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________________ प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका १६७ सामान्यसमुदायेनाभिधावताऽऽयत सामान्य समुदायेन च द्रव्यनाम्नाभिनिर्वर्त्यमानो द्रव्यमय एव । यथैव च पटेऽवस्थायी विस्तार सामान्य समुदायोऽभिधावन्नायत सामान्यसमुदायो वा गुरभिनि मानो गुणेभ्यः पृथगनुपलम्भाद्गुणात्मक एवं तथैव च पदार्थेष्ववस्थायी विस्तारसामान्यसमुदायोऽभिधावन्नायत सामान्यसमुदायो वा द्रव्यनामा गुणैरभिनिर्यत्र्य मानो गुणेभ्यः पृथगनुपलम्भाद्गुणात्मक एव । यथैव वानेकपटात्मको द्विपटिका त्रिपटिकेति समानजातीयो द्रव्यपर्यायः तथैव चानेक पुद्गलात्मको द्वयमुकस्यरक इति समानजातीयो द्रव्यपर्यायः । यथैव चानेककीकामपा द्विपटिकापटिकेत्यसमानजातीयो द्रव्यपर्यायः, तथैव चानेकजीवपुदगलामको देवो मनुष्य इत्यसमानजातीयो द्रव्यपर्यायः । यथैव च क्वचित्पटे स्थूलात्गीयागुरुलघुगणद्वारेण कालक्रमप्रवृत्तेन नानाविधेन परिणमनान्नात्वप्रतिपत्तिर्गुणात्मकः स्वभावयः, तथैव च समस्तेष्वपि द्रव्येषु सूक्ष्मात्मीयात्मीय गुरुलघुगुराद्वारेण प्रतिसमयसमुदीयमानपट्स्यानपतितवृद्धिहानिनानात्वानुभूतिः गुणात्मकः स्वभाव पर्यायः । यथैव च पटे रूपादीनां स्वपरप्रत्यपरसमया परमयाः- प्रथमा बहु० । तेहि तैः तृतीया बहु । भणिदाणि भणितानि प्रथमा बहुवचन दन्त किया । खलु पुणो पुनः हि-अव्यय । निरुक्ति-परि वंशि गच्छेति द्रव्यमनु इति पर्यायाः सम् अयते इति 'अन्य' है वह - गुणोंसे रचित होता हुआ गुणोंसे पृथक् न पाया जानेसे गुणात्मक हो है । मोर असे अनेक पदात्मक द्विपटिक, त्रिपटिक यह समानजातीय द्रव्यपर्याय है, उसी प्रकार अनेक पुद्गलात्मक द्विरक, त्रिअस्तुक, ऐसा समानजातीय द्रव्यपर्याय है; और जैसे अनेक रेशमी परसुती पटोंके बने हुए द्विपटिक, त्रिपटिक, ऐसा प्रसमानजातीय द्रव्यपर्याय है उसी प्रकार अनेक जीव पुद्गलात्मक देव, मनुष्य, ऐसी असमानजातीय द्रव्यपर्याय हैं । और जैसे कभी पटमें अपने स्थूल अगुरुलघु गुण द्वारा कालक्रमसे प्रवर्तमान अनेक प्रकाररूपसे परियत के कारण नानापनकी प्रतिपत्ति गुणात्मक स्वभाव पर्याय है, उसी प्रकार समस्त द्रव्यों में अपने अपने सूक्ष्म अगुरुलघुगुण द्वारा प्रतिसमय प्रगट होने वाली षट्स्थानपतित हानिवृद्धिरूप ताप की अनुभूति गुणात्मक स्वभावपर्याय है; और जैसे पटमें, रूपादिकके स्व-परके कारण वर्तमान पूर्वोत्तर अवस्था में होने वाले तारतम्यके कारण देखने में आने वाले स्वभावविशेषरूप मापत्ति गुणात्मक विभावपर्याय है, उसी प्रकार समस्त द्रव्यों में रूपादिके या ज्ञानादिके स्वपरके कारण प्रवर्तमान पूर्वोत्तर अवस्था में होने वाले तारतम्यके कारण देखने में आने वाले स्वभावविशेषरूप की प्रापत्ति गुणात्मक विभावर्याय है । वास्तव में यह, सर्व पदार्थक पर्यायस्वभावको प्रकाशक पारमेश्वरी व्यवस्था न्याययुक्त है, दूसरी कोई नहीं । क्योंकि बहुत से जीव पर्याय मात्रका ही अवलम्बन करके, तत्त्वकी प्रप्रतिपत्ति लक्षण है जिसका ऐसे मोहको प्राप्त होते हुये परसमय होते हैं ।
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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