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________________ सहजानन्दशास्त्रमालायां ५. ५... चिन्मय प्रमा णमयिता दृष्टः से न तपादानहामशून्धी दृष्टः, यथाग्निरयःपिण्डस्य । प्रात्मा तु तुल्य क्षेत्रवति. त्वेऽपि पर द्रव्योपादानहायेशून्य एव ततो न स पुद्गलानां कर्मभावेन परिणमयिता स्यात् ॥१८५॥ वाध सागर जी महारा वर्तमान अपि सर्वकाल । मूलधातु-- ग्रह नहरणे, मुच्ल मोक्षणे, डुकुम करो, तृतु वर्तने । उभयपदविवरण-गिण्हदि गृह्णाति मुंचदि मुंचति करोदि करोति-वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । ण न हि वि अगि-अव्यय । पोग्गलाण पौद्गलानि कम्माणि कर्माणि-द्वितीया बहुवचन । जीवो जीव:-प्रथमा एकः । पुग्गलमज्झे पुद्गलमध्ये-सप्तमी एकवचन । वट्ट वर्तमान:-प्रथमा एकवचन कृदन्त । सव्वकालेसु सर्वकालेषु-सप्तमी बहुवचन । निरुक्ति कलयति आयुः इति कालः ।।१८५। नहीं परिणमाता, परपदार्थके परिणमनरूप नहीं परिणमाता, इस कारण पुद्गलपरिणाम प्रात्माका कर्म नहीं है । ३- जो जिसका परिणामाने वाला होता है वह उसके ग्रहण-त्यागसे रहित नहीं होता, उत्तरपर्यायका ग्रहण व पूर्वपर्यायका त्याग रूप कर्म होता है । ४-कार्माण वर्गरणायें तथा शरीरस्कंध प्रात्माके एकक्षेत्रावगाही हैं तो भी उन रद्रव्योंके ग्रहण-त्यागसे रहित हैं । ५- प्रात्मा पुद्गलोंका कर्मभावसे परिणमाने वाला नहीं है । ६-- जैसे सिद्ध भगवान पुद्गल द्रव्योंके बीच रहते हुए भी परद्रव्यके ग्रहण त्याग व करणसे रहित हैं, इसी प्रकार शुद्धनयसे सभी जीव परद्रव्यके ग्रहण त्याग व करणसे रहित हैं । सिद्धान्त--(१) शक्तिरूपसे सभी जीव सिद्ध समान शुद्धात्मा हैं । (२) प्रात्मा अपने ही परिणमनरूपसे हो सकता है, परके परिणमनरूपसे नहीं। (३) प्रात्माका गुरण, धर्म, परिणमन प्रात्मामें ही प्रात्माके द्वारा होता है । दृष्टि–१- उपाधिनिरपेक्ष शुद्ध द्रध्याथिकनय (२१) । २-- स्वद्रव्यादिनाहक द्रव्याथिकनय, परद्रव्यादिग्राहक द्रव्याथिकनय (२८, २६) । ३-- उपादानदृष्टि (४६ ब) । प्रयोग---सदाकाल प्रात्माका सजातीय विजातीय समस्त परद्रव्योंमें अत्यन्ताभाव है यह निरखते हुए परद्रव्योंका प्रकर्तृत्व अवघारित कर समस्त विकल्पोंसे निवृत्त होकर अपने में सहज विश्राम करना ॥१८५।। तब फिर आत्माका किस प्रकार पुद्गल कोंके द्वारा ग्रहरण और त्याग होता है ? इसका निरूपण करते हैं ---- [सः] वह [इदानीं] संसारावस्थामें [द्रव्यजातस्य] प्रात्मद्रव्यसे उत्पन्न हुए स्विकपरिणामस्य] अशुद्ध स्वपरिणामका [कर्ता सन्] कर्ता होता हा [कर्मलिभिः] कर्मधूलिसे [श्रादीयते] ग्रहण किया जाता है, और [कदाचित् विमुच्यते] कदाचित् छोड़ा जाता है। तात्पर्य--अात्माके अशुद्ध परिणामका होना व न होना कर्मके बंध व छुटकारेका S
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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