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________________ २५० सहजानन्दशास्त्रमालायां अथ द्रव्यविशेषो गुणविशेषादिति प्रज्ञापयति---- लिंगेहिं जेहिं दव्वं जीवमजीवं च हवदि विण्णादं । ते तब्भावविसिट्टा मुत्तामुत्ता गुणा णेया ॥ १३० ॥ जिन चिह्नोंसे जाना, जाता जीव य अजीव द्रव्योंको । वे तद्भावविशेषित, मूर्त प्रमूर्त गुरण वहां जानो ॥१३॥ लिगेय द्रव्यं जीवो जीवश्च भवति विज्ञातम् । ते तद्भावविशिष्टा मूर्तागर्ता गुणा याः ।। १३०॥ द्रव्यमाश्रित्य परानाश्रयत्वेन वर्तमानलिङ्गयले गम्यते द्रव्यमेतैरिति लिङ्गानि मुरगाः । ते च यद्रव्यं भवति न तद्गुणा भवन्ति, ये गुणा भवन्ति ते न द्रव्यं भवतीति द्रव्यादत दावेन नामसंज्ञ---लिंग ज दब्ब जीव अजीव च विष्णाद त तब्भावविसिद्ध मुत्तामुत्त गुण गोय । धातुसंज-- हर सत्तावां, ना अवबोधने । प्रातिपदिक--लिङ्ग यत् द्रव्य जीव अजीव में विज्ञात तत् तद्भावविशिष्ट । मुर्तामूर्त गुण ज्ञेय ! मूलधातु-भू सत्तायां, जा अवबोधने । उभयपदविवरण--- लिगेहि लिङ्ग: जेहि यःद्रव्य पहचाना जा सकता है, ऐसे लिंग गुण हैं । ये {गुण), 'जो द्रव्य हैं वे गुण नहीं हैं और जो गुण हैं ये द्रव्य नहीं हैं। इस अपेक्षासे द्रव्यसे प्रतद्भाबके द्वारा भिन्न रहते हये, लिंग और लिंगीके रूपमें परिचयके समय द्रव्य के लिंगत्वको प्राप्त होते हैं । अब वे द्रव्यका 'यह जीव है, यह अजीव है। ऐसा भेद उत्पन्न करते हैं, क्योंकि स्वयं भी तद्धावके द्वारा विशिष्ट होनेसे विशेषको प्राप्त हैं । जिस जिस द्रव्यका जो जो स्वभाव हो उस उसका उस उसके द्वारा विशिष्टत्व होनेसे उनके भेद हैं; और इसीलिये मूर्त तथा अमूर्त द्रव्योंका मूर्तत्व-अमूर्तत्वरूप तद्धावसे विशिष्टता होनेसे उनमें 'यह मूर्त गुण हैं और यह अमूर्त गुण हैं' इस प्रकार उनका भेद निश्चित करना चाहिये। प्रसंगविवरण ---- अनंतरपूर्व गाथामें क्रियावान व भाववान पदार्थोंका विशेषपना ज्ञात कराया गया था । अब इस गाथामें जीव अजीव द्रव्योंके अपनी-अपनी विशेषताके कारण मूर्त व अमूर्त गुण ज्ञात कराये गये हैं। तथ्यप्रकाश--(१) परका प्राश्चय किये बिना विवक्षित द्रव्यमें ही रहने वाला विवक्षित द्रव्यका परिचायक चिन्हको लिङ्ग अथवा लक्षण कहते हैं । (२) द्रव्य और गुण भिन्न न होनेपर भी उनमें भावभेदसे प्रतद्भाव है । उसोसे यह समझा जाता है कि जो द्रव्य है। वह गुण नहीं है, जो गुण है वह द्रव्य नहीं है । (३) प्रतद्भावविशिष्ट गुण द्रव्यके लिङ्ग अर्थात् लक्षण हो जाते हैं । (४) जिस जिस द्रव्यका जो जो स्वभाव है उस उस द्रव्यको उस उस भावसे विशिष्टता है। (५) भाव विशिष्टतासे ही द्रव्योंमें विशेष जाना जाता है। (६) मूर्त
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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