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________________ ELAM प्रवचनसार: ANNESBFसामा AAWARA । पथ शानज्ञेययोः परस्परगमनं प्रतिहन्ति ..... गाणी गाणसहावो अट्ठा गोयपगा हि शास्मि । रूवाणि व चक्खूणं गोवण्णोण्यो मे वति ॥२८॥ ज्ञानी ज्ञानस्वभावी, ज्ञानीके जयरूप अर्थ रहें । चक्ष में रूपकी ज्यौं, वे नहि अन्योन्यमें रहते ॥२॥ माती ज्ञानस्वभावोऽर्था संथात्मका हि ज्ञानिनः । रूपाणीव चक्षुगों: नैऋान्योन्येषु यतन्ते ।। २८ ।। MA जानी चार्थाश्च स्वलक्षणभूतपृथक्त्वतो न मिश्रो वृत्तिमासादयन्ति किंतु तेषां ज्ञानज्ञेयस्वभावसंबन्धसाधितमन्योन्यवृत्तिमात्रमस्ति चक्षुरूपवत् । यथा हि चक्षषि तद्विषयभूतरूपिद्रव्यामि च परस्परप्रवेशमन्तरेणापि ज्ञेयाकार ग्रहणसमर्पणप्रवणान्यवमात्माऽर्थाश्चान्योन्यावृत्तिमन्तरेणापि विश्वजयाकारग्रहणसमर्पणप्रवणः ।।२।। Male नामसंजः पाणि णाणसहाब अट्ट गेयपग हि गाणि कव व चक्षु ण एब अगोण | धातुसंजबन वर्तन । प्रालियविक-ज्ञानिन् ज्ञानस्वभाव अर्थ ज्ञेयात्मक हि ज्ञानिन् कप इव चक्ष न एक अन्योन्य । मुलधात - वृतु वर्तने । उमयपदविवरण-~-गाणी ज्ञानी माणसहायो ज्ञानस्वभाव:-प्र० ए० । अन्टा अर्था; सयममा जेयात्मका:-प्रथमा बहु० । गाणिस ज्ञानिन:-गली एकल | रुवाणि रूपानि-प्रथमा बहु० । 'व "एक मिन एव हि अव्यय । चक्लूण-पष्ठी बह०, चक्षुपो:-षष्ठी द्विवचन । अयोग्यसु अन्योत्येषु सप्तमी बह ॥ वृद्ध ति वर्तन्ते-बर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुवचन किया। निरुक्ति-ज्ञातुं योग्यः यः, रूप्यते Mइति रूप नष्ट इति चक्षुः । समास-ज्ञान स्वभाव: यस्या ज्ञानस्वभावः ॥२८]] मात्मा और पदार्थ एक दूसरेमें प्रविष्ट हुए बिना ही समस्त झेयाकारोंके ग्रहण और समर्पण करतके स्वभाव वाले हैं। a असंगविवरण-- अनंतरपूर्व गाथामें प्रात्मा और जानका एकमात्र न अन्यपना बताया Minal या । सब इस गाथामें बताया गया है कि ज्ञानी ज्ञेयोंको अपनी स्वभावकलासे जान लेता है, लेकिन न ज्ञानी ज्ञेयके प्रदेशों में जाता है, न ज्ञेय ज्ञानी के याने प्रात्माके प्रदेशों में जाता है । । तध्यप्रकाश---(१) प्रत्येक द्रव्य अन्य द्रव्योरो भिन्न है। (२) प्रात्माका स्वभाव ही हमा है कि जो ज्ञेय हो उसके विषय में अात्मा जान लेता है । (३) जो सत् हैं वही ज्ञेय होता है, असन जय हो ही नहीं सकता सो यह सत्का स्वभाव है कि वह जय हो जाता है। (४) मात्मा और सब सत् पदार्थों में ज्ञान ज्ञेय होनेरूप ही सम्बन्ध समझमें आया । (५) आत्मा व पदा का ज्ञान ज्ञेय सम्बन्ध होनेपर भी वे एक दूसरेके प्रदेशों में प्रवेश नहीं करते । (६) चक्षु वाली जगह ही रहता, दृश्य पदार्थ अपनी ही जगह रहते, फिर भी चक्षु द्वारा पदार्थ दिख जाता है, इस उदाहरण द्वारा ज्ञाता व ज्ञेयमें अन्योन्यप्रवेशका अभाव बिल्कुल स्पष्ट है। सिद्धान्त ---(१) प्रत्येक द्रव्य आत्मद्रव्यसे भिन्न हो है । (-) प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने ॐॐॐ
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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