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________________ प्रवचनसार: श्रथ शुद्धोपयोग लाभानन्तरभावविशुद्धात्मस्वभाव लाभमभिनन्दति-उद्योगविसुद्धो जो विगदावरणं तरायमोहरयो । भूदो सयमेवादा जादि परं गोयभूदाणं ||१५|| उपयोगशुद्ध आत्मा, विगतावरणान्तरायमोह स्वयं । · ज्ञेयभूत सकलार्थों के पूरे पारको पाता ।। १५ ।। उपयोगविशुद्ध यो विगतावरणान्तरायमोहरजाः । भूतः स्वयमेवात्मा याति पारं ज्ञेयभूतानाम् ।। १५ ।। यो हि नाम चैतन्यपरिणामलक्षणेनोपयोगेन यथाशक्ति विशुद्धो भूत्वा वर्तते स खलु प्रतिपदमुद्भिद्यमानविशिष्ट विशुद्धिशक्तिरुद्ग्रन्थितासंसारबद्धदृढतर मोहग्रंथितयात्यन्तनिर्विकारचैत नामसंज्ञ – उवओगविसुद्ध ज विगदावरणंतरायमोहरअं भूद सयं एव अप्प पर रोयभूय । धातुसंज्ञभव सत्तायां, जागतौ । प्रातिपदिक उपयोग विशुद्ध, यत्, विगतावरणान्तरायमोहरजस्, भूद, स्वयं, एव, आत्मन, पार, ज्ञेय, भूत । मूलधातु भू सत्तायां, या प्रापणे। उभयपदविवरण उवओगविसुद्धो उपयोगविशुद्धः जो यः विगदावरणंत रायमोहरओ विगतावरणान्तरायमोहरजाः - प्रथमा ए० । भूदो भूतः - प्र० एक० रहित [ स्वयमेव भूतः ] स्वयमेव होता हुआ [ ज्ञेयभूतानां ] ज्ञेयभूत पदार्थों के [पारं याति ] पार को प्राप्त होता है । तात्पर्य - शुद्धोपयोग के फल में ग्रात्मा निर्मल और सर्वज्ञ हो जाता है । टीकार्थ -- जो चैतन्य परिणामस्वरूप उपयोगके द्वारा यथाशक्ति विशुद्ध होकर वर्तता है, वह आत्मा पद पदपर अर्थात् प्रत्येक पर्याय में जिसके विशिष्ट विशुद्धि शक्ति प्रगट होती जाती है, ऐसा होता हुआ अनादि संसारसे बंधी हुई दृढ़तर मोहग्रन्थि छूट जानेसे प्रत्यन्त निर्विकार चैतन्य वाला और समस्त ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तरायके नष्ट हो जाने से निर्विघ्न विकसित आत्मशक्तिवान स्वयमेव होता हुआ ज्ञेयताको प्राप्त पदार्थोके अन्तको पा लेता है । यहां यह लक्ष्यभूत ग्रात्मा ज्ञानस्वभाव है, और ज्ञान ज्ञेय प्रमाण है; इसलिये समस्त ज्ञेयोंके भीतर रहने वाला ज्ञान जिसका स्वभाव है ऐसे आत्माको ग्रात्मा शुद्धोपयोगके प्रसादसे ही प्राप्त करता है । २५ प्रसङ्गविवरण - प्रनन्तरपूर्व गाथा में शुद्धोपयोग के स्वरूपके विषय में कहा गया था । अब इस गाथा में शुद्धोपयोगके लाभ और अनन्तर होने वाले शुद्ध आत्मस्वभावका अभिनन्दन किया गया है । तथ्यप्रकाश - ( १ ) इस गाथाको उत्थानिका में 'अभिनन्दति' क्रियासे यह ध्वनित हुआ है कि प्राचार्यदेव विशुद्धात्मस्वभाव के प्रति ही पूर्ण अनुराग होनेसे उसको इस उल्लास से कहते हैं कि उसका अभिनन्दन हो रहा है, अपनेमें सर्व प्रदेशों में ग्राह्लादित हो रहे हैं । (२)
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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