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________________ ४१२ सहजानन्दशास्त्रमालायां यदैकान्तिक शुद्धोपयोगसद्भावस्यैकान्तिकबन्धत्वेन छेदत्वमैकान्तिकमेव । अत एव भगवन्तो. ऽर्हन्तः परमाः श्रमरणाः स्वयमेव प्रागेव सर्वमेवोपधिं प्रतिषिद्धवन्तः । अत एव चापरैरप्यन्तरङ्गच्छेदवत्तदनान्तरीयकत्वात्प्रागेव सर्व एवोपधि प्रतिषेध्यः ॥ वक्तव्यमेव किल यत्तदशेषमुक्तमेarate यदि चेतयतेऽत्र कोऽपि । व्यामोहजालमतिदुस्तरमेव नूतं निश्चेतनस्य वचसामंतिविस्तरेऽपि ॥ १४॥ २१६ ॥ वान अ अ इदि इति-अव्यय । बंधो बन्धः - प्र० एक० । मदम्हि मृते जीवे कायचेट्टम्हि कायचेष्टाया सप्तमी एकवचन । धुवं ध्रुवं क्रियाविशेषण ध्रुवं यथा स्यात्तथा । उवधी दो उपधेः-पंचमी एक० । समणा श्रमणाः-प्रथमा बहु० । छड्डिया त्यक्तवन्तः - प्रथमा बहु० कृदन्त किया । सव्वं सर्व-द्वितीया एकवचन । निरुषित-ष्टनं चेष्टा वेष्ट चेष्टायां भ्वादि चेष्ट् + अ + टाप् । समास -कायस्य चेष्टा कायचेष्टा तस्यां ॥ २१६ ॥ वाले ऐकान्तिक शुद्धोपयोग के सद्भाव के कारण ऐकान्तिकरूप बंधरूप होनेसे छेदत्व ऐकान्तिक हो | इसीलिये भगवन्त र्हन्तोंने परम श्रमणोंने स्वयं ही पहले ही सभी परिग्रहको छोड़ा है और इसीलिये दूसरोंको भी, अन्तरंग छेदकी तरह प्रथम ही सभी परिग्रह छोड़ने योग्य है, क्योंकि परिग्रह अन्तरंगछेदके बिना नहीं होता । वक्तव्यमेव इत्यादि जो कहने योग्य ही था वह सब कह दिया गया है, इतने मात्र से ही यदि यहां कोई समझ ले तो ठीक है, अन्यथा वाणीका प्रतिविस्तार भी किया जाय तो Terrat aataोहका जाल वास्तव में अति दुस्तर ही है । प्रसङ्गविवरण - अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि सर्व प्रकारसे प्रन्तरङ्ग छेद प्रतिषेध्य है । अब इस गाथामें बताया गया है कि उपधि-परिग्रह नियमतः अन्तरङ्ग छेदपना होनेसे अन्तरंग छेदकी तरह त्यागने योग्य है । तथ्यप्रकाश - ( १ ) शरीरचेष्टापूर्वक हुआ परप्राविघात अशुद्धोपयोग के सद्भाव में भी संभव है और शुद्धोपयोग के प्रभाव में भी संभव है, श्रतः परत्राणविघात में बन्धका भी नियम नहीं व छेदपने का भी नियम नहीं रहा । ( २ ) परिग्रह अशुद्धोपयोग के सद्भाव बिना नहीं रखा जा सकता अतः परिग्रह रखने में बन्ध भी निश्चित है व अन्तरंग छेद भी निश्चित है । ( ३ ) परिग्रह में नियमसे बन्ध व अन्तरंग छेद निश्चित है, इसी कारण परम श्रमण पर हंत भगवानने स्वयं ही पहिले हो सब उपाधियोंका (परिग्रहों का त्याग कर दिया था । ( ४ ) इसी प्रकार अन्य मुमुक्षुजनों को भी अन्तरंग छेदका प्रतिषेध करनेकी तरह अन्तरंगछेद के अविनाभावी सर्व परिग्रहको पहिले ही प्रतिषेध्य है । (५) विवेकी पुरुषों को थोड़ी भी शिक्षावार्ता कहने से सब कुछ हितकारी बात कह लो ( गई समझना । ( ६ ) नासमझको तो कितना हो
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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