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________________ ANE R १४६ सहजानंदशास्त्रमालायां ............. A KAI पामयाप्यत्यामिदानीत्वे वा मुमुक्षुरणा नथैव तदुपदिश्य निःश्रेयसमाध्याश्रिताः । ततो नान्यद्वत्म निर्वाणस्येत्य वधार्यते । ग्रलमधता प्रलपितेन । व्यवस्थिला मतिर्मम, नमो भगवद्भयः ।।८२॥ हंता अहंन्तः सविदाम्सा क्षपितकाशा: णिव्वादा विला:-प्रखमा बहा लेण तेन विधागेण विधा न-ततीया एक । नि अपि स च तथा तथा णमो नमः-अध्याय । जबर्दस देश-द्वितीया एका तसि-- षष्ठी बहु । तेभ्यः--चतुर्थी बहुः । निरुक्ति--सर्वणं सर्वः, उपदेशन उपदेशः । समास---किमयां अंशाः कमीशा: अगिता कर्माशा: यैरते क्षपितकर्माशाः ।। ६२ ।। तथ्यप्रकाश----- (१) काल अनादि अनन्त है और यद्यपि प्रत्येक सिद्ध ग्रात्मा अशुद्धावस्थाको स्यागकर सिद्ध हुए हैं तथापि सिद्ध होनेका प्रादि नहीं है, अतः तीर्थकर अब तक अनन्त हो चुके । (२) मुक्त होनेका उपाय अन्य प्रकार असंभव होनेसे सम्बक्त्वलाभ और रागद्वेषका समूल नष्ट हो जाना ही मुक्तिका उपाय है । (३) सभी तीर्थंकरोंने उक्त विधिसे घालिकर्मका क्षय करके, आप्त सर्वज्ञ होकर अन्य मुमुक्षुबोंको उसी विधिका उपदेश कर प्रधा. तिया कहेका क्षय होनेपर मोक्ष पाया । (४) भविष्य में भी अनन्त तीर्थंकर अात्मतत्वोप. लम्भ व रागद्वेष परिहारकी विधिसे सकलपरमात्मा होकर इसी विधिका उपदेश कर अधाति. कर्म क्षय होते ही मोक्ष जावेंगे। (५) इस समय भी विदेहमें वर्तमान तीर्थकर उक्त विधिसे सकलपरमात्मा होकर विधिका उपदेश देकर अघातिक्षय होनेपर मोक्ष जा रहे हैं। (६) नि. वारणप्राप्तिका मार्ग प्रारमतत्त्वोपलम्भ द रागद्वेषपरिहारके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है। सिद्धान्त-१-शुद्ध भावके होनेपर कर्मप्रकृतियोंका क्षय होकर कैवल्य प्रकट होता है। दृष्टि-...-१-- शुद्ध भावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याकिनय (२४व)। प्रयोग... कैवल्यलाभके लिये भूतार्थका प्राश्रय कर सम्यक्त्व पाकर स्वभावदृष्टिको दृढ़तारो रागद्वेषका परिहार होने देना ॥२॥ अब शुद्धात्म लाभके शत्रु मोहके स्वभाव और उसकी भूमिकानों को विभावित करते हैं -[जीवस्य जीवके [द्रव्यादिकेषु मूढः भावः] द्रव्य आदिकोंमें मूढ़ भाव [मोहः इति भवति] मोह है [तेन अयच्छन्नः] उससे आच्छादित हुआ जोव [रागं वा द्वेषं वा प्राप्य] राग अथवा द्वेषको प्राप्त करके [शुभ्यति] क्षुब्ध होता है। तात्पर्य-द्रव्य गुण पर्यायोंमें यथार्थ ज्ञान व सुध न होनेका परिणाम मोह है। उस मोहसे अाक्रान्त प्राणी रागी द्वेषी होकर दुःखी रहता है । ___टोकार्थ----धतूरा खाये हुए मनुष्यको तरह पूर्ववर्णित द्रव्य, गुण, पर्यायोंमें होने वाला जीवका तत्त्वकी अप्राप्तिरूप मूढभाव वास्तव में मोह है। उस मोहसे आच्छादित ढक गया है आत्मरूप जिसका, ऐसा यह प्रात्मा परद्रव्यको स्वद्रव्यरूपसे, परगुणको स्वगुणरूपसे, और AiminimammiummitmmmmmmmmmmmmmHIMAMR
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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