SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 335
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवचनसार-सप्तदशांगो टीका ३२१ अयात्मनः कर्मत्वपरिणतपदगलद्रव्यात्मकशरीरकर्तृत्वामावमवधारयति---- ते ते कम्मत्तगदा पोग्गलकाया पुणो वि जीवस्स । संजायते देहा देहतरसंकमं पप्पा ॥ १७० ॥ वे वे कर्मविपरिणत, पुद्गलपिण्ड देहान्यसंक्रम पा। बार नार परिवर्तित, जीवोंके देह बनते हैं ॥१७०॥ ने से कर्मत्वगता! पुद्गलकायाः पुनरपि जीवस्य । संजायन्ते देहा देहान्तरसंक्रां प्राप्य ।। १७० ।। ये ये नामामी यस्य जीवस्य परिणाम निमित्तमात्रीकृत्य पुद्गलकायाः स्वयमेव कर्म. स्वेन परिणमन्ति, अथ ते ते तस्य जीवस्यानादिसंतानप्रवृत्तिशरीरान्तरसंक्रान्तिमाश्रित्य स्वयमेव च शरीराणि जायन्ते । अलोऽवधार्यते न कर्मत्वपरिणतपुद्गलद्रव्यात्मकशरीरकर्ता पुरुषो .. Hinduism. santonki... नामसंज्ञ--त त कम्मत्तगद पोग्गलकाय पुणो वि जीव देह देहांतरसंवाम 1 धातुसंज-सजा प्रादुभुवि प अप्प अर्थरणे । प्रातिपदिक.....तत् तत् कर्मत्वगत पुदगलकाय पुनर् अपि जीव देह दहान्तरसंक्रम। मानधातु-सं जनी प्रादुर्भाव, प्र आल व्याप्ती । उभयपदविवरण-ते ते कम्मत्तगदा कर्मत्वगता: पोमगलमाया पुद्गलकाबा: दहा देहः-प्रथमा बहुवचन । पुणो पुनः वि अपि-अव्यय । जीवस्य जीवस्य-षष्ठी एकयवनः । संजायते संजायन्ते-वर्तमान अन्य पुरुष बहुवचन क्रिया । पप्पा प्राप्य सम्बंधार्थप्रक्रिया कृदन्त । । देहतरसंकम देहान्तरसंक्रम-द्वितीया एकवचन । निरुक्ति--संक्रमणं संश्रमः ऋमु पादविक्षेपे। समास हान्तरस्य संक्रमः देहान्तरसंक्रमः से देहान्तरसंकम् ।।१७०।। नहीं है । अब इस गाथामें बताया गया है कि प्रात्मा कर्मरूपपरिणत पुद्गलद्रव्यात्मक शरीर का भी कर्ता नहीं है। तथ्यप्रकाश--- (१) जीवके परिणामको निमित्तमात्र करके पुद्गलकाय स्वयं ही कर्म रूपसे परिणमते हैं । (२) अब वे पुद्गलकाय उस जीवके शरीरान्तरके संक्रमणका प्राश्रय करके स्वयं ही शरीर हो जाते हैं, शरीरके बननेमें निमित्तरूप हो जाते हैं। (३) शरीररूप की पुद्गलपिण्ड है, कि वे ही शरीररूप होते हैं, अतः शरीरका कर्मा पुद्गलपिण्ड हो है । N) प्रात्मा पुद्गल कर्मके उदयसे होने वाले पुद्गलद्रव्यात्मक शरीरका कर्ता नहीं है । (५) मात्मा अपने ही परिणमनका का है, अन्यका नहीं । सिद्धान्त---(१) पुद्गलपिण्ड ही शरीरका कर्ता है । (२) आत्मा परद्रव्यात्मक मरीरका कर्ता नहीं है। दृष्टि---१ - उपादानदृष्टि (४९ब) १२- प्रतिषेधक शुद्धनय (४६अ। प्रयोग—शरीरका कर्ता पुद्गल पिण्ड को ही निश्चित कर शरीरसे अत्यन्त विविक्त मममwhi v inee ti. ...........
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy