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________________ ॐ TimsimeMMEREMIERE सहजानन्दशास्त्रमालायां अथ शुद्धनयात शुद्धात्मलाभ एवेत्यवधारयति गाई होमि परेसिं ण, मे परे संति गाणमहमेको । इदि जो झायदि झाणे सो अप्पाणं हवाद झादा ॥१६१॥ मैं परका नहि हूं पर मेरा नहि ज्ञानभाव इक हूँ मैं । यों निजको जो ध्याता, शुद्ध वही ध्यानमें ध्याता ॥१६१॥ नाहं भवामि परेषां म मे परे सन्ति ज्ञानमहलंक: । इति यो ध्यायति ध्याने स आत्मा भवति ध्याता || यो हि नाम स्वविषयमात्रप्रवृत्ताशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मक व्यवहारन याविरोधमध्यस्थः शुद्ध द्रव्यनिरूपणात्मक निश्चयनयापहस्तितमोहः सन् नाहं परेषामस्मि न परे मे सन्तीति स्वपरयो। परस्परस्व स्वामिसंबन्धमुख़्य शुद्ध ज्ञानमेवैकमहमित्यनात्मानमुत्सृज्यात्मानमेवात्मत्वेनोपादाय । नामसंज-ण अम्ह पर ण अम्ह पर णाण अह एक्क इदि ज झत्रण त अप्प झादार । धातसंज्ञ-हो। सत्तायां, अस सत्तायां, जमा ध्याने, हब सत्तायां । प्रातिपदिक---- अस्मद् पर न अस्मद पर ज्ञान अस्मद । छोड़कर, प्रात्माको ही प्रात्मरूपसे ग्रहण करके, परद्रव्य से जुदा हो जानेके कारण आत्मरूप ही एक अग्र में चिन्तनको रोकता है, वह एकाग्नचिन्तानिरोधक उस एकाग्रचिन्तानिरोधक समय वास्तवमें शुद्धात्मा होता है । इससे निश्चित होता है कि शुद्धनयसे ही शुद्धात्माका लाभ होता है। प्रसंगविधररण---अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि अशुद्धनयसे अशुद्धात्मत्वका लाभ होता है । अब इस गाथामें बताया गया है कि शुद्धनय से शुद्धात्मलाभ ही होता है। तथ्यप्रकाश----(१) व्यवहारनय अशुद्ध (सोपाधि) द्रव्यका निरूपण करता है। (२) निश्चयनय शुद्ध (केवल एक) द्रव्यका निरूपक है । (३) ज्ञानी व्यवहारनयको यो निरखकर कि यह अपने विषयमात्रमें प्रवृत्त हो रहा है, व्यवहारनयका विरोध न करके मध्यस्थ रहता है । (४) ज्ञानी व्यवहारनयके अबिरोधसे मध्यस्थ होता हुमो निश्चयनय के द्वारा भोहको दूर कर देता है । (५) ज्ञानी निर्मोह होता हुआ स्व व परमें परस्पर स्वस्वामिसम्बन्धको खतम कर देता है । (६) निर्मोह होनेसे ज्ञानीका यह अबाधित निर्णय रहता है कि न मैं किसी पर द्रव्यका हूं और न कोई परद्रव्य मेरा है । (७) ज्ञानी स्वपरमें परस्परस्वस्वामिसम्बन्धको खतम करके अपनेको मैं शुद्ध ज्ञानमात्र हूं ऐसा मानता है, प्रतीत करता है । (८) ज्ञानी अपने को शुद्ध ज्ञानमात्र मानता हुमा समस्त अनात्मक पदार्थोको त्याग देता है । (६) ज्ञानी अनाने स्मक पदार्थों को त्यागकर व प्रात्माको प्रात्मरूपसे ग्रहण कर परद्रव्योंसे जुदा हो जानेके कारण एक स्वात्मामें ही ध्यान रखता है। (१०) जो ज्ञानी ज्ञानद्वारा ज्ञानमें ज्ञानस्वरूपको शुद्धात्मा SAR 30-5408 w wine TARRERamaidamcines AMRAHANAMAHArtw 8.
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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