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________________ H &ame प्रवचनसार-सप्तदवाङ्गी टीका १४७ मय शुखात्मलामपरिपन्थिनो मोहस्य स्वभाव भूमिकाश्च विभावयति-- दव्वादिएम मूढो भावो जीवस्म हवदि मोहो त्ति । खुभदि तेगुच्छपण पप्पा रागं व दोसं वा ॥८३॥ द्रव्यादिक में आत्मा, का सूढ हि भाव मोह कहलाता । मोहावत जीव करे, क्षोभ रागद्वेषको पाकर ॥ ३ ॥ Salimseयादिकेषु मूहों भावो जीवस्य भवति मोह इति । अभ्यसि तेनावश्छन्न: प्राय गगं वा गं बा ।। ८३ ।। यो हि द्रव्यगुणपर्यायः पूर्वमुपणिते पोतोन्मत्तकस्येव जीवस्य तत्त्वाप्रतिपत्तिलक्षणो हो भाकः स खलु मोहः तेनावनात्मरूपः भन्न यमात्मा परद्रव्यमा:मद्रव्यत्वेन परगुणमात्मगुणतया परपर्यायानात्मपर्यायभावेन प्रतिपद्यमानः प्रम दृढतरसंस्कारतया परद्रव्यमेवाहरहरु. गाददानी दग्धेन्द्रियाणां रुचिव शेनाहतेऽपि प्रवर्तितद्तो रुचिताचितेषु विषयेषु रागद्वेषावुपश्लिष्य प्रचुरतराम्भोभाररयाहतः सेतुबन्ध इव द्वेधा विदार्यभारणो नितरां क्षोभमुपैति । अतो मोहरागपभेदास्त्रिभूमिको मोहः ॥८३।। नामसंश-दवादिय मुढ भाव जीय मोह नित उच्छपण राग वा दोस वा । धातुसंज्ञ-हव मनाया, प. आव प्राप्त । प्रातिपदिक-द्रध्यादिक मुह भाव जीव मोह इति तत् अयच्छन्न राग वा द्वेष "खर । मूलधातु-भू सत्ताया. शुभ संघलने दिवादि, प्र आन व्याप्ती । उभयपदविवरण--दव्यादिएसु हव्यानिकेषु--सप्तमी बहु० । मुटो मुढः भावो भावः मोहो मोहः उच्छाणो अवच्ट्रयः-प्रश्रमा एक । जीवरस जीवस्य-षष्ठी एक० । खेण तेन-सतीया एक हवदि भवति बुगादि क्षुभ्यते-वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन । प्रपा प्राप्य-असमाप्तिकी शिया कृदन्त । राग दोस--द्वि० ए० । निरुक्ति-भवनं भावः, मोहनं मोहा। समास-द्रव्यं आदिक येषां ते द्रव्यादिकाः तेषु द्रव्यादिकेषु ।।१३।। परपर्यायोंको स्वपर्यायरूप समझकर चले आये दृढ़तर संस्कारके कारण परद्रव्यको ही सदा Mयहा करता हुआ, दग्ध इन्द्रियों को रुचिके वशसे अदतमें भो द्वत प्रवृत्ति करता हुअा, रुचिकर अरुचिकर विषयोंमें रागद्वेष करके अत्यधिक जलसमूहके वेगसे पाहत सेतुबन्ध (पुल) को भौति दो भागोंमें खंडित होता हुअा अत्यन्त क्षोभको प्राप्त होता है । इस कारण मोह, राम और द्वेष-इन भेदोसे मोह तीन भूमिका वाला है । प्रसङ्गविवरण– अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि मोहक्षयके उपायको स्वयं करके हुए अरहंत देवोंने इस शुद्धात्मलाभके पारमार्थिक पन्थका उपदेश किया है । अब इस गाथामें शुद्धात्मलाभके निरोधक गोहके परिणामको बिभावित किया गया है। र तथ्यप्रकाश---(१) अन्तस्तत्त्वकी सुध न होना व परभावोंमें मुग्ध होना मोह है । २) मोही जीव परद्रव्यको स्वद्रव्यरूपसे समझता है । (३) मोही जीव परगुणको स्वगुणरूपसे
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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