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________________ न 888 HASHISH । या wwwWERIKA प्रवचनसार--सप्तदशांगी टीका १५१ अथ मोहक्षपणोपायान्तरमालोचयति-- जिणसत्थादो अछे पञ्चक्खादीहिं बुज्झदो गियमा । खीयदि मोहोवचयो तम्हा सत्थं समधिदब्बं ॥८६॥ जिन शास्त्रोंसे अर्थोंके प्रत्यक्षादि रूप ज्ञाताके । मोह नशे इस कारण शास्त्रपाठन नित्य प्रावश्यक ॥५५॥ जिनशास्त्रादर्थात प्रत्यक्षादिभिर्बुध्यमानस्य नियमात् । क्षीयते मोहोपचयः तस्मात् शास्त्रं समध्येतव्यम् ।। । यत्किल द्रव्यगुरणपर्यायस्वभावनाहतो ज्ञानादात्मनस्तथा मानं मोहक्षपणोपायल्वेन प्राक प्रतिपन्नमः । तत् खलूपायान्तरमिदमपेक्षते । इदं हि विहितप्रथम भूमिकासक्रमणस्य सार्वज्ञोषज्ञलया सर्वतोऽप्यबाधितं शाब्दं प्रमाणमाक्रम्य काइतस्तत्संस्कारस्फुटीकृत नि शिष्टमंवेदनशक्ति. संपदः सहृदयहृदयानंदोभेददायिना प्रत्यक्षेशान्येन बा तवविरोधिना प्रमाण जालेन सत्त्वतः नामसंज्ञ--जिणसाथ अट्ठ पच्चवलादि बुज्मद णियम मोहावनय त सत्य समविदल्न । धातसं..... ज्म अवगमने, विख क्षये। प्रातिपदिक--जिनशास्त्र अर्थ प्रत्यक्षादि बुध्यमान नियम मोहोपचय तत् शास्त्र समधितव्य । मूलधातु.. बुध अवगमने, दिक्ष आये, अधि इन अध्ययने । उयपदविवरण-जिणसत्थादो सिद्धान्त----(१) मोह प्रात्माके सम्यक्त्व गुणकी विकृत दशा हैं । (२) राग द्वेष मात्माक चारित्रगुणकी विकृत दशा है । दृष्टि---१, २- विभावगणच्यजनपर्यायदृष्टि (१२३) । प्रयोग---अपने में मोह राग द्वेषोंके चिन्होंसे मोह राग एको परख परखकर निज सहाज चित्स्वभावकी दृष्टि के लिये पौरुष करके मोह रागद्वेषका क्षय करना ।। ८५ ।। अब मोहक्षयका दूसरा उपाय विचारते हैं----[जिनशास्त्रात्] जिनशास्त्रसे [प्रत्यक्षादिभिः प्रत्यक्षादि प्रमाणों द्वारा [अर्थान] पदार्थोंको [बुध्यमानस्य] जानने वालेके [नियमात] नियमसे. मोहोपचयः] मोहसमूह [क्षीयते क्षय हो जाता है [तस्मात् ] इसलिये शास्त्र] शास्त्र [समध्येतव्यम्] सम्यक् प्रकारसे अध्ययन किया जाना चाहिये । तात्पर्य----जिनागमसे प्रत्यक्षादि प्रमाणों द्वारा वस्तुस्वरूपका सही ज्ञान करना भोहक्षयका उपाय है। टोकार्थ-द्रव्य-गुण-पर्याय स्वभावसे अरहतके ज्ञान द्वारा प्रात्माका उस प्रकारका ज्ञान मोहक्षयके उपाय के रूपसे पहले प्रतिपादित किया गया था, वह वास्तव में इस उपायान्तर की अपेक्षा रखता है-- प्रथम भूमिकामें गमन किया है जिसने, ऐसे तथा सर्वज्ञप्रणीत होनेसे सर्व प्रकारसे EVAN m mome m aintaanemamaniasiskulikanpuppinitionshionairealndiansanine ASS S RUM
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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