?
तथ्यप्रकाश---१-- मोहभाव होनेपर तृष्णा जगती है । २-तृष्णा जगनेपर इष्ट अर्थको अभिलाषा होती हैं। ३-- इष्ट अर्थका अभिलाषी अभिलषित अर्थका ध्यान किया करता है। ४- ज्ञानशक्तिके प्रतिबन्धक ज्ञानावरणकर्मका विपाक होनेसे बहुतसे पदार्थोको यह जीव जानता नहीं है । ५- सर्व पदार्थोंका ज्ञान न होने से कुछ ज्ञात व बहुधा अज्ञात पदार्थको स्पष्ट
जाननेकी इच्छा होती है । ६- जिज्ञासु जीव जिज्ञासित अर्थका ध्यान किया करता है । ७A कतिपय सर्वसाधारण अंश ज्ञात होनेपर तथा शेष असाधारणांश अज्ञात होनेपर संदेह होता
है। 4- संदेह रखने वाला जीव संदिग्ध पदार्थका ध्यान किया करता है । - मोहनीय कर्म के नाश होनेसे जिस अात्माके मूलतः समस्त मोह नष्ट हो गया वह तृष्णा शून्य परमात्मा क्या प्रभिलाषा करता है ? १०- जिस प्रात्माके ज्ञान शक्तिका प्रतिबन्धक ज्ञानावरण समस्त नष्ट हो गया वह सर्वज्ञाता परमात्मा क्या जिज्ञासा करता है ? क्या सन्देह करता है ? ११- जब परमात्माके अभिलाषा नहीं, जिज्ञासा नहीं, सन्देह नहीं तब वह क्या ध्याता है ? १२-पर
htra.comR
R ORomwcommamtamanna
।
Page #384
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७०
सहजानन्दशास्त्रमालायां
ज्ञेयान्तगतत्वाभ्यां च नाभिलषति न जिज्ञासति न संदिह्यति च कुतोऽभिलषितो जिज्ञासितः संदिग्धश्चार्थः । एवं सति किं ध्यायति ॥ १६७॥
योग्यः ज्ञेयः । समास - निहतानि धनधातिकर्माणि येन सः घनघतिकर्मा, सर्व च ते भावाश्चेति सर्वभावः तेषां तत्त्वं स॰ सर्वभावतत्वं जानाति इति सर्वभावत्तत्त्वज्ञः ज्ञेयानां अन्तं गतः ज्ञेयान्तगतः ॥ १६७ ॥
मात्माने पहिले श्रमावस्था में केवलज्ञान व केवलज्ञान के फलभूत अनन्त सुख के निमित्त शुद्धा
भावनारूप ध्यान किया था । १३- शुद्धात्मभावनारूप ध्यानके प्रतापसे जब केवलज्ञान व अनन्तसुख प्राप्त हो गया तब किसलिये ध्यान किया जाता है ? १४- जब सकलप्रत्यक्ष ज्ञान न हो, पदार्थ परोक्ष रहे तब तो ध्यान बनता है, भगवान के सर्व सत् प्रत्यक्ष ज्ञात है फिर कैसे ध्यान हो सकता है ?
सिद्धान्त - ( १ ) परमात्मा पूर्ण सर्वज्ञ है । दृष्टि - १ - सर्वगतनय, श्रशून्यनय ( १७२,
( २ ) परमात्मा श्रनन्तानन्दमय है । १७४ ) । २ - शुद्ध निश्चयनय ( ४६ ) |
-
प्रयोग- इस गाथोक्त प्रश्न प्रथवा प्राक्षेपके समाधानमें परमात्माको पूर्ण निर्दोषता पूर्ण सर्वज्ञता निरखकर अपने दोष व जिज्ञासा विकल्पको दूर कर स्वयं में स्वयंको श्रविकार स्वभाव ज्ञानमय व सहजानन्दमय अनुभवनेका पौरुष करना ॥१६७॥
अब जिसने शुद्धात्माको उपलब्ध किया है वह सकलज्ञानो परमसौख्यको ध्याता है, अर्थात् अनुभवता है यह उत्तर प्रसूत्रित करते हैं [ श्रनक्षः ] श्रनिन्द्रिय और [क्षातीत मूतः ] इन्द्रियातीत हुआ आत्मा [ सर्वाबाधवियुक्तः ] सर्व बाधारहित और [समंत सर्वाक्षसौख्यज्ञानादयः ] सर्व प्रकारके, परिपूर्ण सौख्य तथा ज्ञानसे समृद्ध रहता हुआ [ परं सौख्यं ] परम सख्यको [ ध्यायति ] ध्याता है अर्थात् अनुभवता है ।
तात्पर्य - - सर्वज्ञ प्रभु अनन्त श्रानन्दको अनुभवते हैं इसरूप हो उनका ध्यान 1
टीकार्थ - यह श्रात्मा जब ही सहज सुख और ज्ञानकी बाधा के प्रायतनभूत तथा असल आत्मामें सर्वप्रकारके सुख और ज्ञान के आयतनभूत इन्द्रियोंके प्रभाव के कारण स्वयं 'अतीन्द्रिय' रूपसे वर्तता है, उसी समय वह दूसरोंको 'इन्द्रियातीत' वर्तता हुआ निराबाध सहजसुख और ज्ञान वाला होने से 'सर्वबाधारहित तथा सकल आत्मामें सर्व प्रकार के ( परिपू) सुख और ज्ञानसे परिपूर्ण होनेसे 'समस्त श्रात्मामें समंत सौख्य और ज्ञान में समृद्ध' होता है । इस प्रकारका वह ग्रात्मा सर्वं श्रभिलाषा, जिज्ञासा और संदेह्का असम्भव होनेवर भी पूर्व और अनाकुलत्व लक्षण परमसौख्यको ध्याता है; अर्थात् अनाकुलत्वसे संगत एक
श्रात्मा संचेतन मात्ररूप श्रवस्थित रहता है, और ऐसा श्रवस्थान सहज ज्ञानानन्दस्वभाव
Page #385
--------------------------------------------------------------------------
________________
Breathinatantan
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गो टोका मयतदुपलब्धशुद्धात्मा सफलज्ञानी ध्यायतीत्युत्तरमासूत्रयति----
सव्वाबाधविजुत्तो समंतसमक्खसोक्खणाणड्ढो । भूदो अक्खातीदो झादि अणक्खो परं सोक्खं ॥१६८॥ सर्वबाधाविजित, समन्त सर्वाक्षजानसौख्यमयी ।
इन्द्रियातीत इन्द्रिय विगत परम सौख्यको पाते ॥१६॥ * सर्वाबावियुक्तः समन्तसक्षिसौख्यज्ञानाढयः । भूतोऽक्षातीतो ध्यायत्यनक्षः परं सोत्यम् ॥ १५८ !!
अयमात्मा दैद सहजसोख्यज्ञान बाधायतनानामसार्वदिक्कासकलपुरुषसोख्यमानायत. नान चाक्षाणामभावात्स्वयमनक्षत्वेन वर्तते तदेव परेषामक्षातीतो भवन निराबाधसहजसोख्य मानत्वात् सर्वाचाववियुक्तः, सार्वदिक्कसकलापुरुषसोख्यज्ञान पूर्णत्वात्समन्तसक्षिसौख्य ज्ञानाच्या
नामसंज्ञ---सन्याबावजुत्त समंतसव्वाखसोक्दणाणड्ढ भूद अक्खातीद अपाक्ख पर मौस्य । पातुसंत्र--मा ध्याने । प्रातिपदिक----सर्वाबाधवियुक्त समन्त सर्वाक्षसौख्यज्ञानादय भूत अक्षातीत अनक्ष पर लोख्य । मूलधातु-ध्य चिन्तायां । उभयपदविवरण-सुशिवियुक्तः समन्तसर्वाक्षसोस्यज्ञानाढयः भूतः अहातीत: अनक्ष: सम्वादाविजुत्तोसमंतसव्वक्खसोखणड्ढो भूदो अक्खातीदो अगवखो-प्रथमा एक
वचन । परं सोवन सोस्य-द्वितीया एकवचन । मादि ध्यायलिन्दर्तमान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया। । सिद्धत्वकी सिद्धि हो है ।
प्रसंगविवरण ---- अनन्तरपूर्व माथा में ग्रादेषरूप अथवा अन्तःस्वरूप जानने के लिये प्रश्न पासूनित किया गया था कि उपलब्ध शुद्धात्मा सर्वज्ञ भगवान क्या ध्यान करते हैं। अब इस गोयामें उसी प्रश्नका उत्तर प्रासूत्रित किया गया है कि सर्वज्ञ भगवान अपनेको अनन्तानन्दमय अनुभवते हैं। है तथ्यप्रकाश--(१) जब तक सहज ज्ञानानन्दकी बाधिकायें इन्द्रियां हैं तब तक यह मात्मा सर्ववाघावोंसे बाधित है । (२) याप ये इन्द्रियां कुछ कल्पित सुख ब जानके बाह्य साधन हैं तथापि वह होनता व भ्रान्ति के कारण क्षोभ व मलिनतासे प्राकुल स्थिति है । (२) जब इन्द्रियरहित प्रतिकार सहज चित्प्रकाश मात्र अन्तस्तत्त्वकी अभेद पाराघनासे प्रात्मा प्रतीन्द्रिय हो जाता है तब ही त्वरित निर्वाध सहज परिपूर्ण ज्ञान व प्रानन्दरूप परिणत होता
मा सर्ववाघावोंसे रहित हो जाता है । (४) जो प्रात्मा निविकार निर्वाध व परिपूर्णसहजा. जन्तानन्दमय हो गया है उसके अभिलाषाका होना संभव है । (५) जो प्रात्मा सर्वतः परिपूर्ण सर्वजाता है, वीतराग है उसके जिज्ञासा व संदेह होना असम्भव है । (६) जहां रंच भी प्रभिलाषा, जिज्ञासा व सन्देह त्रिकाल कभी हो ही नहीं सकता वह वीतराम सर्वज्ञ परमात्मा
कर
AN
Page #386
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७२
::EBIOGRAMINESHARIRIDHA
R
ima
सहजानन्दशास्त्रमालायां श्च भवति । एवंभूतश्च सर्वाभिलाजिज्ञासासंदेहासंभवेऽध्यपूर्वमनाकुलत्वलक्षण परमसौख्यं ध्यायति । अनाकुलत्वसंगतकाग्रसंचेतनमात्रेणावतिष्ठत इति यावत् । ईदृशमवस्थानं च सहजज्ञानानन्दस्वभावस्य सिद्धत्वस्य सिद्धिरेव ।।१६८।। निरुक्ति--आ समन्ताद बाधनं बाध: आबाधः बाध प्रतिपाते भ्वादि । समास- सर्वे च ते आवाचायनेति सर्वानाथाः तेभ्यः वियुक्तः सर्वाबाधवियुक्तः 11 १९८ ।। परम सहज अनन्त आनन्दको सलत अनुभवता रहता है । (७) यदि ध्यान शब्दसे ही परमात्माको रहस्य समझनेका प्राग्रह है तो कह लीजिये कि ये परम सहज प्रानन्दको ध्याते हैं अर्थात् परमात्मा सनाकुल्ल प्रात्माके संत्रेतनमात्रसे अवस्थित रहते हैं । (0) अनाकुल प्रात्मा के संचेतनमात्रसे अवस्थित रहना ही सहजज्ञानानन्दस्वभावका सिद्धपना है। -- . . . सिद्धान्त-(१) शुद्ध परिपूर्ण जानादि विकासी परमात्मा सहजानन्तानन्दरूप अपने को अनुभवते हैं।
दृष्टि--१-- शुद्धनिश्चयन य (४६) ।
प्रयोग- परम सहज प्रानन्द अनुभवते रहने के लिये इन्द्रिय व विकारसे रहित सहज ज्ञानमात्र अपनेको अनुभवना ३१६८।।
अब यह निश्चित करते हैं कि-'यही (पूर्वोक्त ही) शुद्ध प्रात्माकी उपलब्धि जिसका लक्षशा है, ऐसा मोक्षका मार्ग हैं' --- जिनाः जिनेन्द्राः श्रमणाः] अर्थात् सामान्य केवली, तीर्थ कर और मुनि [एवं] इ. प्रकार से [मार्ग समुत्थिताः] मार्गमें प्रारूढ़ होते हुये [सिद्धाः जाता सिद्ध हुये हैं [तेभ्यः] उनके लिये न] और [तस्मै निर्वाण मार्गाय] उस निर्वाणमार्गके लिये [नमः अस्तु] नमस्कार हो ।
तात्पर्य जैसा कि मार्ग बताया गया है उस मार्गमें प्रारूढ श्रमण ही सिद्ध होते हैं, उन सबको ब उस मोक्षमार्गको नमस्कार हो।
टीकार्थ----सभी सामान्य चरमशरीरी तीर्थकर और अचरमशरीरो मुमुक्षु इसी यथोक्त शुद्धात्मतत्व प्रवृत्तिरूप विधिसे प्रवर्तमान मोक्षके मार्गको प्राप्त करके सिद्ध हुये; किसी दूसरी विधिसे नहीं। इससे निश्चित होता है कि केवल यह एक ही मोक्षका मार्ग है, दूसरा नहीं। अधिक विस्तारसे पूरा पड़े । उस सुद्धात्मतत्व में प्रवर्ते हुये सिद्धोंको तथ। उस शुद्धात्मतत्व. प्रवृत्तिरूप मोक्षमार्गको, भाव्यभावकविभागरहितपनेसे नोग्रागमभावनमस्कार हो । मोक्षमार्ग निश्चित कर लिया है, अब कर्तव्य किया जा रहा है।
प्रसङ्गविवरण-अनन्तरपूर्व : गाथामें उससे पूर्वकी गाथामें किये गये इस प्रश्नका
Page #387
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
प्रायमेव शुद्धात्मोपलम्भलक्षरगो मोक्षस्य मार्ग इत्यवधारयति - एवं जिगा जिगिंदा सिद्धा मग्गं समुट्टिदा समया । जादा गमोत्थु तेसिं तस्स य णिव्वाणमग्गस्स ॥१६६॥
३७३
यो जनमार्गाश्रय कर, श्रमण हुए जिन जिनेन्द्र सिद्ध प्रभु । उनको उनके शिवपथ को हो मेरा प्रणाम मुदा ॥ १६६ ॥
१६६
एवं जिना जिनेन्द्राः सिद्धा मार्ग समुत्थिताः श्रमणाः । जाता नमोऽस्तु तेभ्यस्तस्मै निर्वाणमार्गाय यतः सर्वं एवं सामान्यचरमशरोरास्तीर्थकराः श्रचरमशरीरा मुमुक्षवश्वामुनेव यथोदितेन शुद्धात्मतत्त्व प्रवृत्तिलक्षणेन विधिना प्रवृत्तमोक्षस्य मार्गमधिगम्य सिद्धा बभूवुः, न पुनरन्यः थापि । ततोऽवधार्यते केवलमयमेक एव मोक्षस्य मार्गो न द्वितीय इति । श्रलं च प्रपञ्चेन ते शुद्धात्मतत्त्वप्रवृत्तानां सिद्धानां तस्य शुद्धात्मतत्त्व प्रवृत्तिरूपस्य मोक्षमार्गस्य च प्रत्यस्तमि--- तभाव्यभावक विभागत्वेन नोश्रागमभावनमस्कारोऽस्तु । श्रवधारितो मोक्षमार्गः कृत्यमनुष्ठीयते ..
॥१६६॥
:
नामसंज्ञ - एवं जिन जिणिद सिद्ध मग्ग समुट्ठिद समण जाद णमो त त य निव्वाणभग्ग । धातुसंज्ञ -- अस सत्तायां । प्रातिपदिक- एवं जिन जिनेन्द्र सिद्ध मार्ग समुत्थित भ्रमण जात नमः तत् तत् च निर्वाणमार्ग मूलधातु - अस् भुवि । उभयपदविवरण एवं णमो नमः य च - अव्यय । जिणा जिना: जिं नेन्द्राः समुट्टिदा समुत्थिताः समणा श्रमणाः जादा जाता:- प्रथमा एकवचन । भग्गं मार्ग- द्वितीया एक० । अत् अस्तु आज्ञार्थी अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । तेसि तेषां षष्ठी बहु० । तस्स तस्य णिव्वाणमग्गस्स निर्वाणमार्गस्य षष्ठी एकवचन । निरुक्ति वियुज्य तेस्म यः स वियुक्तः वि युजिर् योगे रुधादि । समास जिनानां इन्द्राः जिनेन्द्राः, निर्वाणस्य मार्गः निर्वाणमार्ग तस्य निर्वाणमार्गस्य ॥ १६६ ॥
उत्तर दिया गया था कि वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा क्या ध्यान करते हैं। अब इस गाथामें उक्त उपदेशोंका उपसंहार करते हुए कहा गया है कि यह शुद्धात्मोपलम्भलक्षण वाला ही परमार्थधर्मपाल मोक्षका मार्ग है ।
तथ्यप्रकाश - ( १ ) तीर्थंकर पुरुषों तथा श्रन्य भव्य पुरुषोंने शुद्ध ग्रात्मतत्वमें प्रवृत्त • होनेat fafa मोामार्ग पाकर सिद्धावस्था प्राप्त की । (२) केवल सहजचित्स्वरूपकी श्रतुभूतिके प्रतिरिक्त अन्य प्रकारसे सिद्धावस्था नहीं प्राप्त की जा सकती । (३) मोक्षका मार्ग मात्र सहज चित्स्वभावकी अनुभूति है । ( ४ ) सहज चित्स्वभावकी अनुभूतिके बलसे शुद्धात्मतत्वमें प्रवृत्त सिद्ध भगवंतोंको नोश्रागमभावनमस्कार हो । ( ५ ) शुद्धात्मतत्त्व में प्रवृत्तिरूप मोक्षमार्गको नोभागमभावनमस्कार हो । ( ६ ) श्रन्तःप्रयोगात्मक प्रभेदनमस्कारको नोश्रागमभावनमस्कार कहते हैं, जहां कि प्राराध्य आराधक भावका विभाग समाप्त हो जाता है |
Page #388
--------------------------------------------------------------------------
________________
S
ammelanwwwwwwwww
सहजानंदशास्त्रमालायां अथोपसंवा साम्यमिति पूर्वप्रतिज्ञा निर्वहन मोक्षमार्गभूतां स्वयमपि शुद्धात्मप्रवृत्तिमासूति
तम्हा तह जाणित्ता अप्पाणं जाणगं सभावेण । परिवजामि ममत्तिं उवहिदो गिम्ममत्तम्मि ॥२०॥ इससे यथार्थ अभिगत, कर प्रात्माको स्वभावसे जायक ।
तजता ममत्वको है, निर्ममतामें बर्तता है ।। २०० ।। तस्मात्तथा ज्ञात्वात्मानं शायक स्वभावेन । परिवर्जयामि ममतामुपस्थितो निर्ममत्वे ।। २०७।।
महमेष मोक्षाधिकारी ज्ञायकस्वभावात्मतस्वपरिज्ञानपुरस्सरममत्व निर्ममत्वहानोपादानविधानेन कृत्यान्तरस्याभावात्सर्वारम्भेगा शुद्धात्मनि प्रवर्ते । तथाहि-प्रहं हि तावत् ज्ञायक एव स्वभावेन, केवल ज्ञायकस्य च सतो मम विश्वेनापि सहजज्ञेयझायकलक्षण एव संबन्धः न
नामसंज-ततह अस्प जाणग सभाव ममत्ति उवाद्विद णिम्ममत्त । धातुसंज्ञ- जाण अववोधने, परि वज्ज वर्जने उबट्ठा गतिनिवृत्तो । प्रातिपदिक--तत् तथा आत्मन् ज्ञायकस्वभाव ममता उपस्थित निर्मम(७) अनन्तज्ञानादिसिद्धगुणोंका स्मरण होना सिद्धोंके प्रति भावनमस्कार है। (८) निविकार स्वसंवेदन होना निश्चयरत्नत्रयरूप मोक्षमार्गके प्रति भावनमस्कार है । (8) निज सहज पर"मात्मतत्वको अनुभूति होना ही मोक्षमार्ग है यह तो निश्चित कर लिया, अब तो उसका कर्तव्य किया जाता है।
सिद्धान्त-(१) प्रात्माका परिपूर्ण स्वतंत्र स्वाभाविक विलास अनुभवनेका .. उपाय सहजात्मस्वभावको अभेदोपासना है।
दृष्टि------ सामान्यन य, नितिनय, स्वभावनय, अनीश्वरनय, शुद्ध भावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याधिकनय (१६७, १७७, १७६, १८६, २४ब)।
प्रयोग-सहजपरमानन्दसम्पन्नता रूप सिद्धिके लिये सहजज्ञानानन्दमय सहजपरमास्मतत्वको प्रभेद प्राराधना करना ।।१६६।।
___मब 'साम्यको प्राप्त करता हूं ऐसी पूर्वप्रतिज्ञाका निर्वाह करते हुये प्राचार्यदेव स्वयं मोक्षमार्गभूत शुद्धात्मप्रवृत्ति प्रासूत्रित करते है-[तस्मात्] शुद्धात्मामें प्रवृत्तिके द्वारा ही मोक्ष होने के कारण [तथा] उसी प्रकार [प्रात्मानं] प्रात्माको [स्वभावेन ज्ञायकं] स्वभावसे ज्ञायक [शात्या] जानकर [निर्ममत्वे उपस्थितः] निर्ममत्व में स्थित रहता हुमा मैं [ममता "परिवर्जयामि ममताका परित्याग करता हूं।
तात्पर्य-स्वभावसे ज्ञायकमात्र अपनेको जानकर मैं निर्ममत्व होता हूं। टोकार्थ----मैं यह मोक्षाधिकारी, ज्ञायकस्वभावी प्रात्मतत्त्वके परिज्ञानपूर्वक ममत्वका
Sambhoompetition
Page #389
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टोका
३७५ पुनरन्ये स्वस्वामिलक्षणादय संबन्धाः । ततो मम न क्वचनापि ममत्वं सर्वत्र निर्ममत्वमेव । अकस्य शायकभावस्य समस्तज्ञेयभावस्वभावत्वात् प्रोत्कीर्णलिखितनिखातकोलितमश्रितसमावतितप्रतिविम्बितवत्ता क्रमप्रवृत्तानन्तभूतभवद्धाविविचित्रपर्यायप्रारभारमगाधस्वभावं गम्भोरं समस्तमपि द्रव्यजातमेकक्षण एवं प्रत्यक्षयन्तं ज्ञेयज्ञायकलक्षणसंबन्धस्यानिवार्यत्वेनाशक्यविवेचनत्वादुपात्तवैश्वरूप्यमपि सहजानन्तशक्तिज्ञायकस्वभावेनैक्यरूप्यमनुज्झन्तमासंसारमनयव त्व । मूलधातु- ज्ञा अवबोधने, परि वर्ज वर्जने, उप ष्ठा गतिनिवृत्ती । उभयपदविवरण- तम्हा तस्मात्पंचमी एकवचन । तह तथा-अव्यय । जाणित्ता ज्ञात्वा-सम्बन्धार्थप्रक्रिया कृदन्त अव्यय । अप्पाण आत्मानं त्यागरूप और निर्ममत्वका ग्रहणरूप विधानके द्वारा सर्व उद्यमसे शुद्धात्मामें प्रवृत्त होता है, क्योंकि दूसरा कुछ भी करने योग्य नहीं है । स्पष्टीकरण-वास्तवमें मैं स्वभाबसे ज्ञायक ही है; केवल ज्ञायक होनेसे मेरा समस्त पदार्थोके साथ भी सहज ज्ञेयज्ञायकलक्षण ही संबध है, किन्तु अन्य स्वस्वामिलक्षणादि सम्बंध नहीं हैं; इसलिये मेरा किसीके प्रति ममत्व नहीं है, सर्वत्र निर्ममत्व ही है । अब एक ज्ञायकभावका समस्त ज्ञेयों को जाननेका स्वभाव होनेसे क्रमश: प्रवर्तमान, अनन्त, भूत-वर्तमान भाबी विचित्रपर्यायसमूहवाले, अगाधस्वभाव और गम्भीर समस्त द्रव्यमात्रको - मानो वे द्रव्य ज्ञायकमें उत्कीर्ण हो गये हों, चित्रित हो गये हों, भीतर घुस गये हों, कोलित हो गये हों, डूब गये हों, समागये हों, प्रतिबिम्बित हुये हों, इस प्रकार एक क्षण में ही प्रत्यक्ष करने वाले, ज्ञेयज्ञायकलक्षण संबंधकी अनिवार्यताके कारण ज्ञेय-ज्ञायक को भिन्न करना अशक्य होनेसे विश्वरूपताको प्राप्त होते हुए भी सहज अनन्तशक्ति वाले ज्ञायकस्वभावके द्वारा एकरूपताको नहीं छोड़ते हुए अनादि संसारसे इसी स्थितिसे स्थित और मोहके द्वारा दूसरे रूपसे जाने गये उस शुद्धात्माको यह मैं मोहको उखाड़ फेंककर, प्रतिनि. कम्प रहता हा जैसाका तैसा ही प्राप्त करता हूं। इस प्रकार दर्शनविशुद्धि जिसका मूल है ऐसी, सम्यग्ज्ञानमें उपयुक्तताके कारण प्रत्यन्त निधि लीनता होनेसे, साधु होनेपर भी साक्षात् सिद्धभूत निज प्रात्माको तथा सिद्धभूत परमात्मानोंको, उसी में एकपरायणता जिसका लक्षण है ऐसा भावनमस्कार सदा ही स्वयमेव होनो। जैन इत्यादि...अर्थ----इस प्रकार ज्ञेयतत्वको समझाने वाले जिनेन्द्रप्रोक्त ज्ञानमें व विशाल शब्दब्रह्ममें-- सम्यक्तया अवगाहन करके हम मात्र शुद्ध प्रात्मद्रव्यरूप एक वृत्तिसे सदा युक्त रहते हैं ।।१०।। ज्ञेयोकुर्वन् इत्यादि अर्थ--- मात्मा परमात्मस्वको, शीघ्र प्राप्त करके, अनन्त विश्वको एक समय में शेयरूप करता हुना, प्रतेक प्रकारके ज्ञेयोंको ज्ञान में जानता हुअा और स्वपरप्रकाशक ज्ञानको प्रात्मरूप करता हुआ प्रगट देदीप्यमान होता है ॥११।। ।।२०।।
.............HitnammmmmmsA
views
।
Page #390
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७६
सहभानन्दशास्त्रमालायां स्थित्या स्थितं मोहेनान्यथाध्यवस्यमानं शुद्धात्मानमेष मोहमुत्खाय यथास्थितमेवातिनिःप्रकम्पः संप्रतिपद्ये । स्वयमेव भवतु चास्यवं दर्शनविशुद्धिमूल या सम्यग्ज्ञानोपयुक्ततयात्यन्तमव्याबाध रतस्वात्साधोरपि सामात्सिद्धभूतस्य स्वात्मनस्तथाभूतानां परमात्मनां च नित्यमेव तदेवपरायणत्वलक्षणो भावनमस्कारः ।। जनं ज्ञानं ज्ञेयतत्वप्रणेतृ स्फीतं शब्दब्रह्म सम्यग्विगाह्य ।। संशदास्मद्रव्यमात्रकवस्या नित्यं युक्त': स्थीयतेऽस्माभिरेवम् ।।१०॥ ज्ञेयोकूर्वन्नजसासोमविश्वं ज्ञानीकुर्वन् ज्ञेयमाक्रान्तभेदम् । प्रात्मीकुर्वन ज्ञानमात्मान्यभासि स्फूजत्यात्मा ब्रह्म संपया सद्यः ॥११॥ द्रव्यानुसारि चरणं चरणानुसारि द्रव्यं मियो द्वयमिदं ननु सव्यपेक्षम् । तस्मान्मुमुक्षुर. जाणगं ज्ञायक-द्वितीया एक० । सभावेण स्वभावेन-तृतीया एक० । परिवज्जामि परिवर्जयामि--वर्तमान उत्तम पुरुष एकवचन क्रिया । मत्ति ममता--द्वि० एक० । उवडिलो उपस्थितः-प्रथमा एकवचन । णिम्मयत्तम्मि निर्ममत्वे-सप्तमी एकवचन । निरुक्ति-नि:शेषेण वानं निर्वाणं वा गतिबन्धनयोः, मार्यते यत्र स
द्रव्यानुसारि इत्यादि-- अर्थ----चारित्र द्रव्यानुसार होता है और द्रव्य चारित्रानुसार होता है । इस प्रकार वे दोनों परस्पर सापेक्ष हैं; इस कारण या तो द्रव्यका आश्रय लेकर या चारित्रका आश्रय लेकर मोक्षके इच्छुक जन मोक्षमार्गमें प्रारोहण करो।
प्रसंगविवरण-~-अनन्तरपूर्व गाधामें "शुद्धात्मतत्वोपलब्धि ही मोक्षमार्ग है। यह निश्चित किया गया था। अब इस गाथामें समताको प्राप्त होने विषयक पूर्व प्रतिज्ञाका निर्वाह कराते हुए शुद्धात्मतत्त्वमें स्थित कराया गया है ।
तथ्यप्रकाश - (१) अब इस मुझ मोक्षाधिकारीको पर व परभावसे ममत्व छोड़ देनेसे, अविकार ज्ञानस्वरूपको अपना लेनेसे अन्य कुछ भी करने योग्य न रहा । (२) जब मुझे करनेको कोई अन्य कृत्य न रहा तब मैं सहज ही समस्त पौरुषसे अविकार सहज शुद्ध अन्तस्तत्वमें ही रहूंगा । (३) कृतकृत्य सहजानन्दमय होनेका मूल उपाय जायकस्वभाव प्रात्मतत्त्वका श्रद्धान, ज्ञान व पाचरण है । (४) मैं स्वभावसे ज्ञायकस्वरूप ही हूं। (५) केवल जाननहार स्वभाव वाले मुझ प्रात्माका समस्त पदार्थोके साथ मात्र सहज ज्ञेयज्ञायक रूप ही सम्बन्ध है । (६) निश्चयसे तो पर पदार्थों के साथ ज्ञेयज्ञायकसम्बंध भी नहीं है । (७) पर व परभावसे विविक्त मुझ सहजज्ञानस्वभाव प्रात्माका पर व परभावसे कुछ भी ममत्व नहीं है। (८) मैं अनन्त सिद्ध पुरुषोंकी तरह परम सहज शान्त निज शुद्धात्मामें ठहरू गा (8) जो भी भव्यात्मा सिद्ध भगवंत हुए वे निज सहज परम शान्त ज्ञायकस्वभाव शुद्धात्मस्वरूपमें लीन होकर ही हुए हैं। (१०) सिद्ध भगवंतोंको व सहजात्मस्वरूपको शुद्धात्मतत्वपरायण होनेरूप भावनमस्कार होयो।
1.BANESENERAL
RMmmmmwwwUHAmouminountantramadhannat
Awakeepavemanww
Page #391
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गो टोका
३७७ धिरोहतु मोक्षमार्ग द्रव्यं प्रतीत्य यदि वा चरणं प्रतीत्य ।।१२।। ॥२०॥
इति तत्त्वदीपिकायां प्रवचनगारवृत्ती श्रीमवमृतचन्द्रसूरि विरचितायां ज्ञयतन्त्रप्रज्ञापन्नानाम द्वितीयः श्रुतस्कन्ध: समाप्तः ॥ २॥ मार्ग: मार्ग अन्वेषणे चुरादि । समास- स्वस्य भावः स्वभावः तेन स्वभावेन ।। २०० ।।
सिद्धान्त-(१) निर्विकार परिपूर्ण विकास पानेका उपाय अविकारस्वभावी सहज ज्ञानघन सहजात्मस्वरूपका पालम्बन है ।
दृष्टि-- १- पुरुषकारनय, अनीश्वरनय, शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (१८३, १८६, २४ब)।
प्रयोग-परमसहजानन्दधाम निर्वाणकी प्राप्तिके लिये परमात्माके गुणस्मरणपूर्वक ___ ज्ञानदर्शनप्रधान सहजात्माश्रमका प्राश्रय करके साम्यभावरूप परिणामना ।।२०।।
mpassignmenawanprammar me
इति पूज्य श्रीकुन्दकुन्दाचार्यप्रणीत प्रवचनसार पूज्य श्रीअमृतचंद्रजी सूरिकृत तत्त्वप्रदीपिका टोकापर ज्ञेयतत्त्वज्ञापन नामक द्वितीय
स्कंधसे सम्बन्धित सहजानन्द
सप्तदशाङ्गो टीका
समाप्त ।
SHRIRAMAamme
Histmailindimes
Page #392
--------------------------------------------------------------------------
________________
1
३७८
सहजानन्दशास्त्रमालायां
३ - चरणानुयोगसूचिका चूलिका
. अथ परेषां चरणानुयोगसूचिका चूलिका | तत्र--- द्रव्यस्य सिद्धो चरणस्य सिद्धिः द्रव्यस्य सिद्धिश्चरणस्य सिद्धी । बुद्धवेति कर्माविरताः परेऽपि द्रव्याविरुद्धं चरणं परंतु ॥ १३ ॥ इति चरणाचरणे परान् प्रयोजयति-- 'एस सुरासुर' इत्यादि, सेसे इत्यादि ते ते इत्यादि ।
३ - चरणानुयोगसूचिका चूलिका
sa दूसरोंको घररणानुयोगकी सूचिका चूलिका है। वहीं प्रथम हो, द्रव्यस्य इत्यादि । अर्थ- द्रव्यकी सिद्धिमें चारित्रकी सिद्धि है, और चारित्रको सिद्धिमें द्रव्यकी सिद्धि है, ऐसा जानकर, कर्मोंसे अविरत दूसरे भी द्रव्यसे श्रविरुद्ध चारित्रका प्राचरण करो। इस प्रकार पूज्य श्री कुन्दकुन्दाचार्य दूसरोंको चारित्रके प्रावरण करनेमें योजित करते हैं । "एस सुरासुरमरणुसिंदवं दिदधोदघाइकम्ममलं ।
परणमामि वढ्ढमारणं तित्यधम्मस्स
"
कत्तारं ॥ सेसे 'पु तित्थयरे सव्वसिद्धे विसुद्ध सन्भावे । समणे थ गाणदंसणचरिततववोरियायारे ॥ ते ते सच्चे समगं समगं पत्तेगमेव पत्तेगं । वंदामि य वट्टते रहते माणुसे खेते ॥"
Page #393
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७६
granPIRPIPn.
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका एवं पणमिय सिद्ध जिगावरवसहे पुणो पुणो समणे । पडिवजदु सामण्णं जदि इच्छदि दुक्खपरिमोक्खं ॥२०१॥ यो प्रणाम करि सिद्धों, जिनपर वृषभों पुनीत श्रमणोंको ।
धामण्य प्राप्त कर लो, यदि चाहो दुःखसे मुक्ती ॥ २०१ ।। एवं प्रणम्य सिद्धान जिनवरवृषभान पुनः पुनः श्रमणान् । प्रतिपद्यतां श्रामण्यं यदीच्छति दुःखपरिमोक्षम् ।
यथा ममात्मना दुःखमोक्षार्थिना, 'किच्चा प्ररहतारण' इति "तेसि" इति अर्हत्सिद्धा. चार्योपाध्याय साधूनां प्रणतिवन्दनात्मकन मस्कारपुरःसरं विशुद्धदर्शनज्ञानप्रधान साम्यनाम श्राम.
नामसंज-एवं सिद्ध जिणवरवसह पुणो समण्ड सामा जदि दुक्खपरिमोक्ख । धातुसंज्ञ-प्र नम नम्रीभावे, पडि पज गती 1 प्रातिपदिक-एवं सिद्ध जिनवरवृषभ पुनर थमण श्रामण्य यदि दुःखरिमोक्ष ।
अब इस अधिकारको गाथा प्रारम्भ करते है...- [एवं] यो पूर्वोक्त तीन माधादोंके अनुसार [पुनः पुनः] बारंबार [सिद्धान्] सिद्धोंको, [जिनवरदृषभान] अर्हन्तोको तथा [धमरणान् ] श्रमणोंको [प्रणम्यं ] प्रणाम करके [यदि दुःखपरिमोक्षम् इच्छति यदि दुःखोंसे छुटकारा पाने की. इच्छा हो: तो [श्रामण्यं प्रतिपद्यताम्] श्रामण्यको अंगीकार करो ।
तात्पर्य-बार-बार सिद्धों व प्रहन्तोंको प्रणाम कर श्रामण्यको अपनानों ।
टोकार्थ---जैसे दुःखोंसे मुक्त होने के अर्थी मेरे प्रात्माने----"किच्चा प्ररहताण" इस प्रकार व "सिइस प्रकार प्रहन्तों, सिद्धों, प्राचार्यों, उपाध्यायों तथा साधुनोंको प्रणाम-- चंदनात्मक नमस्कारपूर्वक 'विशुद्धदर्शनज्ञानप्रधान साम्य नामक श्रामण्यको जिसका इस ग्रन्य में कहे हुए दो अधिकारोंकी रचना द्वारा सुस्थितिपना हुआ है उसे स्वयं स्वीकार किया, उसो प्रकार दुमरोंका प्रात्मा भी, यदि दुखिोंसे मुक्त होनेका इच्छुक हो तो, उसे स्वीकार करे । उस श्रामण्यको अंगीकार करने का जो यथानुभूत मार्ग है उसके प्रणेता हम खड़े हुये हैं।
प्रसङ्गविवरण-अनन्तरपूर्व गाथा तक प्रात्महित गवेषणापूर्वक पहिले ज्ञानतत्त्वका वर्णन करके ज्ञेयतत्त्वका वर्णन किया और अन्त में सहजात्मस्वरूपके अनुरूप अध्यात्म प्राचरण के कर्तव्यका संकेत किया । अब इस गाथामें अध्यात्म प्राचरणको सिद्धि के लिये उसके अविरुद्ध माचरण करनेका अादेश किया है ।
तथ्यप्रकाश-(१) प्रात्महितार्थी पुरुष जो प्रात्मा वीतराग सर्वज्ञ हैं उनको बार बार भावनमस्कार व द्रव्यनमस्कार करता है । (२) प्रात्महितार्थी पुरुष जो भव्यात्मा वीतसग सर्वज्ञ देवके द्वारा उपदिष्ट मोक्षमार्गमें लगकर शुद्धात्मा होनेके प्रयत्नमें हैं उनको द्रव्यनमस्कार व भावनमस्कार करता है। (३) दुःखमोक्षार्थी, भव्यात्मा पञ्चगुरुनमस्कारपूर्वक
Page #394
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८०
सहजानन्दशास्त्रमालायां
ज्यमवान्तरमन्थसन्दर्भोभ्यसंभावितसोस्थित्यं स्वयं प्रतिपन्न परषामात्मापि यदि दुःखमोक्षार्थी तथा तत्प्रतिपद्यतां यथानुभूतस्य तत्प्रतिपत्तिवर्मन: प्रणेतारो वयमिमे तिष्ठाम इति ॥२०१॥ मूलधातु-- नम नमने, प्रति पद गती । उभयपदविवरण-एवं पुणो पुनः जाँद यदि--अव्यय । पमिय प्रणम्य-सम्बन्धार्थप्रक्रिया अव्यय कृदन्त । सिद्धे सिद्धान जिणबरवराहे जिनवरवृषभान् समणे श्रमणान्द्वितीया बहु० । पडिवज्जद् प्रतिपद्यताम्--आज्ञाथें अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । सामण्णं श्रामण्यं द्वितीया एकवचन । इच्छदि इच्छति-वर्तमान अन्य एक क्रिया । दुबखपरिमोक्खं दुःखपरिमोक्ष-द्वितीया एक० । निरुक्ति- वरणं बर: वृन वर कयादि । वर्षयन वृषः धर्मः वृष शक्तिबन्धमे प्रजनन सामध्ये च, वृषो भाति यस्मात्स वृषभः । समास-दुःखेभ्यः परिमोक्षः दुःखपरिमोक्षः तं दु० ।। २०१॥
a mmarAIGAMMARRAM
मात्र ज्ञाता द्रष्टा रहनेरूप श्रामण्यको प्राप्त होता है । (४) मान ज्ञाता द्रष्टा म्हनारूप परमश्रामण्य निर्ग्रन्थ दिगम्बर महाव्रती हुए बिना नहीं हो सकता, अतः उसकी विधि जानना व करना आवश्यक है, वह विधान इस चारित्राधिकारमें कहा जावेगा ।
सिद्धान्त -- (१) अात्मस्वभावके अनुरूप, प्रात्मस्वभावके अविरुद्ध प्राचरणसे परिपूर्ण प्रात्मविकासरूप सिद्धि होती है ।
दृष्टि---- १- पुरुषकारनय, क्रियानय, शुद्ध भावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याधिकनय (१८.३, १६३, २४ब)। . प्रयोग—सर्व दुःखोंसे छूटने के लिये पञ्चगुरुस्मरणपूर्वक श्रामण्यदीक्षा लेकर परमसा. म्य नामक श्रामण्य भावरूप परिणमना ।।२०१॥ 3. अब श्रमण होनेके लिये चाहता हुआ पहले क्या क्या करता है उसका उपदेश करते हैं-श्रमण होनेका इच्छुक पुरुष [बन्धुवर्गस् प्रापृच्छय] बंधुवर्गसे विदा मांगकर [गुरुकलापुत्रः विमोचितः] बड़ोंसे तथा स्त्री और पुत्रसे मुक्त होता हुमा [ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्यचा. रम् प्रासाध] ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार तपाचार औरवीर्याचारको अंगीकार करके...
तात्पर्य----मुनि होनेका इच्छुक परिचितोसे विदा लेकर पंचाधार अंगीकार करता है। ___टोकार्थ-जो श्रमण होना चाहता है वह पहले ही बंधुवर्गसे विदा मांगता है, गुरु जनोंसे तथा स्त्री और पुत्रोंसे अपनेको छुड़ाता है, फिर झोनाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार तपाचार तथा वीर्याचारको अंगीकार करता है । इसका स्पष्टीकरण-बंधुवर्गसे इस प्रकार विदा लेता है.अहो ! इस पुरुषके शरीरके बंधुवर्गमें रहने वाले प्रात्मानों ! इस पुरुषका
आत्मा किचित्मान भी तुम्हारा नहीं है, इस प्रकार तुम निश्चयसे जानो। इसलिए मैं तुमसे विदा लेता हूं। जिसके ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह प्रात्मा आज अपने प्रात्मारूपी अपने मनादिबंधुके पास जा रहा है । अहो ! इस पुरुषके शरीरके जनकके प्रात्मा ! अहो ! इस पुरुष
RaisonakamanarasianR
ARRAHARI
Page #395
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार...सप्तदशाङ्गी टीका
३८१ अथ श्रमरणो भवितुमिच्छन् पूर्व किं कि करोतीत्युपदिशति
प्रापिच्छ बंधुवरगं विमोचिदो गुरुकलत्तपुत्तेहिं । आसिज णाणदसणाचरित्ततक्वीरियायारं ॥२०२॥
पूछकर बन्धुवोंको, छूटकर गुरु कलत्र पुत्रोंसे ।
चारित्र ज्ञान दर्शन, तप वीर्याचार आश्रय करि ॥२०२१॥ आपुच्छय इन्वर्ग विमोचितो गुरुकलत्रपुत्रैः। आभार ज्ञानदर्शन चारित्रतपोवीर्याचा रम् ।। २०५ ।।
यो हि नाम श्रमणो भवितुमिच्छति स पूर्वमेव बन्धुवर्गमापृच्छते, गुरुकलत्रपुरेभ्य प्रा. त्मानं विमोच यत्ति, ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवी यो चार मासीदति । तथाहि- एवं बन्धुवर्गमापुच्छ्ने, अहो इदंजन शरीर बन्धुवर्गतिन अात्मान:, अस्म जनस्य प्रात्मा न किंचनापि युग्माकं भवतीति निश्चयेन यूयं जानीत तत प्रापृष्टा यूयं, अयमात्मा प्रद्योद्भिन्नज्ञानज्योतिः ग्रात्मान मेवात्मनोजादिबन्धुमुपसर्पति । ग्रहो इदंजन परोरजन कस्यात्मन्, अहो इदंजन शरीर जनन्या पात्मन्,
नामसंज्ञ-बंधुवरंग विमोचिद गुरुकलत्तपुत्त णाजदसणारत्ततयबीरियायार । धात्तुसंझ--आ सद गमन विशरणयोः । प्रातिपदिक-बन्धुवर्ग विमोचित गुरुकन पुत्र ज्ञानदर्शन चारित्रतपोचौर्याचार । मूलके शरीर की जननी के प्रात्मा ! इस पुरुषका प्रात्मा तुम्हारे द्वार। उत्पन्न नहीं है, ऐसा तुम निश्चय से जानो । इसलिये तुम इस प्रात्माको छोड़ो। जिसके ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह प्रात्मा अाज अात्मारूपी अपने ननादिजनके पास जा रहा है। ग्रहो ! इस पुरुषके शरीर की रमणीके प्रात्मा ! तू इस पुरुषके अात्माको रमण! नहीं कराती, ऐसा तू निश्चयो जान इसलिये तु इस अात्माको छोड़ । जिसे ज्ञान ज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह प्रात्मा ग्राज अपनी स्वानुभूति रूपी अनादि-रमणी के पास जा रहा है । अहो ! इस पुरुष के शरीर के पुत्रके प्रात्मा ! तू इस पुरुषके प्रात्मासे जन्य नहीं है, ऐसा तू निश्चयसे जान । इसलिये तू - इस मामाको छोड़ । जिसके ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह प्रात्मा अाज अात्मारूपो अपने प्रवादि जन्य के पास जा रहा है । इस प्रकार बड़ोंसे स्त्रीसे और पुत्रसे अपने को छुड़ाता है ।
___ तथा महो काल, विनय, उपधान, बहमान, अनि हव, अर्थ, व्यंजन, पोर तदुभयसे संपन्न ज्ञानाचार ! मैं यह निश्चयसे जानता हूं कि तू शुद्धामाका नहीं है; तथापि मैं तुझे तभी तक अंगीकार करता हूं जब तक कि तेरे प्रसादसे शुद्धात्माको उपलब्ध कर ल । अहो निःशक्तित्व, नि:कांक्षितत्व, निविचिकित्सकत्व, निर्मदृष्टित्व, उपयंहण, स्थितिकरण, वात्सल्य, और प्रभावना लक्षण वाले दर्शनाचार ! मैं यह निश्चयसे जानता हूं कि तू शुदात्माका नहीं है, तथापि तुझे तब तक अंगीकार करता हूं जब तक कि तेरे प्रसादसे शुद्धात्माको उपलब्ध
PRESEARRIAnna
India
Page #396
--------------------------------------------------------------------------
________________
RSS
३५२
सहजानन्दशास्त्रमालायां अस्य जनस्यात्मा न युवाभ्या जवितो भवतीति निश्चयेन युवा जानीतं तत इममात्मानं युवा विमुञ्चतं, अयमात्मा प्रद्योद्भिन्नज्ञानज्योतिः प्रात्मानमेवात्मनोऽनादिजनकमुपसर्पति । ग्रहो इदंजन शरीररमण्या प्रात्मन् , अस्य जनस्यात्मोनं न त्वं रमयसीलि निश्चयेन त्वं जानीहि तत इममात्मानं विमुञ्च, अयमात्मा प्रद्योद्भिन्नज्ञानज्योतिः स्वानुभूतिमेवात्मनोऽनादिरमणीमुप. सपंति । अहो इदंजनशरीरपुत्रस्यात्मन्, अस्य जनस्थात्मनो न त्वं जन्यो भवसोति निश्चयेन त्वं जानीहि तत इममात्मानं विमुञ्च, अयमात्मा प्रद्योद्भिन्नज्ञानज्योतिः प्रात्मानमेवात्मनोऽनादिजन्यमुपसर्पति । एवं मुरुकल वपुत्रेभ्य प्रात्मानं विमोचयति । तथा अहोकालविनयोपधानबहुमानानिवार्थव्यञ्जनतदुभयसंपन्नत्व लक्षणज्ञानाचार, न शुद्धस्यात्मनस्त्वमसीति निश्चयेन जानामि तथापि त्वां तावदासीदामि यावत्त्वत्प्रसादात् शुद्धमात्मानमुपलभे । अहो निःशतित्वनिःकाक्षितत्वनिविचिकित्सत्वनिर्मूढदृष्टित्वोपबृहण स्थितिकरणवात्सल्यप्रभावनालक्ष णदर्शनाधातु-आ षद्लु गतौ । उभयपदविवरण- बंधुवग्ग बन्धुवर्ग-द्वि० एक० । विमोचिदो विमोचितः--प्रथमा एक० । गुरुकलतपुरोहिं गुरुकलत्रपुरैः-तृतीया बहु० । आसिज्ज आसार-सम्बन्धार्थप्रक्रिया कृदन्त अव्यय । कर लं। अहो मोक्षमार्गमें प्रवृत्तिके कारणभूत, पंचमहाव्रतसहित काय-वचन-मनगुप्ति . और ईर्या-भाषा-ऐषण अादान निक्षेपण-प्रतिष्ठापन समिति लक्षण वाले चारित्राचार ! मैं यह निश्चयसे जानता हूं कि तू शुद्धात्माका नहीं है, तथापि तुझे तब तक अंगोकार · करता हूँ जब तक कि तेरे प्रसादसे शुद्धात्माको उपलब्ध कर लूं। ग्रहो अनशन, प्रथमोदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन, कायक्लेश, प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और ध्युत्सर्ग लक्षण वाले तपाचार ! मैं यह निश्चयसे जानता हूं: कि तू शुद्धात्माका नहीं है तथापि तुझे तब तक अंगीकार करता हूं जब तक तेरे प्रसादसे शुद्धात्माको उपलब्ध कर ! अहो समस्त इतर अर्थात् वीर्याचारके अतिरिक्त अन्य प्राचारमें प्रवृत्ति कराने वालो स्वशक्तिके अगोपन लक्षण वाले वीर्याचार ! मैं यह निश्चयसे जानता है. कि त शुद्धात्माका नहीं है, तथापि तुझे तब तक अंगीकार करता हूं जब तक कि तेरे प्रसादसे शुद्धात्माको उपलब्ध कर लू । इस प्रकार श्रामण्यार्थी पुरुष ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार तथा वीर्याचारको अंगीकार करता है।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि यदि दुःखोंसे छूटनेको अभि.. लाषा है तो श्राम्यण्यको अङ्गीकार करो । अब इस गाथामें बताया गया है कि श्रमण होनेका : इच्छुक पुरुष पहिले क्या क्या करता है ?
तथ्यप्रकाश-(१) जो श्रमण होना चाहता है वह बन्धुवर्गको कहता है कि हे इस
Page #397
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका
३८३
चार न शुद्धस्यात्मनस्त्वमसीति निश्चयेन जानामि तथापि त्वां तावदासोदामि यावत् त्वत्प्रसादात् शुद्धमात्मानमुपलभे । ग्रहो मोक्षमार्गप्रवृत्तिकारणपञ्च महाव्रतोपेतकायवाङ्मनोगुप्तीर्याभाषणादाननिक्षेपण प्रतिष्ठापन समितिलक्षण चारित्राचार, न शुद्धस्यात्मनस्त्वमसीति निश्चयेन जानामि तथापि त्वां तावदामोदामि यावत्त्वत्प्रसादात् शुद्धमात्मानमुपलभे । श्रहो अनशनाव मौदर्य वृत्तिपरिसंख्यान रसपरित्यागविविक्तशय्यासन काय क्लेशप्रायश्चित्तविनय वैयावृत्यस्वाध्यायध्यानव्युत्सर्गलक्षण तपश्राचार, न शुद्धस्यात्मनस्त्वमसोति निश्चयेन जानामि तथापि त्वां ताव
णांणदंसणचरिततपवरियायारं ज्ञानदर्शनचरित्रतपोवीर्याचारं द्वितीया एकवचन । निरुक्ति-- बध्नाति यः स बन्धुः बन्ध बन्धने, गृणाति असौ इति गुरुः, कलं त्राति इति कलत्रं पुनाति वंशं इति पुत्रः । समासबन्धूनां वर्गः बन्धुवर्गस्तं व०, गुरुश्च कलत्रं च पुत्रश्च इति गुरुकलत्रपुत्राः तेभ्यः गु०, ज्ञानं च दर्शनं च
मनुष्यदेह बन्धुवर्ग में रहने वाले आत्मायो ! इस मनुष्पकी श्रात्मा आप लोगोंका कुछ भी नहीं है, इसलिये मैं तुमसे विदा लेता हूं, अब यह आत्मा अपने श्रनादिबन्धुके पास जा रहा है। (२) श्रामण्येच्छु पुरुष माता पिता कहता है कि इस मनुष्यशरीरके उत्पादकको श्रात्माश्रो ! इस मनुष्यका श्रात्मा तुम दोनोंके द्वारा उत्पन्न नहीं हुआ सो जानो और इस मुझ श्राछुट्टी दो, यह आत्मा अपने अनादिजनकके पास जा रहा है । ( ३ ) श्रामण्येच्छु पुरुष रमणी (स्त्री) से कहता है कि अहो इस मानवशरीरको रमाने वालोको श्रात्मा ! तुम -इस मनुष्यकी ग्रात्माको नहीं रमाती हो यह निश्चयसे जानो, अतः इस आत्माकी छुट्टी करो, -आज यह आत्मा अपनी श्रनादिरमणी स्वानुभूतिके निकट जा रहा है । (४) श्रामण्येच्छु पुरुष पुत्र से कहता है कि अहो इस जनशरीरके पुत्र की ग्रात्मा ! तुम इस जनशरीरकी श्रात्मासे उत्पन्न नहीं हुए हो, यह निश्चयसे जानो, अतः इस आत्माको छोड़ो, अब यह ग्रात्मा अपने ही अनादिजन्य प्रात्मके निकट जा रहा है । ( ५ ) श्रामण्यार्थी पुरुष माता पिता स्त्री पुत्र बन्धुवर्गसे अपनेको हटाकर अब पञ्च ग्राचारोंके धारणकी भावना करता है । ( ६ ) अहो भ्रष्ट प्रङ्गसे सम्पन्न ज्ञानाचार ! यद्यपि तुम सहजशुद्ध श्रात्मा के स्वरूप नहीं हो यह निश्चयसे जानता हूं, तो भी मैं तब तक तुमको श्रङ्गीकार करता हूं, जब तक तुम्हारे प्रसादसे निविकार शुद्ध प्रात्मतत्वको प्राप्त कर लू । (७) ग्रहो ट प्रोंसे सम्पन्न दर्शनाचार ! यद्यपि तुम सहजशुद्ध आत्मा के स्वरूप नहीं हो यह निश्चयसे जानता हूं, तो भी मैं तुमको तब तक भले प्रकार अङ्गीकार करता हूँ, जब तक तुम्हारे प्रसादसे निविकार शुद्ध श्रात्मतत्त्वको प्राप्त कर तूं । (८) ग्रहो त्रयोदशाङ्गसम्पन्न चारित्राचार ! यद्यपि तुम सहजशुद्ध प्रात्माके स्वरूप नहीं हो यह निश्चयसे जानता हूं तो भी मैं तुमको तब तक भले प्रकार अङ्गीकार करता हूं, जब
Page #398
--------------------------------------------------------------------------
________________
:
चारित्र
सहजानन्दशास्त्रमालायां
༣
धाप ब
सादात् शुद्धमात्मानमुपलभे । श्रहो समस्तेतराचारप्रवर्तकस्व शक्त्य निगूहनबुझानीयवाह श्री शुद्धस्यात्मनस्त्वमसीति निश्चयेन जानामि तथापि त्वां तावदासीदामि यासुविधि प्रयास मात्मानमुपलभे । एवं ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारमासोदति च ॥ २०२॥
15
3.
साध
३८४
चारित्र च तपश्च वीर्य व ज्ञानदर्शनचारित्रनपोवीर्याणि तेषां आचारः ज्ञा० तं ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारम् ॥ २०२॥
तक तुम्हारे प्रसादसे निर्विकार शुद्ध आत्मतत्त्वको प्राप्त कर लूं | ( 8 ) ग्रहो द्वादशविध बा ह्याभ्यन्तर तप प्राचार ! यद्यपि तुम शुद्ध ग्रात्माके स्वरूप नहीं हो यह निश्चयसे जानता हूं, तो भी मैं तुम्हें तब तक अङ्गीकार करता हूं, जब तक तुम्हारे प्रसादसे निर्विकार शुद्ध प्रात्मतवको प्राप्त कर लू । (१०) समस्त पञ्च श्राचारोंमें लगनेमें अपनी शक्ति न छिपाने वाले वीर्याचार ! यद्यपि तुम सहज शुद्ध आत्माके स्वरूप नहीं हो यह निश्चयसे जानता हूं तो भी मैं तुमको तब तक भले प्रकार अङ्गीकार करता हूं, जब तक तुम्हारे प्रसादसे निर्विकार शुद्ध प्रात्मतत्त्वको प्राप्त कर लू । ( ११ ) इस प्रकार सद्भावनासहित यह श्रामण्यार्थी श्रामण्यसिद्धि के लिये किन्हीं भ्रमण प्राचार्यके निकट पहुंचता है ।
सिद्धान्त - ( १ ) श्रात्मा सतत सहजशुद्धात्मदृष्टिरूप पुरुषार्थ से शुद्धात्म स्थितिको प्राप्त होता है ।
दृष्टि - १ पुरुषकारनय (१८३ ) ।
प्रयोग - सहज शाश्वत शान्ति प्राप्त करनेके लिये सर्वसंगमुक्त होकर अविकार सहज ज्ञायकस्वभाव अन्तस्तस्वकी सतत आराधना करना ॥ २०२ ॥
अब इसके बाद वह कैसा होता है यह उपदेश करते हैं [ श्रमणं ] श्रमण [गुरणा] गुणाढ्य [कुलरूपवयो विशिष्टं च] कुल, रूप तथा वयसे विशिष्ट और [श्रमीः इष्टतरं] श्रमणको प्रति इष्ट [तम् श्रपि गणिनं ] ऐसे गणीको [ प्ररणतः ] प्रणत होता हुआ [ मास प्रतीन्छ sa] 'मुझे स्वीकार करो' ऐसा निवेदन करता हुआ [ श्रनुग्रहीतः ]] अनुग्रहीत होता
है ।
शिक्षासे अनुगृहीत होता है ।
तात्पर्य- श्रामण्यार्थी प्राचार्य द्वारा दीक्षा टीकार्थ -- तदनन्तर श्रामण्यार्थी प्रणत और अनुग्रहीत होता है । स्पष्टीकरणश्राचरण करनेमें और आचरण कराने में आने वाली समस्त विरतिको प्रवृत्तिके समान आत्मरूप श्रामण्यप के कारण 'श्रमरण' व ऐसे श्रामण्यका श्राचरण करनेमें और भाचरण कराने में प्रवीण होनेसे 'गुण: जय' सर्वलौकिक जनोंके द्वारा निःशंकतया सेवा करने योग्य होनेसे और
Page #399
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका
veta: htest wanteयुपदिशति
●
समांगणिं गुणड्ढं कुलरूववयोविमिट्ठमिट्ठदरं । समोहि तं पि पादो पडिच्छ मं चेदि गुगहिदो ॥२०३॥
३८५
श्रम गरी गुणसंयुत, कुलरूपवयोविशिष्ट मुनिप्रिय तर ।
सूरिको नमि अनुग्रह याचे होता अनुगृहोत भि ॥ २०३ ॥
• गणिनं गुणा कुरुपत्रयोविशिष्टमिष्टतरम् । श्रमणैस्तमपि प्रणतः प्रतीच्छ मां चेत्यनुगृहीतः ॥ ततो हि श्रमणार्थी प्रणतोऽनुगृहीतश्च भवति । तथाहि-- प्राचरिताचारितसमस्तवि रतिप्रवृत्ति समानात्मरूपमण्यत्वात् श्रमणं, एवंविवश्रामण्याचरणाचारणप्रवणत्वात् गुणाढ्य', सकल लकोकिकजन निःशङ्कसेवनीयत्वात् बुल क्रमागत क्रौर्यादिदोषवजितत्वाच्च कुलविशिष्टं, अन्तरङ्गशुद्ध रूपानुमापक बहिरङ्गशुद्धरूपत्वात् रूपविशिष्टं शैशववार्धक्य कृतबुद्धिविक्लवत्वाभा नामसंज्ञ – समण गणि गुणड्ढ कुलववयोविसिद्ध इट्टदर समण त पण अम्ह च इदि अणुगहिद । धातुसंज्ञ-पहि इच्छ इच्छायां । प्रातिपदिक-श्रमण गणित् गुणाढ्य कुलरूपवयोविशिष्ट इष्टतर श्रमण तत् अपि प्रगत अस्मद् च इति अनुगृहीत 1 मूलधातु - प्रति इषु इच्छायां । उभयपदविवरण-समण श्रमण गणि गणिनं गुणड्ढं गुणास्य कुलरूववयोविसिद्धं कुलरूपवयोविशिष्ट इउदरं इष्टतर- द्वितीया
,
कुल क्रमागत क्रूरतादि दोषोंसे रहित होनेसे 'कुलविशिष्ट' अंतरंग शुद्ध रूपका अनुमान कराने वाला बहिरंग शुद्धरूप होनेसे 'रूपविशिष्ट ' 'बालकत्व और वृद्धत्वसे होने वाली बुद्धिविक्लवता का प्रभाव होनेसे तथा यौवनोद्रेकको विक्रियासे रहित बुद्धि होनेसे 'वय विशिष्ट' और यथोक्त. श्रामण्यका श्राचरण करने तथा प्राचरण कराने संबंधी पौरुषेय दोषोंको निःशेषतया नष्ट कर देनेसे मुमुक्षुत्रोंके द्वारा प्रत्यन्त मान्य होनेसे 'श्रमणोको अतिइष्ट' गणी व शुद्धात्मतत्त्वको उपलब्धिके साधक आचार्यको 'शुद्धात्मतस्वकी उपलब्धिरूप सिद्धिसे मुझे अनुगृहीत करो' ऐसा haar (श्रामण्यार्थी) निकट जाता हुआ प्रणत होता है । 'इस प्रकार यह तेरी शुद्धात्मतत्त्वकी उपलब्धिरूप सिद्धि' ऐसा कहकर उस गरणीके द्वारा ( वह श्रामण्यार्थी ) प्रार्थित अर्थसे संयुक्त किया जाता हुमा अनुगृहीत होता है ।
प्रसङ्ग विवरण -- अनन्तरपूर्व गाथा में बताया गया जनोंको किस प्रकार संबोध कर श्रामण्यकी प्राप्तिके लिये
था कि श्रामण्यार्थी पुरुष बन्धु गरणी श्रमणके निकट जाता है ।
इस गाथामें यह बताया गया है कि गणी श्रमणके निकट पहुंचकर क्या करता है । नेकगुणविशिष्ट प्राचार्य के निकट पहुंचता है |
तथ्यप्रकाश-- - ( १ ) श्रामण्यार्थी पुरुष (२) आचार्य श्रमण है अर्थात् समस्त द्याचरण व विरक्ति में जैसा समस्त साधुवोंके अन्तर्बाह्य
Page #400
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६६
सहजानन्दशास्त्रमालाया
Partite
वाद्यौवनोद्रेकविक्रियाविविक्तबुद्धित्वाच्च वयोविशिष्ट, निःशेषित्तयथोक्तश्रामण्याचराचरणवि. षयपौरुषेयदोषत्वेन मुमुक्षुभिरभ्युपगततरत्वात् श्रमरिष्टतरं च गणिनं शुद्धात्मतत्त्वोपलम्भसाधकमाचार्य शुद्धात्मतत्त्वोपलम्भसिद्धया मामनुगृहारोत्युपसर्पन प्रणतो भवति । एमिय तें शुद्धात्मतत्वोफ्लम्भसिद्धिरिति तेन प्राधितार्थेन संयुज्यमानोऽनुगृहीतो भवति ।।२०३।। एक० । समदहि श्रमण :-तृतीया बहु । तं-द्वि एक पि अपि च इदि इति–अध्यन पदों प्रणत:प्र०ए० कृदंत । पडिच्छ प्रतीच्छ-आज्ञार्थ मध्यम पुरुष एका क्रिया में मां-दिए । अशुगहिदो अनुः गृहीत:-प्रममा एक कृदन्त । निरुक्ति-मण्यने यस्मिन् स गण: गणस्य प्रमुख: गणी गण संख्याने कोल . तीति कुलं कुल संस्त्याने बन्सुषु च भ्वादि अजि गतिक्षेपणयो: स्वादि अजे: वी आदेशः वी असूच वयस् । कुलरूपयोविशिष्टः तं कु० ।। २०३ ।। मुद्रा होती है वैसी ही प्राचार्य में है । (३) जैन शासन में समस्त साधूवोंका एक समान प्राचरण व निवृत्ति होती है, भिन्न भिन्न रूप व मुद्रा नहीं होती। (४) प्राचार्य पञ्च प्राचारोंके प्राचरण करने व कराने में प्रवीणता होने से गुरगविशिष्ट हैं । (५) प्राचार्य कुल क्रमागत क्रूरतादि दोषोंसे रहित होनेसे कुलविशिष्ट हैं, इसी कारण समस्त पुरुषोंके द्वारा ये निःशंक सेवनीय । होते हैं । (६) अन्तरङ्ग शुद्ध वर्तनाका अनुमान कराने वाला बहिरङ्ग शुद्धरूप होनेसे प्राचार्य रूपविशिष्ट हैं । (७) प्राचार्य योग्यवयोविशिष्ट होते हैं, क्योंकि तभी बचपन व बुढ़ापे में होने वाली बुद्धिविक्लवता नहीं है, और तभी जवानीका लौकिक जोश नहीं है । (८) प्राचार्य सभी श्रमणोंको अधिक इष्ट हैं, क्योंकि प्राचार्य के योग्य पुरुषार्थमें कोई दोष नहीं होने से मुमुक्षुवों द्वारा मान्य हैं । (६) श्रामण्यार्थी सम्मान्य शुद्धात्मोपलम्भके साधक प्राचार्य के निकट जाकर "जनी दीक्षा देकर शुद्धात्मोपलब्धिरूप सिद्धिसे मुझे अनुगृहीत कीजिये" ऐसा कहकर नम्रीभूत होता है। (१०) प्राचार्य द्वारा "तुम्हारे लिये यह है शुद्धात्मतत्त्वोपलम्भकी सिद्धि व उसका साधन जैनी दीक्षा इस प्रकार अपने प्रयोजन से युक्त होता हुया अर्थात् दिगम्बरी दीक्षा लेताः' हुमा अनुग्रहीत होता है।
सिद्धान्त- (१) निश्चयचारित्रप्रधान वृत्तिसे प्रात्माके ज्ञाननिधिको सिद्धि होती है। दृष्टि-- क्रियानय, पुरुषकारनय, ज्ञाननय (१६३, १८३, १९४) ।
प्रयोग-प्रसार संसारमें दुर्लभ ज्ञानत्तुयोगको पाकर निज शुद्धात्मभावनासे, दर्शन शान चारित्र तपकी भाराधनासे जन्म सफल करना ॥२०॥
अब इसके बाद भी वह कैसा होता है यह उपदेश करते हैं - [अहं] मैं [परेषां] दूसरोंका [न भवामि ] नहीं हूं [परे मे न] पर मेरे नहीं हैं, [इह] इस लोकमें [मम] मेरा [किंचित्] कुछ भी [न प्रस्ति नहीं है,-- [इति निश्चितः] ऐसा निश्चयवान और [जिते.
12280
Page #401
--------------------------------------------------------------------------
________________
SHAMITRAIMIDOMAMETERMynane jmerroश्र
IND
v
sammaaamroHINAARIRIministmaniraloring
.
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
३०७ अथातोऽपि कोदृशो भवतीत्युपदिशति----
णाहं होमि परे सिंण मे परे णस्थि मज्झमहि किंचि । इदि णिच्छिदो जिदिंदो जादो जघजादरूवधरो ॥२०४॥
मैं परका नहिं मेरे, पर कुछ भी नहीं यौँ सुनिश्चित कर ।
__यथाजात मुद्रा धरि, हो जाता है वह जितेन्द्रिय ।। २०४ ॥ नाह भवामि परेषां न मे परे नास्ति समेह किंचित् । इति निश्चितो जितेन्द्रियः जातो यथाजातरूपधरः ॥
ततोऽपि श्रामण्यार्थी यथाजातरूपधरो भवति । तथाहि--ग्रहं तावन्न किचिदपि परेषा 10 भवामि परेऽपि न किचिदपि मम भवन्ति, सर्वद्रव्याण परैः सह तत्त्वतः समस्तसंबन्धशुन्यEMA नामसंज–पा अम्ह पर " अम्ह पर ण अम्ह इह किंचि इदि णिच्छिद जिदिंद जाद जधजादस्वधर । म धातुसंज-हो सत्तायां, अस सत्तायां । प्रातिपदिक-न अस्मद् पर न अस्मद् पर न अस्मद् इह किंचित इति
निश्चित जितेन्द्रिय जात यथाजातरूपधर । मूलधातु-भू सत्तायों, अस् भुवि । उभयपद विवरण-ण न इदि Mइति-अन्यय । अहं णिरिदो निश्चित: जिदिदो जितेन्द्रिय: जादो जातः जहजादरूवधरो यथाजातरूपधर:-- अयमाः एकवचन । होमि भवामि-वर्तमान उत्तम एक० क्रिया। परेसिं परेषां-पष्ठी बह० मे मझ "न्द्रियः] जितेन्द्रिय होता हुआ [यथाजातरूपधरः] यथाजात रूपधर (सहजरूपधारी) जातः]
D
omanthan
.
53050
..
.
टीकार्थ--तत्पश्चात् श्रामण्यार्थी यथाजातरूपघर होता है | इसका स्पष्टीकरणप्रथम तो मैं किचित्मात्र भी परका नहीं हूं, पर भी किचित्मात्र मेरे नहीं हैं, क्योंकि समस्त अदुव्य तत्त्वतः परके साथ समस्त सम्बन्धसे रहित हैं। इस कारण इस षद्रव्यात्मक लोकमें प्रात्मासे अन्य कुछ भी मेरा नहीं है। इस प्रकार निश्चित मति वाला परद्रव्योंके साथ स्वस्वामि संबंध के अाधारभूत इन्द्रियों और नौ इन्द्रियोंके जयसे जितेन्द्रिय होता हुआ वह श्रामयार्थी प्रात्मद्रव्यका यथानिष्पन्न शुद्धरूप धारण करनेसे यथाजातरूपधर होता है।
प्रसंगविवरा—अनन्तरपूर्व गाथामें यह बताया गया था कि श्रामण्यार्थी प्राचार्य के निकट जाकर उनसे अपनी साधनाके उपायके लिये निवेदन करता है और प्राचार्य महाराज उसे स्वीकार कर लेते हैं। अब इस गाथामें बताया गया है कि अब यह धामण्यार्थी दिगम्बरी सयाजातरूपको धारण कर लेता है।
- तथ्यप्रकाश----(१) श्रामण्यार्थी निरखता है कि मैं दूसरोंका किसी भी प्रकार कुछ नहीं हैं । (२) श्रामण्यार्थी निरखता है कि परपदार्थ भी मेरे कुछ भी नहीं हैं । (३) श्रामयाधीको दृष्टि में निश्चित हो गया कि सर्व द्रव्योंका समस्त परपदार्थोके तत्त्वतः कुछ भी
.
.
":
".
"
Page #402
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५८
सहजानन्दशास्त्रमालाया स्वात् । तदिह षड्द्रव्यात्मके लोके न मम किंचिदप्यात्मनोऽन्यदस्तीति निश्चितमतिः परद्रव्यः । स्वस्वामिसंबन्धनिबंधनानामिन्द्रियनोइन्द्रियाणां जयेन जितेन्द्रियश्च सन् धृतयथानिष्पन्नात्मः । द्रव्य शुद्धरूपत्वेन यथाजातरूपधरो भवति ।।२०४॥ मम-पष्ठी एक । परे-प्र० बहुत । अस्थि अस्ति--वल अन्य० एवः क्रिया। किंचि किचित्--अव्यय अन्तः x० एक० । निरुक्ति....पारयतीति पर: पु, पुर। समास--जितानि इन्द्रियाणि येन स: जितेन्द्रियः, यथाजात रूपं धरति इति यथाजातरूपधरः ।।२०४|
सम्बन्ध नहीं है । (४) जिसने अपनी परविविक्तताका निश्चय किया है वह परसम्बन्धनिबन्धनक इन्द्रिय ब मनको जीत लेनेके कारण जितेन्द्रिय होता है। (५) जितेन्द्रिय होता हुमा यह श्रामण्यार्थी यथाजातरूपको धारण कर लेता है, क्योंकि ययाजातला अर्थात् पायपरिग्रहः रहित दिगम्बरी मुद्रा आत्मद्रव्यके अविरुद्ध शुद्ध रूप है। (६) निश्च यसे यथाजातरूप स्वसहजात्मरूप है।
सिद्धान्त- (१) श्रामण्यार्थी आन्तरिक यथाजातशुद्धामरूपको धारण करता है। दृष्टि--- १- वर्तमान नैगमनय (३) ।
प्रयोग- परविविक्त स्वचेतना मात्र प्रात्मतत्त्वकी सिद्धि के लिये निग्रंन्य गात्रमात्र जैनी दीक्षा धारण करके ज्ञानघन अन्तस्तत्वको प्राराधना करना ॥२०४॥
अब अनादिसंसारसे अनभ्यस्त होनेके कारणा अत्यन्त अप्रसिद्ध है ऐसे इस यथोजात. रूपधरत्वके बहिरंग और अन्तरंग दो लिंगोंका--जो कि अभिनत्र अभ्यास में कुशलतासे उप.। लब्ध होने वाली सिद्धिके सूचक हैं उनका उपदेश करते हैं--[यथाजातरूपजातम्] जन्म समय के रूप जैसा रूपवाला, उत्पारितकेशश्मश्रुक] सिर और दाढ़ी-मूछ के बालोंका लोच किया हुमा [शुद्ध] सर्व लेपसे रहित [हिंसादितः रहितम्] हिसादिसे रहित और [अप्रतिकर्म] शारीरिक शृगारसे रहित [लिगं भवति श्रामण्यका बहिरंग चिह्न है । [मूछारम्भवियु क्तम् ] ममत्व और प्रारम्भमे रहित [उपयोगयोगशुद्धिभ्यां युक्त] उपयोग और योगको शादि से युक्त तथा [न परापेक्षं] परकी अपेक्षासे रहित [जैन] जिनेन्द्रदेवकथित [लिंगम्] श्रामण्य का अन्तरंग लिंग [अपुनर्भवकाररणम् ] मोक्षका कारण है ।
तात्पर्य-निरपेक्ष निर्लेप निर्ग्रन्थ दिगम्बर लिङ्ग मोक्षका मार्ग है।
टोकार्थ-वस्तुतः अपने द्वारा यथोक्तक्रमसे यथाजातरूपधर हुए प्रात्माके पयथाजातरूपधरत्व के कारणभूत मोइरागद्वेषादिभावोंका अभाव होता ही है; और उनके प्रभावके कारण उनके सद्भाव में होने वाले वस्त्राभूषणधारणका, सिर और दाढ़ी मूछोंके वालोंके रक्षणका
Page #403
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका यथाजातरूपधरत्वस्यासंसारानभ्यस्तत्वेनात्यन्तमप्रसिद्धस्याभिनवाभ्यासकोश
३८६
अर्थतस्य लोपलभ्यमानायाः सिद्ध गमकं बहिरङ्गान्तरङ्गलिङ्गद्वैतमुददिशति जधजादरूवजादं उप्पाडिद केस मंसुगं सुद्ध | रहिदं हिसादीदो अप्पडकम्मं हवदि लिंगं ॥२०५॥ मुच्छारंभविजुत्तं जुत्तं उवजोगजोगसुद्धीहिं । लिंगं ण परावेक्खं पुणभवकारणं जेन्हं ॥ २०६॥ यथाजात जिममुद्रा, कचलुञ्चन विगतवसनभूषणता । हिसारंभ रहितता, प्रति कर्मत्व मुनिलक्षण ॥२०५॥ मूर्च्छारम्भरहितता, उपयोगयोग विशुद्धसंयुता ।
परापेक्षविरहितता, अपुनर्भवहेतु मुनिलक्षण |
यथाजातरूपजातमुत्पाटितकेशवम के शुद्धम् । रहितं हिसादितोऽप्रतिकर्म भवति लिङ्गम् ।। २०५ ।। सुर्च्छारम्भवियुक्तं युक्तमुपयोगयोग शुद्धिभ्याम् । लिङ्ग न परापेक्षमपुनर्भवकारणं जैनम् ॥। २०६ ।। श्रात्मनो हि तावदात्मना यथोदितक्रमेण यथाजातरूपधरस्य जातस्यायथाजात रूपधरत्वप्रत्ययानां मोहरागद्वेषादिभावानां भवत्येवाभावः तदभावात्तुतद्भावभाविनो निवसनभूषाधारणस्य मूर्धजव्यञ्जनपालनस्य सकिचनत्वस्य सावद्ययोगयुक्तत्वस्य शरीरसंस्कारकरणत्वस्य
॥ २०६ ॥
नामसंज्ञ - जधजादरूवजाद उप्पाडिद के समसुग सुद्ध रहिद हिसादीदो अप्पादिकम्म लिंग मुच्छारंभविजुत जुत्त उवजोगजोगसुद्धि लिंग ण परायेक्ख अपुणब्भवकारण जेव्ह। धातुसंज्ञ - हब सत्तायां । प्रातिसचिनत्वका सावद्ययोग से युक्तपनेका तथा शारीरिक संस्कारके करनेका प्रभाव होता है, जिससे उस आत्मा के जन्म समयके रूप जैसा रूप सिर और दाढ़ी मूछके बालोंका लोच, शुद्धत्व, हिंसादिरहितपना तथा शारीरिक श्रृंगार-संस्कारका अभाव होता ही है । इसलिये यह बहिरंग लिंग है ।
और फिर आत्मा यथाजाररूपधरत्वसे दूर किये गये अयथाजातरूपवारत्वके कारराभूत मोहरागद्वेषादि भावोंका प्रभाव होनेसे ही, उनके सद्भावमें होने वाले ममत्वके और कर्मप्रक्रमके परिणामका, शुभाशुभ उपरक्त उपयोग और तत्पूर्वक तथाविध योगकी शुद्धि युक्तपनेका तथा परद्रव्यसे सापेक्षत्वका प्रभाव होनेसे उस आत्माके मूर्छा और प्रारम्भसे रहित पता, उपयोग और योगकी शुद्धिसे युक्तपना तथा परको अपेक्षा से रहितपना होता ही है । इस कारण यह प्रन्तरंग लिंग है ।
प्रसंगविवरण - अनन्तरपूर्वं गाथामें बताया गया था कि श्रामण्यार्थी पुरुष भव यथा
Page #404
--------------------------------------------------------------------------
________________
Lifeconomationpatidesidinwoline
SunitinfiltilinthinatanARA
३६०
सहजानन्दशास्त्रमालायां घाभावद्यथाजातरूपत्वमुत्पाटितकेशश्मश्रुत्वं शुद्धत्वं हिंसादिरहितत्वमप्रतिकर्मत्वं च भवत्येव, तदेतदबहिरंग लिंगम् । तथात्मनो यथाजातरूपधरत्वापसारितायथाजातरूपधरत्व प्रत्ययमोहराग. द्वेषादिभावानामभावादेव तद्भावभाविनोममत्वकर्मप्रक्रमपरिणामस्य शुभाशुभोपरत्तोपयोगतत्पूर्वदिक- यथाजातरूपजात उत्पादित केशश्मश्रु क शुद्ध रहित हिंसादित: अप्रतिकर्म लिङ्ग मुछारम्भवियुक्तः युक्त उपयोगयोगबुद्धि लिङ्ग व परापेक्ष अपुनर्भवकारण जन । मूलधातु-भू सत्तायां । उभयपदविवरण-- जधजादख्वजादं यथाजात रूपजातं उप्पाटि दकेसमंसुगं उत्पाटित केशश्मश्र के सुद्धं शुद्धं रहिदं रहितं अप्पडिकम्म अप्रतिकर्म लिग लिङ्ग-प्रथमा एकवचन । हिंसादोदो हिंसादित:--अव्यय पंचम्यथं । हवदि भवतिवर्तमान अन्य एकवचन क्रिया । मुच्छारंभविजुत्तं मुर्छारम्भवियुक्तं जुत्तं युक्त लिग लिङ्ग पराबेक्त्र परापेक्ष अपुणभावकारणं अपुनर्भवकारणं जेण्हें जैन-प्रथमा एकवचन | उवजोगजोगसुद्धीहि-तृतीया जातरूपधारो हो जाता है अर्थात् निर्ग्रन्थदीक्षा धारण कर लेता है । अब इस गाथामें यथाजात. रूपके बहिरङ्ग व अन्तरङ्ग चिह्नोंको बताया गया है ।
तथ्यप्रकाश--(१) यथाजासरूप (तत्काल उत्पन्न नग्न शिशुवत् सहजात्मरूप) धारण । करने वाले पुरुषके अयथाजातरूपधरता (सपरिग्रहता) के कारण होते रहने वाले मोह राम द्वेष आदि विकारोंका प्रभाव हो जाता है । (२) मोहरागद्वेषादिभावोंका अभाव हो जानेसे अब वस्त्राभूषणोंका धारण कैसे बने, क्योंकि वस्त्राभूषणधार तो मोह रागद्वेष भावोंके होनेपर होता है, अतः नग्नत्व हो जाता है । (३) मोहरागद्वेषादि भावोंका अभाव हो जानेसे अब शिर मूछ दाढ़ीके बालोंको कैसे सम्भाला जाय, अतः केश मंछ दाढ़ीके बालोंको उखाड़ दिया जाता है । (४) मोहरागद्वेषादिभावोंका प्रभाव हो जानेसे सकिञ्चनता अर्थात् किसी चोजका रखना कैसे बनें, अतः शुद्धता, निर्लेपता, निष्परिग्रहता प्रकट होती है। (५) मोहरागद्वेषादि का प्रभाव हो जानेसे सावद्य प्रारम्भका योग कैसे बने, अतः हिंसादिरहितपना सिद्ध होता। है । (६) मोहरागद्वेषादिका अभाव हो जानेसे प्रश्न शरीरके संस्कारका करना कैसे बने, अतः शारीरिक संस्कार व शृङ्गारका प्रभाव हो जाता है। {७) नग्नत्य, केशलुञ्च, निष्परि महत्व . हिसादिरहित तथा प्रति कर्मत्व (शारीरिक संस्कार ङ्गाररहितपना) ये यथाजातरूप मुद्रा के बहिरङ्ग लिङ्ग (चिह्न) हैं । (८) सहजात्मरूप धारण करनेसे मोहरागद्वेषादि विकारभाव का प्रभाव हो जाता है । () मोहरागद्वेषादिका प्रभाव हो जानेसे ममत्व परिणाम कैसे बने प्रतः मूच्र्छारहितपना प्रकट होता है । (१०) मोहरागद्वेषादिका अभाव होनेसे किसी लौकिक कार्यमें कैसे लगा जाय, अतः प्रारम्भरहितपना प्रकट होता है। (११) मोहरागद्वेषादिका अभाव होनेसे अब उपयोग शुभ व अशुभ भावोंसे कैसे उपरक्त होये, अतः निर्विकार स्वसंवे दन होने से उपयोगशुद्धि हो जाती है अर्थात् शुद्धोपयोग होता है । (१२) विकाराभावके कारण
a
m alaANWAAN
A THA
RomantiMORENA
Page #405
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार - सप्तदशाङ्गी टीका
• कतथाविधयोगाशुद्धियुक्तत्वस्य परद्रव्यसापेक्षत्वस्य चाभावान्मुच्छारम्भवियुक्तत्वमुपयोगयोगशुद्वियुक्तत्वमपरापेक्षत्वं च भवत्येव तदेतदन्तरंग लिंगम ॥ २०५ २०६ ॥
३६१
बहु० | उपयोगयोगशुद्धिभ्यां तृतीया द्विवचन । ण न-अव्यय । निरुषित- क्लिश्मासीति केशः क्लिशू विबाधने क्लिश | अन् लोपः श्म पुंमुखं श्रूयते लक्ष्यते अनेन इति श्मश्रुः । समास- उत्पादितः केश: रम श्रुकः यत्र तत् उत्पादित केशश्मश्र ुक (मूर्च्छा च आरम्भश्च मूर्द्धारम्भ ताभ्यां वियुक्त मूर्च्छारम्भवियुक्त.. उपयोगश्च योगश्चेति उपयोगयोगी तयोः शुद्धिः उपयोगयोगशुद्धिः ताभ्याम् उपयोगयोगबुद्धिभ्याम् ॥२०५
२०६॥
शुभ व अशुभ उपयोग न होनेसे योग प्रशुद्ध कैसे बने, अतः निर्विकल्पसमाधिरूप योगशुद्धव प्रकट होता है, अब मन वचन कायकी चञ्चलता नहीं रहती । (१३) मोहरागद्वेषादिभावका प्रभाव होनेसे परकी अपेक्षा कैसे बने, अतः निर्मलानुभूति परिणति व निरपेक्ष सहज ज्ञानवर्तना होती है । (१४) मूर्च्छारहितपना, आरम्भभावरहितपना, शुद्धोपयोग, स्थिरपना व निरपेक्षपना ये यथाजातरूप मुद्रा अन्तरङ्ग लिङ्ग (चिह्न) हैं ।
सिद्धान्त - १ - अन्तरङ्ग बहिरङ्ग उपाधियोंका अभाव होनेसे शुद्ध परिणति प्रकट
...होती है ।
दृष्टि - १ - उपाध्यभावापेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनय (२४) ।
प्रयोग — निरुपाधि शुद्ध शान्त सहजानन्दमय स्वरूप प्रकट करनेके लिये निरुपाधिमुद्रा 1. में रहकर सहज शुद्ध ज्ञानमात्र अन्तस्तत्त्वको उपासना करना || २०५-२०६ ।।
श्रामण्यार्थी इन दोनों लिंगोंको ग्रहण करके, और यह यह करके श्रमण होता हैं, इस प्रकार भवतिक्रियामें बंधुवर्गसे विदा लेनेरूप क्रियासे लेकर शेष सभी क्रियाओंका एक कर्ता दिखलाते हुये, इतना करनेसे श्रामण्यकी प्राप्ति होती है, यह उपदेश करते हैं --- [परमेण गुररणा ] परम गुरुके द्वारा प्रदत्त [तदपि लिंगस्] उन दोनों लिंगों को [ श्रादाय ] ग्रहण करके, [तं नमस्कृत्य ] गुरुको नमस्कार करके, [सव्रतां क्रियां श्रुत्वा ] व्रत सहित क्रियाको सुनकर [ उपस्थितः ] श्रात्मा के समीप स्थित होता हुआ [स] वह [श्रमणः भवति ] श्रमण होता
है ।
तात्पर्य - बहिरंग अन्तरंग लिङ्ग ग्रहण करके शिक्षा सुनकर स्वस्थ होता हुआ वह श्रमण होता है ।
टीकार्थ -- तत्पश्चात् श्रमण होनेका इच्छुक दोनों लिंगोंको ग्रहण करता है, गुरुको नमस्कार करता है, व्रत और क्रियाको सुनता है और फिर उपस्थित होता है; तथा उपस्थित होता हुआ श्रामण्यकी सामग्री परिपूर्ण होनेसे श्रमण होता है । इसका स्पष्टीकरण - प्रथम
Page #406
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानंदशास्त्रमालायां
wwwsclusinesh
winitiMain winninindwicHindi
N
__अर्थतदुभयलिंगमादायतदेतत्कृत्वा च श्रमरणो भवतीति भवतिक्रियायां बन्धुवर्गप्रच्छनक्रियादिशेषसकलक्रियारणां चैकफर्तृकत्वमुद्योतयन्नियता श्रामण्यप्रतिपत्तिर्भवतीत्युपदिशति
आदाय तं पि लिंग गुरुगा परमेण तं णमंसित्ता । सोचा सवदं किरियं उवहिदो होदि सो समणो ॥२०७॥ इस मुद्राको लेकर, गुरुसे गुरुको प्रणाम करि ब्रतको ।
और क्रियाको सुनकर, धारण करके श्रमण होता ।।२०७॥ बादाय तदपि लिंग गुरुणा परमेण तं नमस्कृत्य । श्रुत्वा सव्रता क्रियामुपस्थितो भवति स श्रमणः ॥२०॥
तत्तोऽपि श्रमणो भवितुमिच्छन् लिंगद्वैतमादत्ते गुरु नमस्यति व्रतकिये श्रृणोति अथो. पतिष्ठते उपस्थितश्च पर्याप्तश्रामण्यसामग्रीकः श्रमणो भवति । तथाहि-तत इदं यथाजातरूप. घरत्वस्य गमक बहिरंगमन्तरंगमपि लिंगं प्रथममें त्र गुरुणा परमेणाहट्टारकेरण तदात्वे च दी.
नामसंज-सपिलिंग गुरु परम त सवद किरिय उट्टिद त समण । धातुसंज्ञ- आ दादाने, नम ममीभावे, युण श्रवणे, हो सत्तायां । प्रातिपदिक-तत् अपि लिङ्ग गुरु परम तत् साता क्रिया उपस्थित तत श्रमण । मूलधातु- आ दा दाने, नम नम्रीभावे श्रश्रवसे । उभयपद विवरण---आदाय णमंसिता ही परमगुरु ग्रहंत भट्टारक द्वारा और उस समय दीक्षा कालमें दीक्षाचार्य द्वारा इस यथाजात रूपधरत्व के सूचक बहिरंग तथा अन्तरंग लिंगके ग्रहणकी विधिके प्रतिपादकपना होनेसे. व्यवहारसे दिया जाने वाला होनस दिये गये उन लिगोंको ग्रहण क्रियाके द्वारा सम्मानित करके श्रामण्यार्थी तन्मय होता है । और फिर जिन्होंने सर्वस्व दिया है ऐसे मूल और उत्तर परमगुरुको, भान्यभावकताके कारण प्रवर्तित इतरेतरमिलनके कारण जिसमें स्वपरका विभाग अन्त हो गया है ऐसी नमस्कार क्रियाके द्वारा सम्मानित करके भावस्तुतिवन्दनामय होता है । पश्चात् सर्व सावद्ययोगके प्रत्याख्यानस्वरूप एक महानतको सुननेरूप श्रुतज्ञानके द्वारा समयमें परिणमित हो रहे पात्माको जानता हुआ सामायिकमें प्रारूढ़ होता है । पश्चात् प्रतिक्रमण पालोचना-प्रत्याख्यानस्वरूप क्रियाको सुननेरूप श्रुतज्ञानके द्वारा कालिक कर्मीसे भिन्न किये जाने वाले प्रात्माको जानता हुआ, अतीत-अनागत वर्तमान, मन-वचन-काय सम्बंधी कोंसे विविक्तताको निरखता है । पश्चात् समस्त सावध कर्मोंके आयतनभूत कायका उत्सर्ग करके यथाजावरूप वाले स्वरूपको, एकको एकाग्रतया अवलम्बित करके रहता हुमा उपस्थित होता है। और उपस्थित होता हुमा, सर्वत्र समष्टित्वके कारण साक्षात् श्रम होता है।
प्रसङ्गविवरण-अनन्तरपूर्व गाथाद्वयमें श्रमणका बहिरङ्ग व अन्तरङ्ग लिङ्ग बताया • गया था। अब इस गाथामें कैसे श्रामण्यकी प्राप्ति होता है यह बताया गया है। .. :
389
e
HAA
ws
SEASESe040--
।
How
Page #407
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशांनो टोका क्षाचार्येण तदादानविधान प्रतिपादकत्वेन व्यवहारतो दीयमानत्वावृत्तमादान क्रियया संभाव्य तन्मयो भवति । नतो भाव्यभावकभावप्रवृत्तेतरेतरसंबलन प्रत्यस्तमितस्वपरविभामत्वेन दत्तसई. स्वमूलोत्तर पर मगरुन मस्क्रिपया संभाव्य भावस्त ववन्दनामयो भवति । ततः सर्वसावध योगप्रत्यास्यानलक्षणक महावतश्रवणात्मन! श्रु तज्ञानेन ममय भवन्तमात्मानं जानन सामायिक मधिरोहति 1 सतः प्रतिक्रमणालोचन प्रत्याख्यानलक्षणक्रियाश्रवणात्मना श्रु तज्ञानेन कालिककर्मभ्यो विविच्यमानमात्मानं जानन तीतप्रत्युपन्लानुपस्थित कायवाङ्मनःकर्मविविक्तत्वमधिरोहति । ततः समस्तावद्यमायतनं कायमुत्सृजय यथाजातरूपं स्वरूप मेकमेकाग्रेणालम्ब्य व्यवतिष्ठमान उपस्थितो भवति, उपस्थितस्तु सर्वत्र समदृष्टित्वासाक्षाच्छमयो भवति ॥२०७।। नमस्कृत्य सोच्चा श्रुत्वा सम्बन्धार्थप्रक्रिया । तं लिग लिङ्ग तं सबदं सन्नता किरिय क्रियां-द्वितीया एकवचन । पि अपि-अव्यय । गुरुणा-तृ० एक० । परमेण-तृक ए। उवादिदो उपस्थितः सो स: समणो श्रमण:- एक होदि भवति-वर्तमान अत्यः एकः क्रिया। निरुक्ति- गृगाति उपदिशति धर्म इति गुरुः गिरीत अनानं इति गुरुः गृ शब्दे क्यादि गु निगरो तुदादि में विज्ञान चुरादि, गीर्यते स्तूबते देवा. दिभिः इति गुरुः ।।२०७॥
तथ्यप्रकाश---(१) श्रामण्यार्थीन परमगुरु अहंन्त देवसे व तत्काल दीक्षाचार्यसे यघा. जातरूपताके नमक बहिरङ्ग व अन्तरङ्ग लिङ्गको ग्रहण किया । (२) दीक्षा ग्रहण के विधान का प्रतिपादकपना होनेसे व्यवहारतः दोभाका देना कहलाता है। (३) दीयमान लिङ्गोंको अङ्गीकार करके यह साधु सभक्ति शुद्ध भावों में तन्मय होता है । (४) फिर पाराध्य पारा. धक भावकी शुद्धता द्वारा स्वपरविभाग शान्त करके अभेद अाराधनासे परमगुरुको सम्मानित कर यह साधु भावस्तवमय होता है । (५) फिर उपास्य उपासक भावकी शुद्धता द्वारा स्वपर “विभाग शान्त करके भेदोपासनासे परमगुरुको भावनमस्कार क्रियासे सम्मानितकर यह साधु भाववन्दनामय होता है। (६) फिर सर्वसावध योगके त्यागरूप महावतके भावोंके श्रवणसे अनेक श्रुतियोंके अनुभवसे यह साधु स्वाध्यायमय होता है । (७) सर्वसावधात्यागस्वरूप महा. प्रतादि प्रक्रियाके श्रवणके समय श्रु ल ज्ञान द्वारा म्बसमयमें होने वाले शुद्धात्मत्वको अनुभवता “हुना यह साधु साम्यभावको प्राप्त होता है । (6) फिर प्रतिक्रमण] प्रत्याख्यान ग्रालचिनविष. 'यक श्रुतज्ञान द्वारा कालिक कर्मों से रहिस महज झानमात्र शुद्ध अन्तस्तत्वको अनुभवता हे । ' (8) फिर समस्त अवध के कारणभूत काय का विकल्प पूर्णतया त्यागकर यथाजात प्रात्मस्वरूप है.का प्राश्रय कर प्रात्मस्थ होता है । (१०) प्रात्माके निकट उपस्थित होता हुमा यह साधक
समष्टि होनेसे साक्षात् श्रमण होता है। : सिद्धान्त-(२) श्रमण प्रात्माके शाश्वत सहजस्वरूपको निरखता रहता है। (२) श्रमण शुद्धात्मस्वरूपकी भावनासे निर्विकार हो जाता है ।
नामावलि
mhitees
Page #408
--------------------------------------------------------------------------
________________
GaMamlanAmiumihanimmmmminATLAimirmirminahiniinihinm
सहजानन्दशास्त्रमालायां
प्रथाविरिछमसामायिकाधिरू होऽपि श्रमणः कदाचिच्छेदोपस्थापनमहतीत्युपदिशति
बदसमिदिदियरोधो लोचावस्सयमचेलमण्हाणं । खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभोयणमेगभत्तं च ॥२०८॥ एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरे हिं पण्णात्ता । तेसु पमत्तो समणो छेदोवट्ठावगो होदि ॥२०६॥ व्रत समिति अक्षरोधन, अचेल प्रस्नान लोच आवश्यक । भूशयन अदंतधसन स्थित्तिभोजन एकभुक्ति तथा ॥२०६॥ अट्ठावीस मूल गुरण, श्रमरगोंके ये जिनेशने भाषे ! -
उनमें प्रमत साधू, छेलोपस्थापना करता ॥२१०॥ व्रतसमितीन्द्रियरोधो लोचावश्यकमचेलमस्नानम् । क्षितिशयनमदत धावनं स्थितिभोजनमेकभक्तं च ।२०६॥ एते खलु मुलगुणा: श्रमणानां जिनवरैः प्रज्ञप्ताः । तेषु प्रमत्तः श्रमण: छेदोपस्थापको भवति ॥ २०६ ।।
सर्वसाक्द्य योगप्रत्याख्यानलक्षणकमहावतव्यक्तिवशेन हिसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहविरत्या त्मकं पञ्चतयं व्रतं तत्परिकरश्च पञ्चतयी समितिः पञ्चतय इन्द्रियरोधो लोचः षट्तयमाव
नामसंज्ञ-. बदसमिदिदियरोध लोचाबस्सय अचेल अण्हाण खिदिसयण अदंत वण णिदिमोयण एमभत्त घ एत खलु मूलगुण समण जिणवर पणन त पमत्त समण छेदोवट्ठावग । धातुसंज्ञ-हो सत्तायां । प्रातिपविक्र-व्रतसमितीन्द्रियरोध लोचावश्यक अचेल अस्तान क्षितिशयन अदन्तधावण स्थितिभोजन एकभक्त ने एतत् खलु मूलगुण श्रमण जितवर प्रजप्त तत् प्रमत्त श्रमण छेदोपस्थापक ! मूलधातु---भू सत्तायां।
दृष्टि-१-- उपाधिनिरपेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२१)। २- शुद्ध भावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४ब)।
प्रयोग--यथाख्यात प्रात्मस्वरूपकी प्राप्तिके लिये यथाजातरूपधारी होकर यथाजात सहजात्मस्वरूपकी सतत अभेदोपासनाका पौरुष होना ।।२०७॥
अब अविच्छिन्न सामायिक संयममें आरूढ़ हुना होनेपर भी श्रमण कदाचित् छेदोपस्थापनाके योग्य है, यह कहते हैं.---- [व्रतसमितीन्द्रियरोधः] व्रत, समिति, इन्द्रियरोध, [लो. चावश्यकम्] लोच, अावश्यक, [अचेलम्] अचेल, [स्नानं] अस्नान, [क्षितिशयनम्] भूमि शयन, [अदंतधावनं] अदंतधावन, [स्थितिभोजनस्] खड़े खड़े भोजन [च] और [एकभक्त] एक बार पाहार [एते] ये [खलु] वास्तवमें [श्रमणानां मूलगुणाः] श्रमणोके मूल गुण [जिनवरैः प्रज्ञप्ता:] जिनवरोंके द्वारा कहे गये है। [तेषु] उनमें [प्रमत्ता] प्रमत्त होता हुआ धमरणः] श्रमण [छेदोपस्थापका भवति छेदोपस्थापक होता है ।
25
Page #409
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६५
प्रवचनसार -- सप्तदशाङ्गी टीका
श्यकमवेलक्यमस्नानं क्षितिशयनमदन्तधावनं स्थितिभोजन से कभक्तश्चैवं एते निर्विकल्पसामायि hiroeपत्वात् श्रमणानां मूलगुरणा एव । तेषु यदा निविकल्पसामायिकसंयमाधिरूढत्वेनानभ्यस्त विकल्पत्वात्प्रमाद्यति तदा केवलकल्याणमात्रार्थिनः कुण्डलवलांगुलीयादिपरिग्रहः किल उभयपद विवरण- वदसमिदिदियरोधो ब्रतसमितीन्द्रियराधः श्रोचावस्तयं लोखा वश्यकं अचेलं अण्हाणं अस्मानं खिदिसणं क्षितिशयनं अवंतवणं अदन्तधावनं ठिदिभोगं स्थितिभोजनं एगभक्तं एकभक्तं - प्रथमा एकवचन । च खलु-अव्यय । एदे एते मूलगुणा मूलगुणा:- प्रथमा बहुवचन । समणाणं श्रमणानां षष्ठी
तात्पर्य - मूल गुणों में प्रमाद होनेपर श्रमण छेदोपस्थापनाका धारण करता है ।
टीकार्थ -- सर्व सावद्ययोगके प्रत्याख्यानस्वरूप एक महाव्रतको व्यक्तियाँ होनेसे हिंसा, असत्य, चोरी, प्रब्रह्म और परिग्रहकी विरतिस्वरूप पांच प्रकारके व्रत तथा उसकी परिकरभूत पाँच प्रकारकी समिति, पाँच प्रकारका इन्द्रियरोध, लोच, छह प्रकारके ग्रावश्यक, अचेलकत्व, अस्नान, भूमिशयन, प्रदंतधावन अर्थात् दतौन नहीं करना, खड़े खड़े भोजन, और एक बार प्राहार लेना; इस प्रकार ये निर्विकल्प सामायिकसंयमके भेद होनेसे श्रमणोंके मूल गुण नहीं हैं । जब श्रमण निर्विकल्प सामायिक संयम में श्रारूढ़ता के कारण मूलगुरारूप विकल्पोंका भ्यास नहीं है जहाँ ऐसी दशा में प्रमाद करता है, तब 'केवल सुवर्णमात्रके अर्थीको कुण्डल, कंकण, अंगूठी ग्रादिको ग्रहण करना श्रेय है, किन्तु ऐसा नहीं है कि कुण्डल इत्यादिका ग्रहण कभी न करके सर्वथा स्वर्णको हो प्राप्ति करना ही श्रेय है' ऐसा विचार करके वह मूल गुणों में विकल्परूपसे (भेदरूपसे ) अपनेको स्थापित करता हुआ छेदोपस्थापक होता है ।
प्रसंग विवरण - प्रनन्तरपूर्व माथा में बताया गया था कि साधक कैसे श्रामण्य की प्राप्ति करता है । अब इस गाथा में बताया गया है कि सतत सामायिक संयममें ग्रारूढ़ हुआ भा श्रमण कभी (कदाचित् ) छेदोपस्थापना के योग्य होता है ।
तथ्यप्रकाश - १ - निविकल्प सामायिकसंयम के विकल्प श्रम के मूल गुख कहे जाते । २- वास्तव में श्रमरणोंका मूल गुण यह एक ही है- निर्विकल्प सामायिक संयम । ३-निविकल्प सामायिक संयम में संज्वलनचतुष्क के विपाकके कारण सतत नहीं रहा जानेपर श्रमण freeपरूप संयमको पालता है । ४- प्रभेदरूपसे संयम पालना सामायिक संयम है । ५भेदरूपसे संयमपालन छेदोपस्थापना संयम है । ६- निविकल्पसामायिक संयम में अखण्ड ज्ञायकस्वभाव सहजपरमात्मतत्वकी उपासना रहती है। ( ७ ) छेदोपस्थापना संयम में अहिंसामहाव्रत सत्यमहाव्रात आदि नाना रूपों में संयमपालन होता है । भेदसंयम में कुछ दोष या च्युति
5
Page #410
--------------------------------------------------------------------------
________________
emade AARAKHARRAIMARAawaniwwwimagwwwmumthunwwww
३६६
सहजानन्दशास्त्रमालायां श्रेयान्, न पुनः सर्वथा कल्याणलाभ एवेति संप्रधार्य विकल्पेनात्मानमुपस्थापयन् छेदोपस्थापको भवति २०८-२०६॥ बहुवचन । जिणवरेहिं जिनवर:-तृतीया बहुवचन । पण्णत्ता प्रज्ञप्ता:-प्रथमा बहुवचन कृदन्त क्रिया । तेसु तेषु-सप्तमी बहुवचन । पमलो प्रमत्तः समणो श्रमणः छेदोवट्ठावग्रो छेदोषस्थापक:-प्रथमा एकवचन । होदि भवति-वर्तमान अन्य ० एकवचन क्रिया । निरुक्ति....त्वरणं ब्रतं वृन व रणे दिवादि के यादि, सम् अयन समितिः सम् इण् गती, क्षियति प्राणी यत्र सा क्षितिः क्षि निवास गत्योः स्वादि लुचनं लुंच: लंच अपनयने चिल्यते आच्छाद्यते अङ्ग अनेन इति चेलं चेलं नास्ति यत्र तत् अचल चिल बसने आच्छादने च स्वादि । समास छिदे सति उपस्थापकः इति छेदोपस्थापकः॥२०८-२०६।। होनेपर प्रायश्चित्तविधानसे पुनः संयममें पाना भी छेदोपस्थापना संयम कहलाता है. परंतु निविकल्प सामायिक संयम और व्रतादिभेदरूप मूलगुण इन दोनोंको तुलनाके प्रकरणसे दोष निवृत्ति वाला छेदोपस्थापनासंयमका ग्रहण नहीं है । (६) सामायिकसंयमार्थी संयमविकल्पोंको अर्थात् २८ मूल गुणोंको पालता है जैसे कि सुवर्णार्थी पुरुष कटककुण्डलादि प्राभूषणोंका परिग्रहण करता है । (१०) सामायिकसयमके विकल्परूप गुण २८ हैं-५ महानत, ५ समिति, ५ इन्द्रियनिरोध, ६ आवश्यक, ७ शेष क्रियायें। (११) समस्तसावद्ययोगका प्रत्याख्यान एक महाव्रत है । (१२) महाव्रतकी व्यक्तियां ५ है-अहिंसामहाव्रत, सत्यमहाबत, अचौर्य महाव्रत, बहाचर्यमहावत व परिग्रहात्यागमहाबत । (१३) श्रमणोंके शेष २३ मूल गुण महाब्रतोंका. अनुसरण करने वाले हैं। (१४) उपेक्षासंयममें न रह पानेसे प्रवृत्ति करनेपर स्वपरकरुणासहित प्रवृत्ति करना समिति है। (१५) बिहार, भाषण, पाहार, उपकरणोंका ग्रहण निक्षेप म मलोत्सर्गमें हिंसापरिहारपूर्वक प्रवृत्ति करना ईयाँ, भाषा, ऐषणा, प्रादाननिक्षेपण व प्रति. ष्ठापना समिति है। (१६) पञ्च इन्द्रिय के विषयोंके वश न होकर उनपर विजय पाना ५ इन्द्रियनिरोध हैं । (१७) समता, वन्दना, स्तुति, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय व कायोत्सर्ग ये ६
आवश्यक हैं। (१८) केश लोच निर्वस्त्रता, अस्नान, भूशयन, अदन्तधावन, स्थितिभोजन व एक बार लघु भोजन ये ७ शेष गुण हैं । (१६) श्रमणोंके २८ मूल गुणोंमें किसी गुणके पालन में प्रमाद होनेपर उस प्रमादको दूर करके फिर निर्दोष गुणपालन करना छेदोपस्थापना है।
सिद्धान्त--- १-- अविकार ज्ञानस्वभाव शुद्धात्माके अविरुद्ध प्रवर्तनसे मोक्षपुरुषार्थ सम्पन्न होता है।
दृष्टि-१- पुरुषकारनय, क्रियानय, ज्ञानन्य (१८३, १६३, १६४) ।
प्रयोग-श्रामण्यदीक्षा लेकर २८ मूल गुणोंका पालन कर शुद्ध ज्ञानानन्दमय अवस्था की प्राप्तिके साधनभूत निर्विकल्प सामायिक संयमको साधना करना ।।२०८.२०६।।
R
AAKRANTIARPARIMARIKARANASANAGHIRAINAMAIIANRAINIK
A
RI
Page #411
--------------------------------------------------------------------------
________________
।
मले
प्रवचनसार--सप्तदशाङ्गी टीका अथास्य प्रव्रज्यादायक इब छेदोपस्थापकः परोऽध्यस्तीत्याचार्यविकल्पप्रज्ञापनद्वारेणोपदिशति
लिंगग्गहणे तेसिं गुरु ति पव्वजदायगो होदि । छेदेसूवश्वगा सेसा णिजावगा समणा ॥२१०॥ जिनसे दीक्षा ली है, वे गुरु दीक्षागुरु हैं कहलाते।
छेदीपस्थाप निर्यापक वे या इतर होते ।।२१०॥ लिङ्गग्रहणे तेषां गुरुरिति प्रवज्यादायको भवति । छेदयोरुपस्थापकाः शेषा निधिकाः श्रमणाः ॥२१०॥
___ यतो लिङ्गग्रहणकाले निर्विकल्पसामायिकसंयमप्रतिपादकत्वेन यः किलाचार्यः प्रव्रज्यादायकः स गुरुः, यः पुनरनन्तरं सविकल्पच्छेदोस्थापन संयमप्रतिपादकत्वेन छेदं प्रत्युपस्थापक: ___ नामसंज्ञ-लिंगरगहण त ति पच्चज्जदायग छेद उवट्ठायम सेस णिज्जावग समण। धातुसंज्ञ-हो सत्तायां । प्रातिपदिक-लिङ्गग्रहण तत् गुरु इति प्रव्रज्यादायक छद उबढ़ावग सस णिज्जाबग समण । मुलधातु-भू सत्तायां । उभयपदविवरण-लिंगग्गहो लिङ्गग्रहरणे-सप्तमी एक । तेसिं तेषां-षष्ठी एका ।
अब श्रमणके प्रव्रज्यादायककी भांति छेदोपस्थापक दुसरा भी होता है यह, प्राचार्य विकल्पप्रज्ञापन द्वारा उपदेश करते हैं - तेषां] मुनियोंका [लिंगग्रहणे] लिंगग्रहण के समय
प्रवज्यादायकः भवति] जो दीक्षा दायक है वह तो [गुरुः इति] दीक्षा गुरु है, और [छेदयोः उपस्थापका:] जो छेदद्वयमें उपस्थापक हैं [शेषाः श्रमणाः] वे शेष श्रमणा [निर्यापकाः] नियपिक गुरु हैं।
तात्पर्य -दीक्षागुरुनिर्यापक गुरु भो होते हैं, किन्तु दीक्षागुरुके प्रभाव में निर्यापक गुरु दूसरे कोई श्रमण हो सकते हैं।
टीकार्य-..--जो प्राचार्य लिंगग्रहणके समय निर्विकल्प सामायिकसयमके प्रतिपादक होने से जो प्राचार्य प्रव्रज्यादायक हैं वे गुरु हैं; और फिर तदनन्तर सविकल्प छेदोपस्थापना संयमके प्रतिपादक होनेसे छेदके प्रति उपस्थापक हैं वे निर्यापक हैं; उसी प्रकार जो भी छिन्न संयमके प्रतिसंधानको विधिके प्रतिपादक होनेसे छेद होनेपर उपस्थापक हैं, वे भी निर्यापक ही हैं। इसलिये छैदोपस्थापक, दूसरे भी होते हैं । Hijr" प्रसङ्कविवरण.-----.अनन्तरपूर्व गाथाद्वयमें सामायिकसंयम व छेदोपस्थापनासंयमका मौलिक निर्देश किया गया था। अब इस गाथामें दोक्षादायक व छेदोपस्थापक प्राचार्य श्रमणों
के उपकारका निर्देश किया गया है। Male तथ्यप्रकाश-१- जो दीक्षा देने वाले श्रमण हैं वे प्रव्रज्यादायक कहलाते हैं । २
प्रवज्यादायक गुरुने दीक्षामहरग कालमें शिष्यको निर्विकल्प सामायिकसंयमका उपदेश किया
ENANAPAYER
KARSAR
MPPPIRYwIRAYARIRI
Page #412
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां
........
स निर्यापकः, योऽपि छिन्न संयम प्रतिसंधान विधानप्रतिपादकत्वेन छेदे सत्त्युपस्थापकः सोऽपि निर्यापक एव । ततश्छेदोपस्थापक: परोऽप्यस्ति ॥२१०।। मुरु गुरु: पवज्जदायगो प्रवज्यादायक:- प्रथमा एक० 1 छेदेसु-मप्तमी बहः । छेदयो:-सप्तमी द्विः । उवट्ठवमा उपस्थापका: सेसा शेषा: णिज्जावगा निर्याणका; समणा श्रमणा:-प्रथमा बहु० । होदि गवति--- वर्त० अन्य ० एका किया । निरुक्ति- गृणाति धर्म उपदिशति यः स गुरु: शिष्यते इति शेषः शिष । अच् शिष् असर्वोपयोगे धुरादि । समास--लिङ्गस्य ग्रहणं लिङ्गग्रहणं, अब ज्याया : दायकः प्रव्रज्यादायकाः ।।१०। था। ३- उसी प्रव्रज्यादायक गरुने फिर निर्विकल्प सामायिक संयमके विकल्परूप छेदोपस्था. पनासंयमका उपदेश किया था सो बह निर्यापक गुरु भी है । ४- अब छेदोपस्थापनासंयममें अर्थात् २८ मूल गुणों व किन्हीं उत्तर गुणोंकी कुछ विराधना हो जाय तो उसका प्रायश्चि. तादि विधानसे जो उपस्थापक होता है वह भी निर्यापक ही है । ५- निर्विकल्पसमाधिरूप सामायिक संयमको एकदेश च्युति होना एकदेश छेद कहलाता है। ६-- निर्विकल्पसामायिकसंयमकी सर्दथा च्युति (नाश) हो जाना सकलदेशच्छेद कहलाता है । ७ निर्विकल्पसामायिक संयमके विकल्परूप मूल गुणोंक भी एक देशछेद व सकलदेशच्छेद हो सकता है। - व्रतोंका कोई छेद होनेपर फिरसे शुद्ध करने वाला, उपस्थापन करने वाला श्रमण है, निर्यापक है वह दूसरा श्रमण भी हो सकता है।
सिद्धान्त---(१) जो दीक्षार्थीको दोक्षा दे वह दोक्षागुरु है । (२) जो श्रमण अन्य साधककी साधनाको निर्दोष बनाये वह निर्यापक है ।
दृष्टि-१, २- प्राश्रये प्राश्रयी उपचारक व्यवहार, पर सम्प्रदानत्व असद्भूत व्यव. हार (१५१, १३२)।
प्रयोग - शाश्वत शान्ति के साधनभूत निर्विकल्प सामायिक संयमकी सिद्धि के लिये निग्रंथदीक्षा लेकर छेदोपस्थापनासे विशुद्ध होकर निर्विर रूपसमाधिरूप सामायिक संयमरूप परिणाम करना ।।२१०।।
अब छिन्नसंयमके प्रतिसंधान के विधानका उपदेश करते हैं--- [यदि] यदि [श्रमरणस्य श्रमणके [प्रयताया] प्रयत्न पूर्वक [ समारब्धायां की जाने वाली [कायचेष्टायां काय. चेष्टामें [छेदः जायते] छेद होता है तो [पुनः तस्य] फिर उसका [पालोचनापूर्विका क्रिया) मालोचनापूर्वक क्रिया करना कर्तव्य होता है। [छेदोपयुक्तः श्रमरणः छेदमें उपयुक्त हुना श्रमण [जिनमते] जैनमतमें [व्यवहारिगं] व्यवहारकुशल [श्रमरणं प्रासाद्य] श्रमणके पास जाकर [आलोच्य] पालोचना करके [तेन उपदिष्टं] निर्यापक द्वारा बताये गये कर्तब्यको [कर्तव्यम् ] करे ।
diseasestaneasEss
a
ge
Page #413
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका
अथ नियमप्रतिसंधान विधानमुपदिशति
३६६
पदम्हि समार छेदो मास कायम्ह | जायदि जदि तस्स पुणो झालोयापुव्विया किरिया ॥२११ ॥ छेदुवजुत्ता समो समणं ववहारिणं दिहि | जालोचिता उवदिट्ठ ते कायव्वं ॥ २१२ ॥
यत्नकृत कायचेष्टा में कुछ बहिरंग दोष हो जाये । तो श्रलोचनपूर्वक, किरिया है दोषविनिवारक ॥२११॥ दोष उपयोगकृत हो उसकी आलोचना भि होगी ही । जिनमत व्यवहारकथित अन्य अनुष्ठान आवश्यक ॥ २१२ ॥
युक्तः श्रमण:
प्रयतायां समारब्धायां छेदः श्रमणस्य कायचेष्टायाम् 1 जायते यदि तस्य पुनरालोचनपूर्विका क्रिया ॥२१११ श्रमणं व्यवहारिणं जिनमते । आसाचलोच्योपदिष्टं तेन कर्तव्यम् || २१२॥ द्विविधः किल संयमस्य छेदः, बहिरङ्गोऽन्तरङ्गश्च । तत्र कायचेष्टामात्राधिकृतो बहिरङ्गः, उपयोगाधिकृतः पुनरन्तरंगः । तत्र यदि सम्यगुपयुक्तस्य श्रमणस्य प्रयत्नसमारब्धायाः
1
नामसंज्ञ - पयदसमारद्ध छेद समण कायचंटु जदि त पुणो आलोयगपुब्विया किरिया दुवजुत समण समण ववहारि जिणमद उवदिट्ट त कायव्य । धातुसंज्ञ जा प्रादुर्भावे, आ सद गत आ लोच आ तात्पर्य -- व्रत में कोई दोष होनेपर निर्यापकसे आलोचना करना व निर्यापक द्वारा बताये गये प्रायश्चित्तादि कर्तव्यको करना ।
टीकार्थ -- संयमका छेद दो प्रकारका है; बहिरंग और अन्तरंग । उसमें मात्र कायवेष्टा सम्बन्धी छेद बहिरंग छेद है और उपयोग सम्बन्धी छेद अन्तरंग छेद है । उसमें यदि भली भांति उपयुक्त श्रम के प्रयत्नकृत कायचेष्टाका कथंचित् बहिरंग छेद होता है, तो वह
अन्तरंग छेद से रहित है इस कारण आलोचनापूर्वक क्रियासे ही उसका प्रतिकार होता है। किन्तु यदि वही श्रमण उपयोगसम्बन्धी छेद होनेसे साक्षात् छेद में ही उपयुक्त होता है तो जिनोक्त व्यवहारविधि में कुशल श्रम के श्राश्रयसे, श्रालोचनापूर्वक, उनसे उपदिष्ट अनुष्ठान द्वारा संयमका प्रतिसंधान होता है ।
प्रसंगविवरण --- प्रनन्तरपूर्व गायामें प्रव्रज्यादायक व छेदोपस्थापक गुरुका निर्देशन किया गया था। अब इस गाथाद्वय में छिन्न संयम के प्रतिसंधानका अर्थात् छेदोपस्थापना संयम का विधान बताया गया है 1
तथ्यप्रकाश ----१- संयमछेद दो प्रकारका है - (१) बहिरंगसंयमच्छेद, (२) श्रन्त
Page #414
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां
कायचेष्टाया। कथंचिद्बहिरंगच्छेदो जायते तदा तस्य सर्वधान्त रंगच्छेदवजितत्वादालोचन पूर्विक या क्रिययैव प्रतीकारः । यदा तु स एवोपयोगाधिकृत च्छेदत्वेन साक्षाच्छेद एवोपयुक्तो भवति तदा जिनोदितव्यवहारविधिविदग्ध मणाश्रययालोचनपूर्व तदुपदिष्टानुष्ठानेन प्रतिसंधानम् ।। २११-२१२ ॥
४००
लोचने, का करणे । प्रातिपदिक-प्रयता समारच्या छंद श्रमण कायचेष्टा यदि तत् पुनर् आलोचना पूर्विका क्रिया छेदोपयुक्त श्रमण श्रमण व्यवहारिन् जिनमत उपदिष्ट तत् कर्तव्य । मूलधातु-जेनी प्रादुर्भावि, आ बदल गतौ, आलोचृ भाषार्थः, डुकृञ करणे । उभयपद विवरण- पयदम्हि प्रयतायां समारद्धं समारब्धायां कायम्ह कायचेष्टायां-सप्तमी एकवचन । छेदो छेदः - प्रथमा एक० । समणस्स श्रमणस्य तस्स तस्यषष्ठी एक० । जायदि जायते वर्त० अन्य० एक० क्रिया । जदि यदि पुणो पुनः अव्यय । आलोयणपुध्विया आलोचनपूर्विका किरिया क्रिया-प्र० ए० । छेदुवजुत्ता छेदोपयुक्तः समणो श्रमण:- प्रथमा एक० । समणं श्रमणं ववहारिणं व्यवहारिणं द्वि० एक० जिणमद म्हि जिनमते सप्तमी एक० । आसेज्जा आसाद्य आ लोचित्ता आलोच्य सम्बन्धार्थप्रक्रिया कृ० अव्यय । उर्वादिट्टु उपदिष्टं प्र० ए० । कार्यव्वं कर्तव्यम् प्रथमा: एकवचन कृदन्त क्रिया । निरुक्ति आ लोचनं आलोचना श्राम्यति इति श्रमणः श्रभु तपसि खेदे च चीयते उपचीयते इति कायः, चेष्टनं चेष्टा । समास - ( कायस्य चेष्टा कायचेष्टा तस्यां कायचेष्टायां छे उपयुक्तः छेदोपयुक्तः ।।२११-२१२।।
रङ्गसंयमच्छेद । २- कायचेष्टामात्र से होने वाला संयमच्छेद बहिरङ्ग छेद है ।
:
३- उपयोगसम्बंधी छेद अन्तरङ्ग छेद है । ४- सही उपयोग वाले श्रमण के समिति में यत्नपूर्वक प्रवृत्तिकरनेपर भी शरीरचेष्टा से कुछ बहिरंग छेद हुआ हो तो उसका आलोचनासे ही प्रतीकार हो जाता है । ५- प्रालोचनासे हो बहिरंग छेदका प्रतीकार हो जानेका कारण यह है कि वहाँ अन्तरङ्ग छेद याने उपयोगसम्बन्धी त्रुटि बिल्कुल नहीं हुई है । ६- अन्तरङ्ग छेद होनेपर श्रमणके दोषका प्रतीकार प्रायश्चित्तशास्त्र के ज्ञाता निर्यापकाचार्यसे निष्कपट झालोचना करके - जो प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त मिले उसके अनुष्ठान से होगा, क्योंकि वहाँ श्रमणने निर्विकार स्वसंवे दनभावनासे च्युत होनेका साक्षात् दोष किया था ।
सिद्धान्त -- ( १ ) निर्दोष चारित्रका पालन मुमुक्षुवोंकी मोक्षमार्ग गितिका कारण है 1: दृष्टि - १ क्रियानय, ज्ञाननय ( १६३, १६४) ।
प्रयोग - स्वस्थ भावनासे च्युत होनेपर निर्विकारस्वसंवेदन भावना के अनुकूल प्रायश्चित्त: करके निर्विकल्प सामायिक संयममें लगना ।।२११-२१२।।
अब श्रामण्यके छेदका प्रायतन होनेसे परद्रव्यका सम्बन्ध निषेध करने योग्य हैं, ऐसा उपदेश करते हैं -- [ अधिवासे] श्रात्मवास में अथवा गुरुग्रोंके सहवास में [वा ] प्रथमा [विवासे ]:yeri fभन्न वासमें बसता हुआ [ नित्यं ] सदा [निबंधान्] परद्रव्यसम्बन्धों को [ परिहरभाणः]
Page #415
--------------------------------------------------------------------------
________________
।
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टोका अथ श्रामण्यस्य छेदायतनत्वात् परद्रव्यप्रतिबन्धाः प्रतिषेच्या इत्युपदिशति
अधिवासे व विवासे छेदविहगो भवीय सामण्ण । समणो विहरदु णिच परिहरमाणो णिबंधाणि ॥२१३॥ गुरुवास विवासोंमें, मुनित्वके दोषसे रहित होकर ।
परसम्बन्ध हटाकर, वर्ती श्रामण्यमें सम्यक् ।।२१३॥ अधिवासे वा विवासे छेदविहीनो भूत्वा श्रामण्ये । श्रमणों विहरतु नित्यं परिहरमाणो निबन्धान् ।।१३।।
सर्व एव हि परद्रव्यप्रतिबन्धा उपयोगोपरकत्वेन निरुपरागोपयोगरूपस्य श्रामण्यस्य छेवायतनानि तदभावादेवाछिन्नश्रामण्यम् । अत प्रात्मन्येवात्मनो नित्याधिवृत्य वासे वा गुरु
. नामसंज्ञ-अधिवास व विवारा छेदविहूण सामण्ण समण णिच्च परिहरमाण णिबंध । धातुसंज्ञकि हर हरणे, भव सत्तायां । प्रातिपदिक- अधिवास वा विवास छदविहीन श्रामण्य श्रमण नित्यं परिहरमाण निवन्ध । मूलधातु-वि हुञ् हरणे, भू सत्तायां । उभयपदविवरण-अधिवासे विवासे सामण्यो श्रामध्ये सप्तमी एकवचन । छेदविरुणो छेदविहीन: समणो श्रमण: परिहरमाणो परिहरमाण :--प्रथमा एकदूर करता हुआ [श्रामण्ये] श्रामण्यमें [छेद विहीनः भूत्वा] छेदविहीन होकर [श्रमणः विहरतु] श्रमण विहारो।
तात्पर्य --मुनि परद्रव्यसम्पर्कको छोड़कर निर्दोष होता हा विहार करे ।
टीकार्थ--- वास्तव में सभी परद्रव्यप्रतिबन्ध उपयोगके विकारक होनेसे विकाररहित उपयोगरूप श्रामण्यके छेदके प्रायतन हैं; उनके अभावसे ही निर्दोष मुनिपना होता है । इस. लिये प्रात्मामें ही प्रात्माको सदा अधिकृत करके प्रात्माके भीतर बसते हुये अथवा गुरुरूपसे गुरुओंको अधिकृत करके गुरुग्मोंके सहवास में निवास करते हुये या गरुनोंसे विशिष्ट-भिन्न बासमें बसते हुये, सदा ही परद्रव्यप्रतिबंधोंको दूर करता हुअा श्रामण्यमें छेदविहीन होकर घमण वर्तो।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व माथायमें छिन्न संयमके प्रति संधानका विधान बताया गया था। अब इस माथामें बताया गया है कि साम्यभावके विनाशका प्रायतन होने के कारण परद्रव्यका प्रतिबन्धन दूर कर देना चाहिये ।
तथ्यप्रकाश--(१) सभी परद्रव्यप्रतिबन्ध समताभावके विनाशके आयतन हैं, क्योंकि परद्रव्योंसे सम्बन्ध बनानेसे उपयोग. मलिन हो जाता है। (२) परद्रव्यका सम्बन्ध हटा देनेसे श्रामण्यकी याने साम्यभावकी सिद्धि होती है । (३) श्रामण्यको निर्दोषताके लिये निश्चयसे सपने भापको अपने प्रात्मामें ही स्थापित करके शुद्ध वृत्तिसे रहना चाहिये । (४) श्रामण्य
।
BRAHANPURamah
।
IMWABD
Page #416
--------------------------------------------------------------------------
________________
४७२
सहजानन्दशास्त्रमालायां
त्वेन गुरूनधिकृत्य वासे वा गुरुभ्यो विशिष्टे वासे वा नित्यमेव प्रतिषेधयन् परद्रव्यप्रतिबन्धान श्रामध्ये छेदविहीनो भूत्वा श्रमणो वर्तताम् ॥२१३॥
वचन | विदु विहरतु आज्ञार्थी अन्य पुरुष एक क्रिया । व वाणिज्वं नित्यं अव्यय । भवीय भूत्वासम्बन्धप्रक्रिया कृदन्त अव्यय । णिबंधाणि निबन्धान् द्वितीया बहुवचन । निरुक्ति अधिवस्यते यत्रः । स अधिसः यस निवासे । समास-छेदेन विहीनः छेदविहीनः ॥२४३॥
साधक ग्रात्मनिवास के प्रयोजनसे गुरुकुलवास में, सत्संग में अथवा शुद्ध एकान्त में रहना चाहिये । (५) मुमुक्षुत्रों को ऐसी वृत्ति रखना चाहिये जिससे श्रामण्य में कुछ भी भंग न पड़े । ( ६ ) श्राarunt सिद्धिके लिये मुमुक्षु अपने श्रात्मामें ही विहार करे । ( ७ ) परद्रव्यका सम्बन्ध हटाने के लिये मुमुक्षु अन्यस्थानपर भी बिहार करे । (८) श्रमण गुरुके समीप बनकर सभक्ति शा स्वाध्ययन करे। ( ६ ) शास्त्राध्ययन करके गुरुको आज्ञासे अपने ही समान शोलवंत तपस्वी जनोंके साथ विहार करे । (१०) विहारकाल में भेदरत्नत्रय व प्रभेवरत्नवकी भावना व वृत्ति करे । ( ११ ) विहारकाल में तपश्चरण, शास्त्रमनन, श्रात्मबलप्रकाशन, एकत्वध्यान क संतोषवर्तनको वृत्ति रखे । (१२) विहारकाल में तीर्थंकर गणधर आदि महापुरुषोंकी चारित्रों का विचार बनाये रहे । (१३) विहारकाल में भव्य जीवोंको सदुपदेश देकर विशुद्ध श्रानन्दउत्पन्न कराता हुआ आत्मदृष्टिसे प्रसन्न (निर्मल) रहे । (१४) ग्रात्मविहारकी प्रमुखता से श्रामण्यसिद्धि बनाये रहने में कल्याण है । (१५) उपरागरहित उपयोगका स्वच्छ बना रहना ही वास्तव में श्रामण्य है ।
सिद्धान्त - ( १ ) उपाधिके परिहारसे आत्माको शुद्ध परिणति होती हैं । दृष्टि - १ - उपाध्यभावापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकतय (२४अ) ।
प्रयोग- श्रामण्यको सिद्धिके लिये अपना अपने आत्मामें अवस्थान बनाये रहना अत्यावश्यक हैं, एतदर्थ गुरुसत्संग में रहे, शुद्ध एकान्त में रहे व गुणभावनासहित विहार करे
॥२१३
व श्रामण्यकी परिपूर्णताका प्रायतन होनेसे स्वद्रव्य में ही सम्बन्ध करना योग्य है, ऐसा उपदेश करते हैं- [ नित्यं ] सदा [ ज्ञानदर्शनमुखे ] ज्ञानमें और दर्शनादिमें [ निबद्धः ] प्रतिबद्ध [च] तथा [ मूलगुणेषु प्रयतः ] मूल गुणों में प्रयत्नशील [ यः श्रमणः ] जो श्रमण [ चरति ] विचरण करता है, [सः ] वह [ परिपूर्णश्रामण्यः ] परिपूर्ण श्रामण्यवान है ।
तात्पर्य -- मूलगुणा चरण में प्रयत्नशील स्वरूपाभिमुख मुनि पूर्ण मुनित्वसंपन्न है. टीकार्य - एक स्वद्रव्यप्रतिबंध ही उपयोगका शोधक होनेसे, शुद्ध उपयोगरूप श्रामण्य
Page #417
--------------------------------------------------------------------------
________________
।
50
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका
प्रय श्रामण्यस्य परिपूर्णतायतनत्वात् स्वद्रव्य एवं प्रतिबन्धो विधेय इत्युपदिशति--
चरदि णिबद्धो णिच्चं समणो णाणम्मि दंसणमुहम्मि । पयदो मूलगुणोसु य जो सो पडिपुण्णासामण्णणो ॥२१४॥
दर्शनज्ञानस्वभावी, स्वद्रव्यप्रतिबद्ध शुद्ध वर्तक हो ।
मूलगुणमें प्रयत हो, विशुद्ध उपयोगधारक हो ॥२१४॥ चरतिः निबद्धो नित्यं श्रमणो ज्ञाने दर्शनमुखे । प्रयतो मूलगुणेषु च यः म परिपूर्णधामण्यः ।। २१४ ।।
एक एव हि स्व द्रव्यप्रतिबन्ध उपयोगमार्जकत्वेन माजितोपयोगरूपस्थ श्रामण्यस्य परिपूर्णतायतनं, तत्सद्भावदेिव परिपूर्ण थामण्यम् । अतो नित्यमेव ज्ञाने दर्शनादौ च प्रतिबद्धन मूलगणप्रयततया चरितव्यं ज्ञानदर्शन स्वभावशुद्धात्मद्रव्यप्रतिबद्धशुद्धास्तित्वमा वर्तितव्यमिति तात्पर्यम् ॥२१४।।
नामसंज्ञ-णिबद्ध रामण गिलं णाण सणमुह पयद मूलगुण य ज त पडिपुष्णसागण्ण । धातुसंज्ञ-चर गाली । प्रातिपदिक-निबद्ध नित्यं श्रमण ज्ञान दर्शन मुख प्रयत मूलगुण च यत् तत् परिपूर्णश्रामण्य 1 मूलमात--चर गत्यर्थः । उभयपदविवरण-घरदि चरति-दर्त० अन्य एका० श्रिया । णिवतो निबद्धः समणो घमणः पयदो प्रयत: जो यः सो सः पडिपुष्णसामण्यो परिपूर्णश्रामण्य-प्रथमा एकवचन । णिचं नित्यं य न-अव्यय 1 णाणम्हि ज्ञाने दंसणमुहम्मि दर्शनमुखे-सप्तमी एक० । मूलगुणेसु मूलगुणेषु-सप्तमी बहुवचन । निरुक्ति-नियमेन भवं नित्यं वि -- त्यम् । समास- परिपूर्ण श्रामण्यं यस्य तत् परिपूर्णश्रामण्यम्
KROMAN
MANESAX
की परिपूर्णताका आयतन है; उसके सद्भावसे ही परिपुर्ण श्रामण्य होता है । इसलिये सदा मानमें और दर्शनादिकमें प्रतिबद्ध रहकर मूल गुणीमें प्रयत्नशीलतासे विचरना, और ज्ञानदर्शनस्वभाव शुद्धात्मद्रव्य में प्रतिबद्ध-शुद्ध प्रस्तित्वमात्ररूपसे वर्तना, यह गाथाका तात्पर्य है।
प्रसंगविवरण-मनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया है कि श्रामण्यको निर्देषिताके लिये परद्रव्यों का सम्बन्ध हटाना चाहिये। अब इस गाथामें बताया गया है कि श्रामण्यका परिपूर्ण
प्रायत्तत होनेसे स्वद्रव्यमें हो उपयोग बनाये रहना चाहिये। ME तथ्यप्रकाश-(१) स्वसहजात्मस्वरूपके ही अभिमुख रहना ही श्रामण्यका परिपूर्ण
मायतन है । (२) स्वद्रव्य के अभिमुख रहना ही उपयोगको शुद्ध बनाता हैं । (३) वास्तवमें श्रामण्य उपयोगको निर्मल बनाना ही है । (४) स्वद्रव्यप्रतिबन्धसे ही परिपूर्ण श्रामण्य होता है। (५) परिपूर्ण श्रामपयकी सिद्धि के लिये सदा ही ज्ञानदर्शनस्वभाव शुद्धात्मतत्व में उपयुक्त रहना चाहिये।
सिद्धान्त-(१) शुद्ध अन्तस्तत्त्वकी भावनासे प्रात्मा निर्दोष होता है ।
RE
Page #418
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां
अथ श्रामण्यस्य छेदायतनत्वात् यतिजनासन्नः सूक्ष्मपरद्रव्यप्रतिबन्धोऽपि प्रतिषेध्य इत्युपदिशति
भत्ते वा खमणे वा श्रावसधे वा पुणो विहार वा । उवधिम्हि वा णिबद्ध णेच्छदि समणम्हि विकम्हि ॥२१५।। पाहारमें क्षपरणमें, वास विहार व शरीर' उपधीमें ।
मुनिगरग व कथावोंमें, श्रमरण नहीं दोष करता है ॥२१५१॥ भक्त या क्षपणे बा आवसथे वा पुनविहारे बा । उपधौ वा निबद्धं नेच्छति श्रमरणे विकथायाम् ।। २१५ ॥
श्रामण्यपर्यायसहकारिकारणाशरी रवृत्तिहेतुमात्रत्वेनादीयमाने भक्ते तथाबिधशरीरवृत्त्य
Islandscamasomaintainmensidonesiasmo
m wwwwwwwww
मामसंज-भत्त वा खमण वा आवमध वा पुणो विहार वा उवधि वा णिबद्ध प समण विकछ । धातुसंज्ञ.--इच्छ इच्छायां । प्रातिपदिक- भक्त में क्षमग बा आवराय वा पुनर् बिहार का उपधि वा निबद्ध नथमा दिकथा । मूलधातु-इषु इच्छायां । उमयपदविवरण-भत्ते भक्ते खमणे आपसे आक्सधे आव
""""""""""" "
mumm
दृष्टि-१-- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकन य (२४ब)।
प्रयोग-प्रानन्दधाम परिपूर्ण श्रामण्यकी सिद्धि के लिये निज शुद्धात्मभावनामें रत रहना चाहिये ॥२१४॥
अब मुनिजनके निकटका सूक्ष्मपरद्रध्यसंबंध भी, श्रामण्यके छेदका आयतन होनेसे निध्य है, ऐसा उपदेश करते हैं--- [भपते वा मुनि प्राहारमें, [क्षपणे बा] उपबासमें, [श्रावसथे वा] निवास स्थानमें, [पुनः विहारे] और विहारमें, [वा उपौ] अथवा देहादि उपाधि [श्रमाणे] अन्य मुनिमें [वा] अथवा [विकथायाम्] विकथामें [निबद्ध] लगाव संबंध [न इच्छति नहीं चाहता।
तात्पर्य-मुनिके सम्पर्क में किसी प्रकार जो कुछ सम्भव है उस परपदार्थ में लगाव नहीं रहता।
टीकार्थ- (१) श्रामण्य पर्यायके सहकारी कारणभूत शरीरको वृत्तिके हेतुमात्रपनेसे ग्रहण किये जाने वाले ग्राहारमें (२) श्रामण्यपर्यायके सहकारि कारणभूत शरीरकी वृत्ति के साथ विरोघरहित, शुद्धात्मद्रव्यमें नीरंग और निस्तरंग विश्रांतिकी रचनानुसार प्रवर्तमान अनशनमें (३) नोरंब और निस्तरंग-अन्तरंग द्रव्यको प्रसिद्धिके लिये सेव्यमान गिरोन्द्रकन्दरादिक निवासस्थान में, (४) यथोक्त शरीरको वृत्तिको कारणभून भिक्षाके लिये किये जाने वाले विहारकार्यमें, (५) श्रामण्यपर्यायका सहकारी कारण होनेसे जो हराया नहीं जा सक रहा ऐसे केवल देहमात्र परिग्रहमें, (६) मात्र अन्योन्य बोध्यबोधकरूपसे जिनका कथंचित् परिचय पाया जाता
HEARCH
i
aAnारापालन
tteethacHIRAMILARAMmmandanimaagymnainamings-em
KISisatisunMADHANUMARCenternam
-rwwstAImmir
Page #419
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशांगो टीका
४०५
RSS
Bi
MINS
ngasaHRIRAHNIYA
विरोधेन शुद्धात्मद्रव्यनीरंगनिस्त रंगविश्रान्तिसुत्रणानुसारेण प्रवर्तमाने क्षपणे नौरंगनिस्तरंगान्त. रंगद्रव्यप्रसिद्धयर्थमध्यास्यमाने गिरीन्द्रकन्दरप्रभृतावावसथे यथोक्तशरीरवृत्तिहेतुमार्गणार्थमारभ्यमाणे विहारकर्मणि श्रामण्यपर्यायसहकारिकारयत्वेनाप्रतिषिध्यमाने केवलदेहमा उपधी अन्योस्यबोध्यबोधकभावमात्रेण कथंचित्परिचिते श्रमणे शब्दपुद्गलोल्लाससंकलनकश्मलितचिद्धित्तिभागायो शुत्तात्मद्रव्यविरुद्धोयां कथायां चतेष्वपि तद्विकल्पाचित्रितचित्तभित्तितया प्रतिषेध्यः प्रतिबन्धः ॥२१५।। सये विहारे उवधिम्हि उपधौ समणम्हि श्रमरणे विकम्हि विकथायां-सप्तमी एकवचन । या ण न पुणों पुनः अव्यय । पिबद्धं निबद्धं-द्वितीया एक० 1 इन्छदि इच्छति-वर्तमान अन्य० एक० किया । निरुक्ति- आ वसनं यत्र तत् आवसथं बस + अथच, उपधानं उपधिः उप था। कि ।। २१५ ।। है ऐसे अन्य मुनिमें, और (७) शब्दरूप पुद्गलपर्यायके साथ सम्बन्धसे जिसमें चतन्यरूपी भित्तिका भाग मलिन होता है, ऐसी शुद्धातमद्रव्यमें विरुद्ध कथामें भी प्रतिबन्ध त्यागने योग्य है क्योंकि उनके विकल्पोंसे भी चित्तभूमि चित्रित हो जाती है।
प्रसंगविवरण-मनन्तरपूर्व गाथामें स्वद्रव्यप्रतिबन्धको परिपूर्ण श्रामण्यका प्रायतन बताया गया था । अब इस गाभ्यामें बताया गया है कि श्रमण किसी भी प्रसंगमें सुक्ष्म द्रव्यका प्रतिबंध दूर करे।
तथ्यप्रकाश-(१) प्रागमविरुद्ध आहार विहारादि तो मुनिके कभी होता ही नहीं है। (२) परिपूर्ण श्रामण्यकी सिद्धिके लिये श्रमणको प्रागमोक्त आहारविहारावासादिका भी विकल्प न रखना चाहिये । (३) श्रामण्य पर्यायके सहकारी कारणभूत शरीरका टिकाव बनाने के लिये शुद्ध प्राहार ग्रहण करना विधेय है । (४) श्रामण्यपर्यायका सहकारी कारणभूत शरीर को टिकाव जिससे न मिटे ऐसा वह उपवास विधेय है जो शुद्धात्मद्रव्यमें लीनता करानेका अनुसारी हो । (५) अविकार अन्तस्तत्वको सिद्धिके लिये पर्वत गुफा आदि निवास स्थानों में रहना विधेय है । (६) शुद्धात्मद्रव्यको साधना बनाये रहने के लिये किया जाने वाला प्रायोजतिक विहार विधेय है । (७) श्रामण्य पर्यायका सहकारी कारणभूत होनेसे केवल देहमात्र लपाधि अथवा दिगम्बर वेश प्रतिषिध्यमान नहीं है । (८) तत्त्व समझने व समझानेके लिये बमण जनोंका कथंचित परिचय करना सत्संग करना विधेय है । (६) विधेय कर्तव्योंमें भी प्रतिबन्ध लगाव) करना निषिद्ध है, क्योंकि उनके विकल्पोंसे उपयोग उपरक्त हो जाता है जिससे अन्तरङ्ग छेद हो जाता है। (१०) श्रमण जनोंको शुद्धात्मद्रव्यविरुद्ध विकथायें तो कभी पड़ना ही न चाहिये । (११) श्रमप श्रमणजनोंके निकट रहता हुआ भी सूक्ष्म परद्रय
ISEMIERamesmosareewwwsawan
..
samye
Page #420
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां
अथ को नाम छेद इत्युपदिशति
अपयत्ता वा चरिया सयणासण्ठाणचंकमादीसु । समगास्स सम्बकाले हिंसा सा संतत्तिय ति मदा ॥२१६॥
शयन प्रशन प्रासनमें, ठाण गमन आदिमें अयतवृत्ती ।
यदि हो मुनिके, तो फिर, संतत हिंसा उसे जानो ॥२१६॥ अप्रयता या चर्या शयनासनस्थानचङ ब्रमणादिसु । श्रमणस्य सर्वकाले हिंसा सा संततेति मता ।। २१६ ।।
अशुद्धोपयोगो हि छेद : शुद्धोपयोगरूपस्य श्रामण्यस्य छेदनात, तस्य हिंसनात् स एवं
नामसंज्ञ-अपयत्ता वा चरिया सयणासणठाणबंकमादि समण लब्बकाल हिंसा तं संतत्तिय इत्ति मदा । धातसंज-मन अवबोधने, हिस हिसायां । प्रातिपदिक... अप्रयत्ता वा चर्धा शयनासनस्थानचङ्कमणादि श्रमण सर्वकाल हिंसा तत् संतता इति मता । मूलधातु-हन हिंसागत्योः, मनु अवबोधने । उभयका भी प्रतिबन्ध (विकास सम्बन्ध) न करे ।
सिद्धान्त---उपाधिसम्बन्ध रखनेसे अशुद्ध परिणति होती है । दृष्टि------ उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकन य (२४) ।
प्रयोग -----आनन्दधाम साम्यभावकी सिद्धि के लिये परपदार्थ व परभाव में रंच भी प्रति बन्ध (लगाव) न करके सहजात्मस्वरूप में हो उपयोग रखने का पौरुष करना ॥२१॥
अब छेद क्या है यह उपदेश करते हैं—-[वा] अथवा [श्रमणस्य] श्रमणके [शय. नासनस्थानचंक्रमणादिषु] . शयन, प्रासन, स्थान, गमन इत्यादिमें या अप्रयता चर्या जो प्रप्रयत चयर्या है [सा] वह [सर्वकाले] सदा [संतता हिसा इति मता] सतत हिंसा मानो
KatihuigritisolomotivitiemifinarinduDSHIRIDHHICHAITRIRTomwimgeमाना
तात्पर्य- शयनादिकमें जो असावधानीकी चेष्टा है वह निरन्तर हिसा कही गई है।
टोकार्थ--शुद्धोपयोगरूप श्रामण्यका छेदन होनेसे वास्तव में अशुद्धोपयोग हो छेद है। और श्रामण्यका घात होनेसे अशुद्धोपयोग ही हिंसा है, इस कारण श्रमणके, अशुद्धोपयोगके । बिना नहीं होने वाली शयन-पासन-स्थान गमन इत्यादिमें अप्रयत चर्या है वह वास्तव में उसके । लिये सर्वकालमें (सदा) ही संतानवाहिनी हिंसा हो है, जो कि छेदसे अनन्यभूत है ।
__प्रसंगबिबरण----अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि श्रामण्यको निर्दोष रखनेके लिये सूक्ष्म परद्रव्य का भी प्रतिबन्ध (लगाव) दूर कर देना चाहिये । अब इस गाथामें बताया गया है कि श्रामण्यका छेद याने विनाश क्या है ?
तथ्यप्रकाश-(१) शयन आसन बिहार आदिमें असावधानीसे चर्या करना हिंसा है
elmmahomUHAGRAMIRSINCOMom
म रारामदारलार
Page #421
--------------------------------------------------------------------------
________________
SenInInanamAIKAARINAMAHARAMMARILAL...
....
-
----
a thummerthroin
.
Mar.....mar
Swave
Sway
Fors
. प्रवचनसार--सप्तदशाङ्गो टोका पाच हिंसा । अत: श्रमणस्याशुद्धोपयोगाविनाभाविनी शयनासनस्थानचंक्रमणादिष्वप्रयता या
याँ सा खलु तस्य सर्वकालमेव संतानवाहिनी छेदानान्तरभूता हिंसैव ।।२१६॥ पदविवरण-अपयत्ता अप्रयता चरिया चर्या हिंसा सा-प्र० एक० । अथणासमठाणचंकमादीसु शयनासनस्थानचङ मणादि-सप्तमी वह वचन । समणरस थमस्थ-बष्टी एकवचन । सव्वकाले-सप्तमी एकः |
यमंता-एक मदा मता--प्रथमा एकवचन कृदन्त क्रियानि इति वा-अव्यय । निरुक्ति चरणं चर्या चर- यत् । टाप, पुन: पुनः क्रमणं चङ क्रमगं ऋग+ ग्रङ+ ल्युट् क्रम पादविक्षेपे । समासशयन आसन स्थालं चंक्रमणं आदिः येषां से शयनासनस्थानचा क्रमणाध्यः तेषु श० ।।२१६॥ और यह संयमका छेद है । (२) असावधानीसे प्रवृत्ति करने में अशुभोपयोग बना रहता है जिससे लगातार हिंसा चलती है । (३) अप्रयत चर्या में भावहिंसा होनेसे अपनी हिंसा है, पर जीवका विधात संभव होनेसे परहिंसा भी है । (४) अप्रयत चर्या शुद्धोपयोग हुए बिना नहीं होती और अशुद्धोपयोग ही संयमका छेद है । (५) शुद्धोपयोग ही तो परम श्रामण्य है उसका भंग अशुद्धोपयोगसे होता है अतः अशुद्धोपयोग अन्तरङ्ग छेद है । (६) अशुद्धोपयोग में श्रामण्यका घात होता है अतः अशुद्धोपयोग हिंसा है । (७) बाह्य व्यापार रूप शत्रुयों को तो श्रमणने पहिले हो हटा दिया था । (८) जब शरीर साथ लगा है तब शयन प्रासन आहार विहार शुद्धात्मद्रव्यप्रसिद्धि के अविरुद्ध करना आवश्यक हो जाता है । (६) शयनासनादि
अनिवार्य कर्तव्यों में लगाव न रखना, कषाय न जगाना इस वृत्तिमें श्रामण्यका विघात न (होगा । (१०) संयमच्छेद न होनेसे आत्मविकासको प्रगति होती है ।
सिद्धान्त ----(१) निर्विकल्प सामायिक संयमका साधक समस्त परद्रव्योंके प्रतिबन्धका प्रतिषेध है।
दृष्टि-- १- प्रतिषेधक शुद्ध नय (४६) ।
प्रयोग–अन्तरङ्ग कषायशत्रुसे बचे रहनेके लिये परद्रव्यका प्रतिबन्ध (विकल्प) त्यागकर संक्लेशरहित होना ॥२१६।।
___ अब अन्तरंग और बहिरंग रूपसे छेदको द्विविधता बतलाते हैं- [जोवः] जीव प्रियतां वा जीवतु वा मरे या जिये, अयताचारस्य] अप्रयत प्राचार वालेके [हिंसा] हिंसा निश्चिता] निश्चित है, [समितस्य प्रयतस्य] शुद्धात्मस्वरूपके अभिमुख साधनामें यत्नशील
श्रमणके [हिंसामात्रेण] बहिरंग हिंसामात्रसे [बन्धः] बंध [नास्ति नहीं है । EIR तात्पर्य----प्रमत्तयोग न होनेसे श्रमणके हिंसापाप नहीं होता ।
टोकार्थ-अशुद्धोपयोग अंतरंग छेद है; परप्राणोंका घात बहिरंगछेद है । उनमें अंत. Em गछेद ही विशेष बलवान है, बहिरंगछेद नहीं; क्योंकि परप्राणोंके व्यपरोपका सद्भाव हो या EL सद्भाव, जो अशुद्धोपयोगके बिना नहीं होता ऐसे अप्रयत आचारसे प्रसिद्ध होने वाला अशु
Page #422
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां अथान्तरंगबहिरंगत्वेन छेदस्य द्वैविध्यमुपदिशति ---
मरदु व जियदु जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा। पयदस्स णत्थि बंधो हिंसामेत्तेण समिदस्स ॥ २१७ ॥
जीव मरे या जीवे, हिंसा निश्चित प्रयत्नवालेके ।
समितिसावधानीके, बन्धन होता न द्रव्य हिंसासे ॥२१७॥ नियतां वा जीवतु वा जीवोऽयताचारस्य निश्चिता हिंसा । प्रयत्तस्य नास्ति बन्धो हिंसामात्रेण समितस्य ।।
प्रशुद्धोपयोगोऽन्तरंग च्छेदः, परप्राणव्यपरोपो बहिरंगः । तत्र परप्राणव्यपरोपसद्भावे सदसद्धावे व तदविनोभाविनाप्रयताचारेण प्रसिघदशुद्धोपयोगसद्भावस्य सुनिश्चितहिंसाभा. बप्रसिद्धस्तथा तद्विनाभाविना प्रयताचारेण प्रसिद्धयदशुद्धोपयोगासद्भावपरस्य परप्राणव्यपरोपसद्भावेऽपि बन्धाप्रसिद्धचा सुनिश्चितहिंसाऽभावप्रसिद्धश्चान्तरंग एव छेदो बलीयान् न पुनर्वहि. रंगः । एवमप्यन्तरंगच्छेदायतनमात्रत्वाद्बहिरंगच्छेदोऽभ्युपगम्येतैव ॥२१७।।
नामसंज्ञ--व जीव अयदाचार णिच्छिदा हिंसा पयद ण बंध हिंसामेत्त समिद । धातुसंज्ञ- मर प्राणत्यागे, जीव प्राणधारणे, अस सत्तायां । प्रातिपदिकवा जीव अग्रता चार न हिंसा प्रयत न बन्ध हिंसामात्र समित । मुलधातु-मृ मरणे, जीव प्राणधारणे, अस् भुवि । उभयपदविवरण---मरदु नियतां जियदु जीवतु-आज्ञाथै अन्य पुरुष एक क्रिया । व वा ण न-अव्यय । जीवो जीवः णि पिछदा निश्चिता हिंसा बंधो बन्ध:-प्रथमा एक० । अथदाचारस्स अयताचारस्य पयदरस प्रयतस्य समिदरस समितस्य-षष्ठी एकवचन | हिंसामेत्तेण हिंसामात्रेण-तृतीया एकवचन । अस्थि अस्ति-वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । निरुक्ति-निःशेषेण धीयतेस्म या इति निश्चिता निर चि. ता॥२१७॥ दोपयोगका सद्भाव जिसके पाया जाता है उसके हिंसाके सद्भावकी प्रसिद्धि सुनिश्चित है; तथा जो अशुद्धोपयोगके बिना होता है ऐसे प्रयत प्राचारसे प्रसिद्ध होने वाला प्रशुद्धोपयोगका प्रसद्भाव जिसके पाया जाता है, उसके, परप्रारणोंके व्यपरोपके सद्भावमें भी बंधकी अप्रसिद्धि होनेसे हिंसाके अभावकी प्रसिद्धि सुनिश्चित है। ऐसा होनेपर भी बहिरंग छेद अंतरंगछेदका प्रायतनमात्र है, इस कारण बहिरंगछेदको स्वीकार तो करना ही चाहिये अर्थात् बहिरङ्ग छेद भी अनर्थकारी है ऐसा जानकर उसे भी दूर करना चाहिये।
प्रसंग विवरण-अनंतरपूर्व गाथामें छेदका स्वरूप कहा था । अब इस गाथामें छेदके दो प्रकार बताये गये हैं।
तथ्यप्रकाश----(१) संयमछेद दो प्रकारका है-.--१-- अन्तरङ्ग छेद व २- बहिरङ्ग छेद । (२) अशुद्धोपयोगको अन्तरङ्गछेद कहते हैं । (३) दूसरे जीवका विधात होना बहिरङ्ग छेद है । (४) दोनो प्रकारके छेदोंमें अन्तरङ्गछद ही बलिष्ट है । (५) असावधानीका पाच
Page #423
--------------------------------------------------------------------------
________________
Scre:
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका अथ सर्वयान्तरंगच्छेदः प्रतिषेध्य इत्युपदिशति--
अयदाचारो समणो चस्सु चि कायेसु बधकरो त्ति मदो। चरदि जदं जदि णिच्चं कमलं व जले णिरुबलेवो ॥२१॥
छह कायोंमें प्रयताचारी मुनि नित्य है कहा बन्धक ।
यत्मसहित चर्या हो, तो जलमें पद्मवत् निर्मल ॥२१॥ अयताचार: श्रमणः षट्स्वपि कायेषु वधकर इति मतः । चरयि यतं तदि नित्यं अमल मिव जले निरुप
लेपः ॥२१८ ।। यतस्तदविनाभाविना अप्रयताचारत्वेन प्रसिद्धचदशुद्धोपयोगसद्भावः षटकायप्राराव्यपरोपप्रत्ययबन्ध प्रसिद्धच्या हिंसक एव स्यात् । यतश्च तद्विनाभाविना प्रयताचारत्वेन प्रसिद्धयद
नामसंज्ञ--अयदाचार समण छबि काय वधकर ति मद जदं जदि णिचं कमल व जल णिरुवलेव । धातुसंज्ञ- चर गली, मग्न अवबोधने । प्रातिपदिक-अयताचार श्रमण षट् अपि काय बधकर इति रण अशुद्धोपयोग होनेपर होता है अत: अशुद्धोपयोग सुनिश्चित हिंसा है। (६) दूसरे जीबके प्राणोंका घात हो या न हो जहाँ प्रशुद्धोपयोग है जिसके बलपर हो असावधानीका आचरण होता है, वहाँ हिंसा निश्चित ही है । (७) जहाँ प्रशुद्धोपयोग नहीं है और साबधानीका श्राचरण हैं वहीं दूसरे जीवका कदाचित् प्राणव्यपरोप भी हो गया तो भी अहिंसा है। (८) महिंसाभावको पहचान यह है कि उस भाव में बन्ध नहीं होता । (६) अशुद्धोपयोग रूप अन्तरंग छेद स्वयं हिंसा है अनः अन्तरङ्ग छेद बलिष्ठ है । (१०) यद्यपि अन्तरंग छेद हो बलिष्ठ है तो भी अन्तरङ्ग छेदका प्रायतन होनेसे बहिरङ्ग छेद भी अनर्थकारी है।
सिद्धान्त-(१) अन्तरङ्ग छेद बलिष्ट होनेके कारण बहिरंग छेदसे विलक्षण है। दृष्टि---५- वैलक्षण्यनय (२०३)
प्रयोग-परमार्थ स्वास्थ्य में ही प्रात्महित जानकर अन्तरङ्ग छेद व बहिरङ्ग छेदका परिहार करना ॥२१७॥
अब सर्व प्रकारसे अन्तरंग छेद त्याज्य है, ऐसा उपदेश करते हैं- [प्रयताचारः अमन अप्रयत याचार वाला श्रमण [षट्सु अपि कायेषु] छहों काय सम्बंधी [बधकरः] वधका करने वाला है [इति मतः] ऐसा माना गया है। [यदि] यदि मुनि [नित्य ] सदा
यतं चरति] प्रयतरूपसे प्राचरण करे तो [जले कमलम् इव] जल में कमलको मांति [निह. पलेपः] निर्लेप कहा गया है।
तात्पर्य-अयत्नाचारी पुरुष छहों फायका हिंसक है, यत्नाचारी पुरुष जलमें कमल
मा
।
।
S
mameymRRitie
Page #424
--------------------------------------------------------------------------
________________
emman
४१०
सहजानन्दशास्त्रमालायां
शुद्धोपयोगास द्वाव: परप्रत्ययबन्धलेशस्याप्यभावाञ्जलदुर्ललितं कमलमिव निरुपले पत्वप्रसिद्धेरहिंसक एव स्यात् । ततस्तैस्तैः सर्वः प्रकारैरशुद्धोपयोगरूपोऽन्तरङ्गच्छेदः प्रतिषेध्यो यैस्तदायतनमात्रभूतः परप्राणव्यपरोपरूपो बहिरङ्गच्छेदो दूरादेव प्रतिषिद्धः स्यात् ॥ २१८६ ।।
मत यतं यदि नित्यं कमल इत्र जल विश्लेष। मूलधातु- चर गत्यर्थः, मनु अथबोधने । उभयपदविदरण - अयदाचारो अयताचारः समणो भ्रमण: बधकरो बधकरः णिरुवलेको निरुपलेपः प्रथमा एकवचन । छस्सु सु - सप्तमी बहुवचन । त्रि अपि त्ति इति जदि यदि व इव णिच्च नित्यं अध्यय । कायेसु कार्येषुस० ए० । मदो मतः- प्रथमा एकवचन कृदन्त क्रिया । चरदि चरति वर्त० अन्य० एक० क्रिया । जदं यतंक्रियाविशेषण यतं यथा स्यात्तथा कमलं - प्र० एक० जुलै-सप्तमा एक निरुक्ति- काजल अलति भूषयति इति कमले कम् + अ + अच् वधं करोति इति वधकरः || २१= ||
की तरह निर्लेप है ।
टीकार्थ -- चूंकि अशुद्धोपयोग के अविनाभावी अप्रयत आचारपनेसे प्रसिद्ध हो रहा है शुद्धोपयोगका सद्भाव जिसके वह वहकायके प्राणोंके व्यपरोपके आश्रयसे होने वाले बंधकी प्रसिद्धि होनेसे हिंसक ही है और चूँकि अशुद्धोपयोग के बिना होने वाले प्रयत प्राचारपने से प्रसिद्ध हो रहा है अशुद्धोपयोगका सद्भाव जिसके वह परके आश्रयसे होने वाले लेशमात्र भी ver भाव होनेसे जलमें भूलते हुये कमलको भांति निर्लेपत्यकी प्रसिद्धि होनेसे हिंसक हो है, इस कारण उन उन सर्वप्रकारसे अशुद्धोपयोगरूप अन्तरंग छेद त्यागने योग्य है, जिन-जिन प्रकारोंसे उसका श्रायतनमात्रभूत परप्राणव्यपरोपरूप बहिरंग छेद श्रत्यन्त निषिद्ध हो । प्रसंगविवरण – अनन्तरपूर्व गाथामें अन्तरङ्ग छेद व बहिरङ्ग छेदके भेदसे छेद दो प्रकारके कहे गये थे | अब इस गाथामें बताया गया है कि सर्व प्रकारसे ग्रन्तरङ्ग छेद स्थाज्य है ।
तथ्यप्रकाश - ( १ ) जहाँ प्रयत्नाचार है वहां शुद्धोपयोग अवश्य है । (२) प्रयत्नाचारमें किसी जीवका प्राव्यपरोप हुआ श्रोर वहाँ इस कारण बन्ध भी हुआ तो वहाँ वह शुद्धोपयोगी हिंसक ही है । (३) श्रशुद्धोपयोग के बिना हुए ourरोप नहीं होता व तत्प्रययक बन्ध भी नहीं होता अतः ही है । ( ४ ) जैसे जलमें भूलता हुआ कमल निर्लेप है, प्रवर्तने वाला श्रमण भी निर्लेप है । (५) जिन जिन समिति आदि उपायोंसे अन्तरंगछेदके पायतनभूत परत्राणविघातरूप बहिरंग छेद रंच भी न हो उन उन उपायोंसे प्रशुद्धोपयोगरूप अन्तरङ्ग छेदका परिहार कर देना चाहिये । (६) प्रविकार ग्रात्मतत्व के अनुभव की जहाँ भाग वना नहीं वहाँ सब प्रयत्नाचार है । (७) शुद्धात्मानुभवरूप शुद्धोपयोग में परिणम रहा
यत्नाचार में किसी जीवका प्राणशुद्धोपयोगरहित ग्रात्मा श्रहिंसक इसी प्रकार समिति में यत्नाचारसे
Page #425
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका अर्थकान्तिकान्तरंगच्छेदत्वादुपविस्तद्वत्प्रतिषेध्य इत्युपदिशति----
हवदि व ण हदि बंधों मदम्हि जीवेऽध कायचेठम्हि । बंधो धुवमुवधीदो इदि समणा चड्डिया सव्वं ॥ २१६ ॥
तनचेष्टाभव बधमें, विधिबन्धन हो न हो नियम नहिं है।
उपधिसे बन्ध निश्चित, इससे मुनि छोड़ देते सब ॥२१॥ भवति वा न भवति बधो मृते जीवेऽथ कायचेष्टायाम् । बन्धो ध्रुवमुपधेरिति श्रमणास्त्यक्तवन्तः सवम् ।।
यथा हि कायव्यापारपूर्वकस्य परप्राणव्यपरोपस्याशुद्धोपयोगसद्भावासद्भावाम्यामनका. न्तिकबन्धत्वेन छेदत्वभनेकान्तिकमिष्ट, न खलु तथोपधेः, तस्य सर्वथा तदविनाभावित्वप्रसि
नामसंज्ञव बंध मद जीव अध कायचे? बंध धुर्व उवधि इदि समण छाड्य मन्च । धातुसंजहब सत्तायां । प्रातिपदिक-वान बन्ध मत जीव अथ कायचेष्टा बन्ध ध्रुव उपधि इति श्रमण त्यक्तदन्त सर्व । मूलधातु... में सत्तायां । उभयपदविवरण-हदि भवति-वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया। श्रमण जन्तुव्याप्त लोकमें रहता विचारता हुअा भी अहिंसक है । (८) पूर्ण पुरुषार्थसे सहज शुद्ध परमात्मतत्त्वकी भावनामें ही उपयुक्त होना कल्याण है ।
सिद्धान्त---(१) अखण्ड अन्तस्तत्त्वकी अभेदोपासनाके बलसे अशुद्धोपयोगरूप अन्त. रन्तरङ्ग छेदका परिहार होता है।
दृष्टि-१- शुद्धनय, प्रतिषेधक शुद्धनय (४६, ४६अ)।
प्रयोग---सहजानन्दलाभके लिये मैं सहजज्ञानमात्र हूं ऐसे उपयोगके द्वारा अविकार झामस्वरूप अनुभव करते हुए अशुद्धोपयोगरूप अन्तरङ्ग छेदका प्रतिषेध करना 1॥२१॥
अब परिग्रहके ऐकान्तिक अन्तरंगछेदपना होनेसे उपधि अन्तरंग छेदकी भांति व्याज्य है. यह उपदेश करते हैं- [कायचेष्टायाम्] कायचेष्टामें [जोवे मृते] जीवके मरनेपर [बन्धः] बंध [भवति] होता है, [बा] अथवा [न भवति] नहीं होता, [अथ] किन्तु [उपधेः] परिग्रहसे [भ्रू वम् बंधः] निश्चित बंध होता है, [इति] ऐसा जानकर [श्रमरणाः] महामुनि अहंन्तदेवोंने [सर्व ] सर्वपरिग्रहको [त्यक्तवन्तः] पहिले ही छोड़ दिया है ।
तात्पर्य---द्रव्यहिंसा होनेपर बन्ध हो या न हो, विन्तु परिग्रहसे तो बंध नियमसे
...aamaarwwimaramamwranamammance
S
HMANCDA
टीकार्य---जैसे कायथ्यापारपूर्वक परप्राणव्यपरोपके अशुद्धोपयोगका सद्भाव और असद्भाव होनेके कारण अनेकांतिक बन्धरूप होनेसे छेदत्व अनेकांतिक माना गया है, वैसा परिग्रहके नहीं है । परिग्रहके सर्वथा अशुद्धोपयोगके साथ अविनाभावित्व होनेसे प्रसिद्ध होने
Page #426
--------------------------------------------------------------------------
________________
४१२
सहजानन्दशास्त्रमालायां
यदैकान्तिक शुद्धोपयोगसद्भावस्यैकान्तिकबन्धत्वेन छेदत्वमैकान्तिकमेव । अत एव भगवन्तो. ऽर्हन्तः परमाः श्रमरणाः स्वयमेव प्रागेव सर्वमेवोपधिं प्रतिषिद्धवन्तः । अत एव चापरैरप्यन्तरङ्गच्छेदवत्तदनान्तरीयकत्वात्प्रागेव सर्व एवोपधि प्रतिषेध्यः ॥ वक्तव्यमेव किल यत्तदशेषमुक्तमेarate यदि चेतयतेऽत्र कोऽपि । व्यामोहजालमतिदुस्तरमेव नूतं निश्चेतनस्य वचसामंतिविस्तरेऽपि ॥ १४॥ २१६ ॥
वान अ अ इदि इति-अव्यय । बंधो बन्धः - प्र० एक० । मदम्हि मृते जीवे कायचेट्टम्हि कायचेष्टाया सप्तमी एकवचन । धुवं ध्रुवं क्रियाविशेषण ध्रुवं यथा स्यात्तथा । उवधी दो उपधेः-पंचमी एक० । समणा श्रमणाः-प्रथमा बहु० । छड्डिया त्यक्तवन्तः - प्रथमा बहु० कृदन्त किया । सव्वं सर्व-द्वितीया एकवचन । निरुषित-ष्टनं चेष्टा वेष्ट चेष्टायां भ्वादि चेष्ट् + अ + टाप् । समास -कायस्य चेष्टा कायचेष्टा तस्यां ॥ २१६ ॥
वाले ऐकान्तिक शुद्धोपयोग के सद्भाव के कारण ऐकान्तिकरूप बंधरूप होनेसे छेदत्व ऐकान्तिक हो | इसीलिये भगवन्त र्हन्तोंने परम श्रमणोंने स्वयं ही पहले ही सभी परिग्रहको छोड़ा है और इसीलिये दूसरोंको भी, अन्तरंग छेदकी तरह प्रथम ही सभी परिग्रह छोड़ने योग्य है, क्योंकि परिग्रह अन्तरंगछेदके बिना नहीं होता ।
वक्तव्यमेव इत्यादि जो कहने योग्य ही था वह सब कह दिया गया है, इतने मात्र से ही यदि यहां कोई समझ ले तो ठीक है, अन्यथा वाणीका प्रतिविस्तार भी किया जाय तो Terrat aataोहका जाल वास्तव में अति दुस्तर ही है ।
प्रसङ्गविवरण - अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि सर्व प्रकारसे प्रन्तरङ्ग छेद प्रतिषेध्य है । अब इस गाथामें बताया गया है कि उपधि-परिग्रह नियमतः अन्तरङ्ग छेदपना होनेसे अन्तरंग छेदकी तरह त्यागने योग्य है ।
तथ्यप्रकाश - ( १ ) शरीरचेष्टापूर्वक हुआ परप्राविघात अशुद्धोपयोग के सद्भाव में भी संभव है और शुद्धोपयोग के प्रभाव में भी संभव है, श्रतः परत्राणविघात में बन्धका भी नियम नहीं व छेदपने का भी नियम नहीं रहा । ( २ ) परिग्रह अशुद्धोपयोग के सद्भाव बिना नहीं रखा जा सकता अतः परिग्रह रखने में बन्ध भी निश्चित है व अन्तरंग छेद भी निश्चित है । ( ३ ) परिग्रह में नियमसे बन्ध व अन्तरंग छेद निश्चित है, इसी कारण परम श्रमण पर हंत भगवानने स्वयं ही पहिले हो सब उपाधियोंका (परिग्रहों का त्याग कर दिया था । ( ४ ) इसी प्रकार अन्य मुमुक्षुजनों को भी अन्तरंग छेदका प्रतिषेध करनेकी तरह अन्तरंगछेद के अविनाभावी सर्व परिग्रहको पहिले ही प्रतिषेध्य है । (५) विवेकी पुरुषों को थोड़ी भी शिक्षावार्ता कहने से सब कुछ हितकारी बात कह लो ( गई समझना । ( ६ ) नासमझको तो कितना हो
Page #427
--------------------------------------------------------------------------
________________
११
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका अथान्तरङ्गच्छेदप्रतिषेध एवाय धिप्रतिषेध इत्युपदिशति----
ण हि शिरवेक्खो चागो गए हदि भिक्खुस्स यासयविसुद्धी। अविसुद्धस्स य चित्ते कहं णु कम्मक्खनो विहियो ॥२२० ॥
परत्याग बिना अन्तः, त्याग नहीं उसके भाव शुद्ध नहीं ।
अविशुद्ध चित्तमें फिर, कैसे हो कर्मका प्रक्षय ।। २२० ॥ न हि निरपेक्षस्त्यागो न भवति भिक्षोरामायविशुद्धिः । अविशुतस्य च चित्ते कथं नु कर्मक्षयो विहितः ।। व न खलु बाहिरंगसंगसद्भावे तुषसद्भावे तण्डुलगताशुद्धत्वस्येवाशुद्धोपयोगरूपस्यान्तरण च्छेदस्य प्रतिषेधस्तद्धा च न शुद्धोपयोगमूलस्य कैवल्यस्योपलम्भः । अतोऽशुद्धोपयोगरूपस्या
नामसंज्ञ-ण हि णिरवेक्ख चागण भिक्खु आसयविसुद्धि अविसुद्ध य चिन कहं गु कम्मक्खम विहिल । धातुसंज्ञ- हव सत्ताया। प्रा
- हव सत्तायां । प्रातिपदिक-महि निरपेक्ष त्याग न भिक्ष आशयविद्धि अविशद्धच चित्त कथं नु कर्मक्षय विहित । मलघात-भू सत्तायां। उभयपदविवरण- ण न हि घ च काहं कथं गु नुअव्यय । णिरवेक्खो निरपेक्षः चागो त्यागः आसविसुद्धी आशय विशुद्धिः कम्मक्खओ कर्मक्षय:-प्रथमा
TRUESHA
वचनोंका विस्तार किया जाय तो भी अतिदुस्तर व्यामोह जाल बना ही रहता है । (७) परिग्रहमें मूर्छारूप (ममतारूप) परिग्रहसे नियमतः तो कर्मबन्ध है और नियमतः अन्तरंग छेद है, अतः मुमुक्षुदोंको परिग्रहका त्याग अवश्य ही सर्वप्रथम कर देना चाहिये ।
सिद्धान्त-(१) उपाधिको अपेक्षामें नियमसे अन्तरंग छेद होता है । दृष्टि-१-- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४) ।
प्रयोग-परिग्रह होनेमें निश्चित अपना विघात है यह जानकर सर्व परिग्रहका त्याग कर अपनेको निसंग नोरंग निस्तरंग परिणमन में आने देनेका पौरुष करना ।।२१६॥
अब इस परिग्रहका निषेध अन्तरंग छ दका ही निषेध है, यह उपदेश करते हैं--- [निरपेक्षः त्यागः न हि] यदि निरपेक्ष त्याग न हो तो [भिक्षोः] भिक्षुके [प्राशयविशुद्धिः] भावकी विशुद्धि [न भवति नहीं होती; [च] और [चित्त अविशुद्धस्य] चित्तमें अविशुद्ध के [कर्मक्षयः] कर्मक्षय [कथं नु] कैसे [विहितः] हो सकता है ?
तात्पर्य- सापेक्ष अविशुद्ध उदय वाले श्रमणके कर्मक्षय नहीं होता।
टीकार्थ-छिलकेक सद्भावमें चावलोंमें पाई जाने वाली रक्ततारूप अशुद्ध ताका त्याग न होनेकी तरह बहिरंग संगके सद्भावमें प्रशुद्धोपयोगरूप अन्तरंगछेदका त्याग नहीं होता और अन्तरंग छदके सद्भावमें शुद्धोपयोगमुलक कैवल्यको उपलब्धि नहीं होती । इस कारण अशु. बोपयोगरूप अन्तरंग छदके निधरूप प्रयोजनकी अपेक्षा रखकर किया जाने वाला उपाधिका
ॐ
Page #428
--------------------------------------------------------------------------
________________
४१४
सहजानन्दशास्त्र मालायां
न्तरं गच्छेदस्य प्रतिषेधं प्रयोजनमपेक्षक्ष्योपधेविधीयमानः प्रतिषेधोऽन्तरं गच्छेदप्रतिषेध एव
स्यात् ॥ २२०॥
एकवचन | हवदि भवति व अन्य० एक० क्रिया । भिवखुस्स भिक्षोः अविसुद्धस्स अविशुद्धस्य षष्ठी एकवचन | चित्तं स० ए० । विहिओ विहितः प्रथमा एकवचन कृदन्त क्रिया निरुक्ति- आ शयनं आवयः शित्र निशाते स्वादि आशी + अत्रु, शीङ स्वप्ने वा चत्यते अनेन इति चित्तम् चिती संज्ञाने । समास - आशयस्य विशुद्धिः आशय विशुद्धिः, निर्गता अपेक्षा यस्मात् स निरपेक्षः कर्मणां क्षय: कर्मक्षयः ॥ २२० ॥
निषेध अन्तरंग छोदका ही निषेध है ।
प्रसंग विवरण --- अनन्तरपूर्व गाथामें होनेसे परिग्रह प्रतिषेध्य ही है । सब इस अन्तरङ्गः छोदका हो निषेध होता है ।
बताया गया था कि परिग्रह में अन्तरङ्ग छेद गाथामें बताया गया है कि परिग्रहका निषेध होना
तथ्यप्रकाश - ( १ ) बहिरङ्ग परिग्रह होनेपर अशुद्धोपयोगरूप अन्तरङ्ग छेदका प्रतिपेध नहीं हो पाता जैसे कि श्रान्यका छिलका लगा रहनेपर चावलको ललाईरूप प्रशुद्धताका प्रतिषेध नहीं हो पाता । (२) अशुद्धोपयोग रहनेपर कैवल्यकी उपलब्धि नहीं हो सकती । (३) कैवल्यको उपलब्धि शुद्धोपयोगसे ही होती है । ( ४ ) जो अशुद्धोपयोगरूप अन्तरङ्गछेद का परिहार करना चाहता है उसे परिग्रह ( उपधि) का त्याग करना अनिवार्य है । ( ५ ) उपधि (परिग्रह) का निश्चयतः प्रतिषेध अन्तरङ्गदका हो प्रतिषेध है । (६) भावशुद्धिपूर्वक बहिरंग परिग्रहका त्याग होनेपर ही अन्तरंग परिग्रहका त्याग संभव है । यदि निरपेक्ष त्याग नहीं है तो साधुके परिणामशुद्धि अविकारशुद्धात्मानुभूति नहीं हो सकती । (८) ख्याति लाभ पूजा आदिको इच्छासे बाह्यपरिग्रहका त्याग किया जानेपर तो प्राशय मिथ्यात्वका है और उसमें विकट पापबन्ध है । (६) जिन्होंने शुद्धात्मतत्त्वका ग्रहण नहीं किया वे पर व परभाव का ग्रहण करने में अपना महत्व समझते हैं ।
सिद्धान्त - ( १ ) उपाधिसापेक्ष पुरुषका परिणाम अशुद्ध रहता है व यह कर्मसे लिप्त होता है ।
दृष्टि - १ - उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय ( २४ ) |
प्रयोग - निराकुल अविकार सहज परमात्मतस्वकी अनुभूति बनाये रखने के लिये निरपेक्ष निर्ग्रन्थ होना ॥ २२० ॥
'उपधि ऐकान्तिक अन्तरंग छदपनेका विस्तारसे उपदेश करते हैं-- [तस्मिन् ] उपधिके सद्भावमें [तस्य ] उस भिक्षुके [मूर्च्छा]] मूर्छा, [ श्रारम्भ: ] प्रारम्भ [वा ] व
Page #429
--------------------------------------------------------------------------
________________
Monitoriasboutoi
m mun
LAM
प्रवचनसार--सप्तदशाङ्गी टीका
४१५ प्रथकान्तिकान्तरंगच्छेवत्वमुषविस्तरेणोपदिशति----
विध तम्हि णतिय मुच्छा ग्रारंभो वा असंजमो तस्स। तथ परदव्वम्भि रदो कधमप्पाग पसाधयदि ॥ २२१ ॥
परद्रव्यानरतके क्यों नहीं हो प्रारंभ मूर्छा असंयम ।
असदृष्टि वह कैसे, आत्माको सिद्धि कर सकता 1॥२२१॥ - कथं तस्मिन्नास्ति मुछा आरम्भो वा असंयमस्तस्य । तथा परद्रव्ये रतः कथमात्मानं प्रसाधयति १२२१॥
उपधिसद्भावे हि ममत्व परिणामलक्षणाया मुछायास्त द्विषयककर्मप्रकमपरिणामलक्षस्यारम्भस्य शुद्धात्मरूपहिसनपरिगामलक्षणस्यासंयमस्य बावश्यंभावित्वात्तथोपधिद्वितीयस्य परद्रव्यरतत्वेन शुद्धात्मद्रव्यप्रसाधकत्वाभावाच्च ऐकान्तिकारंगच्छेदत्वमुपधेरवधार्यत एव । इदमत्र तात्पर्यमेवंविधत्वमुपधेरवधार्य स सर्वथा संन्यस्तव्यः ।।२२१।।
aanweamLANAKAIRA
aarepren. minsooritywwwmumore KIRRIGAaminche
PRER
नामसकिन तण मूच्छा आरंभ वा असंजमत तध परदव्च रद कध अप्प । पान... अ सतायां प साह साधने । प्रातिपदिक-कथं तत् न मुच्छा आरम्भ वा असंयम तत् तथा परद्रव्य रत कथं आत्मतु.। मूलधातु--अस् भुवि, प माह साधने । उभयपदविवरण-विध कथं वा तव तथा ऋध कथंअध्यय । तम्हि तस्मिन् परदबम्मि' परद्रव्ये-सप्तमी एक अस्थि अस्ति पसाधयदि प्रसाधयति-वर्तमान अन्य एक क्रिया । मुच्छा मूळी आरंभी आरंभः असंजमो असंयमः रदो रत:-प्रथमा एकवचन । अण्णाणं आत्मान-द्वितीया एकवचन । निरुक्ति-मुच्छनं मुर्छा मुच्छ+ अच् + टाप मूर्च्छमोहमुच्छापयोः ।२२१॥
प्रसयमः] असंयम [कथं | कसे नास्ति नहीं है ? [तथा] तथा [परद्रव्ये रतः] परद्रव्य EM में लीन भिक्षु [आत्मानं] प्रात्माको [कथं] कैसे [प्रसाधयति साध सकता है ?
तात्पर्य-परिग्रहको होनेसे मच्छी प्रारम्भ व असंयम होता है तब परद्रव्यमें रत वह भिक्षु प्रात्मसाधना नहीं कर सकता।
टोकार्थ— निश्चित रूपसे उपधिक सद्भावमें ममत्वपरिणाम जिसका लक्षण है ऐसी मयी उपधि सम्बन्धी कर्मप्रक्रमका परिणाम जिसका लक्षण है ऐसा आरम्भ, अथवा शुद्धात्म. स्वरूपकी हिंसारूप परिणाम जिसका लक्षण है ऐसा असंयम अवश्यमेव होता ही है । तथा उपाधि जिसका द्वितीय हो उसके पर द्रव्यमें लीनता होनेके कारण शुद्धात्मद्रव्यको साधकताका प्रभाव होनेसे उपधिके ऐकान्तिक अन्तरंगछदपना निश्चित होता ही है । यहाँ यह तात्पर्य है कि उपधिका अन्तरंगछदपना निश्चित करके उसे सर्वधा छोड़ना चाहिये।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें उपधिप्रतिषेधको अन्तरंगच्छेदप्रतिषेध कहा गया या। अब इस गाथामें विस्तारपूर्वक उपधिको अन्तरंगच्छेद बताया गया है ।
bumnnaronmenisemetermirkammercumendation
Page #430
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२६
सहजानन्दशास्त्रमालायां
श्रथ कस्यचित्ववचित्कदाचित्कथंचित्कश्चिदुपधिरप्रतिषिद्धोऽप्यस्तीत्वपवादमुपदिशतिछेदो जेसा विज्जदि गहण विसग्गे सेवमाणस्स । समणो तेहि वट्टदु कालं खेत्तं वियाणित्ता ||२२२ ॥
दोष न जिससे होवे, ग्रहण विसर्जन प्रवृत्ति करनेमें । श्रम उसी विधि वर्ती, जानकर क्षेत्र काल यहां ॥२२२॥
छेदो येन न विद्यते ग्रहण विसर्गेषु सेवमानस्य । श्रमणस्तेनेह वर्ततां कालं क्षेत्र विज्ञाय ।। २२२ ।। श्रात्मद्रव्यस्य द्वितीयपुगलद्रव्याभावात्सर्वं एवोपधिः प्रतिषिद्ध इत्युत्सर्गः । श्रयं तु वि
नामसंज्ञ छ जण गणविसग्ग सेवमाण समण त इह काल खेत । धातुसंज्ञ --- वि जाण अवबोघने, विज्ञ सत्तायां वत्त वर्तने । प्रातिपदिक-छंद यत् न ग्रहणविसर्ग सेवमान भ्रमण तत् इह काल तथ्य प्रकाश -- ( १ ) जिसके परिग्रहका सद्भाव है उसके ममत्वपरिणाम रूप मूर्च्छा अवश्य है । (२) मूर्च्छा परिणाम निर्ममत्वचिच्च मत्कारमात्र शुद्धात्मतत्त्व के विरुद्ध भार है । (३) जिसके परिग्रह है उसके परिग्रहव्यवस्थासम्बन्धी आरम्भ होता है । ( ४ ) मन वचन कायको विविध चेष्टारूप प्रारम्भ निष्क्रियशुद्धात्मा के विरुद्ध भार है । ( ५ ) परिग्रह रखनेपर शुद्धात्मत्वका विघातरूप असंयम अवश्यंभावी है । ( ६ ) सपरिग्रह पुरुष परद्रव्य में रत होनेसे शुद्धात्मतत्वका साधक हो ही नहीं सकता 1 ( ७ ) सपरिग्रह के शुद्धात्मतत्त्वको विराधना होने से अन्तरंगच्छेद होना निश्चित ही है ।
सिद्धान्त - ( १ ) उपाधिसापेक्ष पुरुष निरन्तर अशुद्ध परिणामयुक्त होनेसे निजपरमामतत्त्वका घातक है ।
दृष्टि-- १- उपाघिसापेक्ष नित्य अशुद्ध पर्यायार्थिकनय ( ४० ) |
प्रयोग - परिग्रहको अनर्थकारी जानकर परिग्रहका सर्वथा त्याग करके एकत्वविभक्त सहजचिदानन्दस्वरूप प्रात्माको उपयोग में ग्रहण करना ॥२२१||
अब किसके कहीं कभी किसी प्रकार कोई उपधि अनिषिद्ध भी है' ऐसा अपवाद बतलाते हैं -- [ येन ] जिस उपकरणके द्वारा [सेवमानस्य ] उस उपकरणका सेवन करने वाले भिक्षुके [ग्रहविसर्गेषु ] ग्रहण विसर्जन में [ छेदः ] छ ेद [न विद्यते] नहीं होता [तेन] उस उपकरण के द्वारा [कालं क्षेत्रं विज्ञाय ] काल क्षेत्रको जानकर, [ इह ] इस लोक में [ श्रमरणः ] श्रमण [act] प्रवर्ते ।
तात्पर्य --- जिस उपकरण के रखनेसे मूर्च्छा प्रारम्भ व प्रसंयम न हो वह उपकरण रखा जा सकता है।
Page #431
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
४१७
शिष्टकाल क्षेत्र व शाकश्चिदप्रतिषिद्ध इत्यपवाद: । यदा हि श्रमणः सर्वोपथिप्रतिषेव पास्थाय परममुपेक्षासंयमं प्रतिपत्तुकामोऽपि विशिष्ट कालक्षेत्र वशावसन्नशक्ति प्रतिपत्तुं क्षमते तदापकृष्य संयमं प्रतिपद्यमानस्तद्बहिरङ्गसाधनमात्र मुपधिमातिष्ठते । स तु तथा स्थीयमानो न खरधिवच्छेदः प्रत्युत छेदप्रतिषेध एव । यः किलाशुद्धोपयोगाविनाभावी स छेदः । श्रयं तु श्रामण्यक्षेत्र मूलधातु-विद सनायां वृतु वर्तने, विज्ञा अवोचने । उभयपद विवरण- छेदो छेदः प्रथमा एक जय येन तेण तेन तृतीया एक ण न इह अव्यय । विज्जदि विद्यते वर्त० अन्य० एक० क्रिया । गहनविसरणेषु सप्तमी बहु० । सेवमाणस्स क्षेत्रमनस्यष्ठी एक० । समणी श्रमणः - प्रथमा ए० । बदु वर्तताम् - आज्ञार्थी अन्य एक किया। काल खेन क्षेत्र-द्वितीया एक वियाणित्ता विज्ञाय सम्ब टीकार्थ - श्रात्मद्रव्यके द्वितीय पुद्गलद्रव्यका अभाव होनेसे समस्त हो उपधि निषिद्ध है यह तो उत्सर्ग है; और विशिष्ट कालक्षेत्रके वश कोई उपधि अनिषिद्ध है यह अपवाद है । जब भ्रमण सर्व उपचि निषेधका प्रयोग कर परमोपेक्षा संयमको प्राप्त करनेका इच्छुक होने पर भी विशिष्ट काल क्षेत्रके वश हीन शक्ति वाला होनेसे उसे प्राप्त करनेमें असमर्थ होता है, तब उसमें होनता करके संयम प्राप्त करता हुआ उसको बहिरंग साधनमात्र उपधिका साश्रय लेता है। इस प्रकार जिसका आश्रय लिया जाता है ऐसी वह उपधि उपधिपन के कारण वास्तवमें छेदरूप नहीं हैं, प्रत्युत छेदकी निषेधरूप ही है । जो उपधि अशुद्धोपयोगके बिना नहीं होती वह छेद है । किन्तु संयमको वाह्यसाधनमात्रभूत उपधि तो श्रामण्यपर्यायी सहकारी arrena tant वृत्तिके हेतुभूत माहार-नोहारादिके ग्रहण-त्याग संबंधी छेदके निषेधार्थ ग्रहण की जानेसे सर्वधा शुद्धोपयोगका अविनाभूतपना होनेसे छेदके निषेधरूप ही है ।
प्रसंगfaar - प्रनन्तरपूर्व गाथामें सपरिग्रहताका अन्तरङ्गच्छेद बताया गया था । एब इस गाथा में बताया गया है कि "किसीके कहीं कभी कथंचित् कोई उपधि प्रप्रतिषिद्ध भी होती है" ऐसा अपवादोपदेश किया गया है ।
तथ्यप्रकाश - ( १ ) उत्सर्ग मार्ग (निर्विवाद स्पष्ट मार्ग) तो यही है कि समस्त उपधि का परिहार करना चाहिये, क्योंकि आत्माके स्वरूपमें पुद्गलादि दूसरा कुछ है ही नहीं । (२) जब कोई श्रमण उपेक्षासंयमका भाव रखकर भी उपेक्षासंघम पाने में समर्थ नहीं है तब संयमका साधक बाह्य साधन ग्रहण करता है यह अपवाद मार्ग है । ( ३ ) यहाँ अपवाद मार्गका अर्थ अतभंग नहीं है, किन्तु आगमोक्त विविसे उपकरण ग्रहण करना, समितिरूप प्रवृत्ति करना अपवाद मार्ग है । ( ४ ) उत्सर्गमार्ग में परम उपेक्षा है । ( 2 ) अपवादमार्ग में विषपूर्वक समिति आदिको प्रवृत्ति है । ( ६ ) ग्रागमोक्त प्रपवादमार्ग भी उसीका उचित होता है जो सर्वोपधि प्रतिषेधको प्रयोग कर परमोपेक्षासंयमको प्राप्त करनेका इच्छुक होनेपर भी
Page #432
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायो
पर्यायसहकारिकारशरोरवृत्तिहेतुभूताहारनिहारादिग्रहणविसर्जनविषयच्छेद प्रतिषेधार्थमुपादीयमानः सर्बथा शुद्धोपयोगाविनाभूतत्वाच्छेदप्रतिषेध एवं स्थात् ॥२२२॥ न्धार्थप्रक्रिया अव्यय कृदंत । निरुक्ति-क्षियनं यत्र तत् क्षेत्र क्षियति प्राणी यत्र तत् क्षेत्रं क्षि गतो तुदादि क्षि निवासगत्यो: तुदादि क्षि+अन् । समास-ग्रहणानि विसर्गाश्चेति ग्रहणविसर्गाः तेषु ग्रहणविरागषु ।।२२२।। विशिष्ट काल क्षेत्रके वश हीन शक्ति वाला होने से परमोपेक्षासंयममें नहीं रह सक रहा है। (७) संयमसहकारी उपधिका पाश्रय लेना छेद नहीं, बल्कि छेदप्रतिषेध ही है। (८) जो उपधि अर्थात् ग्रहण व प्रवृत्ति प्रशुद्धोपयोगके बिना नहीं होती वही उपधि छेद अर्थात संयमघातरूप है । (E) श्रामण्यपर्यायके सहकारी कारणभूत शरीरके टिकावके लिये व परिणामों को विशुद्धिके लिये व हिंसाके परिहारके लिये जिन उपधियों के ग्रहण व छोड़ने में संयमविघात न हो, अपवादमार्गमें उनका क्षेत्र कालानुसार प्रयोग करना बताया गया है । (१०) कौनसी प्रवृत्ति प्रागमोक्त विधेय अपवादमार्ग है उसका निर्देश समितियों में किया गया है । (११) वही पदार्थ प्रागमोक्त उपादेय उपकरण हो सकता है जो संयम, शुद्धि व ज्ञानका साधन हो, बह है पीछी, कमंडल व शास्त्र । (१२) जिसके बिना प्रात्मप्रगति नहीं वह व्यवहार भी उपकरण है, वह है—यथाजातरूप लिङ्ग, गुरुबचन, शास्त्राध्ययन व विनय ।
सिद्धान्त--(१) उपेक्षासंयम व परिहारसंयमसे साधकको साधना बनती है। दृष्टि-----१-- क्रियानय, ज्ञाननय (१९३, १६४)।
प्रयोग- परिस्थितिवश प्रागमोपदिष्ट अपवादमार्गसे वृत्ति करते हुए भी उत्सर्गमार्गसे वर्तनेको उमंग रखकर सहजात्मस्वरूप लक्ष्यको दृष्टिमें रखना ।।२२२।।
अब जिसका निषेध नहीं किया गया उस उपधिका स्वरूप कहते हैं- [यद्यपि अल्पम् ] भले ही अल्पको ग्रहण करे तो भी [अप्रतिष्टम् ] अनिन्दित [असंयतजनः अप्रार्यनीयं] असंयतजनोंसे अप्रार्थनीय [मूर्छादिजननरहितं] मूर्छादिजननरहित [उपधि] उपधि को हो [श्रमरपः] श्रमण [गृह्णातु] ग्रहण करे ।
तात्पर्य ---निश्चयमोक्षमार्गकी पात्रता रखने वाले व्यवहारमोक्षमार्गके साधनभूत उपकरण ही मुनि रख सकता, अन्य कुछ नहीं । : टोकार्थ----जो ही उपधि सर्वथा बंधकी असाधक होनेसे अनिदित है, संयमके अतिरिक्त अन्यत्र अनुचित होनेसे असंयतजनों के द्वारा अप्रार्थनीय है, और रागादिपरिणामके बिना धारण की जानेसे मूर्छादिके उत्पादनसे रहित है, वह वास्तव में अनिषिद्ध है । अतः यथोक्त स्वरूप वाली उपधि ही उपादेय है, किन्तु किंचित्मात्र भी यथोक्त स्वरूपसे विपरीत स्वरूप वाली उपधि उपादेय नहीं है।
SOAMIRMAN
Page #433
--------------------------------------------------------------------------
________________
४१६
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका प्रथाप्रतिषिद्धोपधिस्वरूपमुपदिशति
अप्पडिकुट्ट उवधि अपत्थणिज असंजदजगोहिं । मुच्छादिजणणारहिदं गेण्हदु ममणो जदि वि अप्पं ॥२२३॥
साधु बन्धसाधन, प्रयतोंके अनभिलषित व अनिन्दित ।
मूर्छादिजननविरहित अल्पोपधि उपकरण धारे ॥२२३।। E अप्रतिक ष्टमुपधिमप्रार्थनीयमसंयतजनैः । मूर्छादिजननरहितं गृह्णातु श्रमणो यद्यप्यल्पम् ।। २२३ ।।
यः किलोषधिः सर्वथा बन्धासाधकत्वादप्रतिक्रुष्टः संयमादन्यत्रानुचितत्वादसंयतजनाप्राधनी यो रागादिपरिणाममन्तरेण धार्यमाणत्वान्मू दिजननरहितश्च भवति स खल्वप्रतिषिद्धः । । प्रतो यथोदितस्वरूप एवोपधिरुपादेयो न पुनरल्पोऽपि यथोदितविपर्यस्तस्वरूपः ॥२२३॥
नामसंज्ञ.....अपडिकुट्ट उवधि अपत्थणिज्ज असंजद जण मुच्छादिजणण रहिद समण जदि दि अप्प । पातुसंज्ञ----गिण्ह ग्रहो । प्रातिपदिक....-अप्रतिकष्ट उपधि अप्रार्थनीय असंयतजन भुर्छादिजननरहित श्रमण यदि अपि अल्प । मूलधातु-ग्रह उपादाने । उभयपदविवरण--अप्पडिकुटु अप्रतिकुष्टं उधि वधि अपत्थणिज्जं अप्रार्थनीयं मुच्छादिजणणरहिदं सूदिजननरहितं अप अल्प--द्वितीया एकवचन । असंजदजयहिं बसंयतजन:-तृतीया बहुवचन । रामणो भ्रमण:-प्रथमा एकवचन । जदि यदि वि अपि-~ अन्यय । गेहदु गृल्लातु-आज्ञार्थे अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । निरुक्ति-अऋ क्षत् इति कष्टं कुश आह्वाने रोदने च कुश+क्त अ प्रति उपसर्ग । समास-असंयताश्च ते जनाश्चेति असंयत जनाः, भुच्छ दीनां जनन तेन रहितस्तं मुर्छादिजननरहितं ।।२२३।।
प्रसङविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें अप्रतिषिद्ध उपधिका निर्देश किया गया था। । अब इस गाथामें अप्रतिषिद्ध उपधिका स्वरूप बताया गया है ।
तथ्यप्रकाश---(१) जो बन्धका साधक न हो, जिसकी असंयमी जन इच्छा न करे, जो रागादि परिणामके बिना रखा जा सकता हो वह उपकरण अप्रतिषिद्ध है । (२) जो बंध का साधक हो ऐसा थोड़ा भी कुछ पदार्थ संयमीजनके ग्रहणके योग्य नहीं है । (३) असंयमी जन जिसको उठा लेनेका भाव कर सके वह पदार्थ संयमी जनके ग्रहण के योग्य नहीं है । (४) जिसके रखनेसे रागादि परिणाम हो सके वह पदार्थ संयमी जनके ग्रहणके योग्य नहीं है। T) संयमी पुरुष वे हैं जिनके अविकारसहजज्ञायकस्वरूप स्वको उपलब्धिरूप भावसंयम हो।
सिद्धान्स--(१) उपकरणका प्रयोग करने वाले श्रमणके 'परको लेने, करने आदिकी मशक्यताको प्रतीति" निरन्तर है।
दृष्टि-१- प्रतिषेधक शुद्धनय (४६) । प्रयोग-विशुद्ध चर्या करते हुए भी निष्क्रिय निरपेक्ष सहजात्मस्वरूपकी प्रतीति व
STAR
स
Page #434
--------------------------------------------------------------------------
________________
"
४२०
सहजानन्दशास्त्रमालायां प्रथोत्सर्ग एवं वस्तुधर्मो न पुनरपवाद इत्युपदिशति---
किंकिंचण त्ति तक अपुणभवकामिणोध देहे वि । संग ति जिणवरिंदा णिप्पडिकम्मत्तमुद्दिट्ठा ॥२२४॥
मोक्षषी प्रात्माको, देहसंग भी उपेक्ष्य बतलाया।
इतर संग तो हेय हि, यों अप्रतिकर्मत्व जानो ॥२२४॥ किकिचनमिति तर्क: अपुनर्भवकामिनोऽथ देहेऽपि । संग इति जिनवरेन्द्रा निःप्रतिकर्मत्वमुद्दिष्टवन्तः ।२२४॥
अत्र श्रामण्यपर्यायसहकारिकारणत्वेनाप्रतिषिध्यमानेऽत्यन्तमुपात्तदेहेऽपि परद्रव्यत्वात्परिग्रहोऽयं न नामानुग्रहाहः किंतूपेक्ष्य एवेत्यप्रतिकर्मत्वमुपदिष्टवन्तो भगवन्तोऽहंदेवाः । अथ ..... नामसंज्ञ-किकिरण ति तक्क अपुणन्भवकामि अध देह वि संग त्ति जिणवरिद णिप्पडिकम्मत्त उद्दिछ । धातुसंज्ञ--तक्क त द्वितीयगणी। प्रातिपदिक---किकिचन इति तक अपुनर्भवकामिन् अथ देह अपि संग इति जिनवरेन्द्र निःप्रतिकर्मन्व उद्दिष्टवत् । मूलधातु-तर्क तर्कणे। उभयपदविवरण-कि किंचणं किंकिंचनं--प्रथमा एक०। ति इति वि अपि अध अथ-अव्यय । तक्कं तक:-प्र० ए० । अपूणभवकामिणो अपुनर्भवकामिन:--षष्ठी एक । देहे-सप्तमी एक० । संगो संग:-प्र० ए० । जिणवरिंदा जिनवरेदृष्टि रखना ॥२२३॥
___ अब 'उत्सर्ग ही वस्तुधर्म है, अपवाद नहीं यह बतलाते हैं ---- [अथ] जब कि [जिनवरेन्द्राः] जिनवरेन्द्रोंने [अपुनर्भवकामिनः] मोक्षाभिलाषोके, [देहे अपि] देहके विषय में भी [संगः इति] 'यह परिग्रह है' यह कहकर [निःप्रतिकर्मत्वम् ] देहमें संस्काररहितपना (उद्दिष्टवन्तः] उपदेशा है, तब [किं किंचनम् इति तर्कः] फिर मोक्षाभिलाषीके क्या अन्य कुछ भी हो सकता है ? इस प्रकार तर्क होता है । - तात्पर्य----मोक्षाभिलाषीको जन्म देह भी परिग्रह बंधन लगता है तब अन्यको तो चर्चा हो क्या ।
टीकार्थ- यहाँ, श्रामण्यपर्यायका सहकारी कारण होनेसे जिसका निषेध नहीं किया जा रहा है ऐसे अत्यन्त उपात्त शरीरमें भी, 'यह परद्रव्य होनेसे परिग्रह है, वास्तवमें यह अनुग्रहयोग्य नहीं, किन्तु उपेक्षा योग्य हो है ऐसा बताकर भगवन्त अर्हन्त देवोंने अप्रतिकर्मत्व कहा है, तब फिर वहाँ शुद्धात्मतत्त्वोपलब्धिकी संभावनाके रसिक पुरुषोंके शेष—अन्य अनु. पात्त परिग्रह बेचारा कैसे हो सकता है ? --ऐसा अर्हन्त देवोंका भाव व्यक्त ही है। इससे निश्चित होता है कि उत्सर्ग ही वस्तुधर्म है, अपवाद नहीं । तात्पर्य यह है कि वस्तुधर्म होने से परम निग्रंथत्व ही अवलम्बने योग्य है ।
Recene
Page #435
--------------------------------------------------------------------------
________________
200SATAvwwwAAAAmmon manarwasammatwwwwwwwam
Mana
PREE
-
mithammammelam
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका तत्र शुद्धात्मतत्त्वोपलम्भसंभावनरसिकस्य पुसः शेषोऽन्योऽनुशात्तः परिग्रहों वराक: किं नाम स्यादिति व्यक्त एव हि तेषामाकूतः । अतोऽवधार्यते उत्सर्ग एव वस्तुधर्मो न पुन रपवादः । इदमत्र तात्पर्य वस्तुधर्मत्वात्परमनन्थ्यमेवावलम्ब्यम् ॥२२४॥ न्द्रा:-प्रथमा बहुवचन । णिपडिकम्मत्तं निःप्रतिकर्मत्वं-द्वितीया एकवचन । उद्दिद्दा उद्दिष्टवन्त:-प्रथमा बहुवचन क्रिया। निरुक्ति ... सणं तर्क: तर्क-- अन् तर्क तकरणे चुरादि, दिह्यते उपचीयते यः स देहः दिह + धन दिह उपचये अदादि । समास--जिनेषु दराः जिनवराः तेषां इन्द्राः जिनवरेन्द्राः ।।२२४.....
प्रसंगविवरण... अनंतरपूर्व गाथामें अप्रतिषिद्ध उपाधिका स्वरूप बताया गया था। जब इस माथामें बताया गया है कि परमार्थतः उत्सर्ग ही वास्तविक धर्म है अपवाद नहीं ।
तथ्यप्रकाश-(१) यद्यपि श्रामण्यपर्यायका सहकारी कारण है यह अत्यंत मिला हुआ देह, तथापि है तो परद्रव्य हो, अतः यह देह उपधि अनुग्रहके योग्य नहीं, किन्तु उपेक्षगीय ही है । (२) जब अत्यंत मिला हुमा द्रव्यलिङ्ग वाला देह भी उपेक्ष्य है तब अन्य पृयक् प्रवस्थित पदार्थ शुद्धात्मतत्वोपलब्धिरसिक पुरुषोंको अनुग्रहके योग्य कैसे हो सकते हैं । (३) उत्सर्ग हो पात्मवस्तुका परम धर्म है, अपवाद नहीं, अतः शुद्धोपयोगरूप परमोपेक्षासंयमके बलसे परमनिग्रंन्यता हो आश्रय है ।
सिद्धान्त--(१) सहजात्मस्वरूपके अनुरूप उपयोग हो कल्याणकारी है । Imat . दृष्टि ----- १-- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकानय, परमभावग्राहक द्रव्याथिकनय, शुद्ध परमपारिणामिकभावग्राहक द्रव्याथिकनय (२४ब, ३०, ३० प्र)।
प्रयोग-व्यवहारधर्मसे अपनेको सुरक्षित सुपात्र बनाकर परमनन्थ्यरूप अभेदरलमय निश्चयधर्म से परिणत होनेका पौरुष होने देना ॥२२४।।
___ अब अपवादविशेष कौनसे हैं, सो कहते हैं----[जिनमार्गे] जिनमार्गमें [यथाजातरूपं लिग] यथाजातरूप लिंग [उपकरणं इति भरिणतम्] उपकरण है ऐसा कहा गया है, [च] तथा [गुरुवचनं ] गुरुका वचन, [सूत्राध्ययनं च] सूत्रोंका अध्ययन [च] और [विनयः अपि विनय भी [निर्दिष्टम्] उपकारण कहा गया है।
तात्पर्य--निर्ग्रन्य लिङ्ग, गुरुवचन, सूत्राध्ययन व विनय भी जनमार्गमें उपकरण महा गया है।
टीकार्थ- इसमें जो अनिषिद्ध उपधि अपवादरूप है, वह सभी वास्तवमें श्रामण्यपर्यायके सहकारी कारणके रूपमें उपकार करने वाला होनेसे उपकरणभूत है, दूसरा नहीं । उसके विशेष (१) सर्व प्राहार्यरहित सहजरूपसे अपेक्षित यथाजातरूपत्व के कारण बहिरंग
wwwNMommenternetsmameenawwaamwwwwwwwwww
.... "
ma
Swallectiotes
2100
AIMER
wwwindstandhanmuthunman.
Page #436
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२२
सहजानन्दशास्त्रमालाया प्रय केऽपवादविशेषा इत्युपदिशति--
उचयरणं जिणमग्गे लिंगं जहजादरूवमिदि भणिदं । गुरुवयणं पि य विणश्रो सुत्तज्झयणं च णि द्दिटें ॥२२५॥
जिनमार्गमें उपकरण, लिङ्ग यथाजातरूप बतलाया ।
गुरुवचन, विनय सूत्रों का अध्ययन भि कहा प्रभुने ।२२५॥ उपकरणं जिनमार्ग लिङ्ग यथाजातरूपमिति भणितम् । गुरुवचनमपि च विनयः सूत्राध्ययनं च निर्दिष्टम् ।
यो हि नामाप्रतिषिद्धोऽस्मिन्नुएघिरपवादः स खलु निखिलोऽपि श्रामण्यपर्यायसहकारि. कारणत्वेनोपकारकारकत्वादुपकरणभूत एवं न पुनरन्यः । तस्य तु विशेषा सर्वाहार्यवजित्तसहजरूपापेक्षितयथाजातरूपत्वेन बहिरंगलिंगभूताः कायपुद्गलाः श्रूयमागतत्काल बोधकगुरुगीर्यमाणात्मतत्त्वद्योतकसिद्धोपदेशवचनपुद्गलास्तथाधीयमाननित्यबोधकानादिनिधनशुद्धात्मतत्त्वद्योतनस.
नामसंज-उवयरण जिणमग्ग लिंग बहादरूव इदि भणिद गुरुवयण पि य विम सुत्तज्झयण च गिद्दिट्ट । धातुसंज्ञ- भण कथने । प्रातिपदिक-उपकरण जिनमार्ग लिङ्ग यथाजातरूप इति भणित गुरुवचन अपि च विनय सूत्राध्ययन च निदिष्ट । मूलधातु-~मण शब्दार्थः। उभयपदविवरण- उवयरणं लिंगभूत कायपुद्गल; (२) सुने जा रहे तत्कालबोधक, गुरुद्वारा कहे जा रहे प्रात्मतत्त्वन्धोतक, सिद्ध उपदेशरूप वचनपुद्गल; तथा (३) अध्ययन किये जा रहे नित्यबोधक, अनादिनिधन शुद्ध प्रात्मतत्वको प्रकाशित करने में समर्थ श्रुतज्ञानके साधनभूत शब्दात्मक सूत्रपुद्गल; और (४) शुद्ध प्रात्मतत्त्वका प्रकाशन करनेमें समर्थ जो दर्शनादिक पर्याये, उन रूपसे परिणमित पुरुषके प्रति विनीतताका अभिप्राय प्रवर्तित करने वाले चित्र पुद्गल । यहाँ यह तात्पर्य है कि कायकी भांति वचन और मन भी वस्तुधर्म नहीं है ।
प्रसङ्गविवरण----अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि उत्सर्ग हो वस्तुधर्म है, अपवाद नहीं । अब इस गाथामें बताया गया है कि वे अपवादविशेष कौन कौन हैं जो विधेय होनेपर भी वस्तुधर्म नहीं है ।
तथ्यप्रकाश.---१- जो श्रामण्यपर्यायका सहकारी कारण होनेसे उपकारक उपकरण है वही सब अप्रतिषिद्ध उपधिअपवादमागमें कहा गया है। (२) धामण्यपर्यायको सहकारिता के विरुद्ध, अनुपकारक अन्य कुछ भी पदार्थ अप्रतिषिद्ध उपकरण नहीं कहलाता । (३) सर्व परवस्तुरहित दंगंबरी मुद्रासे युक्त शरीर उपकरण है । ४- शुद्धात्मतत्त्वके द्योतक गुरुवचन उपकरण हैं । ५- अनादिनिधन सहजात्मस्वरूपके द्योतनमें समर्थ श्रुतज्ञान के साधनीभूत शन्दात्मकसूत्रपुद्गल अर्थात् शास्त्राध्ययन उपकरण है । ६- शुद्धात्मतत्वको प्रकट करने वाले
Page #437
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका
४२३
मर्थ श्रुतज्ञानसाधनीभूतशब्दात्मकसूत्रपुद्गलाश्च शुद्धात्मतत्त्वव्यञ्जकदर्शनादिपर्यायतत्परिणत. पुरुषविनीतताभिप्रायप्रवर्तकचित्त पुलाश्च भवन्ति । इदमत्र तात्पर्य, कायवद्वचनमनसी अपि न वस्तुधर्मः ॥२२॥ उपकरणं लिंग लिङ्ग जहजादरूवं यथाजासरूपं गुरुवयणं गुरुवचन विणओ विनयः सुत्तज्झयणं सूत्राध्यमन-प्रथमा एकवचन । जिणमागे जिनमार्ग-सप्तमी एकवचन । भणिदं भणितं णिहिट निर्दिष्टं-प्रथमा एकवचन कृदन्त किया। जिक्ति -मृग्यते येन स मार्ग: मार्ग +ध मार्ग अन्वेषणे, सूत्र्यते यत् तत् सूत्र सूत्र वेष्टने । समास-गुरोः वचनं गुरुवचनं, सूत्रस्य अध्ययनं सूत्राध्ययनं ।।१२।। सम्यक्त्वादिपर्यायोंसे परिणत पुरुषों के प्रति विनम्रताके अभिप्रायमें प्रवर्तने वाले चित्तपुद्गल अर्थात् विनय उपकरण है । ७- उक्त सब उपकरण श्रामण्य पर्यायके सहकारी कारण होनेसे उपकारक हैं व अप्रतिषिद्ध हैं तथापि ये सब काय वचन व मन ही तो हैं, अत। वस्तुधर्म नहीं हैं। ८- काय स्पष्ट रूपसे वस्तुधर्म नहीं है, इसी प्रकार वचन व मन भी वस्तुधर्म नहीं है ।
सिद्धान्त ---(१) अखण्ड शाश्वत सहज चैतन्यस्वभावमात्र आत्माका दर्शन, प्रत्यय, मनुभन निरन्तर बना रहना हो वास्तविक परमार्थ धर्मपालन है।
दृष्टि--- १- अखण्ड परमशुद्धनिश्चयनय, अखण्ड परम शुद्ध सद्भूत व्यवहार (४४,
newwwwwween-samrwomame
Camwww
AR-53
प्रयोग--मनवचनकायसम्बन्धी उपकरणोंसे श्रामण्यपर्यायको शुद्धताके लिये सहयोग लेकर मन वचन कायको वस्तुधर्म न जानकर उनकी परम उपेक्षा द्वारा सहजात्मस्वरूपमें उप। युक्त होना ॥२२॥
अब अनिषिद्ध शरीर मात्र उपधिके पालनके विधानका उपदेश करते हैं-- [इहलोक निरपेक्षः] इस लोकमें निरपेक्ष और [परस्मिन् लोके] परलोकमें [अप्रतिबद्धः] अप्रतिबद्ध
[श्रमणः] श्रमण [रहितकषायः] कषायरहित होता हुआ [युक्ताहारविहारः भवेत्] युक्ताहारo विहारी होता है।
तात्पर्य लोकपरलोकविषयक अभिलाषासे रहित श्रमण युक्ताहारविहारी होता है । FM टोकार्थ---अनादिनिधन एकरूप शुद्ध प्रात्मतस्वमें परिणतपना होनेसे समस्त कर्मपुद्
गलके विपाकसे अत्यन्त विविक्त स्वभाव युक्तपना होनेके कारण कषायरहित होनेसे, वर्तमान o कालमें मनुष्यत्व के होते हुये भी स्वयं समस्त मनुष्यव्यवहारसे बहिर्भत होनेके कारण इस
लोकके प्रति निरपेक्षता होनेसे तथा भविष्यमें होने वाले देवादि भावोंके अनुभवनकी तृष्णासे शुन्य होने के कारण परलोकके प्रति अप्रतिबद्धपना होनेसे ज्ञेयपदार्थोके ज्ञानकी सिद्धि के लिये
SEE
SumhemamalAammamtamma
Page #438
--------------------------------------------------------------------------
________________
mmittee
souveASIA
RANC2.
ST000000000मासस्य
४२४
सहजानन्दशास्त्रमालायां प्रथाप्रतिषिद्धशरीरमानोपधिपालनविधानमुपदिशति
इहलोगणिरावेक्खो अप्पडिबद्धो परम्मि लोयम्हि । जुत्ताहारविहारो रहिदकसायो हवे समणो ॥२२६॥
इहलोकनिरापेक्षी, व्यपगत परलोकको भि तृष्णासे ।
युक्ताहारविहारी, व कषायरहित श्रमरण होता ॥२२६॥ इहलोकनिरपेक्षः अप्रतिबद्धः परस्मिन् लोके। युक्ताहारविहारो रहितकषायो भवेत् श्रमणः ॥ २२६ ।।
___ अनादिनिधनकरूपशुद्धात्मतत्त्वपरिणतत्वादखिलकर्मपुद्गलविपाकात्यन्त विविक्तस्वभा. वत्वेन रहितकषायत्वात्तदात्वमनुष्यत्वेऽपि समस्तमनुष्यव्यवहारबहिर्भूतत्वेनेहलोकनिरपेक्षत्वात्त. पाभविष्यदमादिभावानुभूतितृष्णाशून्यत्वेन परलोकाप्रतिबद्धत्वाच्य परिच्छेद्यार्थी पलम्भप्रसि ___ नामसंज्ञ-- इहलोगणिरावेदन अप्पडिबद्ध पर लोय जुत्ताहारविहार रहिंदकसा समण । धातुसंज्ञ---- हर सत्ता । प्रातिपदिक इहलोकनिरपेक्ष अप्रतिबद्ध पर लोवा युक्ताहारविहार रहित कषाय श्रमण । मूलधातु-भू सत्तायां । उभयपद विवरण-- इहलोगणिरावेवखो इहलोकनिरापेक्षः अपडिबद्धो अप्रतिबद्धः जुत्ताहारविहारो युक्ताहारविहारः रहिदकसाओ रहितकषायः समणो श्रमण:--प्रथमा एक । परम्मि परे दीपकमें तेल डाले जाने और दीपकको उसकाये जानेकी तरह शुद्ध प्रात्मतत्वकी उपलब्धि की सिद्धिके लिये शरीरको खिलाने और चलानेके द्वारा युक्ताहारबिहारी होता है । यहाँ तात्पर्य यह है कि---चूंकि श्रमा कषायरहित है इस कारण वर्तमान शरीरके अनुरागसे या दिव्य शरीरके अनुरागसे आहार विहार में प्रयुक्तरूपसे प्रवृत्त नहीं होता; किन्तु शुद्धात्मतत्त्वको उपलब्धिकी साधकभूत श्रामण्यपर्यायके पालन के लिये ही केवल युक्ताहारविहारी होता है। .
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें अपवादविशेषोंको बताया गया था। अब इस गाथामें अप्रतिषिद्ध शरीरमात्र उपधिके पालनका विधान बताया गया है ।
तथ्यप्रकाश--(१) श्रमणके अनादि अनंत एकस्वरूप घिद्ब्रह्म को दृष्टि, उपासना, अनुभूति व रति रहती है । (२) शुद्ध चिद् ब्रह्म समस्त कर्म पुद्गलविपाकसे अत्यन्त भिन्न स्वभाव वाला है । (३) क्रोध, मान, माया, लोभ, इन्द्रियज सुख, दुःख आदि विकार पुद्गल कर्मके विपाक हैं । (४) अविकार सहजपरमात्मस्वरूप चिबाकी उपासना करने वाले श्रमण कषायरहित होते हैं । (५) श्रमण वर्तमानमें मनुष्य है तथापि कषायरहित व शुद्धात्मपरिणत होनेसे समस्त मनुष्यव्यवहारोंसे पृथक है । (६) श्रमण मनुष्यव्यवहारोंसे पृथक् होनेके कारण इहलोकनिरपेक्ष है अर्थात् इस लोककी अपेक्षावोंसे रहित है । (७) इस लोकको अपेक्षावोंका माघार घरोर है, किन्तु कषायरहित होनेके कारण श्रमणको वर्तमान शरीरमें अनुराग नहीं
ESS
SHIKETPRAKBAYEmissume
Kaala
Page #439
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
प्रदीप पूरणोत्सर्प स्थानीयाभ्यां शुद्धात्मतत्वोपलम्भप्रसिद्धयर्थं तच्छरीरसं भोजन संचलनाभ्यां युक्ताहारविहारो हि स्यात् श्रमणः । इदमत्र तात्पर्यम् यतो हि रहितकषायः ततो न तच्छरानुरागेण दिव्यशरीरानुरागेण वाहारविहारयोरयुक्त्या प्रवर्तेत । शुद्धात्मतस्वोपलम्भसाधकश्रामण्यपर्यावपालनायैव केवलं युक्ताहारविहारः स्यात् ॥ २२६॥
४२५
लोयम्हि लोके सप्तमी एक वे भवेत् विधी अन्य० एक० क्रिया । निरुक्ति अत्र इति इह (इदं + ह इ. आदेश ), कषति इति कषायः (आय) कष हिंसार्थः भ्वादि । समास - युक्तः आहार: बिहार: यस्य सयुक्ताहारविहारः ॥२२॥
हैं । (८) कषायरहित होनेसे भ्रमण भविष्य में होने वाले देवादिभावों के ग्रनुभवकी तृष्णा से अत्यन्त दूर है। ( 2 ) परभवकी अपेक्षावोंसे रहित होनेके कारण श्रमणके दिव्यशरीर में भी अनुराग नहीं है । (१०) शरीरका अनुराग न होनेपर भी शुद्धात्मतत्त्वोपलब्धिसाधक श्रमणजीवन में जीवन के लिये आहार करना निषिद्ध नहीं है । ( ११ ) आहार करना आवश्यक होने hi स्थिति भी आत्मस्वरूपके परिज्ञानी श्रम प्रयो ग्राहारका ग्रहण नहीं करता, किन्तुयोग्य आहार ही ग्रहण करता है । ( १२ ) श्रामण्य ( मुनिपना) का पालन प्रयोग्य आहार लेने मैं संभव नहीं है । (१३) श्रमण केवल शुद्धात्मतत्वकी रुचि वाले होते हैं । (१४) शुद्धात्मतत्व के रुचिया श्रमण कषायके वातावरणसे दूर रहते हैं । (१५) कषायके वातावरणसे दूर रहने के लिये श्रमण एक स्थानपर बहुत दिन नहीं रहते, अतः वे विहार करते रहते हैं । (१६) विहार करना श्रावश्यक होने की स्थिति में योग्यायोग्य द्रव्य क्षेत्र काल भावके परिज्ञानी श्रमण योग्य विहार नहीं करते, किन्तु योग्य ही विहार करते हैं । ( १७ ) शुद्धात्मतत्त्वकी उपलfare लिये ही श्रमणका योग्य आहार विहार होता है । ( १८ ) जैसे प्रकाश पानेके लिये दिया में योग्य तेलका डालना (आहार) व योग्य बातीका उसकेरते रहना (विहार) ग्रावश्यक हैं, ऐसे ही श्रामण्यपर्यायपालन के लिये योग्य आहार विहार सिद्धान्त --- ( १ ) शुद्धात्मत्वको शुद्ध भावना होनेसे अयोग्य आहार विहार दूर हो जाता है । (२) शुद्ध ग्रन्तस्तस्वकी धून वाले श्राहार करते हुए भी उसके भोका नहीं । दृष्टि - १ - शुद्ध भावनापेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनय (२४) । २ - प्रभोक्तृनय (१९२) १ प्रयोग - सहजानन्दमय प्रात्मतस्वकी उपलब्धिके लिये निर्ग्रन्थ श्रमण होकर योग्य तिचर्या कर जीवनपर्यन्त शुद्ध चैतन्य महाप्रभुकी श्राराधना करना ||२२६।।
अप्रतिषिद्ध है ।
श्रव युक्ताहारविहारी साक्षात् ग्रनाहारविहारी ही है, यह बतलाते हैं - [ यस्य आत्मा मषरसः ] जिसकी दृष्टि में आत्मा आहारको इच्छा से रहित है [ तत् अपि तपः ] वह निराहार
Page #440
--------------------------------------------------------------------------
________________
amanagement
४२६.
सहजानन्दशास्त्रमालाया अथ युक्ताहारविहारः साक्षादनाहारविहार एवेत्युपदिशति
जस्स असणमप्पा तं पि तवो तप्पडिच्छगा समणा । श्रण भिक्खमणेसणमध ते समणा अणाहारा ॥२२७॥
अनशनस्वभाव प्रात्मा के प्रत्येषक श्रमग स्वलक्ष्यबशी ।
ऐषणादोषविरहित, भिक्षाचारी अनाहारी ॥ २२७ ।। यस्थानेषण आत्मा तदपि तपः तत्प्रत्येपकाः श्रमणाः । अन्यभक्षमनेषणमथ ते श्चमणा अनाहात ||२२७॥
स्वयमनशनस्वभावत्वादेषणादोषशून्यभैश्यत्वाच्च युक्ताहार साक्षादनाहार एव स्यात् । तथाहि--यस्य सकलकालमेव सकलपुद्गलाहरणशून्यमात्मानमवबुध्यमानस्य सकलाशनतृष्णाशून्यत्वास्वयमनशन एव स्वभावः । तदेव तस्यानशनं नाम तपोऽन्तरङ्गस्य बलीयस्त्वात् इति कृत्वा ये तं स्वयमनशनस्वभावं भावयन्ति श्रमणाः, तत्प्रतिषिद्धये चैधरणादोषअन्धमन्यद्भक्षं
नामसंज- अरेसण अपत पि तब तपहिच्छग समण अण्ण भिक्ख अरणेसह अघत समण अणाहार । धातुसंज्ञ - भिक्ख भिक्षायां । प्रातिपदिक- यत् अनेषण आत्मन् तत् अपि तपस तत्प्रत्येषक स्वभाव निश्चयसे तप है; [तत्प्रत्येषकाः] और निराहारस्वभाव प्रात्माको प्राप्त करने के लिये प्रयत्न करने वाले श्रमरणाः] श्रमण [अन्यत् भक्षम्] स्वरूपसे पृथक् भिक्षाको [अनेषणम्] एषणारहित ग्रहण करते हैं, [अथ] इसलिये ते श्रमणाः] वे श्रमरण [अनाहाराः] अनाहारी,
तात्पर्य--निराहारस्वभावी आत्माको प्राप्तिके लिये संयमी जीवन बिताने के लिये परिस्थितिवश निर्दोष आहार लेनेपर भी श्रमण अनाहारी है।
टोकार्थ-स्वयं अनशनस्वभावपना होनेसे और एषणादोषशून्य भक्ष्यपना होनेसे, युक्ताहारी श्रमण साक्षात् अनाहारी ही है। स्पष्टीकरण----सदा ही समस्त पुद्गलाहारसे शून्य आत्माको जानते हुए जिसका समस्त प्रशनतृष्णारहित होनेसे स्वयं अनशन हो स्वभाव है। वहो उसके अनशन नामक तप है, क्योंकि अंत रंगकी विशेष बलवत्ता है, यह समझकर जो श्रमण प्रात्माको स्वयं 'अनशनस्वभाव भाते हैं और उसकी सिद्धिके लिये एषणादोषशून्य पर... रूप भिक्षा प्राचरते हैं; वे पाहार करते हुए भी मानो आहार नहीं करते हों, ऐसे होनेसे साक्षात् अनाहारी ही हैं, क्योंकि युक्ताहारित्व के कारण उनके स्वभाव तथा परभावके निमित्त से बन्ध नहीं होता। इस प्रकार स्वयं प्रविहारस्वभाव वाला होनेसे और समितिशुद्ध विहारवाला होनेसे युक्तविहारी श्रमण साक्षात् अविहारी ही है-~-यह अनुक्त होनेपर भी समझना चाहिये।
Page #441
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टोका प. नत्य प्रज्ञाशा चरन्ति, ते किलाहरन्तोऽप्यनाहरन्त इव युक्ताहारत्वेन स्वभावपरभावप्रत्ययबन्धाभावात्स्वभादनाहारा एव भवन्ति । एवं स्वयमविहारस्वभावत्वात्समितिशुद्धविहीररथाच्छापुतविहाराझा. क्षादविहार एव स्यात् इत्यनुक्तमपि गम्यतेति ॥२२७॥ श्रमण अन्यत् भैक्ष अनेषण अन्य तत् श्रमण अनाहार । मूलधातु-भिक्ष भिक्षायां । उभयपदविवरणजस्स यस्य-षष्ठी एक० । अरोसणं अनेषणः अप्पा आत्मा-प्रथमा एक० । तं तत् तवो तपः-प्रथमा एक० । तप्पडिच्छगा तत्प्रत्येषकाः समणा श्रमणाः ते समणा श्रमणाः अणाहारा अनाहारा:-प्रथमा बहुवचन । अण्णं अन्यत् भिक्खं भैक्ष-द्वि० एक० । अणेसणं अनेषणं-क्रियाविशेषणं । अध अथ पि अपिअव्यय । निरुक्ति- भिक्षणं भिक्षः भिक्षस्येदं इति भैक्षं (भिश् + अण्) भिक्ष भिक्षायां अलाभे लाभे च । समास-न आहारः येषां ते अनाहाराः ।)२२७।।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें अप्रतिषिद्ध श्रमणशरीरके पालनका विधान बताया गया था। अब इस गाथामें यह बताया गया है कि योग्य आहार विहार करने वाले श्रमण साक्षात् अनाहारी व अविहारी है।।
तथ्यप्रकाश-(१) श्रमण अपने आत्माके अनाहारस्वभावका सतत प्रतीति रखता है । (२) अनाहारस्वभावी होनेपर भी श्रमण संयमसाधकशरीरके पालन के लिये ऐषणाके दोषसे रहित भैक्ष्य चर्या करता है । (३) अनाहारस्वभावदृष्टि वाला तथा निर्दोष चर्या वाला होनेसे योग्य आहार करता हुआ भी श्रमण साक्षात् (आत्मदृष्टि से) अनाहार ही है । (४) श्रमण सदा ही अपने प्रात्माको समस्त पुद्गलोंके अहरण (ग्रहण) करनेसे शून्य मानते हैं। (५) श्रमण प्राहारविषयक तृष्णासे रहित होते हैं । (६) अनशन स्वभावके अनुभवने वाले श्रमणों का यह अनाहारचैतन्य प्रतपन अन्तरङ्ग तप है । (७) अनाहारचैतन्यप्रतपनरूप तपकी सिद्धिके लिये निर्दोष विधिसे निर्दोष आहार ग्रहणको चर्या करते हैं । (८) अनशन स्वभाव अन्तस्तत्त्वके भावने वाले श्रमण निर्दोष भिक्षाचर्यासे आहार ग्रहण करते हुए भी श्रमणोंके अनाहारीकी तरह स्वभावपरभावनिमित्तक बन्ध नहीं होता । (8) आहार करते हुए भी श्रमणोंके जब अनाहारी श्रमणकी भांति बन्ध नहीं है, तब वे साक्षात् अनाहारी ही हैं । (१०) प्रात्मा का विहार करना स्वभाव नहीं है, आत्मा अविहारस्वभाव है। (११) अविहारस्वभावपना होनेसे और उसको सिद्धिके लिये समितिसे शुद्ध विहार होनेसे योग्य विहार वाले श्रमण सा. क्षात् विहाररहित ही समझिये।
सिद्धान्त-(१) निष्क्रिय शुद्ध अन्तस्तत्त्वको भावना करने वालेके क्रियाका संकल्प नहीं रहता । (२) निष्क्रिय शुद्ध अन्तस्तत्त्वके भावने वाला विहार करके भी विहारका कर्ता नहीं।
Page #442
--------------------------------------------------------------------------
________________
malcommonyms hows
४२८
सहजानन्दशास्त्रमालायां अथ कुतो युक्ताहारत्वं सिद्धयतीत्युपदिशति----
केवलदेहो समणो देहे ण ममत्ति रहिदपरिकम्मो । बाजुत्तो तं तवसा अणिगृहिय थप्पणो सत्तिं ॥२२॥ मात्रमात्रसंगी मुनि तनमें भि ममत्व बिन अपरिकर्मा ।
अपनी शक्ति प्रकट कर, तपमें उद्यत श्रमरण होता ॥२२८॥ केवलदेहः श्रमणो देहे न ममेति रहिलपरिकर्मा ! आयुक्तबास्तं तपसा अनिगूह्यात्मनः शक्तिम् ।। २२८ ।।
___ यतो हि श्रमणः श्रामण्यपर्यायसहकारिकारणत्वेन केवल देहमात्रस्योषधे। प्रसह्याप्रतिक्षे. घकत्वात्केवलदेहत्वे सत्यपि देहे 'किं किंचण' इत्यादिप्राक्तनसूत्रद्योतितपरमेश्वराभिप्रायपरिग्रहेण
नामसंज्ञ--- केवलदेह समण देह ण अघ ममत्ति रहिदपरिकम्म आजुत्त त तव अप्प सत्ति। धातसंज्ञ-- ग्रह संवरणे । प्रातिपदिक केवलदेह श्रमण देह न अस्मद् इति रहितपरिकर्मन् आयुक्तवत् तत् तपस आत्मस् शक्ति । मूलधात गुह गोपने । उभयपदविवरण--केवलदेहो केवलदेहः समणो श्रमणः रहिदपरिकामो रहितपरिकर्मा-प्रथमा एक० । देहे-सप्तमी एक० । ण न त्ति इति-अव्यय । आजुलो आयुक्तवान्-प्रथमा एकवचन कृदन्त । तं-द्वितीया एक । तवसा तपसा-तृ• एक० । अणि गृहिय अनि गृह्य-सम्बन्धार्थप्रक्रिया
दृष्टि-१- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४ब) । २- अकर्तृ नय (१९०) ।
प्रयोग-निष्क्रिय शान्त अन्तस्तत्त्वकी उपलब्धिके लिये निर्ग्रन्थ श्रमण होकर अविहारस्वभाव अन्तस्तत्त्वको दृष्टि रखना व इस ही की सिद्धि के लिये यदि आवश्यक हो तो योग्य विहार करना ।।२२७॥
- अब श्रमणके युक्ताहारपना कैसे सिद्ध होता है यह उपदेश करते हैं----[केवलदेह श्रमणः] जिसके देहमात्रपरिग्रह विद्यमान है ऐसे श्रमणने [देहे अपि शरीरमें भी न मम इति] 'मेरा नहीं है। यह समझकर [रहितपरिकर्मा] परिकर्म रहित होते हुये, [आत्मनः] अपने प्रात्माको [क्ति] शक्तिको [अनिग्रहा] न छुपाकर तपसा] तपके साथ [२] उस शरीरको [आयुक्तवान् ] युक्त किया है।
तात्पर्य---- मुनिराजोंने देहममत्व त्यागकर आत्मशक्तिको न छुपाकर देहको तपश्चरण में लगाया । .
टीकार्थ-चूंकि श्रामण्यपर्यायके सहकारी कारणके रूपमें केवल देहमात्र उपधिको श्रमण हठपूर्वक त्याग नहीं करता इसलिये वह केवल देहवान् है; ऐसा देहबान होनेपर भी, किं किंचण' इत्यादि पूर्व गाथा द्वारा प्रकाशित किये गये परमेश्वरके अभिप्रायका प्रहरण करनेके द्वारसे 'यह शरीर वास्तवमें मेरा नहीं है इसलिये यह अनुग्रह योग्य नहीं है, किन्त उपेक्षा योग्य हो है। इस प्रकार समस्त शारीरिक संस्कारको छोड़ा हुअा होनेसे परिकर्मरहित है, इस कारण उसके देहके ममत्वपूर्वक अनुचित पाहारग्रहणका अभाव होनेसे युक्ताहारित्व
-Mur
wwww
w wwwwwwwwwwwwwwwwww.IM....ULI
AthAl-Aaw-------iwwinni
Page #443
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदर्शागी टोका
२९.
नाम ममायं ततो नानुग्रहाही किंतुपेक्ष्य एवेति परित्यक्तसमस्त संस्कारत्वाद्रहित परिकर्मा स्यात् । ततस्तन्ममत्व पूर्व कानुचिताहारग्रह्णाभावाद्युक्ताहारत्वं सिद्धयं तु । यतश्च समस्तामध्यात्मशक्ति प्रकटयन्ननन्तरसुत्रोदितेनानशनस्वभावलक्षणेन तपसा तं देहं सर्वारम्भेणाभियुक्त वान स्यालु । तत श्राहारग्रहणपरिणामात्मकयोगध्वंसाभावाद्युक्तस्यैवाहारेण च युक्ताहारत्वं सिद्धयेत् ॥२२५॥
अव्यय | अपणो आत्मनः पृष्ठी एक सत्ति शक्ति - द्वितीया एक । निरुक्ति- शकन शक्तिः (शक् + तिन) शक्ल सामर्थ्य | समास - केवलं देहः यस्य सः केवलदेहः || २२६ ॥
सिंद्ध होता है । और चूंकि उसने समस्त हो ग्रात्मशक्तिको प्रगट करते हुए अनन्तरपूर्व गाथा सूत्र द्वारा कथित अनशनस्वभावलक्षण उपके साथ उस शरीरको सर्व उद्यमसे युक्त किया है पर्यात् जोड़ा है, इस कारण श्राहारग्रहण के परिणामस्वरूप योगध्वंसका अभाव होनेसे योग्य ही प्राहारके कारण उसके युक्ताहारित्व सिद्ध होता है ।
T
प्रसंगविवरण - अनन्तरपूर्व गाथा में युक्ताहारविहार श्रमणको साक्षात् प्रनाहारविहार कहा गया था । अब इस गाथा में श्रमर के युक्ताहारपनेका कारण बताया गया है । तथ्य प्रकाश--- ( १ ) श्रमणने समस्त अन्तरङ्ग व बहिरङ्ग परिग्रहका त्याग कर दिया है, किन्तु उसके देह तो अभी लगा ही है । (२) देहको यदि हठपूर्वक त्याग दे याने मरण. कर जाय तो संयम साधनेका अवसर भी खो दिया । (३) श्रमणके अब श्रामण्यपर्यायका सहकारी कारणपना होनेसे केवल देहमात्र उपधि रह गई है । (४) श्रमण के इस देहमात्र उपधि मैं रंच भी ममत्व नहीं है । ( ५ ) श्रमण देहको अनुग्रहके योग्य नहीं जानता, किन्तु उपेक्षाक योग्य ही जानता है । (६) श्रमणको देहमें भी उपेक्षा है अतः श्रमरणने देहका समस्त संस्कार याग दिया है, श्रतः श्रमण रहित परिकर्मा है । ( ७ ) अनुचित आहारका ग्रहण ममत्वपूर्वक ही हो सकता है, अतः ममत्वरहित भ्रमण के अनुचित आहारका ग्रहण संभव नहीं है । ( ८ ) जिसके अनुचित श्राहारका ग्रहण संभव नहीं और श्रामण्यपर्यायका सहकारी कारणपना होनेसे. जीवनका हेतुभूत आहार ग्रहण करना आवश्यक हो गया सो उस श्रमणके युक्ताहारपना हो हो सकता है । ( ६ ) श्रमण अपनी ग्रात्मशक्तिको छुपाये बिना, श्रात्म के श्रनशनस्वभावकी array afte तपमें अपनेको लगाये रहता है । (१०) श्रमण अपने आत्मा के अन* शनस्वभाव की प्रतीतिसहित हो अनेक तपोंमें युक्त रहता है । ( ११ ) आहार ग्रहण करना प्रावश्यक होनेपर श्रमण अपने आत्मा के अनशनस्वभावकी प्रतीतिसहित होता हुआ ही योग्य आहार ग्रहण करता है । (१२) योगी (श्रमण ) " प्रहार ग्रहण करना श्रात्माका परिणाम
Page #444
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां अय युक्ताहारस्वरूपं बिस्तरेरणोपदिशति
एक खलु तं भत्तं अप्पडिपुण्णोदरं जहालद्ध। चरणं भिक्षेण दिवा ण रसावेक्खं ण मधुमंसं ॥२२॥ इकभुक्ति अपूर्णोदर, जैसा भी मिले दिनमें चर्यासे ।
अरसापेक्ष निरामिष, अमधु सुयुक्त प्राहार यही ॥२२६॥ एकः खलु स भक्त: अप्रतिपूर्णीदरो यथालब्धः । चरण भिक्षया दिवा न रसापेक्षो न मधुमासः ।। २२६ ।।
एककाल एवाहारो युक्ताहारा, तावतव श्रामण्यपर्यायसहकारिकारणशरोरस्य धारणत्वात् । अनेककालस्तु शरीरानुरागसेव्यमानत्वेन प्रसह्य हिसायतनोक्रियमाणो न युक्तः । शरी.
नामसंज्ञ- एक्क खलु त भत्त अपद्धिपुण्णोदर जहालद्ध चरण भिवरल दिवा ण रसावेण ण मधुमंस। है स्वभाव है" ऐसे परिणामसे रहित है, अतः योगी योगध्वंस नहीं होता । (१३) जिसके योगध्वंस नहीं, अनशनस्वभावकी प्रतीति है, देहका परिकर्म नहीं है, श्रामण्यपर्यायका सहकारी कारणपना होनेसे देहका बनाये रखना आवश्यक है उस श्रमणके युक्ताहारपना होता
सिद्धान्त-(१) श्रमण अनशनस्वभाव आत्मतत्त्वको निरन्तर प्रतीति व पाराधना के कारण कर्मभारसे रहित होता है । (२) ममत्वरहित थमगण अनशनस्वभावकी प्रतीति सहित योग्य प्राहार लेना पड़नेसे अभोक्ता है।
दृष्टि----१-शुद्धभावनासापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४ब) ! २-अभोक्तृनय (१६२) ।
प्रयोग- अनशनस्वभाव अन्तस्तत्वको प्रतीति आराधनासहित होते हुए आवश्यक होनेपर योग्य आहारादिकी प्रवृत्ति करना ।।२२८||
अब युक्ताहारका स्वरूप विस्तारसे बतलाते हैं-[खलु] वास्तवमें [सः भक्तः] बह आहार (युक्ताहार) [एकः] एक बार [अप्रतिपूर्णोदरः] ऊनोदर [यथालब्धः] यशालब्ध (जैसा प्राप्त हो वसा) [दिवा] दिन में [भिक्षया चरपं] भिक्षाचरणसे लेना, [न रसापेक्षः] रसको अपेक्षासे रहित, और [न मधुमांसः] मधु मांस रहित होता है।
टोकार्थ--एक बार आहार ही युक्ताहार है, क्योंकि उतनेसे ही श्रामण्य पर्यायका सहकारी कारणभूत शरीर टिका रहता है । शरीरके अनुरागसे ही अनेकबार पाहारका सेवन किया जानेसे कायरतासे हिसायतनरूप किया जाता हुना युक्त नहीं है; और शरीरानुरागसे सेवकपनेसे अनेक बार आहार युक्त न हुएके भी अपूर्णोदर प्राहार हो युक्ताहार है, क्योंकि वही प्रतिहतयोगरहित है । पूर्णोदर पाहार प्रतिहत योग वाला होनेसे कथंचित् हिसायतनः
Page #445
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार---सप्तदशाङ्गी टीका
४३१
सेवकत्वेन न च युक्तस्य । प्रतिपुर्णोदर एवाहारो मुक्ताहारः तस्यैवाप्रतिहतयोगत्वात् । प्रतिपुर्णोदरस्तु प्रतिहतयोगत्वेन कथंचित् हिंसायतनो भवन् न युक्तः । प्रतिहतयोगत्वेन न च युक्तस्य यथालब्ध एवाहारो युक्ताहारः तस्यैव विशेषप्रियत्व लक्षणानुरागशून्यत्वात् । श्रयथालवस्तु विशेषप्रियत्व लक्षणानुरागसेव्यमानत्वेन प्रसह्य हिंसायानीक्रियमाणो न युक्तः । विशेषप्रियस्वलक्षणानुरागसेवकत्वेन न च युक्तस्य । भिक्षाचरणेनवाहारो युक्ताहारः तस्यैवारम्भशूव्यत्वात् । श्रभैक्षाचरणेन त्वारम्भसंभवात्प्रसिद्ध हिंसायतनश्वेन न युक्तः । एवंविधाहारसेवनव्यक्तान्तरशुद्धित्वान्न च युक्तस्य । दिवस एवाहारो युक्ताहारः तदेव सम्यगवलोकनात् । श्रदि
यथा
धातुसंज्ञ - लभ प्राप्तौ । प्रातिपदिक-एक खलु तत् भक्त अप्रतिपुर्णोदर यथालब्ध चरण भिक्षा दिवा न रसापेक्ष न मधुमांसः । मूलधातु-डुलभष् प्राप्ती । उभयपद विवरण- एककः एकः तं सः भक्तं भक्तः अप होता हुआ योग्य नहीं है; और प्रतिहत योग वाला होनेसे पूरणोंदर आहार युक्त न हुएके भी श्राहार ही युक्ताहार है, क्योंकि वही आहार विशेषप्रियतास्वरूप अनुराग से शून्य है । प्रयथालब्ध आहार विशेषप्रियतास्वरूप अनुराग से सेवन किया जानेसे आत्यंतिक हिंसायन किया जाता हुआ योग्य नहीं है । और विशेष प्रियतास्वरूप अनुराग के द्वारा सेवन करने वाला होनेसे श्रयथालब्ध श्राहारयुक्त न हुएके भी भिक्षाचरणसे आहार ही युक्ताहार है, क्योंकि वही प्रारंभशून्य है । भिक्षाचरण रहित श्राहारमें प्रारम्भका सम्भव होनेसे हिंसा यत्नव प्रसिद्ध है, अतः वह आहार योग्य नहीं है और ऐसे प्रहारके सेवन में अन्तरंग अशुद्धि व्यक्त होनेसे प्रभैक्ष्याचार युक्त न हुएके भी दिनका प्रहार हो युक्ताहार है, क्योंकि वही भली alति देखा जा सकता है । दिनके अतिरिक्त समय में श्राहार भली-भाँति नहीं देखा जा सकता, इसलिये उसके हिंसायतनत्व अनिवार्य होनेसे वह श्राहार योग्य नहीं है और ऐसे आहारके सेवनमें अन्तरंग अशुद्धि व्यक्त होनेसे श्रदिवसाहार युक्त न हुएके भी रसकी अपेक्षासे रहित आहार ही युक्ताहार है, क्योंकि वही अन्तरंग शुद्धिसे सुन्दर है । रसकी अपेक्षासे युक्त आहार अन्तरंग अशुद्धिके द्वारा आत्यंतिक हिंसायतन किया जाता हुआ योग्य नहीं है । और उसका सेवन करने वाला प्रन्तरंग अशुद्धिपूर्वक सेवकप से रसापेक्ष आहार युक्त न हुए के भो मधुमास रहित आहार हो युक्ताहार है, क्योंकि उसके ही हिंसायतनत्वका प्रभाव है । मधु-मांस सहित आहार हिंसायतन होनेसे योग्य नहीं है । और ऐसे आहारके सेवन में अन्तरंग प्रशुद्धि व्यक्त होनेसेसमधुमास श्राहार युक्त न हुए भी कि यहाँ मधुमांस हिंसायतनका उपलक्षण है इसलिये समस्त हिंसायतनशून्य आहार ही युक्ताहार है ।
प्रसंगविवरण प्रनन्तरपूर्व गाथा में श्रमण के युक्ताहारपनेही सिद्धि की गई थी। अब
Page #446
--------------------------------------------------------------------------
________________
४३२ .
सहजानन्दशास्त्रसालायां
वसे तु सम्यगवलोकनाभावादनिवार्यहिंसायतनत्वेन न युक्तः । एवंविधाहारसेवनव्यक्तान्तरशुद्धित्वान्न च युक्तस्य । अरसापेक्ष एवाहारो युक्ताहारस्तस्यैवान्तःशुद्धिसुन्दरत्वात् । रसापेक्षस्तु अन्तरशुद्धया प्रसह्य हिंसायतनोक्रियमाणो न युक्तः । अन्तरशुद्धिसेवकत्वेन न च युक्तस्य । प्रमधुमास एवाहारो युक्ताहारः तस्यवाहिंसायतनत्वात् । समधुमासस्तु हिंसायतनत्वान्न युक्तः । एवंविधाहारसेबन व्यक्तान्तरशुद्धित्वान्न च युक्तस्य । मधुमासमत्र हिंसायतनोपलक्षणं तेन समस्तहिंसायतनशून्य एवाहारों यक्ताहारः ।।२२।। डिपूण्णोदरं अप्रतिपुर्णादर: जहालद्धं यथालब्धः चरणं रसावेक्खं रसापेक्षः मधुमंसं मधुमासः-प्रथमा एकवचन । खलु दिवा णा न-अध्याय । भिक्खेण भिक्षया-तृतीया एक० । निरुक्ति- उद् अरणं उदरं उद् अर्यते " यः स उदरः (उद् + अप्) ! समास- अप्रतिपूर्ण उदर यस्य स अप्रतिपूर्णदिरः ॥२२६।।
इस गाथामें योग्य आहारका स्वरूप बताया गया है ।
तथ्यप्रकाश ---(१) एक बार हो ग्राहार करना योग्याहार है, क्योंकि एक बारके आहारसे हो श्रामण्यपर्यायके सहकारी कारण शरीरका टिकना बन जाता है । (२) अनेक बार पाहार शरीरके अनुरागसे ही किया जाता है सो उसमें भावहिंसा नियमित है, अत: अनेक बारका पाहार योग्याहार नहीं हो सकता । (३) एक बारमें भी अपूर्णोदर हो पाहार योग्याहार है, क्योंकि अपूर्णोदर आहार में साधुग्रोग्य योगविधानोंका विघात नहीं होता। (४) पूर्णोदर पाहार होनेपर योग (साधुकर्तव्य) में प्रमाद होता प्रतः पूर्णोदर आहार हिंसाका प्रायतन है सो वह योग्याहार नहीं। (५) एक बार व अपूगोदर पाहार भी यथालब्ध हो वह योग्याहार है, क्योंकि यथालब्ध प्राहारमें विशेष प्रियपने का अनुराग नहीं होता। (६) स्वेच्छालब्ध प्राहारका ग्रहण विशेषप्रियपनेके अनुरागसे हो भोगा जाता, अतः स्वेच्छालब्ध (अपनी पसंदगीका) आहार भावहिंसाका प्रायतन होनेसे अयोग्यः प्राहार है । (७) एक बार अपूर्णोदर यथालब्ध आहार भी भक्ष्याचरणसे ही प्राप्त किया गया योग्य प्राहार है, क्योंकि ऐषणासमितिसे प्राप्त किया गया प्राहार प्रारम्भदोषसे रहित है । (८) अभक्षाचरणसे प्राप्त पाहार प्रारंभयुक्त होनेसे हिंसाका पायतन है, अत: वह अयोग्य पाहार है । (६) एक बार अपूणोंदर यथालब्ध गोचरीसे प्राप्त प्राहार भी दिन में ही किया गया आहार योग्य आहार है, क्योंकि दिन में ही प्राहारको सही अवलोकन हो सकता है । (१०) दिनके अतिरिक्त अन्य समयमें किया गया आहार योग्य प्राहार नहीं, क्योंकि अन्य समय प्राहारका सही अवलोकन हो हो नहीं सकता । (११) दिनमें एक बार ऐषणासमितिसे प्राप्त यथालब्ध अपूर्णोदर पाहार भी अरसापेक्ष ही योग्य आहार है, क्योंकि अरसापेक्ष आहारमें ही अन्तरङ्ग विशुद्धि रह
Page #447
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका
४३३
AAAAAATMAccoronautomar
LweetenceTeOECE
अथोत्सर्गापवादमंत्रीसौस्थित्यमाचरणस्योपदिशति----
बालो वा वुड्ढो ग समभिहदो वा पुणो गिलाणो वा । चरियं चरदु सजोरगं मूलच्छेदो जधा ण हवदि ।।२३०॥ बाल हो वृद्ध हो वा, श्रान्त हो ग्लान हो भि कोइ श्रमरण ।
योग्य चर्या करो जिसमें न मूलगुणविराधन हो ॥ २३० ॥ बालो वा वृद्धो वा श्रमाभिहतो वा पुनर्लानो वा । चर्या चरतु स्वयोग्यां मूलच्छेदो यथा न भवलि १२३०॥
बालवृद्धश्रान्तग्लानेनापि संयमस्य शुद्धात्मतत्त्वसाधनत्वेन मूलभूतस्य छेदो न यथा नामसंज्ञ-बाल या बुड्ढ़ वा समभिहद वा पुणो गिलाण वा चरिय सजोग मूलच्छेद जधा ण । सकती है । (१२) रसापेक्ष पाहारके ग्रहण में अन्तरङ्ग अशुद्धि होनेसे भावहिंसा है, प्रतः रसापेक्ष पाहार अयोग्य ग्राहार है 1 (१३) दिन में एक बार ऐषणासमिति प्राप्त यथालब्ध अपूर्णोदर प्रासापेक्ष पाहार भी मधुमास प्रादि दोषोंसे रहित ही योग्य आहार है, क्योंकि हिंसारहित मर्यादित शुद्ध प्राहार हो अहिंसाका प्रापतन है । (१४) मधु माँस चलितरस आदि दोषोंसे युक्त प्राहार हिमाका अायतन है, उसके ग्रहणमें अन्तरङ्ग प्रशुद्धि प्रकट ही है, अतः सदोष अाहार अयोग्य प्राहार है। (१५) उक्त प्रकारका प्राहार हो तपस्वी साधु संतों के लिये योग्य पाहार है, क्योंकि योग्य प्राहारमें हो रागादिविकल्प न जगनेसे निश्चयसे अहिंसा है और इस प्रहिंसाको साधक द्रव्य अहिंसा है। (१६) भाव अहिमासे चैतन्यस्वरूप निश्चयप्राणको रक्षा है । (१७) द्रव्य अहिंसासे परजीवके प्राणों की रक्षा है। (१८) निस पाहार में भावहिमा व द्रव्य अहिंसा दोनों अहिंमायें रहें वह पाहार योग्य प्राहार है। (१६) उक्त योग्याहारके विरुद्ध प्राहारके ग्रहणसे श्रमणके श्रामण्य नहीं रहता।
सिद्धान्त ---- १-- चैतन्य प्राणको दृष्टि श्रादि रूप, रक्षा भाव अहिंसा है । २- रागादि भावकी जागृति भावहिमा है।
दृष्टि-- १- शुद्धनिश्चयनय (४६) । २- अशुद्धनिश्चयनय (४७) ।
प्रयोग.---.-संयमके बाह्यमाघनीभूत शारीरके पालन के लिये आवश्यकता रहने तक योग्य पाहार ही ग्रहण करना व उस समय भी अनशनस्वभाव अविकार चैतन्यस्वरूपकी पाराधना । करना ॥२२६॥
अब उत्सर्ग और अपवादको मंत्रो द्वारा आचरणके सुस्थित्तपनेका उपदेश करते हैं---- बालः वा श्रमण बाल हो [वृद्धः वा] या वृद्ध हो [श्रमामिहतः वा] या श्रांत हो [पुनः सालानः वा] या ग्लान हो [यथा मूलच्छेदः] जैसे मूलका छेद [न भवति] न हो उस प्रकार
SO
Page #448
--------------------------------------------------------------------------
________________
४३४
सहजानन्दशास्त्रमालाया
स्यात्तथा संयतस्य स्वस्य योग्यमतिकर्कशमेवाचरणमाचरणीयमित्युत्सर्गः । बालवृद्धश्रान्तरग्लानेन शरीरस्य शुद्धात्मतत्त्वसाधनभूतसंयमसाधनत्वेन मूलभूतस्य छेदो न यथा स्यात्तथा बालवृद्धश्रान्तग्लानस्य स्वस्य योग्यं मृद्वेवाचरणमाचरणीय मित्यपबादः । बालवृद्धश्रान्तग्लानेन संयमस्य शुद्धात्मतत्त्वसाधनत्वेन मूलभूनस्य छेदो न यथा स्यातथा संयतस्य स्वस्य योग्यमतिकर्कशमाचरणमाचरता शरीरस्य शुद्धात्मतत्त्वसाधन भूतसंयमसाधनत्वेन मूलभूतस्य छेदो न यया स्यात् तथा बालवृद्धश्रान्तग्लानस्य स्त्रस्य योग्यं मृद्वप्याचरणामाचरणीमित्यपवादसापेक्ष उत्सर्गः । वालवृद्धश्रान्तग्लानेन शरीरस्य, शुद्धात्मतत्त्वसाधन भूतसंयमसाधनदेन मूलभूतस्य छेदो न यथा स्यात्तथा बालवृद्धश्रान्तग्लानस्थ स्वस्य योग्यं मृदाचरणमाचरता संयमस्य शुद्धात्मतत्त्वसाधनधातुसंज्ञ-हव सत्तायां, चर गती । प्रातिपदिकः-- बाल वा वृद्ध वा समभिहत वा पुनर् ग्लान वा चर्या स्व. योग्या मूलच्छेद यथा न । मूलधातु-रले हर्ष क्षये, चर गत्यर्थः, भू सत्तायां । उभयपदविवरण-बालो बाल: बुड्ढो वृद्धः सममिहदो समभिहत: गिलामे म्लानः मूलच्छेद मुलच्छेदः-प्रथमा एकवचन । चरिय चर्या-द्वितीया एकवचन । सजोग्गं स्वयोग्यां-द्वि० एक० । चरदु चरतु-आज्ञार्थे अन्य पुरुष एक० किया। वा जधा यथा ण न-अव्यय । हवदि भवति-वर्तः अन्य एक क्रिया | निरुक्ति-- मन्यन्ते यत् विशेषण से स्वयोग्यां] अपने योग्य [चर्या चरतु] प्राचरण करे ।
तात्पर्य बाल, वृद्ध, रोगी, तपस्यासे थका हुआ कोई भी श्रमण अपन] आचरण ऐसा करे जिसमें मूल संयमका घात न हो।
_____टोकार्थ- बाल, वृद्ध, श्रान्त या ग्लान श्रमण के द्वारा भी शुद्धात्मतत्वके साधनभूत होनेसे मूलभूत संयमका छेद जैसे न हो उस प्रकार संयत को अपने योग्य प्रति कठोर ही प्राच. रण प्राचरना चाहिये, यह उत्सर्गमागं है । तथा बाल, वृद्ध, श्रान्त, ग्लान श्रमणके द्वारा शुद्धा. स्मतत्वके साधनभूत संयमका साधन होनेसे मूलभूत शरीरका छेद जैसे न हो उस प्रकार बाल. वृद्ध-श्रोत ग्लान के अपने योग्य मृदु आचरण ही आचरना चाहिये, यह अपवादमार्ग है । शुद्धा. स्मतत्वका साधन होनेसे मूलभूत संयमका छेद जैसे न हो उस प्रकार संयतके अपने योग्य अति कठोर पाचरण प्राचरते हुये बाल वृद्ध श्रान्त ग्लान थ्रमाके द्वारा शुद्धात्मतत्त्वके साथ. नभूत संयमका साधन होनेसे मूलभूत शरीरका भी छेद कैसे न हो उस प्रकार बाल-वृद्ध-श्रान्तग्लानके योग्य मृद्र आचरण भी प्राचरना चाहिये इस प्रकार अपवादसापेक्ष उत्सर्ग है । शुद्धा. स्मतत्व के साधन भून संयमका साधन होनेसे मूलभूत शरीरका छेद जैसे न हो उस प्रकारसे बाल-वृद्ध-धान्त-ग्लान के अपने योग्य मृद प्राधरण आचरते हुये बाल वृद्ध श्रान्त ग्लानके द्वारा शुद्धात्मतत्वका साधन होनेसे मूलभूत संयमका छेद जैसे न हो, उस प्रकारसे संयतको अपने योग्य अतिकर्कश प्राचरण भी प्राचरना चाहिये इस प्रकार उत्सर्ग सापेक्ष अपवाद है । अतः
Page #449
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार...सप्तदशांगी टीका
अ
खेत मूलभूतस्य छेदो न यया स्यात्तथा संयतस्य स्वस्य योग्य मतिर शमष्याचरणमाचरणोयमित्युत्सगंसापेक्षोऽपवादः । अत: सर्वथोत्सर्गापवादमथ्या सौस्थित्यमाचरणस्य विधेयम् ॥२३॥ इति मधु: (मन् + उ नस्य धः) बलति इति बाल: बल प्राणने स्वादि चुरादि । समास- मूलस्य छेद: मूलनवदः ॥२३॥ सर्वथा उत्सर्ग और अपबादकी मैत्री द्वारा प्राचरणका सुस्थितपना करना चाहिये ।
प्रसंगविवरण – अनन्तरपूर्व गाथामें योग्य आहार का स्वरूप बताया गया था । अब इस गाथामें उत्सर्गमार्ग व अपवादमार्गको मैत्रीसे ठोक बैठने वाला पाचरण बताया गया है ।
तथ्यप्रकाश-(१) संयमी जनके अपने योग्य प्रति कठोर प्राचरणको, निवृत्तिप्रमुख प्राचरणको उत्सर्गमार्ग कहते हैं । (२) संयमी जनके अपने योग्य चरणानुयोगसम्मत मृदु प्राचरणको अपवादमार्ग कहते हैं । (३) उत्सर्गमार्गमें उस ही प्रकारसे कर्कश आचरण पाचर. गीय है जिसमें शुद्धात्मतत्त्वके साधन रूप संयमका घात न हो सके । (४) अपवादमार्गमें इतने मात्र प्रयोजनसे पाहार विहार निहारादिरूप मृदु प्राचरण पाचरणीय है जिससे संयमके बहिर साधनभूत शरीरका घात न हो जाय । (५) कोई सन्यासमरणका अपात्र श्रमरण अप. वादमार्गको त्यागकर केवल उत्सर्गमार्गका ही हठ करे तो वह प्रात्मप्रगतिमार्गसे भ्र हो जावेगा । (६) कोई इन्द्रियसुखावशी श्रमण उत्सर्ग मार्गको त्यागकर केवल अपवादमार्गके प्राच. रणमें संतुष्ट रहता है तो वह प्रात्मप्रगतिमार्गसे भ्रष्ट हो जायगा । (७) प्रात्मप्रगतिमार्गमें निविधन बढ़नेके लिये उत्सर्गसापेक्ष अपवादमार्गका प्राचरण करना चाहिये और अपवादसापेक्ष उत्सर्गमार्गका प्राचरण करना चाहिये । (८) अपवादमार्गका अर्थ चरणानुयोगके अनुसार पाहारादिसे अपना निर्वाह करना है, यहाँ अपवादमार्गका अर्थ प्राचरण भ्रष्ट करना नहीं है । (8) उत्सर्गमार्गका अर्थ बाह्यप्रवृत्ति त्याग कर मात्र शुद्धात्मतत्त्वको दृष्टि की उपासनामें ही उप.
योग रखना है । (१०) उत्सर्ग मागं व अपवादमार्गको मंत्रोके द्वारा ही प्राचरणका भला रहना ENठोक बैठता है।
सिद्धान्त--(१) उत्सर्गमार्गमें परमोपेक्षासहित ज्ञानमात्र अन्तस्तत्त्वकी प्राराधनारूप । निश्चयसंयम होता है । (२) अपवादमार्गमें चरणानुयोगानुसार प्रवृत्तिरूप व्यवहारचारित्र होता
Fampoorninde khaniwwww.me.......maarww.netun:/vwwwrmana-prammerciwwwin. munnar
88888888
दृष्टि ..... १ - जाननय (१६४) । २-- क्रियानय (१६३) ।
प्रयोग-धरणानुयोगविधिसे अपनी जीवनचर्या निभाकर अपने में अपने सहज स्वभाव को प्रङ्गीकार करते हुए स्वरूपमग्न होनेका पौरुष होने देना ॥२३०॥ ...
अब उत्सर्ग और अपवादके विरोधसे प्राचरया की दुःस्थितताको बतलाते हैं- [यवि]
Page #450
--------------------------------------------------------------------------
________________
४३६
सहजानन्दशास्त्रमालायां
maara
प्रथोत्सर्गापवादविरोधदौःस्थमाचरणस्योपदिशति
श्राहारे व विहारे देसं कालं समं खमं उवधिं । जाणित्ता ते समणो वट्टदि जदि अप्पलेवी सो॥२३१।। देश काल श्रम क्षमता, उपधीको जानकर श्रमरण वर्ते ।
माहार विहारोंमें, तो वह है प्रल्पलेपो मुनि ॥२३१॥ आहारे बा विहारे देश काल श्रम क्षमामुपधिम् । ज्ञात्वा तान् श्रमणो बतंते यायल्पलेपी सः ।। २३१ ॥
. पत्र क्षमाम्लानत्वहेतुरुपवासः । बालवृद्धत्वाधिष्ठानं शरीरमुपषिः, ततो बालवृद्धश्रान्त. ग्साना एव त्वाकृष्यन्ते । अथ देशकालज्ञस्यापि बालवृद्धश्रान्तग्लानत्वानुरोधेनाहारविहारयोः - ' नामसंज्ञ---आहार व विहार देस काल सम खम उपधि त रामण जदि अग्पलेवि त । धातुसंज्ञ--
धने, धत्त वर्तने । प्रातिपदिक....आहार व विहार देश काल श्रम क्षमा उपधि तत् धमण यदि बालेपिन् तत् । मूलधातु-शा अवबोधने, वृतु वर्तने । उभयपदविवरण- आहार विहारे-सप्तमी एकः । यदि [श्रमरणः] श्रमण [पाहारे वा विहारे] अाहार अथवा विहारमें [देशं] देश, [कालं] काल [श्रमं] श्रम, [क्षमा] उपवासादिकी क्षमता तथा उपधि] उपवि, [तान ज्ञात्वा] इनको बानकर [वर्तते प्रवर्तता है सः अल्पलेपः] तो वह अल्पलेपी होता है। :: . तात्पर्य–युक्ताहारविहार करने वाला श्रमण अल्पलेपी है । : : टोकार्य क्षमता तथा ग्लानताका हेतु उपवास है और बाल तथा वृद्धत्वका अविष्ठान
शरीर उपधि है, इसलिये यहाँ बाल-वृद्धाश्रांत-ग्लान ही लिये गये हैं । अब बाल-वृद्ध श्रोत ग्लानत्वके अनुरोध से पाहार-विहारमें प्रवृत्ति कर रहे देशकालमके भी मृदु प्राचरगामें प्रवृत्त होनेसे पल्प लेप होता दी है। इसलिये अपवाद अच्छा है । तथा बाल-वृद्ध-श्रांत ग्लानत्वके ।। मनुरोषसे, माहार-बिहारमें होने वाले पल्पलेपके भयसे उसमें प्रवृत्ति न कर रहे देशकालज्ञके भी पति कर्कश प्राचरणरूप होकर अक्रममें शरीरपान करके देवलोक प्राप्त करके जिसने समस्त मंयमामृतका समूह वमन कर डाला है उसे तपका अवकाश न रहनेसे, जिसका प्रतीकार प्रशस्य है ऐसा महान लेप होता है. इसलिये अपवाद निरपेक्ष उत्सर्ग श्रेयस्कर नहीं है। तथा बाल-वृद्ध श्रोत-ग्लानत्वके अनुरोधसे पाहार-विहारमें होने वाले अलालेपको न गिनकर उसमें यथेष्ट प्रवृत्ति कर रहे देश काल के भी मृदनाचरण रूप होकर संयम बिगाड़कर असंयत मनके समान हये उसके उस समय तपका अवकाश न रहने ये, जिसका प्रतीकार अशक्य है ऐसा महान् लेप होता है । इसलिये उत्सर्गनिरपेक्ष अपवाद श्रेयस्कर नहीं है । अतः उत्सर्म भौर अपवादके विरोधसे होने वाले पाचरणको दुःस्थितता सर्वया त्याज्य है, और इसीलिये
prem
maintanti
minantimantulitis
Page #451
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रचचनसार-सप्तदशांगी टोका
प्रवर्तमानस्य मृद्वाचरणप्रवृत्तत्वादलो लेपो भवत्येव नद्वरमुत्सर्गः देशकालज्ञस्यापि बालवृद्धा तलावानुरोधेनाहारविहारयोः प्रवर्तमानस्य मुढावरण प्रवृत्तत्वादल्प एव लेपो भवति तद्वरमपवादः । देशकालज्ञस्यापि बालवृद्धश्रान्तग्लानत्वानुरोधेनाहारविहारषोरल्पलेपभयेनाप्रवर्तमानस्यातिककशाचरणीभूयाक्रमेण शरीरं पातयित्वा सुरलोकं प्राप्यद्वास्तसमस्तसंयमामृतभारस्व तपसोऽवकाशतयाशक्य प्रतिकारो महान् लेपो भवति । तन्न श्रेयानपवादनिरपेक्ष उत्सर्गः । देशकालज्ञस्यापि बालवृद्धश्रान्तग्लानत्वानुरोधेनाहारविहारयोरल्पलेपत्वं विगणय्य यथेष्टं प्रवर्तमनस्य मृद्वाचरणीभूय संयमं विराध्यासंयत जनसमानोभूतस्थ तदात्वे तपसोऽनवकावायाशक्य प्रतिकारी महान लेयो भवति तन्न श्रेयानुत्सर्गनिरपेक्षोऽपवादः । मतः सर्वयोत्सर्गापवादविरोधदीस्थित्यमाचरस्य प्रतिषेध्यं तदर्थमेव सर्वयानुगम्यश्च परस्परसापेक्षोत्सर्गापवादविजम्भितदेस देश काल समं मं खनं क्षमो उवत्रि उपाधि-द्वितीया एकवचन । जाणित्ता ज्ञात्वा सम्बधार्थप्रक्रिया। तान - द्वि० बहु० | समणी श्रमणः अप्पसेवी अपने सरेस-प्रथमा एक० । व वा जदि यदि अव्यय । परस्पर सापेक्ष उत्सर्ग और अपवादसे जिसकी वृत्ति प्रगट होती है ऐसा स्याद्वाद सर्वेचा मनुसरण करने ओोग्य है । इत्येवं इत्यादि । श्रर्थ - इस प्रकार विशेष पादरपूर्वक पुराण पुरुषीके द्वारा सेवित, उत्सगं और अपवाद द्वारा अनेक पृथक पृथक भूमिकाओंको प्राप्त करके यति क्रमश: अतुल निवृत्ति करके, चैतन्य सामान्य और चैतन्य विशेषरूप जिसका प्रकाश है ऐसे निज द्रव्य में सर्वतः स्थिति करे ।
४३७
प्रसंग विवरण — अनन्तरपूर्व गाथा में बताया गया था कि उत्सर्गमार्ग व प्रपवादमार्ग की मैत्रीपूर्वक माचरण ठीक बैठता है। घब इस गायामें बताया गया है कि उत्सव प दमा विरोध रखनेसे आचरणको दुःस्थितता हो जाती है ।
तथ्यप्रकाश - ( १ ) श्रमण देश बाल श्रम क्षमता उपधि ( देहस्थिति) जानकर माहार बिहार में प्रवर्तन करता है । (२) क्षमता व ग्लानताका कारण उपवास है । (३) देह बालपना, gavar satara रोगीपनाका आधार है । ( ४ ) चूंकि बालस्व, वृद्धत्व व ग्लानका वार उपधियाने देह है सो देहस्थिति जानकर जो बात कहनी है वह बाल वृद्ध, श्रान्त (चके हुए) ग्लान श्रमणोंके लिये ही कहनी है । (५) देश कालके जाननहार तथा बालपना वृद्धरना आन्तपना व ग्लानपनाके अनुसार प्राहार विहार में प्रवर्तमान श्रमणके कोमल प्राचरणमें प्र तपना होनेसे प्रल्प लेक होता ही है, इस कारण उत्सर्गमार्ग श्रेष्ठ है । ( ६ ) देशकालन तथा बालवृद्धान्तग्लानपना के अनुरोधसे आहार विहार में प्रवर्तमान श्रमणके कोमल आचरण में प्रबर्तना होनेसे अल्प ही लेप होता है इस कारण वह अपवादमार्ग भला है । (७) यदि कोई
Page #452
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां वृत्तिः स्थाबादः ॥ इत्येवं चरण पुराणपुरुष्टं विशिष्टादरैरुत्सर्गादपवार विपरीः पृथग्भूमिकाः । अाक्रम्य क्रमतो निवृत्तिमतुलां कृत्वा यक्षिः सर्वतश्चित्सामान्यविशेषभासिनि निजद्रव्ये करोतु स्थितिम् ॥१५|| इत्याचरण प्रज्ञापन समाप्तम् ।।२३१ 11 बदि बर्तते-बर्तमान अन्य पुरुष एकवचन किया। निर्मित -क्षमणं क्षमाः (क्षम् + अङ् + टा) क्षम सहने । समास-अल्पश्चासो लेपश्चेति अल्पलेपः अल्पलेप यस्य सः अल्पलेपी ।।२३।। श्रमण यह सोचकर कि बालवृद्धश्रान्तग्लानत्वके अनुरोधवश भी पाहार विहार में अल्प लेप भी क्यों हो, इस भय से बाहार विहार सर्वथा बंद कर दे और अनशनादि अत्यन्त कठोर प्रापरण करके मकालमें शरीरको हटा दे याने मरण कर ले तो ज्यादासे ज्यादा देव ही तो हो जायगा सो वहाँ संयम रंच नहीं, तप रंच नहीं सो तो और बड़ा अपराध हो जायेगा । (८) मावश्यक प्रपवादमार्गको त्यागकर उत्सगं मागेकी हो हठ करके मरण कर असंयमी जीवन पाने में तो कई गुणा लेप अपराध हो जाता इस कारण अपवादनिरपेक्ष उत्सर्ममार्ग भला नहीं। (8) यदि कोई श्रमण "बालवृद्धत्वादिके अनुरोधसे पाहार विहार करने में अल्प हो तो लेप (अपराध) है उसको क्या गिनना" यह सोचकर स्वच्छन्द प्राहार विहार में लग जाय, एकदम कोमल नाचरणमें लग जाय तो संयमका पात करके प्रसंयमोजनके ही समान वह हो गया, फिर तो इस ही तपका अवकाश न होनेपर महान् अपराधी हो गया । (१०) उत्सर्गमार्गको
उपेक्षा करके मात्र अपवादमार्गसे ही चलकर स्वच्छन्द प्रवृत्ति करने में इसी भवमें महान् वि. *गाड़ हो जाता है, इस कारण उत्सर्गनिरपेक्ष अपवादमार्ग श्रेयस्कर नहीं है। (११) उत्सर्ग पोर अपवादमार्गमें विरोध करके किसी एक मार्गकी हठ रखनेसे प्राधरण सुस्थित नहीं होता पोर वह हठयोग प्रतिषेध्य है । (१२) आचरण भला घले जिससे मोक्षमार्गसे न डिगे इसके लिये उत्सर्गमार्ग व अपवादमार्गकी सापेक्षताको प्रकट करने वाला स्थावाद अनुसरणीय है।
सिद्धान्त----(१) अविकारस्वभाव प्रात्माको वर्तमान विकारस्थितिसे हटने के प्रोग्राम में परस्पर सापेक्ष उत्सर्ग व अपवाद मार्गसे साधनाका प्रारंभ होता है।
दृष्टि-१- परस्परसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२६प्र)। .. प्रयोग---अपवादसापेक्ष उत्सर्गमार्गकी साधनासे अपने लक्ष्यभूत सहज चित्स्वभादमें उपयुक्त होना ।।२३१॥
इस प्रकार 'प्राचरण प्रज्ञापन' समाप्त हुप्रा।
अब श्रामण्य दूसरा नाम है जिसका ऐसे एकाग्रहालक्षग वाले मोक्षमार्गका प्रज्ञापन है। उसमें प्रथम मोक्षमार्गके मूल साधनभूत आगममें व्यापार कराते हैं... [श्रमण:] श्रमण
==de
os
Page #453
--------------------------------------------------------------------------
________________
४३६
SHREE
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका अथ श्रामण्यापरनाम्नो मोक्षमार्गस्यैकाग्रलक्षणस्य प्रज्ञापनं तत्र तन्मूलसाधनभूते प्रम। ममागम एवं व्यापारयति
एयग्गगदो समणो एयग्गं णिच्छिदस्स अतथेसु । णिच्छित्ती यागमदो अागमचेट्टा तदो जेट्टा ॥२३२॥ एकाग्रगत श्रमण है, एकाग्रय हि निश्चितार्थके होता।
निश्चय आगमसे हो, सो पागम ज्ञान है उत्तम ॥२३२॥ एकाग्रयगतः श्रमणः ऐकाग्रय निश्चितस्थ अर्थेषु । निश्चितिरागगल आगमचेष्टा ततो ज्येष्ठा ।। २३२ ।।
श्रमणो हि तावदेकाग्रयगत एव भवति । ऐकाग्रय तु निश्चितार्थस्यैव भवति । अर्थ। निश्चयस्त्वागमादेव भवति । तत प्रागम एव व्यापारः प्रधानतरः, न चान्या गतिरस्ति । यतो
न खल्वागमम तरणार्था निश्चेतु शक्यन्ते तस्यैव हि त्रिसमयप्रवृत्तत्रिलक्षणसकलपदार्थसार्थयायात्म्यावगमसुस्थितान्तरङ्गगम्भोरत्वात् । न चार्थनिश्चयमन्तरेगी काग्र सिद्धयत् यतोऽनिविचतार्थस्य कदाचिन्नि श्चिकोर्षाकुलितचेतसः समन्ततो दोलायमानस्यात्यन्ततरलतया कदाचिविचकीर्षाज्वर परवशस्य विश्व स्वयं सिसृक्षोविश्वव्यापारपरिणतस्य प्रतिक्षणविज़म्भमाणक्षोभतया कदाचिबुभुक्षाभावितस्य विश्वं स्वयं भोग्यतयोपादाय रागद्वेषदोषकल्माषितचित्तवृत्तरिशानिष्टविभागेन प्रवर्तितद्वतस्य प्रतिवस्तुपरिणममानस्यात्य तविसंस्थुलतयाऽकृतनिश्चयस्य नि:क्रियनि भोंगं युगपदापोतविश्वमप्यविश्वतयक भगवन्तमात्मानमपश्यत: सततं वैयग्रयमेव स्यात् ।
नामसंज्ञ--एयग्गगद समण एयग्ग णिच्छिद अत्थ णिन्छित्ति आगमदो आगमचेदा तदो जेट्रा धातुसंजचेटु चेष्टायां । प्रातिपदिक-एकाग्रथगत श्रमण ऐकाय निश्चित अर्थ निश्चिति आगमत: ततः भागमचेष्टा ज्येष्ठा । मूलधातु-चेष्ट चेष्टायां । उभयपदविवरण-एयग्गगदो एकाग्रयगत: समणो श्रमणः निश्चितिः णिच्छिती आगमचेट्ठा आगमष्टा जेट्ठा ज्येष्ठा-प्रथमा एकवचन । एयग्गं ऐकायं-द्वितीया [एकानपगतः] एकाग्रताको प्राप्त होता है; [ऐकाग्रय] एकाग्रता [अर्थेषु निश्चितस्य] पदार्थोके निश्चय करने वाले के होती है; [निश्चितिः] पदार्योका निश्चय [आगमतः] मागम द्वारा होता है; तितः] इसलिये [प्रागमचे] प्रागममें व्यापार [ज्येष्ठा] मुख्य है। __ . तात्पर्य--प्रागमका अध्ययन करना मुख्य कर्तव्य है, क्योंकि इससे ही तत्त्वनिश्चय होकर एकाग्रता होती है।
टोकार्थ-श्रमरण वास्तव में एकाग्रताको प्राप्त करने वाला ही होता है; एकाग्रता पदार्थोक निश्चयवान के हो होतो है; पौर पदार्थोका निपचय मागम द्वारा ही होता है; इसलिये प्रागममें हो व्यापार विशेष प्रधान है; दूसरी गति (अन्यमार्ग) नहीं है । इसका कारण यह है
RA
BAR
Page #454
--------------------------------------------------------------------------
________________
LOORNARGIBIMANDosthapanास
REGMIntentiomhindi
सहजानन्दशास्त्रमालायां
P
Himala
wwwwwwwmate
न धकाग्र घमन्तरेण श्रामण्यं सिद्धयत्, यतो नैकाग्रघस्यानेकमेवेदमिति पश्यतस्तथाप्रत्ययाभिनिविष्टस्यानेकमेवेदमिति जानतस्तथानुभूतिभावितस्यानेकमेवेदमितिप्रत्यय विकल्पव्यावृत्तचेतसा संततं प्रवर्तमानस्य तथावृत्तिदुःस्थितस्य चैकात्मप्रतीत्यनुभूतिवृत्तिस्वरूपसम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र. परिणतिप्रवृत्तशिज्ञप्तिवृत्तिरूपात्मतत्त्वैकाग्रचाभावात शुद्धात्मतत्त्वप्रवृत्तिरूपं श्रामण्यमेव न स्यात् अतः सर्वथा मोक्षमापिरनाम्न: श्रामण्यस्य सिद्धये भगवदह सर्वज्ञोषज्ञे प्रकटानेकान्तके. एक० । णिच्छिदस्स निश्चितस्य-षष्ठी एक० । अत्येसु अर्थेषु-सप्तमी बहुवचन । आगमदो आगमतः तदो तत:-अव्यय पंचम्यर्थे । निरुक्ति-आ गमनं आगमः (आ गम् + घ) गम्ल गतो, अतिशयेन वृद्धा इति कि वास्तव में प्रागमके बिना पदार्थों का निश्चय नहीं किया जा सकता; क्योंकि प्रागमके ही त्रिकाल प्रवृत्त है उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप तीन लक्षण जिसके ऐसे सकलपदार्थसार्थके यथातथ्य ज्ञान द्वार। सुस्थित अंतरंगसे गंभीरपना है। और, पदार्थोके निश्चयके बिना एकाग्रता सिद्ध नहीं होती; क्योंकि, पदार्थों का निश्चय जिसके नहीं है ऐसे जीबके व कदानित निश्चिकोर्षासे प्राकुलताप्राप्त थिसके कारण सर्वतः हमाडोल जीवके अत्यन्त तरलता होती हैं। कदाचित करने की इच्छारूप जन रसे परवश होते हुए व विश्वको (समस्त पदार्थोंको) स्वयं सर्जन करनेकी इच्छा करते हुए तथा समस्त पदार्थों को प्रवृत्तिरूप परिणत हुए जीबके प्रति क्षण क्षोभकी प्रगटता होती है, और कदाचित् भोगनेकी इच्छासे भावित होते हुए व विश्वको स्वयं भोग्यरूप ग्रहण करके रागद्वेषरूप दोषसे कलुषित चित्तवृत्तिके कारण वस्तुप्रोंमें इष्ट पनिष्ट विभागके द्वारा द्वैतको प्रवर्तित करते हुए व प्रत्येक वस्तुरूप परिणाम रहे जीवके अत्यन्त अस्थिरता होती है, अत: उपरोक्त तीन कारणोंसे उस अनिश्चयो जीवके व निष्क्रिय और निर्मोग भगवान प्रात्माको-जो कि युगपत् विश्वको पो जाने वाला होनेपर भी विश्व. रूप न होने से एक है उसे नहीं देखने वालेके सतत व्यग्नता ही होती है । और एकाग्रताके बिना श्रामण्य सिद्ध नहीं होता; क्योंकि जिसके एकाग्रता नहीं है वह जीव 'यह अनेक ही है। ऐसा देखता हुमा उस प्रकारको प्रतीति में अभिनिविष्ट होता है; 'यह अनेक हो है' ऐसा जानता हुना उस प्रकार की अनुभूतिसे भावित होता है, और यह अनेक ही है' इस प्रकार प्रत्येक पदार्थ के विकल्पसे छिन्नभिन्न चित्त सहित सतत प्रवृत्त होता हुप्रा उस प्रकारकी वृत्तिसे दुःस्थित होता है, इसलिये उसे एक प्रात्माको प्रतीति-अनुभूति-वृत्तिस्वरूप सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्र परिणतिरूप प्रवर्तमान जो दृशि झप्तिवृत्तिरूप प्रात्मतत्त्वमें एकाग्रता है उसका प्रभाव होनेसे . शुद्धात्मतत्वप्रवृत्तिरूप श्रामण्य ही नहीं होता। इस कारण मोक्षमागं जिसका दूसरा नाम है ऐसे श्रामण्यको सर्वप्रकारसे सिद्धि करनेके लिये मुमुक्षु को भगवान् अर्हन्त सर्वज्ञ द्वारा प्राप्त शब्दब्रह्ममें—जिसका कि अनेकान्तरूपी ध्वज प्रगट है उसमें निष्णात होना चाहिये ।
TyrmimmmmmmmmmmmmmmwwwinemamaAIMIKIAMpmawaiawwwwwwwwwwwwwww Arvinamstricicia'NoniwwmanupamanmaswaminenwwmAyMItnawinnrvsn
Page #455
--------------------------------------------------------------------------
________________
CARE
YATRAPATIRTRATAWA--
-
Rumah
KARANCYNCHRAMMARY
More
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका
४४१ तने शब्दब्रह्मणि निष्णातेन मुमुक्षुगा भवितव्यम् ।।२३२।। ज्येष्ठा (वृद्ध - ठन् + टाप् + वृद्धस्य ज्यादेशः) । समास आगमे चेष्टा आगमचेष्टा ॥२३॥
प्रसङ्गविवरण-अनन्तरपूर्व गावामें उत्सर्ग व अपवादमार्गके विरोधसे आचरणको दस्थितता बताई गई थी। अब इस गाथामें कर पाचरण प्रज्ञापन समाप्त किया गया था। अब एकाग्रता लक्षणा वाले मोक्षमार्गके प्रज्ञापनके स्थल में मोक्षमार्ग प्रर्थात् श्रामण्यके मूल. साधनभूल पागम में व्यापार कराया गया है।
तथ्यप्रकाश---(१) श्रमण वास्तवमें एकाग्रताको प्राप्त करने वाला ही होता है। २) एकाग्नता उसये ही संभव है जिसमें पदार्थोके यथार्थ स्वरूपको निश्चय किया है । (३) पदार्थों का यथार्थ निश्चय ग्रागमसे ही होता है । (४) श्रामण्यसिद्धिके लिये मूल उपाय प्रागम का अभ्यास है । (५) अागमसे ही उत्पादध्ययनोव्यात्मक पदार्थ समूहका यथार्थ निश्चय होता हैं। (६) अर्थनिश्चयके बिना एकाग्रताकी सिद्धि नहीं । (७) जिसके अर्थनिश्चय नहीं वह । कभी तो कुछ करने की दिशा न मिलनेसे प्राकुलित होकर यत्र तत्र डावाडोल होकर अत्यन्त
पस्थिर रहता है । (८) और अर्थनिराश्रयरहित जीव कभी करने की इच्छा ज्वरसे परवश होकर सब कुछ रच डालनेका इच्छुक होकर सारे व्यापारमें लगकर प्रतिक्षण क्षोभको बढ़ाता रहता है । (६) अर्थनिश्चयरहिन जीव कभो भोगनेको इच्छासे सारे विश्वको भोग्य मानकर उसके प्रसंगमें हुए राग द्वेष से कलुषित हुग्रा यह ज्ञेयार्थरूप परिणाम परिण में कर अस्थिरचित्त रहता है । (१०) अर्थनिश्चयरहित यह जीव अपने भगवान प्रात्माके निष्क्रिय निर्भोग स्व. भावको न देखकर निरन्तर व्यग्र रहता है । (११) यह निष्क्रिय निर्भोग भगवान प्रात्मा समस्त विश्वको पी लिया (जान लिया) जानेपर भी विश्वरूप न होकर एक है यह सहजात्म. स्वरूप अज्ञानी को नहीं जाल है अतः वह सतत व्यग्र रहता है । (१२) एकाग्रताके बिना श्रा। मध्यकी सिद्धि नहीं । (१३) जिसके एकाग्रता नहीं वह जीव अपनेको "यह अनेक हो है" ऐसा निरखता हुआ ऐसी ही प्रास्थासे घिरा रहता है। (१४) जिसके एकाग्रता नहीं : वह नीव अपनेको "यह अनेक है" ऐसा जानता हुअा अनेकरूपकी अनुभूतिसे अपने को हुवाता है । (१५) जिसके एकाग्रता नहीं वह जीव अपनेको "यह अनेक ही है" इस प्रकार छिन्न भिन्न वित्तविकल्पसे युक्त होकर वैसी हो वृत्तिसे परिणमता रहता है । (१६) जिसके एकांग्रता नहीं उस जीवके एक प्रात्माको प्रतीति अनुभूति वृत्तिरूप एकाग्रताका प्रभाव होने से शुद्धात्मतत्त्वमानतारूप श्रामण्य ही सिद्ध नहीं हो सकता । (१७) श्रामण्य प्रर्थात् मोक्षमार्गकी सिद्धिके लिये मुमुक्षुको भगवत्प्राप्त अनेकान्तमय शब्दब्रह्म अर्थात् आगममें अभ्यस्त होना ही चाहिये ।
Page #456
--------------------------------------------------------------------------
________________
A
૪૨
सहजानंदशास्त्रमालायां
terruptata मोक्षायं कर्मक्षपरणं न संभवतोति प्रतिपादयतिग्रामीणो समय गोवप्पाणं परं वियागादि । विजागांत खवेदि कम्माण किध भिक्खू ॥२३३॥ आगमहीन श्रमण तो यथार्थ निल सत्यको नाने
तत्त्व नहि जानता मुनि, कैसे क्षत कर्म कर सकता ||२३३||
आगमहीनः श्रमणो नैवात्मानं परं विजानाति । मविजानत्रर्थात् क्षपयति कर्माणि कथं भिक्षुः ॥ २३३ ॥ न स्वत्वागममन्तरेण परात्मज्ञानं परमात्मज्ञानं वा स्यात् न च परात्मज्ञानशून्यस्य परमात्मज्ञानशून्यस्य वा मोहादिद्रव्य भावकर्मणा जतिपरिवर्तरूपकर्मणा वा क्षपणं स्यात् । तथाहिन तान्निरागमस्य निरवधिभवापगाप्रवाहबाद्दिमहामोहमलमलीमसस्यास्य जगतः पीतोन्मत्त
नामसंज्ञ - आगमहीग समण ण एव अप्प पर अवजात अट्ट कम्म कि भिक्खु । धातुसंज्ञ - वि जाण अवबोधने, सव क्षयकरणे । प्रातिपदिक-आगमहोन श्रमण न एवं आत्मन् पर अर्थ अविजानत् कम्म कथं भिक्षु । मूलघातु-शा अवबोधने, क्षपि क्षयकरणे चुरादि । उभयपद विवरण- आगमहोणो आगमहीनः समणो भ्रमणः अविजानत्तो अविजानन भिम्बू भिक्षुः-प्रथमा एकवचन । अप्पा आत्मानं परं द्वितीया
सिद्धान्त -- ( १ ) ज्ञानमय श्रात्मामें ज्ञानमय पुरुषार्थसे ज्ञानमय प्रात्माकी ज्ञानमय उपलब्धि होती है।
दृष्टि - १- पुरुषकारतय, गुणिनय, ज्ञाननय (१८३, १८७, १९४) ।
प्रयोग - मोक्षमार्गको प्राप्तिके लिये तत्त्वज्ञान के परमसाघनीभूत प्रागमके ज्ञान में प्रधानतया पौरुष करना ॥ २३२॥
अब भागमहोन पुरुषके मोक्ष नामसे प्रसिद्ध कर्मक्षपण नहीं होता, यह प्रतिपादन करते हैं-- [ श्रागमहोनः ] श्रागमहीन [ श्रमणः ] श्रमण [ श्रात्मानं ] प्रात्माको श्रीर [परं] परको [न एवं विजानाति ] नहीं जानता हो [अर्थात् अविजानन् ] पढार्थीको नहीं जानता मा [भिक्षुः ] भिक्षु [ कर्माणि ] कर्मोंको [ कथं ] किस प्रकार [क्षपयति ] क्षय कर सकता है ? तात्पर्य - भागमहीन पुरुष स्वपरको न जानता हुमा कमका क्षय कैसे कर सकता
?
टीकार्थ- वास्तव में प्रागमके बिना परात्मज्ञान या परात्मज्ञानशून्यके व परमात्मज्ञानशून्यके मोहादि द्रव्यभाव कमका क्षय नहीं होता। इसका स्पष्टीकरण -- प्रागमद्दीन व पनादि भवसरिताके प्रवाहको बहाने वाले महामोहमलसे मलिन तथा धतूरा पिये हुये मनुष्यकी भाँति नष्ट हो गया है विवेक
परमात्मज्ञान नहीं होता; पोर कमौका या ज्ञप्तिपरिवर्तनरूप
Page #457
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशानी टीका
४४३ कस्येवावको विवेकस्याविविक्तन ज्ञानज्योतिषा निरूपयतोऽप्यात्मात्मप्रदेशनिश्चितशरीरादिद्रव्यूपयोगमिश्रितमोहरागद्वेषादिभावेषु च स्वपरनिश्चायकागमोपदेशपूर्वकस्वानुभवाभावादर्य परोऽयमात्मेति ज्ञान सिद्धयत् । तथा च त्रिसमयपरिपाटीप्रकटिवविचित्रपर्यायप्रारभारागाध. गम्भीर स्वभाव विश्वमेव ज्ञेयीकृत्य प्रतपता परमात्मनिश्चायकागमोपदेशपूर्वकस्वानुभवाभावात् एक: | वियाणादि विजानाति खबेदि क्षपर्याप्त वर्तमान अन्य ० एक० क्रिया । कम्माणि कर्माणि अटें अर्थान-द्वि० बहु० । किंध कथं- अव्यय । निरुक्ति- भिक्षतीति भिक्षुः भिक्ष भिक्षायां (भिक्ष + उ)। जिसके ऐसे इस जीवके प्रविविक्त ज्ञानज्योतिसे देखनेपर भी स्वपर निश्चायक प्रागमोपदेश
पूर्वक स्वानभवके प्रभाव के कारण, आत्मामें और प्रात्मप्रदेशस्थित शरीरादि द्रव्यों में तथा । उपयोगमिश्रित मोहरागद्वेषादि भावों में यह पर है और यह स्व है' ऐसा ज्ञान सिद्ध नहीं होता । तथा उसी प्रकार परमात्माका निश्नय कराने वाले प्रागम के उपदेशपूर्वक स्वानुभवका प्रभाव होनेसे त्रिकाल परिपाटीमें विचित्र पर्यायोंका समूह प्रगट हुअा है जिसके ऐसे भगाध। गम्भीरस्वभाव विश्वको शेषरूप करके प्रतपित ज्ञानस्वभावी एक परमात्माका ज्ञान भी सिद्ध नहीं होता। सो परात्मज्ञानसे तथा परमात्मज्ञानसे शून्य पुरुषके, व द्रव्यकर्मसे होने वाले शरीरादिके साथ तथा तत्प्रत्ययक मोहरागद्वेषादि भावोंके साथ एकताका पनुभव करने वाले पुरुषके वध्यधातकविभागका अभाव होनेसे मोडादि द्रव्य भाव कोका क्षय सिद्ध नहीं होता, तथा ज्ञेयनिष्ठतासे प्रत्येक वस्तुके उत्पाद विनाशरूप परिणत होने के कारण अनादि संसारसे परिवर्तनको पाने वाली ज्ञप्तिका परमात्मनिष्ठताके अतिरिक्त अनिवार्य परिवर्तन होनेसे, ज्ञप्ति परिवर्तनरूप कर्मोका क्षय भो सिद्ध नहीं होता। इस कारण कर्मक्षयाथियों को सर्वप्रकारसे प्रागमको पर्युपासना करना चाहिये ।
प्रसंगविवरण---अनन्तरपूर्व गाथामें श्रामण्यको सिद्धि के लिये उसके मूल साधनभूत मागमके ज्ञान करनेका उपदेश किया गया था। अब इस गाथामें बताया गया है कि आगमज्ञानरहित पुरुषके मोक्षनामक कर्मक्षपण संभव नहीं है।
तस्यप्रकाश-(१) प्रागम ज्ञान के बिना स्व व पर प्रात्माका ज्ञान नहीं होता। (२) भागमज्ञानके बिना परमात्मत्व का ज्ञान नहीं होता। (३) स्वपरज्ञानशन्य जीवके व परमात्मत्वज्ञानशून्य जीवके मोहादि द्रव्यकोका, मोहादिभावकर्मोंका व ज्ञप्तिपरिवर्तरूप को का क्षय नहीं होता । (४) मोहनीयादि सब कोंको द्रव्य कर्म कहते हैं । (५) मोहादिक जीव विकारोंको भावकम कहते हैं । (६) एक शेषरे दूसरे ज्ञेयमें ज्ञानके बदलनेको ज्ञप्तिपरिवर्तरूप कर्म कहते हैं । (७) भागमहीन जीब मोहमलोमस है सो वह मद्यपायो पुरुषकी तरह उन्मत्त
Sinche
Page #458
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्वमालायां
AVHIRNAMENT....................
ज्ञानस्वभावस्यैकस्य परमात्मनो ज्ञानमपि न सिन्यत् । परात्मपरमात्मज्ञान शुन्यस्य तु द्रव्यकारवधेः शरीरादिभिस्तत्प्रत्ययर्मोहरागद्वेषादिभावश्चसहस्यमाकलयतो बध्यघातकविभागाभावान्मोहादिद्रव्यभावकर्मणो क्षपणं न सिद्धयत् । तथा च शेयनिष्ठतथा प्रतिवस्तु पातोत्पातपरिरगतत्वेन झप्ने रासंसाराल्परिवर्तमानायाः परमात्मनिष्ठत्वमन्तरेणानिवायपरिवर्ततया ज्ञप्तिपरिवर्तरूपकर्मणां क्षपणमपि न सिद्धयत् । प्रतः कर्मक्षपणाथिभिः सर्वधागमः पयुपास्य: ।।२३३॥ समास- आगमेन होनः आगमहीनः ॥२३॥ हुमा विवेकहीन होकर अपने में व पात्मक्षेत्रावगाही शरीर में यह मैं हूं यह पर हैं ऐसा ज्ञान नहीं कर पाता । ८- आगमहोन मोह मलीमस दिवेकहीन नीच स्वभावमें व उपयोगमिश्रित मोह, राग, द्वेष, भावोंमें ''यह मैं हूँ यह पर है" ऐसा ज्ञान नहीं कर पाता । --- सहजचैतन्य मात्र अन्तस्तत्वका अनुभव हुए बिना वास्तव में स्व पर का भेदविज्ञान नही हो पाता । १०स्वभावका अनुभव स्वपरनिश्चायक प्रागमोपदेशका प्रवधारण हुए बिना नहीं हो सकता । ११-स्वभावका अनुभव परमात्मस्वरूप निश्चायक प्रागमोपदेशका अबधारण हुए बिना भी नहीं हो पाता, प्रागमहीन मोही जीव ज्ञानस्वभावमय परमात्माका भी ज्ञान नहीं कर सकता । १२- परमात्मा ज्ञानमात्र है, उत्कृष्ट ज्ञानस्वरूप है जिसमें उत्पाद व्यय ध्रौव्यात्मक समस्त पदार्थ ज्ञेय होते ही है ऐसे प्रतापवंत परमात्मस्वरूपका ज्ञान प्रात्मस्वभावके परिचय बिना नहीं हो पाता । १३- स्वपरज्ञानशून्य व परमात्मज्ञानशून्य जीवके यह विवेक नहीं रहता कि मोहादि द्रव्य कर्म व भापकर्म घातक है और यह मैं. प्रात्मपदार्थ वध्य हूं। १४अज्ञानीके वध्य धातकविभागका प्रभाव होनेका कारण यह है कि उसने द्रव्यकर्मारब्ध शरीरा. दिकोंके साथ व द्रव्यकर्म विपाकनिमित्तक मोह रागद्वेषादिभावों के साथ अपनी सकता मान ली है । १५-बध्यघातकविभाग न होनेसे प्रज्ञानीके द्रव्यकोका ब भावकोका क्षपण नहीं हो सकता । १६-प्रागमहीन स्वभावानुभवरहित जीवके शप्तिपरिवर्तरूप कर्मोंका भी प्रभाव नहीं हो सकता। १७-जानकारीके विषमरूपसे बदलते रहने को अप्तिपरिवर्त कर्म कहते हैं। १८-शप्ति ज्ञेयनिष्ठ है सो प्रत्येक वस्तुके उत्पाद विनामरूप परिएमते रहने के कारण शप्ति प्रनादिसे ही परिवर्तमान होती चली माई है। १६-परमात्मत्वमें निष्ठ हुए बिना शप्तिका परिवर्तन दूर नहीं हो सकता । २०- भागमहीन जीवके स्वपरज्ञान नहीं, परमात्मस्वरूप ज्ञान नहीं, स्वानुभव नही, द्रव्यभावकोका क्षपए नहीं, शप्तिपरिवर्तकर्मका क्षपण नहीं होता प्रतः कर्मक्षपणके इच्छुक पुरुषोंको सर्व प्रयत्नपूर्वक प्रागमको भली भांति उपासना करना चाहिये ।
Page #459
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
aurगम एवंever मार्गमुपसर्पतामित्यनुशास्तियागमचक्खू साहू इंदियचक्खणि सव्वभूदाणि । देवाय हिचक्खू सिद्धा पुण सव्वदो चक्खु ॥२३४॥ श्रागमचक्षू साधु प्राणो तो सर्व अक्षचक्षू हैं ।
४४५
देवा श्रवधिचक्षु हैं, सिद्ध सकलरूपसे चक्षू ॥ २३४ ॥
·|·
आगमचक्षुः साधुरिन्द्रियचक्षूंषि सर्वभूतानि । देवाश्चादधिचक्षुषः सिद्धाः पुनः सर्वतश्चक्षुषः ॥ २३४ ॥ इह तावद्भगवन्तः सिद्धा एवं शुद्धज्ञानमयत्वात्सर्वतश्चक्षुषः शेषाणि तु सर्वाण्यपि भूतानि मूर्तद्रव्यासक्तदृष्टित्वादिन्द्रियचक्षूंषि देवास्तु सूक्ष्मत्वविशिष्टमूर्तद्रव्यग्राहित्वादवधिचक्षुषः । अथ च तेऽपि रूपिद्रव्यमात्रदृष्टत्वेनेन्द्रियचक्षुभ्र्योऽवि शिष्यमाणा इन्द्रियचक्षुष एव । एव
नामसंज्ञ--आगमचखु साहु इंदियचक्कु सव्वभूव देव य ओहिचखु सिद्ध पुर्ण सम्यदोचक्यू । धातुसंज्ञ - साहू साधने । प्रातिपदिक आगमत्रक्षुषु साधु इन्द्रियचक्षुषु सर्वभूतदेव च अवचिचक्षुषु सिद्ध १- स्वपरज्ञाता व परमात्मस्वरूपज्ञातकि हो कर्मका प्रक्षय होता है ।
सिद्धान्त
दृष्टि-- १ - शुद्धभावनापेक्ष शुद्धद्रव्याथिकनय ( २४ ब )
प्रयोग -- कर्मक्षयका कारणभूत स्वपरात्मस्वरूपप्रकाश व परमात्मस्वरूपप्रकाश श्रागम "ज्ञान बिना नहीं हो पाता, ग्रतः श्रागमज्ञानका पौरुष करना ॥२३३॥
ब मोक्षमार्गपर चलने वालोंके भागम ही एक चक्षु है, ऐसा उपदेश करते हैं[ साधु ] साधु [ श्रागमचक्षुः ] भागमचक्षु हैं [ सर्वभूतानि ] सर्वप्राणी [ इन्द्रिय चक्षूंषि ] इन्द्रिय चक्षु वाले हैं [ च देवाः ] पौर देव [ अवधिचक्षुषः ] श्रवधि चक्षु वाले हैं [ पुनः ] किन्तु [ सिद्धाः ] सिद्ध [सर्वतः चक्षुषः ] सर्वतः चक्षु हैं । तात्पर्य - साधु प्रागमचक्षुसे सब निरखकर अपनी चर्या करते हैं ।
टीकार्थ- -- प्रथम तो इस लोक में भगवन्त सिद्ध हो शुद्धज्ञानमयपना होने से सर्वतः चक्षु हैं, किन्तु शेष सभी जीव इन्द्रियचक्षु है; क्योंकि उनको दृष्टि मूर्त द्रव्योंमें ही लगी होती है । देव सूक्ष्मत्वविशिष्ट मूर्त द्रव्योंको ग्रहण करते हैं इस कारण वे अवधिचक्षु हैं। अथवा वे भी, मात्र रूपी द्रव्योंको देखते हैं इस कारण वे इन्द्रियचक्षुवालोंसे अलग न किये जा रहे इन्द्रियक्ष ही हैं। इस प्रकार इन सभी संसारी जीवोंमें मोहसे उपहत होने के कारण ज्ञेयनिष्ठ होनेसे ज्ञाननिष्ठता के मूल शुद्धात्मतत्व के सवेदन से साध्य सर्वतःचक्षुत्व सिद्ध नहीं होता |
,
ब उस सर्वत: चक्षुकी सिद्धिके लिये भगवंत श्रमण ज्ञानका पारस्परिक मिलन हो जानेसे उन्हें भिन्न करना
श्रागमचक्षु होते हैं । सो ज्ञेय और अशक्य होनेपर भी वे उस ग्रागम
Page #460
--------------------------------------------------------------------------
________________
४४६
सहजानन्दशास्त्रमालायां
मी समस्वपि संसारिषु मोहोपहततथा ज्ञेयनिष्ठेषु सत्सु ज्ञाननिष्ठत्वमूल शुद्धात्मतत्त्व संवे दनसाध्यं सर्वतश्चक्षुस्त्वं न सिद्धय ेत् । श्रथ तत्सिद्धये भगवन्तः श्रमणा आगमचक्षुषो भवन्ति । तेन ज्ञेयज्ञानयोरन्योन्यसंवलनेनाशक्यविवेचनत्वे सत्यपि स्वपरविभागमारचय्य निभिन्न महामोहाः सन्तः परमात्मानमवाप्य सततं ज्ञाननिष्ठा एवावतिष्ठन्ते । अतः सर्वमप्यागमचक्षुषैव मुमुक्षूणां द्रष्टव्यम् ||२३४ |
पुनर् सर्वतश्चक्षुषु । मूलधातु सा धृ साधने, चक्षिङ, व्यक्तायां वाचि दर्शने च । उभयपदविवरण आग - मचदद्दू आगमचक्षुः साहू साधुः - प्रथमा एक० इंदियचणि इन्द्रियचक्षूंषि सव्वभ्रुदाणि सर्वभूतानि प्रथमा बहु० | देवा देवा: ओहिचक्त अवधिचक्षुषः सिद्धा सिद्धाः सव्वदोचक्खू सर्वतश्चक्षुषः-प्र [:- प्रथमा बहु० । यच पुण पुनः अव्यय । निरुक्ति-चक्षते इति चक्षुः (चक्ष + उस्) । समास - आगम: चक्षुः येषां आगमचक्षुषः, इन्द्रियाणि चक्षूंषि येषां तानि इन्द्रियचक्षूंषि अवधिः चक्षुः येषां ते अवधिचक्षुषः ॥२३४॥ चक्षुसे स्वपरका विभाग करके, महामोहको भेद डाला है पाकर, सतत ज्ञान निष्ठ ही रहते हैं ।
जिनने ऐसे वर्तते हुये परमात्माको
इससे मुमुक्षुत्रोंको सब कुछ आगमरूप चक्षु द्वारा ही देखना चाहिये । प्रसंगविवरण -- ग्रनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि आगमहीनके मोक्ष नामक कर्मक्षपण संभव नहीं है । अब इस गाथामें बताया गया है कि मोक्षमार्गपर चलने वालोंका श्रागम ही एक चक्षु है ।
तथ्यप्रकाश - ( १ ) भगवान ही सर्वतश्चक्षु हैं, क्योंकि भगवान शुद्ध ज्ञानमय हैं सो सब श्रोरसे समस्त पदार्थोंको एक साथ स्पष्ट जानते हैं । (२) भगवानको छोड़कर शेष सभी जीव इन्द्रियचक्षु हैं, क्योंकि उनको दृष्टि मूर्त द्रव्योंमें ही लगी रहती है और इन्द्रियोंके निमित्त से जानते हैं । (३) देव अवधिचक्षु हैं, वे सूक्ष्म मूर्त द्रव्योंको भो जानते हैं, तो भी मात्र रूपो द्रव्यको हो देखते है अतः इन्द्रियचक्षु जीवों में इनमें अन्तर नहीं है और ये देव भी इन्द्रियचक्षु ही हैं । ( ४ ) सर्वतश्चक्षुपना ज्ञाननिष्ठनासे अर्थात् ज्ञानमें विशुद्ध ज्ञानस्वरूप ही रहे ऐसी अन्तर्वृत्तिसे होता है। (५) ज्ञाननिष्ठता शुद्धात्मतस्वके संवेदनसे होती है । (६) संसारो जीव ज्ञेयनिष्ठ होनेसे सर्वतश्चक्षु नहीं होते । (७) संसारी जीवोंकी ज्ञेयनिष्ठताका कारण उनका मोह से आक्रान्त होना है । (८) सर्वतश्चक्षुपने की सिद्धिके लिये ज्ञाननिष्ठ होनेके लिये श्रमण श्रा गमचक्षु बनते हैं अर्थात् आगमसे स्वपरका परमात्मस्वरूपका निर्णय करते हैं । ( ६ ) यद्यपि इस समय ज्ञेय और ज्ञानका अन्योन्यसंवलन होनेसे ज्ञेय ज्ञानका बिभागका वरना अशक्य है तो भी श्रमण स्वपर भेदविज्ञान पाकर मोहको नष्ट कर परमात्मस्वरूपको प्राप्त कर निरंतर ज्ञाननिष्ठ हो रहा करते हैं । (१०) श्रागमज्ञानकी महिमाको जानकर श्रमणको सब कुछ
Page #461
--------------------------------------------------------------------------
________________
Basti
४४७
४४७
Tertifican
प्रवचनसार--सप्तदशाङ्गो टोका प्रमागमचक्षुषा सर्वमेय दृश्यत एवेति समयति----
सव्वे आगमसिद्धा अत्था गुणपजएहि चित्तेहिं । . जागांति अागमेण हि पेच्छिता ते वि ते समणा ॥२३५।।
नाना गुरण पर्यायों, सहित अर्थ सब सिद्ध आगमसे ।
उन सबको आगमसे, प्रेक्षण कर ये श्रमण जानें ॥२३५॥ सर्वे बागमसिद्धा अर्था गुणपर्यायश्चित्रः । जानल्यागमेन हि दृष्ट्वा तानपि ते श्रमणाः ।। २३५ ।।
आगमेंन तावत्सर्वाण्यपि द्रव्याणि प्रमोयन्ते, विस्पष्टतर्कणस्य सर्वव्याणामविरुद्धलात् । विचित्रगुणपर्यायत्रिशिष्टानि च प्रतीयन्ते, सहक्रमप्रवृत्तानेकधर्मव्यापकानेकान्तमयत्वेन.
नामसंज्ञ-सच्च आगमसिद्ध अत्य गुणपज्जय चित्त आगम त वित समण-1 धातुसंज-जाण अवबोधने, दस दर्शने, प इक्ख दर्शने । प्रातिपदिक-सर्व आगमसिद्ध अर्थ गुणपर्यय चित्र आगम हि तत आप तत् श्रमण । मूलधातु- ज्ञा अवबोधने, दृशि प्रेक्षणे । उभयपदविवरण-सब्जे सर्वे आगमसिद्धा आगमसिद्धाः अत्था अर्धाः ते समणा श्रमापा:-प्रथमा बहुवचन । गुणपाजयहिं गुणपर्याय: चित्तेहिं चित्रः तृतीय आगमचक्षसे ही देखना चाहिये ।
अब प्रागमरूपचक्षुसे सब कुछ दिखाई देता ही है यह समर्थित करते हैं-[ सर्वे अाः] समस्त पदार्थ [चित्रः गुरणपर्यायः] विचित्र (पनेक प्रकारकी) गुणपर्यायों सहित मा. गमसिद्धाः] प्रागमसिद्ध है। [तान् अपि] उनको भी [ते श्रमणा:] वे श्रमरण [प्रागमेन हि दृष्टया] पागम द्वारा ही वास्तव में देखकर [जानन्ति] जानते हैं।
तात्पर्य -श्रमण प्रागम द्वारा ही विविध गुणपर्यायमय वस्तुको जानते हैं।
टोकार्य---प्रथम तो, ओगम द्वारा सभी द्रव्य दृहतया जाने जाते हैं, क्योंकि सर्वद्रव्य विस्पष्ट तर्कणाके प्रविरुद्ध हैं, और फिर, प्रागमसे वे द्रव्य विचित्र गुणपर्यायविशिष्ट प्रतीत होते हैं, क्योंकि सहप्रवृत्त और क्रमप्रवृत्त अनेक धर्मों में व्यापक अनेकान्तमयपना होनेसे प्रागमके प्रमाणपनाको उपपत्ति है इससे सभी पदार्थ प्रागम सिद्ध ही हैं । और वे श्रमणोंके स्वयमेव जयभूत होते हैं, क्योंकि श्रमणोंका विचित्रगुणपर्यायवाले सर्वद्रव्योंमें व्यापक अनेकान्तात्मक श्रुतज्ञानोपयोगरूपके होकर विशिष्ट परिणमन होता है । अतः प्रागमनक्षुषों के कुछ भी अदृश्य नहीं
infushiltejian
र
प्रसङ्गविवरण-अनन्तर पूर्व गाया में बताया गया था कि मोक्षमार्गमें चलने वालोंका मागम ही एक चक्षु है । अब इस गाथामें बताया गया है कि प्रागमचक्षुसे सब कुछ दिखाई देता ही है।
तथ्यप्रकाश --(१) सभी द्रव्य प्रागमसे प्रमाण किये जाते हैं । तर्क युक्तिवलसे निर्णय
Page #462
--------------------------------------------------------------------------
________________
४४८
सहजानन्दशास्त्रमालाया
वागमस्य प्रमाणत्वोपपत्तेः । अतः सर्वेऽर्था प्रागमसिद्धा एव भवन्ति । यथ ते श्रमणानां ज्ञेयत्वमापद्यन्ते स्वयमेव विचित्र गुणपर्यायविशिष्ट सर्व द्रव्यध्यापकाने कान्तात्मक श्रुतज्ञानोपयोगीभूय विपरिणमनात् । अतो न किंचिदप्यागमचक्षुषामदृश्यं स्यात् ॥ २३५॥
बहु० | जाति जानन्ति वर्तमान अन्य० बहु० क्रिया । आगमेण आगमेन तृ० एक० । पेछित्ता दृष्ट्वासम्बन्धार्थप्रक्रिया | ते तान् द्वितीया एक० । निरुक्ति - श्राम्यति इति श्रमण: (श्रम युच् ) श्रभु तपसि दिवादि । समास - आगमेन सिद्धा: आगमसिद्धाः, गुणाश्च पर्यायायचेति गुणपर्यायाः तैः गुणक्लेशे पर्यायः ||२३५||
किये जानेपर सभी द्रव्य वैसे ही ज्ञात होते हैं जैसे कि आगमसे प्रमाण किये गये हैं । (३) सभी द्रव्य नाना गुण पर्यायोसे विशिष्ट जात होते है । ( ४ ) सहजप्रवृत्त अनेक धर्मो ( गुणों में) व प्रवृत्त अनेक धर्मो में (पर्यायों में ) व्यापक अनेकान्तस्वरूप द्रव्य हैं इस प्रकार हो आगमसे प्रमाण किये जाते हैं । (५) सभी पदार्थ श्रागमसे ही प्रमाण किये जाते हैं । (६) पदार्थ जो जैसे हैं वैसे ही श्रमणोंके वनेको प्राप्त होते हैं, क्योंकि श्रमण नानागुणपर्यायविशिष्ट सर्व द्रव्योंमें व्यापक अनेकान्सात्मक श्रुतज्ञानोपयोगी होकर प्रवर्तते हैं । ( ७ ) जिनके श्रागमचक्षु है उनको कुछ भी अदृश्य नहीं अर्थात् श्रागमचक्षु पुरुषोंको सब कुछ दिखता हो
1
सिद्धान्त - ( १ ) त्रैकालिक पर्यायों में मात्र एक द्रव्य दीखता है । (२) सहजगुरणपुञ्ज आत्मा एक प्रखण्ड सत् है । (३) श्रागम के अभ्याससे स्वपरनिश्चय होकर आत्मवस्तुको प्रसिद्धि होती है ।
दृष्टि
१- ऊर्ध्वसामान्यनय ( १६६ ) 1२- - गुणिनथ ( १०७ ) । ३- पुरुषकारनय
(१८३) ।
प्रयोग - प्रात्मवस्तुकी सिद्धिके लिये स्वपर निश्चायक आगमका अभ्यास करना | २३५| अब ग्रागमज्ञान, आगमज्ञानपूर्वक तस्वार्थश्रद्धान और तदुभयपूर्वक संयतत्व के यौगपद्य को मोक्षमार्गत्व होनेका नियम करते हैं [ इह ] इस लोक में [ यस्य ] जिसको [ श्रागमपूर्वा दृष्टि: ] श्रागमपूर्वक दृष्टि [ न भवति ] नहीं है [तस्य ] उसके [संघम: ] संयम [नास्ति ] नहीं है [ इति ] इस प्रकार [ सूत्रं भरणति ] सूत्र कहता है; मो [ श्रसंयतः ] प्रसंयत [ श्रमणः ] श्रम [ कथं भवति ] कैसे हो सकता है ?
तात्पर्य - श्रागमपूर्वक दृष्टि न होनेसे, संघम न होनेसे प्रसंयमी कैसे श्रमण हो सकता
है ?
टीकार्य – इस लोक में वास्तव में, स्यात्कार चिन्ह वाले आगमपूर्वक तत्त्वार्थश्रद्धान
-
Page #463
--------------------------------------------------------------------------
________________
४४६
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका
प्रयागमज्ञानतत्पूर्वं तत्त्वार्थश्रद्धानतदुभयपूर्व संयतत्वानां यौगपद्यस्य मोक्षमार्गत्वं नियमयति--- यागमपुव्वा दिट्टी व भवदि जस्सेह संजमों तस्स । त्थीदि भादि सुतं असंजदो होदि किध समणो ॥२३६॥
श्रमपूर्वक दृष्टी, है नहि जिसके न संयम भि उसके ।
ऐसा हि सूत्र भाषित, असंयमी हो श्रमरण कैसे ॥२३६॥
गमपूर्वा दृष्टिर्न भवति यस्येह संयमस्तस्य । नास्तीति भगति सूत्रमसंयतो भवति कथं श्रमणः ||२३६॥ RE हि सर्वस्यापि स्यात्कार के तनागम पूर्विकया तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणया दृष्टया शून्यस्य स्वपरविभागाभावात् कायकषायैः सहैक्यमध्यवसतोऽनिरुद्धविषयाभिलाषतथा षड्जीवनिकायघातिनो भूत्वा सर्वतोsपि कृतप्रवृत्तेः सर्वतो निवृस्यभावात्तथा परमात्मज्ञानाभावाद् ज्ञेयचक्रक्रमाक्रमण निरर्गलसिला ज्ञानरूपात्मतत्वैकाग्रयप्रवृत्त्यभावाच्च संयम एव न तावत् सिद्धत् ।
नामसंज्ञ -- आगमपुष्वा दिट्टि ण ज संजमो त ण इति सुत्त असंजयो किध समणी । धातुसंज्ञ--भव ताय, अस सत्तायां, भण कथने । प्रातिपदिक- आगमपूर्वा दृष्टि न यत् इह संयम तत् न इति सुत्त असंमत कथं श्रमण। मूलधातु भू सत्तायां, अस् भुवि भण शब्दार्थः । उभयपद विवरण- आगमपुब्वा आगपूर्वा दिट्टी दृष्टि: संगमो संयमः सुतं सूत्रं असंजदो असंयतः समणो श्रमणः प्रथमा एकरु । ण न इदि लक्षण वाली दृष्टिसे शून्य सभीको प्रथम तो संयम ही सिद्ध नहीं होता, क्योंकि ( १ ) स्वपरके विभाग के प्रभाव के कारण काय और कषायोंके साथ एकताका अध्यवसाय करने वाले जीवको विषयाभिलाषाका निरोध नहीं होनेसे छह जीवनिकायके घाती होकर सर्वत्तः प्रवृत्ति होनेसे सर्वतः निवृत्तिका प्रभाव है । तथा ( २ ) परमात्मज्ञान के प्रभाव के कारण ज्ञेयसमूहको क्रमशः जानने वाली निरर्गल इप्ति होनेसे ज्ञानरूप श्रात्मतत्वमें एकाग्रताको प्रवृत्तिका प्रभाव है । और इस प्रकार जिनके संयम सिद्ध नहीं होता उन्हें सुनिश्चित ऐकाग्रचपरिणतिरूप श्रामण्य होजिसका कि दूसरा नाम मोक्षमार्ग है, सिद्ध नहीं होता । श्रतः आगमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान और संतत्व यौगपद्य के हो मोक्षमार्गपना होनेका नियम किया जाता है ।
प्रसंगविवरण --- प्रनन्तरपूर्व गाथा में श्रागमसे ही सब कुछ यथार्थ दिखना बताया था। ग्रव इस गाथा में श्रागमज्ञान, श्रद्धान व संयमका एक साथ होनेमें ही मोक्षमार्गपना बताया है ।
तथ्यप्रकाश-- १- जिसके प्रागमपूर्वक दृष्टि नहीं है उसके संयम सिद्ध नहीं होता । २- प्रथम तो श्रागमसे हो मोक्षमार्गके प्रयोजनभूत तस्वकी श्रद्धाका साधक स्वपरपदार्थविज्ञान होता है । ३- श्रागमसे सुनिर्णीत पदार्थविज्ञान प्रमाणभूत है, क्योंकि ग्रागम द्वारा स्याद्वाद
Page #464
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां प्रसिद्धसंयमस्य तु सुनिश्चितकाग्रयगतत्वरूपं मोक्षमार्गापरनामश्रामण्यमेव न सिद्धयत् । प्रत प्रागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानों योगपद्यस्यैव मोक्षमार्गत्वं नियम्येत ॥२३६॥ इति कध कथं-अव्यय । भवदि होदि भवति अस्थि अस्ति भणदि भगति--वर्तमान अन्य एवा. क्रिया। निरुक्ति- दृश्यते अनया इति दृष्टि: (श+क्तिम्)। समास-- आगमः पूर्वं यस्था: सा आगमपूर्वा, (न संयतः असंयतः ॥२३६|| विधिसे अनेकान्तात्मक पदार्थका विज्ञान होता है। ४- जिसके प्रागमपूर्विका तत्त्वार्थश्रद्धानमयी दृष्टि नहीं है उसके स्वपरभेदविज्ञान न होनेसे शरीर और कषायभावके साथ अपने एकत्वका निश्चय रहता है । ५-- जिसका शरीर और कषायभावके साथ अपनी एकताका निश्चय रहता है वह विषयोंकी अभिलाषाको नहीं रोक सकता। ६ को विषयों की अभिलाषाको दूर नहीं कर सकता वह षटकायके जीवोंको हिसासे अलग नहीं रह सकता। ७- विषयाभिलाषी षट्काय जीव घातीको विषयादिमें निरर्गल प्रवृत्ति होती, निवृत्ति किञ्चिन्मात्र भी नहीं हो पाती। - विषयाभिलाषी षट्कायघाती विषयप्रवृत्त अविरक्त पुरुष परमात्मज्ञानके अभावसे ज्ञेयोंको क्रमशः प्रांशिक काल्पनिक जानकारी बनाता रहता है । ६आगमपूर्वक दृष्टि न होनेसे अश्रद्धालु अज्ञानी विषयप्रवृत्त जीवोंके ज्ञानरूप आत्मतत्त्वमें ऐका. ग्रवृत्ति न होनेसे संयम रच सिद्ध नहीं हो सकता । १०- जिसके संयम सिद्ध न हो उसके सुनिश्चित ऐकाग्रथगतरूप मोक्षमार्ग अर्थात् श्रामण्य ही सिद्ध नहीं होता। ११-- प्रागमज्ञान, प्रागमज्ञानपूर्वक तत्त्वार्थवद्धान व प्रागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानपूर्वक संयतपना इनका एक साथ होनेमें ही मोक्षमार्गपनेका नियम है । १२- जिसकी प्रागमज्ञानपूर्वक दृष्टि नहीं, उसके संयम संभव नहीं, सो संयमहीन पुरुष श्रमण कैसे हो सकता है ?
- सिद्धान्त-(१) सम्यश्रद्धानज्ञानसंयमहीन जीव उपाधियोंसे संयुक्त होकर अशुद्धता की ओर बढ़ जाता है।
दृष्टि-१- अशुद्धभावनापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४स)।
प्रयोग--मोक्षमार्गमें गतिप्रगति के लिये बोधिलाभके प्रथम उपायभूत आगमज्ञानका अभ्यास करना ।।२३६॥
अब आगमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्वके अयोगपद्य के मोक्षमार्गपनेका विधटन करते हैं ---[यदि ] यदि [अर्थेषु श्रद्धानं नास्ति] पदार्थोंमें श्रद्धान नहीं है तो, [आगमेन हिं] पागमसे भी [न. हि सिद्धयति] सिद्धि नहीं होती, [वा अर्थान् श्रद्धधानः अपि] तथा पदार्थोंका श्रद्धान करने वाला भी [असंयतः] यदि असंयत हो तो [न निर्वाति] निर्वाणको प्राप्त नहीं होता।
Pavaniindia htenidiaomilliunlimitionalitiewATESTRAammmmmmmmmmmmmraman n RISTORisgramm
ShTCKuttewwwesannilinicipainm
H TAMITRAM
BalotsASTRa
m an
-2018
तातmohinine
Page #465
--------------------------------------------------------------------------
________________
४५१
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
प्रयागमज्ञानतस्वार्थ श्रद्वान संयतत्वानामयौगपद्यस्य मोक्षमार्गत्वं विघटयतिहि श्रागमेण सिज्झदि सदहां जदि वि गत्थि प्रत्थे । सहमाणो अत्थे संजदो वाण गिव्वादि ॥ २३७ ॥ आगमज्ञानमात्रसे सिद्धि नहीं यदि न तत्त्व श्रद्धा हो ।
तत्त्वश्रद्धालु भी यदि, श्रसंयमी हो न मोक्ष पाता है ॥ २३७॥
ह्याममेन सिद्धति श्रद्धानं यद्यपि नास्त्यर्थेषु । श्रद्दधान अर्थानसंपतो वान निर्वाति ॥ २३७ ॥ श्रद्धानशून्येनागम जनितेन ज्ञानेन तदविनाभाविना श्रद्धानेन च संयमशून्येन न तावत्सयति । तथाहि ग्रागमवलेन सकलपदार्थान विस्पष्टं तर्कयन्नपि यदि सकलपदार्थज्ञेयाकारकरम्बितविकज्ञानाकारमात्मानं न तथा प्रत्येति तदा यथोदितात्मनः श्रद्धानशून्यतया यथो
नामसंजण हि आगम सद्दह्ण जदिवि ण अत्यं सहमाण अत्य असंजद वा ण । घातुसंज्ञ - सिज्झ निष्पत्ती, अस सत्तायां निर वा वायु संचरणे निर्वाणेच, सद्दह वारणे । प्रातिपदिक-हि आगम श्रद्धा यदि अनि अत्य श्रद्दधान अर्थ असंयत वा न । मूलधातु- षिधु गती, अस् भुवि, श्रद्धा धारणे, निर् वा संचरण निर्वारो। उभयपद विवरण- ण न हि जदि यदि वि अपि- अव्यय | आगमेण आगमेन
A
तात्पर्य --- प्रागमज्ञान, तत्वार्थश्रद्धान व असंयतपना यदि ये एक साथ नहीं है तो भी मोक्ष नहीं होता ।
टीकार्थ- श्रद्धानशून्य श्रागमजनित ज्ञानसे, और संयमशून्य ग्रागमज्ञान के बिना नहीं होने वाले श्रद्धानसे भी, सिद्धि नहीं होती । स्पष्टोकरण - श्रागमबलसे सकल पदार्थोकी बिस्पष्ट तर्करणा करता हुआ भी यदि जीव सकल पदार्थोंके ज्ञेयाकारोंके साथ मिलित होने वाला विशद एक ज्ञान जिसका आकार है ऐसे आत्माको उस प्रकारसे प्रतीत नहीं करता तो यथोक्त श्रम के श्रद्धान से शून्य होनेके कारण यथोक्त आत्माका अनुभव नहीं करने वाला ज्ञेयनिमग्न ज्ञानविमूढ़ जीव कैसे ज्ञानी होगा ? और शेयद्योतक होनेपर भी, आगम अज्ञानीका क्या करेगा? इस कारण श्रद्धानशून्य आगमसे सिद्धि नहीं होती । श्रोर, सकल पदार्थों के ज्ञेयाकारोंके साथ मिलित होता हुआ एक ज्ञान जिसका आकार है ऐसे आत्माका श्रद्धान करता हुआ भी, अनुभव करता हुआ भी यदि जीव अपने में ही संगत होकर नहीं रहता, तो अनादि मोह राग द्वेषको वासनासे उद्भुत परद्रव्यमें भ्रमणको स्वेच्छाचारिणी चिद्वृत्ति स्वमें ही रहनेसे, वासनारहित निष्कंप एक तत्त्वमें लीन चिद्वृत्तिका प्रभाव होनेसे, वह कैसे संयत होगा ? प्रौर असंयतका यथोक्त आत्मतत्वकी प्रतीतिरूप श्रद्धान या यथोक्त श्रात्मतत्वको अनुभूतिरूप ज्ञान
करेगा ? इसलिये संयमशून्य श्रद्धानसे या ज्ञानसे सिद्धि नहीं होती । इस कारण श्रागम
Page #466
--------------------------------------------------------------------------
________________
SARS
सहजानन्दशास्त्रमालायां दितमात्मानमननुभवत् कथं नाम जेयनिमग्नो ज्ञानविमूढो ज्ञानी स्यात् । प्रज्ञानिनश्च ज्ञेयद्योतको भवनप्यागभः किं कुर्यात् । ततः श्रद्धानशून्यादागमान्नास्ति सिद्धिः । किंच-सकलपदाथशंगाकार कर म्बिसविशदक ज्ञानाकारमात्मानं श्रद्दधानोऽप्यनुभवन्नपि यदि स्वस्मिन्नेव संयम्य न वर्तयति तदानादिमोहरागद्वेषनासनोपजनितपरद्रव्यचक्रमणस्वैरिण्याश्चिद्वृत्तेः स्वस्मिन्नेव स्थानातिनासननिःकम्पकतत्त्वभूच्छितचित्यभावात्कथं नाम संयतः स्यात् । असंयतस्य च यथोदितास्मतत्त्वप्रतीतिरूपं श्रद्धानं यथोदितात्मतत्वानुभूतिरूपं ज्ञानं वा कि कुर्यात् । ततः संयमशून्यात् श्रद्धानात् ज्ञानाद्वा नास्ति सिद्धिः । अत आगमज्ञानतत्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानामयोगपद्यस्य मोक्षमार्गत्वं विघटेतव ॥२३॥
SHA
GOOKGABAD
तृतीया ए० । सिज्मादि सिद्धयति निम्बादि निर्वाति-वर्त० अन्य० एका० किया। सद्दहणं श्रद्धानं सदहमाणो श्रधान: असंजदो असंयतः-प्रथमा एकवचन । अस्थि अस्ति-वर्त० अन्य एक० त्रिया । अत्थेसु अर्थेषु--- सप्तमी बहु० । अत्थे अर्थान-द्वितीया एत्रा० । निरुक्ति- श्री इति श्रत् (श्री- इति) श्रद् दधाति इति श्रद्दधानः श्रीन, पाके कयादि ।।२३७।। ज्ञान तत्त्वार्थश्रद्धान संयतत्वके अयोगपद्य के मोक्षमार्गत्व घटित नहीं होता।
प्रसंगविवरण---अनन्तरपूर्व गाथामें बताया था कि आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान व संयम इनका योगपद्य मोक्षमार्ग है । अब इस गाथामें बताया गया है कि उन तीनका अयौमपद्य (एक साप न होना) मोक्षमार्गका विघटन कर देता है ।
तथ्यप्रकाश-१- श्रद्धानशून्य आगमज्ञानसे सिद्धि नहीं होती । २- आगमज्ञानके अविनाभावी श्रद्धानसे भी यदि संयमशून्यता है तो सिद्धि नहीं होती । ३- कोई भले ही प्रागमबलसे समस्त पदार्थोंको युक्ति पुरःसर बोध कर ले, किन्तु समस्तपदार्थज्ञेयाकार जिसमें प्रतिबिम्बित होते हैं ऐसे विशद एक ज्ञानाकारस्वरूप आत्माका यथार्थ विश्वास नहीं करता तो वह ज्ञेयनिमान है । ४-- जो पुरुष विशद कज्ञानाकारस्वरूप स्वात्माके श्रद्धानसे शून्य होनेसे सहजातमस्वरूप अन्तस्तत्व का अनुभव नहीं कर पाता वह ज्ञानविमूढ़ है । ५- ज्ञेयनिमग्न और ज्ञानविमूढ़ जोव कैसे सम्यग्ज्ञानी हो सकता है । ६-- अज्ञानीका प्रागमज्ञान शेयपदार्थों का खूब निरूपण करता है तो भी उसको सिद्धि नहीं होती। ७ श्रद्धानशून्य प्रागमज्ञानसे सिद्धि नहीं हुआ करती ! ५- किसीके ज्ञानाकारस्वरूप प्रात्माका श्रद्धान और अनुभव भी हो जाय तो भी यदि स्वात्मामें संयत होकर नहीं वर्तता है तो उस संयमशून्य श्रद्धान ज्ञानसे भी सिद्धि नहीं होती । E-- जन स्वयं में मोहरागद्वेषवासनानित परद्रव्यचंक्रमण (परद्रव्योंमें उछल कूद, परिभ्रमण, अटपट जानना) होनेसे स्वच्छन्द (चिद्वृत्ति (चित्तपरिणति) बन रही है
Page #467
--------------------------------------------------------------------------
________________
४५३
प्रवचनसार--सप्तदशाङ्गी टीका प्रथागमज्ञानतरवार्थश्रद्धानसंयतत्यानां योगपछऽध्यात्मज्ञानस्य मोक्षमार्गसाधक्तमत्वं द्योतयति
जं अण्णाणी कम्मं स्वधेदि भवसयसहस्सकोडीहिं। तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेदि उस्सासमेत्तेण ॥२३८॥ प्रज्ञ जन कम जितने, करोड़ भवमें दिनष्ट कर पाता।
विज्ञ जन कर्म उत्तने, त्रिगुप्त हो छिनको नशता ॥२३॥ र मदज्ञानी कर्म क्षपति भवशतसहस्रकोटिभिः। तज्ज्ञानी विभिगुप्तः क्षययत्युक्छवासमात्रेण ।। २३८ ।।
यदज्ञानी कर्म क्रमपरिपाट्या बालतपोवैचित्र्योपक्रमेण च पच्य मानमुपात्तरागद्वेषतथा सुखदुःखादिविकारभावपरिणतः पुनरारोपितसंतानं भवशतसहस्रकोटिभिः कथंचन निस्तरत्ति, .. नामसंज्ञ--ज अण्णाणि काम्म भवसयसहस्रकोडि त णाणि ति गृत्त उस्सासमेत ! धातुसंज्ञ-खव क्षयकरणे । प्रातिपदिक-यत् अज्ञानिन् कर्मन् भवशतसहस्रकोटि तत् ज्ञानिन् वि गुप्त उच्छवासमात्र । मूलधातु-क्षपि क्षयकरणे चुरादि । उभयपदविवरण-जं यत् कम्मं धर्म-द्वितीया एक० । खवेदि क्षपति-- वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । भवसयसहस्सकोडीहिं भवशतसहस्रकोटिभिः--तृतीया बहु । तं तत्वहाँ संयम कैसे हो सकता है । १० वासनारहित अविकार निष्कम्प एक ज्ञानाकारस्वरूप अन्तस्तत्वमें चित्तिका लीन विलीन होना संयम है। ११-- जिस अात्मामें स्वैरिणी चिति उछल कूद कर रही है उस प्रात्मामें असंयम हो नाच रहा है । १२-- संयमी जीवको मात्र श्रद्धान ज्ञान होनेसे भी सिद्धि नहीं है। १३-- भागमज्ञान, आगमज्ञानपूर्वक्तस्वार्थश्रद्धान व तदुभयपूर्वक संयम इन तीनोंका एक साथ होना हो मोक्षमार्ग है ।
सिद्धान्त-(१) अज्ञान प्रश्रद्धा व असंयमके परिणामों का फल शुद्धत्व व कर्मबद्ध
दृष्टि- अशुद्ध भावनापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४४) ।
प्रयोग-संकटमोचन रत्नत्रयके लाभके लिये मूल उपायभूत पागमज्ञानका मननपूर्वक । अभ्यास बनाना ॥२३७।।
अब आगमज्ञान-तस्वार्थश्रद्धान-संयतत्वका योगपद्य होनेपर भी, प्रात्मशान मोक्षमार्ग का साधकतम है यह बतलाते हैं--[यत कर्म] जो अर्थात जितना कर्म [अज्ञानी] अज्ञानी [भवशतसहस्रकोटिभिः] लक्षकोटिभवोंमें क्षिपयति] खपाता है, [तत्] वह अर्थात् उतना कर्म तो [ज्ञानी] ज्ञानी [त्रिभिः गुप्तः] मन वचन कायकी गुप्तिसे युक्त हुआ [उच्छवासमात्रेण] उच्छ्वासमात्रमें [क्षपयति] खपा देता है।
Page #468
--------------------------------------------------------------------------
________________
४५४
सहजानन्दशास्त्रमालाया
तदेव ज्ञानी स्यात्कारकेतनागमज्ञानतत्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयोगपद्यातिशयप्रसादासादितशुद्धज्ञानमयात्मतत्त्वानुभूतिलक्षणशानित्वसद्धाबात्कायवाङ्मनःकर्मोपरमप्रबृत्तत्रिगुप्तत्वात् प्रचण्लोपक्रमपच्यमानभपहस्तितरागद्वेषतया दूरनिरस्तसमस्तसुखदुःखादिविकारः पुनरनारोपितसंतानमुच्छ. वासमात्रेणब लोलयैव पातयति । अत भागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयोगपयेऽप्यात्मज्ञानमेव मोक्षमार्गसाधकतममनुमन्तव्यम् ॥२३॥ द्वि० ए० । णाणी ज्ञानी अण्णाणी अज्ञानी-प्रथमा एका० । तिहिं अभिः-तृ० बहु० । गुतो गुप्त:--प्रथमा एक० । उस्सासमेत्तेण उच्छवासमात्रेण-तृतीया एकवचन । निरुक्ति-उत् श्वसनं उम्छ्यास: (उत् स्वस् +पत्र ) श्वस् प्राणने । समास-शतानि च तानि सहस्राणि चेति शतसहस्त्राणि शतसहस्राणि च तात कोचश्रेति शतसहस्रकोटयः भवानां शतसहस्रकोटयः इति भवशतसहस्रकोटयः ताभि: भ० ॥२३८॥
HARIHAASHARAMPURNAM SitaramewwwsgmaiIAmanmanmmmmmmmmmm
A AASANSORTCASSTATERIAL m mयगा a sses
S EARomane
तात्पर्य-कर्मक्षयमें व आत्मविकासमें उत्कृष्ट साधक प्रात्मज्ञान है।
टीकार्थ--क्रमपरिपाटीसे तथा अनेक प्रकारके बालतपादिरूप उद्यमसे पच्यमान तथा रागद्वेषको ग्रहण किया हरा होनेसे सुखदुःखादिविकार भावरूप परिणात अज्ञानी पुन। संतान को पारोपित करता जाय इस प्रकार, लक्षकोटिभवोंमें, ज्यों ज्यों करके (महा कष्ट से ) जितना कर्म पार कर जाता है, उतने कर्मको तो स्यात्कारकेलन आगमज्ञान, तत्वार्थश्रद्धान और संय. तत्वको युगपत्ताके अतिशयप्रसादसे प्राप्त शुद्ध प्रात्मतत्यकी अनुभूति जिसका लक्षण है ऐसे ज्ञानोपन के सद्भावके कारण काय-वचन-मनके कोंके उपरमसे त्रिगुप्तिता प्रवर्तमान होनेसे प्रचण्ड उद्यमसे पच्यमान को रागद्वेषके छोड़नेसे समस्त सुखदुःखादिविकार अत्यन्त निरस्त हुमा होनेसे पुनः संतानको प्रारोपित न करता जाय इस प्रकार उच्छ्वासमात्र में ही, लीला मासे ही ज्ञादी नष्ट कर देता है । इस कारण प्रागमज्ञान, तत्वार्थश्रद्धान और संयतत्वको युगपत्ता होनेपर भी प्रात्मज्ञानको हो मोक्षमार्गका साधकतम संयत करना चाहिये ।
प्रसंगविवरण ----अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि प्रागमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान घ संयमका अयोगपच मोक्षमार्गपनेकों विघटित करता है । अब इस गाथामें बताया है कि श्रागमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान व संयमका योगपद्य होनेपर भी आत्मज्ञान में ही मोक्षमार्गको साघकतमता है।
तथ्यप्रकाश.....(१) नाना प्रकारके बालतप आदिके हठयोगसे अज्ञानीके क्रमपरिपाटीसे लाख करोड़ भवों में जितने कर्म पककर पार हो जाते हैं उतने कर्म तो ज्ञानीके उच्छ्वासमात्रमें ही कट जाते हैं । (२) पक कर कर्मके निकलते समय अज्ञानी राग और द्वेषको अपना लेता है, प्रतः सुखदुःखादिविकारभावसे परिणत होता हुआ और कर्म बांध लेता है, अत। वह कर्मका
iministration
Page #469
--------------------------------------------------------------------------
________________
४५५
प्रवचनसार-सप्तदर्शागी टीका
श्रथात्मज्ञानशून्यस्य सर्वागमज्ञानत स्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानां यौगपद्यमप्यप्य किश्चित्कर
मित्यनुशास्ति
परमाणुपमाणं वा मुच्छा देहादिसु जस्स पुणो । विनदि जदि सो सिद्धिं गुलहदि सव्वागमधरो वि ॥ २३६ ॥
परमाणुमात्र मुर्च्छा, देह तथा इन्द्रियादिमें जिसके ।
रहती हो वह सर्वागमधर भी सिद्धि नहीं पाता ॥२३६॥
परमाप्रमाणं वा मुर्च्छा देहादिकेषु यस्य पुनः । विद्यते यदि स सिद्धि न लभते सर्वागमधरोऽपि ॥२३६॥ यदि करतलामलकीकृतसकलागमसारतया भूतभवद्भावि च स्वोचितपर्यायविशिष्टम शेषद्रव्यजातं जानन्तमात्मानं जानन् श्रद्दधानः संयमयश्चागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानां
नामसंज्ञ - परमाणुषमाण वा मुच्छा देह दिन ज पुणो जदित सिद्धि ण सव्वागमवर वि । धातुसंज्ञविज सत्तायां, लह लाभे । प्रातिपदिक परमाणुप्रमाण वा मूर्च्छा देहादिक यत् पुनर् जदि तत् सिद्धिन सर्वागमघर अपि । मूलचातुविद सत्तायां, डुलभष् प्राप्तौ । उभयपद विवरण- परमाणुपमाणं परमाणुकड़ना कर्मका कटना नहीं कहलाता । ( ३ ) ज्ञानीके शुद्धज्ञानमय प्रात्मतत्वकी अनुभूति प्रतोति होनेसे कर्म कटते हैं वहां अन्य कर्मोका बन्धनभार न बननेसे उसके कर्मका फड़ना कर्मका कटना कहलाता है । (४) ज्ञानीके मन वचन काय तीनों योगोंका निरोध है, अतः वहाँसे रागद्वेष भाव हट जाते हैं । (५) राग द्वेषादि हट जानेसे सुख दुःखादि विकार भी दूर हो जाता है । (६) सुख दुःखादि विकार दूर हो जानेसे फिर विकार व बन्ध सन्तान प्रारोपित नहीं होता । (७) मोक्षमार्गोचित सब कार्य आत्मज्ञानके बलसे होते हैं, श्रतः श्रात्मज्ञान मोक्षमार्गका साधकतम श्रन्तः करण है ।
सिद्धान्त - आत्मा श्रनात्माका भेद करके सहजात्मस्वरूप का संचेतन करने वाले ज्ञान से श्रात्मोपलब्धि होती है ।
दृष्टि--१- ज्ञाननय, शून्यनय, अविकल्पनय (१६४, १७३, १६२ ) ।
प्रयोग - कर्मक्षय के अर्थ मन वचन कायको क्रियाका निरोध कर चैतन्यमात्र सहजामस्वरूप में श्रात्मत्व अनुभवता ||२३||
अब ग्रात्मज्ञानशून्यके सर्व ग्रागमज्ञान, तस्वार्थश्रद्धान तथा संयतत्वको ( युगपत्ता की युगपत्ता भी अकिचित्कर है, यह अनुशासित करते हैं- [ पुनः ] और [ यदि ] यदि [ यस्य ] जिसके [ देहादिकेषु ] शरीरादिकों में [परमाणुप्रमारखं वा ] परमाणुमात्र भी [ मूर्च्छा ] मूर्च्छा [विद्यते ] पाई जाती है तो [सः ] वह [ सर्वागमधरः अपि ] सर्वागमका धारी होनेपर भी
Page #470
--------------------------------------------------------------------------
________________
४५६
सहजानन्दशास्त्रमालायां
योगपद्येऽपि मनाङ्मोहमलोपलिप्तत्वात् यदा शरीरादिमूछो परक्ततया निरुपरागोपयोगपरिणतं कृत्वा ज्ञानात्मानमात्मानं नानुभवति तदा तावन्मात्रमोहमलवालङ्कको लिकाकीलितः कर्मभिरवि. मुच्यमानो न सिद्धयति । अत आत्मज्ञानशून्यमागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयोगपद्यमप्यकिचि. स्करमेव ।।२३६॥ प्रमाणं-क्रियाविशेषण । बा जदि यदि ण न वि अपि-अव्यय । मुच्छा मूर्छा सव्वागमधरो सर्वागमधरःप्रथमा एकवचन । देहादिएषु देहादिकेषु-सप्तमी बहुवचन । जस्स यस्य-षष्ठी एक० । विज्जदि विद्यते लाद लभते-बर्त० अन्य० एक० क्रिया । सो सः-प्रथमा एक० । सिद्धि-द्वितीया एकवचन। निरुक्तिप्रमीयते अनेन इति प्रमाण (प्र मा + ल्युट) प्र मा माने अदादि । समास-सर्वश्चासौ आगमश्चेति सर्वागमः सर्वागमं धरतीति सर्वागमधरः ॥२३६।। [सिद्धि न लभते] सिद्धिको प्राप्त नहीं होता।
तात्पर्य--देहादिकमें जिसके मूर्छा है वह कितना भी आगमका जानकार हो उसका मोक्ष नहीं होता।
टीकार्थ-सकल आगमके सारको हस्तामलकवत् करनेसे भूत-वर्तमान भावो स्वोचित पर्यायोंके साथ अशेष द्रव्यसमूहको जाननेवाले आत्माको जानता हुअा, श्रद्धान करता हुआ
और संयमित करता हुमा पुरुष प्रागमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान-संयतत्वको युगपत्ता होनेपर भी, यदि वह किंचिदमात्र भी मोहमलसे लिप्त होनेसे शरीरादिके प्रति मूच्र्छासे उपरक्त रहनेसे, निरुपराग उपयोगमें परिणत करके ज्ञानात्मक प्रात्माका अनुभव नहीं करता, तो वह पुरुष मात्र उतने मोहमलकलंकारूप कोलेके साथ बंधे हुये कर्मोंसे न छूटता हुप्रा सिद्ध नहीं होता । अतः प्रात्मज्ञानशून्य प्रागमज्ञान-तत्वार्थश्रद्धान-संयतत्वको युगपत्ता भी अकिचित्कर ही है।
प्रसंगविवरण-अनंतरपूर्व गाथामें आत्मज्ञानको मोक्षमार्ग में साधकतम बताया था । अब इस गाथामें बताया गया है कि यदि कोई आत्मज्ञानसे शून्य है तो उसके आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान व संयम तीनों हों तो भी उन तीनोंको युगपत्ता अकिंचित्कर है ।
तथ्यप्रकाश-(१) अविकाररूप उपयोग करता हुआ कोई भव्य ज्ञानस्वरूप प्रात्मा का अनुभव करता है वहीं कोसे युक्त होता हुआ सिद्ध होता है । (२) कोई पुरुष परमात्मा के स्वरूपको जाने, माने व संयम भी पाले तो भी यदि वह ज्ञानस्वरूप अपने आपके अनुभव से शून्य है, रचमात्र भी मोह मूछ से उपयोग लिप्त है तो कर्मोसे मुक्त हो नहीं हो सकता। सिद्धि पानेकी तो कथा ही दूर है। (३) आत्मज्ञानरहित आगमज्ञान तत्त्वार्थश्रद्धान व संयम ये तीनों हों तो भी इनसे सिद्धि नहीं होगी । (४) ज्ञानस्वरूप अपने प्रापका ज्ञानमात्ररूपमें ज्ञानसे अनुभवना ज्ञानानुभव है । (५) ज्ञानानुभव बिना सिद्धि नहीं हो सकती।
Page #471
--------------------------------------------------------------------------
________________
४५७
प्रवचन सार-सप्तदशांगी टीका
प्रथागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्व यौगपद्यात्मज्ञानयोगपद्य' साधयति -
पंचसमिदो तिगुत्तो पंच दियसंवुडो जिदकसाथ । सामग्गो समणो सो संजदो भणिदो ॥ २४० ॥ समिति गुतिले संयुत, इन्द्रियविजयी कषायपरिहारी । दर्शनज्ञानसुसंयत, श्रमण कहा संयमी प्रभुने ॥ २४०॥ पंचमितस्त्रिगुप्तः पंचेन्द्रियसंवृतो जितकषायः । दर्शनज्ञानसमग्रः श्रमणः स संवतो भणितः ॥ २४० ॥ यः खल्वनेकान्तकेतनागमज्ञानबलेन सकलपदार्थज्ञेयाकारकरम्बितविशदेकज्ञानाकारमात्मानं श्रद्धानोऽनुभवं श्चात्मन्येव नित्यनिश्चलां वृत्तिमिच्छन् समितिपञ्चकाङ्कुशित प्रवृत्तिप्रव
नामसंज्ञ-पंचमिदतिगुत्त पत्रिवियसंबुडो जिदकसाथ दंसणणाणसमग्ग समण त संजद भणिद । धातुसंज्ञ- गोव गोपने । प्रातिपदिक पंचसमित त्रिगुप्त पंचेन्द्रियसंवृत जितकषाय दर्शनज्ञानसमग्र श्रमण सिद्धान्त - ( १ ) रंच भी विकारसे उपयुक्त पुरुष कर्मभारसे रहित नहीं हो पाता । दृष्टि - १ - शुद्धभावनापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय ( २४स ) ।
प्रयोग - शाश्वत सिद्धि लाभ के लिये देहादिक में रंचमात्र भी राग न कर श्रविकार ज्ञानस्वरूप ग्रात्मतत्त्वको ग्रात्मरूपसे अनुभवना ॥२३६॥
शब श्रागमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान- संयतत्वको युगपत्ता के साथ श्रात्मज्ञानको युगपत्ताको साधते हैं - [पंचमितः ] जो पांच समितियुक्त, [पंचेन्द्रियसंवृतः ] पाँच इन्द्रियोंको रोकने वाला [ त्रिगुप्तः ] तीन गुप्ति सहित [ जितकषायः ] कषायोंको जीतने वाला, [दर्शनज्ञानसमग्रः ] दर्शनज्ञान से परिपूर्ण [ श्रमसः ] श्रमण है [ सः ] वह [ संयतः ] संयत [ भरिणतः ] कहा गया है ।
तात्पर्य समितिवान् इन्द्रियनिरोधी गुप्तिपालक कषायविजयी दर्शनज्ञानपरिपूर्ण श्रम ही संयमी है ।
टोकार्थ- जो पुरुष अनेकान्तकेतन सागमज्ञानके बलसे, सकल पदार्थोंके ज्ञेयाकारों के : साथ मिलित विशद एक ज्ञान जिसका ग्राकार है ऐसे आत्माका श्रद्धान और अनुभव करता हुआ प्रात्मामें ही नित्यनिश्चल वृत्तिको चाहता हुआ, संयम के साघनरूप बनाये हुये शरीरपाच . को पाँचसमितियोंसे अंकुशित प्रवृत्ति द्वारा प्रवर्तित करता हुआ, क्रमशः पंचेन्द्रियोंके निश्चल निरोध द्वारा जिसके काय वचन मनका व्यापार विरामको प्राप्त हुआ है, ऐसा होकर, चिद्वृत्ति के लिये परद्रव्यमें भ्रमण के निमित्तभूत कषायचक्र को ग्रात्मा के साथ अन्योन्य मिलन के कारण अत्यन्त एकरूप हो जानेपर भी स्वभावभेदके कारण पररूपसे निश्चित करके श्रात्माके द्वारा
Page #472
--------------------------------------------------------------------------
________________
४५८
सहजानन्दशास्त्रमालायां तितसंयमसाधनीकृतशरीरपात्रः क्रमेण निश्चलनिरुद्धपंचेन्द्रियद्वारतया समुपरतकायवाङ्मनोव्यापारो भूत्वा चिद्वत्तेः परद्रव्यचक्रमणनिमित्तमत्यन्तमात्मना सममन्योन्यसंवलनादेकीभूतमपि स्वभावभेदात्परत्वेन निश्चित्यात्मनैव कुशलो मल्ल इव सुनिर्भरं निष्पीड्य निष्पोड्य कषाय. चक्रमक्रमेण जीवं त्याजयति, स खस सकलपरद्रव्यशून्योऽपि विशुद्धशिज्ञप्तिमात्रस्वभावभूतावस्थापितात्मतत्त्वोपजातनित्य निश्चलवृत्तितया साक्षात्संयत एव स्यात् । तस्यैव चागमज्ञानतत्त्वाधश्रद्धानसंयतत्वयोगपद्यात्मशानयोगपद्यं सिद्धयति ॥२४०।। तत् संयल भणित । मूलधातु .....गुपू संरक्षणे। उभयपदविवरणपंचसमिदो पंचसमितः तिगुत्तो त्रिगुप्तः पंचेंदियसंबुडो पंचेन्द्रियसंवृतः जिदकसाओ जितकषायः दसणणाणस मम्गों दर्शनज्ञानसमग्रः समणो श्रमणः सो सः संजदो संयत:-प्रथमा एकवचन । भणिदो भणित:-प्रथमा एकवचन कृदन्त क्रिया । निरुक्ति-सम सकलं यथा स्यात्तथा गृह्यते इति समग्रं (सम ग्रह +ड) ग्रह उपादाने कयादि 1 समास-जिता: कषायाः येन सः जितकषायः, दर्शन च ज्ञानं च दर्शनज्ञान ताभ्यां समनः दर्शनज्ञानसमग्रः ।। २४० ।। ही कुशल मल्लको भौति अत्यन्त मर्दन कर करके प्रक्रमसे उसे मार डालता है। वह पुरुष वास्तबमें, सकल परद्रव्यसे शून्य होनेपर भी विशुद्धदर्शन ज्ञानमात्र स्वभावरूपसे रहने वाले प्रात्मतत्वमें नित्यनिश्चल परिणति उत्पन्न होनेसे, साक्षात् संयत ही है । और उसके ही आगमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान-संयतत्वकी युगपत्ताके साथ प्रात्मज्ञानको युगपत्ता सिद्ध होती है ।
।
प्रसङ्गविवरण ----अनन्तरपूर्व गाथामें बताया था कि भागमज्ञानशून्य भागमज्ञानादि होनेपर भी सिद्धि नहीं होतो । अब इस गाथामें वास्तविक संयमीका स्वरूप बताकर यह सिद्ध किया है कि आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान, संयतपना व प्रात्मज्ञान चारोंके योगपद्यसे सिद्धि होती है।
तथ्यप्रकाश-(१) वास्तविक संयमी पुरुषके पागमज्ञान तत्त्वार्थश्रद्धान, संयतपना व प्रात्मज्ञान इन चारोंका योगपद्य है । (२) जो श्रमरण विशुद्ध दर्शनज्ञानमात्रस्वभावभूत आ. स्मतत्त्वमें अपने उपयोगको निश्चलवृत्तिसे अवस्थापित करता है वह वास्तव में साक्षात् संयत ही है। (३) जो अपने उपयोगको समस्त परद्रव्योंसे रहित रखता है वही अपने स्वभाव में उपयुक्त होता है । जो अपने प्रविकारस्वभाव प्रात्मतत्त्वमें उपयुक्त होता है वह समस्त पर, द्रव्योंसे शून्य ही है । (४) ज्ञानी श्रमण कषायचक्रका मर्दन कर कर कुशल मल्लकी तरह कषायचक्रको एकदम दूर कर देता है । (५) कषायसमूहको उखाड़ फेंकनेके लिये समर्थ यह दृढ़ निश्चय ज्ञानीके है कि ये कषायभाव परभाव हैं । (६) यद्यपि कषायप्रकृतिके उदयसे कर्मका कषायानुभाग खिलता है उसका चिद्वृत्तिमें प्रन्योन्यसंवलन होनेसे वह कषायानुभाग जीवविकार
Page #473
--------------------------------------------------------------------------
________________
SA
प्रवचनसार-राप्तदशाङ्गी टीका
४५६ अथास्य सिद्धागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयोगपद्यात्मज्ञानयोगपद्यसंयतस्य कोहग्लक्षणमित्यनुशास्ति
समसत्तुबंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिंदसमो। समलो ठुकंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो ॥२४१॥ शत्रु बन्धुवोंमें सम, सुख दुखमें सम प्रशंस निन्दामें ।।
लोष्ठ व कांचनमें सम, जन्म मरण सम श्रमण होता ॥२४॥ समशत्रुबघुवर्गः रामसुखदुःख: प्रशंसानिन्दासमः । समलोष्टकांश्नः पुनर्जीवितभरणे समः श्रमणः ।।२४।।
संयमः सम्यग्दर्शन ज्ञानपुरासरं चारित्रं. चारित्रं धर्मः, धर्मः साम्यं, साम्यं मोहक्षोभवि. नामसंज्ञ--रामसत्तुबंधुवरग समसुहदुक्ख पसंसणिदसम समलोकंचण पुण जीविदमरण सम समण । बन जाता है तथापि अात्मस्वभावसे भिन्न होनेसे विकार परभाव है । (७) कषायचक्रको दूर करने के लिये श्रमणको प्रारंभसे विधिवत् साधना होती है । (८) श्रमण स्याद्वादभित प्रागमज्ञानका अभ्यास करता है । (६) श्रमण प्रागमज्ञान के बलसे सर्वजानन स्वभाव वाले विशद एक ज्ञानस्वरूप स्वात्माका श्रद्धान करता है, अनुभव करता है और इसी परमार्थतत्व में अपने उपयोगको रमाये रहना चाहता है। (१०) श्रमगने पांचों समितियोंसे अंकुशित प्रवृत्तियोंसे शरोरपायको संयमसाधनीभूत किया है । (११) श्रमणने पंच इन्द्रियद्वारोंको रोक कर मन वचन कायको बेष्टावोंको हटाकर त्रिगुप्ति प्राप्त की है । (१२) समितियुक्त गुप्तिसहित पंचेन्द्रियविजयी श्रमण जितकषाय होता है और जितकषाय होनेसे श्रमण दर्शनज्ञानसमग्र होता है सो वह साक्षात् संयम ही तो है।
सिद्धान्त--- (१) अविकार चैतन्यस्वरूप प्रात्मतत्त्वको भावनासे कषायप्रकृतियोंका क्षय होता है कवायभावों का प्रभाव होता है।
दृष्टि-१-- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४ब) ।
प्रयोग---अपने आत्माके शाश्वत सहज पवित्र निश्चल परमालादमय एकरूप प्रानंद को पानेके लिये निम्रन्थ होकर इन्द्रियव्यापाररहित होकर स्व सहजात्मस्वरूपमें मग्न होनेका पौरुष होने देना ॥२४०॥
अब प्रागमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान-संयतत्वकी युगपत्ताके साथ प्रात्मज्ञान की युगपत्ता जिसे सिद्ध हुई है ऐसे इस संयतका क्या लक्षण है सो अनुशासित करते हैं-[समशत्रुबन्धुवर्गः] जिसके लिये शत्रु और बन्धु वर्ग समान है, [समसुखदुःखः] जो सुख दुःखमें समान है, प्रशंसानिन्दासमः] जिसके लिये प्रशंसा और निन्दा समान है, समलोष्ठकाश्चनः] जिसके लिये
Page #474
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां
PARISASSAntexnslammatoline
Reatuwal
होनः प्रात्मपरिणामः । ततः संयतस्य साम्य लक्षणम् । तत्र शत्रुबन्धुवर्गयोः सुखदःखयोः प्रशंसानिन्दयो। लोष्टकाञ्चन्योर्जीवितमरणयोश्च समम् अयं मम परोऽयं स्वः, अयमाह्लादोऽयं परितापा, इदं ममोत्कर्षणमिदमपकर्षणमयं ममाकिञ्चित्कर इदमुपकारकमिदं ममात्मधारणमयमत्यन्तविनाश इति मोहाभावात् सर्वत्राप्यनुदित रागद्वेषद्वतस्य सततमपि विशुद्धदृष्टिज्ञप्तिस्व. धातुसंशजीव प्राणधारणे, मर प्राणत्यागे । प्रातिपदिक- समशत्रुबन्धुवर्ग समसुखदुःख प्रशंसानिन्दासमः समलोष्टकांचन पुनर् जीवितमरण सम श्रमण । मूलधातु-जीव प्राणघारणे, म मरणे । उभयपदविवरणसमसत्तुवंधुयागो समशत्रुबन्धुवर्गः समसुदुक्खो समसुखदुःख पसंसणिदसमो प्रशंसानिन्दासमः समलोठ्ठकंचणो समलोष्टकांचनः समो समः समणो श्रमण: जीविदमरणे जीवितमररो-सप्तमी एकवचन । निरुढेला और सुवर्ण समान है, [पुनः] तथा [जोवितमरणसमः] जो जीवन-मरणके प्रति समान है वह [श्रमणः] श्रमण है।
तात्पर्य--समताका पुत्र प्रात्मा श्रमण है।
टोकार्थ-संयम सम्यग्दर्शनज्ञानपूर्वक चारित्र है; चारिश्रधर्म है; धर्म साम्य है; साम्य मोहक्षोभरहित प्रात्मपरिणाम है ! इस कारण संयतका लक्षण समता है । वहाँ शत्रु बंधुवर्ग में, सुख-दुख में, प्रशंसा-निन्दामें, मिट्टीके ढेले और सोने में, जीवन-मरण में एक ही साथ 'यह मेरा पर है, यह स्व है, 'यह प्राह्लाद है, यह परिताप है, 'यह मेरा उत्कर्षण है, यह अपकर्षण है,''यह मेरे अकिचित्तर है, यह उपकारक है, 'यह मेरा प्रात्मधारण है, यह अत्यन्त विनाश है' इस प्रकार मोहके प्रभावके कारण सभी स्थितियोंमें जिसके रागद्वेषका द्वेत प्रगट नहीं होता, जो सतत विशुद्ध दर्शन ज्ञानस्वभाव नात्माका अनुभव करता है, और यो शत्रु--- बंधु, सुख-दुख, प्रशंसा-निन्दा, लोष्टकांचन और जीवन मरणको अन्तरके बिना ही ज्ञेयरूप जानकर ज्ञानात्मक प्रात्मामें जिसकी परिणति प्रचलित हुई है; उस पुरुषको वास्तवमें जो सर्वत: साम्य है वह साम्य जिस संयतके प्रागमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान-संयतत्वको युगपत्ताके साथ आत्मज्ञानकी युगपत्ता सिद्ध हुई है ऐसे संयतका लक्षगा है।
प्रसङ्गविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि प्रात्मज्ञानसहित प्रागमज्ञान तत्वार्थश्रद्धान व संयतपना इस सबका योगपद्य मोक्षमार्ग है। अब इस गाथों में बताया गया है कि जिस संयतके आगमज्ञान, तत्वार्थश्रद्धान संयम व आत्मज्ञान चारों हैं उस संयतके क्या लक्षण होते हैं।
तथ्यप्रकाश--(१) सम्यग्दर्शनज्ञानपूर्वक हुए चारित्रको संयम कहते हैं । (२) चारित्र धर्म है । (३) धर्म समताभाव है । (४) मोहक्षोभरहित आत्मपरिणामको समताभाव कहते हैं । (५) समता ही संयतका लक्षण निष्कर्षित है, सो श्रमणोंके साम्य भाव पाया हो जाता
SOHARMA
Page #475
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गो टोका भावमात्मानमनुभवता शत्रुबन्धुसुखदुःखप्रशंसानिन्दालोष्टकाञ्चनजीवितमरणानि निविशेषमेव जेयत्वेनाक्रम्य ज्ञानात्मन्यात्मन्यचलितवृत्तेर्यत्किल सर्वतः साम्यं तसिद्धागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयोगपद्यात्मज्ञानयोगपद्यस्य संयत्तस्य लक्षणमालक्षणोयम् ॥२४१॥ -क्तिकांचते स्म यत् तत्कांचनं (काचि -- ल्युट नुमागम) काचिदीप्तिबन्धनयो; भ्वादि । समास-शत्रुबन्धुवर्ग समः इति समश त्रुबन्धु वर्गः, सुखदुःखयोः समः इति समसुख दुःख: प्रशंसानिन्दयोः समः इति प्रशंसनिन्द समः ॥ २४१ ।। है । (६) श्रमणके शत्रु और बन्धुवर्गमें यह मेरा है यह दूसरा है ऐसा मोह रंच नहीं है । (७) श्रमणके सुख और दाखमें ऐसा पक्ष नहीं है कि सुख तो पालादरूप है और दुःख परि. तापरूप है । (८) श्रमणके प्रशंसा और निन्दामें यह पक्ष नहीं है कि प्रशंसा तो मेरा उत्कर्ष है और निन्दा मेरा पतन है । (६) श्रमणके लोष्ठ व काञ्चनमें यह विषमता नहीं है कि लोष्ठ आदि तो मेरे लिये अकिञ्चित्कर है और काञ्चन (सुवर्ण) मेरा उपकारक है । (१०) श्रमणके जीवन ब मरणमें ऐसा विषमभाव नहीं होता कि जीवन तो मेरा आत्मघारण है पौर मरण मेरा अत्यन्त बिनाश है । (११) उदाहरणोक्त पांच घटनावोंमें व उपलक्षणतः सर्व घटनामोंमें श्रमणके रंच भी मोह नहीं है सो सभी घटनामोंमें श्रमणके रागद्वेष उदित नहीं होता है । (१२) अनुकूल प्रतिकूल घटनादोंमें श्रमणके राग द्वेष नहीं है सो वह सतत भी ज्ञानदर्शनस्वभाव प्रात्माको अनुभव लेता है। (१२) अविकार चेतनामात्र अपनेको अनुभवने वाले श्रमणके उपयोगमें शत्रु बन्धु सुख दुःख प्रशंसा निन्दा लोष्ठ काञ्चन जीवन मरण सभी बिना भेदभावके ज्ञेयरूपसे झलकते हैं । (१४) श्रमणके इस उत्कृष्ट साम्यभावका कारण ज्ञानस्वरूप अपने प्रात्मामें अपने उपयोगका प्रचलित रूपसे प्रवर्तना है । (१५) उक्त विवेचना से संयतका लक्षण यही लक्षित होता है कि प्रागमज्ञान तत्त्वार्थश्रद्धान व संयतपनेके योगपद्य के साथ प्रात्मज्ञानका भी साथ साथ नियमतः होना संयतका वास्तविक लक्षण है।
सिद्धान्त-~-(१) श्रमणका साम्यभाव स्वभावका यथोचित विकास है । दृष्टि-- १- शुद्ध सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय नामक पर्यायाथिक नय (३४) ।
प्रयोग-वर्तमान में व भविष्यमें शाश्वत सहज पवित्र अचल प्रानन्दके लाभके लिये प्रात्माभिमुख ज्ञानके बलसे अनुकूल प्रतिकूल सब घटनाओं में समताभाव धारण करना ।२४१॥
प्रब सिद्ध है प्रागमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान संयतत्वके योगपद्यके साथ साथ प्रात्मज्ञानका योगपच जिसके ऐसा संयतपना जिसका कि प्रपर नाम एकाग्रता लक्षण वाला श्रामण्य है इसको हो मोक्षमार्गसे समर्थित करते हैं.---- [यः तु] जो [दर्शनज्ञानचरित्रेषु] दर्शन, ज्ञान और
।
Page #476
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६२
सहजानन्दशास्त्रमालायां
श्रथेदमेव सिद्धागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयौगपद्यात्मज्ञानयोगपद्यसंयतत्वमै काचलक्षणश्रामण्यापरनाम मोक्षमार्गत्वेन समर्थयति
दंसणा चरिते तीस जुगवं समुट्ठिदो जो दु । एयग्गगदो ति मदो सामण्णां तस्स पडिपुण्णं ॥ २४२॥ चारित्र ज्ञान दर्शन, तीनोंमें एक साथ जो उत्थित ।
एकाग्रगत हुआ वह उसके श्रामण्य है पूरा ॥२४२॥
दर्शन ज्ञानचरित्रेषु त्रिषु युगपत्समुत्थितो यस्तु । एकाग्रगत इति मतः श्रामण्यं तस्य परिपूर्णम् ॥ २४२ ॥ ज्ञे यज्ञातृत्व तथाप्रतीतिलक्षणेन सम्यग्दर्शनपर्यायेण ज्ञेयज्ञातृतस्वतथानुभूत्तिलक्षणेन ज्ञानपर्यायेण यज्ञातृक्रियान्तरनिवृत्तिसूत्र्यमारणद्रष्टृज्ञातृतत्त्ववृत्तिलक्षणेन चारित्रपर्यायेण च त्रि
नामसंज्ञ- दंसणणाणचरित ति जुगवं समुट्ठिद ज दु एयम्गगद ति मद सामण्ण त पडिष्ण । धातुसंज्ञ - मन्न अवबोधने । प्रातिपदिक दर्शनज्ञानचरित्र त्रियुगपत् समुत्थित यत् तु एकाग्रगत इति मत श्रातत् परिपूर्ण । मूलधातु- गनु ज्ञाने । उभयपदविवरण- दंसणणाणचरितेषु दर्दानज्ञानचारित्रेषुतीसु चारि [ त्रिषु ] इन तीनोंमें [ युगपत् ] एक ही साथ [समुत्थितः ] प्रवर्तित है, वह [ एकाग्र गतः ] एकाग्रताको प्राप्त है [ इति ] इस प्रकार [ मत्तः ] शास्त्र में कहा गया है [ तस्य ] उसके [ श्रामण्यं ] श्रामण्य [ परिपूर्णम् ] परिपूर्ण है ।
तात्पर्य --- दर्शनज्ञानचारित्र में श्रारूढ़ मुनिके परिपूर्ण श्रामण्य है ।
टोकार्थ-ज्ञेयतत्त्व और ज्ञातृतस्वकी यथार्थं प्रतीति जिसका लक्षण है ऐसा सम्यदर्शन पर्याय शेयतत्व और ज्ञातृतत्वकी तथा प्रकार अनुभूति जिसका लक्षण है ऐसा ज्ञानपर्याय ज्ञेय और ज्ञाताकी क्रियांतरसे निवृत्तिके द्वारा रचित दृष्टिज्ञातृतत्वमें परिरति जिसका लक्षण है ऐसा चारित्र पर्याय, इन पर्यायोंके और श्रात्मांके भाव्यभावकता के द्वारा उत्पन्न अति गाढ़ इतरेतर मिलन के बलके कारण इन तीनों पर्यायरूप युगपत् अंग अंगी भावसे परिणत श्रात्मा आत्मनिष्ठता होनेपर जो संयतपना होता है वह संवतपना, एकाग्रता लक्षण वाला श्रामण्य जिसका दूसरा नाम है ऐसा मोक्षमार्ग ही समझना चाहिये, क्योंकि वहाँ संगतपने पेय की भांति अनेकात्मक एकका अनुभव होनेपर भी, समस्त परद्रव्यसे निवृत्ति होनेसे एकाग्रता प्रगट है । वह संयतत्व भेदात्मक है, इसलिये 'सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र मोक्षमार्ग है' इस प्रकार पर्यायप्रधान व्यवहारनयसे उसका प्रज्ञापन है; वह (मोक्षमार्ग) अभेदात्मक है इसलिये 'एकाग्रता मोक्षमार्ग है' इस प्रकार द्रव्यप्रधान निश्चयनयसे उसका प्रज्ञापन है; समस्त ही पदार्थ भेदाभेदात्मक है, इसलिये 'वे दोनों अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र तथा एकाग्रता
Page #477
--------------------------------------------------------------------------
________________
BA
...
........
....
Unload
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गो टीका
४६३ भिरपि योगपग्रेन भाव्यभावकभावविम्भितातिनिर्भरेतरेतरसंवलनबलादनाङ्गिभावेन परिणत. स्यात्मनो यदात्मनिष्ठत्वे सति संयतत्वं तत्पानकवदनेकातमकस्यैकस्यानुभूयमानतायामपि समस्त. परद्रव्यपरावर्तत्वादभिव्यक्त काग्रयलक्षरणश्रामण्यापरनामा मोक्षमार्ग एवावगन्वव्यः । तस्य तु सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग इति भेदात्मकत्वात्पर्यायप्रधानेन व्यवहारनयेन काग्र मोक्षमा इत्यभेदात्मकत्वाद्रव्यप्रधानेन निश्चयनयेन विश्वस्यापि भेदाभेदात्मकत्वात्तदुभयमिति प्रमाणेन प्रज्ञप्तिः ।। इत्येवं प्रतिपत्तुराशयवशादेकोऽप्यनेकोभवं स्त्रलक्षण्यमर्थकतामुपगतो मार्गोपवर्गस्य यः । द्रष्टज्ञातृनिबद्धवृत्तिमचलं लोकस्तमास्कन्दतामास्कन्दत्यचिराद्विकाशमतुलं येनो. ल्लसन्त्याशिवतेः ॥१६॥॥२४२॥ । निषु-सप्तमी एक । जुगवं युगपत दु तु त्ति इति-अव्यय । समुट्ठिदो रामुत्थितः जो यः स्यग्गगदो एकाग्रगत; मदो मतः सामण श्रामण्यं पडिपुण्णं परिपूर्ण-प्रथमा एकवचन । तस्स तस्य-षष्ठी एकवचन । निरुशित-युगमिव पद्यते इति युगपत (युग पद --विवप्) पद गतो 1 समास-दर्शनं च ज्ञानं च चरित्रं चेति दर्शनज्ञान चारित्राणि तेषु दर्शनज्ञानचरित्रेषु ११२४५।। . मोक्षमार्ग हैं। इस प्रकार प्रमाणसे उसका प्रज्ञापन है। इत्येवं इत्यादि । अर्थ---इस प्रकार, प्रतिपादकके आशयके वश, एक होनेपर भी अनेक होता हुआ एकताको तथा त्रिलक्षणताको प्राप्त जो मोक्षका मार्ग उसे लोक दृष्टा-ज्ञातामें निबद्ध वृत्तिको अचलरूपसे अवलम्बन करे, जिससे वह लोक उल्लसित चेतनाके अतुल विकासको अल्पकाल में प्राप्त हो ।
प्रसंगविवरण----अनन्तरपूर्व गाथामें श्रमणको अनुकूल प्रतिकूल सब घटनावोंमें साम्य भाव रखने वाला बतलाते हुए प्रागमज्ञान प्रादि चारोंके योगपद्यको संयतका लक्षण बतलाया गया था ! अब इस गाथामें बतलाया गया है कि प्रागमज्ञान प्रादि चारोंका योगपछ ऐकाप्रथगतपना है जो कि श्रामण्यका दूसरा नाम है और मोक्षमार्गरूप है।
तथ्यप्रकाश---(१) सारा विश्व भेदाभेदात्मक है, सो प्रत्येक तथ्यको भेदरूपसे व अभेदरूपसे दोनों विधियोंसे निरख सकते हैं। (२) मोक्षमार्ग भेदात्मकपनेसे तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र मोक्षमार्ग है । (३) अभेदातमकपनेसे ऐकामच मोक्षमार्ग है । (४) ऐकायमें सम्यग्दर्शन सभ्यम्ज्ञान सभ्याचारित्र इन तीनोंके होनेपर भी उनकी एकताका अनुभव होता है । (५) जैसे पानक में (शरबतमें) अनेक चीजोंके होनेपर उनकी एकरसताका अनु. भव होता है। (६) ज्ञेयतत्व वे ज्ञाता तत्त्व जो जैसे है उनकी उसी रूपसे प्रतीति होना सम्यग्दर्शन है। (७) ज्ञेयतत्त्व व ज्ञाता तत्त्वका उस ही रूपसे अनुभव होना सम्यग्ज्ञान है । (0) अन्य सर्व पदार्थोकी क्रियाओंकी निवृत्ति के कारण स्पष्ट स्वरूपमात्र द्रा ज्ञाता स्वभावमय अन्तस्तत्त्वमें उपयुक्त होना सम्यकचारित्र है । (६) जब सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान व सम्यक्.
JO
ESS
Page #478
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां
४६४
प्रथान कास्य मोक्षमार्गत्वं विघटयति
मुज्झदि वा रजदि वा दुस्सदि वा दव्वमण्णामा सेज्ज । जदि समणो अण्णाणी बज्झदि कम्मेहिं विविहेहिं ॥ २४३ ॥ यदि प्रज्ञानी हो मुनि, प्राश्रय करि पर विभिन्न द्रव्योंका |
मोहे रुषे तूषे, तो बांधे विविध कर्मोंको ॥ २४३ ॥
तवा रज्यति वा द्वेष्टि वा द्रव्यमन्यदासाथ यदि श्रमणोऽज्ञानी वध्यते कर्मभिर्विविधैः ॥ २४३ ॥ यो हि न खलु ज्ञानात्मानमात्मानमेकमग्रं भावयति सोऽवश्यं ज्ञेयभूतं द्रव्यमन्यदासीदति । तदासाद्य च ज्ञानात्मात्मज्ञानाभ्रष्टः स्वयमज्ञानीभूतो मुह्यति वा रज्यति वा द्वेष्टि वा
नामसंज्ञ – वा दव्य अण्ण जदि समण अभ्णाणि कम्म विविह। धातुसंज मुज्झ मोहे, रज्ज रागे, इस कृत्ये च बन्धने । प्रातिपदिक- वा द्रव्य अन्यत् यदि श्रमण अज्ञानिव कर्मन विविध । मूलधातु- मुह चिरंज रागे द्विप ये बन्ध बन्धने । उभयपदविवरण मुज्झदि मुह्यति रज्जति रज्यति दुस्सदि चारित्र तीनों एक साथ हो जाते हैं तब इतरेतर संवलन होनेके कारण श्रङ्गाङ्गिभावसे परिगत आत्मा आत्मनिष्ठ हो जाता है, यही वास्तविक संयतपना है । (१०) श्रागमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान, संयतपना व श्रात्मज्ञान इन चारोंका यौगपद्य श्रामण्य है, मोक्षमार्ग है ।
सिद्धान्त - ( १ ) अन्तः ज्ञानमय पौरुषसे शुद्ध विकसित परमात्मतत्वको उपलब्धि होती है ।
दृष्टि - १ - पुरुषकारनय ( १८३ ) ।
प्रयोग - श्रामण्य लाभ (आत्मशान्ति ) के लिये प्रागमज्ञानका अभ्यास करना व संतस्वस्वका मनन करना ||२४२ ।।
अनेकता मोक्षमार्गत्वका विघटन करते हैं- [ यदि ] यदि [ श्रमरः ] श्रमण [श्रन्यत् द्रव्यम् आसाद्य ] अन्य द्रव्यका प्राश्रय करके [ श्रज्ञानी] प्रज्ञानी होता हुआ, [मुह्यति वा ] मोह करता है, अथवा [ रज्यति वा ] राग करता है, [ द्वेष्टि या ] अथवा द्वेष करता है, तो वह [ विविधैः कर्मभिः] विविध कर्मोंसे [ अध्यते ] बंधता है |
तात्पर्य --- यदि मुनि राग द्वेषादि करने लगे तो वह नाना कर्मोसे बँध जाता है । टीकार्थ---जो वास्तव में ज्ञानात्मक आत्माको एक अग्र रूपसे नहीं भाता, वह अवश्य ज्ञेयभूत अन्य द्रव्यका आश्रय करता है, और उसका श्राश्रय करके, ज्ञानात्मक श्रात्मज्ञान से वह स्वयं अज्ञानी होता हुआ मोह करता है, राग करता है, अथवा द्वेष करता है; श्रीर वैसा होता हुग्रा वैधता ही है, छूटता नहीं ।
Page #479
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका
४६५
तथाभूतश्च बध्यत एव न तु विमुच्यते । श्रत अकाग्रयस्य न मोक्षमार्गत्वं सिद्धयेत् ॥ २४३॥ दृष्टि वर्त० अन्य० एक० क्रिया । वा जदि यदि अन्य । दव्वं अण्णं यं अन्यत्-द्वितीया एक से कम आसाद्य - सम्बन्धार्थप्रक्रिया | समणो श्रमणः अण्णाणी अज्ञानी-प्रथमा एकवचन | बज्मादि अध्यतेस्वतं ० अन्य० एक० भावकर्मप्रक्रिया | कम्र्मोह कर्मभिः विविहेहि विविधैः तृतीय बहुवचन । निरुक्तिredit श्रमणः । समास - विविधा विधा येषां ते विविधाः तः विधिः॥२४३॥
प्रसंगविवरण- अनन्तरपूर्व गाथा में ग्रागमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान, संरचना ग्रामज्ञान इन चारोंके यौगपद्य रूप ऐकाग्रचपनेका मोक्षमार्गरूपसे समर्थन किया था। अब इस गाथा में एकाग्रतारहित भावके मोक्षमापने का निषेध किया है।
तथ्य प्रकाश- (१) जो ज्ञानस्वरूप एकमात्र श्रात्माको नहीं भावता, अनुभवता, वह अवश्य ही अन्य ज्ञेयभूत द्रव्यका प्राश्रय करेगा। ( २ ) जो पुरुष ज्ञानात्मक ग्रात्माको नहीं मानेसे शेयभूत अन्य द्रव्यका आश्रय करता है वह ज्ञानस्वरूप ग्रात्मतत्त्वके ज्ञानसे भ्रष्ट हु स्वयं अज्ञानी होकर मोह राग द्व करता है । ( ३ ) ग्रात्मज्ञानी अन्य द्रव्यका आश्रयी मोही राग द्वेषी प्राणी कर्मोंसे बैधता ही है, विमुक्त नहीं होता । ( ४ ) चूंकि ऐका के अभाव में वे सब विडम्बनायें होतों सो प्रकट सिद्ध है कि काय परिणमनके मोक्षमापना सिद्ध नहीं
होता ।
सिद्धान्त - ( १ ) रागो द्वेषी मोही श्रमण श्रज्ञानी है और वह नावा कमसे ब जाता है ।
दृष्टि - १- अशुद्धभावनापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय ( २४स ) ।
प्रयोग - कर्मोंसे छुटकारा पानेके लिये ज्ञानात्मक प्रात्मतत्वको भावना करना जिससे त तो अन्य द्रव्यका आश्रय हो सके और न राग द्वेष मोह उत्पन्न हो ॥२४३॥
अब एकाग्रता के मोक्षमार्गपना निश्चित करते हुये मोक्षमार्ग-ज्ञापनका उपसंहार करते हैं [ यदि यः श्रमरणः ] यदि श्रमण [ प्रर्येषु] पदार्थों में [न मुह्यति ] मोह नहीं करता [[न हि रज्यति ] राग नहीं करता, [न एव द्वेषम् उपयाति] और न द्वेषको प्राप्त होता है [[:] तो वह [ नियतं ] नियमसे [ विविधानि कर्मारिए ] विविध कर्मीको [ क्षपयति ] गुर कर देता है अर्थात् नष्ट कर देता है ।
तात्पर्य - मोह राग द्वेष न करने वाला श्रमण नाना कर्मो को नह कर देता है ।
टोकार्थ -- जो ज्ञानात्मक आत्माको एक श्रग्ररूपसे भाता है वह ज्ञेयभूत अन्य द्रव्यका (प्राश्रय नहीं करता; श्रीर उसका माश्रय नहीं करके ज्ञानात्मक आत्मज्ञान से भ्रष्ट वह स्वयमेव ज्ञानीभूत रहता हुआ मोह नहीं करता, राग नहीं करता; द्वेष नहीं करता, और ऐसा
Page #480
--------------------------------------------------------------------------
________________
Wa
४६६
सहजानन्दशास्त्रमालायां
l
ken
SS
अर्थकाग्रयस्य मोक्षमार्गत्वमवधारयन्नुपसंहरति--
अढेसु जो ण मुझदि ण हि रज्जदि गोव दोसमुक्यादि। समणो जदि सो णियदं खवेदि कम्माणि विविहाणि ॥२४४॥
मोह न पदार्थोंमें, तूपे नहिं द्वष नहिं करे जो यदि ।
वह श्रमरण विविध कर्मों का प्रक्षय किया करता है ।।२४४॥ अर्थ, यो न मुह्यति न हि रज्यति नैव द्वेषमुपयाति । श्रमणो यदि स नियतं क्षपति कर्माणि विविधानि ।।
यस्त जानात्मानमात्मानमेकमग्रं भावयति स न ज्ञेयभूतं द्रव्यमन्यदासीदति । तदनासाय च ज्ञानात्मात्मज्ञानादभ्रष्टः स्वयमेव ज्ञानीभूत स्तिष्ठन्न मुह्यति न रज्यति न द्वेष्टि तथाभूतः सन् मुच्यत एव न तु बध्यते । प्रत ऐकाग्रयस्यैव मोक्ष मार्गत्वं सिद्धयेत् ।।२४४।। इति मोक्षमार्गप्रज्ञापनम् ।
नामसंज्ञ- अट्ट जण ण हिप एव दोस समण जदि त णियद कम्म विविह । धातुसंज्ञ...-मुग्म मोहे, रन रागे, खव क्षयकरणे, उव या प्रापणे । प्रातिपदिक.... अर्थ यत् न हि न एव द्वेष श्रमण यदि तत् निया कर्मन् विविध । मूलधातु-मुह वैचित्ये, रंज रागे, उप या प्रापणे, क्षपि भयक रणे । उभयपदविव. रण-अट्ट सु अर्थपु-सप्तमी बहु० । जो यः सो सः समणो श्रमण:-प्रथमा एक० । ण न हि एव जदि यदिअव्यय 1 मुज्मादि मुह्यति रज्जदि रज्यति उवयादि उपयाति खवेदि क्षपति-वर्त अन्य० एक क्रिया। दोतं द्वेग-द्वितीया एक० । णियदं नियतं-क्रियाविशेषण। कम्माणि कर्माणि विविहाणि विविधानि--द्वितीया बहुवचन । निरुक्ति-- यदि-हेतुहेतुमद्भावप्रसंग यत् + इन् ।॥२४४३॥ वर्तता हा (वह) मुक्त ही होता है, परन्तु बंधता नहीं है। इस कारण एकापनेके ही मोक्षमार्गपना सिद्ध होता है।
प्रसंगविवरण ---- अनन्तर पूर्व गाथामें बताया गया था अनकायके मोक्षमार्गपना विघट जाता है। अब इस गाथामें ऐकायके मोक्षमार्गपनेका निश्चय कराते हुए मोक्षमार्गके इस स्थानका उपसंहार किया गया है ।
तथ्यप्रकाश-(१) जो ज्ञानात्मक एक मात्र प्रात्माको भावना करता है वह ज्ञेयभूत अन्य द्रव्यका पाश्रय नहीं करता है। (२) ज्ञेयभूत अन्य द्रव्यका प्राश्रय न करके ज्ञान स्वरूप प्रात्माके ज्ञानसे भ्रष्ट न होता हुआ श्रमण स्वयं ही ज्ञानरूप रहता है । (३) ज्ञानात्मकस्व. संवेदी श्रमण ज्ञानरूप रहता हुमा न तो मोह करता है न राग करता है और न द्वेष करता है । (४) राग द्वेष मोह न करता हुना ज्ञानी कर्मोंसे छूटता ही है, किन्तु बँधता नहीं है। (५) चंकि ज्ञानात्मक एक अग्र आत्माको भानेसे श्रमण निविकार होकर कर्मोंसे छूटता है, अजः इस ऐकाय भावमें ही मोक्षमार्गपना सिद्ध होता है । (६) प्रागमज्ञान तत्त्वार्थश्रद्धान
Page #481
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टोका अथ शुभोपयोगप्रज्ञापनम् । तत्र शुभोपयोगिनः श्रमरणत्वेनान्वाचिनोति--
समणा सुदधुवजुत्ता सुहोवजुत्ता य होत्ति समयम्हि । तेमु वि मधुवजुत्ता प्रणा सवा सासवा सेसा ॥२४॥
श्रमरण शुद्धोपयोगी, शुभोपयोगी कहे जिनागममें ।
किन्तु शुद्धोपयोगी, अनास्रवो शेष सास्रव हैं ।। २४५ ॥ श्रमणा: मुलं पता: भोगयुक्तापच भवन्ति समये : पचपि मुझोपयुक्ता अनानवाः मानवाः शेषः १२४.।
ये महल श्रामपरिवाति प्रनिनामानि जोदितनपाय करतया समस्तपरद्रव्यानिवृत्ति प्रत. तमुबिशन निस्विभायात्ममात्तिम्यां गद्धोपयोगभूमिकामधिरोढुं न अमले इ ने नय
नामसन--गम बजन मुहोबजुत य समय त । मुद्धबहुत अणासव मेस सासव ! धातुमंज --हो सत्तायां 1 प्रातिपदिक- श्रमण मद्धोपयुक्त भोपयुक्त समय तत् अपि शुद्धोपयुक्त अनास्त्र सामव शेप। संयतपना व प्रामज्ञान इन भारोका योगपद्य, सर्वत्रसाम्य, ज्ञानात्मकस्वसंवेदन, एकानप, श्रामग्य व शुद्धोपयोग यह एकार्थकभाव मोक्षमार्ग है ऐसा मोक्षमार्गका प्रज्ञापन किया गया
सिद्धान्त-(१) शुद्ध प्रात्मतत्त्वकी भावनाके कारण स्वयं ही कर्मोंसे छुटकारा प्राप्त हो जाता है।
दृष्टि ---- १- शुद्धभावनापेक्ष मृद्ध द्रव्यापिकन य (२४८) ।
प्रयोग–कोसे व संसारसंकटों से छुटकारा पाने के लिये पदार्थोमें न मोह करना न राग करना, न द्वेष करना ।।२४४।।
इस प्रकार मोक्षमार्ग-प्रज्ञापन समाप्त हुआ।
अब शुभोपयोगका प्रज्ञापन करते हैं। उसमें प्रथम शुभोपयोगियोंको श्रम रूपमें गीण तया बतलाते हैं-समये] परमागम में श्रमणाः] श्रमरा शुद्धोपयुक्ताः शुद्धोपयोगी चि शुभोपयुक्ताः भवन्ति] और शुभोपयोगी होते हैं [तेषु अपि उनमें भी [शुद्धोपयुक्ताः अना. सवाः] शुद्धोपयोगी निरस्रव हैं, [शेषाः सात्रवाः] शेष सारव हैं अर्थात् शुभोपयोगी पात्रक. साहित हैं।
तात्पर्य -... शास्त्रमें शुभोपयोगी ब शुखोपयोगी दोनोंको श्रमण कहा गया है ।
टीकार्थ-----जो वास्तव में श्रामण्यपरिमतिको प्रतिज्ञा करके भी, कषाय करण के जीवित होनेसे , समस्त इरद्रन्यसे निवृत्तिरूपसे प्रवर्तमान सुविशुद्ध दर्शन ज्ञान स्वभाव प्रात्मतत्व में परिणतिरूप शुद्धोपयोगभूमिकामें प्रारोहण करनेको समर्थ नहीं हैं; वे जीव शुद्धोपयोगभूमिकाके
Page #482
--------------------------------------------------------------------------
________________
secs
४६८
सहजानन्दशास्त्रमालायां
a HIMAnamp40SARHARAT
ankimkinatomonalis
Raman
कनिविष्टीः कषायकुण्ठीकृतशक्तयो नितान्तमुत्कण्ठूलमनसः श्रमणाः किं भयेशुन वेत्यत्राभिधी. यते । 'धम्मेण परिणदप्या अप्पा जदि सुद्धसंपयोगजुदो। पावदि सिम्बाणसुहं सुहोब जुत्तो व सग्गनुहं' इति स्वयमेव निरूपितत्वादस्ति तावच्छुभोपयोगस्य धर्मेण स हैकार्थसमकामः । तत: शुभोपयोगिनोऽपि धर्मसद्भावाद्भवेयुः श्रमणाः किंतु तेषा शुद्धोपयोगिभिः समं समात्वं न भवेत. यतः शुद्धोपयोगिनो निरस्तसमस्तकषायत्वादनासवा एव । इमे पुनरनवकी कषाय कमा - त्वात्सालवा एव । अत एव च शुद्धोपयोगिभि। समममी न समुच्चीयन्ते कवल मन्त्राची यन्त एवं ॥२४५।। मूलपातु--भू सत्तायां । उभयपदविवरण- समणा क्षमणा: सुद्धब जुत्ता होगयुक्ता; सुहाबजुत्ता भो पयुक्ताः अणास वा अमानवाः सासवा सारवा: सेसा शेषा:-प्रथमा बहवसन यचवि -अध्यय। समरिह समये-गप्तमी एक । तेसु तेषु-सप्तमी बहुवचन । होति भवन्ति-वर्ल० अन्यः यह विया । निरुक्ति- आ स्त्रवणं आखवः (जा स्त्र + अप)। समास-४ उपयुक्ताः शुद्धोपयुक्ताः, शुभे उपयुक्ताः शुभपयुक्ताः ॥२४॥ निकट निविष्ट और क्षायसे कुण्ठित शक्ति वाले तथा अत्यन्त उत्कण्ठित मान बाले श्रमण हैं या नहीं, यह यहाँ कहा जा रहा है—धम्मेण परिणदप्या अप्पा जदि सुद्धसंपयोगजुदो । पाबदि णिव्वासहं महोबजुत्तो व सग्गसुहं ।। इस प्रकार (भगवान कुन्दकुन्दाचार्यने ११वो गाथामें) स्वयं ही निरूपित होनेसे शुभोपयोगका धर्म के साथ एकार्थसमवाय है । इस कारण शुभोपयोगी भी, उनके धर्मका मद्भाव होनेसे श्रमण हैं। किन्तु वे शुद्धोपयोगियों के साथ समा कोटिके नहीं है, क्योंकि शुद्धोपयोगी समस्त कषायों को निरस्त किया होनेसे नित्रिव हो है और ये शुभोपयोगी तो कबायकरणके विनष्ट न होने से सासद ही हैं । और ऐसा होने से ही शुद्धोपयो. गियों को साथ इन्हें शुभोपयोगियों को एकत्रित नही लिया जात्ता, मात्र पोछेसे गौशाला में ही लिया जाता है।
प्रसङ्गविवरण---अनन्तरपूर्व गाथामें ऐकायके हो मोक्षमार्गपना निश्चित करके मो. क्षमार्ग प्रज्ञापन कर दिया गया था। अब इस गाथामें शुभोपयोगका प्रज्ञापन प्रारम्भ हुआ है।
तथ्यप्रकाश-----(१) श्रमण शुद्धोपयोगी भी होते हैं, शुभोपयोगी भी होते हैं । (२) जो श्रमरण शुभोपयोगी हैं वे सदा शुभोपयोगी रहैं अल्पसमयको भी कभी शुद्धोपयोगी न हो ऐसा नहीं है, किन्तु प्रधानताकी दृष्टि से शुभोपयोगी हैं.। (३) जो पुरुष श्रामण्यपरिगतिको प्रतिज्ञा करके भी कवायकरण जीवित रहने से पूर्ण निवृत्ति नहीं पा सकते व दर्शन ज्ञानस्वभाव प्रात्मतत्त्वमें वृत्ति नहीं कर सकते, शुद्धोपयोगको भूमिकापर नहीं चढ़ पा रहे वे भी श्रमण हैं। (४) शुभोपयोगी श्रमण शुद्धोपयोगकी भूमिकाके निकट बैठे हैं, अतः श्रमरण ही हैं। (५)
o mwww
SavantIA33000
wes
Page #483
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका
श्रथ शुमोपयोगिश्रमरपल क्षणमासूत्रयति-
अरहंतादि भक्ती वच्छलदा पवयणाभिजुत्तेसु । विज्जदि जदि सामण्णा सा सुहजुत्ता भवे चरिया ॥ २४६॥
सिद्ध जिनोंमें भक्तो, प्रवचन श्रभियुक्तमें सुवत्सलता ।
४६६
श्रामण्यमें यदी हों, वह ही शुभयुक्त चर्या है ॥२४६ ॥
दाद सिलता प्रवचनाभियुक्तेषु । विद्यते यदि श्रामण्ये सा शुभयुक्ता भवेच्चर्या ॥ २४६ ॥ सकलसंगान्यासात्मनि श्रामण्ये सत्यपि कषायलवावेशवशात् स्वयं शुद्धात्मवृत्तिमात्रपावस्थातुमशक्तस्य परेषु शुद्धात्मवृत्तिमात्रेणामस्थितेष्वदादिषु शुद्धात्मवृत्तिमात्रावस्थितिप्रति
नामसंज्ञ अहंवाद भत्ति वच्छलदा पवयणाभिजुत जदि सामण्ण त सुहजुत्ता चरिया । श्रातुसंज्ञ-भव सत्तायां विज्ज सत्तायां । प्रातिपदिक-अर्हदादि भक्ति वत्सलता प्रवचनाभियुक्त यदि श्रामण तत्
परिसात आत्मा शुभयोग से युक्त रहता है तो वह मरण कर स्वर्गादि सुखको प्राप्त होता है. इससे सिद्ध है कि शुभोपयोगी श्रमण भी धर्ममार्ग में है । ( ६ ) शुभपयोगका धर्म के साथ एकार्थसमवाय है, इस कारण शुभोपयोगी भी श्रमण हैं । (७) शुभोपयोगी श्रमण शुद्धोपयोगी श्रम से नीचे हैं, क्योंकि शुद्धोपयोगी श्रमण कषाय दूर कर देनेसे निरास्रव हैं, शुभोपयोगी श्रमण कषायक सद्भाव के कारण सासव हैं । ( ८ ) शुभोपयोगी श्रम भी सावन में है, अतः वह भी श्रमण ही हैं ।
सिद्धान्त - ( १ ) शुभोपयोग में सहज शुद्ध प्रन्तस्तत्त्व की प्रतीति युक्त श्रमण अन्तः आत्मतत्त्वको साधना कर रहा है ।
दृष्टि - १ - क्रियानय ( १९३ ) |
प्रयोग - शुद्धोपयोगी होनेके प्रधान पौरुषको विधेयता समझते हुए कषायकप्रेरणा को स्थितिमें शुभोपयोगी होना ॥ २४५ ॥
अव शुभोपयोगी श्रमणका लक्षण श्रासूत्रित करते हैं - [ श्रामण्ये ] मुनि अवस्था में [ यदि ] यदि [ श्रदादिषु भक्तिः ] श्रन्तादिके प्रति भक्ति तथा [ प्रवचनाभियुक्तेषु वत्सलता ] प्रवचनरत जीवोंके प्रति वात्सल्य [विद्यते ] पाया जाता है तो [सा ] वह [ शुभयुक्ता चर्या ] शुभयुक्त वर्या अर्थात् शुभोपयोगी चारित्र [ भवेत् ] है ।
तात्पर्य - प्रर्हन्तादि में भक्ति व सहधर्मियों में वात्सल्य करने वाला मुनि शुभोपयोगी
टोकार्थ- सकल संगके सन्यासस्वरूप श्रामण्य के होनेपर भी कषायशिके प्रवेश के
Page #484
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां
पादकेषु प्रवचनाभियुक्तेषु च भक्त्या वत्सलतया च प्रचलितस्य तावन्मात्ररागप्रबर्तित परद्रव्यप्रवृत्तिसंवलितशुद्धात्मवृत्तेः शुभोपयोगि चारित्रं स्यात् । अतः शुभोपयोगिश्रमणानां शुद्धात्मानुरागयोग चारिवलक्षणम् ॥ २४६ ॥
150
शुभयुक्ता चर्या । मूलधातुविद सत्तायां, भू सत्तायां । उभयपदविवरण- अरहंतादिसु अर्हदादिषु पवराणाभिजुत्सु प्रवचनाभियुक्तेषु सप्तमी बहुवचन । भक्ती भक्तिः वच्छलदाखलता सुहजुला शुभयुक्ता चरिया चर्या सा-प्रथमा एकवचन । विज्जदि विद्यते वर्त० अन्य० एक० क्रिया । जदि यदि - अव्यय । साभण्णे श्रामध्ये - सप्तमी एकवचन । भवे भवेत् विधी अन्य० एक० क्रिया । निरुक्तिवाद व्यक्तायां राचि रम्यं वदति इति वत्सः (वद + स वत्से स्नेहाल इति वत्सलः तस्य भावः वत्सलता | समास - (प्रवचने अभिसुताः प्रवचनाभियुक्ता तेषु प्र०, शुभेन युक्ता शुभयुक्ता ॥ २४६ ॥
केवल शुद्धात्मपरिणतिरूप से रहने में स्वयं प्रशक्त पररूप केवल शुद्धात्मपरिणतरूपसे रहने वाले अर्हन्तादिक तथा केवल शुद्धात्मपरिणतरूपसे रहनेका प्रतिपादन करने वाले प्रवचनरत जीवोंके प्रति भक्ति तथा वात्सल्यके द्वारा प्रचलित भ्रमणके मात्र उतने रागसे प्रवर्तमान पर द्रव्यप्रवृति के साथ शुद्धात्मपरिणति मिलित होनेसे, शुभोपयोगी चारित्र है । इस कारण शुद्धामाका अनुरागयुक्त चारित्र शुभोपयोगी श्रमणों का लक्षण है ।
प्रसंग विवरण - अनन्तरपूर्व गाथामें शुद्धोपयोगी व शुभोपयोगी दो प्रकारके श्रमण कहे गये हैं । श्रब इस गाथामें शुभोपयोगी श्रमणका लक्षण सूचित किया गया है ।
तथ्यप्रकाश - (१) शुद्धात्मपरिणति परद्रव्यप्रवृत्तिके साथ मिलित हो तो वह शुभोपयोगी चारित्र कहलाता है । (२) श्रम के समस्त परिग्रहके त्यागरूप श्रामण्य है तथापि कषायकणके प्रवेशव शुद्धात्मवृत्तिमात्रसे नहीं रह पाता है । (३) जब भ्रमण शुद्धात्मवृत्ति मात्र ( मात्र ज्ञाता द्रष्टा रहने रूप) नहीं रह पाता तो वह शुद्धात्मवृतिमात्रसे रहने वाले अरहन्त श्रादिकों की भक्तिरूप उपयोग करता है । ( ४ ) शुद्धात्मवृत्तिमात्र से न रह पानेपर श्रमण शुद्धात्मवृत्तिमात्र अवस्थितिके प्रतिपादक प्रवचनरत गुरुयोंको भक्ति व वात्सल्य व सेवा भी करता है । (५) शुभोपयोगी श्रमणों का शुद्धात्मानुरागयोगि चारित्र होता है ।
सिद्धान्त -- ( १ ) शुद्धात्मपरिणतिमिलित परद्रव्यप्रवृत्त उपयोग शुभोपयोगी चाfte कहलाता है ।
दृष्टि - १- क्रियानय ( १६३) ।
प्रयोग — शुद्धोपयोगवृत्ति न रह पानेपर शुद्धात्मावोंके व शुद्धात्मत्वसाधकोंके प्रति अनुराग भक्ति वत्सलतारूप शुभोपयोग करना ॥ २४६ ॥
श्रव शुभोपयोगी श्रमणोंकी प्रवृत्ति दिखलाते हैं [ श्रमणेषु ] श्रमणोंके प्रति [वन्द
Page #485
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार---सप्तदशाङ्गो टोका। अथ शुभोपयोगिश्रमणानां प्रवृत्तिमुपदर्शयति
वंदणमंसोहिं अब्भुढाणाणुगमणपडिवत्ती। समोसु समावण यो ण णिदिदा रायचरियम्हि ॥२४७॥ श्रमरणोंके प्रति सबिनय, वंदन उत्थान अनुगमन प्रणयन ।
प्रतिपत्ति श्रमापनयन, निन्दित नहिं रागचर्याम ॥२४७॥ वन्दननमस्करणाभ्यामभ्युत्थानानुगमनप्रतिपत्तिः । श्रमणेषु श्रमापनयो न निन्दिता रागचर्यायाम् ।।२४।।
शुभोपयोगिनां हि शुद्धात्मानुरागयोगिचारित्रतया समधिगतसुद्धात्मवृत्तिषु श्रमशोषु चन्दननमस्करणाभ्युत्थानानुगमन प्रतिपत्तिप्रवृत्तिः शुद्धात्मवृत्तित्राणनिमित्ता धमापनयननवृत्ति.श्च न दुष्येत् ॥२४७॥
नामसंज्ञ.---वंदणणमंराण अन्भुदाणाणुगमणपडि वत्ति समण समावणाअाणिदिदो रायरिय । धातुसंज्ञ-पडि पद गतौ । प्रातिपदिक--वन्दननमस्करण अभ्युत्थानानुगमन प्रतिपत्ति श्रमण श्रमाय न नि. न्दिता रागचर्या । पूलधातु-प्रति पद गतौ । उभयपदविवरण-- बंदणणमसणेहि-तृतीया बहु । धन्नदमस्करणाभ्यां-तृतीया हि । अदभुट्टामापुगमणपडिवत्ती अभ्युत्थानानुगमन प्रतिपत्तिः प्रथमा एक० । समपेसु श्रमशोषु-स० बहु० । समावणओ श्रमापनयः-प्रथमा एक० । पम-अव्यय । णिदिदा-प्रथमा एव । रायचरियम्हि रागचर्यायां-सप्तमी एकवचन । निरुक्ति-प्रतिपादनं प्रतिपत्तिः (प्रति पद + कितन) । समास-वदनं च नमस्करणं वंदनन मस्कररो ताभ्यां वं0 11२४७॥ ननमस्कररणाभ्यां वन्दन-नमस्कारके साथ [अभ्युत्थानानुगमनप्रतिपत्तिः] अभ्युत्थान और अनुगमनरूप विनीत प्रवृत्ति करना तथा [श्रमापनयः] उनका श्री दूर करना [रागर्यायाम] रागचमि [न निन्दिता] निन्दित नहीं है।
तात्पर्य-शुभोपयोगचारित्रमें श्रमणोंका वन्दन विनय प्रादि करना निन्दित नहीं ।
टोकार्थ--शुभोपयोगियोंके शुद्धात्माके अनुरागयुक्त चारित्र होनेसे शुद्धात्मपरिगति प्राप्त की है जिनमें ऐसे श्रमणों के प्रति वन्दनन्नमस्कार-अभ्युत्थान अनुगमनरूप विनीत वर्तन की प्रवृत्ति तथा शुद्धात्मपरिगतिकी रक्षाको निमित्तभूत जो श्रम दूर करनेकी यावत्यरूप प्रवृत्ति है, वह शुभोपयोगियों के लिये दूषित नहीं है ।
प्रसङ्गविवरण- अनन्तरपूर्व गाथा शुभोपयोगी श्रमणका लक्षण कहा गया था। अब इस गाथा शुभोपयोगी श्रमणोंकी प्रवृत्ति बताई गई है।
तथ्यप्रकाश--(१) शुभोपयोगी श्रमणोंका शुद्धात्मानुरागयोगो चारित्र होता है, इस कारण उनके रागचर्या होती है जो कि इस भूमिकामें निन्दित नहीं है। (२) शुभोपयोगी श्रमण रागचर्या में अन्य श्रमणोंके प्रति वन्दना, नमस्कार, अभ्युत्थान, अनुगमनकी प्रतिपत्ति
PawoonमयमmommenterimeHimammy
Page #486
--------------------------------------------------------------------------
________________
૪૭*
सहजानन्दशास्त्रमालायां
अथ शुभपयोगिनामेवंविधाः प्रवृत्तयो भवन्तीति प्रतिपादयतिदंसणगावदेसो सिस्सग्गहणं च पोसणं तेसिं चरिया हि सरागाणं जिदिपूजोवदेसो य ॥ २४८ ॥ दर्शनज्ञान सुदेशन, शिष्य ग्रहण शिष्य आत्मपोषण भी । जिनपूजोपदेश सब, चर्या हि सराग श्रमरणोंकी ॥ २४८ ॥
ज्ञानोपदेशः शिष्यग्रहणं च पोषणं तेषाम् । चर्या हि सरोगाणां जिनेन्द्रपूजोपदेशश्च ॥ २४८ ॥ अनुजिघृक्षपूर्वक दर्शनज्ञानोपदेशप्रवृत्तिः शिष्यसंग्रह प्रवृत्तिस्तत्पोषण प्रवृत्तिजिनेन्द्रपूजो
नामसंज्ञदतणणावदेस सिस्सग्गहण च पोसण त चरिया हि सरागजिदिपूजोवदेस य धातु संग्रह । प्रातिपदिक-दर्शनज्ञानोपदेव विध्यग्रहण व पोषण तत् चर्यां हि सराग जिजोप्रदेश य । मूलधातु - ग्रह उपादाने । उभयपद विवरण- दंसणणावदेखो दर्शनज्ञानोपदेशः सिस्ससह पोसणं पण चरिया चर्या जिणिदपूजोवदेशो जिनेन्द्रपूजोपदेश: प्रथमा एकवचन । तेंसि तेषां श्री प्रवृत्ति करते हैं । (३) श्राचार्यादि कोई श्रमण श्रावे तो उनके सम्मान में उठकर खड़ा होना मभ्युत्थान कहलाता है । ( ४ ) जब प्रचार्यादि श्रमण चलें तो उनके पीछे चलना अनुगमन कहलाता है । (५) विनयभावसहित सम्मानचेष्टावोंको प्रतिपत्ति कहते हैं । (६) भार्यादिश्रमण जब विहार, रोग आदिके कारण थक गये हों तो उनके शरीरको दावना, सेवा करना श्रमापनयन है । (७) शुभोपयोगी श्रमणोंकी ये सब सेवायें दूषक नहीं
#
सिद्धान्त - (१) शुभोपयोगी श्रमणोंके शुभ क्रियायें होती हैं।
दृष्टि--- १- क्रियानय (१६३) |
प्रयोग- शुद्धात्मत्वकी रुचिपूर्वक शुद्धात्मवृत्ति वाले श्रमणोंकी वैयावृत्य कर शुभोप योग में शुद्धात्मत्वकी झलक लेते रहना || २४७॥
शुभपयोगियों ही ऐसी प्रवृत्तियां होती हैं, यह प्रतिपादन करते हैं-- [दर्शनज्ञानोपदेशः ] सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानका उपदेश [शिष्यग्रहणं ] शिष्योंका ग्रहण, [च] तथा [तेषाम् पोषणं ] उनका पोषण [च] और [जिनेन्द्रपूजोपदेशः ] जिनेन्द्रको पूजाका उपदेश [हि] [बाव में [ सरागाणांचर्या ] सरागियोंकी चर्या है ।
तात्पर्य -- तत्त्व उपदेश करना, दीक्षा देना, पूजोपदेश करना सराग मुनियोंको शुभोपयोगरूप चर्चा है ।
टोकार्थ -- अनुग्रह करनेकी इच्छापूर्वक दर्शनज्ञानके उपदेशकी प्रवृत्ति, शिष्य ग्रहणकी
Page #487
--------------------------------------------------------------------------
________________
४७३
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका पदेशप्रवृत्तिश्च शुभोपयोगिनामेव भवन्ति न शुद्धोपयोगिनाम् ॥२४८।। सरागाणं सरागाणां-बल्ली बहुवचन । निरुक्ति--शिष्यते असो शिष्यः (शिस् + क्या) शासु अनुशिष्टौं अदादि । समास-प्रदानं च ज्ञानं च दर्शनज्ञाने तयोः उपदेशः दर्शनज्ञानोपदेशः शिष्यस्य ग्रहणं शिप्यग्रहण, (जिनेन्द्रस्य पूजा जिनेवपूजा तस्याः उपदेशः जिनेन्द्रपूजोपदेशः ।)२४८ ।। प्रवृत्ति, उनके पोपणको प्रवृत्ति और जिनेन्द्रपूजाके उपदेशको प्रवृत्ति ये सब शूभोपयोगियों के ही होती हैं, शुद्धोपयोगियोंक नहीं।
प्रसंगधिबार – अनन्तरपूर्व गाथामे शुभोपयोगी श्रमणोंकी प्रवृत्ति दिखाई गई थी। अब इस गाथा में बताया गया है कि उक्त प्रवृत्तिया शुभोपयोगियोंके ही होती हैं।
तथ्यप्रकाश--(१) अनुग्रहपूर्वक दर्शन ज्ञानके उपदेशकी प्रवृत्ति करना शुभोपयोगियों के ही होती है शुद्धोगयोगियोंके नहीं, क्योंकि उपदेशप्रवृत्ति सरागचर्या है । (२) शिष्यों के संग्रहणकी प्रवृत्ति व शिष्यों का अन्तर्वाह्मयोषणप्रवृत्ति शुभोपयोगि योंके ही होती है, शुद्धोपयोगियोंके नहीं, क्योकि ऐसी प्रवृत्ति शुभरामपूर्वक ही होती है । (३) जिनेन्द्रपूजन के उपदेशको प्रबत्ति भी शूभोपयोग योंकी होती है, शुद्धोपयोगियोंके नहीं, क्योंकि शुभप्रवृत्तिका उपदेश भी सरागचर्या है । (४) ऐसी शुभ प्रवृप्तियां निन्दित नहीं है, क्योंकि शुभोपयोग में इन प्रवृत्तियों का आगममें वान है।
सिद्धान्त-- (१) शुभ योगियोंके शुभ क्रियायें शुद्धात्मानुरागसे होती हैं। दृष्टि ---- १ -- क्रियान य (१९३)।
प्रयोग--शुद्धोपयोग न पानेकी स्थितिमें शुद्धोपयोग का लक्ष्य न छोडकर शुभोपयोग की उक्त क्रियायें करना ॥२४८!|
अब सभी प्रवृत्तियां शुभोपयोगियोंके ही होती हैं यह अवधारित करते हैं----[यः अपि] जो कोई भी श्रमहा नित्यं ] सदा [चातुर्वर्णस्य] चार प्रकारके [श्रमणसंघस्य] श्रमण संघ का [नित्यं] सदा [कायविराधनरहित] छह कायको विराधनासे रहित [उपकरोति ] उपवार करता है, [सः अपि] वह भी [सरागप्रधानः स्यात् ] सरागधर्म है प्रधान जिसके ऐसा शुभोपयोगी है। ___ तात्पर्य-धमणोंका उपकार करने वाले श्रमण भी शुभोपयोगी हैं।
टीकार्य --- संयमको प्रतिज्ञा की हुई होनेसे षट्कायके विराधनसे रहित जो कुछ भी, शिद्धात्मपरिणतिक रक्षण निमित्त भूत, चार प्रकारके श्रमणसंघका उपकार करनेको प्रवृत्ति है वह सभी राम प्रधानताको कारण शुभोपयोगियोंके ही होती है, शुद्धोपयोगियोंके कदाचित् भी
85688888888888
RESitamasaniinma nNAMATARREARSMS
ANGANAK
SRIG
नहीं ।
MAKRANI
ind
Page #488
--------------------------------------------------------------------------
________________
OTHER
४७४
सहजानन्दशास्त्रमालायां
अथ सर्वा एव प्रवृत्तयः शुभोपयोगिनामेब भवन्तीत्यवधारयति
उचकुणदि जो वि णिच्चं चादुव्वगण स समसंघस्स । कायविराधणरहिदं सो वि सरागप्पधाणो से ॥ २४६ ।।
चतुविध श्रमसंघों का जो उपकार नित्य करता है ।
कायविराधनविरहित, वह साधु शुभोपयोगी है ॥२४६।। उपकरोति योऽपि नित्यं चातुर्वर्णस्य थमणसंघस्य । कायचिराधनरहितं सोऽपि सरागप्रधानः स्यात् ।२४६।
प्रतिज्ञातसंयमत्वात्षट्कायविराधनरहिता या काचनापि शुद्धात्मवृत्तित्राणनिमित्ता चातुर्वर्णस्य श्रमणसंघस्योपकारकरणप्रवृत्तिः सा सर्वापि रागप्रधानत्वात् शुभोपयोगिनामेव भवति न कदाचिदपि शुद्धोपयोगिनाम् ।।२४६।।
।
S
नामसंज्ञ-ज वि णिच्चं चादुव्बष्ण समणसंघ कायविराधणरहदि त वि स रागप्पधाण । धातुसंजउद कुण करणे, अस सत्तायां । प्रातिपदिक-यत् अपि नित्यं पातुर्वण श्रमण संघ कायविराधणरहित तत अगि मशगप्रधान । मलधान-उप इकत्र करणे, अस भुवि । उभयपदविवरण-उवाद उपकरोतिवर्तमान अन्य एक० क्रिया। जो यः सो सः सरागप्पधाणो सरागप्रधान:-अथमा एकवचन । वि अपि णिसचं नित्यं--अध्यय । चादुबण्णस्य चातुर्वर्णस्य समणसंधस्स श्रमणसंघस्य--पाठी एकवचन | कायबिराधणरहिद कायविराधमरहित-क्रियाविशेषण । से स्यात-विधी अन्य पुरुष एकवचन किया निरुक्ति-- सं हननं संघः (संहनु । अच) उपसर्गादर्थपरिवर्तनम् । समास-श्रमणानां संध: थमणसंघः तस्य श्र०, कायस्य विराधनं कायविराधनं तेन रहितं का० ।।२४६।।
प्रसङ्गविवरण–प्रनन्तरपूर्व गाथामें कहा गया था कि ऐसी प्रवृत्तियाँ शुभोपयोगियों के ही होती हैं । अब इस गाथामें सारी हो ये प्रवृत्तियां शुभोपयोगियोंके ही होती है ऐसा सुनिश्चित किया है।
तथ्यप्रकाश --- (१) शुभोपयोगी श्रमणने संयमकी प्रतिज्ञा की थी सो उसकी जितनी प्रवत्तियां होती हैं वे सब पटकायके जीवोंकी विराधनासे रहित होती है । (२) शुभोपयोगी श्रमणको जो श्रमणसंधके उपकार मैयादृत्य करनेकी प्रवृत्ति है सो शुद्धात्मवृत्तिके रक्षाके निमित्त होती है । (३) श्रमणसंघका उपकार करने वाली सारी प्रवृत्ति शुभोपयोगियोंके ही होती है, क्योंकि वे शुभरागप्रधान है । (४) ऋषि यति मुनि व अनगार इन श्रमणोंके समूह को श्रमणसंघ कहते हैं । (५) किसी भी प्रकारको ऋद्धिको प्राप्त श्रमण ऋषि कहलाते हैं । (६) विशेष ज्ञानो श्रमण मुनि कहलाते हैं । (७) शुद्धोपयोगकी विशेषताको प्राप्त अथवा उपशमक क्षपक श्रेरिणमें प्रारूढ़ श्रमणको मुनि कहते हैं । (८) सामान्य साधु अनगार कहलाते हैं । (8) सरायचर्या शुद्धोपयोगियोंके कभी भी नहीं हो सकती, क्योंकि शुद्धोपयोगी श्रमण
Page #489
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार - सप्तदशाङ्गी टीका
अथ प्रवृत्त: संयमविरोधित्वं प्रतिषेधयति -
जदि कुदि कायखेदं वेज्जावत्थमुज्जदो समणो । हवदि वदि गरी धम्मो सो सावयाणं से ॥ २५० ॥
४७५
जो संयम नहीं रखता, वैयावृत्यार्थ उद्यमी साधू 1
वह न श्रम किन्तु गृहो, यह तो है धर्म श्रावकका ॥ २५० ॥
यदि करोति कायवे वैयावृत्त्यर्थमुद्यतः श्रमणः । न भवति भवत्यगारी धर्मः स श्रावकाणां स्यात् ॥ २५० ॥ यो हि परंपो शुद्धात्मवृत्तित्राणाभिप्रायेण वैयावृत्यप्रवृस्या स्वस्य संयमं विराधयति स
निवृत्त है ।
-
नामसंज्ञ – जदि कायद वेज्जावच्चत्थं उज्जद समण ण अणारि धम्म त सावय । धातुसंज्ञ-हव सत्तायां, अस सत्तायां । प्रातिपदिक-यदि कायखेद वैयावृत्त्यायं उच्चत श्रमण न अगारिन् धर्म तत् श्रावक | मूलयातु-भू सत्तायां, अम सत्तायां । उभयपदविवरण-जदि यदि बेज्जावत्थं वैयावृत्त्यार्थ पन-अवयव । काय खेद - द्वितीया एक उज्जद उद्यतः समणी श्रमणः बगारी धम्मो धर्मः सो सः प्रथमा एक० । हवदि
रागरहित है ।
सिद्धान्त - - (१) शृद्धोपयोगी सहजशुद्ध प्रन्तस्तत्व में उपयुक्त होनेसे सर्वप्रवृत्तियों से
दृष्टि - १- ज्ञाननय ( १६४ ) 1
प्रयोग - शुद्धात्मत्वको विपूर्वक शुद्धात्मत्व के साधक गुरु जनों की सेवा ग्रहिसापद्धति से करना ॥२४३॥
प्रवृत्ति संयमविरोधित्वका निषेध करते हैं - [ वैयावृत्यर्थम् उद्यतः [ वैयावृत्ति के लिये उद्यमी श्रम [ यदि ] यदि [ कायखेदं ] छह कायके खेदको घातको [ करोति ] करता है तो वह [श्रमणः न भवति ] श्रमण नहीं है, [ श्रधारी भवति ] गृहस्थ है; (क्योंकि) [ सः ] छहकायको विराधना सहित वैयावृत्ति [ श्रावकारणां धर्मः स्यात् ] श्रावकों का धर्म है । तात्पर्य -- यदि कोई श्रमण छकायको विराधना न टालकर वैयावृत्य करता है तो वह श्रमण नहीं रहता ।
टीकार्य - जो ( श्रमण ) दूसरे के शुद्धात्मपरिणतिको रक्षा हो, इस अभिप्रायसे वैयावृत्यको प्रवृत्ति द्वारा अपने संयमको विराधना करता है, वह गृहस्थधर्म में प्रवेश कर रहा होने से श्रामण्यसे च्युत होता है । श्रतः जो भी प्रवृत्ति हो वह सर्वथा संयमके साथ विरोध न आये इस प्रकार ही करनी चाहिये, क्योंकि प्रवृत्तिमें भी संयम ही साव्य है ।
प्रसङ्गविवरण - श्रनन्तरपूर्व गाथा में सारी हो ये प्रवृत्तियाँ शुभोपयोगियोंके ही
Page #490
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानंदशास्त्रमालाया
गृहस्थधर्मात् श्रामण्यात् प्रच्यवते । अतो या काचन प्रवृत्तिः सा सर्वथा संयमाविरोधेनेत्र विधाया । प्रवृत्तावपि संयमस्यैव साध्यत्वात् ।।२५० ॥
४७६
भवति-वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । सात्रयाणं श्रावकाणांपाठी बहु० से स्यात्-विधी अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । विरुक्ति-धर्म श्रृणोति अस्सी श्रावकः ( + न ) । समास-कायस्य खेदः कायखेदः तम् कायखेवम् ॥२०॥
होती हैं" हारित किया गया था। अब इस गाथामें प्रवृत्तिके संयमविरोधित्वका निषेध किया गया है अर्थात् श्रमणको प्रवृत्ति संयमविरोधी नहीं होना चाहिये वह विदित कराया गया है ।
तथ्य प्रकाश- - ( १ ) जो साधु दूसरे श्रमणोंकी शुद्धात्मवृत्तिरक्षा के भाव भैयावृत्य करे, किन्तु उसमें अपने संयमको विराधना कर डाले तो वह श्रामण्यसे च्युत हो जाता है, क्योंकि हमें प्रवेश हो गया । ( २ ) षट् कायके जीवको जिसमें खेद पहुंचे वह प्रवृत्ति संयमविरोधी कहलाती है । (३) श्रमणको वैयावृत्त्यादि कार्य में भी संयमको रंध भी विराधना करनी चाहिये । (४) नैयावृत्यादि प्रवृत्ति में भी श्रमणों को संयम ही साध्य है । सिद्धान्त - ( १ ) शुभोपयोगी चारित्र में प्रवृत्ति संयमप्रधान हो होती है ।
दृष्टि-१- क्रियानय ( १६३ ) |
प्रयोग -- यावृत्त्यादि कार्य में भी प्रवृत्ति इस विधिसे करना जिसमें किसी जीवकी हिंसा न हो २५०॥
प्रवृत्तिके दो विषयविभाग दिखलाते हैं- [यद्यपि अल्पः लेपः ] यद्यपि रूप लेप होता है तथापि [ साकारानाकारचर्यायुक्तानाम् ] साकार - अनाकार चर्यामुक्त [जैनानां] जिनभार्गानुसारी आवक व [ अनुकम्पया ] मुनियोंका अनुकम्पासे [ निरपेक्षं ] निरपेक्ष [ उपकार करोतु ] उपकार करें।
तात्पर्य -- भूमिकानुसार जिनमार्गानुसारियोंका उपकार करना शुभोपयोग है ।
टीकार्थ — जो अनुकम्पापूर्वक परोपकारस्वरूप प्रवृत्ति है, वह अनेकान्त के साथ मैत्रीसे जिनका चित्त पवित्र हुआ है व शुद्धात्मा के ज्ञान दर्शन में प्रवर्तमान वृत्तिके कारण साकार - अनाकार चर्याबाले हैं ऐसे शुद्ध जैनोंके प्रति शुद्धात्माकी उपलब्धि के अतिरिक्त अन्य सबकी अपेक्षा किये बिना ही प्रल्प लेपवाली होनेपर भी उस प्रवृत्तिके करनेका निषेध नहीं है; किन्तु पाली होनेसे सबके प्रति सभी प्रकारसे वह प्रवृत्ति प्रनिषिद्ध हो ऐसा नहीं है, क्योंकि वहाँ उस प्रकारकी प्रवृत्तिसे परके और निजके शुद्धात्मपरिणतिको रक्षा नहीं हो सकती ।
Page #491
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचन सार-सप्तदशाङ्गी टीका अथ प्रवृतविषयविभागे दर्शयति--
जोण्हागणं शिरवेक्खं मागारणगारचरियजुतागां । अणुकंपयोवणारं कुव्वद लेवो जदि वि अप्पो ॥२५१ ॥
अल्प लेन होते गो, श्रावक मुनिषद चरित्रयुक्तोंका ।
शुद्ध लक्षा नहि तजकर, हो निरपेक्ष उपकार करो ॥२५१ ।। जनानो निरपेक्षा सामागाकारवयातानाम। अनुकम्पयोपकारं करोतु लेपो बया: |! २५.१ ।।
__ या किलानु माविका परोपकारलक्षणा प्रवृत्तिः सा ग्ल्याने काममंत्रो विनिमय शुद्धेषु जमे शुद्धात्मनान वानप्रवल तितका साकारानाकारचर्याशुक्नेषु शुहागारबारसकाल. निरपेक्षतर्थवाल्पाले हायप्रतिषिद्धा न पुतराले पेति सर्वत्र मर्ग वाप्रतिषिद्धा, नवनयापकयाशुद्धात्मवृत्तियागम्य परामनारनुपपत्तरिति ॥२५ १।। ।
नामसंज्ञ जोगह शिरदेवख सागारागारचरियजुत्त अर] कंपा उबयार लेव अदिवि अग्ण । बाजुसंशकुब्ध करणे। प्रातिपदिक-जन निरपेक्ष साकारानाकारचर्यायुक्त अनुकम्पा उपकार लेग यदि अपि अल्प । मूलधातु... ऋज कर । उभयपदविवरण- पहाणं जनानां सागरणगार परियनुत्ताणं शाकारानाकारचर्यायुवतानां-गाठी बहु । णिवेचवं निरपेक्ष उवगार उपकार-द्वितीया एक० । अस्या अनुकम्पया-तृतीया एक । न्यायद नरोत-आजाथै अन्य एकल त्रिया । लेपो लेत: अ अ...प्रथमा एक० । जदि यदि वि अगि-अव्यय । निरुक्ति..... लिप्यले असौ लेप: लेप गतौ भ्वादि । समास..... सकारा च अनाकोरा चेति साकाराताकारे साकारानाबारे हामी चर्ये इति साकारानाभरिचय तान्यां सुनतः साकारानाकार चर्यायुवतः ।।२५१।।
प्रसङ्गविधारण-अनन्तरपूर्व पाथामें संयमको घात न करने वाली हो प्रवृत्ति शुभोपयोगियोंकी बताई गई थी : अब इस गाथामें प्रवृत्तिका विषय दिखाया गया है।
तथ्यप्रकाश..... १ - यद्यपि अनुकम्पापूर्वक परोपकाररूप प्रवृत्ति से प्रला लप होता है तथापि शद्ध जिन मनियाथियोंके प्रति द्धात्मोपलब्धिको अपेक्षा की जाती है तो वह प्रवृत्ति निषिद्ध नहीं है । २-- जिनका चित्त अनेकान्त के साथ मंत्री द्वारा पवित्र हुi शुद्धात्माको जान दर्शन रूप चर्या वाले हैं वे शुद्ध जिनमार्गानुयायी हैं। ३- ''अनुपामा परोपकारस्वरूप प्रवृत्ति में आल्प ही तो लेप होता है" ऐसा सोचकर कोई सबके प्रति सब प्रकार ही प्रवृत्ति अप्रतिषिद्धः समझे सो ठीक नहीं हैं। ४- शुद्ध जिन बिनिदिष्ट मान यायियों के अतिरिक्त अन्यके प्रति ब शुद्धात्मोपलब्धिके अतिरिक्त अन्य अपेक्षासे प्रवृत्ति करना शुओपयोगी श्रमणोंके लिये निषिद्ध है, क्योंकि इस तरहको प्रवृत्ति परको या निजको शुद्धात्मवृत्तिकी रक्षा नहीं बनती।
Page #492
--------------------------------------------------------------------------
________________
४७८
सहजानन्दशास्त्रमालायां
अथ प्रवृत्त कालविभागं दर्शयति--
रोगेण वा जुधाए तण्हाए वा समेण वा रूढं । दिट्टा सम साहू पडिवज्जदु श्रादसत्तीए ॥२५२।। रोग क्षुधा तृष्णासे, श्रमसे प्राक्रान्त श्रमणको लखकर ।
आत्मशक्ति अनुसार हि, मुनि उसका प्रतीकार करे ॥२५॥ रोगेण वा शुधया तृपया या रूढम् । दृष्ट्वा श्रमणं साधुः प्रतिपयतामात्माक्त्या ।। २५२ ।।
यदा हि समधिगतशुद्धात्मवृत्तेः श्रमरणस्य तत्प्रच्यावन हेनोः कस्यायुपसर्गस्योपनिपातः 'नामसंज्ञ--रोग वा छुधा तण्हा वा सम वा रूढ समण साह आदसत्ति। धातुसंज्ञ- दिस प्रेक्षशो दाने च, पडि पज्ज गतौ । प्रातिपदिक ----रोग वा क्षुधा राणा वा सम वा रूट श्रमण साधु आत्मशक्ति । मूलधातु-शि प्रेक्षण, प्रति पद गतौ । उभयपदविवरणरोगेण क्षुधाए क्षधया तहाए तृष्णया समेण श्रमेणतृतीया एक० । चा-अव्यय । रूह सभणं श्रमणं-द्वितीया एक० । दिदा दृष्टवा-सम्ब
सिद्धान्त--- शुभोपयोगी श्रमण शुद्धात्मचर्यायुक्त अन्य श्रमणोंका उपकार तैयादृत्य करते हैं।
दृष्टि ---- १ --- क्रियानय (१९३) ।
प्रयोग- शुद्धात्मोपलब्धिके निमित्त शुद्धात्मज्ञानदर्शनचर्यायुक्त शुद्ध जिनमार्गानुया. यियोंका यावृत्य करना ॥२५.१॥
प्रद प्रवृत्तिका कालविभाग बतलाते हैं—[रोगेरण] रोगसे, [वा क्षुधया] अथवा शुधास, [वा तृष्णया] अथवा तृषासे [वा श्रमेण] अथवा श्रमसे रूढम्] अाक्रांत [श्रमरण] श्रमणको [दृष्ट्वा ] देखकर [साधुः] साधु [प्रात्मशक्त्या, अपनी शक्तिके अनुसार [प्रतिपद्यताम्] वैयावृत्यादि करे ।
तात्पर्य -पीड़ासे पाक्रान्त श्रमणको देखकर साधु यथाशक्ति उसकी सेवा करे ।
टीकार्थ---जब शद्धात्मपरिपातिको प्राप्त श्रमणको, शुद्धवृत्तिसे च्युत करे ऐसा कारभूत कोई भी उपसर्ग पा जाय, तब वह काल, शुभोपयोगी को अपनी शक्ति के अनुसार प्रतिकार करनेको इच्छारूप प्रवृत्तिकाल है; और उसके अतिरिक्तका काल अपनी शुद्धात्मपरिणतिकी प्राप्तिके लिये केवल निवृत्तिका काल है ।
प्रसंगविवरर..... अनन्तरपूर्व गाथामें शुभोपयोगियोंको प्रवृत्तिका विषय दिखाया गया था। अब इस गाथामें प्रवृत्तिका कालविभाग बताया गया है ।
तथ्यप्रकाश..( १) जब शुद्धात्मवृत्ति को प्राप्त श्रमणके शुद्धात्मवृत्तिसे डिगाने वाले
Melmaidaan
Page #493
--------------------------------------------------------------------------
________________
والا
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
स्यात् स शुभोपयोगिनः स्वशक्त्या प्रतिधिकोष प्रवृत्तिकालः । इतरस्तु स्वयं शुद्धात्मवृत्तेः समfarnata केवलं निवृत्तिकाल एव || २५२ ||
साधुः प्रथमा एक परिवज्जद् प्रतिपद्यताम् - आज्ञार्थी अन्य एक क्रिया । आदससीए आत्मशक्त्यातृतीया एकवचन । निरुक्तिक्षुवनं क्षुधा (क्षु विव टापू ), वर्षणं तृषा (तृप् + न + टाप्) जिपिपासायां । आत्मनः आत्मशक्ति तथा आत्मशक्त्या ॥२५०
तृषा
रोगादिक कोई उपसर्ग या पड़े तो वह काल शुभोपयोगीका स्वशक्त्यनुसार प्रतीकार करने की इच्छारूप प्रवृत्तिका काल है । (२) उस प्रवृत्ति काल में निश्चयतः प्रतीकार करने की इच्छा व योग चल रहा है, व्यवहारतः रोगादिक उपसर्गको दूर करनेका प्रयत्न चल रहा है । (३) जब श्रम पर कोई रोगादिक उपसर्ग नहीं है तो वह स्वयंको शुद्धात्मवृत्ति पानेके लिये केवल निवृत्तिकाल है ही । (४) साधु जब श्रमको रोग क्षुत्रा तृषा व श्रम से प्राक्रान्त देखे तब वह श्रात्मशक्त्यनुमार विधिसहित मनसे वाचनिक व कायिक भैयावृत्य करे, इस परिस्थितिके अतिरिक्त अन्य काल निवृत्तिका है सो ग्रात्मध्यान में परमात्मध्यान में रहे ।
सिद्धान्त - १- शुभोपयोगी श्रम अनुकम्पापूर्वक परोपकाररूप प्रवृत्तिका भाव होने से वैयावृत्यादि कार्य करता ही है ।
दृष्टि- १- क्रियानय (१६३) ।
प्रयोग - शुद्धात्मवृतिको प्रोर अभिमुख रहने वाले साधकोंपर रोगादिक आये तो शुद्धात्मवृत्ति की रक्षा के लिये उनकी आत्मशक्त्यनुसार सेवा करना ॥ २५२ ॥
अब लोगों के साथ बातचीत करनेको प्रवृत्तिको उसके निमित्तके विभाग सहित बतलाते हैं - [वा ] श्री [ग्लानगुरुबालवृद्धश्रमरणानाम् ] रोगी, गुरु, बाल तथा वृद्ध श्रमणोंकी [वैयावृत्यनिमित्त ] सेवा के निमित्त [ शुभोपयुता ] शुभोपयोगयुक्त [ लौकिकजनसंभाषा ] लोकिक जनोंके साथ की बातचीत [न निन्दिता ] निन्दित नहीं है ।
तात्पर्य - रोगी ग्रादि सेव्य श्रमरणोंकी सेवा के निमित्त लौकिक जनोंके साथ शुभोपयुक्त संभाषण निषिद्ध नहीं है ।
टोकार्थ- शुद्धात्मपरिपत्तिको प्राप्त रोगी, गुरु, बाल और वृद्ध श्रमणको सेवाके निमित्त ही शुद्धात्मपरिणतिशून्य लोगोंके साथ बातचीत प्रसिद्ध है, किन्तु अन्य निमित्तसे भी प्रसिद्ध हो ऐसा नहीं है ।
प्रसंगविवरण - अनन्तरपूर्व गाथा में शुभोपयोगी श्रमणोंकी प्रवृत्तिका काल बताया गया था। अब इस गाथा में बताया गया है कि शुभोपयोगी श्रमणकी लोगोंसे संभाषण करने
Page #494
--------------------------------------------------------------------------
________________
४५०
सहजानन्दशास्त्रमालायां
अथ लोकसंभाषणप्रवृत्ति सनिमित्तविभागं दर्शयति----
वेज्जावचणिमित्तं गिलाणगुरुवालवुड्ढसमग्णाग । लोगिगजणसंभासा गा णिदिदा वा सुहोवजुदा ॥२५३॥ बाल वृद्ध गुरु रोगी, श्रमणोंको खेदहरणसेवामें ।
लौकिकजनसंभाषण, निन्दित न शुभोपयोगीके ।।२५३॥ बैयावृत्यनिमिन कटानगुरबालवृद्धश्रमणानाम् । लौकिक जनसंभाषा न निन्दिता या भाग्युता ॥५॥
समविगतद्धात्मवृत्तीनां ग्लान गुरुवालवृद्धश्रमणानां वैयावृत्त्यनिमित्तमेव शुद्धात्मवत्ति. शून्य जनसंभाषण प्रसिद्धं न पुन रन्यनिमित्तमपि ॥२५३॥
नामसंज्ञ. देउजावाणिमित्तं गिलान गुरुबालबुद्धसमण लोगिगजणसंभामा प्रदिदा या महोवजुदा । धातुसंज्ञ- निंद निन्दायां । प्रातिपदिक- यावृत्यानिमित्तं ग्लामगुरुवालयमा लौकिक जनसभाषा न निस्दिना वा भोफ्युता । मूलधातु-निन्द निन्दामा । उभयपदविवार,... अजजाबच्चणिमित बया वृत्यानिमिन-अव्यय क्रियाविशेषणरूपे । विलाण गुरुबालबुसमणाण' नयादश्रमणानाषष्टी बहुवचन । दोगिगजणसंभासा लौकिकजनसंभाषा सुहोवजुदा शुभोपयुताना एक० । पन-- अव्यय । णिवदा निन्दिता-प्रथमा एकवचन कृदन्त क्रियारूपा । निरुक्ति- मृणालि पनि शक्ति धर्म इति गुरुः (+) । समास- ग्लानश्च गुरुश्च बालश्च वुरचेति ग्लानगुरुवालवतः अननगुन्यासवृद्धाश्च ते श्रमणादति नाना, लौकिकजनैः सहसंभाषा इति लौकिकवन संभाषा ।।२५३।।। की प्रवृत्ति किस निमित्तसे होती है ।
तथ्यप्रकाश---१- रोगी गुरु बाल वृद्ध श्रमणों की वैयावृत्ति के निमित्त शुभोपयोगी श्रमणका लौकिक जनोंसे संभाषण करना निन्दित नहीं है । २-- शुद्धात्मवृत्ति से शुन्य जन लौकिक जन कहलाते. उनसे संभाषण करना अनावश्यक है, किन्तु शुद्धात्मवृति में लगे हुए श्रमणों की सेवा के लिये आवश्यक होनेपर लौकिक जनोंसे शुभोपयोगयुक्त संभाषण करना शास्त्रों में निषिद्ध नहीं । ३- उक्त प्रयोजन के अतिरिक्त अन्य कारणों से लौकिक जनसंभाषण प्रसिद्ध हो ऐसा नहीं है, अर्थात् अन्य समय व अन्य प्रयोजनसे लौकिकजन संभाषण निषिद्ध
SHAYAYAYalani
सिद्धान्त-१-- वास्तवमें रोग प्रादिसे प्राक्रान्त श्रमणको देखकर शुभोपयोगी श्रमण उनके प्रति प्रतीकार करनेको इच्छारूप व योगरूप प्रवर्तते हैं । २-श्रमणों को अावश्यक देया. वृत्तिके निमित्त शुभोपयोगी श्रमण लोकिकजनोंसे संभाषण करते हैं।
दृष्टि-१- अशुद्धनिश्चयनय (४७) । २- परसंप्रदानत्व असद्भुत व्यवहार, परकर्मस्व असद्भुत व्यवहार (१३२, १३०) ।
pecairiesponsentarianity
Page #495
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
jages शुभपयोगस्य गौरमुख्यविभागं दर्शयति-एसा पसत्थभूदा समणाणं वा पुणो घरत्थाणं । नरिया परेति भणिदाताएव परं लहदि सोक्खं ॥ २५४ ॥
४८१
यह शुभ चर्या श्रमरणों, गृहियोंके गौरा मुख्यरूप कहो ।
उससे हि परम्परया, पुरुष परम सौख्यको पाते ॥ २५४ ॥
"एषा प्रशस्तता श्रमणानां वा पुनर्गृहस्थानाम् । चर्या परेति भणिता तयैव परं लभते सौख्यम् ॥२५४॥ एवमेष शुद्धात्मानुपयोगिप्रशस्तचर्यारूप उपवतिः शुभोपयोगः तदयं शुद्धात्मप्रका .fantasafetyपेषां कषायक सद्भावात्मानः शुद्धात्मवृत्तिविरुद्ध रागसंगतत्वाद्सोः
नामसंज्ञ -एन सत्यभूद समण वा पुणो घरत्य चरिया परा ति भणिदा त एव पर सोक्ख । धातुसंज्ञ-भाग करने लभ प्राप्त प्रातिपदिक- एतत् प्रशस्तभूत श्रमण वा पुनर् गृहस्थ चर्या परा इति भणिततत् एवं घर सोक्य मूलधातु- भग शब्दार्थः, डुलभ प्राप्तौ । उभयपद विवरण- एसा एया पसत्यभूदा प्रशस्त भूता चरिया वर्या परा -प्रथमा एक समणानां श्रमणानां वरत्थाणं गृहस्थानां
प्रयोग -- शुद्धात्मवृत्तिको पाने वाले रोगादिसे वश्यक होते ates जनों ने भी संभाव होकर ही करना ||२५३॥
प्राक्रान्त श्रमणोंकी वैयावृत्तिके लिये करना, किन्तु वह भी शुद्ध व शुभोपयुक्त
अब इस प्रकार से कहे गये शुभोपयोगका गोरा- मुख्य विभाग दिखलाते हैं - [ एषा ] यह [प्रशस्तता] प्रशस्तभूत [चर्या] चर्या [श्रमानां] श्रमणोके होती है [वा गृहस्थानां पुनः] और गृहस्योंके तो [परा ] मुख्य होती है, [इति मरिता ] ऐसा श्रागम में कहा है; [ता एवं ] उससे [परं सौख्यं लभते ] साधक परम्परया परमसख्यको प्राप्त होता है । तात्पर्य -- शुभोपयोगसम्बन्धित चर्यासे परम्परया परमसौख्य प्राप्त होता है ।
टीकार्य - इस प्रकार शुद्धात्मानुरागयुक्त प्रशस्त चर्यारूप यह शुभोपयोग वर्णित किया गया है सो शुद्धात्मा प्रकाशक सर्वविरतिको प्राप्त श्रमणोंके कषायकरणके सद्भाव के कारण प्रतित होता हुआ यह शुभोपयोग शुद्धात्मपरिणति विरुद्ध रागके साथ संगत होनेसे गौण होता है, किन्तु गृहस्योंके तो सर्वविरतिके प्रभाव से शुद्धात्मप्रकाशनका प्रभाव होनेसे कषायके सद्भाव के कारण प्रवर्तमान होता हुआ भी, ईंधनको स्फटिकके संपर्क से सूर्यके तेजके अनुभवको तर गृहस्थको रागके संयोग से शुद्धात्माका अनुनय होनेके कारण और क्रमशः परम निर्वाणसोका कारण होने से यह शुभोपयोग मुख्य होता है।
प्रसंगविवरण -- अनन्तरपूर्व गाथा में बताया गया था कि शुभोपयोगी श्रमण शुद्धात्म
Page #496
--------------------------------------------------------------------------
________________
Emaamients
४५२
सहजानन्दशास्त्रमालाया
............
SanmamaliRIBRAI
NRitttttimoomya
श्रमणाना, गृहिण तु समस्तबिरते रभावेन शुद्धात्मप्रकाशनस्याभावात्कषायसद्भावात्प्रवर्तमानोऽपि स्फटिकसंपर्केरणाकतेजस इवैधसी रागसंयोगेन शुद्धात्मनोऽनुभवात्क्रमतः परमनिसिौख्यकारणत्वाच्च मुख्यः ॥२५४॥ षष्ठो बहुवचन । भणिया भणिता-प्रथमा एक० कृदन्त क्रिया। ता तया-तृतीया एक । परं मोक्षं सो. त्यं-द्वितीया एक० । लहदि लभते-वत० अन्य एक क्रिया । वा त्ति इति एव--अव्यय ।।२५४॥ वृति वाले रोगादिसे आक्रान्त श्रमणोंकी वैयावृत्ति के लिये अावश्यक हो तो लौकिक जनोंसे भी संभाषण करते हैं । अब इस गाथा में उक्त शुभोपयोग गौण मुख्य विभाग बताया गया है ।
तथ्यप्रकाश-~-(१) शुद्धात्मानुरागसे सम्बन्धित प्रशस्त चर्याको शुभोपयोग कहते हैं । (२) यह शुभोपयोग सकलनतोके कषायकणाके सद्भावसे हुआ है तो भी श्रमणोंके गौणरूपसे होना चाहिये, क्योंकि प्रशस्त राग भी शुद्धात्मवृत्तिके विरुद्ध है । (३) गृहस्थ जनोंके शुभो. पयोग मुख्य रूपसे है, क्योंकि गृहस्थ के सकलद्रत तो है नहीं सो शुद्धात्मत्वका प्रकाशन नहीं पाता, तो भी शुद्धात्मानुरागयोगी प्रशस्त रागके संयोगसे गृहस्थको शुद्धात्माका अनुभव होता व परम्पत्या परमनिर्वाणके आनन्दका कारण बनता है । (४) सम्यक्त्वकी अपेक्षासे श्रमणको ब गृहस्थको शुद्धात्माको ही आश्रय है । (५) चारित्रकी अपेक्षासे श्रमणके शुद्धात्मवृत्ति मुख्य होनेसे शुभोपयोग गौरण है । (६) सम्यग्दृष्टि गृहस्थ के शुद्धात्मवृत्तिका प्रकाशन न होनेसे अशुभ से हटनेके लिये शुभोपयोग मुख्य है । (७) सम्यग्दृष्टि गृहस्थके अशुभसे छूटने के लिये जो शुभोपयोगका पौरुष चल रहा है वह भी शुद्धात्मवृत्तिका ही मन्द पुरुषार्थ है । (८) शुद्धात्मद्रव्यके मन्द पालम्बनसे अशुभ परिणति हटकर शुभ परिणति होती है । (६) शुद्धात्मद्रव्यके दृढ़ मालम्बनसे शुभ परिणति भी हट जाती है और शुद्ध परिणति हो जाती है ।
सिद्धान्त-१-- सम्यग्दृष्टि गृहस्थके शुभोपयोग मुख्यतया है । २- श्रमणके शुद्धात्मवृत्ति मुख्य है।
दृष्टि--१- पुरुषकारनय (१९३) । २- अनीश्वरनय (१८६)।
प्रयोग- कषायकणसद्भावसे योगप्रवृत्ति प्रा पड़नेपर सुद्धात्मवृत्ति के पौरुषको विधेयता न भूलकर शुभोपयोगरूप प्रवर्तन करना ।।२५४।।
अब शुभोपयोगका कारणके वैपरीत्यसे फलका वैपरीत्य होता है यह सिद्ध करते हैं- [इह सस्यकाले नानाभूमिगतानि बीजानि इव] इस जगतमें धान्यकालमें अनेक प्रकार की भूमियोंमें पड़े हुये बीजकी तरह [प्रशस्तभूतः रागा] प्रशस्तभूत राग [वस्तु विशेषेरग] पात्र भेदसे विपरीतं फलति] विपरीत रूपसे फलता है ।
BIHARIBANAR umetowwwcom
Page #497
--------------------------------------------------------------------------
________________
४८३
DBSKIRADESRO
% 3
प्रवचनसार-सप्तदशांगो टीका अथ शुभोपयोगस्य कारणबपरीत्यात् फलवपरीत्यं साधयति ....
रागो पसत्थभूदो वत्थुविसेमेण फलदि विवरीदं । सागा मिगदागिह बीजाणिव सम्मकालम्हि ॥२५५।।
शुभ राग पात्रको कुछ, विरुद्धतासे विरुद्ध फल देता।
बीज कुभूगत फलता, उल्टा फलकालमें जैसे ॥२५॥ रागः प्रशस्तभूतो कबिशेषेण फलति विपरौलम् । वाताभूमिगतानोह बीजानिव सस्यकाले ।। २५५ ।।
__ यर्थ केषामपि बीजानां भूमिवैपरोत्यान्निध्पत्तिनैपरीत्यं तथैकस्यापि प्रशस्तरामलक्षणस्य शुभोपयोगस्य पात्र परोत्यास्फलपरीत्यं कारसारिशेषात्कार्यविशेषस्यावश्यंभाधित्वात् ॥२५॥
नामसंज्ञ-राग पसत्यभूद वत्थुविसेस विरोद णामाभूमिगद इह बीज इव सस्सकाल । धातुसंतफल फलने । प्रातिपदिक-राग प्रशस्तभूत वस्तु विशेष दिपरीत मानाभूमिगत बीज सस्यकाल इह इव । मूलधात--फन फलने । उभयपदविवरण-..रागमो रागः पत्थभूदो प्रकारतभूत:-प्रथमा एक पत्यविसेसेण यस्तुविशेषण-तृतीया एक ! फलदि फलति-वर्तमान अन्य एक० क्रिया । बिवरीदं विपरीतक्रियाविशे. षण। णाणाभूमिगदाण्डि नानाभूमिगतानि बीजाति बीजानि-प्रथमा बह । इह इव-अव्यय । सस्यकाल. म्हि सस्थकाले साप्तमी कवचन । निचिन-प्रशम्यतेस्म प्रति प्रशस्तः प्रशंस+क्त) शंस स्तु समास-नानाभूमौ गत्तानि इति नानाभूमिगत्तानि, सस्यस्य काल: सस्यकालः तस्मिन सस्यकाले १६२५५।
तात्पर्य - प्रशस्त राग भी कुपात्रगत होने से उल्टा फल देने वाला होता है ।
टोकार्थ-जैसे एक ही बीजोंका भूमिको विपरीततासे निष्पत्तिका वपरीत्य होता है उसी प्रकार एक ही प्रशस्त रागस्वरूप शुभोपयोगका पात्रको विपरीततासे फलका बैधरीत्य होता है, क्योंकि कारण के भेदसे कार्यका भेद अवश्यम्भावी है।
प्रसंगविवरण – अनन्त र पूर्व गायामें गुभोपयोगका गौण मुख्य विभाग दर्शाया गया था। अब इस गाथामें बताया गया है कि शुभोपयोगका प्राश्रयभूत विपरीत कारण होनेपर उसका विपरीत फल होता है।
तथ्यप्रकाश---(१) कारणके भेदसे कार्य का भेद अवश्यंभावी है । (२) अच्छो भूमि में डाले गये बीजका अच्छा फल उत्पन्न होता है, किन्तु उसो बोजको तेलो प्रादि खराब भूमि में डाला जाय तो उसका फल खराब होता है यह उत्पन्न हो नहीं होता। (३) प्रशस्तरागरूप शुभोपयोग सर्वज्ञोपदिष्ट सुदेव सद्घर्म व सुगुरुके विषय में हो तो पुण्यसंचयपूर्वक कुछ काल बाद मोक्षकी प्राप्ति होती है। (४) अज्ञानी जनों द्वारा व्यवस्थापित देव धर्म गुरुके विषय में प्रशस्तरागरूप शुभोपयोग हो तो उसका फल विपरीत होगा, मोक्षशून्य पुण्यापदाको प्राप्ति है जिसे उसे अधिक से अधिक यही हो सकता कि मरकर अच्छा मनुष्य बन जाय या देव बन जाय ।
-MPAN
Page #498
--------------------------------------------------------------------------
________________
४८४
सहजानन्दशास्त्रमालायां
अथ कारणवैपरीत्यफलवपरीत्ये दर्शयति-
दुमत्यविदिवत्थु वदणि यमज्झयण झाणदागरदो । लहदि भाव भावं सादपगं लहदि ॥ २५६॥ विहित पदमें, व्रत नियम पठन ध्यान दानमें रत । पुनर्भव नहि पाता, सातात्मक साथ कुछ पाता ।। २५६ ॥
स्थविदित वस्तुषु व्रतनियमाध्ययनध्यानदानरतः । न लभते अपुनर्भावं भात्रं सातात्मकं लभते ॥२५६|| शुभarita सव्यवस्थापितवस्तुषु प्रणिहितस्य पुण्योपचयपूर्वकोऽपुनर्भावोपलम्भः किल फलं तत्तु कारणनैपरीत्याद्विपर्यय एव । तत्र छद्मस्यव्यवस्थापितवस्तूनि कारणवैपरीत्यं नामसंज्ञ--छदुमत्यविहिवत्थु बदनियमज्भाणदाणरद ण अपुणभाव भाव सादप्पग | घातुसंज्ञलभ प्राप्ती । प्रातिपदिक-- छ्मस्थविहितवस्तु ब्रतनियमाध्ययनदानरत न अपुनर्भाव भाव सातात्मक सिद्धान्त - ( १ ) शुद्धभावनाके परिणाममें अशुद्धता ही चलती है । दृष्टि- १- अशुद्ध भावनापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४स ) ।
प्रयोग- शुद्ध ग्रन्तस्तत्त्वकी प्रतीति रखते हुए अंतस्तव में उपयुक्त न हो रहेकी स्थिति में सुदेव सुशास्त्र सुगुरुको आश्रयभूत कर शुभोपयोगरूप प्रवर्तना ॥ २५५ ॥
अब कारणको विपरीतता और फलको विपरीतता दिखलाते हैं - [स्थविहितवस्तुषु ] द्यस्थ-ज्ञानीके द्वारा कथित देव-गुरु-धर्मादिके विषय में [ व्रतनियमाध्ययनध्यानदानरतः ] व्रत नियम- अध्ययन- ध्यान दानमें रत जीव [ अपुनर्भावं] मोक्षको [न लभते ] प्राप्त नहीं होता, किन्तु [सातात्मकं भावे ] सातात्मक भावको [लभते ] प्राप्त होता है ।
तात्पर्य --- कल्पित देव गुरु धर्मादिकके प्रति किया हुआ शुभ कार्य मोक्षको नहीं देता, किन्तु सांसारिक सुखको प्राप्त करा सकता है |
टोकार्थ- सर्वज्ञ द्वारा व्यवस्थापित वस्तुनों में युक्त शुभोपयोगका फल पुण्यसंचयपूर्वक मोक्षका लाभ है । वह फल, कारणकी विपरीतता होनेसे विपरीत ही होता है । वही छद्मस्थ स्थापित वस्तुयें कारणवैपरीत्य है; उनमें व्रत नियम अध्ययन - ध्यान दान रत रूपसे युक्त शुभोपयोग का फल मोक्षशुन्य केवल पुण्यापसदको प्राप्ति है फलवैपरीत्य है; वह फल सुदेवत्व व सुमव्यत्व है ।
प्रसंगविवरण - प्रनंतरपूर्व गाया में बताया गया था कि कारण विपरीत होनेपर शुभोपयोगका फल विपरीत होता है । अब इस गाथामें कारणको विपरीतता व फलको विप रोवता दोनों बताई गई है |
तथ्यप्रकाश - ( १ ) सर्वज्ञदेव द्वारा उपदिष्ट तत्त्व शुभोपयोग के विपरीत श्राश्रयभूव
Page #499
--------------------------------------------------------------------------
________________
nunuwuuuundati
प्रवचनसार सप्तदशांगी-टीका
४५५ तेषु व्रतनियमाध्ययनध्यानदानरतत्वप्रणिहितस्य शुभोपयोगस्थापुनर्भावशून्यकेवलपुण्यापसदप्राप्तिः फलपरीत्यं तत्सुदेवमनुजत्वम् ।। २५६।।। मूलधातु-झुलभः प्राप्ती । उभयपदविवरण- छद्मविहिदवत्थुमु छमस्थविहितवस्तुषु सप्तमी बहु० । वणियममाणदाणरदो अनमियमाध्ययनदानरत:--प्रथमा एकवचन । ण न-अव्यय । लहदि लभते वर्त. अन्य एक किया। अपुणभावं अपुनर्भावं भावं साद रातात्मक-द्वितीया एक० । निरुक्ति छन्दयनं इति छपा तत्र तिष्ठतीति छमस्थः छदि संवरणे चुरादि, बसति सत्त्वं यत्र तद् बस्तु (वस + तुन्) बस निवासे । समास-अतं च नियमच अध्ययनं च ध्यानं च दानं चेति व्रतनियमाध्ययनध्यान दानामि तेष रतः इति ब्रत ॥२५६।। कारण हैं । (२) अविपरीत प्राश्रयसे हुए शुभोपयोगका फल पुण्योपचयपूर्वक मोक्षलाभ है । (३) छमस्य प्रज्ञानी जनों द्वारा स्थापित कल्पित सराग देव आदि तत्त्व शुभोपयोगके विपरीत प्राश्रयभूत कारण हैं । (४) विपरीत कारणों में किये गये दान ध्यान अध्ययनादिरूप शुभोप: योगका फल मात्र मोक्षलाभशून्य पुण्यापदकी प्राप्ति है ।
सिद्धान्त-(१) सराग जीवको बीतरागके लिये प्रयुक्त होने वाले देव शब्दसे कहना उपचार है।
दृष्टि---१-- एकजातिपर्याये अन्यजातिपर्यायोपचारक असद्भूत व्यवहार (१०७) ।
प्रयोग-सत्य असत्य तत्त्वका विवेक करके प्रसत्यका प्राश्रय छोड़कर सत्य के प्राश्रय से उपयोगका प्रवर्तन करना ।।२५६।।
___ अब पुनः कारण विपरीतता और फलविपरीतता ही बतलाते हैं- [प्रविदितपरमार्थेषु] नहीं आना है परमार्थको जिन्होंने ऐसे [च] और [विषयकषायाधिकेषु] विषय-कषाय में अधिक [पुरुषेषु] पुरुषोंके प्रति [जुष्टं कृतं या दत्त] सेवा, उपकार अथवा दान [कुदेवेषु मनुजेषु] कुदेवरूपमें और कुमनुष्यरूपमें [फलति] फलता है।
तात्पर्य-विषयकषायवान पुरुषोंमें किया हुआ दान आदिका फल कुदेव व कुनर होना है।
टोकार्थ-जो छमस्थस्थापित वस्तुयें कारणनैपरीत्य हैं; वे वास्तव में शुद्धात्मज्ञानसे शून्यताके कारण नहीं जाना है और शुद्धात्मपरिणतिको प्राप्त न करनेसे 'विषयकषायमें अधिक ऐसे पुरुष हैं । उनके प्रति सेवा, उपकार या दान करने वाले शुभोपयोगात्मक जीवों को जो केवल पुण्यापसदकी प्राप्ति है सो वह फलविपरीतता है; वह (फल) कुदेवत्व व कुमनुध्यत्व है।
प्रसंगविवरण-~~-अनन्तरपूर्व गाथामें शुभोपयोगके विपरीत कारण व विपरीत फलको
n
Page #500
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां
४८६
अथ कारण परोत्यफलवैपरीत्ये एव व्याख्याति -
यविदिदपरमत्थेसु य विसयकसायाधिगे पुरिसेसु । जुद्ध कदं व दत्तं फलदि कुदेवे मणुवे ॥ २५७॥ अविदित परमार्थों में, विषयक वायव्याकुलित पुरुषोंमें । कृत दान प्रीति सेवा कुदेवमनुजीय फल देतो ॥२५७॥
अविदितपस्पार्थेषु च विपकषायाधिकेषु पुरुषेषु । जुष्टं कृतं वा दत्तं फलति कुदेवेषु मनुजेषु ॥ २४७ ॥ यानि हि छद्मस्थव्यवस्थापितवस्तूनि कारणवैपरीत्यं ते खलु शुद्धात्मपरिज्ञानशून्यतयानवाप्तशुद्धात्मवृत्तितया चाविदितपरमार्था विषयकषायाधिकाः पुरुषाः तेषु शुभोपयोगात्म कानां जुष्टोपकृतदान या केवलपुण्यापसदप्राप्तिः फलवैपरीत्यं तत्कुदेवमनुजत्यम् ।। २५७।।
नाम - अविदिपरमत्थ य विसयकसायाधिग पुरिस जुटु कद व दत्त कुदेव मणुव । धातुसंज्ञफल विपाके । प्रातिपदिक - अविदितपरमार्थ च विषयकषायाधिक पुरुष जुष्ट कृत वा दत्त कुदेव मव । मूलभातु-फल विपाके । उभयपद विवरण- अविदिदपरमत्थेसु अविदितपरमार्थेषु विसयकसायाधिगेस विषयकषायाधिकेषु पुरिसेसु पुरुषेषु कुदेबेसु कुदेवेषु मस्णुवेसु भन्नुजेषु सप्तमी बहु० । जुटं कृतं दत्तं - प्रथमा एकवचन कृदन्त क्रिया । फलदि फलति व अन्य एक क्रिया । निरुक्ति- पुरति अग्रे गच्छति इति पुरुष: पुर अग्रगमने ( पुर् + कुपण्) । समास - विषयाश्च कषायाश्च विपयकषायः तेषु अधिका: faresपायाधिकाः तेषु विषयकषायाधिकेषु ॥ २५७ ।।
दिखाया गया था । श्रव इस गाथामें विशेष विपरीत कारण व विपरीत फलका व्याख्यान किया गया है ।
तथ्यप्रकाश - ( १ ) जो विषयकषायमें अधिक पुरुष हैं फिर भी विचित्र वेशादिके कारण उनमें देवत्व गुरुत्वकी कल्पना बने तो वे विपरीत पात्र हैं, विपरीत कारण हैं । ( २ ) विपरीत कारणोंमें परमार्थको अनभिज्ञता होनेसे विषयकषायाविकला हुई है । (३) विपरीत कारण शुद्धात्मपरिज्ञानशून्य होनेसे शुद्धात्मवृत्तिको प्राप्त न कर सके अतः ज्ञानो है । ( ४ ) उन विपरीत कारणोंके प्रति सेवा उपकार व दान करनेकं शुभोपयोग वालोंको मोक्षमार्गशून्य मात्र हीन पुण्यकी प्राप्ति हो जाती है जिससे खोटे देव मनुष्यों में जन्म हो जायगा । ( ५ ) विपरीत कारणोंकी सेवामें विपरीत फल ही प्राप्त होता है । ( ६ ) कुदेव कुगुरुकी सेवा वास्तव में शुभोपयोग नहीं है, किन्तु कल्पित धर्मभावनारूप मंद कषायसे वह शुभोपयोग कहा जाता है ।
सिद्धान्त - ( १ ) विपरीत कारणोके लगाव में मोहो विपरीत फल पाता है । दृष्टि - १ - उपाधिसापेक्ष अशुद्धद्रव्याधिकनय (२४) ।
Page #501
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रबचनसार-सप्तदशांगो टीका प्रथ कारणवपरीत्यात् फलमविपरीतं न सिध्यतीति श्रद्धापयति
जदि ते विसयकसाया पाव ति परूविदा व सत्थेस । किह ते तप्पडिबद्धा पुरिसा णित्थारगा होति ॥२५॥
जब वे विषयकषायें, पापमयी हो कही जिनागममें ।
फिर उनके अनुरागी, किमु हो संसारनिस्तारक ।।२५८॥ यदि ते विषयकषायाः पापमिति प्ररूपिता वा शास्त्रेछु । कथं ते तत्प्रतिबद्धाः पुरुषा निस्तारका भवन्ति ।।
विषयकषायास्तावत्पापभेव तद्वन्तः पुरुषा अपि पापमेव तदनुरक्ता अपि पापानुरक्त. त्वात् पापमेव भवन्ति । ततो विषयकषायवन्तः स्वानुरक्तानां पुण्यायापि न कल्प्यन्ते कथं पूनः संसारनिस्तारणाय । ततो न तेभ्यः फलगविपरीतं सिध्येत् ।।२५८।।
नामसंज्ञ-जादित विस यकसाय पाव त्ति परुविद व सत्थ किह त तप्पढिबद्ध पुरिस णित्वारग। पातसंज्ञ---हो सत्तायां । प्रातिपदिक-- यदि तत् विषयकषाय पाप इति प्रापत वा शास्त्र कथं तत् तत्प्रतिबद्ध पुरुष निस्तारक । मुनधातु-भू सत्तायां । उभयपदविवरण----जदि यदि ति इति व वा किह कर्थअध्यय । ते विसयकसाया विषयकषायाः-प्रथमा बहु । पाव पाप-प्रथमा एक० । पलविदा प्ररूपिता:प्रथमा बह० कृदन्त किया । सस्थेसु शास्त्रेषु-सप्तमी बहु० । ते तप्पडिबद्धा तत्प्रतिवद्धाः पुरिसा पुरुषा: णित्थारया निस्तारकाः-प्रथमा बहु० । होति भवन्ति–वर्तमान अन्य पुरुष बहुवचन क्रिया । निरुक्तिशस्यते भव्याः अनेन इति शास्त्रम् (शास् + ष्ट्रन) शास शिक्षणे अदादि । समास-विषयाश्च कपायाश्वेति विपयकषायाः) तत्र प्रतिबद्धाः इति यत्प्रतिबद्धाः ॥२५८॥
प्रयोग- प्रात्महितके लिये कुदेव कुगुरु कुधर्मको सेवा छोड़कर सुदेव सुगुरु सुधर्मकी सेवा करते हुए परमार्थकी प्रतीति रखना ।।२५७।।
अब कारणकी विपरीततासे अविपरीत फल सिद्ध नहीं होता यह श्रद्धा कराते हैं--- वदि वा] जब कि [ते विषयकषायाः] वे विषयकषाय [पापम्] पाप हैं [इति] इस प्रकार [शास्त्रेषु] शास्त्रोंमें [प्ररूपिताः] प्ररूपित किया गया है, तो [तत्प्रतिबद्धाः] उन विषय-कषायोंमें लीन [ते पुरुषाः] वे पुरुष [निस्तारकाः] पार लगाने वाले [कथं भवन्ति] कैसे हो सकते हैं ?
तात्पर्य--विषय कषाय पापमें लोन पुरुष निस्तारक नहीं हो सकते हैं ।
टोकार्थ-विषय कषाय पाप ही हैं; विषयकषायवान् पुरुष भी पाप ही हैं; विषय. कषायवान् पुरुषोंके प्रति अनुरक्त जीव भी पापमें अनुरक्त होनेसे पाप ही हैं । इसलिये विषयकषायवान पुरुष स्वानुरक्त पुरुषोंको पुण्यका कारण भी नहीं होते, तब फिर वे संसारसे निस्तारके कारण तो कैसे माने जा सकते हैं ? (नहीं हो सकते); इसलिये उनसे अविपरीत फल सिद्ध नहीं होता।
...
PIC-77
।
Page #502
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालाया
.
s
........!!!SMALLAMAAwashoonomethnomedicin
प्रथाविपरीतफलकारण कारणमविपरीतं दर्शयति -----
उवरदपावो पुरिसो समभावो धम्मिगेसु सब्बेसु । गुणसमिदिदोवसेवी हवदि स भागी सुमग्गस्म ॥२५॥ पापविरत सब धार्मिक, में समभावी सुगुरणगरणाश्रित जो ।
वह ज्ञानी पात्र पुरुष, होता सन्मार्गका भागी ।। २५६ ।। उपरतपापः पुरुषः समभावो धामिकेषु सर्वेषु । मुणसमितितोपसेवी भवति स भागी सुमार्गम्य ॥ २५६ ।।
उपरतपापत्वेन सर्वमिमध्यस्थत्वेन गुणा ग्रामोपसेवित्वेन च सम्यग्दर्शनज्ञानचारिश्रयोगनामसंज्ञ-- उबरसा पुरिस समभाव धम्मिग सब्व गुणसमिदिदोषसेवि त भागि सुमग्ग । धातुसंजहव सत्तायां । प्रातिपदिक- उपरतपाप पुरुष समभाच गुणसमितितोपसेविन भागिन् धम्मिक सर्व सुमार्ग !
प्रसङ्गविवरणअनन्तरपूर्व गाथामें कारण वैपरीत्य और फलपरोत्यका व्याख्यान किया गया था। अब इस गाथामें बताया गया है कि कारणोपरीत्यसे फल अविपरीत सिद्ध नहीं होता।
तथ्यप्रकाश ---- (१) विषयकषाय परिणाम तो पाप ही है। (२) विषयकषाय परि. णाम बाले पुरुष भी पापरूप ही हैं। (३) पापरूप पुरुषों में अनुरागी प्राणी भी पापानुरागी होनेसे पापरूप ही होते हैं । (४) विषयकषाय वाले पुरुष अपने भक्तोंको पुण्य बन्धके लिये कारण कैसे हो सकते हैं ? नहीं हो सकते । (५) विषयकषाय वाले पुरुषोंकी भक्ति जन पुण्यके लिये भी नहीं हो सकती, फिर संसारनिस्तरणके लिये तो बात बिल्कुल ही दूर है। (६) कारणकी विपरीततासे फल अविपरीत कभी सिद्ध नहीं हो सकता।
सिद्धान्त---(१) अशुद्धताको सेवासे अशुद्धता ही वर्तती है । दृष्टि--१-- अशुद्धभावनापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४स)।
प्रयोग-मोह कषाय पापके आश्रयसे पापकी ही परिपाटी होना जानकर मोही कषायाधिक जीवोंको धर्मबुद्धिसे उपासना न करके स्वभावानुरूप परिणमने वाले व स्वभावानुरूप परिणमनके पौरुषी अात्मावोंकी आराधना व संगति करना ॥२५॥
अब अविपरीत फलका कारणभूत 'अविपरीत कारण' दिखलाते हैं— [उपरतपापः] पाप रुक गया है जिसके व [सर्वेषु धामिकेषु समभावः] जो सभी धामिर्कोके प्रति समभाववान है, और [गुरणसमितितोपसेवी] जो गुणसमुदायका सेवन करने वाला है, [सः पुरुषः] वह पुरुष [सुमार्गस्य] सुमार्गका [भागो भवति] अधिकारी होता है।
तात्पर्य-निष्पाप समभावी गुणी पुरुष सुमार्गगामी होता है ।
Page #503
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका
४८६ पद्यपरिणतिनिवृत्तकाग्र्धात्मकसुमार्गभागी स श्रमशः स्वयं मोक्षपुण्यायतनत्वादन्त्रिप रोत्तफलकारणं कारणामविपरीत प्रत्येयम् ।।२५६।। मूलधातु-भू सत्ताचा । उभयपदविधरण ....उच रददाबो उपरतपाय: पुरखो पुरुषः समभावों समभायः गुणसमिदिदोवसेवी गुलमितितोपसेवी रा सः भागी-प्रयमा एकः । (म्मगेस धामिकर सब्स सर्वेषु-सप्तमी बहु । समगर ससुमार्गस्य–विष्ठी एक ० । हदि भात-वर्तमान अन्य एक० किया । निरुक्ति-मार्यते किचित् यत्र सः मार्ग: (मार्ग-+छन् ) मार्ग अन्वेषणे चुरादि । समास-उपरतं पापं यस्य सः उपरतपापः) ॥२५६।।
टोका- पापके रुक जानेसे, सर्वधमियोंके प्रति मध्यस्थ होनेसे और गुणसमूहका सेवन करनेसे जो सभ्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रकी युगपत्तारू, परिणतिसे रचित एकाग्र नास्वरूप सुमार्गका भागी (सुमार्गशाली-सुमार्गका भोजन) है वह श्रभा निजको और परको मोक्षका मोर पुपयका प्रायतन होने से अविपरीत फलका कारणभूत 'अविपरीत कारण' है, ऐसा सम. झना चाहिये।
प्रसङ्गविवरण-अनन्तरपूर्ण गाथामें बताया गया था कि कारणको विपरीततासे फल अविपरीत सिद्ध नहीं होता । अब इस गाथामें प्रविपरीत फलका कारणभूत अविपरीत कारण (प्राश्रयभूत कारण) दिखाया गया है।
तथ्यप्रकाश--(१) एक अन्तस्तत्त्वको धुन वाला श्रमण पाराध्य अविपरीत कारण (प्राश्रयभूत कारण) है, क्योंकि वह मोक्ष और पुण्यका आयतन है । (२) श्रमणोंके एक परमार्थ सहजास्मस्वरूप हो अग्न रहता है इसका कारण है सम्यग्दर्शन सम्यम्जान सम्यक्चारित्र का योगपद्यपरिणमन । (३) रत्नत्रयभाव गुरगपुछ प्रात्मतत्य की उपासनासे विकसित होता है। (४) साम्यभाव होनेपर गुणपुञ्ज प्रारमतत्वको अराधना बनती है। (५) निष्पाप होनेपर साम्यभाव प्रकट होता है । (६) श्रमण निष्पाप साम्य पुञ्ज अन्तस्तत्त्वोपासक होने से सुमार्गभागी हैं प्रतएव अविपरीत कारण हैं । (७) मोक्षके अविपरीत कारणको उपासनासे मोक्षमार्गरूप अविपरोत फल प्राप्त होता है।
सिद्धान्त-(१) शुद्धतत्वको भावनासे शुद्धता प्रकट होती है। दृष्टि -१- शुद्ध भावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४ब)।
प्रयोग--मोक्षपात्र बननेके लिये निष्पाप निष्पक्ष अन्तस्तत्वोपासक होकर सुमार्गभागी होनेका पौरुष होने देना ॥२५६||
अब प्रावपरीत फलके कारणभूत 'प्रविपरीत कारण' को विशेषतया प्रतिपादित करते है--[अशुमोपयोगरहिताः] अशुभोपयोगरहित [शुद्धोपयुक्ताः] शुद्धोपयुक्त वा] अथवा
....................
mmsdeysis
JANASIRE
D
Page #504
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां
प्रथाविपरीत फलकारखं कारणमविपरीतं व्याख्याति
४६०
भोवयोगरहिदा सुद्ध वजुत्ता सुहोवजुत्ता वा । णित्थारयति लोगं तेसु पसत्थं लहदि भत्तो ॥ २६०॥ अशुभोपयोगविरहित, शुभोपयोगी व शुद्ध उपयोगी 1 तारे जगको उनके भक्त परम पुण्यको पाते ॥ २६०॥
अशुभयोगरहिताः वृद्धोपयुक्ताः शुभोपयुक्ता वा । निस्तारयन्ति लोकं तेषु प्रशस्तं लभते भवतः || २६० ॥ यथोक्तलक्षणा एवं श्रमणा मोहद्वेषाप्रशस्त रागोच्छेदादशुभोपयोग वियुक्ताः सन्तः सकलकषायोदयविच्छेदात् कदाचित् शुद्धोपयुक्ताः प्रशस्तरागविपाकात्कदाचिच्छुभोपयुक्ताः स्वयं मो क्षायतनत्वेन लोकं निस्तारयन्ति तद्भक्तिभावप्रवृत्त प्रशस्त भावा भवन्ति परे च पुण्यभाजा । २६०।
नामसंज्ञ -- असुभोवयोय रहिद सुहृदजुत्त सुहोवजुत्त बा लोग न पसत्थ भत्त । धातुसंज्ञ निस् तर हरणे सामर्थ्यं च लभ प्राप्ती । प्रातिपदिक-अशुभोपयोग रहित शुद्धोपयुक्त शुभोपयुक्त वा लोक तत् प्रशस्त भक्त । मूलधातु - निस् तर तरणे, डुलभ प्राप्ती । उभयपदविवरण--अशुभोवयोग रहिदा अशुभोपयोगरहिताः सुवजुत्ता शुद्धोषयुक्ताः सुहोवजुत्ता शुभोपयुक्ताः प्रथमा बहुवचन | वा अध्यय । पित्थारयंति निस्तारयन्ति वर्तमान अन्य पुरुष बहुवचन क्रिया । लोग लोकं पसत्थं प्रशस्तं द्वितीया एक० । सु तेषु सप्तमी बहु | भलो भक्तः प्रथमा एक० । लहदि लभते वर्त० अन्य० एक० क्रिया । निरुक्ति लोक्यन्ते सर्वाणि द्रव्याणि यत्र स लोकः (लोकल-धन) लोक दर्शने प्रकृते लोकं सर्व रूढित्वात् लोकं मनुष्यगणं । समास- अशुभश्चासी उपयोगः अशुभोपयोगः तेन रहितः अशुभोपयोग रहितः ॥ २६०॥ [ शुभोपयुक्ताः] शुभोपयुक्त श्रमण [लोकं निस्तारयन्ति ] भक्तः ] उनके प्रति भक्तिवान जीव [प्रशस्तं ] पुण्यको [लमते] प्राप्त करता है । तात्पर्य -अशुभोपयोगसे रहित श्रमण निस्तारक होते हैं और उनके भक्त पुण्यको प्राप्त होते हैं ।
लोगोंको तार देते हैं; और [तेषु
और अप्रशस्त रागके उच्छेद से कदाचित् शुद्धोपयोग में युक्त और मोक्षायतन होनेसे लोकको तार
टीकार्थ-यथोक्त लक्षण वाले ही श्रमण मोह, द्वेष शुभपयोगरहित वर्तते हुये समस्त कषायोदयके विच्छेदसे प्रशस्त रागके विपाकसे कदाचित् शुभोपयुक्त होते हैं वे स्वयं देते हैं, और उनके प्रति भक्तिभाव से जिनके प्रशस्त भाव प्रवर्तता है ऐसे पर जीव पुण्यके भागी होते हैं ।
प्रसंग विवरण - अनन्तरपूर्व गाथा में श्रविपरीत फलका कारणभूत श्रविपरीत कारण दिखाया गया था । अब इस गाथामे उसी श्रविपरीत फलके कारणभूत श्रविपरीत कारणका व्याख्यान किया गया है ।
Page #505
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका
४६१
प्रथाविपरीत फलकाररणा विपरीतकारणसमुपासनप्रवृति सामान्यविशेषतो विधेयतया सूत्रद्वैतेनोपदर्शयति---
दि पदं वत्थु
भुट्टारापधाराकिरिया हिं ।
दु तदो गुणादो विसेसिदव्वो त्ति उवदेसी ॥२६१॥
सत्पात्रको तिरखकर उत्थानादिक विनय सहित वर्षो ।
फिर गुरके श्रतिशयसे सुविशेषित कर जिनाशा यह ॥२६२॥
दृष्ट्वा प्रकृतं वस्त्वभ्युत्थानप्रधानक्रियाभिः । वर्ततां ततो गुगाद्विशेषितव्य इति उपदेश: ।। २६१ ।। श्रमणानामात्मविशुद्धिहतो प्रकृते वस्तुनि तदनुकूलक्रियाप्रवृत्त्या गुणातिशयाधानमप्र
नामसंज्ञगद व अवाणपधाण किरिया तदो गुण विसेदिव्य त्ति जबदेस । धातुसंज्ञ - दंस दर्शने, दत्त बर्तने । प्रातिपदिक- प्रकृत वस्तु अभ्युत्थानप्रधान क्रिया तस: गुण विशेषितव्य इति उपदेश । तथ्यप्रकाश - ( १ ) मोह द्वेष अप्रयास्त रागका उच्छेद हो जानेसे अविपरीत कारण भूत श्रम शुभपयोग रहित ही होते हैं । (२) शुभयोग भी होते मुख्यतया शुद्धोपयोगी होते । ( ३ ) कपाय दूर होनेसे भ्रमण शुद्धोपयोगी होते । ( ४ ) कदाचित् प्रशस्त रागका विपाक होनेसे श्रमण शुभोग्योगी होते हैं । ( ५ ) सुमार्गभागी श्रम स्वयं मोक्षपात्र हैं अतः उनकी संगतिमें जीव संसार पार हो जाते हैं । ( ६ ) सुमार्गभागी श्रमरणोंकी भक्ति में प्रवृत्त शुभोपयोगी विशिष्ट पुण्यप व होते हैं । (७) आत्मस्वभाव के अनुरूप विकसित होने वाले भव्यात्मा स्वयंके लिये विपरीत फलके उपादान कारण होते हैं । (८) आत्मस्वभाव के अनुरूप विकसित होने वाले भव्यात्मा अन्य सावर्मी भक्तोंके लिये अविपरीत आश्रयभूत कारण होते हैं ।
सिद्धान्त - (१) सुमार्गभागी श्रमण श्रविपरीत फलके प्रविपरीत कारण हैं । दृष्टि- १ - उपादानदृष्टि (४९), आश्रयभूतकारणदृष्टि (६१)
प्रयोग - शुद्ध प्रन्तस्तत्त्वकी प्रतीति रखते हुए मन्तस्तत्वमें रत न हो रहेको स्थिति में अशुभोपयोगरहित सुमार्गगामी श्रमणको भक्ति सेवा करना ।। २६० ॥
-
अब अविपरीत फलके कारणभूत 'अविपरीत कारण' की उपासनारूप प्रवृत्ति सामान्यतया और विशेषतया करने योग्य है, यह दो सूत्रों द्वारा बतलाते हैं [ प्रकृतं वस्तु ] प्रकृत वस्तुको [दृष्ट्वा ] देखकर [अभ्युत्थानप्रधान क्रियाभिः ] अभ्युत्थान यादि क्रियायोंसे [वर्तताम्] श्रमण प्रवर्तें [ततः ] फिर [ गुणात् ] गुणानुसार [विशेषितव्यः ] विशेषित करें-[इति उपदेशः ] ऐसा उपदेश है ।
Page #506
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६२
सहजानन्दशास्त्रमालायां
तिषिद्धम || २६१ ॥
मूलधातु- दृशिर प्रेक्षणे, वृतु वर्तने । उभयपदविवरण दिट्ठा दृष्ट्वा-सम्बन्धार्थप्रक्रिया | पगंद प्रकृतं वत्युं वस्तु द्वितीया एक अटुाणपधा किरियाहि अभ्युत्थानप्रधान क्रियाभिः तृतीया बहु० । तदो ततः-पंचभ्यर्थे अव्यय । गुणादो गुणात्-पंचमी एक० । विसेसिदो विशेषितभ्यः प्रथमा एक० कृदंत क्रिया । ति इति-अव्यय । उवदेसो उपदेश: प्रथमा एकवचन । निरुक्ति- गुण्यते अनेन इति गुणः (गुण + अच्) गुण आमन्त्रणे चुरादि । समास - अभ्युत्थानं प्रधानं घासु ताः अभ्युत्थानप्रधानाः अभ्युत्थानप्रत्राना च ताः क्रियाः अभ्युत्थानप्रधानक्रिया ताभिः ॥ २६५ ॥
तात्पर्य --- निर्ग्रन्थ श्रमणको देखकर भ्रमण पहिले तो अभ्युत्थान आदि करके सन्मान करे, पश्चात् गुण देखकर उनके प्रति विशेषता वर्ते ।
टीका -- श्रमणो ग्रात्मविशुद्धिकी हेतुभूत प्रकृतवस्तु अर्थात् श्रमणके प्रति उनके योग्य क्रियारूप प्रवृत्तिसे गुणातिशयताका आरोपण करना अप्रतिषिद्ध है ।
प्रसङ्गविवरण - अनन्तरपूर्व गाथा में अविपरीत फलके कारणभूत अविपरीत कारण का व्याख्यान किया गया था। अब इस गाथा में सामान्यपनेसे अविपरीत फलके कारणभूत श्रविपरीत कारणको उपासनाकी प्रवृत्ति बताई गई है ।
तथ्यप्रकाश - - ( १ ) आत्मविशुद्धिके हेतुभूत आचार्य श्रमण आदिको देखकर विनय विनय करने वाले पात्र में गुणातिशय खड़े होना आदि क्रियावों द्वारा
रूप प्रवृत्ति करना चाहिये । (२) गुणो जनोंके विनयसे का धारण होता है । (३) गुणी जनों को देखकर उठकर विनय किया जाता है ।
सिद्धान्त -- ( १ ) विनयतप करने वाले को स्वयं में लाभ सुनिश्चित है । दृष्टि - १ - क्रियानय (१६३) ।
प्रयोग - गुणातिशयके धारणके लिये गुणीजनों के प्रति विनयरूप प्रवर्तन करना | २६१। अब इमो विषयका दूसरा सूत्र कहते हैं -- [ गुणाधिकानां हि ] गुणोंमें अधिक श्रमणों के प्रति [ अभ्युत्थानं ] अभ्युत्थान, [ प्रहरणं ] ग्रहण [ उपासनं] उपासन [पोषणं ] पोषण [ सत्कार : ] सरकार [अञ्जलिकररपं] अंजलि करना [च] और [ प्रणामः ] प्रणाम करना [ह] यहाँ [भरितम् ] कहा गया है ।
तात्पर्य - - श्रमण गुणाधिक श्रमणोंका अभ्युत्थानादिसे विशेष भक्ति करे ऐसा श्रागम में कहा गया है ।
टोकांर्थ--श्रमणोंको अपने अधिक गुणी श्रमणों के प्रति अभ्युत्थान, ग्रहण, पोषण, सत्कार, अंजलिकरण श्रीर प्रणाम करनेकी प्रवृत्तियों निषिद्ध नहीं हैं ।
प्रसङ्ग विवरण --- प्रनन्वरपूर्ण गाथा में श्रविपरीत फलके कारणभूत अविपरीत कारण
Page #507
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६३
प्रवचनसार--सप्तदशाङ्गी टीका मुटाणं गहणं उवासणं पोसणं च सकारं । यंजलिकरणं पणाम भणिदं इह गुणाधिगाणं हि ॥२६२॥ श्रमण गुणाधिक श्रमणोंके प्रति उत्थान ग्रहण सत्सेवा ।
पोषण अञ्जलि प्रगमन, सत्कार व विनयवृत्ति करें ।।२६२।। अभ्युत्थानं ग्रहणानुपासनं पोषणं च यत्कारः । अंजलिकरणं प्रणामो भणितमिह गुणाधिकानां हि ।।२६२६॥
श्रमणानां स्वतोऽधिक गुणानामभ्युत्थान ग्रहणोपासनपोषणसत्काराञ्जलिकरणप्रणामप्रवृ. त्तयो न प्रतिषिद्धाः ।।२६२।।
नामसंज्ञ--- अन्भुटाण गहण वासण पोसण च राक्कार अंजलिकरण पणम भणिद इह गुणाधिग हि । धातुसंज-भण कथने । प्रातिपदिक-अभ्युत्थान ग्रहण उपासन पोषण च सत्कार अंजलिकरण प्रणाम भणित इह गुणाधिक हि । मूलधातु-भण शब्दार्थः । उभयपदविवरण- अन्भुटाणं अभ्युत्थान ग्रहण ग्रहणं उवासण उपासनं पोसण पोषणं सरकार सरकारः अंजलिकरणं अंजलिकरणं पणमं प्रणामः-प्रथमा एक० । भणिदं भणित-प्रथमा एक कृदन्त क्रिया । इह च हि-अन्यय । गुणाधिगाणं गुणाधिकानां-पष्ठी बहु । निरुक्ति- अंज्यते इति अंजुलिः (अंज + अलिच्) मंज व्यक्तिम्रक्षणकान्तिमतिषु रुधादि । समासगुणेषु अधिकाः गुणाधिका: तेषां गुणाधिकानाम् ।।२६२॥ की (श्रमणको) उपासनाको प्रवृत्ति सामान्यपने दिखाई गई थी। अब इस गाथामें उन्हींकी उपासनाको प्रवृत्ति कुछ विशेषतया दिखाई गई है ।
तथ्यप्रकाश---(१) अपनेसे अधिक गुण वाले श्रमणको प्राता हुमा देखकर उठकर खड़े होना प्रथम विनय है । (२) स्वतोधिगुणोका अभ्युत्थान द्वारा विनयकर उनको अादरसे स्वीकारना द्वितीय विनय है । (३) उन श्रमणों को विनयपूर्वक हाय जोड़ना प्रणाम करना बैतृतीय विनय है । (४) उन श्रमणोंके गुरगोंकी प्रशंसा करना चतुर्थ विनय है । (५) श्रमणोंकी सेवा वयावृत्त्य करना पञ्चम विनय है । (६) उन श्रमणोंके अशन, शयन प्रादित), का ध्यान रखना छठा बिनय है । (७) विनयभात्र आनेपर उनके अनुकूल अन्य प्रवृत्तियां भी समुचित होतो हैं । (८) श्रमणोको अपनेसे अधिक गुण वाले श्रमणोंकी उक्त विनयप्रवृत्तियाँ अप्रतिषिद्ध हैं. प्रभुने उपदिष्ट की हैं।
सिद्धान्त ...--(१) शुद्ध भावनासे बिशुद्धि बढ़ती है और प्रतिबन्धक कर्म दूर होते हैं । दृष्टि----१ -- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४८) ।।
प्रयोग---अपनेसे अधिक गुण वाले श्रमणके प्रति अपने में गुणातिशयाधानको साधनभूत विनयप्रवृत्तियाँ करना ।।२६२।।
अब श्रमणाभासोंके प्रति समस्त प्रवृत्तियों का प्रतिषेत्र करते हैं----[श्रमणः हि] श्रम. गोंके द्वारा [सूत्रार्थविशारदाः] सूत्रार्थविशारद, [संयमतपोजानाध्याः] संयम, तप और ज्ञान
Page #508
--------------------------------------------------------------------------
________________
Ent
सहजानन्दशास्त्रमालायां
४६४
श्रथ श्रमराभासेषु सर्वाः प्रवृत्ती प्रतिषेधयति
मुट्ठेया समणा सुत्तत्थविसारदा उवासेया । संजमवणाड्ढा परिणवदणीया हि समोहिं ॥ २६३ ॥ विदितार्थ सूत्रसंयत, ज्ञानी तपमुक्त श्रमण संतोंके ।
श्रभ्युत्थान उपासन, प्रणमन कर श्रमरण भक्त रहें ।। २६३ ॥
अभ्युत्थेयाः श्रमणाः शुत्रार्थविशारदा उपासेयाः । संयमतपोज्ञानादयाः प्रणिपतनीया हि श्रमणेः ॥ २६३॥ सूत्रार्थवशारद्यप्रवर्तितसंयमतपःस्वतस्वज्ञानानामेव श्रमणानामभ्युत्थानादिकाः प्रवृतयोऽप्रतिषिद्धा इतरेषां तु श्रमखाभासाची ताः प्रतिषिद्धा एव ॥ २६३ ॥
नामसंज्ञ---अवटुय समण सुत्तत्यविसारद उवासेय संजमतवणाण पणिवदणीय हि समण धातुसंज्ञ-अभि उत् ट्ठा गतिनिवृत्तौ पण गड पतने । प्रातिपदिक-अभ्युत्थेय श्रमण सूत्रार्थविशारद उपासेय संयमतपोज्ञानादच प्रतिपतनीय हि श्रमण । मूलधातु-अभि उत् ष्ठा गतिनिवृत्ती, प्रनिपत पतने । जमयपदविवरण - अया अभ्युत्थेयाः उवासेवा उपासेयाः पणिवदणीया प्रनिपतनीया:- प्र० ब० कृ० क्रिया । समणाः श्रमणाः सुतत्थविसारदा सुत्रार्थविशारदाः संजमतवणाणड्ढा संयमतपोज्ञानाढचाः - प्रथमा बहुवचन | हि-अव्यय | समरोहि श्रमणेः तृतीया बहुवचन । निरुक्ति - ( विशाल ज्ञानं ददाति इति विशारदः) ( विशाल दान क लस्य सः) जुदान दाने । समास-संयमः तपः ज्ञान चेति संयमतपोशानानि तः आढद्याः संयमतपोज्ञानादयाः || २६३||
में समृद्ध [श्रमणाः ] भ्रमण [ अभ्युत्थेयाः उपासेयाः प्रणिपतनीयाः ] ग्रभ्युल्यान उपासना और प्रणामसे सस्कृत किये जाने चाहिये |
तात्पर्य - श्रमण ज्ञानी संयमी तपस्वी श्रमणोंका सत्कार करे ।
टीकार्य --- सूत्रोंके और पदार्थोंके विशारदत्व के साथ प्रवर्तित है संयम, तप और स्वसत्वका ज्ञान है जिनके ऐसे श्रमणोके प्रति ही प्रभ्युत्थानादिक प्रवृत्तियाँ निषिद्ध हैं, परन्तु उनके अतिरिक्त अन्य श्रमणाभासों के प्रति वे प्रवृत्तियां निषिद्ध हो हैं ।
प्रसङ्गविवरण - प्रनन्तरपूर्व गाथा में श्रमण जनोंकी उपासना की प्रवृत्ति विशेषतया दिखाई गई थी । अब इस गाथा में श्रमरणाभासोंके प्रति समस्त प्रवृत्तियों का निषेध किया गया
है ।
तथ्यप्रकाश -- :- सूत्रार्थविशारद संयमतपज्ञानसंयुक्त श्रमणोंके ही प्रति श्रभ्युत्थान श्रादि प्रवृत्तियां विधेष हैं । २- श्रमाभासों के प्रति अभ्युत्थानादिक प्रवृत्तियां निषिद्ध हैं । सिद्धान्त - १ - संयमी तपस्वी तत्त्वज्ञानी श्रमण ही विनय भावके श्राश्रयभूत अविपरीत पात्र हैं ।
Page #509
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
४६५ प्रथ कोहशः श्रमणाभासो भवतीत्याख्याति---
ण हवदि समणो त्ति मदो संजमत्तवसुत्तसंपजुत्तो वि । जदि सहहदि ण अत्थे श्रादपधाणे जिणक्खादे ॥२६४॥ संयम तप श्रुत संयुत, होकर भी बह श्रमण नहीं होता।
प्रात्मप्रधान वस्तुमें, जो नहिं श्रद्धान करता है ।।२६४॥ न भवति श्रमण इति मतः संयमतपःसूत्रसंप्रयुक्तोऽपि ! यदि श्रद्धले नानात्मप्रधानानु जिनाख्यातान् ।२६४।
___ यागमज्ञोऽपि संयतोऽपि तपस्थोऽपि जिनोदितमनन्तार्थनिर्भर विश्व स्वेनात्मा ज्ञेयत्वेन निष्पीतत्वादात्मप्रधानमश्रद्दधानः श्रमणोमासो भवति ।। ६४॥
नामसंज.... | सपण ति मद स जमतवसुत्तसंपजुत्त यि जदि माथे आदपधान जिणक्खाद । धातुसज- मन्न अवयोधने, सद् दह धारणे, क्खा प्रकथने । प्रातिपदिक.....न श्रमण इति मत संयमतपःसुत्रसंप्र, युक्त अपि यदि न अर्थं आत्मप्रधान जिनख्यात । मूलधातु-मनु अवबोधने, सद् धान धारण पोषणयो: ख्या प्रकथने । उभयपदविवरण-णन ति इति वि अपि जदि यदि ण न-अध्यय । हदि भवांत सहादा थद्दधाति-वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । समणो श्रमणः संजमतव सुत्तसंपजुत्तो संयमतपःसूत्रसंप्र. युक्त:-प्रथमा एकवचन । मदो मत:-प्रथमा एक० कृ० किया। अथे अर्थान आदपधाने आत्मप्रधानात जि- णक्खादे जिनाण्यालान्-सप्तमी एकवचन । निरुक्ति-प्रकृष्टेन' दधाति इति प्रधान (प्रधा+ युट्) समास-संयमः तपः सूत्रं चेति सयभापासूत्राणि तैः संप्रयुक्तः इति संयमतपःसूत्रसंप्रयुक्तः ।।२६४।।
दृष्टि---१-- प्राश्रयभूतकारण दृष्टि (६१ अ)।
प्रयोग—अात्मविशुद्धि के लिये सहजात्मस्वरूपकी प्रतीति रखते हुए संयमी तपस्वी तत्त्वज्ञानी श्रमणोंको ही उपासना भक्ति करना ।।२५३: ।
अब श्रमणाभास कैसा होता है यह कहते हैं---[संयमतपःसूत्रसंप्रयुक्तः अपि] सूत्र, संयम और तपसे संयुक्त भी साधक [यदि] यदि [जिनाख्यातान् ] जिनोक्त प्रात्मप्रधानान] आत्मप्रधान [अर्थान् ] पदार्थोंका [न श्रद्धत] श्रद्धान नहीं करता तो वह श्रिमणः न भवति] श्रमण नहीं है [इति मतः] ऐसा आगममें कहा है ।
तात्पर्य---सूत्रज्ञान संयम तपसे युक्त भी साधक यदि प्रात्मज्ञानी नहीं है तो वह धमरा नहीं है।
टोकार्थ-पागमका ज्ञाता भी, संयत भी, तपमें स्थित भी साधक जिनोक्त अनन्त पदार्थोंसे भरे हुये विश्वका--जो कि अपने प्रात्माके द्वारा शेयरूपसे पिया गया होनेके कारण प्रात्मप्रधान है उसका जो जीव श्रद्धान नहीं करता वह श्रमणाभास है।
प्रसंगविवरण- अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि श्रमणोंके प्रति ही अभ्युत्था
।
CASSES2200
Page #510
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां
अथ श्रामण्येन सममननुमन्यमानस्य विनाशं दर्शयति
अववददि सासणत्थं समणं दिट्टा पदोसदो जो हि। किरियासु णाणुमण्णदि हवदि हि सो णट्ठचारित्तो ॥२६५॥ मार्गस्थ श्रमरणको लखि, जो कुछ अपवाद द्वषवश करता।
अनुमोदे न विनयसे, वह मुनि है नष्टचारित्री ॥ २६५ ॥ अपवदति शासनस्थं श्रमणं दृष्ट्वा प्रद्वेषतो यो हि । क्रियासु नानुमन्यते भवति हि स नष्टचारित्रः ।।२६५।।
श्रमणं शासनस्थमपि प्रद्वेषादपवदतः क्रियास्वननुमन्यमानस्य च प्रद्वेषकषायितत्वा.
नामसंज्ञ-सासणत्थ समण पदोसदो ज हि किरिया ण हि त णट्ट चारित्त । धातुसंज्ञ-दंस दर्शने, अनु मन्न अवबोधने, हव सत्तायां । प्रातिपदिक- शासनस्थ श्रमण प्रद्वेषतः यत् हि क्रिया न हि तत् नष्ट चारित्र । मूलधातु-दृशिर् प्रेक्षणे, अनु मनु अवबोधने, भू सत्तायां । उभयपदविवरण-सासणत्थं शासनस्थं नादिक प्रवृत्तियां विधेय हैं, श्रमणाभासोंके प्रति नहीं। अब इस गाथामें श्रमणाभास कैसा पुरुष होता है यह बताया गया है।
तथ्यप्रकाश--(१) आगमज्ञानी द्रव्यसंयमी तपस्वी होनेपर भी यदि कोई साधक अन्तस्तत्त्वकी श्रद्धा नहीं कर रहा तो वह श्रमणाभास होता है । (२) जो अन्तस्तत्त्वकी श्रद्धा करता है वह जिनोदित समस्त पदार्थोंकी यथार्थतया श्रद्धा करता है। (३) वस्तुत: श्रद्ध्येय आत्मा ही प्रधान होता है, क्योंकि उस श्रद्धानीने जिनोदित अनन्तार्थनिर्भर विश्वको स्व प्रात्माके द्वारा ज्ञेयरूपसे पी लिया है ऐसे प्रात्माका श्रद्धान किया है ।
सिद्धान्त-- १- वास्तवमें ज्ञानीने अपने आपका ज्ञान श्रद्धान किया है । (२) ज्ञानी को उपचारसे परपदार्थका ज्ञाता श्रद्दधाता कहा जाता है ।
दृष्टि-१- निश्चयनय (१६६), उपादान दृष्टि (४६ब) । २- 'स्वाभाविक उपचरित स्वभावव्यवहार (१०५), अपरिपूर्ण उपचरित स्वभावव्यवहार (१०५अ)।
प्रयोग--चूंकि अन्तस्तत्त्वके श्रद्धान विना प्रात्मोद्धार नहीं है, अतः आगमज्ञान संयम तपश्चरणका पौरुष करते हुए प्रात्म प्रधान समस्त पदार्थोंका यथार्थ श्रद्धान बनाये रहना ॥२६४॥
अब जो श्रामण्यसे समान हैं उनका आदर न करने वालेका विनाश दिखलाते हैं - [यः हि] जो [शासनस्थं श्रमणं] जिनदेवके शासन में स्थित श्रमणको [दृष्ट्वा] देखकर [प्रद्वषतः] द्वेषसे [अपवदति] उसका अपवाद करता है, और [क्रियासु न अनुमन्यते] सत्कारादि क्रियाओंके करनेमें प्रसन्न नहीं है [सः नष्टचारित्रा हि भवति ] वह नष्टचारित्र
Page #511
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
४६७ च्चारित्रं नश्यति ॥२६॥ समणं श्रमणं-द्वितीया एक० 1 दिट्ठा दृष्ट्वा-सम्बन्धार्थप्रक्रिया । पदोसदो प्रद्रेषत:-पंचम्यर्थे अव्यय । जो यः सोसाद चारित्तो नष्ट चारित्र:-प्र० एका किरियासू क्रियास-स०बहअणमण्णादि अनुमन्यते हवदि भवति-वर्त० अन्य ० एक क्रिया । हि ण न--अव्यय । निरुक्ति-चरणं चारित्रं (चर् + इ च्) चर गती । समास-नाष्ट: चारिणः यस्य सः न०, शासने तिष्ठतीति शासनस्थः, तं शासनस्थं ।।२६५।। वाला ही हो जाता है।
तात्पर्य- जो श्रमण शासनस्थ अन्य श्रमणको न माने बुरा कहे उसका चारित्र नष्ट समझना।
टीकार्थ-द्वेषके कारण शासनस्थ श्रमणका भी अपवाद' करने वालेका और उसके प्रति सत्कारादि क्रियायें करनेमें अननुमत श्रमणका द्वेषसे कषायित होनेसे चारित्र नष्ट हो जाता है।
प्रसङ्गविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि श्रमणाभास कैसा होता है । अब इस गाथामें यह बताया गया है कि जो श्रामण्यसे समान है उस श्रमणका प्रादर न करनेवालेके श्रामण्यका विनाश हो जाता है।
. तथ्यप्रकाश-१ -- जो श्रमण शासनमें स्थित है यथार्थ भ्रमण है उसका यदि कोई द्वेषसे अपवाद करे प्रादर न करे तो उसका चारित्र (श्रामण्य) नष्ट हो जाता है । २-- जब किसी श्रमणके अन्य श्रमशके प्रति द्वेष ईा आदिक कषाय जग गये तो वहीं चारित्र नहीं
Sotihotos
S
सिद्धान्त----(१) अशुद्ध भावनासे प्रशुद्धता व बद्धता चलती रहती है। दृष्टि -१-अशुद्धभावनापेक्ष अशुद्ध द्रध्याथिकनय (२४ स)।
प्रयोग--- अात्मविशुद्धिके हेतु व स्वचारित्ररक्षाहेतु शासनस्थ सुमार्गभागी धमाके प्रति द्वेष न करना, ईर्ष्या न करना, अपवाद न करना, किन्तु विनय करना सेवा करना ॥२६५।।
अब श्रामण्यसे अधिक श्रमणके प्रति हीनकी तरह आचरण करने वालेका विनाश बतलाते हैं---[यः] जो श्रमण [यदि गुणाधरः भवन्] यदि गुणोंमें होन होता हुआ भी
अपि श्रमरणः भवामि] 'मैं भी श्रमण हूं' [इति] ऐसा गर्व करके [गुरणतः अधिकस्य] गुणों में अधिक बाले श्रमण पाससे [विनयं प्रत्येषकः] विनय करवाना चाहता है [सः] तो वह मिनत्तसंसारी भवति] अनन्तसंसारी होता है।
___ तात्पर्य-गुणहीन श्रमण यदि गुरणाधिक श्रमणसे अपना विनय करवाना चाहता है तो वह अनन्तसंसारी होता है ।
Page #512
--------------------------------------------------------------------------
________________
४१८
सहजानन्दशास्त्रमालायां अथ श्रामण्येनाधिक होनमिवाचारतो विनाशं दर्शयति
गुशादोधिगस्स विणयं पडिच्छगो जो वि होमि समणो ति। होज्जं गुणाधरो जदि सो होदि अणंतसंसारी ॥ २६६ ॥
मैं मि श्रमरण मदसे जो, गुरणी श्रमणका विनय नहीं करता।
वह गुणहीन मदवशी अनन्त संसारमें रुलता ॥ २६६ ॥ गुणतोऽधिकस्य बिनयं प्रत्येषको योऽपि भवालि श्रमण इति । भवन् गुणाधरो यदि स भवत्यनन्तसंसारी !
स्वयं जघन्य गुणः सन् श्रमणोऽहमपोत्यवलेपात्परेषां गुणाधिकानां विनयं प्रतीच्छन् श्रामण्यावलेपवशात् कदाचिदनन्तसंसार्यपि भवति ।।२६६॥
नामसंज्ञ...गुणदो अधिग विणय पडिच्छग ज वि समण ति होज्ज ग णाधर जदि त अणंतसंसारि। धातुसंज्ञ-हो सत्तायां । प्रातिपदिक-गु णतः अधिक विनय प्रत्येषकः यत् अपि श्रमण इति भवतु गणाघर यदि तत् अनन्तसंसारिन् । मूलधातु-भू सत्तायां । उभयपदविवरण-गणदो गणत:-पंचम्यर्थे अव्यय । अधिगस्स अधिकस्य-षष्ठी ए० | विणयं विनय-द्वि० ए० दिमछगो प्रत्येत्यषक: जो यः समणो श्रमण: गणाधरो ग णाधरः सो स: अणं तसंसारी अनंतसंसारी-प्रथमा एक० । होज्जं भवत्-प्र० एक० कृदन्त । होदि भवति-प्रथमा एकवचन किया । निरुक्ति -न ध्रियते इति अधर: (न+धृङ+अच्) धृद्ध अव. स्थाने तुदादि । समास-- गुरणेषु अधरः गुणाधरः, अनन्तः संसारः यस्य स अनन्तसंसारी ।।२६६॥
टीकार्थ स्वयं जघन्यगणों वाला होता हुआ भी 'मैं भी श्रमरण ' ऐसे गर्वके कारण दूसरे अधिक गुण वाले श्रमणोंसे विनयकी इच्छा करता है, वह श्रामण्य के गर्वके वशसे कदा. चित् अनन्त संसारी भी होता है ।
प्रसंगविवरण---- अनन्तरपूर्व गाथामें जो श्रामण्यसे समान हैं उनका नादर न करने वालेका विनाश होना दिखाया गया है । अब इस माथ में यह बताया गया है कि जो श्रामण्य में अधिक हैं उन श्रमणोंके प्रति हीनकी तरह प्राचरणव्यवहार करने वालेका विनाश होता है अर्थात् उसके श्रामण्यका विनाश होता है।
तथ्यप्रकाश-(१) जो गुणहीन है वह 'मैं भी श्रमण हूं' ऐसे अहंकारभावसे लिप्त होकर अधिक गुण वाले श्रमणोंसे विनयको नाहता है । (२) जो गुणहीन होनेपर भी श्रमरणपनेका अहंकारभाव बनाकर गुणाधिक श्रमणोंसे विनय कराना चाहता है वह श्रामण्यके गर्वक पश होकर अनन्तसंसारी भी हो जाता है । (३) मैं भी श्रमणा हूँ, मैं इनसे पुराना दीक्षित हूं प्रादि गर्नके कारण जो साधु गुणाधिक श्रमणोंसे पानी विनय भक्ति करवाना चाहता है वह संसारमें जन्म मरण चिरकाल तक करता है, कदाचित् वह अनन्तसंसारो भी हो जाता है ।
सिद्धान्त----(१) गुणाधिक पुरुषोंमें द्वेषभाव हीनभाव रखनेरूप अशुद्ध भावनासे प्रशु
1992
"--"
"Y
"
-
-Miam
T
Page #513
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार सप्तदशांगी टीका
४६६
अथ श्रामण्येनाधिकस्य होनं सममिवाचरतो विनाशं दर्शयति--
अधिगगुणा सामण्यो वट्टांति गुणाधरेहिं किरियासु । जदि ते मिच्छवजुत्ता हवंति पभट्टचारित्ता ॥२६७॥
श्रामण्यमें गुरणाधिक, गुरणहीनोंकी क्रियादिमें बते ।
तो मिथ्योपयुक्त हो, चारितसे भ्रष्ट हो जाते ॥२६७।। अधिकगुणाः श्रामण्ये वर्तन्ते गुणाधरैः क्रियासु । यदि ते मिथ्योपयुक्ता भवन्ति प्रभ्रष्टचारित्रा: ।। २६७ ।।
स्वयमधिकगुणा गुणाधरः परः सह क्रियानु वर्तमाना मोहादसम्यगुपयुक्तत्वाच्चारित्रा. नामसंज्ञ-अधिगगुण सामण्ण गुणाधर किरिया जादि त मिल्छुव जुत्त पउभट्टचारित्त । धातुसंज्ञ- वत्त वर्तने, हब सत्तायां । प्रातिपदिक-अधिकगुण श्रामण्य गुणाधर क्रिया यदि तत् मिथ्योपयुक्त प्रभ्रष्टचारित्र। मूलधातु-वृतु बर्तने, भू सत्तायां । उभयपदविवरण-अधिगगुणा अधिकगुणाः ते मिच्छुवजुत्ता मिथ्योपयुक्ताः पन्भट्टाचारिता प्रभ्रष्टचारित्रा:--प्रथमा बहुवचन । बट्टति वर्तन्ते हवंति भवन्ति-वर्तमान अन्य पुरुष बहुवचन क्रिया । सामण्यो श्रामण्ये-सप्तमी बहुवचन । म णाधरेहिं ग णाधरैः-तृतीया बहुद्धता व बद्धता चलती रहती है।
दृष्टि---- १- अशुद्धभावनापेक्ष अशुद्धद्रव्याथिकन य (२४स) ।
प्रयोग-प्रात्मविशुद्धिहेतु गुणाधिक श्रमणोंसे अपनी विनय भक्ति कराने की चाह न करना और गुणाधिक पुरुषोंमें प्रमोदभाव रखकर उनका सन्मान करना ॥२६६॥
अब अपनेसे हीन श्रमणके प्रति समान जैसा आचरण करने वाले श्रामण्याधिकका बिनाश बतलाते हैं----[यदि श्रामण्ये अधिकगुणाः] जो श्रामण्यमें अधिक गुरण वाले श्रमण [गुणाधरः] होन गुण वालोंके प्रति [क्रियासु] वंदनादि क्रियानोंमें [वर्तन्ते] वर्तते हैं, [ते] तो वे [मिथ्योपयुक्ताः] मिथ्या उपयुक्त होते हुये [प्रभृष्टचारित्राः भवन्ति भृष्टचारित्री हो जाते हैं।
तात्पर्य-निर्दोष गुणाधिक श्रमरण यदि होन श्रमणोंको भक्ति वन्दना करें तो स्वयं का पतन कर लेते हैं।
टोकार्थ--- स्वयं अधिक गुण वाले श्रमण अन्य हीन गुणवाले श्रमशोंके प्रति वंदनादि कियानों में वर्तते हुये मोहके कारण असम्यक् उपयुक्त होनेके कारण चारित्रसे भ्रष्ट हो जाते
प्रसङ्गविवरण----अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि जो श्रमरण अपनेसे अधिक गण बाले श्रमणसे अपनी विनयभक्ति कराना चाहता है वह अनन्तसंसारी तक हो जाता है। अब इस गाथामें बताया गया है कि जो श्रामण्यमें अधिक गुण वाला है वह यदि होनाचरणी
Page #514
--------------------------------------------------------------------------
________________
५००
सहजानन्दशास्त्रमालायां
भ्रश्यन्ति ।।२६७
वचन । किरियाम् क्रियासु-सप्तमी बहुवचन । जदि यदि-अव्यय । निरुक्ति-मिथनं मिथ्या (मिथ् - क्यप् +टा) मिथ संगमने । समास- अधिका: गणाः येषु ते अधिकगुणाः, प्रभ्रष्टं चारित्रं येषां ते प्रभ्रष्टचारित्राः ।।२६॥ को अपने समान श्रमणको तरह विनय व्यवहार आचरण करता है उसके चारित्रका भी वि. नाश हो जाता है।
तथ्यप्रकाश---(१) जो. स्वयं अधिक गुरग वाला श्रमण हो और वह गुणहीन अन्य श्रमणके प्रति विनय भक्तिमें मोहवश लगे तो वह अशुभोषयुक्त होनेसे चारित्रसे भ्रष्ट हो जाता है । (२) गणहीन चारित्रहीन श्रमणके प्रति आदरका भाव अपने या प्रादि मोहके वश होता है ऐसे भावमें 'धारित्र नहीं रहता।
__ सिद्धान्त-(१) अशुद्ध भावनासे शुद्धताका विनाश होकर अशुद्धता व बद्धता चलती रहती है।
दृष्टि-१- अशुद्धभावनापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४स)।
प्रयोग- प्रात्मविशुद्धिके हेतु श्रद्धानज्ञानचारित्रहीन साधुजनोंकी संगति भक्ति नहीं करना ॥२६७॥
अब असत्संगको निषेध्य बतलाते हैं---[निश्चितसूत्रार्थपदः सूत्रोंके पदोंको और अर्थों को निश्चित किया है जिसने, [च] और [समितकषायः] कषायोंको समित किया है जिसने ऐसा श्रमण [तपोऽधिकः अपि] तपश्चरणमें अधिक होता हुआ भी [यदि] यदि [लौकिकजनसंसर्ग] लौकिक जनोंके संसर्गको [न त्यजति ] नहीं छोड़ता, [संयतः न भवति] तो वह संयत नहीं है।
तात्पर्य-ज्ञानी शान्त तपस्वी भी श्रमण यदि लौकिक जनोंका सम्बन्ध नहीं छोड़ता तो वह संयमी नहीं रहता।.
टोकार्थ-(१) विश्वके वाचक, 'सत्' लक्षण वाले सम्पूर्ण हो शब्दब्रह्म और उस शब्दब्रह्मके वाच्य 'सत्' लक्षण वाले सम्पूर्ण हो विश्व उन दोनोंके ज्ञेयाकार अपनेमें युगपत् गथित हो जानेसे उन दोनोंका अधिष्ठान भूल 'सत्' लक्षण वाला ज्ञातृतत्व निश्चयनय द्वारा सूत्रके पदों और अर्थोका निश्चय वाला' होनेके कारण (२) निरुपराग उपयोगके कारण समितकषाय होनेके कारण और (३) निष्कंप उपयोगका बहुशः अभ्यास करनेसे 'अधिक तप वाला' होने के कारण भलीभांति संयत हुआ भी श्रमण चूंकि अग्निकी संगतिमें रहे हुये पानी
Page #515
--------------------------------------------------------------------------
________________
Kximewwxxxxauwomen
प्रवचन सार-सप्तदशाङ्गी टीका अथासत्संग प्रतिषेध्यत्वेन दर्शयति
णिच्छिदसुत्तत्थपदो समिदकसायो तवोधिगो चावि । लोगिगजासंसग्गं गा चयदि जदि संजदो ण हर्वाद ॥२६॥ विदितसूत्रार्थपद हो, उपशान्तकषाय तथा तपोधिक भी।
लौकिकसंग न तजता, यदि तो वह संयमी नहि है ॥२६८॥ निश्चितसूत्रार्थ पदः समितकमायस्तपोऽधिकश्चापि । लौकिकजनसंसर्ग न त्यति यदि संयतो न भवति ।
यत: सकलस्यापि विश्व वाचकस्य सल्लक्ष्मणः शब्दब्रह्मणस्तद्वाच्यस्य सकलस्यापि सल्लक्षमणोविश्वस्य च युगपदनुस्यूततदुभयज्ञेयाकारतयाधिष्ठानभूतस्य सल्लक्ष्मणो ज्ञातृतत्त्वस्य निश्चयनयानिश्चितसूत्रार्थपदत्वेन निरुपरागोपयोगत्वात् समितकषायत्वेन बहुशोऽभ्यस्तनिष्क
नामसंज्ञ-- णिच्छिदसुत्तत्थपद सपिदकसाअ तयोधिग च अन्त्रि लोगिगजण संसम्ग ण जदि संजद । धातुसंज-~च्चय त्यागे, व सत्तायां । प्रातिपदिक – निश्चितसुत्रार्थपद समितकषाय तपोधिक 'ध अपिलौकिकाजलसंसर्ग न यदि संभृत न । मूलधातु-त्यज त्यागे, भू सत्तायां । उमयपदविवरण---णिछिदसुत्त। स्थपदो निश्चितस्त्रार्थादः समिदकसाओ समितकषायः तवोधिगो तपोधिकः संजदो संयत:-प्रथमा एकवचन । लोगिगजणांसमा लौकिकजनांसर्ग-द्वितीया एकवचन । च अबि अपि ण न जदि यदि-अश्यय । को भांति उसे विकार अवश्यंभावी होनेसे लौकिक संगसे असंयत ही होता है, इस कारणा लौकिक संग सर्वथा निषेध्य ही है ।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि श्रामण्यसे अधिक गुण वाल होकर यदि गुणहीन साधुका समानकी तरह विनयादि आचरण करे तो वह चारित्रभ्रष्ट हो जाता है । अब इस गाथामें असत्संग करनेका निषेध किया गया है ।
तथ्यप्रकाश-१-- यदि कोई श्रमण लौकिक असंयमी जनोंका संसर्ग नहीं छोड़ता है तो वह भी असंयत हो जाता है । २- जल शीतल होता है, किन्तु वह अग्निकी संगतिको प्राप्त है तो वह जल भी संतापकारी हो जाता है। ३- श्रमण चाहे सूत्रार्थपदों का ज्ञानी होथ कषायका शमन करने वाला हो, तपस्यामें भी अधिक हो तो भी लौकिकजनसंसर्गमें रहनेसे वह असंयत हो जाता है। ४- सूत्र समस्त विश्वका वाचक सत् शब्दब्रह्म है। ५- प्र' शब्दब्रह्म द्वारा वाच्य समस्त सत् पदार्थ हैं । ६- वोचक वाच्य दोनोंके ज्ञेयाकार रूपसे अधिष्ठाता सत् ज्ञातृतत्त्व है । ७-शब्दब्रह्म, अर्थब्रह्म, ज्ञातृब्रह्म तीनोंका ज्ञानी श्रमण निश्चित्तसूत्रा.
पद कहलाता है । --- कषायोंका समन उपराग (रागद्वेषादिविकार) रहित उपयोग होनेसे होता है। ई-बहुत बार निष्कम्प उपयोग रखनेके अभ्यासके बलसे श्रमण तपोधिक (बड़ा तप
-
-
-
Page #516
--------------------------------------------------------------------------
________________
५०२
सहजानन्दशास्त्रमालाया म्पोपयोगत्वात्तपोऽधिकत्वेन च सुष्ठु संयतोऽपि सप्ताचिासंगतं सोयमिवावश्यंभाविविकारत्वात् लौकिकसंगादसंयत एव स्यात्ततस्तत्संग: सर्वथा प्रतिषेध्य एव ।।२६८।। चयदि त्यजति हबदि भवति-वर्त० अन्य० एक० किया। निरुक्ति....स' सर्जन संसर्गः तं (सम् सूजन धन ) राज विसर्गे दिवादि तुदादि । समास-निश्चितानि सूत्रार्थपदानि येन सः निश्चितसुत्रार्थपदः तपः सां अधिकः तपोधिकः, लौकिकजनानां संसर्गः लौ० तं ॥२५॥ स्वी) बनता है । १०- ज्ञान शमन तपश्चरणके प्रसादसे उत्तम संयत होनेपर भी श्रमण यदि लौकिकजनोंका संसर्ग रखता है, लौकिकजनोंके संसर्गको नहीं छोड़ सकता है तो वह भी असंयत हो जाता है । ११- अपने संयमको स्थिर रखनेके लिये असत्संग बिल्कुल ही नहीं करना चाहिये।
सिद्धान्त -- (१) असंयत अशुद्ध लौकिक जनोंके संसर्ग भावसे प्रशुद्धता च बद्धता चलती रहती है।
दृष्टि-१- अशुद्धभावनापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४स)।
प्रयोग-...अात्मविशुद्धिके हेतु ज्ञानो, शान्त, तपस्यो होकर शुद्धात्मवृत्ति वालोंकी संगति में रहना, लौकिक असंयमी जनोंका संसर्ग नहीं करना ।।२६८1।
अब 'लोकिक' जनके लक्षणको उपलक्षित करते हैं - [नन्थ्य प्रवजित:] निग्रंथरूप से दीक्षित व [संयमतपःसंप्रयुक्तः अपि संयमतपसंयुक्त भी, [यदि] श्रमरण यदि [ऐहिकः कर्मभिः वर्तते] ऐहिक कार्योंके द्वारा वर्तता हो तो, [सः लौकिकः इति भरिणता] वह 'लौकिक' है ऐसा शास्त्रसे कहा गया है।
तात्पर्य-संयमी तपस्वी भी निर्ग्रन्थ यदि लौकिक क्रियावोंमें लगता है तो वह लो.
____टोकार्थ—परमनिग्रंथतारूप प्रवज्याकी प्रतिज्ञा की हुई होनेसे संयमतपके भारको वहन करता हुआ भी, मोहको बहुलताके कारण हटा दिया है शुद्धचेतन व्यवहारको जिसने ऐसा होता हुआ साधक निरंतर मनुष्यव्यवहारके द्वारा चक्कर खानेसे ऐहिक कर्मोंसे ऐहिक काँसे) निवृत्ति न होनेपर 'लौकिक' कहा जाता है।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें असत्संगको लोकिकजनसंसर्गको प्रतिषेध्य बताया गया था। अब इस गाथामें लौकिक जनोंका लक्षण उपलक्षित किया गया है ।
तथ्यप्रकाश ---(१) जो नन्थ्यदीक्षा लेकर भी लौकिक कार्यों में लग रहा हो वह लोकिक मनुष्य कहलाता है । (२) चाहे निर्ग्रन्थ दीक्षा लेकर बहुत भारी संयम तपका भार भी ढो रहा हो तो भी यदि मोहको बहुलतासे शुद्ध स्वसंचेतनव्यवहारसे भ्रष्ट हो गया हो और
......
Page #517
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार - सप्तदशाङ्गी टीका
अथ लौकिक लक्षगमुपलक्षयति-
ग्गिंथं पव्वइदो वदृदि जदि एहिगेहि कम्मे हि । सो लोगो भिणिदो संजमतवसंपत्तोवि ॥२६६॥
५०३
निर्गन्थ प्रवज्यायुत, संयम तप संप्रयुक्त होकर भी । यदि ऐहिक कर्मोंमें, लगता तो वह रहा लौकिक ॥२६६॥
नैर्ग्रन्थ्यं प्रब्रजितो वर्तते यहिकः कर्मभिः । स लौकिक इति भणितः संयमतपः संप्रयुक्तोपि ॥ २६६ ॥ प्रतिज्ञातपरमर्नर्ग्रन्ध्यप्रव्रज्यत्वादुदृढसंयम तपोभारोऽपि मोहबहुलतया श्लथी कृतशुद्धचेतनव्यवहारी मुहुर्मनुष्यव्यवहारेण व्याघूर्णमानत्वादैहिककर्मानिवृत्ती लौकिक इत्युच्यते ||२६||
नामसंज्ञ—णिग्गंथ पव्वइद जदि एहिंग कम्म त लोगिंग सि भणिद संजमतवसंपजुत्त वि । धातुसंज्ञ-बत्त वर्तने, भण कथने । प्रातिपदिकनर्ग्रन्थ्य प्रत्रजित यदि ऐहिक कर्मन् सत् लौकिक इति भणित संयमतपः संप्रयुक्त अपि । मूलधातु - वृतु वर्तने, भण शब्दार्थः । उभयपदविवरण - णिग्गंथ नर्ग्रन्थ्य-द्वितीया एकo | पब्बइदो प्रत्रजित: - प्रथमा एक. हृदन्त । यदि वर्तते वर्त अन्य० एक० क्रिया । जदि यदित्ति इति वि अपि - अव्यय । एहिगेहि ऐहिकैः कम्मेहिं कर्मभि: - तृतीया बहुवचन । सो सः लोगिगो लौकिकः भणिदो भणित: प्रथमा एक० कृदन्त किया। संजमतयसंपजुत्तो संयमतपः संप्रयुक्तः - प्रथमा एकवचन निरुक्ति- ग्रन्थते इति ग्रन्थः ग्रन्थिः (ग्रन्थ + वितन् ) ग्रन्थ बन्धने चुरादि । समास- संयमश्च तपश्चेयि
सीताभ्यां संप्रयुक्तः संयमतापसंयुक्त: ॥२६॥
बार बार मैं मनुष्य हूं इस वासना के चक्र में पड़ गया हो तो वह लोकिक कर्मको नहीं छोड़ सकता । ( ३ ) जब अनि अपने में मनुष्यरूपकी प्रास्या है तब मनुष्य जैसा ही विषय कषायों के कर्म में वह उपयोग लगावेगा । ( ४ ) ऐसे लौकिक जनोंका संसर्ग शासनस्थ सुमार्गभागी श्रमण नहीं करते । (५) लौकिकजनसंसर्ग से भ्रमण भी सविकार हो जायेंगे ।
सिद्धान्त - ( १ ) ऐहिक कर्मभावों में रत साधु लौकिक प्राणी है ।
दृष्टि - १ - अशुद्ध निश्चयनय (४७), प्रशुद्धभावनापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय ( २४स ), विभावगुरणव्यञ्जन पर्यायदृष्टि (२१३) ।
प्रयोग - प्रात्मकल्याणके लिये सहजात्मस्वरूपकी भावना करके ऐहिक कर्मोसे निवृत्ति पाकर अलौकिक ग्रानन्द अनुभवना || २६६॥
ra सत्संगको विधेयरूपसे दिखलाते हैं [तस्मात् ] लौकिकजनके संगसे संयत भी असंयत हो जानेके कारण [ यदि ] यदि [ श्रमणः ] श्रमण [दुःखपरिमोक्षम् इच्छति ] दुःखसे छुटकारा चाहता है तो वह [गुणात्समं ] गुणसे अपने समान [वा ] अथवा [ गुणैः श्रधिकं - श्रमणं तस्मिन्] गुलोंसे अपने से अधिक वाले श्रम के संग [नित्यम् ] सदा [ अधिवसतु ] रहे |
Page #518
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानदशास्त्रमालाया अथ सत्संग विधेयत्वेन दर्शयति
तम्हा समं गुणादो समणो समणं गुणेहिं वा अहियं । अधिवसदु तम्हि णिच्चं इच्छदि जदि दुक्खपरिमोक्खं ॥२७॥ सो गुरासम व गुणाधिक श्रमणोंके निकट बसो संग करो।
यदि प्रसार सांसारिक, दुःखोंसे मुक्ति चाहो तो ।। २७० ॥ तस्मात्सम गुणात् श्रमण: श्रमणं गणैर्वाधिकम् । अधिवसतु तस्मिन् नित्य इच्छति यदि दुःखपरिमोक्षम् ।।
यतः परिणामस्वभावत्वेनात्मन। सप्ताचिःसंगतं तोयमिवावश्यंभाविविकारत्वाल्लौकि कसंगात्संयतोऽप्यसंयत एव स्यात् । ततो दुःखमोक्षार्थिना गुणः समोऽधिको वा श्रमणः श्रमणेन ___ नामसंज-त सम गण समण समण गण वा अहिय त णिच्चं जदि दुवखपरिमोक्ख । धातुसंज अधि वस निवासे, इच्छ इच्छायां। प्रातिपदिक-तत्सम गण श्रमण श्रमण गुण या अधिक तत् नित्यं यदि दूःखपरिमोन । मूलधातु-अधि वस निबासे, इषु इच्छायां । उभयपदविवरण तम्हा तस्मात् गग्गादो गणात्पंचमी एक. 1 समं अहियं अधिकं-द्वितीया एक० । समण श्रमण दुरखपरिमोक्खं दुःखपरिमोक्ष-
दिए । तात्पर्य-श्रमणको गुणों में अपने समान या अपने से अधिक वाले श्रमणके सत्संग में रहना चाहिये।
टीकार्थ--चूकि प्रात्मा परिणामस्वभाव वाला होनेसे अग्निके संगमें रहे हुए पानीको तरह लौकिक संगसे विकार अवश्यंभावी होनेसे संयत भी असंयत ही हो जाता है। इस कारण दुःखोंसे छुटकारा चाहने वाले श्रमणको समान गुण वाले श्रमणके साथ अथवा अधिक गुण वाले श्रमणके साथ सदा ही निवास करना चाहिये। उस प्रकार रहनेसे इस धमाके शीतल घरके कोने में रखे हुये शीतल पानीकी भांति समान गुरगवालेकी संगतिसे गुण रक्षा होती है, और अधिक शीतल हिमके संपर्क में रहने वाले शोतल पानीकी भांति अधिक गुण वालेके संगसे गुणवृद्धि होती है । इत्याध्यास्य इत्यादि । प्रर्थ-इस प्रकार शुभोपयोगजनित किसी प्रवृत्तिका सेवन करके यति सम्यक् प्रकारसे संयमको श्रेष्ठतासे क्रमशः परम निवृत्तिको प्राप्त होता हुग्रा; जिसका रम्य उदय समस्त वस्तुसमूहके विस्तारको लोलामात्र से प्राप्त हो जाता है ऐसी शाश्वती ज्ञानानन्दमयी दशाका एकान्ततः अनुभव करो।
प्रसङ्गविवरण-अनन्तरपूर्ण गायामें प्रतिव्य असत्संगमें बताये गये असत्का अर्थात लौकिकजनका लक्षण उपलक्षित किया गया था। अब इस गाथामें सत्संगको विधेयता दिखाई
तथ्यप्रकाश-१- जैसे अग्निकी संगतिसे जल संतप्त हो जाता है, इसी प्रकार लो.
Page #519
--------------------------------------------------------------------------
________________
..
........
प्रवचनसाथ---सप्तदशाङ्गी टीका नित्यमेवाधिवसनीयः स्थास्य शीलापवरककोणनिहितशीततोयवत्समगुणसंगाद्गुणरक्षा शीततरतुहिनशर्करासंपृक्तशीततोयवत् गुणाधिकसंगात् गुणवृद्धिः ॥ इत्यध्यास्य शुभोपयोगजनितों को. चित्प्रवृत्ति यतिः सम्यक् संयमसौष्ठवेन परमा क्रान्निवृत्ति क्रमात् । हेलाक्रान्तसमस्तवस्तुधि. सरप्रस्ताररम्योदयां ज्ञानानन्दमयों दशामनुभवत्वेकान्ततः शाश्वतीम् ।।१७।। इति शुभोपयोगप्रज्ञापनम् ।
अथ पञ्चरत्नम् । तन्त्रस्यास्य शिखण्डमण्डनमिव प्रद्योतयत्सर्वतोद्वैतीयोकमथार्हतो भगवतः संक्षेपत: शासनम् । व्याकुर्वञ्जगतो विलक्षणपथां संसारमोक्षस्थित्ति जीयात्संप्रति पञ्च. रत्नमनघं सूत्ररिमः पञ्चभिः ॥१८॥२७०।। गोहि म णैः-तृतीया बहु । अधिवसदु अधिवसतु-आज्ञार्थे अन्य० एक० क्रिया । तम्हि तस्मिन्-सप्तमी एक० । णिच्चं नित्यं जदि यदि--अव्यय । इच्छदि इच्छति-वर्त अन्य० एक० क्रिया। निरूक्ति-समयत्ते समयति था इति सभ: (समा-- अच्) सम अयिकले चुरादि । समास-('दुःसस्य परिमोक्षः दुःखपरिमोक्षम् ) ॥२७॥ किकसंगतिसे संयत भी असंयत हो जाता है । २- दुःखसे छुटकारा पाने के अभिलाषी श्रमरण को अपनेसे अधिक गुण वाले श्रमण की संगति करना चाहिये अथवा समान गुण वाले श्रमण की संगति करना चाहिये । ३- छापनेसे गुणाधिक श्रमणको संगति गुणवृद्धि होती है जैसे कि बर्फ शर्करासे संपृक्त जलमें शीतलताकी वृद्धि होती है । ४- अपने समान गुण वाले श्रमणकी संगतिसे गुणरक्षा होतो है जैसे कि शीतल घरके कोने में रखा हुअा जल शीतल रहता है। ५- श्रमण भोपयोगजनित प्रवृत्तिका सेवन करके संयमकी श्रेष्ठताकी ओर ही बढ़ता है और परमनिवृत्तिको प्राप्त कर शाश्वती ज्ञानानन्दमयो अवस्थाका अनुभव करता है ।
सिद्धान्त---- (१) श्रम शुद्धभावनाके बलसे शुद्धताकी ओर बढ़ता है और कर्मभारसे मुक्त हो जाता है।
दृष्टि-१-- शुद्धभावनापेक्ष शुद्धद्रव्याथिकनय (२४ब) ।
प्रयोग-... दुःखोंसे छुटकारा पानेके लिये सहज अन्तस्तत्त्वमें लोन होनेका मुख्य ध्येय रखते हुए गुणाधिक श्रमणको अथवा समान गुण वाले श्रमणकी संगतिमें रहना ॥२७॥
इस प्रकार शुभोपयोग प्रजापन पूर्ण हुना।
अब पांच रत्नों जैसी पांच गाथायें कहते हैं, उसकी उत्थानिका तन्यस्यास्य इत्यादि । अर्थ---अब इस शास्त्रके चूड़ामणि समान व संक्षेपसे अर्हन्तभगवान के समय अद्वितीय शासन को सर्वतः प्रकाशित कर रहे व इन पांच सूत्रोंके द्वारा विलक्षण पंथ वाली संसार-मोक्षकी स्थितिको जगतके समक्ष प्रगट कर रहे निर्मल पंच रत्न जयवन्त बों।
Page #520
--------------------------------------------------------------------------
________________
५०६
अथ संसारतत्त्वसुद्घाटयति-
सहजानन्दशास्त्रमालायां
जे जधागहिदत्था एदे तच ति सिच्चिदा समये । यच्चंत फलसमिद्ध' भमंति ते तो परं कालं ॥ २७१ ॥ जो अन्यथा हि जाने, जिनमत में वस्तुतत्त्व यौं निश्चित ।
ये श्रनन्तविधि फलयुत, चिरकाल यहां भ्रमरण करेंगे ॥ २७१ ।।
ये अयथागृहीतार्था एवं तस्यमिति निश्चिताः समये । अत्यन्तफलसमृद्धं भ्रमन्ति ते अतः परं कालम् २७१। ये स्वयमविवेकतोऽन्यथैव प्रतिपद्यार्यानित्यमेव तत्त्वमिति निश्चयमारचयन्तः सततं समुपचोयमान महामोहमलमलीमसमान सतया नित्यमज्ञानिनो भवन्ति ते खलु समये स्थिता अप्यनासादितपरमार्थश्रामण्यतया श्रमाभासाः सन्तोऽनन्तकर्मफलोपभोगप्राग्भार भयंकर मनन्तकालमनन्त भावान्तरपरावर्तेरनवस्थितवृत्तयः संसारतत्वमेवावबुध्यताम् ॥ २७१ ॥
--
नामसंज्ञ - ज अजथागहिदत्थ एत तच्च ति णिदि समय अच्चंत फलसमिद्ध त तो पर काल | धातुसंज्ञ भ्रम भ्रमणे । प्रातिपदिकयत् अयथागृहीतार्थ एतत् तस्य इति निश्चित समय अत्यन्त फलसमृद्ध तत् ततः पर काल । मूलधातु भ्रम भ्रम । उभयपदविवरण – जे ये अजधादित्था यथागृहीतार्था: एवं एते विच्छिदा निश्चिताः ते प्रथमा बहुवचन । तच्च तत्त्वं प्रथमा एक० । त्ति इति तो ततः - अव्यय । समये - सप्तमी एक अच्चतफलसमिद्धं अत्यन्तफलसमृद्धं परं कालं द्वि० एक० भमंति भ्रमन्ति-वर्त० अन्य बहु० क्रिया । निरुक्ति-सम् पतिस्म ऋध्नोतिस्म वा इति समृद्धतं (सम् ऋ + क्त) ऋ दिवादि रुधादि । समास - अयया गृहीता अर्था: यस्ते अयथागृहीतार्थाः, अन्तमतिक्रान्तम् अत्यन्तम् अत्यन्तं फलेन समृद्ध: अत्यन्तफलसमृद्धः तं अत्यन्तफलसमृद्धं ||२७
अब संसारतत्वको उघाहते हैं - [ ये ] जो [समये] भले हो द्रव्यलिंगी के रूपमें जिन मत में हो तथापि [ एते तत्त्वम् ] ये तत्व हैं [ इति निश्चिताः ] इस प्रकार निश्चय कर चुके वे [यथागृहोतार्थाः] पदार्थोको प्रयथार्थतया ग्रहण करने वाले हैं [ततः ते ] सो वे [ अतः ] इस वर्तमानकालसे यागे [ अत्यन्तफलसमृद्धम् ] अत्यन्तफलसमृद्ध [ परं कालं ] ग्रागामी काल में [ भ्रमन्ति ] परिभ्रमण करेंगे ।
तात्पर्य --- विपरीत अर्थस्वरूपका निश्चय करने वाले श्रज्ञानी साधु दुःखफलसे भरे हुए ग्रागामो कालमें भी भ्रमण करेंगे।
टोकार्थ- जो स्वयं अविवेकसे पदार्थोको अन्य प्रकारसे ही समझकर 'ऐसा ही तत्त्व है' ऐसा निश्चय करते हुये, सतत एकत्रित किये जाने वाले महा मोहमलसे मलिन मन वाले होनेसे नित्य प्रज्ञानी हैं, वे भले ही बाह्यतः जिनमार्ग में स्थित है तथापि परमार्थ श्रामन्धको प्राप्त न होनेसे वास्तव में श्रमाभास वर्तते हुये, अनन्त कर्मफलके उपभोगभोगभारसे भयंकर
Page #521
--------------------------------------------------------------------------
________________
पथ मोक्षतस्त्वमुद्घाटयति-
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
प्रजधाचारवित्तो जघत्थपदगि त्रिदो पसंतप्पा | फले चिरं जीवदि इह सो संपुरणसामण्णो ॥ २७२ ॥ निश्चितयथार्थपद अय-थाचार विद्युत प्रशान्तात्मा ।
५०७
श्रामण्यपूर्ण श्रात्मा, निष्फल संसार में न चिर रहता ॥ २७२॥
अथथाचारवियुक्तो यथार्थपदनिश्चितः प्रशान्तात्मा । अफले चिरं न जीवति इह स संपूर्ण श्रामण्यः ॥ २७२ यस्त्रिलोक चूलिकायमान निर्मल विवेकदीपिकालोकशालितया यथावस्थित पदार्थनिश्चय
नामसंज्ञ - अजधाचार विजुत जदत्थपदणिच्छिद पम्प अफल चिरं ग इह त संपुष्णसामण्ण धातुसंज्ञ-जीव प्राणधारणे । प्रातिपदिक-- अवश्राचारवियुक्त यथार्थपदनिश्चित प्रशान्तात्मन् अफल ऐसे अनन्त काल तक अनन्त भावान्तररूप परावर्तनोसे अनवस्थित वृत्ति वाले रहनेसे, उनको संसारतत्व ही जानना |
प्रसङ्गविवरण - श्रनन्तरपूर्व गाथा में सत्संगको बिधेयताका विवरण करते हुए शुभो - पयोग प्रज्ञापनका उपसंहार किया गया था । श्रव प्रकरणसम्मत मोक्षतत्त्व व उसके साधनतत्त्व को प्रकट करनेके स्थल में सर्वप्रथम उसके प्रतिपक्षभूत संसारतत्त्वको एक इस गाथामें उघाड़ डाला है ।
तथ्यप्रकाश--- ( १ ) श्रमराभासको संसार तस्व ही समझना । (२) संसारतत्त्व वे है जो अनन्तकर्मफल भोगते हुए अनन्तकाल अनन्त भावान्तरपरिवर्तनोंसे अनवस्थित डांवाडोल अस्थिर परिणमन करते रहते हैं । (३) जिन्होंने द्रव्यत: निर्ग्रन्थलिङ्ग धारण करके भी वि चारव्यामोहसे मलीमस मानस होनेके कारण परमार्थं श्रामण्यको प्राप्त नहीं कर पाया वे श्रमाभास हैं । ( ४ ) श्रमगाभास स्वयं ग्रविवेकवश पदार्थोंको अन्यथा समझकर तत्व यही है ऐसा विपरीत निश्चय रचते हुए अपने ऐसे विचारोंमें न्यामुग्ध रहते हैं । (५) संसारतत्त्व से हटकर मोक्षतत्त्व वाला भव्यात्मा आदर्श तत्त्व है ।
सिद्धान्त -- (१) संसारतत्त्व सोपाधि शुद्ध तत्व है ।
दृष्टि - १ - उपाधि सापेक्ष नित्य अशुद्ध पर्यायाधिकनय ( ४० ) |
प्रयोग - श्रात्म कल्याण के लिये आत्मकरुणा करके सहजात्मस्वरूपका प्रत्यय करते हुए संसारतत्वको मूलतः उखाड़कर हटा देना ||२७१ ॥
मोक्षतत्वका उद्घाटन करते हैं [अयथाचारवियुक्तः ] अयथाचारसे रहित [ यथार्थपदनिश्चितः ] यथार्थतया पदोंका तथा पदार्थोंका निश्चय वाला [ प्रशान्तात्मा] प्रशान्त
Page #522
--------------------------------------------------------------------------
________________
asininme
n
५०
सहजानन्दशास्त्रमालायां
''''''hinininin' isiriaisirsIIIIIIIIIIIIPOISimsastrIST
निवतितोत्सुक्यस्वरूपमन्थरसततोपशान्तात्मा सन् स्वरूप मेकमेवाभिमुख्येन चरन्नयथाचारवियुक्तो नित्यं ज्ञानी स्यात् स खलु संपूर्णश्रामण्या साक्षात् श्रमणो हेलावकोसकलप्राक्तनकर्मफलत्वादनिष्पादितनूतनकर्मफलत्वाच्च पुन: प्राणधारणदेन्यमनास्कन्दन् द्वितीयभावपरावर्ताभावात् शुद्धस्त्र भावावस्थितवृतिर्मोक्षतत्वमवबुध्यताम् ।।२७२।। चिरं न इह तत् संपुणणसामण्ण । मूलधातु- जीव प्राणधारणे । उभयपदविवरण---अजधाचारविजुत्तो अयथाचारवियक्तः जपत्थपदणिच्छिदो यथार्थपदनिश्चित: पसंतप्पा प्रशान्तात्मा सो स: संपूष्णसामण्णो संपूर्ण थामध्य:-प्रथमा एकवचन । अफले-सप्तमी एक- । चिरं ण न इह-अव्यय । जीवदि जीवति-वर्तभान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । निरुक्ति- सम् पूरयतिस्म इति संपूर्णम् (सम् पूर+क्त) पूरी आप्यायगे । समास-अयथाचारेण वियुक्तः, अयथाचारवियुक्तः, प्रशान्तः आत्मा यस्य सः प्रशान्तात्मा, ... सांपूर्ण थामण्यं यस्थ सः पूर्णश्रामण्यः ॥२७२॥ है आत्मा जिसका [स: संपूर्णश्रामण्यः] ऐसा वह सम्पूर्ण श्रामण्य वाला जीव [अफले] कर्मफलरहित हुए [इह] इस संसार में [चिरं न जीवति] चिरकाल तक नहीं रहता।
तात्पर्य-निर्दोष प्राचरमरा वाला यथार्थनिश्चयी शान्त श्रमण अल्पकाल में ही मुक्त हो जाता है।
____टोकार्थ-जो (श्रमण) त्रिलोककी चूलिकाके समान निर्मल विवेकरूपी दीपकके प्रकाश वाला होनेसे यथावस्थित पदार्थनिश्चयसे उत्सुकताको दूर करके स्वरूपमथर रहनेसे सतत 'उपशांतात्मा' वर्तता हुना, एक स्वरूपको ही अभिमुखतया पाचरता हुअा 'अयथाचार रहित' हुया नित्यज्ञानी है, वास्तव में उस सम्पूर्ण श्रामण्य वाले साक्षात् श्रमणको मोक्षतत्व जानना, क्योंकि वह पहलेके सकल कोंके फलको लीलामात्रमें नष्ट कर देने से और नूतन कर्मफलोंको उत्पन्न नहीं करनेसे पुनः प्राण धारणरूप दीनताको प्राप्त न होता हुआ द्वितीय भावरूप परावर्तनके अभावके कारण शुद्धस्वभावमें अवस्थित वृत्ति बाला रहता है ।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें संसारतत्वको उखाड़ डाला था । अब इस गाथा में मोक्षतस्वका उद्घाटन किया गया है।
तथ्यप्रकाश---१- जिनको शुद्धात्मस्वभावमें वृत्ति स्थिर होती है और द्वितीय (अन्य) भावमें कभी नहीं आते वे श्रमण मोक्षतत्त्व हैं । २- श्रमण स्वरूपदृष्टिकी लीलामात्रमें समस्त कर्मफलोंको बिखेर डालते हैं नबीन कर्मफलोंको उत्पन्न नहीं करते, अतएव पुनः प्राण धारणको दीनताको प्राप्त नहीं होते । ३-मोक्षतस्वरूप श्रमण निर्मलविवेक प्रकाशयुक्त होनेसे यथार्थ पदार्थका निश्चय कर लेनेसे उत्सुकतावोंके क्षोभसे रहित हैं, अत एव स्वरूपमें तृत होनेसे अब स्वरूपसे बाहर निकलनेमें अलसाता है । ४-यथार्थज्ञानी प्रशान्तात्मा श्रमण एक
Page #523
--------------------------------------------------------------------------
________________
watiwwwwwwwsanskamways
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका
५०६
r
AMASModi-Mahamandutomwwwwwstracetamanne
।
अथ भोक्षतत्त्वसाधनतत्वमुद्घाटयति-----
सम्म विदिदपदत्या चत्ता उवहिं बहित्थमझत्यं । विसयेसु णावसत्ता जे ते सुद्ध ति णिदिवा ॥२७३॥ सम्यक् पदार्थवेत्ता, बहिस्थ मध्यस्थ सब परिग्रह तजि ।
अनासक्त विषयों में, जो हैं वे शुद्ध कहलाते ॥ २७३ ।। सम्यग्विदितपदार्थास्त्यबत्योपधि बहिस्थमध्यस्थम । विषयेषु नाबसक्ता ये ते शुद्धा इति निविष्टा ।।२५३॥
अनेकान्तकलितसकलज्ञातृज्ञेयतत्त्वयथावस्थितस्वरूपपाण्डित्यशोण्डाः सन्तः समस्तब. हिरलान्तरङ्गसङ्गतिपरित्या विविक्तान्तश्चकचकायमानानन्तशक्तिचैतन्यभास्वरात्मतत्त्वस्वरूपाः स्वरूपगुप्तसुषुप्त कल्पान्तस्तत्त्व वृत्तितया विषयेषु मनागव्यासक्तिमनासादग्रन्तः समस्तानुभाववन्तो
नामसंज्ञ-सम्म णिनिद्रपदस्थ उहि बहिस्थमज्भस्थ विसय ण अवसत्त ज त सुन्द्र ति णिहिट । धातुसंज्ञ-णि दिस प्रेक्षणे दाने च । प्रातिपदिक-सम्यक् विदितपदार्थ उपधि बहिस्थमध्यस्थ विषय न अवसक्त यत् तत् शुद्ध इति निदिष्ट । मूलधातु-निर दिश अतिसर्जने । उभयपदविवरण... सम्म सम्यक शान त्ति इति-अव्यय । विदिदपदस्था विदितपदार्था:-प्रथमा बहुवचन । चत्त त्यक्त्वा सम्बन्धार्थप्रकिया अव्यय । उहि उपचि बहिस्थ मज्झत्थं बहिस्थमध्यस्थ-द्वि० एक० । विसयेसु विषयेशु-सप्तमी बहु । सहजात्मस्वरूपकी अभिमुखतासे वृत्ति करते हैं, अतएव स्वच्छन्दाचारसे रहित नित्य ज्ञानी होता हुआ अब इस संसारमें चिर काल नहीं रह सकता, अल्पकालमें ही मुक्त हो जाता है । . सिद्धान्त-(१) मोक्षतत्त्वरूपश्रमणा अखण्ड अन्तस्तत्त्वका अभेद दर्शन करते हैं।
दृष्टि-.-१-शद्धनय (४६) ।
प्रयोग--संसारसंकटों से छुटकारा पाने के लिये यथार्थज्ञानी निःशल्य निर्गन्ध प्रशान्तात्मा होकर स्वरूपमें उपयुक्त होनेका सहज पौरुष होने देना ॥२७२॥
अब मोक्षतत्त्वका साधनतत्त्व उद्घाटित करते हैं।—[सम्यग्विदितपदार्थाः] यथार्थतथा जाना है पदार्थों को जिनने [ये ऐसे जो श्रमण [बहिस्थमध्यस्थम्] बहिरंग तथा अन्तरंग [उपधि] परिग्रहको [त्यक्त्वा] छोड़कर [विषयेषु न अवसक्ताः] विषयों में प्रासक्त नहीं हैं, ति] वे [शुद्धाः इति निर्दिष्टाः] 'शुद्ध' कहे गये है।
तात्पर्य----यथार्थज्ञानी निःसंग विषयानासक्त श्रमण शुद्ध कहे गये हैं।
रोकार्थ-अनेकान्तके द्वारा कलित सकल ज्ञातृतत्व और ज्ञेयतत्त्वके यथास्थित स्व. रूपमें प्रवीण होते हुए समस्त बहिरंग तथा अन्तरंग संगतिके परित्यागसे विविक्त अन्तरंगमें चकचकायमान है अनन्तशक्तिवाले चैतन्यसे तेजस्वी आत्मतत्त्वका स्वरूप जिनका, स्वरूप गुप्त तथा सुषुप्त समान प्रशांत अात्माकी परिणति रहनेसे विषयोंमें किचित् भी आसक्तिको
HEAHOSAREE
Page #524
--------------------------------------------------------------------------
________________
५१०
सहजानन्दशास्त्रमालायां भगवन्तः शुद्धा एवासंसारघटितविकटकर्मकवाटविघटनपटीयसाध्यबसायेन प्रकटोक्रियमाणाव. दाना मोक्षतस्वसाधनतत्त्वमवबुध्यताम् ॥२७३।। अवसत्ता अवसरता: सुद्धा शुद्धा:-प्रथमा बहुवचन । पिहिता निर्दिष्टा:-प्रशमा बह० कृदन्त क्रिया । निरुक्ति- सम् अंचति अचनं वा सम्यक (सम अंचि-+क्विन् सामि आदेश: नलोपः) अंन्यु गति पुजनयोः भ्वा. दि । समास- विदिताः पदार्था यस्ते इति विदिलपदार्थाः ॥२७॥ प्राप्त नहीं होते हुए सकल-महिमावान भगवन्त 'शुद्धोंको हो मोक्षतत्त्वका साधन तत्त्व जानना। क्योंकि वे अनादि संसार से रचित विकट कर्मकपाटको तोड़ने के प्रति उग्र प्रयत्नसे पराक्रम प्रगट कर रहे हैं ।
प्रसंगविवरण ----अनन्तरपूर्व गाथामें मोक्षतत्त्वका उद्घाटन किया गया था ! अब इस गाथामें मोक्षतत्वके साधनतत्त्व का उद्घाटन किया गया है।
तथ्यप्रकाश.---- १ -- शुद्धोपयोगी महाश्रमण मोक्षतत्वके साधनतत्त्व हैं । २-महाश्रमण अनेकान्तकलित समस्त जातृतत्त्व व ज्ञेयतत्त्वके यथार्थ ज्ञाता हैं । ३-- महाश्रमण समस्त बहिरंग अन्तरंग परिग्रहके संगका परित्याग कर देनेसे अन्तरङ्गमें अनन्तशक्तिमय चैतन्यसे तेजस्वी विकासमान प्रात्मतत्त्वस्वरूप हैं ! ४–महाश्रमण स्वरूपगुप्त होने से प्रशान्त अन्तस्तत्ववृत्ति वाले होनेसे विषयोंमें रंच भी प्रासक्त नहीं हैं । ५-चैतन्यचमत्कारकी समस्त महिमा दाले शुद्धोपयोगी महाश्रमण मोक्षतत्त्वके साधनतत्व हैं।
__ सिद्धान्त-१- मोक्षतत्त्वसाधनतत्त्वमय महाश्रमण स्वरूपसे प्रकट स्वतंत्रचिद्विलास को अनुभवते हैं।
___दृष्टि--१-अनीश्वरनय (१८६), शुद्धनय (१६८, ४६), ज्ञाननय (१६४), अविकल्पनय (१६२)।
प्रयोग-शाश्वत शुद्ध वर्तनेके लिये सम्यक् तत्त्वज्ञान पाकर अन्तर्बाह्यपरिग्रहको त्यागकर विषयोंसे विरक्त हो शुद्ध अन्तस्तत्त्वका ध्यान धरना ॥२७३।।
अब मोक्षतत्त्व के साधनतत्वको (शुद्धोपयोगीको) सर्व मनोरथोके स्थानपनेसे अभिनन्दन करते हैं----[शुद्धस्य] शुद्धोपयोगीके [श्रामण्यं भणितं] श्रामण्य कहा है, [च शुद्धस्य] और शुद्धोपयोगोके [दर्शनं ज्ञान] दर्शन तथा ज्ञान कहा है, और [च शुद्धस्य j शुद्धोपयोगी के [निर्वाणं] निर्माण होता है, [च सः एव] और वही शुद्ध मोक्षसाधन तत्त्व [सिद्धः] सिद्ध होता है; [तस्मै नमः] उन्हें नमस्कार हो।
तात्पर्य --- शुद्धोपयोगीके श्रामण्य दर्शन ज्ञान है व उसका ही निर्वाण होता है और
Page #525
--------------------------------------------------------------------------
________________
१११
प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका अथ मोक्षतत्त्वसाधनसत्त्वं सर्वमनोरथस्यानत्वेनामिनदन्यति---
सुद्धस्स य सामण्णं भणियं सुद्धस्स दंसणं गाणं । सद्धस्स य शिव्वाणं सो चिय सिद्धो मो तस्स ॥२७४॥
श्रामण्य शुद्धके हो, दर्शन ज्ञान भी शुद्ध के होते ।
निर्वाण शुद्धका है, सो मैं उस सिद्धको प्रणम् ॥२७४॥ शुद्धस्य च श्राग्यं भणितं शुद्धस्य दर्शनं ज्ञानम् । शुद्धस्य च निर्वाण स च एव सिद्धो नमस्तस्मै ।।२७४।।
यत्तावत्सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रयोगपद्यप्रवृत्त काग्यलक्षणं साक्षान्मोक्षमार्गभूतं श्रामण्यं तच्च शुद्धस्यैव । यसच समस्तभून भवद्भानि व्यतिरेककरम्बितानन्तवस्त्वन्वयात्मकविश्व सामान्यविशेषप्रत्यक्षप्रतिभासात्मक दर्शनं ज्ञानं च तत् शुद्धस्यैव । यच्च निप्रतिविम्भितसहजज्ञाना. नन्दमुद्रितदिव्यस्वभावं निर्वाणं तत् शुद्धस्यैव ! पश्च टोत्कीर्णपरमानन्दावस्थासु स्थितात्म
नामसंज्ञ----सुद्ध य सामण्ण भणिय सुद्ध दंसण णाण सुन्द्ध य णिवाण त च इय सिद्ध णमो त । धातुसंज्ञ-भण कथने । प्रातिपदिक-शुद्ध च श्रामण्य भणित शुद्ध दर्शन ज्ञान शुद्ध व निर्वाण स च एव सिद्ध नमः तत् । मूलधातु.... 'भण शब्दार्थः । उभयपदविवरण---शुद्धस्स शुद्धस्य--षष्ठी एव० य च इय एव णमो नम:-अव्यय सामग्ण सामान्य दसणं दर्शनं गाणं ज्ञानं णिव्वाणं निर्वाण सो सः सिद्धो सिद्धः
वही सिद्ध होता है।
टोकार्थ-..-वास्तनमें सम्यग्दर्शन-ज्ञान चारित्रके योगपद्य में प्रवर्तमान एकाग्रता जिसका लक्षण है ऐसा साक्षात् जो मोक्षमार्गभूत जो श्रामण्य है वह 'शुद्ध' के ही होता है । और जो समस्त भूत-वर्तमान-भावो व्यतिरेकोंके साथ मिलित, अनन्त वस्तुप्रोका अन्वयात्मक विश्वके सामान्य और विशेष के प्रत्यक्ष प्रतिभासस्वरूप दर्शन और ज्ञान है वह 'शुद्ध' के हो होता है । और जो निविघ्न खिले हुये सहज ज्ञानानन्दकी मुद्रावाला दिव्य जिसका स्वभाव है ऐसा निर्वाण है वह 'शुद्ध' के ही होता है । और जो टंकोत्कीर्ण परमानन्दरूप अवस्थानों में स्थित प्रात्मस्वभावकी उपलब्धि से गंभीर भगवान सिद्ध है वह 'शुद्ध' हो होता है ! वधन विस्तारसे बस हो. ? सर्व मनोरथोंके स्थानभूत, मोक्षतत्त्वके साधनतत्त्वरूप, 'शुद्ध' को, जिसमेंसे परस्पर अंग-अंगीरूपसे परिणमित भावक: भाव्यताके कारण स्व-परका विभाग अस्त हुआ है ऐसा भावनमस्कार होयो।
प्रसंगविवरण-अनन्त र पूर्व गाथामें मोक्षतत्त्वके साधन तत्वकी महिमा कही गई यी। अब इस माथामें उसी तत्त्वका अभिनन्दन किया गया है ।
तथ्यप्रकाश-. १-मोक्षतत्व के साधनतत्त्वमय शुद्धोपयोगको भावनमस्कार होगी।
Page #526
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां
स्वभावोपलम्भगम्भीरो भगवान् सिद्धः स शुद्ध एव । श्रलं वाग्विस्तरेण, सर्वमनोरथस्थानस्य मोक्षतत्त्वसाधनतत्वस्य शुद्धस्य परस्परमङ्गाङ्गिभावपरिणत भाव्यभावकत्वात्प्रत्यस्तमितस्वपरविभागो भावनमस्कारोऽस्तु ॥ २७४॥
५१२
प्रथमा एकवचन | भषियं भणितं प्र० ए० कृ० क्रिया तस्स-षष्ठी एकवचन । तस्थं चतुर्थी एकवचन | निरुक्ति शुद्धतम इति शुद्धः ( शुध् + क्त) शुध शौचे दिवादि || २७४।।
५-- सहजानन्तज्ञानानन्द
२ - जहाँ सहजशुद्धात्मस्वरूपका ऐसा एकाग्र ध्यान होता है कि ज्ञाता ज्ञेय स्वतस्व एक हो जाते हैं और स्वपरका विभाग ग्रस्त हो जाता है ऐसे ज्ञानानुभवको भावनमस्कार कहते हैं । ३- शुद्धोपयोग सर्वस्व सिद्धिका स्थान है । ४- टोत्कीर्णवत् निश्चल सहजपरमानन्दवृत्ति में स्थित श्रात्मस्वभावकी उपलब्धिसे यह शुद्ध चेतन तत्त्व गम्भीर है । मुद्रित परमचमत्कारमय निर्धारण इस शुद्ध उपयोगका ही होता है । ६ - इस मोक्षतत्त्वसाधन तत्त्वमय शुद्ध उपयोग के हो दर्शन ज्ञान स्पष्ट होता है । ७- साक्षात् मोक्षमार्गभूत श्रामण्य शुद्ध उपयोग ही होता है । ८- सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्रका एकत्व में वर्तनारूप परम ऐकाग्रय साक्षात् मोक्षमार्ग है। ई- निर्विकार शुद्ध चिवृत्तिस्वरूप श्रामण्य जयवन्त होश्रो ।
सिद्धान्त - १ - मोक्षतस्त्वसाधनतत्त्व विकसित सहजात्मस्वरूप है ।
दृष्टि - १ - शुद्धनिश्चयनय ( ४६ ) |
प्रयोग - परभाव से विविक्त स्वयंपरिपूर्ण चित्स्वरूपके अवलम्बनसे चिच्चमात्कारमय शाश्वत स्वकीय अभिनन्दन से अभिनन्दित रहना ॥ २७४॥
o ग्रन्थकर्ता पूज्य श्री कुन्दकुन्दाचार्य देव शिष्यजनको शास्त्र के फलके साथ जोड़ते ये शास्त्र समाप्त करते हैं [ यः ] जो [ साकारानाकारचर्यया युक्तः ] साकार - अनाकार चर्या युक्त हुआ [ एतत् ] शासन] इस शास्त्रको [बुध्यते ] जानता है, [स] वह [ लघुना कालेन ] अल्पकाल में ही [ प्रवचनसारं ] प्रवचन के सारभूत परमात्मभावको [प्राप्नोति ] प्राप्त करता है । तात्पर्य - जो अणुव्रती या महाव्रती इस उपदेशको यथार्थरूपसे जानता है वह अल्पकालमें सहजात्मस्वरूपको प्राप्त करता है ।
टोकार्थ - सुविशुद्धज्ञानदर्शनमात्र स्वरूप में अवस्थित परिणति में लगा होनेसे साकार अनाकार चर्यासे युक्त वर्तता हुआ जो शिष्यवर्ग स्वयं समस्त शास्त्रोंके अर्थ विस्तारसंक्षेपाers श्रुतज्ञानोपयोग पूर्वक प्रभाव द्वारा केवल श्रात्माको अनुभवता हुआ, इस उपदेशको जा नता है वह वास्तव में, स्वसंवेद्य-दिव्य ज्ञानानन्द जिसका स्वभाव है ऐसे, पहले कभी अनुभव
Page #527
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार--सप्तदशाङ्गी टीका अथ शिष्यजनं शास्त्रफलेन याजयन शास्त्रं समापयति----
बुज्झदि सासणमेय सागारागारचरियया जुत्तो। जो सो पश्यासारं लहणा कालेण पप्पोदि ॥२७॥ जाने इस शासनको, साकार अनाकार चरित युत जो।
वह स्वल्पकाल में हो, प्रवचनके सारको पाता ॥२७५।। बुध्यते शासन मेतत साकारानाकार श्वयंया युक्तः । यः स प्रवचनमार लघुना कालेन प्राप्नोति ।। २७५ ।।
यो हि नाम विशुद्धज्ञानदर्शनमात्रस्वरूपव्यबस्थितवृत्तिसमाहितत्वात् साकारानाकारचर्यया यक्तः सन् शिष्यवर्गः स्वयं समस्तशास्त्रार्थविस्तर पंक्षेपात्मकश्रुतज्ञानोपयोगपूर्वकानुभावेन केवलमात्मानमनुभवन शासन मेतबुध्यते स खलु निरवधित्रिसमयप्रवाहावस्थायित्वेन सकलार्थ
नामसंज-सासण एत सागारणगारचरिया जुत्त जत पवयणसार लहु काल । धातुसंज्ञ--बुझ अब गमने, ५ अप्प अर्पयो । प्रातिपदिक----शासन एतत् साकारानाकारचर्या युक्त यत् तत् प्रवचनसार लघु काल । मूलधातु-बुध अवगमने, आम्ल व्याप्तौ । उभयपदविवरण-बुज्झदि बुध्यते पप्पोदि प्राप्नोतिवर्तः अन्य एफ० क्रिया सासणं शासनं एय एतत् पदयणसार प्रवचनसारं-द्वितीया एकवचन । सागारणगारचरियथा साकारालाकारचर्यया-तृतीया एकवचन । जुत्तो युक्तः जो यः सो स:-प्रथमा एकः । नहीं किय गये, भगवान प्रात्माको पाता है---जो कि (जो प्रात्मा) तीनों कालके निरवधि प्रवाहमें अब स्थायो होनेसे सकल पदार्थोंके समूहात्मक प्रबधनका सारभूत शाश्वत सत्यार्थ स्वसंवेद्य दिव्य ज्ञानानन्द है स्वभाव जिसका ऐसे अननुभूतपूर्व भगवान स्वात्माको प्राप्त करता है।
प्रसंगविवरण– अनन्तरपूर्वी गाथामें मोक्षतत्त्वसाधनतत्वका अभिनन्दन किया था । अब इस गाथामें शिष्यजनको पाास्त्रफलसे योजित करते हुए शास्त्रका समापन किया गया है ।
तथ्यप्रकाश-.. १-जो शिष्य श्रमण साकार अनाकारचर्यासे युक्त होता हुमा केवल प्रात्मतत्त्वको अनुभवता हुमा इस शासन (उपदेश) को जानता है मानता है वह अल्पकालमें हो प्रवचनके सारभूत भगवान अात्माको प्राप्त होता है। २. सुविशुद्ध ज्ञानमात्र स्वरूपमें व्यवस्थित वृत्तिसे युक्त होना साकारचर्या है । ३-सुविशुद्ध दर्शनमात्रस्वरूपमें व्यवस्थित वृत्ति से युक्त होना अनाकारचर्या है । ४- व्यवहारचारित्र साकार चर्या है। ५-- निश्चयचारित्र अनाकारचर्या है । ६- गृहस्थाचार साकारचर्या है । ७--- श्रमणाचार अनाकार चर्या है । ८समस्त शास्त्रोंके प्रर्थके संक्षेपविस्तारात्मक श्रृतज्ञान के उपयोगपूर्वक ज्ञानानुभावसे केवल प्रात्मा का अनुभवन होना ही वास्तव मे शासनका बोध कहलाता है । 8- सहजात्मस्वरूपसवेदनसे
Page #528
--------------------------------------------------------------------------
________________ 514 सहजानन्दशास्त्रमालायां सात्मिकस्य प्रबचनस्य सारभूतं भूतार्थस्वसंवेद्यदिव्यज्ञानानन्दस्वभावमननुभूतपूर्व भगवन्तमा स्मानमवाप्नोति // 275 / / इति तत्त्वदीपिकायां श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां प्रवचनसारवृत्ती चरणानुयोग सूचिका चूलिका नाम तृतीयः श्रुतस्कन्धा समाप्तः / / लहुणा लघुना कालेग कालेन-तृतीया एकवचन / निरुक्ति-शुभे मरण सारः (मृ -- घन स गतौ)। समास--साकारो अनाकारा च सा चर्या चेति साकारानाकारचा तया साकारानाकारचर्ययावचनस्य सारः प्रवचनसार: त प्रवंचनसार 275 / / स्वसवेद्य ज्ञानानन्दस्वभाव अन्तस्तत्वका प्रतिभात हो जाना भगवान प्रात्माको उपलब्धि है। सिद्धान्तः– (1) सहजात्मस्वरूपके सचेतन में भगवान प्रात्माको उपलब्धि है। दृष्टि--१-- शुद्धनय (168), ज्ञाननय (164), अगुग्गिनय (188), अनोश्वरनय (186), स्वभावनय (176), नियतिनय (177), शून्यनय (173), अधिकल्पनय (162) / प्रयोग-प्रवचनसार स्थिति (शुद्ध सहजज्ञानानन्द स्थिति) पाने के लिये प्रवचनसार (परमागम.) का अध्ययन मनन बोध प्राप्त करके प्रवचनसार (भगवान यात्मा) की उपलब्धि करना // 25 // इति श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यप्रणीत प्रवचनसार ग्रन्थ व श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचित तत्व. दीपिका संस्कृत टीकाके साथ श्रीमत्सहजानन्दकृत सहजानन्दसप्तदशाङ्गी टोका समाप्त / R कम 2. पु. 1 दित्य नाशक्ति धा: :: : 1608 श्री विवि माजी महाराय . .