SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ .......... ५० सहजानन्दशास्त्रमालायां अज्ञानमर्थेषु वर्तत इति संभावयतिरणमिह इंदणीलं दुद्धज्झसियं जहा सभासाए । अभिभूयतं पिदुद्ध दि तह गाणमत्थे ||३०|| ज्यौं नील रत्न पयमें बसा स्वकान्तिसे व्यापकर पयको । वर्तता ज्ञान त्यों ही, ग्रथोंमें व्यापकर रहता ॥ ३० ॥ रत्नमिहेन्द्रनील दुग्धाध्युषितं यथा स्वभासा । अभिभूय तदपि दुग्धं वर्तते तथा ज्ञानमर्थेषु ॥ ३० ॥ यथा किलेन्द्रनीलरत्नं दुग्धमधिवसत्स्वप्रभाभारेण तदभिभूय वर्तमानं दृष्टं, तथा संवे नमप्यात्मनोऽभिन्नत्वात् कत्रंशेनात्मतामापत्न करणांशेन ज्ञानतामापन्नेन कारणभूतानामर्थान कार्यभूतान समस्तज्ञेयाकारानभिव्याप्य वर्तमानं कार्यकारणत्वेनोपचर्यं ज्ञानमयनिभिभूय वर्तत इत्युच्यमानं न विप्रतिषिध्यते ॥३०॥ नामसंज्ञ -- रयण इह इंदणील दुढज्भसिय जहा सभासा त पि दुह तह पाण अत्थ । धातुसंज्ञभव सत्तायां वत्त वर्णने । प्रातिपदिक-रत्न इह इन्द्रनील दुग्धाध्युषित यथा स्वभास् तत् दुग्ध तथा ज्ञान अर्थ : मूलधातु-भू सत्तायां वृतु वर्तते । उभयपद विवरण- रयणं रत्नं इंदणील इन्द्रनील बुद्धज्झसियं दुग्धाध्युषितं प्रथमा एक० । जहा यथा पि अपि तह तथा अव्यय । सभासाए स्वभासा - तृतीया एक० । यदि वर्तते - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया । णाणं ज्ञानं प्र० एक० । अत्थेसु अर्थेषु सप्तमी बहुत । निरुक्ति- दुह्यते यत् दुग्धं । समास- दुग्धै अध्युषितं दुग्धाभ्युषितं, स्वस्य भा: स्वभाः तेन स्वभाषा ॥३०॥ वर्तता है । तात्पर्य - प्रात्मा ज्ञानप्रभा द्वारा समस्त विश्वको प्रकाशित करता है, अतः ज्ञान सर्वव्यापक कहा जाता है । टोकार्थ — जैसे दूध में पड़ा हुआ इन्द्रनील रत्न अपने प्रभासमूहसे दूधको व्यापकर ता हुआ देखा गया है, उसी प्रकार संवेदन अर्थात् ज्ञान भी आत्मासे अभिन्न होनेसे कर्ताश्रंशसे आत्मताको प्राप्त होता हुआ ज्ञानपनेको प्राप्त करण-अंशके द्वारा कारणभूत पदार्थों के कार्यभूत समस्त ज्ञेयाकारोंको व्यापकर वर्तता है, अतः कार्य में कारणका उपचार करके यह कहना प्रतिषिद्ध नहीं होता कि ज्ञान पदार्थोको व्यापकर वर्तता है । प्रसंगविवरण नंतरपूर्व गाया में बताया गया था कि ज्ञान पदार्थोंमें प्रविष्ट न होकर पदार्थों में प्रविष्ट जैसा होता हुआ पदार्थोंको जानता है । अब इस गाथामें बताया गया है कि ज्ञान किस प्रकार प्रथमें वर्तता है । तथ्यप्रकाश - - ( १ ) बहिर्ज्ञेय तो बाहर स्थित याने भिन्न सत्ता वाले सभी पदार्थ हैं । (२) बहिर्ज्ञेय कारणोंके ( विषयोंके ) कार्यभूत अन्तर्ज्ञेय भी उपचारसे अर्थ कहलाते हैं । ( ४ ) wwwww .......
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy