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________________ प्रवचनसार ज्ञाने वर्तन्त इति संभावयति- जदि ते ण संति अट्ठा गाणे गाणं ण होदि सव्वगयं । सव्वरायं वा गाणं कहं गा गागादटिया चट्टा ॥ ३१ ॥ ५.१ वे श्रर्थ ज्ञानमें नहि हो तो नहि ज्ञान सर्वगत होगा । ज्ञान सर्वगत है तो क्यों न हुए अर्थ ज्ञानस्थित ॥ ३१॥ "यदि ते न सन्त्यर्था ज्ञाते ज्ञानं न भवति सर्वगतम् । वा ज्ञानं कथं ज्ञानस्थिता अर्थाः ॥ ३१ ॥ यदि खलु निखिलात्मीयज्ञेयाका रसमाद्वारेणावतोर्णाः सर्व न प्रतिभान्ति ज्ञाने तदा तन्तु सर्वगतमभ्युपगम्येत। अभ्युपगम्येत वा सर्वगतम् । तहि साक्षात् संवेदन मुकुरुन्दभूमि नामसंज्ञ-जदित ण अटूट णाय सव्वराय कहे जाय । धातुसंज्ञ-अस मत्तायां, हो बतायां । प्रातिपदिक--यदि तत् न अर्थ ज्ञान सर्वगत कथं जानस्थित मूलधातु अस भुवि भू सत्तायां । उभयग्रन्तयभूत प्रमें ज्ञान बर्तता है यह कथन निर्दोष हैं । (५) प्रन्तर्ज्ञेत्राकार बहिर्जयाकारोंके ही अनुरूप है, अतः हिज्ञेयों में ज्ञान जाता है यह कथन उपचारसे युक्त है । (६) अनन्त ज्ञेयों से भरे हुए विश्व में रहता हुआ यह भगवान ग्रात्मा अपनी ज्ञानप्रभासे समस्त ज्ञेयको प्रकागित करता है। (७) दूधसे भरे हुए भगोने में पड़ा हुआ इन्द्रनील रत्न भी तो अपनी प्रभा समस्त दूधको नील वर्ण कर देता है । (८) निश्चयसे इन्द्रनील रत्न अपने आपको हो नील वर्गकिये हुए हैं । (६) निश्चयसे ग्रात्मा अथवा ज्ञान अपने आपको ही ज्ञेयरूप किये हुए है । (१०) उपचारसे इन्द्रनील रत्न और उसको प्रभा पात्रस्थ समस्त दूधमें व्यापक है । (११) उपचारसे आत्मा और उसका ज्ञान लोकालोकवर्ती समस्त ज्ञेयोंमें व्यापक है । सिद्धान्त-- १- आत्मा अपने ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में है । २- प्रात्मा ज्ञानमुखेन समस्त ज्ञेयोंमें है । दृष्टि- १- स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय [२६] । २- सर्वगतनय [ १७१ ] + प्रयोग-- सर्वज्ञेयाकारानुरूप अंतर्ज्ञेयाकारपरिगत आत्माको निरखकर सर्वज्ञानस्वभाव वाले मतभूत ग्रन्तस्तत्त्वकी आराधना करना ||३०|| अब इस प्रकार पदार्थ ज्ञानमें वर्तते यह संभावित करते हैं ( कहते हैं ) - [ यदि ] यदि [ते धर्माः] वे पदार्थ [ज्ञाने न संति ] ज्ञानमें नहीं हैं तो [ज्ञानं] ज्ञान [सर्वगतं ] सर्वगत [न भवति ] नहीं हो सकता, [वा] और यदि [ज्ञानं सर्वगतं ] ज्ञान सर्वगत है तो [ अर्थाः ] पदार्थ [ज्ञानस्थिताः] ज्ञानस्थित [कथं न ] कैसे नहीं हैं अर्थात् अवश्य हैं । तात्पर्य--ज्ञान सबको जाननेसे सर्वगत कहलाता है तो पदार्थ ज्ञानस्थित सिद्ध हो
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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