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________________ प्रवचनसार-सप्तदशांगो टीका स खलु शुद्धात्मपरिणतिरूपं श्रामण्याख्यं मार्ग दूरादपहायाशुद्धात्मपरिणतिरूपमुन्मार्गमेव प्रतिपद्यते । अतोऽवधार्यते प्रशुद्धनयादशुद्धात्मलाभ एव ।।१०।। प्रतिपन्न उन्मार्ग । मूलधातु-त्यज त्यागे, भू सत्तायां । उभयपदविवरण--ण न दु तु ति इति-अव्यय । चयदि त्यजति होदि भवति-वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । जो यः सो सः पडिवण्णो प्रतिपन्न:प्रथमा एकवचन । मत्ति ममतां सामण्णं श्रामण्यं उम्मग्गं उन्मार्ग-द्वि० एक० । अहं-प्र० एक० । ममषष्ठी एक० । इमं इदं-प्रथमा एक० । देहदुविणेसु देहद्रविणेषु-सप्तमी बहु० । चत्ता त्यक्त्वा-सम्बन्धार्थप्रक्रिया । निरुक्ति-श्रमणस्य भावः श्रामण्यं द्रूयते यत्र तत्र इति द्रविणं द्रु गतौ भ्वादि । समास--देहाश्च द्रविणानि चेति देहद्रविणानि तेषु ।।१६०॥ (३) निश्चयनयकी अपेक्षा न रखकर एकान्ततः व्यवहारनयका पालम्बन करनेसे मोह उत्पन्न होता है । (४) जिसके परद्रव्य में व्यामोह उत्पन्न हुआ है वह देहमें यह मैं हूं ऐसा अनुभव करता है । (५) देह व्यामुग्ध जीव देहसुखसाधनभूत परद्रव्योमें यह मेरा है इस ममत्वको नहीं छोड़ता । (६) जो अहंकार, ममकारको नहीं छोड़ता वह शुद्धोत्मपरिणतिरूप श्रामण्य मार्गको दूर से ही छोड़ देता है। (७) जो शुद्धात्मदृष्टिरूप श्रामण्यमार्गसे दूर रहता है वह प्रशुद्धात्मपरिणतिरूप उन्मार्ग में रमता है। (८) अशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मक अशुद्धनयसे अशुद्धा. स्मत्वका ही लाभ होता है। सिद्धान्त-(१) प्रशुद्ध न यसे अशुद्धात्माका लाभ होता है । दृष्टि-१- एकजातिद्रव्ये अन्य जातिद्रव्योपचारक असद्भूत व्यवहार, स्वजात्यसद्भुत व्यवहार, विजात्यसद्भूत व्यवहार आदि (१०६, ६७, ६८)। प्रयोग-पराधित सकलबाधावोंसे दूर होने के लिये परद्रव्य व परभावसे दृष्टि हटा ना ॥१६॥ अब शुद्ध नयसे शुद्धात्माका ही लाभ होता है यह अवधारित करते हैं--[अहं परेषां न भवामि] 'मैं परको नहीं हूं, [परे मे न सन्ति] पर मेरे नहीं हैं, [अहम् एकः ज्ञानम् ] मैं एक ज्ञान हूं' [इति यः ध्याने ध्यायति] इस प्रकार जो ध्यान में रहता हुमा ध्यान करता है, [सः आत्मा] वह आत्माको [ध्याता भवति] ध्याने वाला होता है । तात्पर्य---अपनेको ज्ञानमात्र ध्याने वाला आत्मा आत्मध्याता कहलाता है । टोकार्थ-~-जो आत्मा मात्र अपने विषयमें प्रवर्तमान अशुद्ध द्रव्यके निरूपणस्वरूप व्यवहारनयके अविरोधसे मध्यस्थ होता हुग्रा शुद्ध द्रव्यके निरूपणस्वरूप निश्चयनयके द्वारा मोह को दूर किया है जिसने ऐसा होता हुआ, 'मैं परका नहीं हूं, पर मेरे नहीं हैं। इस प्रकार स्व. परके परस्पर स्वस्वामिसंबंधको छोड़ कर, 'शुद्ध ज्ञान ही एक मैं हूं' इस प्रकार अनात्माको ।
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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