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________________ ७० सहजानंदशास्त्रमालायां अथातीन्द्रियज्ञानस्य तु यद्यदुच्यते तत्तत्भवतीति संभावयति---- अपदेसं सपदेस मुत्तममुत्तं च पज्जयमजादं । पलयं गयं च जाणदि तं गागामदिदियं भणियं ॥४१॥ कायिक प्रकाय भूतिक, अमूर्त सात् भावि नष्ट पर्यायें । सबको हि जानता जो. शान अतीन्द्रिय कहा उसको ॥४१॥ अप्रदेशं सप्रदेश मुर्तममूर्त च पर्वयमजातम् । प्रलयं गतं च जानाति तज्ज्ञानमतीन्द्रियं भोणतम् ॥ ४१॥ इन्द्रियज्ञानं नाम उपदेशान्तःकरणेन्द्रियादीनि विरूपकात्वेनोपलब्धिसंस्कारादोन अंतरङ्गस्वरूपकारणत्वेनोपादाय प्रवर्तते । प्रवर्तमानं च सप्रनेश मेवाध्यवस्यति स्थूलोपलम्भकत्वानाप्रदेशम् । मूर्तमेवावगच्छति तथाविधविषयनिबन्धनसद्भावान्नामूर्तम् । वर्तमानमेव परिच्छि नामसंक-..अपदेस सपदेश सुत अमुल च पजप अजाद पलय गय तणाण अदिदिय भणिय । धातसंज्ञ---जाण अवबोधने, भण कथने । प्रातिपदिक-अप्रदेश प्रदेश मूर्त अमुतं च पर्यय अजात प्रलय गत हुवाते हैं, स्पष्ट करते हैं-[प्रप्रदेशं] जो ज्ञान प्रदेशको सप्रदेशं] सप्रदेशको [भूत] मुर्तको [अमूर्त च] और अमूर्तको तथा [अजातं] अनुत्पन्न पर्यायको [च] और [प्रलयंगतं] नष्ट [पर्याय ] पर्यायको [जानाति जानता है [तत् ज्ञान] वह ज्ञान [अतीन्द्रियं] अतीन्द्रिय [भरिपतम्] कहा गया है। तात्पर्य----प्रतीन्द्रिय केवलज्ञान एकप्रदेशी बहुप्रदेशो मूर्तिक अमूर्त भूत भविष्यत् सबको जानना है। टीकार्थ---इन्द्रियज्ञान उपदेश, अन्तःकरण और इन्द्रिय इत्यादिको भिन्न व बाह्य कारणतासे और लब्धि, संस्कार इत्यादिको अन्तरङ्ग स्वरूप कारतासे ग्रहण करके प्रवृत्त होता है; और वह प्रवृत्त होता हुया सप्रदेशको ही जानता है, स्थूल को जानने वाला होनेसे अप्रदेशको नहीं जानता, वह मूर्तको ही जानता है, मूर्तिक विषयके साथ उसका सम्बन्ध होनेसे वह अमूर्तको नहीं जानता, वह वर्तमानको ही जानता है, विषय-विषयोके सन्निपातका सद्भाव होनेसे वह प्रवर्तित हो चुकने वाले को और भविष्य में प्रवृत्त होने वालेको नहीं जानता । परन्तु जो अनावरण अनिन्द्रिय ज्ञान है, उसके अपने अप्रदेश, सप्रदेश, मूर्त और अमूर्त (सर्व पदार्थ) तथा अनुत्पन्न एवं व्यतीत पर्यायसमूह, ज्ञेयताका अतिक्रमण न करनेसे यह सब ज्ञय ही है, जैसे प्रज्वलित अग्नि के अनेक प्रकारका ईधन, दाह्यताका अतिक्रमण न करनेसे दाह्य हो है । प्रसङ्गविवरण-अनंतरपूर्व गाथामें इन्द्रियजज्ञान की हीनताका चित्रण किया गया था । अब इस गाथामें अतीन्द्रिय ज्ञानकी उदात्तताका वर्णन किया गया है ।
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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