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________________ सहजानन्द शास्त्रमालायां निविधातेन शुद्धस्वभावेनैवावतिष्ठते । तथा च सर्व एवं भूतग्रामाः समस्त बन्धसाधनशून्यत्वा दाजवंज़वाभावस्वभावतो नित्यमुक्तता प्रतिपद्येरन् । तन्त्र नापगम्यते । अात्मनः परिणाम. __.धर्मत्वेन स्फटिकस्य जपातापिच्छरागस्वभावत्ववत् शुभाशुभस्वभावल्यधोतनात् ॥४६॥ स्वयं वि आग-अव्यय । सो सः सुही शुभः असुही अशुभः आदा आत्मा संसारो संसार:-प्रथमा एक० । महावेण स्वभावेन-तृतीया एक० । सन्वेसि गवेषां जीबकायाणं जीवकायानां-पष्ठी बहु । सददि भवति बिज्जादि विद्यते वर्तमान लद अन्य पुरुष एकवचन त्रिया । निरुक्ति--शोभनं भः, संसरणं संसारः। समास.....स्थस्य भावः स्वभावः ।। ४६ ।। प्रात्मा स्वयं परिणमित नहीं होता, तो यह प्रसंग आता कि वह आत्मा सदा ही सर्वथा निविधात शुद्ध स्वभावसे ही रहता है । और इस प्रकार सभी जोक्समूह समस्त बन्धकारणोंसे रहित प्रसक्त होनेसे संसारके अभावरूप स्वभावके कारण नित्यमुक्तताको प्राप्त हो जायेंगे, किन्तु ऐसा स्वीकार नहीं किया जा सकता; क्योंकि स्फटिकमणि के जपाकुसुम और तमालपुष्प के रंग-रूप स्वभावपले की तरह आत्माके परिणामधर्मपना होनसे शुभाशुभ स्वभावयुक्तता प्रकाशित होती है। प्रसंगविवरण-----अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि अरहंत भगवानके पुण्यविपाकवश सातिशय विहारादि क्रिया होती हैं, किन्तु उनका बह पुण्यविपाक स्वभावविधात न कर सकनेके कारमा अकिचित्कर ही है। अब इस गाथामें बताया गया है कि संसारी जीवों की चेष्टायें केवली भगवानको तरह स्वभावविघात न कर सकें ऐसी नहीं हैं। तथ्यप्रकाश-....(१) प्रात्माको स्वभाव विकाररूप परिणामनेका नहीं है । (२) मोहकर्मबद्ध जीवमें विकाररूप परिणमने की योग्यता हो जाती है । (६) मोहकमबद्ध जीव कर्म विपाकका प्रतिफलन होनेपर शुभ अशुभ भावसे स्वयं न परिणमे तो स्वयं सदा शुद्धदशामें । रहा कहलायगा तब वो सभी प्राणो नित्य मुक्त हो गये जो कि प्रत्यक्षविरुद्ध हैं, फिर उपदेश व तप ज्ञान प्रादिकी आवश्यकता ही क्यों रहेगी ? (५) उपाधिसम्पर्क में स्फटिक मणिकी तरह कर्मविपाकसम्पर्क में जीव शुभ अशुभ विकाररूप खुद परिणम जाता है । (६) स्वभावदृष्टिसे कोई भी जीव शुभ अशुभ भावरूप नहीं परिणमता । (७) पर्याय दृष्टि में अशुद्धनिश्चयन यसे जीव शुभाशुभ भावरूप परिणमता ही ज्ञात होता है । (-) जैसे केवली भगवान के शुभाशुभ भावोंका अभाव है ऐसे ही सब जीवोंके शुभाशुभ भावोंका अभाव नहीं समझ लेना । (8) राग द्वेष मोहसे उपरजक संसारी जीवोंकी चेष्टायें स्वभावविघातक, बन्धकारी व सुख दुःखका अनुभव कराने वाली होती हैं । सिद्धान्त – (१) कर्मोदयविपाकके सान्निध्यमें जीव विकाररूप परिणमता है ।
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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