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________________ malcommonyms hows ४२८ सहजानन्दशास्त्रमालायां अथ कुतो युक्ताहारत्वं सिद्धयतीत्युपदिशति---- केवलदेहो समणो देहे ण ममत्ति रहिदपरिकम्मो । बाजुत्तो तं तवसा अणिगृहिय थप्पणो सत्तिं ॥२२॥ मात्रमात्रसंगी मुनि तनमें भि ममत्व बिन अपरिकर्मा । अपनी शक्ति प्रकट कर, तपमें उद्यत श्रमरण होता ॥२२८॥ केवलदेहः श्रमणो देहे न ममेति रहिलपरिकर्मा ! आयुक्तबास्तं तपसा अनिगूह्यात्मनः शक्तिम् ।। २२८ ।। ___ यतो हि श्रमणः श्रामण्यपर्यायसहकारिकारणत्वेन केवल देहमात्रस्योषधे। प्रसह्याप्रतिक्षे. घकत्वात्केवलदेहत्वे सत्यपि देहे 'किं किंचण' इत्यादिप्राक्तनसूत्रद्योतितपरमेश्वराभिप्रायपरिग्रहेण नामसंज्ञ--- केवलदेह समण देह ण अघ ममत्ति रहिदपरिकम्म आजुत्त त तव अप्प सत्ति। धातसंज्ञ-- ग्रह संवरणे । प्रातिपदिक केवलदेह श्रमण देह न अस्मद् इति रहितपरिकर्मन् आयुक्तवत् तत् तपस आत्मस् शक्ति । मूलधात गुह गोपने । उभयपदविवरण--केवलदेहो केवलदेहः समणो श्रमणः रहिदपरिकामो रहितपरिकर्मा-प्रथमा एक० । देहे-सप्तमी एक० । ण न त्ति इति-अव्यय । आजुलो आयुक्तवान्-प्रथमा एकवचन कृदन्त । तं-द्वितीया एक । तवसा तपसा-तृ• एक० । अणि गृहिय अनि गृह्य-सम्बन्धार्थप्रक्रिया दृष्टि-१- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४ब) । २- अकर्तृ नय (१९०) । प्रयोग-निष्क्रिय शान्त अन्तस्तत्त्वकी उपलब्धिके लिये निर्ग्रन्थ श्रमण होकर अविहारस्वभाव अन्तस्तत्त्वको दृष्टि रखना व इस ही की सिद्धि के लिये यदि आवश्यक हो तो योग्य विहार करना ।।२२७॥ - अब श्रमणके युक्ताहारपना कैसे सिद्ध होता है यह उपदेश करते हैं----[केवलदेह श्रमणः] जिसके देहमात्रपरिग्रह विद्यमान है ऐसे श्रमणने [देहे अपि शरीरमें भी न मम इति] 'मेरा नहीं है। यह समझकर [रहितपरिकर्मा] परिकर्म रहित होते हुये, [आत्मनः] अपने प्रात्माको [क्ति] शक्तिको [अनिग्रहा] न छुपाकर तपसा] तपके साथ [२] उस शरीरको [आयुक्तवान् ] युक्त किया है। तात्पर्य---- मुनिराजोंने देहममत्व त्यागकर आत्मशक्तिको न छुपाकर देहको तपश्चरण में लगाया । . टीकार्थ-चूंकि श्रामण्यपर्यायके सहकारी कारणके रूपमें केवल देहमात्र उपधिको श्रमण हठपूर्वक त्याग नहीं करता इसलिये वह केवल देहवान् है; ऐसा देहबान होनेपर भी, किं किंचण' इत्यादि पूर्व गाथा द्वारा प्रकाशित किये गये परमेश्वरके अभिप्रायका प्रहरण करनेके द्वारसे 'यह शरीर वास्तवमें मेरा नहीं है इसलिये यह अनुग्रह योग्य नहीं है, किन्त उपेक्षा योग्य हो है। इस प्रकार समस्त शारीरिक संस्कारको छोड़ा हुअा होनेसे परिकर्मरहित है, इस कारण उसके देहके ममत्वपूर्वक अनुचित पाहारग्रहणका अभाव होनेसे युक्ताहारित्व -Mur wwww w wwwwwwwwwwwwwwwwww.IM....ULI AthAl-Aaw-------iwwinni
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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