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प्रवचनसार--सप्तदशाङ्गी टीका
१८७ प्रयोत्पादव्ययध्रौव्याणां परस्परविनामा दृढ़यति----
ण भवो भंगविहीमो भंगो वा णत्थि संभवविहीणो। उप्पादो वि य मंगो ण विणा धोव्वेण अत्थेण ॥१०॥ व्ययविहीन नहि संभव, व्यय भी संभवविहीन नहिं होता।
संभव व्यय नहि होते, धौध्य तथा अर्थतत्त्व बिना ॥१०॥ FOR न भवो भङ्गविहीनो भङ्गो वा नास्ति संभवविहीनः । उत्पादोऽपि च भङ्गो न विना ध्रौव्येणार्थेन ।।१०।। ... न खलु सर्गः संहारमन्तरेरण, न संहारो वा सर्गमन्तरेण, न सृष्टिसंहारौ स्थितिमन्तरेण, न स्थितिः सर्गसंहारमन्तरेशा । य एव हि सर्गः स एव संहारः, य एव संहारः स एव सर्गः, यावेव सर्गसंहारी सैव स्थितिः, येव स्थितिस्तावेव सर्गसंहाराविति । तथाहि-य एव कुम्भस्य सर्गः स एवं मृत्पिण्डस्य संहार:, भावस्य भावान्तराभावस्वभावेनाभासनात् । य एव च मृत्पि
नामसंज्ञ--ण भव भंगविहीण भंग वा ण संभवविहीण उप्पाद वि य भंग ण विणा धोव्य अत्थ । धातुसंज्ञ---अस सत्तायां । प्रातिपदिकः-- भव भाविहीन भङ्ग वा न संभवविहीन उत्पाद अपि च भङ्ग उत्पादव्ययधोव्यात्मकपना होने पर भी सत् द्रव्य है ।
तथ्यप्रकाश-(१) स्वभावमें नित्य रहने वाला सत् द्रव्य है । (२) उत्पादध्ययध्रौव्य का एकत्वस्वरूप परिणाम द्रव्यका स्वभाव है । (३) द्रव्यके प्रदेश विस्तारक्रममें जाने जाते हैं। (४) द्रव्यके पर्याय प्रवाहकममें जाने जाते हैं । (५) एक प्रदेशको सीमाका अन्त दूसरे
प्रदेशको सीमाको प्रादि है, द्रव्य वही एक है। (६) एक पर्यायका अन्त दुसरे पर्यायका । उत्पाद है, द्रव्य वही एक है । (७) द्रव्य सर्वदा उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक है।
सिद्धान्त-(१) द्रव्य सत्तासापेक्ष सतत उत्पादश्ययात्मक है। दृष्टि-१-- सत्तासापेक्ष नित्याशुद्धपर्यायाथिकनय (६०)।
प्रयोग---विकारपर्यायका व्यय होकर अविकार पर्यायका उत्पाद मुझमें हो सकता है ऐसी प्रेरणा उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकताके परिचयसे पाकर इस विकासके उपायमें ध्रुव चैतन्य स्वभावकी दृष्टि रखना ||६||
अब उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यके परस्पर अविनाभावको दृढ़ करते हैं-[भवः। उत्पाद [भङ्गविहीनः] व्ययसे रहित [न] नहीं होता, [वा] और [भङ्ग] व्यय [संभवविहीनः] उत्पादरहित [नास्ति] नहीं होता; [उत्पादः] उत्पाद [अपि च] तथा [भङ्गः] भंग [ध्रौव्येण अर्थेन विनाj ध्रौव्य पदार्थके बिना [न] नहीं होता।
तात्पर्य-वस्तुमें उत्पाद व्यय प्रौव्य परस्पर अविनाभावी है ।