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सहजानन्दशास्त्रमालायां
ज्ञेयान्तगतत्वाभ्यां च नाभिलषति न जिज्ञासति न संदिह्यति च कुतोऽभिलषितो जिज्ञासितः संदिग्धश्चार्थः । एवं सति किं ध्यायति ॥ १६७॥
योग्यः ज्ञेयः । समास - निहतानि धनधातिकर्माणि येन सः घनघतिकर्मा, सर्व च ते भावाश्चेति सर्वभावः तेषां तत्त्वं स॰ सर्वभावतत्वं जानाति इति सर्वभावत्तत्त्वज्ञः ज्ञेयानां अन्तं गतः ज्ञेयान्तगतः ॥ १६७ ॥
मात्माने पहिले श्रमावस्था में केवलज्ञान व केवलज्ञान के फलभूत अनन्त सुख के निमित्त शुद्धा
भावनारूप ध्यान किया था । १३- शुद्धात्मभावनारूप ध्यानके प्रतापसे जब केवलज्ञान व अनन्तसुख प्राप्त हो गया तब किसलिये ध्यान किया जाता है ? १४- जब सकलप्रत्यक्ष ज्ञान न हो, पदार्थ परोक्ष रहे तब तो ध्यान बनता है, भगवान के सर्व सत् प्रत्यक्ष ज्ञात है फिर कैसे ध्यान हो सकता है ?
सिद्धान्त - ( १ ) परमात्मा पूर्ण सर्वज्ञ है । दृष्टि - १ - सर्वगतनय, श्रशून्यनय ( १७२,
( २ ) परमात्मा श्रनन्तानन्दमय है । १७४ ) । २ - शुद्ध निश्चयनय ( ४६ ) |
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प्रयोग- इस गाथोक्त प्रश्न प्रथवा प्राक्षेपके समाधानमें परमात्माको पूर्ण निर्दोषता पूर्ण सर्वज्ञता निरखकर अपने दोष व जिज्ञासा विकल्पको दूर कर स्वयं में स्वयंको श्रविकार स्वभाव ज्ञानमय व सहजानन्दमय अनुभवनेका पौरुष करना ॥१६७॥
अब जिसने शुद्धात्माको उपलब्ध किया है वह सकलज्ञानो परमसौख्यको ध्याता है, अर्थात् अनुभवता है यह उत्तर प्रसूत्रित करते हैं [ श्रनक्षः ] श्रनिन्द्रिय और [क्षातीत मूतः ] इन्द्रियातीत हुआ आत्मा [ सर्वाबाधवियुक्तः ] सर्व बाधारहित और [समंत सर्वाक्षसौख्यज्ञानादयः ] सर्व प्रकारके, परिपूर्ण सौख्य तथा ज्ञानसे समृद्ध रहता हुआ [ परं सौख्यं ] परम सख्यको [ ध्यायति ] ध्याता है अर्थात् अनुभवता है ।
तात्पर्य - - सर्वज्ञ प्रभु अनन्त श्रानन्दको अनुभवते हैं इसरूप हो उनका ध्यान 1
टीकार्थ - यह श्रात्मा जब ही सहज सुख और ज्ञानकी बाधा के प्रायतनभूत तथा असल आत्मामें सर्वप्रकारके सुख और ज्ञान के आयतनभूत इन्द्रियोंके प्रभाव के कारण स्वयं 'अतीन्द्रिय' रूपसे वर्तता है, उसी समय वह दूसरोंको 'इन्द्रियातीत' वर्तता हुआ निराबाध सहजसुख और ज्ञान वाला होने से 'सर्वबाधारहित तथा सकल आत्मामें सर्व प्रकार के ( परिपू) सुख और ज्ञानसे परिपूर्ण होनेसे 'समस्त श्रात्मामें समंत सौख्य और ज्ञान में समृद्ध' होता है । इस प्रकारका वह ग्रात्मा सर्वं श्रभिलाषा, जिज्ञासा और संदेह्का असम्भव होनेवर भी पूर्व और अनाकुलत्व लक्षण परमसौख्यको ध्याता है; अर्थात् अनाकुलत्वसे संगत एक
श्रात्मा संचेतन मात्ररूप श्रवस्थित रहता है, और ऐसा श्रवस्थान सहज ज्ञानानन्दस्वभाव