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________________ १०१ प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका परिच्छेयाः शक्तेन्तरङ्गायाः काकाक्षितारकवत् क्रमप्रवृत्तिवशादनेकतः प्रकाशयितुमसमर्थत्वासत्स्वपि द्रव्येन्द्रियद्वारेषु न यौगपद्येन निखिलेन्द्रियार्थावबोधः सिद्धचेत्, परोक्षत्वात् ॥५६॥ षष्ठी बहु० 1 ते तानि अत्रखा अक्षाणि प्र० बहु० । ते तानि द्वितीया बहु० | होति भवन्ति हतिगृह्णन्ति-वर्तमान लद अन्य पुरुष बहुवचन क्रिया । निरुक्ति-स्पर्शन स्पर्शः रसनं रसः, गन्धनं गन्ध:, वर्ण वर्गः शब्दनं शब्दः, अक्ष्णोति इति अक्षः ॥ ५६ ॥ रसना इन्द्रियके द्वारा ग्रहणयोग्य हैं रसप्रधान पुदगल । (३) प्राणइन्द्रियके द्वारा ग्रहण योग्य हैं गन्धप्रधान पुद्गल । (४) चक्षुरिन्द्रियके द्वारा ग्रहणयोग्य हैं प्रधान पुद्गल । ( ५ ) क इन्द्रियके द्वारा ग्रहणयोग्य हैं शब्दपरिरात पुद्गल । ( ६ ) इन्द्रियाँ करती हैं सो ये ग्रपने विषयमें भी युगपत् प्रवृत्ति नहीं कर सकती, वाली क्षयोपशमन शक्ति होती ही नहीं है । ( ७ ) जैसे कोवाकी आँख की पुतलीका उपयोग दोनों खोंसे हो रहा जंचता है, ऐसे ही स्थूलदृष्टिसे क्षयोपशमनशक्तिजन्य ज्ञानका उपयोग शीघ्र बदलने से इन्द्रियोंके विषय एक साथ ज्ञात हो रहे जचते हैं, परन्तु वस्तुतः वे क्रमसे ही ज्ञात होते हैं । ( ६ ) इन्द्रियज्ञान हीन एवं क्षो महेतु होने से हेय है । मात्र अपने विषयको ग्रहण क्योंकि युगपत् ग्रहण कराने सिद्धान्त - ( १ ) इन्द्रियज्ञान हीन व पराधीन होनेसे अशुद्ध है । दृष्टि - - १ - अशुद्ध सुक्ष्म ऋजुसूत्र प्रतिपादक व्यवहार [८] 1 विभावगुण व्यञ्जन पर्यायदृष्टि [२१३] । प्रयोग --- इन्द्रियज्ञानको पूर्ण व हेय जानकर उससे उपेक्षा करके सहज ज्ञानकी दृष्टिके बलसे ज्ञानका सहज परिणमन होने देना ।। ५६ ।। करते हैं [तानि अक्षारिण] वे ग्रात्मस्वभावरूप [न एवं मणिश्रात्माका [ उपलब्धं ] उपलब्ध na इन्द्रियज्ञान प्रत्यक्ष नहीं होता, यह निश्चित इन्द्रियाँ [परद्रव्यं] परद्रव्य हैं [ आत्मनः स्वभावः इति ] वे तानि ] नहीं कहे गये हैं । [तैः ] उनके द्वारा [ श्रात्मनः ] ज्ञान [प्रत्यक्षं] प्रत्यक्ष [ कथं भवति ] कैसे हो सकता है ? तात्पर्य - श्रात्मस्वभाव न होनेसे परद्रव्यरूप इन्द्रियों द्वारा प्राप्त हुथा ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं हो सकता । टीकार्थ --- केवल आत्माके प्रति हो नियत ज्ञान वास्तव में प्रत्यक्ष है । परन्तु भिन्न प्रस्तित्व वाली होने से परद्रव्यत्वको प्राप्त ग्रात्मस्वभावको किचिन्मात्र स्पर्श नहीं करती हुई इन्द्रियोंके द्वारा उपलब्धि करके उत्पन्न हो रहा इन्द्रियज्ञान आत्माके प्रत्यक्ष नहीं हो सकता । प्रसंगविवरण - अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि इन्द्रियज्ञान अपने संकुचित विषय में भी एक साथ प्रवृत्त न होनेसे हेय है । अब इस गाथामें निश्चय किया गया है कि
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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