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________________ प्रवचनसार -- सप्तदशाङ्गी टीका १८३ एव सिद्धfecreatiताम् । सत्तात्मनात्मनः स्वभावेन निष्पन्ननिष्पत्तिमद्भावयुक्तत्वात् । न च द्रव्यादर्थान्तरभूता सत्तोपपत्तिमभिप्रपद्यते, यतस्तत्समवायात्तत्सदिति स्यात् । सतः सत्तायाश्च न तावद्युत सिद्धत्वेनार्थान्तरत्वं तयोर्दण्डदण्डिवद्युत सिद्धस्यादर्शनात् । अयुत सिद्धत्वेनापि न तदुपञ्चते । इहेदमितिप्रतीतेपद्यत इति चेत् किनिबन्धना होहेदमिति प्रतीतिः । भेदनिबन्धनेतिचैतु को नाम भेदः । प्रादेशिक अताद्भाविको वा । न तावत्प्रादेशिकः पूर्वमेव युतमिद्धत्वस्याप्रसारणात् । श्रताद्भाविकश्चेत् उपपन्न एव यद्रव्यं तन्न गुण इति वचनात् । अयं तु न खल्वे कान्तेने हे दमितिप्रतीतेनिबन्धनं स्वयमेवोन्मग्ननिमग्नत्वात् । तथाहि--यदेव पर्यायाप्येते द्रव्यं तदेव गुणवदिदं द्रव्यमयमस्य गुणः शुभ्रमिदमुत रोषमयमस्य शुभ्र गुण इत्यादिवदताद्भा विको भेद उन्मञ्जति । यदा तु द्रव्येणाप्यते द्रव्यं तदास्तमित समस्त गुणवासनोन्मेषस्थ तथाविधं अयमेव शुभ्रमुत्तरीयमित्यादिवत्प्रपश्यतः समूल एवाताद्भादिको भेदो निमञ्जति । एवं हि भेदे 3 इच्छायां । उभयपदविवरण-दव्यं द्रव्यं सहावसिद्ध स्वभावसिद्ध सत् प्रथमा एक । इति न वध तथा हि-अव्यय । जिणा जिवा:- प्रथमा बहु० । तचदों तत्त्वतः अव्यय पंचम्यर्थे । समवखादा समास्वातबन्तः- प्रथमा बहु० कृदन्तु क्रिया । सिद्ध - द्रि० ए० | आगमको आगमतः-अव्यय पंचम्यर्थे । इच्छति इच्छ नहीं है । परन्तु यह ताद्भाविक भेद 'एकान्त से इसमें यह है' ऐसी प्रतीतिका कारण नहीं है, क्योंकि वह स्वयमेव उन्मग्न और निमग्न होता है । वह इस प्रकार है:- जब ही पर्यायके द्वारा द्रव्य अर्पित किया जाता है तब ही 'शुक्ल यह वस्त्र है, यह इसका शुक्लत्व गुण हैं' -इत्यादिकी तरह 'गुण वाला यह द्रव्य है, यह इसका गुण है' इस प्रकार प्रताद्भाविक भेद उछलता है; परन्तु जब द्रव्यके द्वारा द्रव्य अर्पित कराया जाय तब जिसके समस्त गुणवासना के उन्मेष ग्रस्त हो गये हैं ऐसे उस जीवको 'शुक्ल वस्त्र हो है' इत्यादिकी तरह 'ऐसा द्रव्य ही है' इस प्रकार देखनेपर समूल ही प्रताद्भाविक भेद डूब जाता है। इस प्रकार भेदके निमन होनेपर उसके प्राश्रयसे होती हुई प्रतीति निमग्न होती है। उसके निमग्न होनेपर प्रयुतसिद्धत्वजनित अर्थान्तरत्व निमग्न होता है, इस कारण समस्त ही एक द्रव्य ही होकर रहता हैं। और जब भेद उन्मग्न होता है, तब भेदके उन्मग्न होनेपर उसके आश्रयसे होती हुई प्रतीति उन्मन्न होती है, उसके उन्मग्न होनेपर भयुत सिद्धत्वजनित अर्थान्तरत्व उन्मग्न होता है, तब भी द्रव्य के पर्यायरूपसे उन्मग्न होनेसे, जलराशिसे जलतरंगों को तरह द्रव्यसे व्यतिरिक्त नहीं होता । ऐसा होनेपर स्वयमेव सत् द्रव्य है । जो ऐसा नहीं मानता वह वास्तव में 'परसमय' ( मिथ्यादृष्टि ही ) माना जाना चाहिये । प्रसंगविवरण - अनन्तरपूर्व गाथा में द्रव्यों के सादृश्यास्तित्वका कथन किया गया था । Modia
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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