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________________ सहजानन्दशास्त्रमालायां न्यो निरस्तसमस्तज्ञानदर्शनावरणान्तरायतया निःप्रतिविम्भितात्मशक्तिश्च स्वयमेव भूतो ज्ञेयत्वमापन्नानामन्तमवाप्नोति । इह किलात्मा ज्ञानस्वभावो ज्ञानं तु ज्ञेयमात्रं ततः समस्तज्ञेयान्तर्वतिज्ञानस्वभावमात्मानमात्मा शुद्धोपयोगप्रसादादेवासादयति ॥ १५ ॥ कृदन्त क्रिया। सयं स्वयं एव-अव्यय । आदा आत्मा-प्र० एक०। जादि याति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । परं पारं-द्वितीया एक० । रणेयभूदाणं ज्ञेयभूतानां-पष्ठी बहु० । निरुक्ति-(विशेषण शुध्यति इति विशुद्धः ज्ञातुं योग्यं ज्ञेयं) समास-उपयोगेन विशुद्धः उपयोगविशुद्ध विगतं आवरणं अन्तरायः मोहरजः यस्येति विगतावरणान्तरायमोहरजाः । १५ ।। जिसको शुद्धोपयोगके स्वरूपकी खबर है और शुद्धोपयोगके फलकी रुचि है वही भव्य पुरुष शुद्धोपयोगके लाभके अनन्तर प्रकट हुए निर्मल अात्मस्वभावका अभिनन्दन कर सकता है। (३) निर्मोह शुद्धात्मत्वका परिणमन शुद्धोपयोग है। (४) मोहका निःशेषतया विनाश पृथक्त्ववितर्कवीचार नामक प्रथम शुक्लध्यान रूप शुद्धोपयोगसे हो जाता है । (५) शेष घातिया कर्मोंका निःशेषतया विनाश एकत्ववितर्क अवीचार नामक शुक्लध्यान रूप शुद्धोपयोगसे हो जाता है । (६) शुद्धोपयोगसे निःशेष घातिया कर्मोका क्षय होनेपर केवलज्ञान होता है । (७) शुद्धोपयोगसे सर्वज्ञता प्राप्त हो जाती है । (८) शुद्धोपयोगसे ही शुद्धात्मस्वभावका लाभ होता है, अतः शुद्धात्मस्वभावलाभ शुद्धोपयोगका फल है । सिद्धान्त-( १ ) शुद्धोपयोगसे निःशेषतया घातिया कर्मोका क्षय होता है । (२) शुद्धोपयोगसे शुद्धात्मस्वभावका लाभ होता है। दृष्टि---- १- निमित्तदृष्टि (५३ अ) । २- उपादानदृष्टि (४६ ब)। __ प्रयोग-शुद्धोपयोगके फलस्वरूप शुद्धात्मस्वभावलाभके लिये अबिकार सहज चैतन्यस्वरूपमें आत्मत्वका अनुभव बनाये रहना ॥ १५ ॥ प्रब शुद्धोपयोगसे होने वाले शुद्धात्मस्वभावका लाभ अन्य कारकोंसे निरपेक्षपना (स्वतंत्र) होनेसे अत्यन्त प्रात्माधीन है याने लेश मात्र स्वाधीन नहीं है यह प्रगट करते हैं[तथा] इस प्रकार [सः प्रात्मा] वह आत्मा [लब्धस्वभावः] स्वभावको प्राप्त [सर्वज्ञः] सर्वज्ञ [सर्वलोकपतिमहितः] और सर्व लोकके अधिपतियोंसे पूजित [स्वयमेव भूतः] स्वयमेव हुना होनेसे [स्वयंभूः भवति] स्वयंभू है [इति निर्दिष्टः] ऐसा जिनेन्द्रदेवके द्वारा कहा गया है। तात्पर्य-स्वभावको प्राप्त सर्वज्ञ देव स्वयं प्रभु होनेसे स्वयंभू है । टोकार्थ---शुद्ध उपयोगकी भावनाके प्रभावसे समस्त घातिकर्मोंके नष्ट होनेसे प्राप्त किया है शुद्ध अनन्त शक्तिवान चैतन्यस्वभावको जिसने ऐसा यह विशुद्ध आत्मा--(१) शुद्ध अनन्तशक्तियुक्त ज्ञायक स्वभावके कारण म्वतंत्रपना होनेसे ग्रहण किया है कर्तृत्वके अधिकार EE
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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