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________________ सहजानन्दशास्त्रमालायां 525 संसारे स्वभावेनावस्थित इति । यच्चानानवस्थितत्वं तत्र संसार एव हेतुः । तस्य मनुष्यादि. यसापकत्वात् स्वरूपेशीव तथाविधत्वात् । अथ यस्तु परिणममानस्य द्रव्यस्य पूर्वोत्तरदशापरित्यागोपादानात्मक: क्रियास्यः परिणामस्तत्संसारस्य स्वरूपम् ।। १२० ।। संवारत् द्रव्य । मूलधा--अस भुधि । उभयपदविवरण-लम्हा लस्मात्-पंचमी एका 1 दु तु ण नति हति पण पुनः अव्यय । अस्थि अस्ति- वर्तमान अन्य पुरुटा एकवचन त्रिया। कोई कश्चित्-अव्यय अन्तः प्रबमा एकवचन । सहावसमवदिदो स्वभावरामवस्थितः-प्र० एक० । संसारे-सप्तमी एकः। संसारो संसार:-प्र० एक० । किरिया विया-प्र० एक० । संसरमाणरस संसरत:-षष्ठी एक० । दध्वस्स द्रव्यस्थ io | निमक्ति ----संशरणं रासारः। समास-स्वभावे समवस्थितः इति स्वभावसमवस्थितः ।।१२। तात्पर्य-सांसारिक पर्यायों में भ्रमण करने वाला जीव स्थिर एकरूप नहीं रह पाता। टोकार्थ- वास्तव में जीव द्रव्यत्वसे अवस्थित होता मा भी पर्यायोंसे अनवस्थित है, इससे यह प्रतीत होता है कि संसारमें कोई भी स्वभावसे अबस्थित नहीं है और यहाँ जो अन. वस्थितपन्ना है उसमें संसार ही हेतु है; क्योंकि वह संसार मनुष्यादि पर्यायात्मक होनेके कारण स्वरूपसे ही वैसा है । और जो परिणमन करते हुये द्रध्यका पूर्वोत्तर दशाका त्याग ग्रहणात्मक किया नामक परिणाम है सो वह संसारका स्वरूप है। प्रसंगविवरण-----अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि जीव द्रव्यरूपसे अवस्थित होनेपर भी पर्याय झापसे अनवस्थित है। अब इस गाथामें जीवके अनवस्थितपनेका कारण बताया गया हैं। तथ्यप्रकाश--- (१) संसारमें कोई भी जीव स्वभावसे अवस्थित नहीं है । (२) जीव को अनस्थिततामें कारसा संसारभाव ही है। (३) परिणमते हुए जीवद्रव्यका पूर्व विभाव दशाका परित्याग व उत्तरविभावदशाका ग्रहणारूप क्रिया नामक जो परिणाम वही संसारका स्वरूप है। (४) मनुष्यादिविभावपर्यायपरिणतिरूप किया निष्क्रिय निविकल्प शुद्धात्मपरिः पातिसे विपरीत है । (५) नरनारकादिपर्यायरूप संसार स्वभावविघातका कारण है। सिद्धान्त – (१) कर्मवियाकज संसारभावोंसे जीनस्वभाव विघातक भाव होते हैं । दृष्टि-१- उपाधिसापेक्ष नित्याशुद्ध पर्यायाधिकानय (६१)। प्रयोग---अनवस्थित विभावोंसे उपयोग हटाकर सदा अवस्थित चैतन्यस्वरूप अन्तः स्तत्वका उपयोग करना ।।१२०। अब परिणामात्मक संसारमें किस कारशासे पुगलका संबंध होता है कि जिससे वह संसार मनुष्यादि पर्यायात्मका होता है ? इसका यहां समाधान अपने में निरखते हैं— [मात्मा कमसलीमस:] यात्मा कर्मसे मलिन होता हुआ कर्मसंयुक्त परिणाम] कर्मसंयुक्त परिणामको MAHARASHAN mmonsolemale C ANCE
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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