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________________ प्रवचनसार: ७१ ARRESPREE क नत्ति विषयविषयिसन्निपातसद्भावान्न तु वृत्तं वय॑च्च । यत्तु पुनरनावरणमनिन्द्रियं ज्ञानं तस्य समिधूमध्वलस्येवानेकप्रकारतालिङ्गितं दाह्य दाह्यतानतिक्रमाबाह्यमेव यथा तथात्मनः अप्रदेश सप्रदेश मूर्तममूर्तमजातमतिवाहितं च पर्यायजातं ज्ञेयतानतिक्रमात्परिच्छेद्यमेव भवतीति ।।४।। तत् शान अतीन्द्रिय भणित । मूलधातु--शा अश्योधन, मण शब्दार्थः । उभयपदविवरण-अपदस अप्रदेश सपदेस संप्रदेश मुत्तं भूत अमुत्तं अमुर्त पज्मयं पर्याय अजादं अजाल पलयं प्रलयं गयं गत-द्वितीयो एक० । जाणादि जानाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक.० किया । सं तत् णाणं ज्ञान अदिदियं अतीन्द्रियं-प्र० एका । मणिय भणित-प्र० एक० कृदन्त किया। निरुक्ति-प्रकण लयनं प्रलयः तं । समास-न प्रदेश: यत्र स अप्रदेश बहुप्रदेश इत्यर्थः, इन्द्रियं अतिक्रान्तम् अतीन्द्रियं ।। ४१ ।। तथ्यप्रकाश---(१) इन्द्रियज्ञान उपदेश, मन, इन्द्रियोंको कारणरूप इत्यादि बाह्य अर्थ का प्राश्रय पाकर होता है अतः वह पराधीन है । (२) इन्द्रियज्ञान तत्तदिन्द्रियज्ञानावरण का योपशम, संस्कार प्रादिको नारणरूपसे उपादान करके प्रवृत्त होता है अतः वह अतिसीमित है। (३.) इन्द्रियज्ञान प्रति स्थूलका ग्रहण करने वाला है, प्रतः अनन्तप्रदेशी स्कन्ध को ही जान सकता है, अप्रदेशको नहीं । (४) इन्द्रियज्ञान मूर्त पदार्थ को ही विषय करके जान सकता है, अतः वह मूर्तको हो जान सकता है अमूर्तको नहीं ! (५) इन्द्रियज्ञान विषय विषयी की समक्षता में ही जान सकता है, अतः वह वर्तमानको ही जान सकता है । (६) अतीन्द्रियज्ञान किसी भी परपदार्थ के कारण विना हो होता है अत: वह स्वाधीन है। (७) अतीन्द्रिय ज्ञान क्षायिक, निरावरण होनेसे वह पूर्ण विकसित ज्ञान है। (८) अतीन्द्रिय ज्ञान सर्वका परिचटोदक होनेसे वह स्थूलको भी जानता, सूक्ष्मको भी जानता, सप्रवेशको भी जानता, अप्र. देशको भी जानता । (E) अतीन्द्रियज्ञान सर्व सत्का जानने वाला होनेसे वह मूर्त पदार्थको भी चालताः अमतको भी जानता । (१०) अतीन्द्रिय ज्ञान समंवत प्रदेशोसे जानता, इसके लिये सर्व भूत वर्तमान भविष्य ज्ञेयताका उल्लंघन न करनेसे समक्ष है, अतः वह ज्ञान भूत भविष्य वर्तमात सबको जानता है । (११) अतीन्द्रिय ज्ञान निष्कलंक, परमोत्कृष्ट व उपादेय है । सिद्धान्त---(१) परमात्मा निरावरण अतीन्द्रिय ज्ञान द्वारा स्वाधीनतया सर्व ज़योंको जानता रहता है। दृष्टि-१- स्वभावनय (१७६) । प्रयोग----स्वाभाविक ज्ञानपरिणमन के अविनाभावी सहग अानंदको उपलब्धिके लिये सहज ज्ञानस्वभावको प्रात्मरूपसे उपासित करना ॥४१॥ अब जय पदार्थरूप परिणमन जिसका लक्षण है ऐसी झंयार्थपरिणाम नस्वरूप क्रिया शानमें से नहीं होती यह श्रद्धान करते हैं, ऐसी श्रद्धा व्यक्त करते हैं ..... [ज्ञाता] ज्ञाता [यदि] SEAR
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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