SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 363
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवचनसार-सप्तदशांगी टोका प्रथात्मनः कुतस्तहि पुद्गलकर्मभिरुपादानंहानं चेति निरूपयति-स इदाणिं कत्ता संसगपरिणामस्स दव्वजादस्स । यादीयदे कदाई विमुच्चदे कम्मधूलीहिं ॥ १८६॥ सवशुद्ध भी आत्मा, सम्प्रति हो स्वपरिणामका कर्ता । कर्मधूलिसे होता, बद्ध कभी छूट भी जाता ॥ १८६ ॥ स इदानों कर्ता सह स्वकपरिणामस्य द्रव्यजातस्य । "आदीयते कदाचिद्विमुच्यते कर्मधूलिभिः ॥ १८६ ॥ सोऽयमात्मा परद्रव्योपादानहानशून्योऽपि सांप्रतं संसारावस्यायां निमित्तमात्र कृत परद्रव्यपरिणामस्य स्वपरिणाममात्रस्य द्रव्यत्वभूतत्वात्केवलस्य कलयन कर्तृत्वं तदेव तस्य स्वपरिणामनिमित्तमात्रीकृत्योपात्त कर्मपरिणामाभिः पुद्गलधूलोभिविशिष्टावगाहरूपेणोपादीयते " • कदाचिन्मुच्यते च ॥ १८६॥ ३४६ नामसंश-त इदाणि कत्तार संत सगपरिणाम दव्वजाद कदाई कम्मधूलि । धातुसंज्ञ - आदा दाने, वि मंत्र त्यागे । प्रातिपदिक तत् इदानीं कर्तृ सत् स्वकपरिणाम द्रव्यजात कदाचित् कर्मधूलि | तधातु- दादाने मुल्लू मोक्षणे । उभयपदविवरण स सः कत्ता कर्ता से सन् प्रथमा एकवचन । इवाणि इदानीं कदाई कदाचित् अव्यय । सगपरिणामस्स स्वकपरिणामस्य दव्वजादस्य द्रव्यजातस्य पष्ठी एक० । आदीयदे आदीयते विमुच्चदे विमुच्यते वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन भावकर्मप्रक्रिया | कम्मलिहि कर्मधूलिभिः तृतीया बहुवचन । निरुक्ति- श्रूयते या सा धुलिः ञ कम्पने || १८६|| टीकार्थ-वह यह ग्रात्मा परद्रव्यके ग्रहण त्यागसे रहित होता हुआ भी ग्रभो संसाराSatara निमित्तमात्र किया गया है परद्रव्यपरिणाम जिसके द्वारा ऐसे केवल स्वपरिणाममात्र का द्रव्यत्वभूत होनेसे कर्तृत्वका अनुभव करता हुआ, उसके इसी स्वपरिणामको निमित्तमात्र करके कर्मपरिणामको प्राप्त होती हुई पुद्गलरजके द्वारा विशिष्ट अवगाहरूपसे ग्रहण किया जाता है श्रीर कदाचित् छोड़ा जाता है । प्रसंग विवरण -- अनन्तरपूर्व गाथामें युक्तिपूर्वक प्रात्माको पुद्गलपरिणामका कर्ता प्रसिद्ध किया था । अब इस गायामें बताया गया है कि फिर पुद्गलकर्मों द्वारा आत्माका ग्रहण व त्याग कैसे हो जाता है अर्थात् बन्ध मोक्ष कैसे हो जाता है ? तथ्यप्रकाश - ( १ ) श्रात्मा वस्तुतः परद्रव्यके ग्रहण व त्यागसे परे है अर्थात् बन्ध व मोक्षसे परे है । ( २ ) आत्मा परमशुद्ध निश्चयनयसे ग्रविकार सहजानन्दमय चिद्रूप शोध कार समयसाररूप है । (३) श्रात्मा अनादिबन्धनोपाधिका निमित्त पाकर स्वभावसे विलक्षण रागादिविकाररूप परिणम जाता है । (४) रागादिविकारका निमित्त पाकर कार्मारण वर्गगायें कर्मरूप परिणम जाते हैं । ( ५ ) रागादि विकार आत्माके अपने ही पर्याययोग्य उपादान से प्रकट हुए हैं । ( ६ ) ग्रात्मा, ग्रपने ही प्रशुद्ध उपादान उत्पन्न रागादिविभाव के निमि
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy