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________________ ४४६ सहजानन्दशास्त्रमालायां मी समस्वपि संसारिषु मोहोपहततथा ज्ञेयनिष्ठेषु सत्सु ज्ञाननिष्ठत्वमूल शुद्धात्मतत्त्व संवे दनसाध्यं सर्वतश्चक्षुस्त्वं न सिद्धय ेत् । श्रथ तत्सिद्धये भगवन्तः श्रमणा आगमचक्षुषो भवन्ति । तेन ज्ञेयज्ञानयोरन्योन्यसंवलनेनाशक्यविवेचनत्वे सत्यपि स्वपरविभागमारचय्य निभिन्न महामोहाः सन्तः परमात्मानमवाप्य सततं ज्ञाननिष्ठा एवावतिष्ठन्ते । अतः सर्वमप्यागमचक्षुषैव मुमुक्षूणां द्रष्टव्यम् ||२३४ | पुनर् सर्वतश्चक्षुषु । मूलधातु सा धृ साधने, चक्षिङ, व्यक्तायां वाचि दर्शने च । उभयपदविवरण आग - मचदद्दू आगमचक्षुः साहू साधुः - प्रथमा एक० इंदियचणि इन्द्रियचक्षूंषि सव्वभ्रुदाणि सर्वभूतानि प्रथमा बहु० | देवा देवा: ओहिचक्त अवधिचक्षुषः सिद्धा सिद्धाः सव्वदोचक्खू सर्वतश्चक्षुषः-प्र [:- प्रथमा बहु० । यच पुण पुनः अव्यय । निरुक्ति-चक्षते इति चक्षुः (चक्ष + उस्) । समास - आगम: चक्षुः येषां आगमचक्षुषः, इन्द्रियाणि चक्षूंषि येषां तानि इन्द्रियचक्षूंषि अवधिः चक्षुः येषां ते अवधिचक्षुषः ॥२३४॥ चक्षुसे स्वपरका विभाग करके, महामोहको भेद डाला है पाकर, सतत ज्ञान निष्ठ ही रहते हैं । जिनने ऐसे वर्तते हुये परमात्माको इससे मुमुक्षुत्रोंको सब कुछ आगमरूप चक्षु द्वारा ही देखना चाहिये । प्रसंगविवरण -- ग्रनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि आगमहीनके मोक्ष नामक कर्मक्षपण संभव नहीं है । अब इस गाथामें बताया गया है कि मोक्षमार्गपर चलने वालोंका श्रागम ही एक चक्षु है । तथ्यप्रकाश - ( १ ) भगवान ही सर्वतश्चक्षु हैं, क्योंकि भगवान शुद्ध ज्ञानमय हैं सो सब श्रोरसे समस्त पदार्थोंको एक साथ स्पष्ट जानते हैं । (२) भगवानको छोड़कर शेष सभी जीव इन्द्रियचक्षु हैं, क्योंकि उनको दृष्टि मूर्त द्रव्योंमें ही लगी रहती है और इन्द्रियोंके निमित्त से जानते हैं । (३) देव अवधिचक्षु हैं, वे सूक्ष्म मूर्त द्रव्योंको भो जानते हैं, तो भी मात्र रूपो द्रव्यको हो देखते है अतः इन्द्रियचक्षु जीवों में इनमें अन्तर नहीं है और ये देव भी इन्द्रियचक्षु ही हैं । ( ४ ) सर्वतश्चक्षुपना ज्ञाननिष्ठनासे अर्थात् ज्ञानमें विशुद्ध ज्ञानस्वरूप ही रहे ऐसी अन्तर्वृत्तिसे होता है। (५) ज्ञाननिष्ठता शुद्धात्मतस्वके संवेदनसे होती है । (६) संसारो जीव ज्ञेयनिष्ठ होनेसे सर्वतश्चक्षु नहीं होते । (७) संसारी जीवोंकी ज्ञेयनिष्ठताका कारण उनका मोह से आक्रान्त होना है । (८) सर्वतश्चक्षुपने की सिद्धिके लिये ज्ञाननिष्ठ होनेके लिये श्रमण श्रा गमचक्षु बनते हैं अर्थात् आगमसे स्वपरका परमात्मस्वरूपका निर्णय करते हैं । ( ६ ) यद्यपि इस समय ज्ञेय और ज्ञानका अन्योन्यसंवलन होनेसे ज्ञेय ज्ञानका बिभागका वरना अशक्य है तो भी श्रमण स्वपर भेदविज्ञान पाकर मोहको नष्ट कर परमात्मस्वरूपको प्राप्त कर निरंतर ज्ञाननिष्ठ हो रहा करते हैं । (१०) श्रागमज्ञानकी महिमाको जानकर श्रमणको सब कुछ
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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