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________________ प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका रसगन्धवर्णगुणशब्दपर्यायग्राहोण्यनेकानोन्द्रियाण्यतिक्रम्य सर्वस्पर्शरसगन्धवरणगुणशब्दपर्यायग्रा. हकस्यैकस्य सतो महतोऽर्थस्येन्द्रियात्मकपरद्रब्यधिभागेन स्पर्शादिग्रहणात्मकस्वधर्भाविभागेन चास्त्येकत्वम् । तथा क्षरणक्षयप्रवृत्तपरिच्छेद्यपर्यायग्न हणमोक्षणाभावेनाचलस्य परिच्छेद्यपर्यायात्मकपरद्रव्यविभागेन तत्प्रत्ययपरिच्छेदात्मकस्वधर्माविभागेन चास्त्येकत्वम् । तथा नित्यप्रवृत्तपरिच्छेद्यद्रव्यालम्बनाभावेनानालम्बस्य परिच्छेद्यपरद्रव्यविभागेन तत्प्रत्ययपरिच्छेदात्मकस्वध विभागेन चासत्येकत्वम् । एवं शुद्ध आत्मा चिन्मात्रशुद्धनयस्य तावन्मात्रतिरूपणात्मकत्वात प्रयमेक एव च ध्र वत्वादुपलब्धव्यः किमन्यरध्वनीनाङ्गसंगच्छमानानेकमार्गपादपच्छायास्थानीयैरध्र वः ॥ १६२।। SoSORRESO द्वितीया एकवचन । अहं-प्रथमा एकवचन । मरणे मन्ये-वलेमान उत्तम पुरुष एकवचन क्रिया 1 निरुक्तिआलंबनं आलम्बः तेन रहित: अनालम्ब: तं लबि अवलम्बने 1 समास--ज्ञान आत्मा स्वरूप यस्य स ज्ञामात्मा सं ॥१९॥ (प्राप्त ) है। तथ्यप्रकाश-(१) प्रात्माका ध्र व सर्वस्व शुद्ध (केवल) प्रात्मा ही है, अन्य कुछ नही । (२) प्रात्मा स्वयं सत् अहेतुक होनेसे अनादि अनन्त है और स्वतः सिद्ध है, इसी कारण शाश्वत ध्रुव है । (३) आत्मा समस्त परद्रव्योंसे जुदा है और अपने स्व धर्मोमें तन्मय है, यही एकत्व है, यही प्रात्माकी यहाँ अभिप्रेत शुद्धता है। (४) अपने प्रापमें ज्ञानमय होने से प्रखण्ड ज्ञानात्मक यह आत्मा अतन्मय परद्रव्यसे जुदा व निचित्स्वभावमें तन्मय होनेसे एकत्वगत शुद्ध है । (५) स्वयं प्रतिभासमात्र होनेसे दर्शनभूत यह प्रात्मा अतन्मय परद्रच्यसे जुदा व स्वचित्स्वभाव में तन्मय होनेसे एकत्वगत शुद्ध है । (६) प्रतिनियत स्पर्शादिको ग्रहण करने वाली मूर्त विनयबर इन्द्रियोंसे परे और सर्वस्पर्शादिका जाता अमूर्त अविनश्वर यह प्रतीन्द्रियस्वभाव आत्मा इन्द्रियात्मक परद्रव्योंसे जुदा व ज्ञायकस्वरूप स्वधर्ममें तन्मय होनेसे एकत्वगत शुद्ध है । (७) क्षणिक परिच्छेच पर्यायोंका ग्रहण मोक्षण न होनेसे चञ्चल त्रियोग. व्यापाररहित स्वरूपतः प्रचल यह प्रातमा परिच्छेद्यपर्यायात्मक परद्रव्यसे जुदा व परिच्छेदा. मकस्वधर्ममें तन्मय होनेसे एकत्वगत शुद्ध है। (८) परिच्छेद्य द्रव्यका आलम्बन न होनेसे मनालम्ब यह स्वाधीन प्रात्मा परिच्छेद्य परद्रव्यसे जुदा व परिच्छेदात्मकस्वधर्ममें तन्मय होने से एकत्वगत शुद्ध है । (६) विकारमयत्रिवर्गसाधनकी स्वाभाविक्ता न होनेसे मोक्षमहापुरुषार्थ का साधक यह आत्मा परवृत्तियोंसे जुदा व स्वसहजवृत्तियोंमें तन्मय होनेसे एकत्वगत शुद्ध है । (१०) उक्त प्रकार सुनिश्चित चिन्मात्र यह एक आत्मा ही ध्रव है और उपलब्धव्य है। कार
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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