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प्रवचनसार-सप्लवङ्गी टीका
अ स्वरविवेकसिद्ध रेव मोक्षपरणं भवतोति स्वपरविभागसिद्धये प्रयततेयापगमप्पां परं च दव्वत्तणाहिसंबद्ध | जादि जदि यिदी जो मो मोहक्खयं कुगादि ||६||
ज्ञानात्मक आत्माको, परको प्रत्यक् स्वद्रव्यतावर्ती ।
जो निश्चयसे जाने, वह करता मोहका प्रक्षय
मात्मानं परं च द्रव्यत्वेनाभिसंबद्धम् । जानाति यदि नियमोह करोति ॥८॥ य एव स्वकीयेन चैतन्यात्मकेन द्रव्यत्वेनाभिवमात्मानं परं च परकीयन यथोचितेन याद्धमेव निश्चयतः परिच्छित्ति से एवं सम्यगवाप्तस्वपरविवेकः सकलं मोह समयति । श्रतः स्वपरविवेकाय प्रयतोऽस्मि ||
नाममंत्र -- णाणपग अप्प पर दत्त असंबद्ध जदि पिच्छयदो यत् तत् मोह्म्य धातुसंह - आण अवबोधने, कुण करणे । प्रातिपदिकात्मक आमद पर व्यत्व अभिसं यदि निश्चयतः यत् तत् मोक्षय मूलधातु-ज्ञा अवबोधने इत्र करो। उभयपदविवरण- गणप ज्ञा नात्मक अभ्या आत्मानं परं असंबद्ध अभिरावद्ध मोहय मोहयं द्वि० ए० णिच्छ्रयदो निश्चयत:व्यय । जो यः सो सः - प्र० एक० । जागदि जानाति कुर्गादि करोति-वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । निरुक्ति मोहन मोहः । समास- ज्ञानमेव आत्मा यस्य सः ज्ञात्मकः तं झाल ● मोहस्य यः मोक्षयः
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] atreenaनेको [च] और [परं] परको [ द्रव्यत्वेन अभिसंबद्धम् ] निज निज द्रव्यत्वसे संबद्ध [यदि जानाति ] यदि जानता है [ सः] तो वह [ मोह क्षयं करोति ] मोहका क्षय करता है।
तात्पर्य- सर्व पदार्थोंका स्वतन्त्र स्वरूप जानने वाला ही मोहका क्षय करता है । टीकार्य जो निश्चयसे अपने को अपने चैतन्यात्मक द्रव्यत्वसे संबद्ध और परको उसी दूसरे यथोचित द्रव्यत्व से संबद्ध ही जानता है, वही जीव, जिसने कि सम्यक् रूपसे स्व-परके विवेकको प्राप्त किया है, सम्पूर्ण मोहका क्षय करता है, इसलिये मैं स्व परके विवेकके लिये प्रयत्नशील हूँ ।
प्रसंगविवरण- प्रनन्तरपूर्व गाथा में विकारभाव के विनाश करनेके लिये पौरुष करने की प्रेरणा दी थी। अब इस गाथामें कहा गया है कि चूंकि स्वपरविवेक सिद्धिसे ही मोहका क्षय होता है अतः स्वपरविभागकी सिद्धिके लिये भव्य प्रयत्न करता है ।
लाभका मूल है । मोहका क्षय करते हैं ।
तथ्यप्रकाश-- - ( १ ) स्वपरविवेक ही उत्कृष्ट पद सम्यक प्रकार से स्वरविवेक प्राप्त किया है वे समस्त
(२) जिन्होंने ( २ ) समस्त