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________________ : 00 86000mm DEEEEEEE ३६० सहजानन्दशास्त्रमालायां अथ ध्रुवत्वात् शुद्ध आत्मैवोपलम्भनीय इत्युपदिशति--- एवं णाणप्पाणं दंसणभूदं अदिदियमहत्थं । धुवमचलमणालंबं मण्णोऽहं अप्पगं सुद्ध ॥१६॥ यौं जानात्मक दर्शन-भूत अतीन्द्रिय महार्थ अविनाशी । ध्रुव अचत निरालम्बी, निजको मैं शुद्ध माता हूँ॥१६२॥ एवं ज्ञानात्मानं दर्शनभूतमतीन्द्रियमहार्थम् । ध्रुवमचलमनालम्बं मन्येऽहमात्मकं शुद्धम् ।। १६२ ।। ___ आत्मनो हि शुद्ध प्रात्मैव सदहेतुकत्वेनानाद्यनन्तत्वात् स्वतःसिद्धत्वाच्च ध्रुवो न किचनाप्यन्यत् । शुद्धत्वं चात्मनः परद्रव्यविभागेन स्वधर्माविभागेन चैकत्वात् । तच्च ज्ञानात्मक त्वाद्दर्शनभूततवादतीन्द्रिय महार्थत्वादचलत्वादनालम्बत्वाच्च । तम्म ज्ञानमेवात्मनि विभ्रतः स्वयं दर्शन भूतस्य चातन्मयपरद्रव्यविभागेन स्वधर्माविभागेन चास्त्येकत्वम् । तथा प्रतिनियतस्पर्श. __ नामसंज-एवं जाणाप दसणभूद अदिदियमहत्थ धुव अचल अणालब अम्ह अप्पग सुद्ध । घातुसंज्ञ--- मन्न अवबोधने। प्रातिपदिकः ...एवं ज्ञानात्मन् दर्शनभूत अतीन्द्रियमहार्थ ध्रुब अचल अनालम्ब अस्मद भात्मक शुद्ध। मूलधातु- मन ज्ञाने। उभयपद विवरण-एवं-अव्यय । णाणप्पाणं ज्ञानात्मानं दसणभूद दर्शनमूतं अदिदियमहत्थं अतीन्द्रियमहाथ धुवं ध्रुर्व अचल अणालय अनालम्ब अप्पगं आत्मकं सुद्धं शुद्धंकारण एकत्व है । और, जो प्रतिनियत स्पर्श-रस गंध-वर्णरूप गुण तथा शब्दरूपपर्यायको ग्रहण करने वाली अनेक इन्द्रियोंका उलंघन करके समस्त स्पर्श-रस-गंध-वर्णरूप गुणों और शब्दरूप पर्यायको ग्रहण करने वाले एक सत् महापदार्थका (प्रात्माका) इन्द्रियात्मक परद्रव्यसे भिन्नत्व होनेके कारण और स्पादिके ग्रहण स्वरूप (ज्ञानस्वरूप) स्वधर्मसे अभिन्नत्व होने के कारण एकत्व है । और, क्षण विनाशरूपसे प्रवर्तमान ज्ञेय पर्यायोंको ग्रहण करने और छोड़ने का प्रभाव होनेसे प्रचल श्रात्माका शेषपर्यायस्वरूप परद्रव्यसे भिन्नत्व होनेके कारण और तन्निमित्तक ज्ञानस्वरूप स्वधर्मसे अभिन्नत्य होने के कारण एकत्व है । और, नित्य रूपसे प्रव. र्तमान ज्ञेयद्रव्योंके पालम्बनका प्रभाव होनेसे निरालम्ब प्रात्माका ज्ञेय-परद्रव्योंसे भिन्नत्व होने के कारण और तन्निमित्तक ज्ञानस्वरूप स्वधर्मसे अभिन्नत्व होने के कारण एकत्व है। इस प्रकार चिन्मात्र शुद्धनयका उतना ही मात्र निरूपणस्वरूपपना होनेसे यही एक शुद्धात्मा ही ध्र बनके कारण उपलब्ध करने योग्य है। पथिकके शरीरके अंगोंके साथ संसर्गमें प्राने वाली मार्गके वृक्षोंकी अनेक छायाके तुल्य अन्य अध्रव पदार्थोसे क्या प्रयोजन है ? प्रसंगविवरण----अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि शुद्धनयसे शुद्धात्मलाभ होता है। अब इस गापामें बताया गया है कि ध्रुवपना होनेसे शुद्ध प्रात्मा ही उपलम्भनीय
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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