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________________ MARATORS ५२ सहजानन्दशास्त्रमालाय कावतीर्णप्रतिबिम्बस्थानीयस्वीयस्वीयसंवेद्याकारकारणानि परम्परया प्रतिबिम्बस्थानीयसंवेद्या. कारकारणानीति कथं न ज्ञानस्थायिनोऽर्या निश्चीयन्ते ॥ ३१ ॥ पदविवरण...... जादि यदि ण न कहं कथं-अव्यय । ते ते अट्ठा अर्था:-प्रथमा बह० । णागे जाने-सप्तमी एक० । णाणं ज्ञानं सब्वगथं सर्वगतं-प्र० ए० । णाटिया ज्ञानस्थिता: अट्ठा अर्था:-प्रथमा बहु० । निरुक्ति-अर्यन्ते निश्चीयन्ते इति अर्थाः । समास-सर्वेषु गतं सर्वगतं, ज्ञाने स्थिताः इति ज्ञानस्थिताः ।।३१|| जाते हैं। 8:5::::: : 50.00- 2008-2008 टोकार्थ—-यदि समस्त स्वज्ञेयाकारोंके समर्पण द्वारा अवतरित होते हुए समस्त पदार्थ ज्ञान में प्रतिभासित न हो तो वह ज्ञान सर्वगत नहीं माना जा सकता । और यदि वह ज्ञान सर्वगत माना जाय तो फिर (पदार्थ) साक्षात् ज्ञानदर्पण भूमिकामें अवतरित प्रतिबिम्बकी भाँति अपने-अपने ज्ञेयाकारोंके कारणभूत और परम्परासे प्रतिबिम्बके समान ज्ञेयाकारों के कारणभूत ये सब पदार्थ कैसे ज्ञानस्थायी निश्चित नहीं होते अर्थात् अवश्य ही ज्ञानस्थित निश्चित होते हैं। प्रसंगविवरण---अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि ज्ञान अर्थोमें (पदाथोंमें) रहता है । अब इस माथामें बताया गया है कि अर्थ (पदार्थ) ज्ञानमें रहते हैं। तथ्यप्रकाश----(१) ज्ञानमें होने वाला अन्सर्जेयाकार ज्ञानकी ही अवस्था है। (२) दर्पणमे होने वाला प्रतिबिम्ब दर्पणको ही अवस्था है । ( ३ ) दर्पणमें प्रतिबिम्ब समक्षस्थित पदार्थ के सान्निध्यका निमित्त पाकर होता है । (४) ज्ञानमें होने वाला ज्ञेयाकार पदार्थोंके ज्ञेयाकारका निमित्त पाकर होता है । (५) दर्पणस्थ प्रतिबिम्ब कार्यमें समक्षस्थित बालकादिक कारणका उपचार करके कहा जाता है कि बालकादिक दर्पणमें है । (६) अन्तर्जेयाकार कार्यमें बहिर्जेयाकार कारणका उपचार करके कहा जाता है कि ज्ञान में बाह्य पदार्थ अथवा बहिर्जेयाकार हैं। (७) ज्ञेय पदार्थोंने अपना आकार ज्ञानको समर्पित कर दिया है। (८) समक्षस्थित बालकादिकोंने अपना प्राकार दर्पणको समर्पित कर दिया है । (६) जेय पदार्थोंका निमित्त पाकर ज्ञानने स्वयं अपने में अपना ज्ञेयाकार बनाया है । (१०) समक्षस्थित बालकादिकोंका सान्निध्य पाकर दर्पणने स्वयं अपने में प्रतिबिम्ब बनाया है। सिद्धान्त--(१) वास्तबमें ज्ञान अपने आपको ही जानता है । (२) व्यवहारत: ज्ञान बाह्य पदार्थोंका ज्ञाता है । दृष्टि-१-- शुद्धनिश्चयनय, प्रपूर्ण शुद्धनिश्चयनय [४६, ४६८] । २- स्वाभाविक उपचरित स्वभावव्यवहार, अपरिपूर्ण उपचरित स्वभावव्यवहार [१०५, १०५] ।
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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