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________________ hin india n " . सहजानंदशास्त्रमालायां स्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तस्य कार्तस्वरास्तित्वेन निष्पादितनिष्पत्तियक्तः कुण्डलाल. पीतताद्युत्पादथ्य यधोव्यर्य दस्तित्वं कार्तस्वरस्य स स्वभावः, तथा हि द्रव्येण वा क्षेत्रेण वा कालेन वा भावेन वा द्रध्यात्थगनुपलभ्यमानः कर्तृकरणाधिकरणरूपेणोत्पादव्य यनोव्याणां स्वरूपमुपादाय प्रवर्तमान प्रवृत्तियुक्तस्य द्रव्यास्तित्वेन निष्पादितनिष्पत्तियुक्तरुत्पादव्ययध्रौव्यर्यदस्तित्वं द्रव्यस्य स स्वभावः । यथा वा द्रव्येण वा क्षेत्रेण वा कालेन वा भावेन वा कुण्डलाङ्ग. दपोतताद्युत्पादव्ययध्रौव्येभ्यः पृथगनुपलभ्यमानस्य कर्तृवरणाधिकरणरूपेण कार्तस्वरस्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्ति युक्तः कुण्डलाङ्गदपीतताधुत्पादव्ययनौव्यनिष्पादितनिष्पतियुक्तस्य कार्तस्वरस्य मूलसाधनतया तनिष्पादितं यदस्तित्वं स स्वभावः, तथा द्रव्ये वा क्षेत्रेग वा कालेन वा भावेन बोत्पादव्ययध्रौव्येभ्यः पृथगनुपलभ्यमानस्य कर्तृकरणाधिकरणरूपेण द्रव्यस्वरूपमुपादाय प्रवर्तमान प्रवृत्तियुक्तरुत्पादव्य योन्यनिष्पादितनिष्पत्तियुक्तस्य द्रव्यस्य मूलसाधनतया तैनिपादितं यदस्तित्वं स स्वभावः ॥६६॥ व्यय- वत्वः चित्तेहि चित्र:-तृतीया बहुवचन । दव्यरस द्रव्यस्य-पष्ठी एक० । सव्वकालं सर्वकालं-कियाविशेषण अव्यय । (सदाकाल सद्भाव होना) । निरुक्ति उत्पादने उत्पादः, व्ययनं व्ययः, ध्रुवणं ध्रुवः तस्य भावः ध्र वत्वं । समास- उत्पाद: व्ययः ध्रुवत्वं चेति उत्पादव्यय ध्रुवत्वानि तः उत्पादव्यय ध्रुवत्वः ।।६॥ सुवर्णका स्वभाव है। इसी प्रकार द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे या भावसे द्रव्यसे पृथक् नहीं पाये जाने वाले तथा कर्ता-करया-अधिकरण रूपसे उत्पाद व्यय-ध्रौव्योंके स्वरूपको धारण करके प्रवर्तमान द्रव्यके अस्तित्वसे निष्पादित निष्पत्तिसे युक्त उत्पाद व्यय-ध्रौव्योंसे जो द्रव्यका अस्तित्व है वह उसका स्वभाव है। अथवा, जसे द्रध्यसे, क्षेत्रसे, कालसे व भावसे कुण्डलादि उत्पादोंसे बाजूबंधादि व्ययों से और पीतत्वादि ध्रौव्योंसे पृथक् न पाये जाने वाले तथा कर्ता-करण-अधिकरण रूपसे सुवर्ण के स्वरूपको धारण करके प्रवर्तमान कुण्डलादि उत्पादों, बाजूबन्धादि व्ययों और पीतत्वादि ध्रौव्योसे निष्पादित निष्पत्तिसे युक्त सुवर्णका, मूल साधनपनेसे उनसे निष्पन्न होता हुआ जो अस्तित्व है, वह उसका स्वभाव है। इसी प्रकार द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे व भावसे उत्पाद व्ययघोच्योसे पृथक् न पाये जाने वाले तथा कर्ता-करण-अधिकरणरूपसे द्रव्य के स्वरूपको धारण करके प्रवर्तमान उत्पाद-व्यय-ध्रीव्योंसे निष्पादित निष्पत्तिसे युक्त द्रव्यका मूल साधनपनेसे उनसे निष्पन्न होता हुअा जो अस्तित्व है वह उसका स्वभाव है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें द्रव्यका लक्षण अस्तित्व सामान्यरूप अन्वय बताया गया था जो कि स्वरूपास्तित्व व सादृश्यास्तित्व इन दो प्रकारोंसे समझा जाता है। " . maritrull 'san "
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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