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________________ ६६ प्रक्रमेण परिचिछन्दन्ति ते किलातिवाहितस्वास्तित्वकाल मनुपस्थितस्वास्तित्वकालं वा यथो दितलक्षणस्य ग्राह्यग्राहकसंबन्धस्यासंभवतः परिच्छेत्तुं न शक्नुवन्ति ॥ ४० ॥ प्रवचनसारा अदाक्य इति प्रज्ञप्तः । मूलधातुनि पत पवने, विना अवबोधने जप साने ज्ञापनेन । उपपदविवरण अत्य अर्थ अपणिवदिदं अदनिपतित- द्वितीया एक हायेहि तृतीया । जेथे बहु० 1 विजाति विजानन्ति वलंगान अन्य पुरुष बहुवचन । सितेपः पष्ठी बहु । परोबसभूदं परोक्षभूत- द्वि० एक० पादं ज्ञातुं अवश्य कुदन्त हेत्वर्थे । अस अपश्यं प्रथमा एकवचन । ति इतिअव्यय । पुष्णसं प्रज्ञप्तं प्र० एक० दन्त किया। निरुक्त ईहा (न गवयं अक्षम । समास -- ईहा पूर्व येषा ते तैः ।। ४० ।। टोकार्थ - विषय और विषयका लक्षण है जिसका ऐसे इन्द्रिय और पदार्थके सत्रिको प्राप्त करके, जो क्रमसे उत्पन्न ईहादिकके प्रक्रमसे जानते हैं जिनका अस्तित्व बीत गया है, तथा जिनका अस्तित्व काल उपस्थित नहीं हुआ है उन्हें नही जान सकते, क्योंकि प्रतीत प्रनागत पदार्थ और इन्द्रियके विषयविषयिसन्निपात लक्षस वाले ग्राह्यग्राहकसम्बन्धकी प्रसंभवता हैं। प्रसंगविवरण -- प्रनंतरपूर्व गाथामें बताया गया था कि प्रभु ज्ञानमें प्रतीत प्रनागत रूप सद्भूत पर्यायें भी प्रत्यक्ष हैं । अब इस गाथामें बताया गया है कि इन्द्रियज्ञान ही प्रतीत अनागतको जाननेके लिये अशक्त है । तथ्यप्रकाश ---- ( १ ) इन्द्रियज्ञान अतीत, प्रनागत, अमूर्त सूक्ष्म पदार्थो को नहीं जान सकता, क्योंकि इन्द्रियोंका उन पदार्थों के साथ सम्बन्ध व समक्षपना नहीं हो सकता । (२) इन्द्रियां मूर्तको व मूर्त में भी स्थूलको व स्थूल में भी सन्निधिको व उन्हें भी कमसे विषय कर पाती हैं, अतः इन्द्रियज्ञानसे सर्वज्ञ होना असंभव है । (३) रागादिविकल्परहित स्वसंवेदनज्ञान हो सर्वज्ञताको निप्पत्तिका कारण है । ( ४ ) जो पुरुष इन्द्रियसुखों में, सानोभूत इन्द्रियज्ञानमें नाना मनोरण त्रिकल्परूप मानसिक ज्ञानमें ग्रासक्ति करते वे सर्वज्ञपद प्राप्त नही कर सकते । ( ३ ) इन्द्रियजज्ञान होन ज्ञान है और हेय है। सिद्धान्त - ( १ ) इन्द्रियज ज्ञान औपाधिक व विकृत ज्ञान है । दृष्टि१ विभावगुणञ्जनपर्यायदृष्टि [२१३] + प्रयोग इन्द्रियसुखको व इन्द्रियसुखसाधनीभूत इन्द्रियज्ञानको सकलङ्क हीन व हेय जानकर उससे उपेक्षा कर निष्कलङ्क, उच्च व उपादेय अतीन्द्रिय आनंद व प्रतीन्द्रिय जानकी निष्पत्ति के लिये प्रतीन्द्रिय सहजानंदमय सहजजानस्वभावको आराधना करना ।। ४० ।। अतीन्द्रिये ज्ञानके लिये जो जो कहा जाता है वह वह संभव है, यह भले प्रकार *
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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