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________________ १५६ सहजानन्दशास्त्रमालायां परिमोक्षं क्षिप्रमेवाप्नोति, नापरो व्यापारः करवालपारिगरिव । अत एव सर्वारम्भे मोहक्षप. पाय पुरुषकारे निषोदामि ॥८॥ उपलभ्य-असमाप्तिकी त्रिया । जोगहं जैन उपदेसं उदेश-वि० एक० । सो स:--प्र० एक० । राध्यदुक्खमोक्वं सर्वदःखमोक्ष-द्वितीया एक० । पादि प्राप्नोलि-वर्तमान अन्य पुरुष एकल विया । अधिरेण कालेण । कालेन-तृतीया एका । निरुक्ति---कालनं कालः (कालोपदेशे) । समास----मोहश्च रागश्च द्वेषश्च मोह-। रागद्वेषा: तान मो०, सर्वाणि च तानि दुःखानि चेति सर्वदुःखानि तेभ्यः भोक्षः राबंदुःखमोक्षः तं सर्व०।८। टोकार्थ-इस अति दीर्घ संसारमार्गमें किसी भी प्रकार से तोपण असिधारा समान जैनेश्वर उपदेशको प्राप्त करके भी जो मोह-राग-द्वपपर अति दृढ़तापूर्वक उसका प्रहार करता है वही शोघ्र ही समस्त दुःखोंसे परिमोक्षको प्राप्त होता है; हाथ में तलवार लिये हुए मनुष्य की भांति अन्य कोई व्यापार समस्त दुःखोंसे परिमुक्त नहीं करता। इसीलिये सम्पूर्ण प्रयत्न पूर्वक मोहका क्षय करने के लिये मैं पुरुषार्थ में लगता हूं। प्रसंगविवरण---अनन्तरपूर्व गाथामें जैनेन्द्र शाब्दब्रह्म में अर्थोकी व्यवस्था (स्वरूप) बताई गई थी। अब इस गाथामें बताया गया है कि मोहक्षयके उपायभूत जिनेश्वरोपदेशका लाभ होनेपर भी पौरुष (प्रयोग) हो तो कार्यकारी है, अतः तद्विषयक पौरुष करना चाहिये। तथ्यप्रकाश-~(१) इस जीवका संसारमें अनादिसे उत्पातमय विविध भवधारण। चला पाया है । (२) इस अनादिसंसारमें एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय पर्यायोंको उल्लंघ कर पञ्चेन्द्रिय होना कठिन है । (३) पञ्चेन्द्रियमें भी उत्तम कुल वाला जिनशासन का अनुयायी होना और भी कठिन है। (४) अब किसी प्रकार जिनोपदेशको पाया है तब मोह राग द्वेषपर उपदेशका प्रयोग करके उनका क्षय करनेका पौरुष करना चाहिये । (५) मोह राग द्वेष नष्ट होनेपर ही समस्त दुःखोंसे छुटकारा होता है । (६) जिनोपदेशका लाभ पाया है तब विकारोंसे हटकर स्वभाव में लगना यही मात्र एक व्यापार होना रह जाता है। (७) सर्व प्रयत्नसे अपनेको मोहक्षयके लिये अपने पुरुषार्थमें लगना ही चाहिये । सिद्धान्त----१-- प्रात्मपौरुषके प्रसादसे शुद्धात्मत्वका लाभ होता है । दृष्टि---१- पुरुषकारनय [१८३] । प्रयोग---सर्व दुःखोंसे छुटकारा पाने के लिये शास्त्राध्ययन कर भावभासना सहित वस्तुस्वरूप जानकर स्वभावदृष्टिके बलसे मोह राग द्वेषका प्रक्षय करना चाहिये ॥८॥ अब स्व-परके विवेककी सिद्धिसे ही मोहका क्षय हो सकता है, इस कारण स्त्र परके विभागकी मिद्धि के लिये प्रयत्न करते हैं--[यः] जो [निश्चयतः] निश्चयसे [ज्ञानात्माकं
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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