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________________ प्रवचनसारः मात्मनोऽपि ज्ञानवत् सर्वगतत्वं न्यायायातमभिनन्दति - सव्वगदी जिवसहो सव्ये विय तरगया जगदि यहा । मयादो यजिणो विसयादो तस्स ते भणिया ||२६|| ४३ सर्वगत जिनवृषभ है. क्योंकि सकल अर्थ ज्ञानमें गत है । जिन ज्ञानमय है श्रुतः, वे सर्व विषय कहे उसके ॥ २६ ॥ 1 ariat frequeः सर्वेपि न सद्मता जगत्यर्थाः । ज्ञानमयाजिनो विषयत्वाम्यते भणिताः ॥२६॥ ज्ञानं हि त्रिसमयावच्छिन्न सर्वद्रव्यपर्यायरूपव्यवस्थितविश्र्वज्ञेयाकारानाक्रामत् सर्वगतमुक्तं तथाभूतज्ञानमयीभूय व्यवस्थितत्वाद्भगवानपि सर्वगन एव । एवं सर्वगतज्ञानविषयत्वानामसंज्ञ -- सव्वगज जिणवराह सब विगतग्मय जगद अहू णाणमय जिण विषय त व मंदि धातुसंज्ञ.... मण कथने । प्रातिपदिक सर्वगत जिनपर सर्व अपि च जगत् अर्थ ज्ञानमयत्व जिन विषयत्व तत् भणित। मूलधातु भण शब्दार्थः । उभयपदविवरण - लब्बगओ जिणवसह सर्वगतः जिनवृषभ:-अब ज्ञान की भाँति आत्माका भी सर्वगतपना न्यायसे प्राप्त हुआ, यह बतलाते हैं[जनवृषभः ] जिनवर [ सर्वगतः ] सर्वगत है [च] और [जगति ] अगल के [सर्वे अपि श्रर्थाः ] सर्व ही पदार्थ [ तद्गताः ] जिनवरगत हैं। [ जिनः ज्ञानमयत्वात् ] जिन ज्ञानमय है श्रतः [च] और [ते] वे याने सब पदार्थ [विषयत्वात् ] ज्ञानके विषय हैं इस कारण सब पदार्थ [तस्य ] जिनवरके विषय [ भरिणताः ] कहे गये हैं । तात्पर्य -- ज्ञानकी व्यापकता होनेसे ज्ञानमय प्रात्माको भी व्यापक कहा गया है । टीकार्थ--- ज्ञान विकालके सर्वद्रव्य पर्यायरूप प्रवर्तमान समस्त ज्ञेाकारोंको प्राक्रमता हुम्रा अर्थात् जानता हुग्रा सर्वगत कहा गया है। और ऐसे सर्वगत ज्ञानके विषय होनेसे सर्वगत ज्ञानसे प्रभिन्न उन भगवानके वे विषय हैं, ऐसा शास्त्रमें कहा होनेसे सर्व पदार्थ भगवान गत ही हैं अर्थात् भगवानमें प्राप्त हैं । वहां निश्वयनयसे ग्रनाकुलतालक्षण सुखके संवेदनका अधि ष्ठापनेसे सहित श्रात्माके बराबर हो ज्ञान स्वतत्त्वको छोड़े बिना समस्त ज्ञेयाकारोंके निकट गये बिना, भगवान सर्व पदार्थोंको जानते हुए भी व्यवहारनयसे भगवान सर्वगत हैं ऐसा कहा जाता है तथा नैमित्तिकभूत ज्ञेयाकारोंको आत्मस्थ देखकर सर्व पदार्थ आत्मगत हैं ऐसा उपचार किया जाता है, परन्तु परमार्थतः उनका एक दूसरे में गमन नहीं होता, क्योंकि सर्व द्रव्यको स्वरूपनिष्ठता है । यही क्रम ज्ञानमें भी निश्चित किया जाना चाहिये । प्रसंगविवरण नंतरपूर्व गाथाद्वय में युक्तिपूर्वक ग्रात्मा के ज्ञानप्रमाण होने का सम र्थन किया गया था । अब इस गाथा में ज्ञान द्वारा आत्मा के सर्वव्यापक पनेका कथन किया गया
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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