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________________ ३५६ प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका परद्रव्यध्यावृत्तत्वादात्मन्येवैकस्मिन्नने चिन्तां निरुणद्धि स खल्वेकाग्रचिन्तानिरोधकस्तस्मिन्नेकाग्रचिन्तानिरोधसमये शुद्धात्या स्यात् । अतोऽवधार्यते शुद्ध नयादेव शुद्धात्मलाभ: ॥१६१|| एक इति यत् ध्यान बत् आत्मन् व्यातृ । मूलधातु-भू सत्तायां, अस् भुवि ध्यै ध्याने। उभयपदविवरणन अव्यय । अहं णाणं ज्ञानं एकको एक: जो यः सो सः झादा ध्याता-प्रथमा एकवचन । परेरित परेषाषष्ठी बहु । भे-पष्टी एक० 1 परे-प्र० ब० झारणे ध्याने-सप्तमी एक० । अप्पाणं आरमान-द्वि० एक० । होमि भवामि-वर्त० उत्तम एक० । संति सन्ति--वर्त० अन्य० बहु० त्रिया । झायदि ध्यायति हददि भवति-वर्तमान अन्य एक क्रिया । निरुक्ति- ध्यायति असौ इति ध्याता, ज्ञप्तिमात्र इति ज्ञानं ।। १६१ : को ही जानता है वह उस काल में शुद्धात्माका उपयोगी है । (५१) शुद्धनयसे हो शुद्धात्माका उपयोग बना, अतः शुद्धनयसे ही शुद्वात्मलाभ होता है, यह निश्चित हुया । (१२) शुद्धात्मलाभ के समय ज्ञानी भाववर्म द्रव्यकर्म व नोकर्मसे विविक्त एक ज्ञान मात्र ही अनुभवता है । (१३) शुद्धात्मध्यान में स्थित हुअा ज्ञानी चिदानन्द एकस्वभाव सहजपरमात्माका ध्याता हैं। (१४) सहज परमात्माका ध्याता सहजपरमात्माको प्राप्त करता है। सिद्धान्त-१-- शुद्धनयसे शुद्धात्मलाभ होता है। २-- शुद्धस्वरूपको भावनामें जीव निरुपाधि अात्मस्वरूपका ध्याता है । दृष्टि-१- शुद्धनय (४६) । २-- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४८) । प्रयोग- शुद्धात्मलाभके लिये "मैं दूसरेका नहीं, दूसरे मेरे नहीं, मैं तो एक ज्ञानमात्र हूँ' इस प्रकार एकत्वविभक्त आत्मतत्त्वको ध्यान में लेना ॥१६.१।। अब ध्र वत्वके कारण शुद्धात्मा ही पाने योग्य है यह उपदेश करते हैं.---[अहम] मैं [एवं] इस प्रकार [श्रात्मक] आत्माको [ज्ञानात्मानं] ज्ञानात्मक, [दर्शनभूतम्] दर्शनभूत, अतीन्द्रियमहाथं] अतीन्द्रिय महापदार्थ, [ध्र वम्] ध्र ब, [अचलम्] अचल, [अनालम्ब] निरालम्ब और [शुद्धम्] शुद्ध [मन्ये] मानता हूं। तात्पर्य---मैं अपनेको ज्ञानदर्शनमय अतीन्द्रिय भ्र व अचल निरपेक्ष शुद्ध सहज पर. मात्मतत्त्व मानता है। टीकार्थ- सत् अहेतुक होनेके कारण अनादि-अनन्त और स्वतः सिद्ध होनेसे प्रात्मा का शुद्धात्मा ही ध्रुव है, उसके दुसरा कुछ भी ध्रव नहीं है। और परद्रव्यसे भिन्नत्व और स्वधर्मसे अभिन्नत्य होनेके कारण एकत्व होनेसे प्रात्मा प्रशुद्ध है । वह एकत्व प्रात्माके ज्ञानात्मकत्वके कारणा, दर्शनभूतत्वके कारण, अतीन्द्रिय महापदार्थत्वके कारण, अचलताके कारण मोर निरालम्बत्वके कारण है। उनमेंसे ज्ञानको ही अपनेमें धारण करने वाले, स्वयं दर्शनभूत प्रात्माका अतन्मय परद्रव्यसे भिन्नत्व होनेके कारण और स्वधर्मसे अभिन्नत्व होनेके । -- - -
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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