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प्रवचनसार...सप्जदमाङ्गी टीका अय पुनरपि प्रकृतमनुसृत्यातीन्द्रियज्ञान सर्वज्ञत्वेनाभिनन्दति--
जं तकालियभिदरं जाणदि जुगवं ममतदो सव्वं । प्रत्थं विचित्तविसमं तं गाणं खाइयं भणियं ॥४७॥ जो भूत भावि साम्प्रल, विषम विचित्र सब अर्थको जाने ।
युगपत् समंतसे उस को क्षायिक ज्ञान बतलाया ।। ४७ ।। यत्तालालिकामतर जानाति गुनगानमन्ततः राबंभ । अ विविधिम तत् भानं क्षायिक भणितम् ।। ४७॥
। तत्कालकलितवृत्तिकमतीतोदकंकालकलितत्तिक चाप्येकाद एवं समन्ततोऽपि सकलम। ध्यर्थजाले पृथवत्ववृत्तस्वलक्षगालक्ष्मी कटाक्षितानेकप्रकारव्यतिवचित्र्यमितरेतरविरोधधापितासमान जातीयत्वोहामितवैषम्य क्षायिक जानं किल जानीयात् । तस्य हि क्रमप्रवृत्मिहतभूतानां
नामसंज्ञ..... तत्कालिग दर जुगवं गमतदो मब अत्थ विचित्तचिलम त गाण खाइग भणिय । धातुसंज्ञ-जाण अवबोधन, भण कथने । प्रातिपदिक---- यत् तात्कालिक इतर युगपत् ममन्ततः मन्त्र अर्थ विचित्रविएम तत् ज्ञान क्षायिक भणित । मूलधातु ----शा अवबोधने, भण शब्दार्थः । उभयपदविवरण-जं
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दृष्टि-१-- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय [२४] ।
प्रयोग-सर्व आपदावोंका मूल कर्मविपाकप्रतिफलनको अपनाना है, सो निरापद होने के लिये कमसे, कर्मविपाकसे व कर्मविपाकप्रतिफलनसे भिन्न अविकार ज्ञानमात्र अपनेको निरखनेका पौरुष करना ।।४६॥
अब फिर भी प्रकररगत विषयका अनुसरण करके अतीन्द्रिय ज्ञानको सर्वज्ञपनेसे अभिनन्दते हैं याने अतीन्द्रिय ज्ञानको सर्वज्ञताका गुरणानुवाद करते हैं- [यत्] जो [युगपद् ] एक ही साथ समन्ततः] सर्व प्रात्मप्रदेशोसे [तात्कालिक] तात्कालिक [इतरं] या प्रतात्कालिक विचित्र विषम] अनेक प्रकारके और मूर्त, अमर्त प्रादि असमान जातिके [ सर्व प्रथं] समस्त पदार्थोंको [जानाति ] जानता है [तत् ज्ञान] उस ज्ञानको [क्षायिकं भरिगतम्] दायिक कहा गया है।
टीकार्थ----वास्तव में जिनमें पृषक रूपसे वर्तते स्वलक्षणरूप लक्ष्मीसे पालोकित अनेक प्रकारों के कारण वैचित्र्य प्रगट हुआ है और जिन में परस्पर विरोधसे उत्पन्न होने वालो असमानजातीयताके कारण वैषम्य प्रगट हुया है, ऐसे वर्तमान में वर्तले तथा भूत भविष्यत् कालमें वर्तने वाले समस्त पदार्थोंको सर्व आत्मप्रदेशों से एक ही समय में क्षायिक ज्ञान जान लेता है। वह क्षायिक ज्ञान क्रमप्रवृत्तिके हेतुभूत, क्षयोपशम अवस्थामें रहने वाले ज्ञानावरणीय कर्मपुद्गलोंका अत्यन्त प्रभाव होनेसे वह तात्कालिक या अतात्कालिक पदार्थसमूहको समकाल में ही