SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 345
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ V BOOR ३३१ प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका प्रय भावबन्धस्वरूपं ज्ञापयति---- उवयोगमयो जीवो मुझदि रज्जेदि वा पदुस्सेदि । पप्पा विविध तिसये जो हि पुणो तेहिं संबंधो॥१७॥ उपयोगमयो आत्माका नाना विषयभावको पाकर । मोही रागो द्वेषी, होना हो भावबन्धन है ॥ १७५ ।। उपयोगभयो जीवों मुह्यति रज्यति वा प्रéष्टि । प्राप्य विविधान् विग्यान यो हि पुनस्तः संबन्धः ॥१७॥ . अयमात्मा सर्व एव तावत्सविकल्पनिर्विकल्पपरिच्छेदात्मकत्वादुपयोगभयः । तत्र यो Mहि नाम नानाकारान् परिच्छेद्यानर्थानासाद्य मोहं वा राग वा द्वेषं वा समुपैति स नाम तैः । नामसंज-उवओगम जीव विविध विसय जहि पुणो त संबंध । धातुसंज्ञ---मुज्झ मोहे, रज्ज लसे, म दुस वकृत्ये अप्रीतौ च, प अप्प अशो। प्रातिपदिक-उपयोगमय जीव विविध विषय यत् हि "मुत्ता वाले खिलाने के घोड़े को देखता हुआ कहता है मेरा घोड़ा, तो बालकका उस घोड़ेसे कुछ सम्बन्ध नहीं तथापि विषयविषयोभावसे वह सम्बन्ध बना है । (३) ऐसे हो सकपो आत्माका समर्श शुन्यपना होनेसे कर्मपुद्गलोंके साथ कोई सम्बन्ध नहीं तथापि कर्मविपाकनिमित्तक उपयोगगत रागद्वेषादि भावका सम्बन्ध कर्मपुद्गलबंधका व्यबहार सिद्ध करता है। (४) तादास्य सम्बन्ध न होनेपर भी परमात्मा ग्राह्यग्राहक सम्बन्धसे रूपी पदार्थको जानता है। (५) तादात्म्यसम्बन्ध न होनेपर भी श्रावकका परमात्माराधनामें अाराध्यनाराधक सम्बन्ध है। १) तादात्ययसम्बन्ध न होनेपर भी सोपाधि जोव के साथ कम पुद्गलोंका एकत्रावगाह "निमित्तनमित्तिक बन्धनका सम्बन्ध है । सिद्धारत-(१) एक नेत्रावगाह निमित्तनैमित्तिक सम्बन्धसे आगे बढ़कर जीन कर्मका परस्पर बन्धन होना मानना उपचार है। दृष्टि-.--१- संश्लिष्ट विजात्युपचरित प्रसद्भुत व्यवहार (१२५) । प्रयोग -प्रात्मीय शाश्वत सहज प्रानन्द पाने के लिये अन्यसत्ताक उपाधिसे भिन्न अपनेको अविकार ज्ञानस्वभावमात्र निरखना व अनुभवना ॥१७४।। अब भावबंधके स्वरूपका ज्ञापन करते हैं ----[यः] जो [उपयोगमयः जीवः] उपयोगम्य जीव [विविधान विषयान] विविध विषयोंको [प्राप्य ] प्राप्त करके [मुह्यति] मोह करता है; [रज्यति] राप करता है, [वा] अग्रवा [प्रद्वेष्टि] द्वेष करता है, हि पुनः] नि. स्वयसे वह जीव [तैः] उन मोह-राग-द्वेषके द्वारा संबंद्धः] बंधा हुमा है। तात्पर्य-राग द्वेष मोह करता हुआ यह जीव निश्चयतः राग द्वेष मोहसे बंधा हुआ है। टीकार्थ---यह प्रात्मा सब ही सविकल्प और निर्विकल्प प्रतिभासस्वरूप होनेसे उप ...... GHAR प्रा ।
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy